अथ श्री महाभारत कथा ...
कथा है पुरुषार्थ की ,ये स्वार्थ की , परमार्थ की
सारथि जिसके बने श्रीकृष्ण भारत पार्थ की
शब्द दिग्घोषित हुआ...
जब सत्य सार्थक सर्वथा
यदा-यदा हिधर्मस्य
ग्लानिर्भवति भारता
अभ्युत्थानं अधर्मस्य
तदात्मानं सृजाम्यहम
परित्राणाय साधुनाम
विनाशाय च दुष्कृताम
धर्म्संस्थाप्नाय
संभवामि युगे युगे
भारत की है कहानी , सदियों से भी पुरानी
है ज्ञान की ये गंगा , ऋषियों की अमर कहानी
ये विश्व भारती है ,वीरों की आरती है
है नित नयी पुरानी ,भारत की ये कहनी
Zeal
दिब्य जी नमस्ते.
ReplyDeleteये कहानी नहीं यथार्थ है दुनिया ऐसा कुछ भी नहीं जो महाभारत में न हो ये ग्रन्थ राष्ट्र्बाद का उत्कृष्ट ग्रन्थ है .
बहुत-बहुत धन्यवाद ,इस पोस्ट के लिए.
जय श्री कृष्णा !
ReplyDeleteवीरों की तो दुर्गति हो रही है...
ReplyDeleteसुंदर पोस्ट
ReplyDeletedirector always deal ,drive and provide the fine and fare path , then after called krishna as a lord .... thanks ji
ReplyDeleteआज बापू का जन्म दिन है तो बापू को याद करते हुए उनके ही विचार कोट कर रहा हूं, आपके इस पोस्ट को पढ़कर याद आ गए -
ReplyDelete“गीता हमारी सद्गुरु रूप है, माता रूप है और हमें विश्वास रखना चाहिए कि उसकी गोद में सिर रखकर हम सही-सलामत पार हो जाएंगे।
जो मनुष्य गीता में से अपने लिए आश्वासन प्राप्त करना चाहे तो उसे उसमें से वह पूरा-पूरा मिल जाता है। जो मनुष्य गीता का भक्त होता है, उसके लिए निराशा की कोई जगह नहीं है, वह हमेशा आनंद में रहता है।” - मो.क. गांधी
अति सुंदर.
ReplyDeleteप्रेरक श्लोक पढ़कर अच्छा लगा.
ReplyDeleteखूबसूरत रचना
ReplyDeleteग़ज़ल पसंद आए तो कृपया LIKE करें
सिद्धों ने सत्य उसे माना जो काल पर आधारित नहीं है... यदि भारत 'इंडिया' को दर्शाता है तो 'महाभारत' सम्पूर्ण संसार को, अर्थात, गंगाधर / चंद्रशेखर / विषधर / नील कंठ महादेव आदि सहस्त्र नाम वाले अनादि-अनंत शिव को, शक्ति रुपी परमात्मा को..
ReplyDelete"या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता /// नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः .... आदि, आदि....
फिर मैं कौन हूँ?
"शिवोहम! तत त्वम् असी"! अर्थात हम सभी अनादि-अनंत आत्माएं हैं, विभिन्न साकार प्रकट होते शरीर मिथ्या है, बहुरूपी कृष्ण (काला, बाँसुरीवाला :)
बहुत ही बढ़िया
ReplyDeleteयुवा पहल
जय भारत !! वीरता और देशभक्ति को नमन !!
ReplyDeleteबस अब भगवान का ही इंतजार है।
ReplyDeleteभारत की ये कहानी सुनकर, महाभारत का यह गीत सुनकर रोम रोम खिल उठता है|
ReplyDeleteमहाभारत, ये श्री कृष्ण की कथा है|
महाभारत, ये भारत पार्थ अर्जुन की कथा है, जिसके सारथि श्री कृष्ण बने|
मुझे गर्व है मेरे भारत पर, मुझे गर्व है महाभारत पर|
महाभारत में धर्म की स्थापना के लिए श्री कृष्ण का आविर्भाव है| श्री कृष्ण, जिन्होंने अर्जुन को धर्म की स्थापना के लिए युद्ध लड़ने के लिए प्रेरित किया|
कथित अहिंसावादियों को भी इससे सीख लेनी चाहिए|
कुछ पंक्तियाँ, इनके लिए-
मन करे सो प्राण दे, जो मन करे सो प्राण ले
वही तो एक सर्व शक्तिमान है
कृष्ण की पुकार है, ये भागवत का सार है
कि युद्ध ही तो वीर का प्रमाण है
कौरवों की भीड़ हो, या पांडवों का नीड़ हो
जो लड़ सका है वो ही तो महान है
दिव्या दीदी, बहुत सुन्दर प्रस्तुति
अच्युतम केशवं सुनकर तो परमानंद ही आ गया|
श्री लाल बहादुर शास्त्री जी व गांधी जी के जन्मदिवस पर हार्दिक शुभकामनाएं|
जय श्री कृष्ण
जय महाभारत
श्री लाल बहादुर शास्त्री जी व गांधी जी के जन्मदिवस पर हार्दिक शुभकामनाएं|
ReplyDeletehttp://mushayera.blogspot.com/
I used to love this song when it used to play at the beginning of Mahabharata serial :D
ReplyDeleteFantastic read... n last lines were superb :)
जिन्हें सबसे ज्यादा याद करना चाहिए उन्हें ये देश भूल जाता है और 'थोंपे गए देश के कथित बाप' का गुणगान करता है...
ReplyDeleteशास्त्री जी की ईमानदारी की मिसाल भारतीय राजनीति में कहीं नही है.. जब
उनका देहांत हुआ तो वो अपने सर पर कर्जा छोड़ कर गए थे, कार ऋण.. उस कार का
कर्जा जो उन्होंने खरीदी थी... वो अपने सच्चाई, आदर्शों और सिद्धांतों के
लिए जीए और देश के लिए मरे... मैं माँ भारती के इस सपूत को शत शत नमन करता
हूँ...
सुन्दर जानकारी ... शुक्रिया ...
आपको नव रात्री की बहुत बहुत शुभकामनाएं .
बहुत बढिया प्रस्तुति।
ReplyDeleteलाल बहादुर शास्त्री जी की जयंती पर उनको नमन।
गांधी जी को नमन।
बहुत ही खुबसूरत प्रस्तुति............
ReplyDeleteलाल बहादुर शास्त्री जी की जयंती पर उनको नमन।
गांधी जी को नमन।
आपने आज का वातावरण कृष्णमय कर दिया है. क्यों भला? 'अच्युतम केशवम्....' जैसा बढ़िया भजन सुनवाने के लिए आभार.
ReplyDelete‘संभवामि युगे-युगे।‘
ReplyDeleteआज यदि श्रीकृष्ण होते तो संभवतः यह कहते-
‘संभवामि दिने-दिने‘
हे श्रीकृष्ण ! आपकी आवश्यकता प्रतिदिन है।
मेरे विचार से श्रीकृष्ण प्रतिदिन क्या, बल्कि प्रतिपल अवतरित हो रहे हैं, वे तो यहीं हैं, हमारे चतुर्दिक !
बहुत ही गम्भीर गूंजयुक्त था यह महाभारत का शिर्षकगीत!! शंखध्वनी के साथ!!
ReplyDelete"यहीं पर तो 'हिन्दुस्तान' मार खा गया"...!
ReplyDeleteनिराकार ब्रह्म. योगेश्वर कृष्ण, के कण-कण में छोड़े हुए संकेत समझने में असमर्थता...
कलियुग में आठों दिशाओं में व्याप्त 'विष' के कारण, जो देवता और राक्षसों के मिलजुल कर क्षीर-सागर मंथन के कारण उत्पन्न हुआ था...
और, केवल चौथे चरण में ही अमृत की प्राप्ति हो पायी थी...
और तभी से अनंत काल-चक्र संभव हो पाया था...
"... है ज्ञान की यह गंगा / 'ऋषियों' की अमर कहानी..."... :)
बहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति ....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्तथा सार्थक पोस्ट , आभार
ReplyDeleteबढ़िया!
ReplyDelete--
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और यशस्वी प्रधानमंत्री रहे स्व. लालबहादुर शास्त्री के जन्मदिवस पर उन्हें स्मरण करते हुए मेरी भावपूर्ण श्रद्धांजलि!
इन महामना महापुरुषों के जन्मदिन दो अक्टूबर की आपको बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!
प्रेरक रचना
ReplyDeleteसार्थक/प्रेरक प्रस्तुति....
ReplyDeleteसादर...
bahut sundar prastuti.bhaktimay kar diya.abhar.
ReplyDeleteआपकी पोस्ट ब्लोगर्स मीट वीकली (११) के मंच पर प्रस्तुत की गई है /आप आइये और अपने विचारों से हमें अवगत कराइये/आप इसी तरह मेहनत और लगन से हिंदी की सेवा करते रहें यही कामना है /आपका
ReplyDeleteब्लोगर्स मीट वीकली
के मंच पर स्वागत है /जरुर पधारें /
'स्वतंत्र भारत' के झंडे में भी संकेत छिपा है - एक अकेले ओंकार के प्रतिबिम्ब 'नीलाम्बर कृष्ण' / 'नीलकंठ महादेव', 'भोलेनाथ शिव' / विष्णु के प्रतिनिधि की केंद्र में उपस्थिति का...
ReplyDeleteतीन कम्पाउंड रंगों से बना 'तिरंगा' और उसके बीच पहले एक चरखा था, परतंत्र बाजुओं की एकता का द्योतक, जिसे स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात 'भौतिक विकास' को दर्शाता मशीनों का चक्र (बाजुओं, 'स्कंध' अर्थात पार्वती पुत्र कार्तिकेय को आराम देते)...
सबसे ऊपर का रंग, पीले और लाल रंगों के योग से बना; बीच में सफ़ेद (श्वेत) इंद्रधनुष के सात रंगों के अतिरिक्त अन्य कई शक्तियों के योग से बना; और नीचे, हरा रंग, जो पीले और नीले रंगों के योग से बना है...
इस प्रकार कहा जा सकता है केवल पीला रंग ही केवल पूरे झंडे पर छाया हुआ है (पीताम्बर कृष्ण/ अमृत दायिनी चन्द्रमा, पार्वती, उत्तर दिशा का राजा अर्थात दिग्गज, विष्णु / शिव को हिमालय पर्वत में पश्चिम से पूर्व, उनके शक्ति पीठ के माध्यम से संकेत छोड़ गए) .. और प्राचीन योगी सब रंगों में पीले रंग को 'गुरु' जान हमारे भारतीय भोजन में भी हल्दी का उपयोग अनादि काल से चला आ रहा है...और इसे शुभ मानते हुए 'हाथ पीले' करने का चलनं भी है... kintu लाल रंग को भी नहीं भूले, माँ काली की लाल जिव्हा, संहारकर्ता शिव के ह्रदय में जिसका निवास है... :)
सार्थक प्रस्तुति . आभार
ReplyDeleteबचपन में टीवी पर इस संगीत का जादू था और कई घरों की ताक झांक करके महाभारत देखता था।
ReplyDeleteयथार्थ।
दिव्या जी आपने तो उन पुराने दिनों की याद दिला दी जब महाभारत सीरियल दूरदर्शन पर कई सप्ताहों या लगभग दो वर्षों तक दिखाया गया था . सप्ताह भर इस धारावाहिक की प्रतीक्षा रहती थी तथा इस के प्रसारण की अवधि तक सब काम बंद हो जाते थे . लोकप्रियता में इसने रामायण को भी पीछे छोड़ दिया था. महाभारत महँ भारत का ही ग्रन्थ है परन्तु अब इस महानता को कुछ ग्रहण सा लग गया लगता है.
ReplyDeleteसामयिक , सुंदर पोस्ट !
वाह ...बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ... शुभकामनाएं ।
ReplyDeleteबहुत सार्थक !
ReplyDeleteवाह! बहुत सुन्दर.
ReplyDeleteनवरात्रि पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ.
बहुत अच्छी प्रस्तुति,पढ़ रहा था तो अपने आप ही महेंद्र कपूर साहब का गया महाभारत का title song मन में बजने लगा
ReplyDeleteवाकई बेहद ऊर्जा व प्रेरणा से भरपूर है
महा - भारत
ReplyDeleteआभार
प्रेरक श्लोक...
ReplyDeleteआपने हिंदी ब्लॉगिंग में सरगर्म नेक और बद ताकतों को खूब पहचाना है,
ReplyDeleteअच्छे काम वक्त के साथ अपनी अच्छाई जाहिर करते ही हैं, किसी की मुखालिफत इसके आडे न आ पाएगी,
बहुत सुंदर ...
ReplyDeletemahabharat serial ke dino ki yaad dila di....bartmaan jeewan ke pariprekshy me to aisi sthiti ho hi gayi... lekin mahabhart ke samay aaur ab ke samay me bada fark ho gaya hai... kam se kam dharm dhwaja ke sath dharmik log the aaur adharm dhwaja ke sath adharmik log the ...lekin ab to samjhna hi muskil ho gaya hai ki dharm dhwaja ke adharmi hai ya dharmi...jab sab kuch spast tha tab to arjun ko itna samjhana pada....aaj ki parishthitiyon me to bina krishna jaise sarthi ke kuch sambhab hi nahi dikhta
ReplyDeleteयदि 'सत्य' जानने का कोई आज, वर्तमान में भी, प्रयास करे तो जान सकता है कि बच्चा जब पैदा होता है तो वो ज्ञान उसके भीतरी शरीर में 'हिन्दू' मान्यतानुसार होते हुए भी, (अर्थात जो बाहरी संसार में है वो ही भीतर शरीर के अन्दर भी है - क्यूंकि मानव मिटटी का बना हुआ ब्रह्माण्ड की प्रतिमूर्ती है), वो बहिर्मुखी होने के कारण बाहरी संसार से, काल और स्थान के अनुसार, शनै शनै ग्रहण करता चला जाता है...और युग के अनुसार किसी एक सीमा तक ही अपने सीमित जीवन काल में ज्ञान ग्रहण कर पाता है... ("Every one rises to his level of incompetence")...
ReplyDeleteवो हमारे बीच इंसानी रूप में हैं
ReplyDeleteइसी को हमारे ज्ञानी-ध्यानी पूर्वजों ने यह कह कर समझाया कि हमारा बाहरी शरीर मिटटी का बना हुआ है, जो मिटटी में ही मिलना है सीमित जीवन काल के बाद... अर्थात सूर्य से ले कर शनि ग्रह तक, सौर-मंडल के नौ सदस्यों के सार से बना हुआ है... केवल आदमी ही नहीं, बल्कि पेड़-पौधे, सभी प्राणी...
ReplyDeleteऔर हमारे गैलेक्सी के केंद्र में अवस्थित निराकार, शक्ति रूप, सुपर गुरुत्वाकर्षण शक्ति के क्षेत्र, अनंत कृष्ण अर्थात शून्य के भीतर ही समाया है, जिसे रूह अथवा आत्मा कहा गया... यानि सभी साकार शक्ति और शरीर के योग से बने...
जिस कारण प्रत्येक प्राणी / व्यक्ति को कृष्ण का रूप माना गया...
लेकिन हर काल में केवल एक ही सर्वोच्च आत्मा संभव है, वो भी केवल मानव रूप में, भगवान्, परमात्मा की सर्वोच्च कृति...
उसे पुरुषोत्तम कहा गया... द्वापर में 'कृष्ण', त्रेता में 'राम', और सत युग में 'शिव' - जिनकी अर्धांगिनी राधा, सीता और पार्वती (दुर्गा भी) कहा गया... जो प्रतिबिम्ब हैं हमारी धरती और इसी से उत्पन्न चन्द्रमा के... जो शक्ति रूप से आरम्भ कर अमृत अथवा अनंत हो गए साकार रूप में भी...
और हर आम व्यक्ति की स्थिति को किसी भी युग में सुधार संभव है... उसे उन्होंने नाम दिए मन्त्र, यंत्र, और तंत्र द्वारा... किन्तु इनका ज्ञान भी वर्तमान में बहुत घट गया है...
सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeletekya khoob kahani hai bharat ki .. kaash yeh sab maharathi wapis ayen is desh main aur fir se wohi time aa jaye ...
ReplyDeleteBikram's
हमारे 'भारतीय' पूर्वज (परमात्मा की कृपा से कहलो) जब 'पश्चिम' में, यूरोप में, जंगलियों का वास था, 'वैदिक काल' में जब 'पूर्व' में 'परम सत्य' को पा लिए, तो मानव जीवन को एक नाटक समान 'सत्य' जान - जो भी मानव जीवन में घट रहा प्रतीत होता है - उसे रामलीला, कृष्णलीला आदि कह गए, और सत्य प्रतीत होते नाटक को कालवश, अर्थात काल-चक्र वश परमात्मा/ आत्मा के ज्ञान को 'परम ज्ञान' जान, विभिन्न काल/ स्थान में मानव जीवन में घटने वाले दृश्य को 'योगमाया' शक्ति और शरीर का योग) जनित जान, प्रत्येक व्यक्ति को 'माया जाल' तोड़ 'परम सत्य' / आत्मा के साथ जुड़ने और सदैव जुड़े रहने का उपदेश दे गए... जिसके लिए श्रद्धा और दृढ विश्वास कि अत्यंत आवश्यकता है, ऐसे विभिन्न काल में, विभिन्न दिशा में भी, अनेक गुरुओं के माध्यम से कहलाया गया है...
ReplyDeleteअजन्मे और अनंत 'परम सत्य' को शक्ति रूप में जान कह सकते हैं कि उन्होंने परमात्मा / आत्मा को शून्य काल से सम्बंधित जाना... जबकि शरीर को अमर / अनंत सौर-मंडल के नौ सदयों के सार से, थोडा बहुत काट पीट के (जैसे गणेश का सर काट उसके स्थान पर हाथी का सर लगा, अथवा रहू का सर काट उसके निर्जीव/ अस्थायी धड़ को केतु कह) विभिन्न सीढ़ीनुमा क्षमताएं विभिन्न ग्रहों, अर्थात सौर-मंडल के सदस्यों को दिया गया जान, उन्होंने चंद्रमा के सार को मानव मस्तिष्क में त्रिनेत्रधारी, गंगाधर शिव अर्थात पृथ्वी के माथे पर दर्शाया (जो हम सभी देसी/ विदेशी देखते आ रहे हैं अनादी काल से), और मूल में गणेश अर्थात मंगल गृह के सार को दर्शा, उसे प्राथमिकता प्रदान करी, और गणेश एवं साकार भाग अर्थात लक्ष्मी को भी 'श्री' कहा (जो सबके नाम के पहले भी परम्परानुसार लगाया जाता है 'हिन्दू' द्वारा वर्तमान में भी और गणपति के मंदिर में मंगल वार को भीड़ देखी जा सकती है, किन्तु कुछ छोटी छोटी भौतिक सुख प्राप्ति हेतु! ... इत्यादि इत्यादि...(काल के प्रभाव से 'परम सत्य' तक पहुँचने के लिए नहीं!)... हिन्दुओं ने तो सभी प्राणीयों को धरा / पृथ्वी का परिवार के सदस्य, मिटटी से ही बना, जाना था :)
अपना रुझान रहस्यवाद की ओर होने के कारण, ('भारत एक खोज' समान"), अपना ध्यान आईने / जल में दिखते प्रतिबिम्ब अर्थात 'इमेज' की ओर चला जाता है...
ReplyDeleteक्यूंकि अनादि काल से ऐसे ही आदमी को भी "भगवान् का प्रतिबिम्ब" माना जाता है...
राजा नंद ने भी बाल-कृष्ण की - चन्द्रमा को खिलौना समझ - उससे ही खेलने की जिद को पानी भरे परात में उसका प्रतिबिम्ब दिखा पूरा किया, जो उसके हाथ नहीं आया... ओर जो तथाकथित 'माया' को दर्शाता है...
बचपन में एक मेले में देखे 'जादुई शीशों' में, एक ही समय में, स्वयं अपने विभिन्न दिखते प्रतिबिम्बों की ओर भी ध्यान जाता है...
पक्षियों को भी देखा है शीशों पर अपने ही प्रतिबिम्ब को 'सत्य' समझ उसके साथ चोंच लड़ाते, बहुत देर तक...
और जब हम बच्चे थे तो अपनी माँ को भी देखा था एक ऐसे ही पक्षी का भ्रम तोड़ने हेतु शीशे पर कपडा डालते...
और उसे तभी आभास होते देखा हमारी उपस्थिति का!...
और फिर उसका भयभीत हो उड़ जाना भी देखने को मिला :)
बहुत प्रेरक और सुन्दर...विजयादशमी की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !
ReplyDeletegood presentation.thanks.
ReplyDeleteहर कोई अपने निजी अनुभव से भी जान सकता है कि कोई भी लितना भी ज्ञान अपने गुरु विशेष अथवा नर्सरी से आरम्भ कर अनेक गुरुवों के माध्यम से ग्रहण कर ले, १०० अंक में से १०० अंक प्रति वर्ष हरेक कक्षा में ले कर, जो कोई भी उस काल में उच्चतम पढाई उपलब्ध हो, तो वो ज्ञान काफी नहीं होता... क्यूंकि जब कोई भी ग्रहण की हुई विद्या को उदरपूर्ति, आवास, वस्त्रादि हेतु उपयोग में लाता है तो स्कूल/ कॉलेज से प्राप्त ज्ञान संभव कदापि काफी नहीं होता...
ReplyDeleteहर व्यक्ति जीवन भर कुछ न कुछ नया सीखता चला जाता है, और कोई भी नहीं कह सकता किसी समय विशेष पर कि उसे सब कुछ आ गया है...और केवल मूर्ख/ अज्ञानी ही ऐसा कहेगा, क्यूंकि कृष्ण भी गीता में कह गए कि हर गलती का कारण अज्ञान ही होता है, और केवल वो ही (विष्णु के अष्टम अवतार / योगेश्वर भी होने के कारण) परम सत्य, अमृत त्रिपुरारी शिव को जानते हैं (सत्यम शिवम् सुन्दरम!)...
और दशहरे के शुभ अवसर पर कहा जा सकता है कि 'क्षत्रिय', धनुर्धर राम और ज्ञानी 'ब्रह्मण' रावण दोनों ही शिव के परम भक्त थे, किन्तु दोनों में श्रेष्ट 'सीतापति' राम ही थे, दशानन नहीं! और पुतला उनका और उनके दो अन्य भाइयों को ही जलाया जाता है (ॐ के निम्नतर (-) रूप), क्यूंकि वो ज्ञानी गुरु शुक्राचार्य के प्रतिरूप हैं, और अमृत भी हैं :)...
और यद्यपि बहुरूपी कृष्ण के लिए (जो हमारी गैलेक्सी के प्रतिरूप हैं) पृथ्वी पर तीनों लोक में पाने हेतु शेष कुछ भी नहीं रह गया है, फिर भी वो हर क्षण कर्म किये जा रहे हैं (गैलेक्सी को घुमा रहे हैं, जिसके भीतर हमारा सौर -मंडल भी अवस्थित है, जिसका राजा धनुर्धर सूर्य अथवा राम जी हैं, और हम तुच्छ प्राणी भी हैं!), क्यूंकि वो रुके तो सब सृष्टि रुक जायेगी और नष्ट हो जायेगी!
सुंदर प्रस्तुति महाभारत सीरियल की याद दिलाती हुई ।
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