tag:blogger.com,1999:blog-2911361780403920194.post8907286671933809935..comments2024-03-18T11:14:46.125+05:30Comments on ZEAL: क्या लेखनी पर लगाम उचित है ?ZEALhttp://www.blogger.com/profile/04046257625059781313noreply@blogger.comBlogger74125tag:blogger.com,1999:blog-2911361780403920194.post-83441874686541523712011-05-06T01:06:12.394+05:302011-05-06T01:06:12.394+05:30@ मेरा , आपसे है रिश्ता पुराना कोई ....
हम अपने पू...@ मेरा , आपसे है रिश्ता पुराना कोई ....<br />हम अपने पूर्व-पूर्व जन्मों को ही दोहराते हैं ......अवश्य कोई नाता रहा होगा <br />@ आप मेरे परिवार के लगते हैं। भारत आने पर आपसे अवश्य मुलाक़ात होगी । आखिर 'बस्तर' जो घूमना है आपके साथ।<br /><br />प्रतीक्षा है ...कब दिव्या को डांटने का सुअवसर मिल पाए .....बस्तर के जंगलों में स्वागत है आपका. आपकी यह यात्रा यादगार रहेगी.....फिर देखूंगा दिव्या ने क्या लिखा अपने ब्लॉग में ....कुछ शीर्षक इस तरह होंगे - " घने जंगल में नक्सली कमांडर से मुठभेड़" ...."महुआ की मदमाती गंध"...."और वह टंगिया वाला आदिवासी "<br />"सचमुच नियाग्रा से कम नहीं "......." कमाल है ...पहली बार देखीं मैंने अंधी मछलियाँ" ....."विश्व की प्रथम नाट्यशाला छत्तीसगढ़ में" ....."क्यों आता है गुस्सा दिव्या को"....." राधिका ने यहाँ भी पीछा नहीं छोड़ा मेरा".......बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरनाhttps://www.blogger.com/profile/11751508655295186269noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2911361780403920194.post-50723915209682106222011-05-04T20:18:56.196+05:302011-05-04T20:18:56.196+05:30आपकी और कौशलेन्द्र जी की बातों ने मन मोह लिया.आपकी और कौशलेन्द्र जी की बातों ने मन मोह लिया.प्रतुल वशिष्ठhttps://www.blogger.com/profile/00219952087110106400noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2911361780403920194.post-641290900506294502011-05-04T07:35:06.658+05:302011-05-04T07:35:06.658+05:30.
@--अंतरजाल पर मुझे भी रक्त संबंधों से अधिक गहरे....<br /><br />@--अंतरजाल पर मुझे भी रक्त संबंधों से अधिक गहरे सम्बन्ध मिले हैं...जो सम्बन्ध गहरा है वह आभासी कैसा ? यहाँ एक परिवार सुस्थापित हो गया है. अब तो इस परिवार के बिना रहने की कल्पना ही बड़ी दुष्कर लगती है. भले ही हमने दिव्या (एवं अंतर्जाल के अन्य लोगों ) को भी नहीं देखा कभी ..पर ये सब हमारे अपने अभिन्न हो चुके हैं ...हम उनके सुख में सुखी और उनके दुःख में उदास हो जाते हैं . भारतीय परिवेश में अंतरजाल का यह एक बड़ा लाभ मुझे दिखाई दिया है कि हमारा परिवार बहुत बड़ा हो गया है. मैं कल्पना करता हूँ , कभी हम लोग मिलेंगे तो उस समय कैसी अनुभूति होगी ? ...दिव्या को तो बिना डांटे छोडूंगा नहीं......बहुत गुस्सैल जो है ....<br /><br /><br /><br />कौशलेन्द्र जी ,<br /><br />आपकी लिखी बातों से अक्षर्तः सहमत हूँ। बहुत से ब्लॉगर्स के साथ बहुत लगाव सा हो गया है । निसंदेह एक परिवार सा स्थापित हो गया है । हम कहीं भी रहे अथवा व्यस्त हो जाएँ , ब्लौग परिवार के कुछ लोग हमेशा ध्यान में रहते हैं । उनके बिना रहना अब दुष्कर सा प्रतीत होता है ।<br /><br />@-कभी हम लोग मिलेंगे तो उस समय कैसी अनुभूति होगी ?<br /><br />निसंदेह एक सुखद अनुभूति होगी । जैसे अपनों से मिलने पर होती है।<br /><br />@-दिव्या को तो बिना डांटे छोडूंगा नही..<br /><br />ज़रूर डाँटियेगा । बचपन से आजतक कभी डांट पड़ी ही नहीं , इसीलिए शायद बिगड़ गयी हूँ। आप मुझे डांटेंगे तो मुझे बहुत अच्छा लगेगा । पर वादा कीजिये डांट असली वाली होनी चाहिए।<br /><br />@-बहुत गुस्सैल जो है..<br /><br />मेरा गुस्सा समाज में फैली अनियमितताओं के प्रति है , मेरा आक्रोश मेरे लेखों में झलकता है । लेकिन वैसे मैं भावुक हूँ । सच्चे , इमानदार और प्यार करने वालों साथ बहुत गहरा रिश्ता है मेरा और बहुत सम्मान करती हूँ ऐसे लोगों का ।<br /><br />कौशलेन्द्र जी ,<br /><br />मेरा , आपसे है रिश्ता पुराना कोई ,<br />यूँ ही नहीं दिल लुभाता कोई ...<br /><br />आप मेरे परिवार के लगते हैं। भारत आने पर आपसे अवश्य मुलाक़ात होगी । आखिर 'बस्तर' जो घूमना है आपके साथ।<br /><br /><br />.ZEALhttps://www.blogger.com/profile/04046257625059781313noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2911361780403920194.post-11424748582594014482011-05-04T00:47:23.914+05:302011-05-04T00:47:23.914+05:30दिव्या जी ! मुझ पर आजकल दर्शन का भूत चढ़ा है. ब्लॉ...दिव्या जी ! मुझ पर आजकल दर्शन का भूत चढ़ा है. ब्लॉग पर भी आपने देखा वही लिख रहा हूँ .......रिश्तों को आभासी उसी सन्दर्भ में कहा ...लौकिक सन्दर्भ में नहीं. "ब्रह्म सत्य है जगत मिथ्या है" ...वाली तर्ज़ पर.<br />अंतरजाल पर मुझे भी रक्त संबंधों से अधिक गहरे सम्बन्ध मिले हैं...जो सम्बन्ध गहरा है वह आभासी कैसा ? यहाँ एक परिवार सुस्थापित हो गया है. अब तो इस परिवार के बिना रहने की कल्पना ही बड़ी दुष्कर लगती है. भले ही हमने दिव्या (एवं अंतर्जाल के अन्य लोगों ) को भी नहीं देखा कभी ..पर ये सब हमारे अपने अभिन्न हो चुके हैं ...हम उनके सुख में सुखी और उनके दुःख में उदास हो जाते हैं . भारतीय परिवेश में अंतरजाल का यह एक बड़ा लाभ मुझे दिखाई दिया है कि हमारा परिवार बहुत बड़ा हो गया है. मैं कल्पना करता हूँ ...कभी हम लोग मिलेंगे तो उस समय कैसी अनुभूति होगी ? दिव्या को तो बिना डांटे छोडूंगा नहीं......बहुत गुस्सैल जो है ....बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरनाhttps://www.blogger.com/profile/11751508655295186269noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2911361780403920194.post-18649469968974882142011-05-03T21:39:44.629+05:302011-05-03T21:39:44.629+05:30.
कौशलेन्द्र जी ,
बहुत से लोग मित्रवत मिलते हैं ।....<br /><br />कौशलेन्द्र जी ,<br />बहुत से लोग मित्रवत मिलते हैं । लेकिन फिर भी अंतरजाल के माध्यम से कुछ रिश्ते ऐसे भी मिले जिनसे बेहद लगाव सा हो गया । रिश्तों की अहमियत नकारी नहीं जा सकती । इन रिश्तों से ही तो शादी , ब्याह और त्यौहार सभी की महत्ता बरकरार है । रिश्ते हैं तभी खुशियाँ बांटकर दूनी और दुःख बांटकर आधा कर लिया जाता है । रिश्ते कभी आभासी लगे ही नहीं । हाँ रिश्तों में स्नेह और अधिकार का आभास ज़रूर रहता है । आप मुझे किसी भी नाम से पुकारें , मुझे उसमें सिर्फ आपका स्नेह ही छलकता दीखता है। <br /><br />.ZEALhttps://www.blogger.com/profile/04046257625059781313noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2911361780403920194.post-14635934997763106172011-05-03T21:32:14.078+05:302011-05-03T21:32:14.078+05:30दिव्या जी ! आदरणीया अजित गुप्ता जी ने सारी बात कह ...दिव्या जी ! आदरणीया अजित गुप्ता जी ने सारी बात कह दी है. रिश्तों के बिना भारतीय समाज की कल्पना नहीं की जा सकती. हम तो अपने घर के नौकर को भी रघुनाथ "दादा" कहते थे ....यदि कभी भूल हो गयी तो घर में दांत पड़ती थी. हमारे समाज का ताना-बाना ही कुछ इस तरह का है कि हम बिना रिश्तों के नहीं रह सकते. भारत की यह संस्कृति बेजोड़ है . रिश्तों के बिना कई बार संवाद के समय बड़ी मुश्किल होती है ...जब तक कोई रिश्ता कायम न हो जाय एक बेचैनी सी रहती है. अभी ताज़ा उदाहरण है अजित जी के साथ मैं अभी तक कोई रिश्ता नहीं बना सका ....अभी उनका उल्लेख करते समय बड़ी बेचैने हो रही है ....ज़ल्दी ही कोई रिश्ता कायम करना पडेगा. <br />अब वाणी गीत जी के पक्ष पर बात करते हैं ...रिश्तों में हम बहुत भावुक हो जाते हैं और फिर धोखा भी खाते हैं ...इसकी पीड़ा लम्बे समय तक सालती है .....हो सकता है कि वाणी जी ने ऐसी ही किसी अनुभूति को ध्यान में रख कर कोई टिप्पणी की हो ...वे भी इसी समाज की हैं उन्होंने ने भी रिश्ते बनाए होंगे. हाँ ...! जहाँ तक आभासी रिश्तों की बात है तो रिश्ते सभी आभासी ही होते हैं .......मन जहाँ रीझ जाय ....कई बार रक्त संबंधों की अपेक्षा ये सम्बन्ध ही अधिक समीप और अपने लगते हैं. दिव्या के लिए तो मुझे बहुत पहले ही संबोधन मिल चुका है .....मैं उसे "शैतान लड़की" कहता हूँ.बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरनाhttps://www.blogger.com/profile/11751508655295186269noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2911361780403920194.post-14818243528395393452011-05-03T12:08:17.424+05:302011-05-03T12:08:17.424+05:30बहुत ही गहन हो चुकी है इस आलेख में लिखी गई बातें,
...बहुत ही गहन हो चुकी है इस आलेख में लिखी गई बातें,<br /><br />दिव्या जी, आपने एक सार्थक विषय उठाया है ..और रिश्ते<br /><br />तो विश्वास ही खोजते हैं जहां उन्हें महसूस हुआ ..वो वहीं भावुक हो जाते हैं ...लेखनी पर लगाम ना तो पहले कभी लग सकी है और ना ही शायद कभी लग सकेगी ... ।सदाhttps://www.blogger.com/profile/10937633163616873911noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2911361780403920194.post-90876172593613463232011-05-02T10:57:39.416+05:302011-05-02T10:57:39.416+05:30आदरणीय बहन दिव्या जी...मै आपका सम्मान करता हूँ| आप...आदरणीय बहन दिव्या जी...मै आपका सम्मान करता हूँ| आपको बहन कहने में मुझे गर्व है| ख़ुशी भी है कि इस ब्लॉग जगत में मुझे आप जैसी बहन मिली...और आपके द्वारा भाई का संबोधन पाकर तो मेरा मान बढ़ा है| बिलकुल यह रिश्ता जीवन पर्यंत चलेगा|<br />सादर...<br />दिवस...दिवसhttps://www.blogger.com/profile/07981168953019617780noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2911361780403920194.post-23306647064096902832011-05-02T08:04:51.230+05:302011-05-02T08:04:51.230+05:30Dr. Divya, Writing is a matter of heart. The heart...Dr. Divya, Writing is a matter of heart. The heart has NO games to play, the MIND does. The heart takes NO diktats from ANYONE outside of ourselves. The Mind is constantly looking for an "Outer scapegoat" just in case something goes wrong because of our "Writing". Pure and Pristine writing needs heart (Kalejaa) and those who can't write fro their hearts are sadly in a 'Dark corner already'.<br />Just as they say in any field of healing too, including your own of Doctors-Patients, isn't it very accurately said that a "Healer/Doctor can only DO what is required, but the Ultimate healer is the recipient?" - Life can be anything, it is how we react to everything that matters. If you are going to write calculated stuff, I am pretty darn sure that, your Blog would be read by just a handful few and those handful few would be "Just those who have NO clue of anything outside of their own world" - Example, George H W Bush (Sr) the Ex President of USA went to the local store one day and saw those "Beeping" machine guns used for the counter clerk's accounting, scanning every item purchased by the customers. Bush Sr. Asked his Chief of Staff "What is all this? I have never seen this?" He was told "These are scanners we use for accounting purpose. It scans the barcode of each item and immediately tells the counter clerk how much it costs" - Bush was SO much out of touch with "Reality". For you to write about Illusions, "Lagaam" is very good and would work, but if you want the REAL stuff to be known to millions, then stay with your heart please. REST will follow, by God's grace.<br />Much Gratitude.<br />Yours, JRMaestro-2011https://www.blogger.com/profile/05958566984303999766noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2911361780403920194.post-34633039546843390302011-05-01T23:19:10.970+05:302011-05-01T23:19:10.970+05:30कलम हमारे हाथ है, जलनेवाले जला करे.... :)कलम हमारे हाथ है, जलनेवाले जला करे.... :)चंद्रमौलेश्वर प्रसादhttps://www.blogger.com/profile/08384457680652627343noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2911361780403920194.post-4583777575307864692011-05-01T22:08:24.877+05:302011-05-01T22:08:24.877+05:30Dearest ZEAL:
Your poser was – Is rein appropriat...Dearest ZEAL:<br /><br />Your poser was – Is rein appropriate on the writing?<br /><br />My answer is – Yes. It is even more important than the writing, at any point of time.<br /><br />A writer can write anything as it comes to the heart and the pen runs over paper. However, whatever is written needs a strong editorial approach and that is the domain of mind.<br /><br />Taking liberty as a license to write whatever one wants in a public medium is fraught with grave danger. Also, it potently reflects the dearth of prudence on the writer’s part. Unless judiciously thought of, a finely woven yarn also can very well come unstuck.<br /><br />I take a simple reference of the publishing world. The editor’s reject more than 95% of the stuff submitted by writers for their opinion about it being worthy of publication. Simply asking the question – Isn’t there some reason in it?<br /><br />Another example – presume, for a while, you are very upset at reading something and driven by the rage, you write in that context. Say it is a letter and you wrote a response. Try one thing – do not press the send button [nowadays who writes snail-mail letters] and let the letter be in the draft-box for 3 days. Go and read it again on day 3. Most likely it is that the letter will not travel onward but get culled. And even if it is eventually sent, surely, it will be highly modified and most importantly, moderated in its tone and essence.<br /><br />What is the common element between the two examples – Reining in of the Impulse. <br /><br />That is my answer.<br /><br /><br />Semper Fidelis<br />Arth Desaiethereal_infiniahttps://www.blogger.com/profile/04329983874928045371noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2911361780403920194.post-53880014066884999842011-05-01T21:54:28.916+05:302011-05-01T21:54:28.916+05:30बहुत ही ज्वलंत मुद्दा उठाया है आपने ..लेखनी पर किस...बहुत ही ज्वलंत मुद्दा उठाया है आपने ..लेखनी पर किसी की लगाम नहीं होनी चाहिए ...किन्तु अति सर्वत्र वर्जयतेVIJAY KUMAR VERMAhttps://www.blogger.com/profile/06898153601484427791noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2911361780403920194.post-72490005057779587552011-05-01T21:02:50.020+05:302011-05-01T21:02:50.020+05:30क्या लेखनी पर लगाम उचित है....
बिलकुल नहीं जी ...
...क्या लेखनी पर लगाम उचित है....<br />बिलकुल नहीं जी ...<br />लेखनी तो स्वतंत्र होती है <br /><br />कभी हमारे ब्लॉग भी पधारे नया हूँ <br /><br />मुझे ख़ुशी होगी <br /><br />avinash001.blogspot.कॉम इंतजार रहेगा आपकाअविनाश मिश्रhttps://www.blogger.com/profile/03793916184887668151noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2911361780403920194.post-60485686531294044082011-05-01T20:36:46.515+05:302011-05-01T20:36:46.515+05:30नही, बिलकुल नही . यह तो पूरी तरह व्यक्तिगत है. और...नही, बिलकुल नही . यह तो पूरी तरह व्यक्तिगत है. और जिन्हें नही पढना , उनसे जय रामजी की !रूपhttps://www.blogger.com/profile/14926598063271878468noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2911361780403920194.post-38237371789301923432011-05-01T20:25:40.685+05:302011-05-01T20:25:40.685+05:30Dr Divya i m very much thankful to u for ur precio...Dr Divya i m very much thankful to u for ur precious comment on my blog.aapke blog ka pata chala bahut uttam lekh padhne ko mila.subject is too good.likhne par koi jor nahi hota.ek lekhak jo saahitya ke samuder me doob kar shabdon ke madhyam se apne vichar vyaqt kartaa hai uski sarahna karni chahiye.i m following you so that i can read ur update.Rajesh Kumarihttps://www.blogger.com/profile/04052797854888522201noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2911361780403920194.post-62720660903118848632011-05-01T20:19:41.487+05:302011-05-01T20:19:41.487+05:30.
प्रिय भाई दिवस दिनेश गौर,
आज आपने बहन कहकर मान....<br /><br />प्रिय भाई दिवस दिनेश गौर,<br /><br />आज आपने बहन कहकर मान बढ़ा दिया । ये रिश्ता जीवन पर्यंत बना रहेगा। वैसे तो सभी मित्रवत हैं , इसलिए 'मित्र' हैं , लेकिन बहन कहकर जो स्नेह देता है , वो निसंदेह ज्यादा आत्मीय लगने लगता है ।<br /><br />-------<br /><br />@--रिश्ते निभाने आवश्यक नहीं है वे तो एक आत्मियता का बोध दे जाते है। अपनत्व के लिये इतना ही काफ़ी है।<br /><br />सुज्ञ जी , बहुत ही सार्थक बात कही है । अपनत्व के लिए इतना ही काफी है ।<br /><br />----------<br /><br /><br />ब्लौग पर आये अनेक टिप्पणीकारों के साथ आत्मीय सम्बन्ध है । टिप्पणी के माध्यम से ही अक्सर आपसी प्यार का आदान प्रदान भी हो जाता है । जहाँ दिल जुड़े हुए होते हैं , वे मन की बात समझ भी लेते हैं ।<br /><br />आत्मीयता को किसी भी तराजू में नहीं तौला जा सकता, वो सदैव भारी ही रहेगा। <br /><br />.ZEALhttps://www.blogger.com/profile/04046257625059781313noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2911361780403920194.post-1903336694043516562011-05-01T18:30:23.167+05:302011-05-01T18:30:23.167+05:30sahi hai. Ye bandhan nahi hone chahiye
आपका स्वाग...sahi hai. Ye bandhan nahi hone chahiye<br /><br />आपका स्वागत है.<br />दुनाली <a href="http://www.mydunali.blogspot.com/" rel="nofollow">चलने की ख्वाहिश...</a><br />तीखा तड़का <a href="http://www.tikhatadka.blogspot.com/" rel="nofollow">कौन किसका नेता?</a>Anonymoushttps://www.blogger.com/profile/13342084356954166189noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2911361780403920194.post-27357342673120422872011-05-01T17:50:44.554+05:302011-05-01T17:50:44.554+05:30अजित दीदी की टिप्पणी को मेरी भी प्रतिक्रिया माना ज...अजित दीदी की टिप्पणी को मेरी भी प्रतिक्रिया माना जाय!! शायद मै इससे अधिक स्पष्ठ बात न रख पाता।<br /><br />रिश्तों की अहमियत को सम्मान देते हम लोग रिश्ता बनाकर ही उल्टे सुरक्षा महसुस करते है। अधिकतर लोग रिश्ते को कोई नाम मिलने पर गरिमा युक्त व्यवहार भी करते है।<br /><br />परखना तो हर पहचान को पडता है, और हमारी परख हमेशा सही निष्कर्ष युक्त हो सम्भव ही नहीं, ठगे जाने की सम्भावनाएं हर क्षण होती है तो क्या हम भरोसा ही छोड दें। रिश्ते निभाने आवश्यक नहीं है वे तो एक आत्मियता का बोध दे जाते है। अपनत्व के लिये इतना ही काफ़ी है।सुज्ञhttps://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2911361780403920194.post-36512135462804668762011-05-01T17:41:44.300+05:302011-05-01T17:41:44.300+05:30लेखनी पर लगाम सर्वथा अनुचित है . प्रबुद्ध लेखक...लेखनी पर लगाम सर्वथा अनुचित है . प्रबुद्ध लेखक समाज या लोगों के प्रति अपना दायित्व स्वयं निभाना जानता है इस लिए उसे अपनी मर्यादा निर्धारित करने का अधिकार होना ही चाहिए. अपने प्रिय कवि दिनकर जी की पंक्तियाँ उद्धृत करना चाहूँगा : <br /><br />" बंधा तूफ़ान हूँ चलना मना है <br />बंधी उद्दाम निर्झर धार हूँ मैं <br />कहूँ क्या ,कौन हूँ ,क्या आग मेरी<br />बंधी है लेखनी लाचार हूँ मैं "<br />इस प्रकार की छटपटाहट कवि या लेखक के लिए होनी ही नहीं चाहिए !<br /><br />सुंदर आलेख, दिव्या जी.aarkayhttps://www.blogger.com/profile/04245016911166409040noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2911361780403920194.post-18429841497275898472011-05-01T16:20:45.145+05:302011-05-01T16:20:45.145+05:30लेखनी पर बाहरी लगाम बिलकुल अनुचित है.अगर लेखक स्वय...लेखनी पर बाहरी लगाम बिलकुल अनुचित है.अगर लेखक स्वयं ही मर्यादा का ध्यान रखे तो किसी लगाम की आवश्यकता ही नहीं होगी.जहाँ तक आभासी रिश्तों की बात है, जब आप एक दुसरे से अक्सर आभासी दुनियां में संपर्क में आते रहते हैं तो एक रिश्ता तो अपने आप बन जाता है, इसे कोई नाम दें या नहीं. इस में क्या अनुचित है?<br />बहुत संतुलित आलेख..आभारKailash Sharmahttps://www.blogger.com/profile/12461785093868952476noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2911361780403920194.post-40247784236950774862011-05-01T15:44:01.265+05:302011-05-01T15:44:01.265+05:30आदरणीय बहन दिव्या जी लेखनी पर इस प्रकार की लगाम अन...आदरणीय बहन दिव्या जी लेखनी पर इस प्रकार की लगाम अनुचित है...यह तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है...कुछ गलत तो लिखा नहीं है...यदि कुछ गलत लिखा जाए तो लगाम की बात आती है, अन्यथा सब ठीक है...आप कारवाँ आगे बढ़ाती चले, इन छिटपुट घटनाओं पर ध्यान न दें...हमारा आप पर विश्वास है...आपकी लेखनी से कुछ गलत नहीं लिखा जाएगा...<br />सादर...<br />दिवस...दिवसhttps://www.blogger.com/profile/07981168953019617780noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2911361780403920194.post-63245138976479929512011-05-01T15:32:34.608+05:302011-05-01T15:32:34.608+05:30सही लिखा है आपने।सही लिखा है आपने।महेन्द्र वर्माhttps://www.blogger.com/profile/03223817246093814433noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2911361780403920194.post-79308546654561448672011-05-01T15:22:18.113+05:302011-05-01T15:22:18.113+05:30बहुत अच्छा विषय उठाया है आपने ! लेखनी की धारा अनंत...बहुत अच्छा विषय उठाया है आपने ! लेखनी की धारा अनंत है इस पर लगाम कसना अविकसित एवं दुराग्रही मानसिकता की उपज ही हो सकती है! <br />हाँ ये जरुरी है की जो भी लिखा जाये सामाजिक मर्यादा के दायरे में रह कर ही लिखा जायेमदन शर्माhttps://www.blogger.com/profile/07083187476096407948noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2911361780403920194.post-58829966533726785072011-05-01T15:14:52.304+05:302011-05-01T15:14:52.304+05:30लेखन तो मुक्त मना ही अच्छा है .......लेखन तो मुक्त मना ही अच्छा है .......निवेदिता श्रीवास्तवhttps://www.blogger.com/profile/17624652603897289696noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2911361780403920194.post-8931924965574736952011-05-01T14:54:48.086+05:302011-05-01T14:54:48.086+05:30दिव्या जी, मैं आपकी बात से सहमत हूँ। कम से कम लेख...दिव्या जी, मैं आपकी बात से सहमत हूँ। कम से कम लेखन के विषय को लेकर तो कोई प्रतिबंध नहीं होना चाहिये। जहां क अंतर्जालीय रिश्तों का सवाल है, अभी आपकी पोस्ट पढ़ने से पहले समीर लाल जी के ब्लॉग 'उड़नतश्तरी' पर 'पटना अमरीका से कनाडा चला आया........'' पोस्ट पढ़ रहा था। जो लोग इन्टरनेट पर बनाये गये रिश्तों को आभासी कहते हैं उन्हें समीर लाल जी की यह पोस्ट पढ़ लेनी चाहिये। किस प्रकार अमरीका में रह रही स्तुति पाण्डेय समीर लाल परिवार की आत्मीया बन गयीं - केवल ब्लागिंग के जरिये।जीवन और जगत https://www.blogger.com/profile/05033157360221509496noreply@blogger.com