आज अचानक श्री अशोक सलूजा जी के ब्लॉग 'यादें' पर पहुंचना हुआ तो उनकी पोस्ट पढ़कर आँख में आँसू आ गए । एक पुरुष के ह्रदय में पिता का प्यार होता है , भाई का स्नेह और मित्र की शुभकामनायें होती हैं।
आज हमारे समाज को श्री अशोक सलूजा जैसे नागरिक की आवश्यकता है , जिसका संवेदनशील ह्रदय , लोगों पर हो रहे अत्याचार से दुखी हो जाता है , छटपटाता है और समाज में एक सुखद बदलाव की कामना रखता है ।
समाज में स्त्रियों की दुर्दशा देखते हुए अशोक जी ने ये इच्छा जताई की मैं उनके एहसास को अपने शब्दों में ढालूँ ।लेकिन अशोक जी की पोस्ट स्वयं ही पूरी तरह से सक्षम है उनके दिल का दर्द बयाँ करने में ।
यदि समाज में पुरुष वर्ग बस थोडा सा स्नेहिल हो जाए और स्त्रियाँ थोड़ी सी हिम्मत कर लें तो एक सकारात्मक संतुलन बन जाएगा। समस्याएं जड़ से समाप्त हो जायेंगी।
पिछले माह जब 'निशाप्रिया भाटिया ' की खबर सुनी थी की न्याय पाने के लिए , लाचारी और हताशा से ग्रस्त होकर उसने निर्वस्त्र होने का सहारा लिया , तो मन दुःख से भर गया । मन में आया की न्याय क्या माँगना जब मिलना ही नहीं है तो ? न्याय के दरबार में लज्जित ही होना था तो क्यूँ नहीं उस हैवान को सबक सिखाने के बाद गयी । हमारे यहाँ कोर्ट केसेज़ तो वर्षों तक चलते हैं , इसलिए न्याय मांगने के लिए नहीं बल्कि गुनाहगार को सजा देने के बाद अदालत में शान से तारीखों पर तारीखें पडवानी चाहिए थीं। और मजबूर होकर वो शख्स अपने सर के बाल नोचता और अपने ही कपडे फाड़ता ।
पिछले माह एक महिला ने एक लम्बी अवधी तक विधायक के हाथों का खिलौना बने रहने के बाद , मजबूर होकर और जीवन के प्रति मोह त्यागकर , उस विधायक का खून कर दिया। पीछे सदियों तक केस चलता रहे क्या फरक पड़ता है । अपना न्याय उसने अपने हाथों से कर लिया।
गत माह एक मजदूर महिला ने अपने पति द्वारा २४ वर्षों तक सताए जाने के बाद , जीवन से हारकर , पति को टुकड़ों में काटकर अपने ही घर की दीवार में चुन दिया।
पुरुषों की प्रताड़ना का शिकार महिलाएं या तो ख़ुदकुशी कर रही हैं , या फिर क़त्ल। न्यायालयों पर से भरोसा उठ चुका है । क्या महिलाओं को इंसान समझकर हम उन्हें जीने का एक अवसर नहीं दे सकते ?
कल महिला दिवस के अवसर पर महिलाओं को क्या-क्या नसीब हुआ , जानने के लिए पढ़िए 'यादें' पर ।
आभार ।
आज हमारे समाज को श्री अशोक सलूजा जैसे नागरिक की आवश्यकता है , जिसका संवेदनशील ह्रदय , लोगों पर हो रहे अत्याचार से दुखी हो जाता है , छटपटाता है और समाज में एक सुखद बदलाव की कामना रखता है ।
समाज में स्त्रियों की दुर्दशा देखते हुए अशोक जी ने ये इच्छा जताई की मैं उनके एहसास को अपने शब्दों में ढालूँ ।लेकिन अशोक जी की पोस्ट स्वयं ही पूरी तरह से सक्षम है उनके दिल का दर्द बयाँ करने में ।
यदि समाज में पुरुष वर्ग बस थोडा सा स्नेहिल हो जाए और स्त्रियाँ थोड़ी सी हिम्मत कर लें तो एक सकारात्मक संतुलन बन जाएगा। समस्याएं जड़ से समाप्त हो जायेंगी।
पिछले माह जब 'निशाप्रिया भाटिया ' की खबर सुनी थी की न्याय पाने के लिए , लाचारी और हताशा से ग्रस्त होकर उसने निर्वस्त्र होने का सहारा लिया , तो मन दुःख से भर गया । मन में आया की न्याय क्या माँगना जब मिलना ही नहीं है तो ? न्याय के दरबार में लज्जित ही होना था तो क्यूँ नहीं उस हैवान को सबक सिखाने के बाद गयी । हमारे यहाँ कोर्ट केसेज़ तो वर्षों तक चलते हैं , इसलिए न्याय मांगने के लिए नहीं बल्कि गुनाहगार को सजा देने के बाद अदालत में शान से तारीखों पर तारीखें पडवानी चाहिए थीं। और मजबूर होकर वो शख्स अपने सर के बाल नोचता और अपने ही कपडे फाड़ता ।
पिछले माह एक महिला ने एक लम्बी अवधी तक विधायक के हाथों का खिलौना बने रहने के बाद , मजबूर होकर और जीवन के प्रति मोह त्यागकर , उस विधायक का खून कर दिया। पीछे सदियों तक केस चलता रहे क्या फरक पड़ता है । अपना न्याय उसने अपने हाथों से कर लिया।
गत माह एक मजदूर महिला ने अपने पति द्वारा २४ वर्षों तक सताए जाने के बाद , जीवन से हारकर , पति को टुकड़ों में काटकर अपने ही घर की दीवार में चुन दिया।
पुरुषों की प्रताड़ना का शिकार महिलाएं या तो ख़ुदकुशी कर रही हैं , या फिर क़त्ल। न्यायालयों पर से भरोसा उठ चुका है । क्या महिलाओं को इंसान समझकर हम उन्हें जीने का एक अवसर नहीं दे सकते ?
कल महिला दिवस के अवसर पर महिलाओं को क्या-क्या नसीब हुआ , जानने के लिए पढ़िए 'यादें' पर ।
आभार ।
पढ़कर अच्छा लगा।
ReplyDeleteअच्छी पोस्ट।
ReplyDeleteपता नहीं भारत में महि्लाओं की दशा कब सुधर पायेगी... महिला न हो तो पुरुष कहां से आयेगा..
ReplyDeleteसार्थक पोस्ट, आभार
ReplyDeleteविचारोत्तेजक पोस्ट।
ReplyDeleteपढ़ा और जानकर दुख हुआ कि इस दिन ऐसा भी हुआ ...
ReplyDelete'पुरुषों की प्रताड़ना का शिकार महिलाएं या तो ख़ुदकुशी कर रही हैं , या फिर क़त्ल। न्यायालयों पर से भरोसा उठ चुका है '
ReplyDeleteएक प्रकार का सच यह भी है जिसे आपने समाज के सामने रख देने का काम बखूबी किया हुई.
bahut achhi sarthak post hai...
ReplyDeletemai bhi yaadein padhna chahungi.....
समझ में नहीं आता कि न्यायिक व्यवस्था पर भरोसा क्यों किया जाए. देश की जनता की बेचैनी को जितना जल्दी समझ लिया जाए उतना अच्छा होगा. साथ ही न्याय में देरी को 'अन्याय' कहना शुरू करना चाहिए.
ReplyDeleteअशोक जी से परिचय अच्छा लगा ...नारी जब प्रतिशोध पर आती है तो यही होता है ...
ReplyDeleteकुछ और उदाहरण महिला दिवस पर सामने आने वाले-
ReplyDeleteसुशील जी महिला दिवस ....हम सब नारी उठान की कितनी बातें करते है ...पर क्या हकीकत में ऐसा होता है...आज ही मेरे बाई ने बतय की उसके पति ने दूसरी शादी कर ली है .....और वो जर जर रोई...मेरा मनभर आया और थोड़ी हे देर के बाद मेरे एक दोस्त का फोन आया की उसके पति ने कह दिया है कि वो उसकी और उसके बचों की जिम्मेदारी नहीं उठा सकता...और वो अपने मायके आ गयी ....एक औरत अनपढ़ है और दूसरी एल.एल. बी....बतायिए मन का दुःख किससे कहे...
अशोक जी के बारे में पढ़ कर अच्छा लगा...एक बढ़िया लेखन का उदाहरण..सार्थक पोस्ट के लिए बधाई..
ReplyDeletedivya jee main isi koshish men hoon bas aap logon kaa sath chahiye !!
ReplyDeletepadhkar bahut achchha laga !
Zulm dekh ke chup rahne wala bhee zakim kaha jata hai. ab yh zulm yadi mahila ke saath ho to behad sharmnaak hai. chup rahna sahee nahin.
ReplyDeleteएक अनुरोध पर इतना सशक्त लेख प्रभावित करता है.
ReplyDeleteदुनिया है चल रही है।
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा लेख है
ReplyDeleteएक अच्छा ब्लॉग दिखाया आपने, शुक्रिया...
ReplyDeleteवैसे एक बात कहूं, न्यायालय से सिर्फ महिलाओं का ही नहीं बल्कि आम आदमी का ही विस्वास उठ चूका है....
जानकर दुख हुआ कि इस दिन ऐसा भी हुआ ...
ReplyDeleteमर जाना या मार डालना ही समाधान है, यदि आपके पोस्ट का आशय यह है तो इस पोस्ट से शत-प्रतशित असहमत.
ReplyDeleteअशोक जी को पढ़कर अच्छा लगा . आभार उनसे परिचय करवाने के लिए
ReplyDeleteधन्य हैं आप ,जो आपका दिल धड़कता है किसी के दर्द में .श्री अशोक सलूजा जी की पोस्ट पर जाकर अच्छा लगा .वाकई में वे संवेदनशील व अति कोमल ह्रदय के इंसान हैं.'माँ का आँचल'उनकी अति भावुक पोस्ट है.
ReplyDeleteachhe sachhe logon se milwane ka sukriya......
ReplyDeleteapki chinta jayaj hai.........
pranam.
aapka lekh to achchha hai par
ReplyDeleteपिछले माह एक महिला ने एक लम्बी अवधी तक विधायक के हाथों का खिलौना बने रहने के बाद , मजबूर होकर और जीवन के प्रति मोह त्यागकर , उस विधायक का खून कर दिया। पीछे सदियों तक केस चलता रहे क्या फरक पड़ता है । अपना न्याय उसने अपने हाथों से कर लिया। katal ko nyayochit nhin thahraya jana chahie . ydi katal ko ham smarthan denge to yah jindgi usse bhi buri ho jaegi jitni ki ab hai
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ReplyDelete@ राहुल सिंह -
लेख ध्यान से पढियेगा , तभी आशय समझ में आएगा अन्यथा अर्थ का अनर्थ ही होगा ।
आभार ।
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ReplyDelete@ दिलबाग विर्क -
एक अवस्था के बाद व्यक्ति अपना मानसिक संतुलन खो देता है और उस अवस्था में वह ख़ुदकुशी करता है अथवा प्रतिशोध ।
इसीलिए एक अपील की गयी है की स्त्री को भोग वस्तु न समझें । इतना प्रताड़ित न करें एक संयमी व्यक्ति अपनी सहनशीलता खो बैठे।
जियो और जीने दो ।
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एक अवस्था के बाद व्यक्ति अपना मानसिक संतुलन खो देता है और उस अवस्था में वह ख़ुदकुशी करता है अथवा प्रतिशोध :-
ReplyDeleteमेरी नजर मैं इसको दिल से किसी के दुःख को दिल से एहसास करना होता है |
दिव्या ! मेरा कहा माना ,मुझे बहुत अच्छा लगा ,बस एक बात ठीक नहीं हुई ,जितनी वाह-वाही मेरी करा दी ,उसके मैं बिल्कुल काबिल नही था ,जो मैंने पड़ा ,वो मैंने लिखा ,मेरा अपना कुछ नही ,बस कुछ एहसास थे |वो भी शब्दों की चाशनी मैं लपेटना नही आता |खैर...
आज न मैंने तुझे ,जी,कहा न धन्यवाद दिया ! तेरे बच्चों से बड़े मेरे नवासा,नवासी हैं ......
बगैर लाग-लपेट ,दिल से महसूस करके लिखती रहो,जो दिल से महसूस कर सकता है वो कभी किसी का बुरा नही चाह सकता !
समस्त परिवार सहित खूब खुश और सेहतमंद रहो |
चाहो तो अंकल अशोक केह सकती हो ...
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ReplyDeleteअशोक जी ,
आपके स्नेह के लिए ह्रदय से आभारी हूँ ।
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Vicharneey Post.
ReplyDelete---------
पैरों तले जमीन खिसक जाए!
क्या इससे मर्दानगी कम हो जाती है ?
बहुत ही विचारणीय पोस्ट
ReplyDeleteजब तक महिलाएं पूरी तरह शिक्षित नहीं होंगी, आत्मनिर्भर नहीं होंगी तथा अपने विचारों में आधुनिक सोच नहीं लायेंगी, तब तक ये अत्याचार उन पर होता ही रहेगा. क्यों की आज का कानून सिर्फ सबल के लिए है निर्बल के लिए नहीं! पिछली गलती को सुधारना तो बहुत ही मुश्किल है किन्तु आने वाले भविष्य को सुधारना हमारे हाथ में है. हम अपने पुत्र व पुत्रियों को बराबरी का दर्जा दें . वो जहाँ तक संभव हो सकें उन्हें शिक्षा दें
यदि महिलाओं के साथ यही सब कुछ घटित होना है तो महिला दिवस मनाने का क्या औचित्य है - एक प्रश्न !
ReplyDeleteयह भी ठीक है कि महिला दिवस पर घटित होने पर ही कुछ हद तक हम इन आपराधिक घटनाओं के विषय में अधिक सोच रहे हैं. ऐसी घटनाओं कि जितनी निंदा की जाये कम है.
सुंदर आलेख !