हर मन को एक - "मन के मीत" की तलाश रहती है , जो दुर्भाग्य से उन्हें मिलता नहीं । मिलेगा कैसे , उनके मन में इतना ठहराव तो है ही नहीं की मिलने वाले प्यार को महसूस कर सकें और आत्मिक रूप से जुड़ सकें ।
किसी के साथ यदि आत्माओं का मिलन नहीं है तो वह सम्बन्ध अधूरा है । विचारों का मिलना तथा किसी के सानिध्य में आनंद की प्राप्ति होना ही आत्माओं का एकाकार होना है। एकाकार होने की अवधी कुछ क्षणों से लेकर कुछ वर्षों या फिर जीवन पर्यंत हो सकती है ।
आत्मा का मिलन एक से या फिर अनेक से हो सकता है , एक ही काल में । विभिन्न देश काल आदि परिस्थियों में भिन्न भिन्न लोगों से मिलना होता है। कभी कभी तो कोई अजनबी इतना अच्छा लगता है की ह्रदय कह उठता है - मेरा तुझसे है पहले का नाता कोई ...
जैसे आत्माएं अपनी इच्छानुसार शरीर धारण करती हैं और जब उनका मन भर जाता है तो वे उस शरीर का त्याग कर देती है और वह शरीर निष्प्राण हो जाता है । उसी प्रकार किसी भी रिश्ते में , किसी अजनबी के साथ अथवा मित्र के साथ आत्माओं का संयोग और वियोग चलता रहता है संयोग की स्थिति में सत-चित-आनंद रहता है और वियोग की स्थिति में हर रिश्ता निष्प्राण हो जाता है ।
जहाँ आत्माओं का मिलन होता है वहां संवाद बिना कुछ कहे ही सपन्न हो जाता है । "मन का मीत" अनकहा भी सुन लेता है और बिना लिखा हुआ भी पढ़ लेता है ।
कुछ पंक्तियाँ समर्पित हैं मन के मीत को ....
हमारी साँसों में आज तक वो हिना की खुशबू महक रही है
लबों पे नगमे मचल रहे हैं , नज़र में मस्ती छलक रही है
कभी जो थे प्यार की ज़मानत , वो हाथ हैं गैर की अमानत,
जो कसमें खाते थे चाहतों की , उन्हीं की नियत बहक रही है ,
हमारी साँसों में...
किसी से कोई गिला नहीं है , नसीब ही में वफ़ा नहीं है
जहाँ कहीं था हिना को खिलना , हिना वहीँ पे महक रही है
हमारी साँसों में ...
वो जिनकी खातिर ग़ज़ल कही थी , वो जिनकी खातिर लिखे थे नगमे
उन्हीं के आगे सवाल बनकर , ग़ज़ल की झांझर झनक रही है ।
हमारी साँसों में आज तक वो हिना की खुशबू महक रही है
लबों पे नगमे मचल रहे हैं , नज़र से मस्ती छलक रही है ।
Zeal
किसी के साथ यदि आत्माओं का मिलन नहीं है तो वह सम्बन्ध अधूरा है । विचारों का मिलना तथा किसी के सानिध्य में आनंद की प्राप्ति होना ही आत्माओं का एकाकार होना है। एकाकार होने की अवधी कुछ क्षणों से लेकर कुछ वर्षों या फिर जीवन पर्यंत हो सकती है ।
आत्मा का मिलन एक से या फिर अनेक से हो सकता है , एक ही काल में । विभिन्न देश काल आदि परिस्थियों में भिन्न भिन्न लोगों से मिलना होता है। कभी कभी तो कोई अजनबी इतना अच्छा लगता है की ह्रदय कह उठता है - मेरा तुझसे है पहले का नाता कोई ...
जैसे आत्माएं अपनी इच्छानुसार शरीर धारण करती हैं और जब उनका मन भर जाता है तो वे उस शरीर का त्याग कर देती है और वह शरीर निष्प्राण हो जाता है । उसी प्रकार किसी भी रिश्ते में , किसी अजनबी के साथ अथवा मित्र के साथ आत्माओं का संयोग और वियोग चलता रहता है संयोग की स्थिति में सत-चित-आनंद रहता है और वियोग की स्थिति में हर रिश्ता निष्प्राण हो जाता है ।
जहाँ आत्माओं का मिलन होता है वहां संवाद बिना कुछ कहे ही सपन्न हो जाता है । "मन का मीत" अनकहा भी सुन लेता है और बिना लिखा हुआ भी पढ़ लेता है ।
कुछ पंक्तियाँ समर्पित हैं मन के मीत को ....
हमारी साँसों में आज तक वो हिना की खुशबू महक रही है
लबों पे नगमे मचल रहे हैं , नज़र में मस्ती छलक रही है
कभी जो थे प्यार की ज़मानत , वो हाथ हैं गैर की अमानत,
जो कसमें खाते थे चाहतों की , उन्हीं की नियत बहक रही है ,
हमारी साँसों में...
किसी से कोई गिला नहीं है , नसीब ही में वफ़ा नहीं है
जहाँ कहीं था हिना को खिलना , हिना वहीँ पे महक रही है
हमारी साँसों में ...
वो जिनकी खातिर ग़ज़ल कही थी , वो जिनकी खातिर लिखे थे नगमे
उन्हीं के आगे सवाल बनकर , ग़ज़ल की झांझर झनक रही है ।
हमारी साँसों में आज तक वो हिना की खुशबू महक रही है
लबों पे नगमे मचल रहे हैं , नज़र से मस्ती छलक रही है ।
Zeal
आत्माएं अपनी इच्छानुसार शरीर धारण करती हैं
ReplyDeleteआत्माएं अपनी इच्छा अनुसार नहीं बल्कि कर्मों के अनुसार शरीर धारण करती हैं .....!
दिव्या जी,
ReplyDeleteवाह ...बहुत खूब कहा है आपने ...बधाई ।
ग़ज़ल भी पसन्द आयी और नूरजहाँ का गायन भी, धन्यवाद!
ReplyDeletebeautifully expressed !!
ReplyDeleteसही कहा है आपने कि उनके मन में इतना ठहराव तो है ही नहीं की मिलने वाले प्यार को महसूस कर सकें
ReplyDelete.
आज कल तो लोग उधार भी नहीं चुकाते प्रेम का बदला क्या देंगे. :)
हर तरन्नुम में मिली है मीत की आवाज मुझे,
ReplyDeleteइक ही नग़्मा सुनाता है हर इक साज मुझे
जो किसी को भी न चाहे उसे चाहना
उम्र भर अपने मन-मीत पे रहा नाज मुझे
बहुत ही ख़ूबसूरत प्रस्तूति...
ReplyDeleteआखि़री प्यार बनाम पहला प्यार उर्फ़ धोखे की दास्तान
ReplyDeleteप्यार तो प्यार है क्या पहला और क्या आखि़री लेकिन ऐसा नहीं होता। प्यार की गिनती भी की जाती है और पति अपनी पत्नि को शान से बताता है कि उससे पहले वह कितनी लड़कियों को फ़्लर्ट कर चुका है या शादी से पहले उस पर कितनी लड़कियां मरती थीं। जबकि औरत अपने पति से इसके ठीक उल्टा कहती है। वह कहती है कि उसके अलावा तो उसके मन मंदिर में कोई आया ही नहीं, कभी कोई समाया ही नहीं। अगर यह सच है तो फिर देस भर के मर्द किन लड़कियों से फ़्लर्ट करते रहे ?
वे भी तो किसी की पत्नियां बनी होंगी और उसे बता यही बता रही होंगी कि मेरा पहला प्यार तो आप ही हैं ?
पता नहीं कौन किसे धोखा दे रहा है ?
औरतें मर्दों को या फिर मर्द औरतों को ?
या दोनों ख़ुद ही धोखा खा रहे हैं ?
बहुत सी लड़कियों को लाइन मार चुकने के बाद मर्द नई लड़की को अपने झांसे में लेने के लिए कहता है कि ‘तुम पर आकर तो बस मेरी सारी तलाश और सारी जुस्तजू ही ख़त्म हो गई है। तुम मेरा आखि़री प्यार हो।‘
औरत और मर्द की सोच में कितना अंतर है ?
This comment has been removed by the author.
ReplyDeletebahut hi sundar
ReplyDeleteहमारी साँसों में आज तक वो हिना की खुशबू महक रही है
ReplyDeleteलबों पे नगमे मचल रहे हैं , नज़र से मस्ती छलक रही है ।
bemisaal........
आपने सच्ची व सार्थ्क बात कही है साथ ही ग़ज़ल भी उम्दा है।
ReplyDeleteबहुत ही ख़ूबसूरत प्रस्तूति...
ReplyDeleteजहाँ आत्माओं का मिलन होता है वहां संवाद बिना कुछ कहे ही सपन्न हो जाता है । "मन का मीत" अनकहा भी सुन लेता है और बिना लिखा हुआ भी पढ़ लेता है । ...... आपने सच्ची व सार्थ्क बात कही है
ReplyDeleteआँखें देखती हैं
ReplyDeleteबोल नहीं सकतीं
(इशारा अवश्य कर सकती है
यदि सही पढ़ सके कोई!)
कान सुनते हैं
बोल नहीं सकते
और जुबाँ न तो देख सकती है
न सुन सकती
(स्वाद अवश्य ले सकती है
खट्टा-मीठा- कडुआ बता सकती है बस -
यदि वो हलाहल न हो!)
किन्तु विडम्बना है
कि जो भी कान ने सुना
और / अथवा आँख ने देखा
गले के माध्यम से
बयाँ उसे करना होता है!
और यही भ्रम का कारण है...
जब आपके विचार और आपकी सोच एक दूसरे से मेल खाते हैं तब लगता है कि आत्मीय सम्बंध है।
ReplyDeletenice post !
ReplyDeleteवास्तविक स्वर्ग स्नेहपूर्ण सान्निध्य है. इसकी स्मृति गहरी होती है.
ReplyDeleteजहाँ आत्माओं का मिलन होता है वहां संवाद बिना कुछ कहे ही सपन्न हो जाता है । "मन का मीत" अनकहा भी सुन लेता है और बिना लिखा हुआ भी पढ़ लेता है ।
ReplyDeletethese lines are the crux and end of any discussion
kudos and keep it up ,reach greater heights
it is not an advice but my wish
औरत की हक़ीक़त
ReplyDeleteनारी तन है
नारी मन है
नारी अनुपम है
सागर से गहरा
उसका मन है
संगमरमर सा
उसका बदन है
बाल घने हैं उसके
बोल भले हैं उसके
मन हारे पहले
तन हारे पीछे
वफ़ा के पानी में
गूंथकर
प्यार की मिट्टी
सूरत बने जो
औरत उसका नाम है
हां, मैंने पढ़ा है
नारी मन को
आराम से
साए में
उसी के तन के
वह एक शजर है
फलदार
हमेशा कुछ देता ही है
पत्थर खाकर भी
क़ुर्बानी इसी का नाम है
यही औरत का काम है
BAHUT HI BADIYA POST THANKS
ReplyDeleteवाह ...बहुत खूब कहा है आपने ...बधाई ।
ReplyDeleteहमारी साँसों में आज तक वो हिना की खुशबू महक रही है
ReplyDeleteलबों पे नगमे मचल रहे हैं , नज़र से मस्ती छलक रही है ।
jindgi ke safar me na jaane kab koi khoobsurat mod aa jaaye jo aapko thithak jaane par majboor kar de.
Divya aaj ki post me dil ke bhaav kuch jaane pahchaane se lage.badhaai.thanx to post.
... पलभर को खयाली उड़ान कराने वाली पोस्ट..
ReplyDelete'पलभर' = मेरा 'दिनभर'
,सार्थक प्रस्तुति , खूबसूरत..
ReplyDeleteWAH BAHUT HI SAARTHAK LEKH YATHART BATATAA HUA,AUR BAHUT HI SUNDER GAJAL.SUNDER SHABDON KE CHAYAN KE SAATH,BAHUT BADHAAI AAPKO.
ReplyDeletebeautiful lines...
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुतिकरण्।
ReplyDeleteवाह बढ़िया ग़ज़ल है जी .
ReplyDeleteBilkul sahi kaha hai apne....
ReplyDeleteGajal bhi psand aayi...
Jai hind jai bharatBilkul sahi kaha hai apne....
Gajal bhi psand aayi...
Jai hind jai bharat
खूबसूरत और आत्मीय पोस्ट डॉ० दिव्या जी बधाई और शुभकामनायें
ReplyDelete@‘मन का मीत‘ अनकहा भी सुन लेता है और बिना लिखा हुआ भी पढ़ लेता है ।
ReplyDeleteएकदम सही बात ।
वे सौभाग्यशाली होते हैं जिन्हें मन का मीत मिल जाता है।
नूरजहां की यह ग़ज़ल कुछ पलों के लिए ‘मन का मीत‘ जैसी लगी । इसे सुनवाने के लिए आपका आभार।
:) - you brought a smile to many today ... :)
ReplyDeleteपुनश्च...
ReplyDeleteदिव्या जी, समस्या सुरों (परोपकारी, देवताओं) की है,,, कृष्ण की विभिन्न बांसुरियों के सुरों की :)
शायद हम सभी ने टीवी पर अवश्य सुना होगा, "मिले सुर मेरा तुम्हारा / तो सुर बने हमारा"!
और, सुरों यानि ध्वनि का स्रोत गले में है,,,
और पहंचे हुए योगियों ने गले को निवास स्थान बताया राक्षशराज शुक्राचार्य का (असुर, स्वार्थी), अर्थात शुक्र ग्रह के सार का!
और आधुनिक खगोलशास्त्री भी जानते हैं कि शुक्र ग्रह के वातावरण में विष व्याप्त है...
I don't believe in soul mate. Soul is one and only one. One comes alone, leaves the world alone. Once you reach higher ground, your soul meets the GOD ...that is the my theory.
ReplyDeleteतभी तो किशोर दा ने गाया था- मीत ना मिला रे मन का :)
ReplyDelete@ A, Ancient 'Hindus'who used lunar cycle for all auspicious occasions etc and continued till date - were called thus by others for they gave highest pedestal to Moon, ie, Indu depicted in the head of 'Gangadhar Shiva', ie, Earth - indicated physical human form made out of two Big zeros, or graphically two vessels (ghat) one over the other, the head holding essences of earth (at eye level)and moon (at brain level),,, while essences of six other grahas were indicated housed in the lower body...Sun's in teh middle in the solar plexus, Mar's at mooladhar the basic seat, and Venus's at throat level as the commander, responsible for holding the essences and energy components related with each within the lower level in all, except the purushottam during each Yuga, viz. Krishna in Dwapar yuga, Ram in the Treta yuga, and Shiva in Satyuga as per the mythological stories...
ReplyDeleteHowever they called the physical world mithya or illusory, ie, existence of God, Nadbindu, or the formless Supreme being, alone :)
वो जिनकी खातिर ग़ज़ल कही थी , वो जिनकी खातिर लिखे थे नगमे
ReplyDeleteउन्हीं के आगे सवाल बनकर , ग़ज़ल की झांझर झनक रही है ।
hm the jinke sahare
wo hue na hamare !
किसी से कोई गिला नहीं है , नसीब ही में वफ़ा नहीं है
ReplyDeleteजहाँ कहीं था हिना को खिलना , हिना वहीँ पे महक रही है
आपका शायराना अंदाज कुछ अलग बयां कर रहा है ,जो भी हो गजल का हर अल्फाज तारीफ -ए- काबिल है ,इस विधा में भी कहीं का नहीं छोड़ा ..... शुक्रिया तो कहना पड़ेगा ...../
"हमारी साँसों में आज तक वो हिना की खुशबू महक रही है
ReplyDeleteलबों पे नगमे मचल रहे हैं , नज़र से मस्ती छलक रही है ।"
मन के मीत को दिल से निकली पुकार. खूबसूरत गज़ल के रूप में.
फिल्म कल की आवाज के गीत 'तुम्हारी नजरों में हमने देखा अजब सी चाहत झलक रही है' की धुन पर अच्छी गजल कही आपने।
ReplyDelete------
डायनासोरों की दुनिया
ब्लॉग के लिए ज़रूरी चीजें!
दिव्याजी
ReplyDeleteआपकी सारी पोस्ट आज ही पढ़ पाई हूँ सारे विचार अनमोल है \टिप्पणी में बहुत कुछ लिखना चाहती हूँ किन्तु समयाभाव के कारण ज्यादा कुछ लिख नहीं प् रही हूँ |हाँ इतना जरुर कहूँगी आत्माओ के मिलन के लिए शब्दों
की जरुरत ही नहीं पड़ती |
"मन का मीत" अनकहा भी सुन लेता है और बिना लिखा हुआ भी पढ़ लेता है ।
ReplyDeleteसत्य है ...
मेरे मन की पोस्ट..खूबसूरत भाव लिए हुए..शुक्रिया
ReplyDeleteमन का मीत मिलना, कर्णप्रिय गीत सुनने जैसा होता है, सामने आते ही प्रसन्नता छा जाती है अस्तित्व में।
ReplyDeleteदिव्या जी, क्षमा प्रार्थी हूँ कहते की सर्व प्रथम आत्मा/ परमात्मा की पृष्ठभूमि दर्शानी आवश्यक है...
ReplyDeleteमानव जाति में केवल 'ज्ञानी', योगी, ही जान सकता है कि वो - पशु जगत का प्रत्येक प्राणी - शक्ति, यानि आत्मा, और शक्ति के ही परिवर्तित भौतिक रूप, शरीर, के योग से बना है,,,
हमारे पूर्वजों द्वारा छोड़े हुए संकेतों से आज भी कोई सत्यान्वेषी जान सकता है (मन के सही रुझान अर्थात परमात्मा, 'कृष्ण', की कृपा पर निर्भर कर!) कि प्राचीन काल में पहुंची हुई आत्माएं ही मन को साध, अर्थात तपस्या और साधना द्वारा, अनुभूति कर सकी थीं कि हमारी गैलेक्सी में उपस्थित सौर-मंडल के नौ सदस्यों - सूर्य से शनि तक - के सार से शरीर बना है,,, जिनके द्वारा परम ज्ञान पशु जगत में - विभिन्न प्रतीत होते प्रत्येक शरीर यानि अनंत ब्रह्माण्ड के प्रतिरूप में - मूलाधार से सहस्रार तक आठ चक्रों में संचित हैं, किन्तु बंटा हुआ, सूर्य से बृहस्पति तक के सार में, जबकि शनि ग्रह के सार से शरीर में व्याप्त स्नायु तंत्र (नर्वस सिस्टम) बना है जो इन आठों चक्रों में संचित शक्ति और सूचना को मस्तिष्क (चन्द्रमा के सार) से नीचे मूलाधार (मंगल ग्रह के सार) तक अथवा मूलाधार से ऊपर मस्तिष्क तक उठाने का कार्य करता है, हर व्यक्ति की क्षमतानुसार केवल उतना ही जितना किसी काल, अथवा क्षण विशेष में प्रत्येक के मन में उपलब्ध होता है,,,और उसके लिए वो ही 'सत्य' प्रतीत होता है, जो मस्तिष्क में विश्लेषण पश्चात शब्दों में परिवर्तित हो वाणी अथवा लिखित में हर कोई अपनी शारीरिक क्षमतानुसार प्रस्तुत कर सकता है - अथवा विभिन्न कारणों से मौन रह सकता है (जैसे मूर्खों की मंडली में ज्ञानी, अथवा योगियों के बीच साधारण ज्ञानी केवल ज्ञानोपार्जन करते हुए)... आदि आदि... अनादि / अनंत तक पहुँचने हेतु...
मन का मीत ही आत्मा का मीत होता है और वही असली मीत भी जो परिस्थितियों से समझौता कर रिश्तों को बचाए रखे, कुछ न भी हासिल हो, तो भी भरकस कोशिस तो करनी ही चाहिए. हमारी परंपरा भी यही है और संस्कृति भी.
ReplyDelete:):):)
ReplyDeletepranam
कई रोल मॉडेल संभव हैं...
ReplyDeleteपति, पत्नी, और वो में यह 'वो' कौन है?
परम सत्य को ढूँढ़ते जिसकी झलक 'हम' किसी अन्य में देख सोचते हैं, "कहीं ये वो तो नहीं?"
और फिर संभवतः कहते हैं, "तेरी सूरत से नहीं मिलती किसी की सूरत / हम जहाँ में तेरी तस्वीर लिए फिरते हैं"!
इसी उहापोह की स्तिथि में एक समय आ जाता है जब 'हम' हाँ कर देते हैं,,,
यदि भाग्यवान हुए तो गाडी चल पड़ती है,,, और चलती रहती है, साथ में कुछ सवारियों को लिए भी!
यह भाग्य क्या है ????? (तुलसीदास के शब्दों में 'होई है सो ही / जो राम रची राखा"!!! यानि फिल्म जैसे, कहानी अथवा लीला लिखने वाले पर निर्भर है :)
वैसे, दोनों हाथों में मस्तक रेखा देखिये - यदि सीधी है, कोई नीचे अथवा ऊपर झुकाव नहीं है, तो समझ लीजिये आपका मन काफी सधा हुआ है!!! और इसके अतिरिक्त दोनों हाथों को मिला देखने से ह्रदय रेखा एक लम्बी माला समान दिखती है तो ह्रदय का मिलन भी सही होना चाहिए!
बिना संवाद वार्तालाप की स्थिति ही आत्मिक प्रेम संबंधों का मूल तत्व है.सुन्दर ग़ज़ल के साथ सार्थक आलेख.
ReplyDeleteखुबसूरत ग़ज़ल के साथ आपका लेख भी बढ़िया लगा......शानदार|
ReplyDeleteमन का मीत जिसे मिल जाये , उस जैसा भाग्यशाली कौन हो सकता है . आप द्वारा उद्धृत की गयी ग़ज़ल एक ऐसी ही प्रेम में खोई हुई एक प्रेमिका के दिल से निकले हुए उद्गार हैं. वर्ना एक स्थिति ऐसी भी आती है कि किशोर कुमार गा उठते हैं " मीत न मिला रे मन का ......" या फिर फिल्म "अंदाज़" का यह गीत ''---------- किसी को दिल का दर्द मिला है किसी को मन का मीत -----गो ख़ुशी के गीत ....." जिसमे कुछ खो जाने की पीड़ा साफ़ झलकती है , पर फिर भी दिलीप कुमार झूम झूम के नाचने को कहते हैं.
ReplyDeleteएक अलग विषय पर आलेख लिखने के लिए आभार और बधाई !
man ke meet ko kuchh batane ke liye kisi awaaj ki jaroorat nahi hoti...vaakai...
ReplyDeleteवो जिनकी खातिर ग़ज़ल कही थी , वो जिनकी खातिर लिखे थे नगमे
ReplyDeleteउन्हीं के आगे सवाल बनकर , ग़ज़ल की झांझर झनक रही है ।
हमारी साँसों में आज तक वो हिना की खुशबू महक रही है
लबों पे नगमे मचल रहे हैं , नज़र से मस्ती छलक रही है ।
...ek naye andanj mein badiya aalekh aur phir sundar gajal padhna bahut achha laga...
आपने तो मेरे मन की बात कह दी।"जहाँ आत्माओं का मिलन होता है वहां संवाद बिना कुछ कहे ही सपन्न हो जाता है।"मन का मीत" अनकहा भी सुन लेता है और बिना लिखा हुआ भी पढ़ लेता है।"
ReplyDelete.
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ग़ज़ल तो बहुत ही सुंदर बन पड़ी है।
बहुत सुन्दर मनमोहक प्रस्तुति है आपकी.
ReplyDeleteआपके सुन्दर भाव प्रेरणास्पद हैं.
रक्षाबन्धन के पावन पर्व पर हार्दिक शुभकामनाएँ.
@ केवल राम जी,
बिना इच्छा के कोई कर्म नहीं हुआ करता.जिन इच्छाओं के कारण
कर्म करना पड़ता है वे ही आत्मा को तदनुसार शरीर के बंधन में
बांधती है, वर्ना बिना इच्छा के प्रभु को समर्पित'निष्काम' कर्म तो 'कर्मयोग'का साधन है जो 'मुक्ति' प्रदान करनेवाला हैं.
सर्व प्रथम सोचने वाली बात यह है कि 'हम', मानव और अन्य सभी अस्थायी जीव, अपने लिए आये हैं कि किसी और के लिए (किसी शून्य काल और स्थान से सम्बंधित निराकार, अनादि - अनंत माने जाने वाले अदृश्य, निर्गुण, किन्तु परम ज्ञानी, सर्वगुण संपन्न, आदि आदि जीव के लिए)? और क्या हमारा उद्देश्य केवल उस को जानना है? आदि आदि...
ReplyDelete'मैं' मानव द्वारा रचित टीवी आदि बिजली से चलने वाले यंत्र को एक बटन दबा के बंद कर सकता हूँ,,, किसी व्यक्ति विशेष का भी उसी भांति टेंटुआ दबा कर उसे भी! किन्तु 'मैं' अपने को अपने ही मन में उठाते विचारों को उसी समान नहीं रोक सकता,,, सो भी जाऊं तो स्वप्न के रूप में विचार आने लगते हैं, कुछ डरावने तो कुछ मधुर...जिन पर मेरा कोई नियंत्रण नहीं होता है...
'मेरे' टीवी बंद करने से किसी पडोसी को आपत्ति शायद नहीं हो सकती है - जोर से सुनने में संभवतः उसे हो,,,
किन्तु यदि उस समय उस यंत्र को मेरे अतिरिक्त मेरे कोई अन्य सम्बन्धी भी, जो उस कक्ष में हों और उन में से कोई अथवा सभी देखना चाहते हों, तो 'मेरी' इच्छा तभी चलेगी जब टीवी देखने या न देखने का निर्णय 'मैं' करता हूँ - उस जल्लाद समान जो टेंटुआ दबा, यानि फांसी देने के लिए नियुक्त किया गया हो!
रक्षा बंधन के शुभ अवसर पर 'बहन के भाई के हाथ में बांधे धागे सांकेतिक हैं अष्टभुजा धारी दुर्गा के कवच के' कहते हुए आप सभी को हार्दिक शुभकामनायें!
संयोग की स्थिति में सत-चित-आनंद रहता है और वियोग की स्थिति में हर रिश्ता निष्प्राण हो जाता है ।
ReplyDeleteसच कहा आपने ..भारतीय दर्शन को व्यक्त करती रचना
रक्षाबंधन एवं स्वाधीनता दिवस के पावन पर्वों की हार्दिक मंगल कामनाएं.
ReplyDelete"...आत्माओं का संयोग और वियोग चलता रहता है संयोग की स्थिति में सत-चित-आनंद रहता है और वियोग की स्थिति में हर रिश्ता निष्प्राण हो जाता है ।..."
ReplyDeleteजहां तक मिलने और बिछुड़ने का सम्बन्ध है किसी ने कहा कि कुछ ऐसे होते हैं जिनके आने से हमें ख़ुशी होती है और, कुछ जिनके जाने से!
मान्यता है कि निराकार परमात्मा ही केवल सदैव परमानन्द की स्थिति में होता है और वो परमज्ञानी आत्मा रूप में सब प्राणीयों के भीतर भी है किन्तु यदि दुःख की अनुभूति होती है तो वो उसके अज्ञानी शरीर से योग के कारण होती है,,,
किन्तु, एक फकीर भी उस स्थिति में रह पाता है क्यूंकि वो आत्मा से, मन को साध, 'कृष्ण' के साथ सदैव जुड़ा रह पाता है,,,
और, ज्ञानी, जोगी, ऋषि, मुनि, सिद्धों आदि ने भी कहा कि परम ज्ञान तो प्रत्येक शरीर के भीतर है, किन्तु विभिन्न चक्रों में बंटा हुआ, जिस कारण परमानन्द पाने के लिए 'कुण्डलिनी जागरण' आवश्यक है...
'देवी' ('पहाड़े वाली, शेरा वाली माता') के विशाल जागरण तो भारत में यत्र-तत्र-सर्वत्र होते देखे जा सकते हैं, किन्तु, शायद कलियुग के प्रभाव से वे अधिकतर वर्तमान में सभी को अज्ञानता वश, माया के कारण, निरर्थक प्रतीत होते हैं...
हमारी साँसों में आज तक वो हिना की खुशबू महक रही है
ReplyDeleteलबों पे नगमे मचल रहे हैं , नज़र में मस्ती छलक रही है
...वाह! इस पोस्ट को पढ़कर आनंद आया।
...सांसारिक प्रेम सुख दुःख दोनो देते हैं। भगवान से प्रेम ही स्थायी रहता है।
.
ReplyDeleteआदरणीय JC जी ,
आपने विभिन्न प्रकार से विषय की व्याख्या की है ! इस ज्ञान विस्तार के लिए आपको मेरा ह्रदय से आभार !
-----
रक्षाबंधन के इस पावन पर्व पर अपनी सभी ब्लौगर बहनों और ब्लौगर भाइयों को प्यार, मिठाइयाँ एवं शुभकामनायें ! ईश्वर से प्रार्थना है ये स्नेह इसी तरह हमारे दिलों में पल्लवित होता रहे !
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बहनों के लिए एक सुरक्षित समाज का निर्माण ही हम सब भाईयों की असल ज़िम्मेदारी है, हम सभी भाईयों की, हम चाहे किसी भी वर्ग से क्यों न हों ?
ReplyDeleteहुमायूं और रानी कर्मावती का क़िस्सा हमें यही याद दिलाता है।
रक्षाबंधन के पर्व पर बधाई और हार्दिक शुभकामनाएं...
देखिये
हुमायूं और रानी कर्मावती का क़िस्सा और राखी का मर्म
पहले तो आपको रक्षाबंधन की बधाई
ReplyDeleteआप अपने विचारों को जिस तरह शब्दों में ढालती है, उसका कोई जवाब नहीं। ना सिर्फ बेबाक सोच, बल्कि उसकी प्रस्तुति भी बिना लाग लपेट के।
बहुत सुंदर.. ये लाइनें बहुत पसंद आई
हमारी साँसों में आज तक वो हिना की खुशबू महक रही है
लबों पे नगमे मचल रहे हैं , नज़र में मस्ती छलक रही है
रक्षा बंधन की हार्दिक शुभकामनाएँ!!!
ReplyDeleteबहुत सार्थक और सुन्दर प्रस्तुति ....
ReplyDeleteहाँ एक अंतर जात ,जन्मना ,पसंद -ना -पसंदगी का इनपुट लिए आतें हैं हम लोग इस दुनिया में जो अच्छा लगता वह इसीलिए आणविक स्तर पर उसकी मांग शरीर का जर्रा जर्रा ,अणु-दर-अणु करने लगता है नेनो -स्केल ,मोलिक्युँल्र लेविल पर होता है यह आकर्षण .अच्छी पोस्ट -
ReplyDeleteकृपया यहाँ भी इसी नेनो स्केल पर किसी का इंतज़ार है -
HypnoBirthing: Relax while giving birth?
http://kabirakhadabazarmein.blogspot.com/
व्हाई स्मोकिंग इज स्पेशियली बेड इफ यु हेव डायबिटीज़ ?
रजोनिवृत्ती में बे -असर सिद्ध हुई है सोया प्रोटीन .(कबीरा खडा बाज़ार में ...........)
मनमीत या आत्मीय संगी स्वाभाविक है कि आत्मा से जुड़ा होगा / होगी तो उसमें आत्मा के सार तत्व का समावेश जाहिर है कि होगा ही .
ReplyDeleteआत्मा क्या है ?
अछेद्य इयं अदह इयं अक्लेद्य अशोष्य एव च , नित्य सर्वगत स्थानर अचल इयं सनातन (गीता अध्याय २ श्लोक २४ )
अव्यक्त इयं अचितन्य अविकार इयं उच्यते ( वही २५ )
दोनों का सार है कि : आत्मा सनातन है , अव्यक्त है , अचितन्य , विकार रहित यानि पवित्रतम .
अब ये सारे गुण जिस सम्बन्ध में हो , वह उच्चतम होगा ही , निस्संदेह , और कालजयी भी होगा , युगान्तरकारी भी होगा और फलस्वरूप - एक पल में एक युग जीने का एहसास करा जायेगा , और एक उम्र में ? एक काल का , जिस में ना जाने कितने उम्र समा जाते हैं .
यक्ष प्रश्न यही है कि - आत्मा के गुण यथा सनातन , अव्यक्त , अचितन्य , विकार रहित यानि पवित्रतम तो किसी भी जैविक प्राणी में नहीं है तो फिर ऐसे दो विकारी के मिलन से अविकारी सम्बन्ध कैसे उत्पन्न होगा ? व्यक्त कर अव्यक्त कैसे ? मरणशील से अमर सनातन कैसे ?!!
जो गहन चिन्त्य वृति वाले हैं वो इस अचिन्त्य भेद को जरूर जानेंगे . युगों का या भेद उनसे नहीं छुपा रह सकता है . स्व आत्मीय भव.
आखिर असंभव को संभव जो कर दे वही है मनमीत या Soulmate
बहुत सही!!
ReplyDeleteSUPERB POST
ReplyDeleteSANJAY VARMA
कई बार सोचा, कह दूँ कहानी,
ReplyDeleteमगर मीत मन का न कोई मिला है।
कई बार सोचा, कह दूँ कहानी,
मगर अपना बनकर लोगों ने छला है।।
बहुत सार्थक और सुन्दर प्रस्तुति ....स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ...
ReplyDeleteरक्षा-बंधन और स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ
ReplyDeleteस्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ
ReplyDeleteअब मेरा आना शायद रेगुलर हो पाए.
लंबे समय से अनुपस्थित था.
इस राह में कई मोड़ हैं, कोई आएगा कोई जाएगा...
ReplyDeleteतुम्हें जिसने दिल से भुला दिया, उसे भूलने की दुआ करो...
स्वत्रंता दिवस पर ही नहीं अपितु सदैव बहुत से भारतियों की आँखें पानी से भरी रहती हैं :(
ReplyDeleteजो 'भारत' में वर्तमान में स्वतंत्रता दिवस पर होते दिख रहा है, यानि सभी 'आम भारतीय' की व्यथा प्रतिबिंबित होते प्रतीत हो रहा है, उस पर विचार आवश्यक है...
इसे संयोग कहें कि किसी अदृश्य शक्ति का डिजाइन कि मैंने भी तिरंगे को '४७ से अन्य भारतवासियों की नक़ल कर वर्षों सलामी दी...किन्तु एक दिन, टीवी पर, लगा झंडे में मुझे 'मेरा' ही प्रतिबिम्ब दिख रहा था!...
वो इशारे कर रहा था कि जब हम उस में गुलाब की पंखुड़ियां रख रस्सी में बाँध लटका देते हैं तो क्या अपनी गुलामी की याद नहीं आती? रस्सी से बंधा किन्तु अपने ह्रदय में अच्छाई समेटे!
'वी आई पी' के हाथों से रस्सी खींचे जाने पर आनन् फानन में मुक्ति पा आकाश में फहराने में क्या हमें अपनी स्वतंत्रता का अहसास नहीं होता?
किन्तु दूसरी ओर, दोष शायद 'हवा' का नहीं है क्या कि जैसे हमने ऊंचाई पा ली हमारी अच्छाई हवा ने हर ली, पंखुड़ियां बिखर गयीं, और 'हवा लगते ही' हम गर्व से फड़फड़ाने लगते हैं और ऊंचाई पा नीचे सलामी देते 'आम आदमी' हमें तुच्छ लगते हैं?
हवा रुक जाने पर ही केवल लगता है कि स्वतंत्रता का अर्थ ही पता नहीं है! जब झंडा, धरा पर शाष्टांग प्रणाम करते व्यक्ति समान, अपने आधार, डंडे पर, सिमट जाता है,,, शायद सोचते कि लोग सलामी मुझे दे रहे थे अथवा डंडे को?...
शायद स्वतंत्रता दिवस द्योतक है मोक्ष का, परम ज्ञान को पाने का!
'स्वतंत्रता दिवस' की सभी भारतीय ही नहीं अपितु सभी सांसारिक प्राणीयों को बधाई!
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ReplyDeleteआपकी पोस्ट "ब्लोगर्स मीट वीकली "{४) के मंच पर शामिल की गई है /आप आइये और अपने विचारों से हमें अवगत कराइये/आप हिंदी की सेवा इसी तरह करते रहें ,यही कामना है /सोमवार १५/०८/११ को आपब्लोगर्स मीट वीकली में आप सादर आमंत्रित हैं /
ReplyDeleteअगर हम जल जैसा बन जाये तो यह मिलन और सार्थक हो जाती है ! बहुत सुन्दर ! स्वतंत्रता दिवस की बधाई !
ReplyDeleteस्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाई और शुभकामनायें.
ReplyDeleteस्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ...
ReplyDelete"हमारी साँसों में आज तक वो हिना की खुशबू महक रही है
ReplyDeleteलबों पे नगमे मचल रहे हैं , नज़र से मस्ती छलक रही है ।"
वाह ! क्या बात है !
स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं।
बढ़िया लघु लेख और साथ में खुबसूरत ग़ज़ल ......'मन का मीत' मन को आह्लादित कर गया |
ReplyDeletejahan aatmaon ka milan hota hai wahan samvaad bina kuchh kahe hi sampann ho jata hai....
ReplyDeletesahmat hun aapse...
abhaar.............
बहुत सार्थक और सुन्दर प्रस्तुति ....
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