Saturday, September 10, 2011

मरणोपरांत

जीते जी जो मिल जाए वही सब कुछ है , मरने के बाद जो मिला तो क्या ख़ाक मिला।

अनेक विद्वानों और कलाकारों को उनके मरने के बाद उनके योगदान के लिए सम्मानित किया जाता है। ऐसी प्रतिभाएं क्या उस मान और सम्मान को महसूस कर सकेंगी? क्या उस एहसास को जी सकेंगी जो जीते-जी किया जाता है। क्यूँ नहीं इंसान को वो प्यार और सम्मान उसके जीवित रहते ही मिलता है जिसका वो हक़दार है, जिसे वो अपने परिवार, इष्ट-मित्र और चाहने वालों के साथ बाँट सके।

ज़िन्दगी इतनी छोटी होती है की प्यार लुटाने के लिए काफी नहीं होती। फिर भी इंसान ईर्ष्या और द्वेष में ही फंसा रहता है। पुरस्कार का हक़दार ही नहीं ढूंढ पाता। आज प्रतिभाएं इतनी ज्यादा हैं की उन्हें तलाशने में श्रम ज्यादा नहीं लगना है। यदि कम योग्य व्यक्ति भी पुरस्कार पा लेगा तो गुनाह नहीं होगा। लेकिन एक योग्य व्यक्ति अगर मरणोपरांत सम्मानित होता है , तो उसका कोई औचित्य नहीं है क्यूंकि सम्मानित व्यक्ति उस सुख को नहीं महसूस कर सकता जो जीवित व्यक्ति करता है।

यदी मरणोपरांत सम्मानित किये जाने की ये परंपरा जारी रहेगी तो जीवित प्रतिभाओं के साथ अन्याय होता रहेगा।

अतः किसी को सम्मानित करने के लिए उसके मरने का इंतज़ार मत कीजिये। प्यार, विश्वास , सम्मान और दुलार की दौलत लुटाइए ...बेहिसाब !

कहीं देर न हो जाए।

58 comments:

  1. सार्थक सोच !! मरणोपरांत प्रदान किए जाते किसी भी तरह के सुख, भावनाओं और सम्मान का कोई औचित्य नहीं है।

    जीते जी तो भूख से मारा, मरने के बाद कब्र-समाधी पर मिठाई चढाने का क्या अर्थ?

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  2. सही कह रही हैं आप ।
    इत्तेफाक से मरण पर अभी अभी दूसरी पोस्ट पढ़ रहा हूँ ।

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  3. अर...रे क्या बात कर रही हैं. जो मजा मरणोपरान्त में है, वो जीते जी कहां. ये भी कोई बात है कि जिन्दा पर ही पुरुस्कार मिल जाये.और अगर जीवित पर भी दिया जाये तो तब जब व्यक्ति के हाथ पैर हिल भी मु्श्किल से पायें तब ही आनन्द है...

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  4. मरणोपरांत ही समाज व्यक्ति विशेष के बारे में तटस्थ हो कर चिंतन करता हैं। कमियों गिनाना और गुणों की उपेक्षा करना कितना अमानवीय है लेकिन सत्य यही है कि सभी यही करते हैं।

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  5. आप के विचारों से सहमत हूँ...

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  6. बिलकुल सही कहा आपने लोगों को मरने के बाद ही बड़े बड़े पुरुष्कार दिए जातें हैं /ये बड़ी अजीब बात है /बहुत ही सार्थक लेख /बधाई आपको /

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  7. जीवन बीमा निगम की, अपनाई क्यूँ रीत|
    जब बेचारा चल बसा, चले निभाने प्रीत ||


    शानदार प्रस्तुति |

    बधाई ||

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  8. मरणोपरान्त पुरस्कार तो पुरस्कारदाताओं को स्वर्ग मे जाकर ही देना श्रेयस्कर होगा!

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  9. मरने के बाद किसी भी इंसान की अच्छाई अधिक नज़र आती हैं. शायद इसी लिए मरने के बाद सम्मान दिया जाता है. इस परम्परा मैं कोई बुराई नहीं. जीवन मैं ना सही मरणोपरांत तो इज्ज़त दी गयी. हाँ अधिक अच्छा तो यही है की यह इज्ज़त जीवित रहते दी जाए.

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  10. बहुत अच्छी पोस्ट है !
    यहाँ मुर्दों को सम्मान दिया जाता है
    यही इस दुनिया का नियम है दिव्या जी !

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  11. मिलता मौत के बाद ही है ताउम्र की हिसाबो किताबत की जाती है। और गीता का आर्थ भी यही है जीवन इस जिंदंगी मे मिलने वाले लाभ हानी को छोड़ उस पर अर्पण कर ने से ही मोक्ष है पर आपका मत भी सही है जिसको जो दाय हो देना ही चाहिये

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  12. पता नहीं आपके मन में किसको दिया गया सम्मान है, किन्तु कई फौजियों को मरणोपरांत दिया गया सम्मान और धन राशि आदि पुरूस्कार उसके बीबी बच्चों को आर्थिक सहायता पहुंचाता है...
    वो अन्य दूसरों को प्रेरणा भी देता है अपना जीवन देश हित में लगा देने को...
    ये दूसरी बात है कि कलियुग में फेक एन्काउन्टर कर भी सम्मान और पुरूस्कार कई जीते जी भी पा लेते हैं 'वर्तमान भारत' में...

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  13. बजा फ़रमाया .जीते जी मिल जाए तो अच्छा है .

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  14. जीते जी तो कुछ लोग माँ बाप को भी कहाँ पूछते है और मरने के बाद जनेऊ डालकर, धोती लपेटकर, चेहरे पर बेचारगी भाव लाकर पूरे मोहल्ले/गाँव को माँ बाप के नाम पर कई व्यंजन खिला डालते हैं.वाह रे दुनिया.

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  15. बहुत सही और सार्थक सोच. जीवित रहते पूछो नहीं और मरने पर याद करो या सम्मान दो, यह हमारे समाज का सबसे बड़ा दोगलापन है. बहुत सटीक आलेख.

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  16. फौजियों को इस परिधि से अलग रखा जावे क्योंकि वे शहीद हो जाते हैं और मरणोपरांत सम्मानित करना उचित ही है. परन्तु दुसरे क्षेत्र की जो प्रतिभाएं हैं, उनकी प्रतिभा आंकलन तो मृत्यु पूर्व किया ही जा सकता है.

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  17. बेटा ,सम्मान के वास्तविक अधिकारी,अपने श्रेष्ट कर्म, सम्मान पाने के लिए नहीं करते ! सरहद का सेनानी, कर्तव्य पालन करता है, जननी जन्मभूमि की रक्षा के लिए, मरणोपरांत सम्मानित होने के लिए नहीं ! हम कलम के फौजियों को भी अपना धर्मयुद्ध लड़ते रहना है ,इस विश्वास के साथ कि योगेश्वर कृष्ण अपना वादा कभी न कभी तो पूरा करेंगे ही ! अस्तु "मा शुचः"
    अंकल आंटी - भोला कृष्णा

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  18. बड़प्पन पहचानने में बहुत देर कर देते हैं प्रशंसक।

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  19. बहुत सार्थक सन्देश !

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  20. दिव्या दीदी, बहुत सही सोच है| मरने के बाद सम्मान देने की प्रथा के चलते हम जिन्दों को अनदेखा कर देते हैं|
    मेरा मानना है की मरने के बाद सम्मान ज़रूर मिले किन्तु जिन्दों का भी ध्यान रखें| मरने के बाद किसी को मिला सम्मान दिवंगत आत्मा के किसी काम का नही, किन्तु उसके परिवार के लिए यह एक सम्मान है| जैसा कि जेसी जी ने उदाहरण दिया, बेहद सार्थक है|

    किन्तु यह भी क्या बात हुई कि जिन्दे को तो गालियाँ दे रहे हैं और उसके मरते ही उसे स्वर्गीय कह दिया?

    मेरे एक किसान मित्र ने एक बार ऐसा ही एक उदाहरण बताया था|
    उसके गाँव में खेतों के आस पास एक पागल फ़कीर घूमा करता था| लोग उसे देखते ही पत्थर फेंक कर मारते थे| वह भी बेचारा किसी प्रकार अपनी जान बचा कर यहाँ वहां भागता रहता| कोई उस पर दया कर कुछ खाने को दे जाता तो खा लेता, नही तो भूखा ही रहता|
    एक दिन सुबह सुबह किसी खेत में उसका शव मिला| उस साल उस खेत में अच्छी फसल हुई व किसान को बहुत मुनाफा हुआ|
    गाँव वालों ने उसके शव के स्थान पर एक पीर बना दिया| आज दूर दूर से लोग वहाँ मत्था टेकने आते हैं|
    बेचारे को जीते जी ही सम्मान दे देते, अब उसके नाम के पीर पर चादर चढाने से उस बेचारे का क्या भला होगा?

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  21. brilliant issue ,posthumously only we can pay homage with some flowers,totally we are unawared
    in life time whenever it is needed most .

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  22. चचा गालिब ने कहा था-

    चन्द तसवीरें-बुताँ चन्द हसीनों के ख़ुतूत,
    बाद मरने के मेरे घर से यह सामाँ निकला ।

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  23. मरणोपरांत सम्मान - क्या ऐसा नहीं लगता है कि आयोजक ने किसी विभूति के नाम का सहारा लेकर अपने नाम को या अपने बैनर के नाम को प्रचारित करने के लिये सारी ताम-झाम की है.कोई किसी क्षेत्र में यदि सम्मान करने योग्य है तो उनका सम्मान कर ही देना चाहिये.उसके अच्छे कार्यों का मूल्यांकन करने में इतनी विलम्ब क्यों ?

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  24. सरकार का शायद यह मंतव्य रहता होगा कि मरणोपरांत सम्मानित करने पर दिवंगत इंसान (स्वर्ग या नरक) जहां भी रहता होगा वहां भी उसका सम्मान और रूतबा बढ जाता होगा.:)

    रामराम.

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  25. साहित्य, कला,विज्ञान, संगीत, खेल, समाज सेवा जैसे क्षेत्र की प्रतिभाओं को उनके जीवन काल में ही सम्मानित किया जाना श्रेयस्कर है।
    लेकिन सेना में प्रतिभा के अतिरिक्त साहस, पराक्रम और शौर्य का भी प्रदर्शन होता है जो कई बार मरणोपरांत ही ज्ञात हो पाता है

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  26. दिब्या जी आपने बहुत अच्छा विषय बहस के लिए निकला है ------ -----बहुत -बहुत धन्यवाद.

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  27. ये बस्ती है मुर्दा परस्तों की बस्ती...मरने के बाद भी आदर से याद कर लिया जाय ये भी काफी है...

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  28. एकदम सही कहा है.ये मरणोपरांत सम्मान की बात तो अपनी भी समझ में नहीं आती.

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  29. @ Bhola-Krishna जी ने योगेश्वर कृष्ण (/ विष्णु / भूतनाथ शिव) को अपना वचन कभी न कभी निभाने की बात की तो वो गीता में भी कह गए 'हम' सब आत्माएं हैं - शरीर तो केवल आत्मा का वस्त्र है, एक चोला जो अनंत काल-चक्र में आत्मा बदलती रहती है... इत्यादि इत्यादि...

    इस कारण सम्मान चाहे जीते जी दिया जाए अथवा मरणोपरांत, सम्मान तो अनादि और अनंत को, आत्मा / परमात्मा को ही दिया जा रहा है... कृष्ण कहते हैं यदि आप किसी को गाली देते हैं तो आप मुझे ही गाली दे रहे हो, क्यूंकि मैं (बहुरूपिया) सभी के भीतर हूँ... और सारी गलतियों का कारण अज्ञान है :)

    "सत्यम शिवम् सुन्दरम", एवं "सत्यमेव जयते" ...
    और हिन्दू मान्यतानुसार भी सत्य वो है जो काल पर निर्भर नहीं है...

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  30. जीते जी किसी को सम्पूर्ण प्रशंसा कभी मिली है क्या ? व्यक्ति के जाने के बाद ही उसका मूल्यांकन और उसकी कमी को प्रबुद्ध लोग महसूसते हैं !किसी के सामने किया जाने वाला गुण-गान चापलूसी की श्रेणी में भी आ सकता है,पर किसी के न रहने पर उसे भरपूर सम्मान देने वाले लोग दुर्लभ होते हैं.कहते हैं ,सामने भले बड़ाई न करो,मगर पीठ पीछे बुराई तो वर्जित ही है !
    जो लोग जीते-जी किसी को समझ जाते हैं,यह तो उत्तम ही है,पर जो लोग न जीते जी समझते हैं और न जाने के बाद ,उनको क्या कहेंगी आप,'जल-कुक्कड़?

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  31. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी की गई है!
    यदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।

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  32. @ संतोष त्रिवेदी जी, जीते जी तो गणेश जी के वाहन की दौड़ का आनंद उठाने वाले 'जल कुक्कड़' के मन में तो सदैव दूसरी ओर यही प्रश्न उठता रहता है " इसकी कमीज़ मेरी कमीज़ से अधिक सफ़ेद कैसे है?" हीनता की भावना रखने वाला दुसरे को सम्मान भला क्या देगा (?)...
    "गणपति बप्पा मोर्या / पुढचा वर्षी लौकर आ"!
    (मुंबई में और टीवी पर भी सुनता हूँ, मराठी जानने वाले कृपया त्रुटी सुधार करें)...

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  33. आपके तर्क मज़बूत हैं.... दिव्या जी.
    किन्तु मैं एक दूसरे किस्म के प्रयासों के खिलाफ हूँ .... वह यह कि
    कुछ प्रतिभाशाली (?) लोग अपने जीतेजी इतना दंद-फंद करते हैं ... और जीते-जी अमर हो जाना चाहते हैं...
    वह मरने के बाद मिलने वाली कीर्ति-सुगंध को सूंघ लेना चाहते हैं...
    ऐसे लोग भक्तों के बीच भगवान् बनकर रहते हैं.... जैसे सत्य साईँ
    ऐसे लोग अपनी कम्पनी के कर्मचारियों के बीच माईबाप बनकर रहते हैं,
    जबकि कर्मचारियों से ही किसी कम्पनी का वजूद होता है. भक्त की अंधभक्ति से ही कोई स्वर्णआसन पर बैठ अपना चरणामृत पीने योग्य बताता है.
    मैंने ऐसे तमाम विद्वान् देखे ... सन्त-साधु देखे ... जो अपनी विद्वता और कल्याण कार्यों का रिटर्न चाहते थे ...
    वे अपनी शुष्क विद्वता से नम मान्यताओं को झुकाना चाहते थे.. और जनहित कार्यों में अपनी यशेषणापूर्ति करते दिखे...

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  34. मैं मानता हूँ असल प्रतिभा को सर्वप्रथम अवसर मिलना चाहिए ...
    उसके बाद उसे समुचित प्रशंसा मिलनी चाहिए ...
    उचित सम्मान और आवश्यकतानुसार यदि उसकी प्रतिभा आजीविका की चाहना करती है तो उसे वह भी मिलना चाहिए.
    कुलमिलाकर प्रतिभावों को उर्वरा भूमि मिलनी चाहिए जिससे कि वह फलेफूले न कि दमघोट कर आत्महत्या कर ले.

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  35. शहीदों का मरणोपरांत सम्मान करना हमारी विवशता है... किन्तु संघर्षशील प्रतिभाओं को पहचानने की आँखें शासन के पास होनी ही चाहिए अन्यथा प्रतिभाएँ असमय कुंठित हो जाती हैं... बेमौत मरती हैं... पलायन करती हैं.... जब ऎसी प्रतिभाओं को मरणोपरांत पुरस्कार और सम्मान पाते देखता हूँ क्षोभ होता है.

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  36. कई प्रतिभाओं को अकारण जरूरत से ज़्यादा समान मिलते देख भी सह नहीं पाता ...
    किसी की परवरिश होती है धन-ऐश्वर्य में .... वह चाहे कुंद-मति ही क्यों न हो ... उसका संघर्ष रोज़गार के लिये नहीं होता न ही आजीविका के लिये ... न ही कलाप्राप्ति के लिये ... वह संघर्ष करता है जबरन प्रसद्धि के लिये .... जबरन लोकप्रियता हासिल करने के लिये .... वह अपने कुकर्मों को भी पालिश करके चमकदार बनाने में संघर्षशील दिखता है. ............ ऐसे लोगों को इतिहास के पन्नों में वही लोग स्थान देते हैं जिनके रक्त में चाटुकारिता के गुणसूत्र होते हैं. वे खुद भी अमर होते हैं और अपने आकाओं को भी अमर बना जाते हैं. आधुनिक इतिहास में ऐसे तमाम उदाहरण बिखते हुए हैं.

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  37. अपने अंतिम समय से पहले तक जो राजीव बोफोर्स का दाग लेकर जी रहे थे सभी विरोधियों की कटुक्तियों को सुन रहे थे .
    परलोक सिधारते ही स्वर्गीय हो गये ... सुन्दर-सुन्दर उक्तियों के पात्र हो गये ... भारत रत्न हो गये ... सिक्कों पर छाप दिये गये.
    मरे हुए व्यक्तियों पर हम कितने करुणाद्र हो जाते हैं... सहानुभूति की झमाझम बारिश कर देते हैं.... चाहे वह व्यक्ति दागी ही क्यों न हो?
    अपने ही नहीं अपनी भावी पीढ़ियों के पूरे जीवन को उनके गुणगान गाने में लगा देता है ... भरपूर प्यार लुटाता है.
    हाँ, सबल प्रमाणों को छिपाने में पूरी ताकत लगा देता है सच को झूठ बना देता है और झूठ को सच.

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  38. "जीते जी जो मिल जाये वही सब कुछ है... मरते हुए जो मिला वह क्या ख़ाक मिला"

    @... इसी सूत्र को ध्यान में रखकर कई प्रतिभाशाली(?) अपनी गुप्त तिजोरियों को भरने में लगे हैं..
    ... स्वर्गीय वाला यश अपने जीवनकाल में ही महसूस कर लेना चाहते हैं.
    ... जीते जी कुछ कमी न रह जाये ... कोई अभाव उनके पूतों को न खले ... चाहे उन्हें कुछ भी क्यों न करना पड़े.
    एक काव्य-सूक्ति कहता हूँ.... "पूत कपूत तो क्या धन संचय, पूत सपूत तो क्या धन संचय."
    'धन' के स्थान पर किसी भी 'प्राप्य' को रख सकते हैं....
    प्रतिष्ठा यदि झूठी कमाई तो क्या कमाई
    प्रतिष्ठा यदि सच्ची कमाई और अपनी एक छोटी-सी भूल से अंत समय में गंवाई तो क्या कमाई.
    ........... इसलिये व्यक्ति का समय-समय पर मूल्यांकन तो जरूर किया जाये किन्तु 'भारत रत्न' जैसे सम्मान उनके जीवन के अंतिम पडाव पर या मरणोपरांत ही दिये जाएँ... सैनिकों को उनके शौर्यकर्म पर समय-समय पर, कवि-लेखकों को उनके सामयिक उपयोगी साहित्य पर आंकते रहना चाहिए... उनके मरने का इंतज़ार नहीं करना चाहिए...

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  39. Agree with P N Subramanian's and Bhola - Krishna's views.
    Regards
    GV

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  40. एक सामयिक विश्लेषण और ज्वलंत मुद्दा , अक्सर देखा गया है जीते जी मुह फेरे लोग मरने के बाद तारीफ में कसीदे काढने लगते है . बहुत अच्छा आदमी था , बहुत सहृदय थी ताई .. के विश्लेषण किसी काम के नहीं होते. जीते जी किसी बीमार के सिरहाने बैठकर .. उसके प्रति संवेदना, प्यार और अपनेपन का स्नेहिल हाथ .. मरणोपरांत दिए गए भारत रत्न से कहीं .अधिक मानवीय है.

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  41. मानव जीवन और इसकी परंपरा गत भारतीय मान्यताएं विचित्र ही कह सकते है...

    जुआ खेलना, परिवार का त्याग आदि बुरे हैं (?) किन्तु धर्मराज कहलाने वाले युधिस्थिर जुआरियों, मूर्खों के शीर्ष कहे जा सकते हैं वर्तमान नवयुवकों/ युवतियों द्वारा जो कहते हैं वो भगवान् को मानते ही नहीं हैं...

    और, भगवान् कहलाने वाले बुद्ध अपना गृहस्त का धर्म न निभा, परिवार को त्याग कर, महल / घर से निकल गए,,,
    और उनके अनुयायी "बुद्धम शरणम् गच्छामि / धम्मम शरणम गच्छामि /...आदि" कहते फिरते हैं (यानि परिवार का त्याग सही है, धर्म है (?)...

    कुंदन लाल सहगल की गायी गयी चंद लाइनें याद आती है, "...साथ मनुस के गयी बुराई / रह गयी उसकी भलाई // तुम भी मन में फूल को रखना / और काँटों को भुला देना"...

    हम तो भाई प्रतुल जी इसी कारण कृष्ण पर छोड़ दिए, किन्तु साथ साथ ज्ञानोपार्जन भी कर रहे हैं ज्ञानी लोगों की संगत कर...

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  42. आप के विचारों से सहमत हूँ.

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  43. आपके विचारों में सदा एक नई सोच होती है.बहुत ही महत्वपूर्ण विषय है. जीते जी ना मान किया , मरने पर सम्मान किया.कम से कम साहित्य के क्षेत्र में अब तो जीते जी सम्मान की परम्परा का शुभारम्भ हो जाना चाहिये.अन्य क्षेत्रों में इस शुरुवात का निश्चय ही सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा.

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  44. yah alekh der se padha but vichaarniye vaad vivaad ke yogya hai.mera bhi yahi manna hai ki parishrami ko uska inaam uske paseena sookhne se pahle hi mil jana chaahiye sena me samman dena kuch alag mudda ho jaata hai kintu baaki vibhaagon me to jeete jee hi samman milna chaahiye.

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  45. मरणोपरांत किसी को पुरस्कार पाते देखते हैं तो अक्सर यही सवाल मन में उठता है कि जीते जी सम्मान मिला होता तो एक जीतभरी मुस्कान के साथ विदा हो पाता...

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  46. प्रतिभा का सम्मान जीवनकाल में होना चाहिए... किन्तु, आद महेंद्र वर्मा जी सार्थक तथ्य से भी सहमत...

    अच्छा विश्लेषण अच्छा चिंतन...
    सादर...

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  47. मरणोपरांत सम्मान के विषय पर प्रतुल जी ने काफी विस्तृत व्याख्या की है ... महेंद्र वर्मा जी की बात भी सही है ...

    चिंतन के लिए अच्छे विषय का चुनाव है ..

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  48. अगली पोस्ट की टिप्पणी बंद देखकर समझ में नहीं आया क्या करुं। मगर संदर्भ इसी पोस्ट का था इसलिए इसपर आ गया....दोनो पोस्ट सीधे तरीके से लिखी गई है उसपर इतनी हायतौबा देख कर हैरत में पड़ गया हूं। एक विचार होता है..कोई उसका पूरा समर्थन करता है कोई दो तिहाई तो कोई पूरा विरोध करता है...कोई एक ही विचार में अनेक आयामों को जोड़ने की कोशिश करता है...। मगर उसपर उछलकूद की बात समझ में नहीं आती। अगर दोनो पोस्ट का संदर्भ न जूड़ा होता तो भी दोनो पोस्ट अपने में पूर्ण और अलग-अलग दर्जा रखती है। टिप्पणी औऱ व्यंग्य दोनो तब तक ठीक हैं जब तक उसका कोई सार्थक अर्थ हो अन्यथा टिप्पणी और व्यग्य कोरा प्रलाप रह जाता है।

    जहां तक उस पोस्ट का सवाल है जिसमें आपको बहन कहकर संबोधित किया गया था.....उसी पोस्ट में मेरे पर भी निशाना साधा गया था...उस का जवाब मैने उसी दिन दे दिया था

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  49. दिव्या जी कहावत भी है " जीते जी तिल नहीं, मरने के बाद तिलोये " मरणोपरांत सम्मान का कोई अर्थ नहीं सिवाए युद्ध के बाद दिए गए वीरता पुरस्कार या सम्मान के !
    सार्थक आलेख के लिए बधाई !

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  50. बिल्कुल सही लिखा दिव्या जी ,पर ये तो कलाकारों के प्रतिभाओं की बात हुई की उनके मरनेप्रांत जो सम्मान मिलता है जीवन रहने मिलना चाहिए, उनके आत्मा के तृप्ति के लिए ,पर हमारे समाज में आज भी ऐसे कई माता पिता बुजुर्ग हैं जिन्हें जीते जी बच्चे पूछते नहीं और मरने के बाद उनका पित्रपक्ष में ब्रम्भोज करते हैं , क्या ऐसे किसी की आत्मा tusht होगी ?
    यदि देना ही है तो जीते जी सम्मान मिलना चाहिए , चाहे वो कलाकार हों या कोई भी ..आभार इस पोस्ट के लिए

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  51. आप के विचारों से मै पूरी तरह से सहमत हूँ.
    वास्तव में प्रतिभाओ के आंकलन का सरकारी मापदंड एवं नियम इतने अधिक जटिल हैं कि किसी व्यक्ति कि प्रतिभा का आंकलन करते-करते इनती देर हो जाती है कि उस व्यक्ति कि मृत्यु हो चुकी होती है.......इसे सरल बनाने कि जरूरत है तभी व्यक्ति को जीते-जी उसकी प्रतिभा का सम्मान प्राप्त हो पायेगा....!

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  52. जीते जी इस देश में किसी को कोई नहीं पूछता यहाँ तो मुर्दों को ही पूछने का रिवाज़ है|

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  53. मरने के बाद किसने देखा.
    यह तो पुरस्कारों की राजनीति ही है
    कि मरने के बाद पुरस्कार दिया जाता है.

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