Saturday, February 18, 2012

कटु लहजा..

मेरी भाषा थोड़ी कड़क और घायल करने वाली होती है। मैं ऐसी नहीं थी, ऐसा लिखना नहीं चाहती थी, लेकिन हमारे समाज में हो रहे सत्ता के ढोंग ने मुझे ऐसा बना दिया। एक मुद्दत से राजनेताओं की काली करतूतें , गरीबों की आत्महत्या , अल्पसंख्यकों को स्वार्थवश लुभाना , हिन्दुओं के अस्तित्व से खिलवाड़ और देश को तार-तार करती सियासत ने मेरी भाषा और लहजे को कटु बना दिया। यदि हम इन देश के गद्दारों, ठेकेदारों को सुधार नहीं सकते तो कम से इन्हें आईना तो दिखा सकते हैं। यदि ये हमें सुकून से जीने का अधिकार नहीं देते तो हम इन्हें सम्मान के साथ जीने नहीं देंगे। --जय हिंद !--वन्देमातरम !

19 comments:

  1. .

    Anand Kumar Singhal ---divya, you seem to be too harsh, but soft approach is also useless for these politicians, jo yeh samajhte hai, ki desh sirf unki jayedad hai. janta ke saamne ek mahine ke liye haath jor kar, ghoom2 kar meetings kar lo aur phir usee janta ka 4 saal 11 maheeney kat SHOSHAN karo.......................
    3 hours ago · Like

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    Anand Kumar Singhal ‎,,,,,,,,,,,, any way i have been following ur comments on fb. these are bold and true. Keep it up. country needs persons like you.
    3 hours ago · Like

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    आनद जी की उपरोक्त टिप्पणियों के उत्तर में ..

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  2. जैसा घटित होगा वही तो सामने आएगा..

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  3. इन बेशर्म चिकने घड़ों पे उसका भी कोई फर्क नहीं पड़ता!

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  4. इसी भाषा की दरकार है आज। हम पर तलवार चलाने वालों को हम गांधी जी की तरह फूल देकर गेट वेल सून नहीं कह सकते। फूल की जगह फूल काम आता है किन्तु युद्ध तलवारों से ही होता है। आप भी युद्ध ही लड़ रही हैं। वाकयुद्ध में कटु होना पड़ता है।
    हम उनमे से नहीं कि कोई हमारे परिजनों का रक्त बहाए, कोई हमारे धन संपदा लुटे, कोई हमारे स्त्रियों पर कुदृष्टि डाले, कोई हमसे घात करे, कोई हमारे पूज्यों का अपमान करे, हमारे धर्म अथवा धर्मग्रंथों का अपमान करे और हम ही ही ही हे हे हे करते हुए चापलूसी करते रहें।
    हमारा सुख-चैन छीनने वाला कभी सुकून से जिन्दा नहीं रह पाएगा।
    आपकी भाषा बहुत सही व सटीक है। कृपया इसे बरकरार रखें। क्योंकि छुरी टमाटर पर गिरे अथवा टमाटर छुरी पर पर काटना टमाटर को ही पड़ता है। अत: हमे टमाटर न बन स्वयं को छुरी बनाना ही पड़ेगा।

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  5. हमारे सामने जैसी परिस्थितियां आती हैं वैसी हमारी प्रतिक्रियाएं अभिव्यक्त होती रहती हैं। संवेदनशील लोगों के साथ ऐसा होना स्वाभाविक है।
    देश के तथाकथित राजनेताओं की विवेकहीन बातें और भ्रष्ट आचरण हर संवेदनशील मन को आक्रोशित कर रहा है।
    आपने सही कहा कि हम उन्हें सुधार भले न सकें लेकिन उनकी करतूतों का आईना उन्हें दिखा ही सकते हैं।

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  6. मैं आपकी बातों से सहमत हूँ |
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    और एक महिला क्रन्तिकारी को आकाश कुमार का सैलूट - जय हिंद |
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    मैं भी दर्खावस्त करता हूँ की अब "याचना नहीं अब रन होगा ! जीवन जय या की मरण होगा !"
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    सार्थक पोस्ट धन्यवाद |

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  7. केवल दिव्या जी की भाषा ही इन परिस्थितियों से प्रभावित नहीं हुई है. परिवर्तन वास्तव में यह हो चुका है कि पहले जिन बातों पर जनता को गुस्सा आता था अब उन्हें सुन कर जनता में घृणा का तीव्र भाव पैदा होता है. देखते हैं आगे चल कर जनता कैसे व्यवहार करती है.

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  8. भाषा भाव के अनुकूल होती है- मन में जैसा कुछ उमड़ता है अनायास व्यक्त हो जाता है.

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  9. बेहतरीन भाव पूर्ण सार्थक रचना,

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  10. दिवस जी से सहमत... और आपसे निवेदन - अपना तेवर और लहजा यूँ ही कड़क बनाये रखना... विचारों में आग जरुरी है..

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  11. प्रभावशाली प्रस्तुती....

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  12. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
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    कल शाम से नेट की समस्या से जूझ रहा था। इसलिए कहीं कमेंट करने भी नहीं जा सका। अब नेट चला है तो आपके ब्लॉग पर पहुँचा हूँ!
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    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी की गई है!
    सूचनार्थ!

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  13. काश! कि गुलाबी इन्किलाब आ जाए॥

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  14. हम जैसे बने है हमें वैसा परिस्थिति ने बनाया है
    न तो इसमें हमारा कुछ जस है और न ही कोई दोष।
    आपने सच्ची बात लिखी है। मैं तो इसे आपकी विशेषता समझता हूँ।

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  15. आज देश की राजनीति ऐसी सड गल चुकी है कि आम आदमी की भाषा और तेवर तेज़ाब सरीखी बन जाए तो यही उचित है । तेवर बनाए रखिए , कल देश को इसी की जरूरत सबसे ज्यादा पडने वाली है दिव्या जी ।

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  16. एकदम सही सोचती हैं आप...
    हार्दिक बधाई..

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  17. अपनी बात को जनमानस तक पहुँचाने के लिए...हर व्यक्ति की अलग शैली होती है...और दूसरों को उसका सम्मान करना चाहिए...आप अपनी बात बहुत ही साफगोई से रखतीं हैं...जो संभव है हर किसी को पसंद ना आये...लेकिन आप भी तो सिर्फ आप हैं...

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