अब चाह नहीं है जीने की ..
हर , तरफ है फटेहाल , अब नहीं ऊर्जा सीने की।
'यत्र पूज्यते नार्यस्तु' के देश में अस्मिता लूटी जा रही पल-पल
बिलख रही हर बच्ची-बच्ची , भारत-माता सिसक रही
अब चाह नहीं है जीने की ...
कृष्ण-राम की भूमि पर , हिन्दू का कत्लेआम मचा
जीने का हक छीना उनसे, चहुँओर हो रहा नरसंहार
अब चाह नहीं है जीने की ...
सदियों से दिल में बसी आस्था के प्रतीक मंदिरों को नष्ट किया
छीन भरोसा जनता का अपनों का ही प्रतिकार किया
अब चाह नहीं है जीने की ...
दैत्य दानवों के मुख के जैसा, आतंकवाद मुख फाड़ रहा,
किया बसेरा डर ने, उर में --अंतर्मन भयभीत किया,
अब चाह नहीं है जीने की ..
अकूत सम्पदा के धनी नगर में, चोर-बाज़ार गरम हुआ
कोयले से कौप्टर तक का, मक्कारों ने व्यापार किया
अब चाह नहीं है जीने कि…
रामसेतु को एडम्स-ब्रिज कह, गद्दारों ने लूट लिया,
लम्पट, अधम, हिंसक-मानुष ने, गो-माता का खून पीया,
अब चाह नहीं है जीने की ..
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टूट-टूट कर प्यार किया, हर बात तुम्हीं से कह डाली ,
उसपर से तुमने इल्जाम लगा , सब छीन लिया, सब छीन लिया.
अब चाह नहीं है जीने की ...
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Zeal
आप सच कहती हैं किन्तु जीना यहाँ मरना यहाँ इसके सिवा जाना कहाँ फिर दिशा नहीं तो दशा बदल देंगे .नया पोस्ट
ReplyDeletehttp://zaruratakaltara.blogspot.in/2013/02/blog-post_26.html
आप की ये रचना शुकरवार यानी 01-03-2013 को http://www.nayi-purani-halchal.blogspot.com पर लिंक की जा रही है।
ReplyDeleteसूचनार्थ।
मन की व्यथा को अच्छी तरह अभिव्यक्त किया है....
ReplyDeleteवर्तमान परिस्थियों में ऐसे भावों का आना स्वाभाविक है...
अनु
आप यह क्या कह रही हैं !
ReplyDeleteआपकी सारी ऊर्जा कहाँ है?
यह क्षणिक निराशा है,क्योंकि दीनता और पलायन आपके स्वभाव में नहीं है.
'उत्तिष्ठ जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत'
bas yahi likhuga " mere sine me nahi to tere sine me sahi,ho kahi bhi aag jalni chahiye..(Dushyant)
ReplyDeleteबहतरीन प्रस्तुति बहुत उम्दा ..भाव पूर्ण रचना .. बहुत खूब
ReplyDeleteआज की मेरी नई रचना जो आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार कर रही है
ये कैसी मोहब्बत है
खुशबू
बहतरीन प्रस्तुति बहुत उम्दा ..भाव पूर्ण रचना .. बहुत खूब
ReplyDeleteआज की मेरी नई रचना जो आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार कर रही है
ये कैसी मोहब्बत है
खुशबू
मन की व्यथा का सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुतीकरण.
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति ...
ReplyDeleteआप भी पधारें
ये रिश्ते ...
चाह रहेगी, राह रहेगी, जीने की,
ReplyDeleteआग रहेगी और बुझेगी सीने की।
बहुत सुन्दर कविता।
ReplyDeleteपरन्तु कविता में निहित भावों पर प्रसन्न नहीं हुआ जा सकता। आपकी लेखनी में वे सभी गुण हैं जो सोचने पर मजबूर कर दें। बहुत दर्द है इन पंक्तियों में।
जिंदगी हिम्मत से जीने का नाम है ,क्षणिक निराशा में जीने की इच्छा छोड़ देना उचित नहीं है - लेकिन रचना अच्छी है
ReplyDeletelatest post मोहन कुछ तो बोलो!
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हम वंशज हैं राम-कृष्ण के हिम्मत नहीं हारेंगे,
ReplyDeleteमुकाबला कर गद्दारों का एक दिन फिर रामराज लायेंगे।
दिव्या जी! जब हृदय में, होता हा! हा! कार!
ReplyDeleteकहें 'क्रान्त' तब फूटती, कविता की रसधार!!
यूँ ही बस लिखती रहिये!
कभी तो "वह" पढ़ लेगा!!