आज बहुत देर हो जाने पर भी देव अपने कमरे से बाहर नहीं निकला था। एक लम्बे समय से उसके मन में एक तूफ़ान उठ रहा था। वो क्यूँ खुद को इतना लाचार समझ रहा था। क्या है इस दुनिया में जो इंसान को कमज़ोर बना देता है । वो कौन सी चीज़ है जो इंसान को इंसान बने रहने से रोक देती है ? क्यूँ इंसानियत शर्म के पर्दों में रहती है? क्यूँ 'अपनापन' तरसता है किसी को अपना कहने में। क्यूँ अच्छाईयाँ नज़रंदाज़ कर दी जाती हैं। क्यूँ सारा श्रेय सिर्फ गुलाब के फूलों को ही मिलता है। वो हरसिंगार के छोटे-छोटे फूल क्यूँ अपनी पहचान नहीं बना पाते । क्यूँ नहीं कोई आगे आता इन्हें भी इनकी पहचान दिलाने में। संसार में ढोंग इनता ज्यादा क्यूँ है। किसने बनाए हैं ये पाखण्ड, जो किसी से जीने का अधिकार ही छीन ले। जो किसी को घुट-घुट कर मरने के लिए मजबूर कर दे। जिससे डरकर कोई अपना पौरुष ही त्याग दे। समाज के बनाए जिन नियमों से सबको जीने का बराबर हक न मिल सके । क्यूँ नहीं 'देव' वो सब कुछ कर पाता जो उसका मन करता है। वो 'अनन्या' की मदद करना चाहता है । वो अनन्या का दर्द समझता है। वो अनन्या की आँखों में 'मौत' की सी उदासी देखता है। उसकी ख़ामोशी में उसे तिल-तिल मरते हुए देखता है।
देव चाहता है की वो अनन्या को , संसार की वो सभी खुशियाँ दे सके जिस पर हर स्त्री और पुरुष का हक है । वो उसे मुस्कुराने के कुछ पल देना चाहता है। वो उसकी आँखों में पसरे मौत के सन्नाटे को पी जाना चाहता है। वो उसे आत्म-विश्वास से भर देना चाहता है। वो उसके अकेलेपन को मिटा देना चाहता है। वो हरसिंगार के धवल पुष्प में बसी केसरिया चकाचौंध को पूरे विश्व को दिखाना चाहता है। वो अनन्या को जीवन जीने का अभय दान दे देना चाहता है .....
तो फिर रोका किसने है ? ...क्यूँ इतना द्वन्द ? किसलिए इतनी उहापोह ? कौन है जो देव को रोकता है , उसे उसकी मर्ज़ी के खिलाफ जीने पर मजबूर करता है....
फिर वही चिर परिचित आवाज़ आई - " आज खाना खाने नहीं जाओगे ? दुकानें बंद हो जायेंगी । भूखे सोना है क्या ? "
मर्यादा की बात सुन देव का मन गुस्से से बोला- " तुम चुप रहो , तुम ही मुझे रोकती हो हर बात से जिसे करने का मेरा मन करता है । तुम मुझे भूखा नहीं देखना चाहती लेकिन मुझे 'लाचार' देखना तुम्हें अच्छा लगता है ?
मन-मर्यादा संवाद जारी था---
तुम मुझे रोकती हो जब मैं अनन्या को अपनापन देना चाहता हूँ। तुम कहती हो क्या लगती है वो मेरी? क्या 'इंसानियत' का रिश्ता नहीं हो सकता किसी से । यदि मैं अपना प्यार दूंगा उसे यदि वह भी कभी मुस्कुरा सकेगी तो क्या मैं पतित हो जाऊँगा?
मर्यादा, तुमने अपने तर्कों से "अनन्या' को तो हमेशा के लिए खामोश कर ही दिया है। वो तो ये भी भूल चुकी है की वो अभी भी जीवित है और संसार में बिखरी खुशियों पर उसका भी उतना ही हक है जितना अन्यों का।
तुम भूल गयीं जब मैं बीमार था और एक माँ की तरह उसने मेरी सेवा की थी । मैं उसकी गोद में सर रखकर सोना चाहता था , तुमने रोक दिया था।
जब मेरी परीक्षाएं थीं , मुझे सहारे की ज़रुरत थी तो अनन्या ने बहन बनकर हर संभव मदद की थी । उन एहसानों से मेरा मन अभिभूत था । मैं चाहता था उसकी चुटिया खींच लूं और वो चिढ़कर भागे , मुझसे झगड़ा करे ,लेकिन तुमने मुझे रोक दिया था।
उस दिन गुलाबी साड़ी में जब उसे चूड़ियाँ खरीदते देखा था तो मेरा मन था उसकी नाज़ुक कलाई में धीरे धीरे चूड़ियाँ मैं पहनाऊँ । लेकिन तुमने उस दिन भी मुझे रोक दिया था। मैं उसके गालों पर भी लाज की उस लाली को देखना चाहता था जो हर स्त्री का गहना है ।
और आज जब मैंने उसे आफिस से आते देखा तो वह टूटी और बिखरी हुयी थी। पिछले छः महीनों से वह जिस प्रोजेक्ट पर कार्य कर रही थी उसका श्रेय किसी और को देकर सम्मानित कर दिया गया था। वह पराजित और हताश अपने आँसुओं से अकेले ही लड़ रही थी । मैं चाहता था उसके आँसूं जो उसके दामन को भिगो रहे थे उसे मैं अपनी शर्ट में सुखा लूँ। और तुमने मुझे उसका दोस्त बनने से भी रोक दिया ? मुझसे कहा था क्या लगती है वो मेरी जो मैं उसकी इतनी चिंता करता हूँ?
मर्यादा क्यूँ तुमने मुझे इतना कायर बना दिया है ? क्यूँ तुमने मुझसे मेरा पौरुष छीन लिया है। मुझे उहापोह देकर क्यूँ मुझे इतना कमज़ोर कर दिया है ? क्यूँ मुझे मन मारना सिखाती हो। क्यूँ मुझे इंसानियत और ईश्वरत्व से दूर ले जाती हो। 'अनन्या ' की हस्ती मिटने नहीं दूंगा । उसको जीवन दूंगा, उसको खुशियाँ दूंगा। मैं अब और कायर नहीं बना रह सकता। तुम मुझे रोक नहीं सकतीं अब , बाँध नहीं सकतीं, मजबूर नहीं कर सकतीं...
देव उठा , बत्ती जलाई , रात के ग्यारह बजने वाले थे । उसने अपनी बाईक स्टार्ट की और तेजी से भागा । कहीं देर न हो जाए...
फिर वही चिर-परिचित आवाज़ आई -- "रुको , मत जाओ! ...क्या लगती है वो तुम्हारी " ....
नहीं मर्यादा , अब तुम मुझे और भयभीत नहीं कर सकतीं , अब मैं अपनी आत्मा की ही आवाज़ सुनूंगा । मैं कमज़ोर नहीं हूँ। इसके पहले की मेरा पौरुष समाप्त हो जाए , मैं जियूँगा और उसे भी जीने का अवसर दूंगा...
दूर अन्धकार को चीरती सीटी की आवाज़ सुनाई दी। देव को लगा बहुत देर हो गयी , उसने बाईक की गति बढ़ा दी ...
स्टेशन पर गाडी चलने को आतुर थी । देव हर खिड़की पर उसे बेसाख्ता तलाश रहा था ....गाडी धीरे-धीरे खिसकने लगी थी....
क्या देर हो गयी ? उसका मन छटपटा उठा । तभी अंतिम खिड़की पर पर वही उदास चेहरा उसे दिखाई पड़ा। गाडी ने गति पकड़ ली थी। विजय के पल दूर हो रहे थे। देव ने अपने अपने इष्टदेव "हनुमान" का स्मरण किया , अगली छलांग में उसने दरवाजे की हैंडिल पकड़ ली।
अन्दर आ गया। अनन्या खिड़की के बाहर पीछे छूटते दृश्य निर्विकार होकर देख रही थी। देव उसके बगल में बैठ गया। अपना दाहिना हाथ पीछे से ले जाकर उसके कन्धों पर रख दिया और बायें हाथ में उसके हाथों को थाम लिया। उस स्पर्श से मुड़कर अनन्या ने उसे देखा। अपना सर धीरे से 'देव' के कन्धों पर टिका दिया और आँखें बंद कर लीं।
धवल हरसिंगार की केसरिया आभा मुस्कुराने लगी थी...
Zeal
देव चाहता है की वो अनन्या को , संसार की वो सभी खुशियाँ दे सके जिस पर हर स्त्री और पुरुष का हक है । वो उसे मुस्कुराने के कुछ पल देना चाहता है। वो उसकी आँखों में पसरे मौत के सन्नाटे को पी जाना चाहता है। वो उसे आत्म-विश्वास से भर देना चाहता है। वो उसके अकेलेपन को मिटा देना चाहता है। वो हरसिंगार के धवल पुष्प में बसी केसरिया चकाचौंध को पूरे विश्व को दिखाना चाहता है। वो अनन्या को जीवन जीने का अभय दान दे देना चाहता है .....
तो फिर रोका किसने है ? ...क्यूँ इतना द्वन्द ? किसलिए इतनी उहापोह ? कौन है जो देव को रोकता है , उसे उसकी मर्ज़ी के खिलाफ जीने पर मजबूर करता है....
फिर वही चिर परिचित आवाज़ आई - " आज खाना खाने नहीं जाओगे ? दुकानें बंद हो जायेंगी । भूखे सोना है क्या ? "
मर्यादा की बात सुन देव का मन गुस्से से बोला- " तुम चुप रहो , तुम ही मुझे रोकती हो हर बात से जिसे करने का मेरा मन करता है । तुम मुझे भूखा नहीं देखना चाहती लेकिन मुझे 'लाचार' देखना तुम्हें अच्छा लगता है ?
मन-मर्यादा संवाद जारी था---
तुम मुझे रोकती हो जब मैं अनन्या को अपनापन देना चाहता हूँ। तुम कहती हो क्या लगती है वो मेरी? क्या 'इंसानियत' का रिश्ता नहीं हो सकता किसी से । यदि मैं अपना प्यार दूंगा उसे यदि वह भी कभी मुस्कुरा सकेगी तो क्या मैं पतित हो जाऊँगा?
मर्यादा, तुमने अपने तर्कों से "अनन्या' को तो हमेशा के लिए खामोश कर ही दिया है। वो तो ये भी भूल चुकी है की वो अभी भी जीवित है और संसार में बिखरी खुशियों पर उसका भी उतना ही हक है जितना अन्यों का।
तुम भूल गयीं जब मैं बीमार था और एक माँ की तरह उसने मेरी सेवा की थी । मैं उसकी गोद में सर रखकर सोना चाहता था , तुमने रोक दिया था।
जब मेरी परीक्षाएं थीं , मुझे सहारे की ज़रुरत थी तो अनन्या ने बहन बनकर हर संभव मदद की थी । उन एहसानों से मेरा मन अभिभूत था । मैं चाहता था उसकी चुटिया खींच लूं और वो चिढ़कर भागे , मुझसे झगड़ा करे ,लेकिन तुमने मुझे रोक दिया था।
उस दिन गुलाबी साड़ी में जब उसे चूड़ियाँ खरीदते देखा था तो मेरा मन था उसकी नाज़ुक कलाई में धीरे धीरे चूड़ियाँ मैं पहनाऊँ । लेकिन तुमने उस दिन भी मुझे रोक दिया था। मैं उसके गालों पर भी लाज की उस लाली को देखना चाहता था जो हर स्त्री का गहना है ।
और आज जब मैंने उसे आफिस से आते देखा तो वह टूटी और बिखरी हुयी थी। पिछले छः महीनों से वह जिस प्रोजेक्ट पर कार्य कर रही थी उसका श्रेय किसी और को देकर सम्मानित कर दिया गया था। वह पराजित और हताश अपने आँसुओं से अकेले ही लड़ रही थी । मैं चाहता था उसके आँसूं जो उसके दामन को भिगो रहे थे उसे मैं अपनी शर्ट में सुखा लूँ। और तुमने मुझे उसका दोस्त बनने से भी रोक दिया ? मुझसे कहा था क्या लगती है वो मेरी जो मैं उसकी इतनी चिंता करता हूँ?
मर्यादा क्यूँ तुमने मुझे इतना कायर बना दिया है ? क्यूँ तुमने मुझसे मेरा पौरुष छीन लिया है। मुझे उहापोह देकर क्यूँ मुझे इतना कमज़ोर कर दिया है ? क्यूँ मुझे मन मारना सिखाती हो। क्यूँ मुझे इंसानियत और ईश्वरत्व से दूर ले जाती हो। 'अनन्या ' की हस्ती मिटने नहीं दूंगा । उसको जीवन दूंगा, उसको खुशियाँ दूंगा। मैं अब और कायर नहीं बना रह सकता। तुम मुझे रोक नहीं सकतीं अब , बाँध नहीं सकतीं, मजबूर नहीं कर सकतीं...
देव उठा , बत्ती जलाई , रात के ग्यारह बजने वाले थे । उसने अपनी बाईक स्टार्ट की और तेजी से भागा । कहीं देर न हो जाए...
फिर वही चिर-परिचित आवाज़ आई -- "रुको , मत जाओ! ...क्या लगती है वो तुम्हारी " ....
नहीं मर्यादा , अब तुम मुझे और भयभीत नहीं कर सकतीं , अब मैं अपनी आत्मा की ही आवाज़ सुनूंगा । मैं कमज़ोर नहीं हूँ। इसके पहले की मेरा पौरुष समाप्त हो जाए , मैं जियूँगा और उसे भी जीने का अवसर दूंगा...
दूर अन्धकार को चीरती सीटी की आवाज़ सुनाई दी। देव को लगा बहुत देर हो गयी , उसने बाईक की गति बढ़ा दी ...
स्टेशन पर गाडी चलने को आतुर थी । देव हर खिड़की पर उसे बेसाख्ता तलाश रहा था ....गाडी धीरे-धीरे खिसकने लगी थी....
क्या देर हो गयी ? उसका मन छटपटा उठा । तभी अंतिम खिड़की पर पर वही उदास चेहरा उसे दिखाई पड़ा। गाडी ने गति पकड़ ली थी। विजय के पल दूर हो रहे थे। देव ने अपने अपने इष्टदेव "हनुमान" का स्मरण किया , अगली छलांग में उसने दरवाजे की हैंडिल पकड़ ली।
अन्दर आ गया। अनन्या खिड़की के बाहर पीछे छूटते दृश्य निर्विकार होकर देख रही थी। देव उसके बगल में बैठ गया। अपना दाहिना हाथ पीछे से ले जाकर उसके कन्धों पर रख दिया और बायें हाथ में उसके हाथों को थाम लिया। उस स्पर्श से मुड़कर अनन्या ने उसे देखा। अपना सर धीरे से 'देव' के कन्धों पर टिका दिया और आँखें बंद कर लीं।
धवल हरसिंगार की केसरिया आभा मुस्कुराने लगी थी...
Zeal
सुन्दर प्रस्तुति पर
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई ||
इंसानियत का रिश्ता सभी रिश्तों में श्रेष्ठ है।
ReplyDeleteलेकिन दुनिया में इतने पाखंड हैं कि सामाजिक रिश्तों में भी कई बार इंसानियत नहीं दिखती। रिश्तों की इंसानियत में कृत्रिमता दिखती है जबकि इंसानियत के रिश्ते सदैव पवित्र होते हैं।
हरसिंगार के फूल का आंतरिक सौंदर्य गुलाब के फूल से कई गुना अधिक होता है। इस कहानी के मर्म में यही सत्य गूंज रहा है।
इस हृदय स्पर्शी कहानी की भाषा, शैली और कथ्य बहुत ही अच्छे लगे।
bahut hi sundar ...
ReplyDeleteaur maryada aur aatma ki baato ka dwand dekhne layak tha
super like
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ।
ReplyDeleteदिव्या जी, हर सिंगार का फूल! केवल एक यही फूल, शिव जी की मूर्ती पर भूमि से उठा चढ़ाना सही माना जाता है...
ReplyDeleteअन्य सभी फूल, फूलों का राजा (लाल) गुलाब भी, डाल से तोड़ चढाने की अनादि काल से प्रथा है 'भारत' में :)
नोट - सूर्य प्रातःकाल, सूर्योदय के समय, अथवा संध्याकाल में भी डूबने से पहले, लाल दिखाई देता है...
किन्तु जब यह शस्य-श्यामला धरा के शीर्ष पर होता है तो सर्वशक्तिशाली और धवल दिखाई देता है, (धरा पर ऊर्जा के मुख्य स्रोत सूर्य की काल-चक्र में, उत्पत्ति को दर्शाते) ...
और मंगल ग्रह को गणेश / हनुमान की मूर्ती के सिन्दूरी रंग, लाल और पीले रंग के योग, द्वारा दर्शाया जाता है, और अग्नि अर्थात ऊर्जा का राजा माना जाता है!... सूर्य और मंगल ग्रह को आरम्भ में एक दूसरे के साथ अंतरिक्ष में साथ साथ घूमते माना जाता है - हरसिंगार के सफ़ेद और सिंदूरी रंग समान!
maryaadaon ke jaal me itna bhi nahi ulajhna chahiye ki apni aatma bhi usme jakad jaaye aur apni hi najron me gir jaao.bahut achchi shiksha deti hui kahani...bahut hi achchi lagi.
ReplyDeleteकोमल होती है भावुकताएं
ReplyDeleteऔर उबड़-खाबड़ है धरातल!!
सार्थकता वास्तविकताओं और कल्पनाओं के मेल में निहित है।
बहुत ही खुबसूरत ......
ReplyDeleteyes this is what I wanted from YOU
ReplyDeletea glow,a positive radiation,an inspiration
That's just like you
i want MORE
Regards
zeal,sorry,forgot to inform you that I have started a new blog 'suno Anna" ,yesterday
ReplyDeleteplease have a look if time permits
regards
pradeep
बहुत सम्वेदनशील और मर्मस्पर्शी प्रस्तुति...मर्यादाएं अपनी जगह् सही हैं पर इसे आत्मा की आवाज़ को दबाने नहीं देना चाहिए.
ReplyDeleteहृदय-स्पर्शी कहानी !
ReplyDeleteThe way of illustration is very good
ReplyDeleteअर्थपूर्ण और सार्थक कहानी ..
ReplyDeleteआपकी कहानी पढ़कर तबियत खुश हो गयी इसी तरह सुंदर -सुखद लिखते रहिये |बधाई और शुभकामनाएं |
ReplyDeleteदिव्या दीदी
ReplyDeleteकमाल है, कितनी गहराई तक सोच लेती हैं आप|
मन और मर्यादा का संवाद, अपने आप में एक नई सोच है|
जिसे मर्यादा का नाम दिया जा रहा है, दरअसल यह पाखण्ड की सीमा को लांघ चूका है| पाखण्ड को मर्यादा समझकर देव घुट घुट कर जी रहा, साथ ही अनन्या को भी दुःख दे रहा है|
सबसे बड़ी बात तो यह कि जब देव अनन्या में माँ और बहन भी देख रहा है और साथ ही एक दोस्त भी तो यहाँ मर्यादा पर प्रश्न चिन्ह लगाना ही बेमानी है|
चलिए अंत भला हो ही गया| देव ने अनन्या को भी पा लिया और सही मर्यादा को भी बनाए रखा|
मेरे पास शब्दों की कमी है, अधिक कुछ नहीं कह सकूँगा| बस इतना पूछना चाहुँगा कि नारी प्रधान कहानियाँ लिखने वाली आज पुरुष मानसिकता पर इतनी सटीक व्याख्या कैसे कर गयी?
उत्तर ज़रूर दीजियेगा|
bahut hi achhi aur maarmik prastuti
ReplyDeletebade dino baad aaya hu
ReplyDeleteaapki bahut hi achi prastuti rahi jo sachmuch dimag ke saath saath dil ko bhi bhati hai
हरसिंगार को पारिजात भी कहते हैं.मेरे घर में हमेशा से पारिजात रहा है और मुझे अति प्रिय भी.
ReplyDeleteकहानी भी इन फूलों के समान ही सुकुमार है-भावमयी !
जब मर्यादा की बात आती है तो राम की अपेक्षा कृष्ण ही मुझे अधिक प्रभावित करते हैं.
ReplyDeleteपारिजात को NYCTENTHUS ARBORTRISTIS भी कहते हैं जो चुपचाप रात के सन्नाटे में अपनी प्रतिभा से सभी को आप्लावित करता रहता है .....बिना किसी अपेक्षा के
बहुत सुन्दर और लाजवाब प्रस्तुति.....शुभकामनाएं
ReplyDeleteबहुत अच्छी कहानी है।
ReplyDeleteइसकी इस दौर में बहुत जरुरत है।
जब हम बच्चे थे तो हमारी माँ यदाकदा शिव मंदिर में एक लाख फूल चढ़ाती थी...
ReplyDeleteइस कार्य में हम बच्चे भी उनका हाथ बटाते थे फूलों को गिन कर...
और उन दिनों हमारे पास एक स्पेनियल कुत्ता होता था जिसका नाम किम रखा हुवा था... वो बहुत ही शरीफ था - केवल डाकिया और भिखारी पर ही भौंकता था... इस कारण हमारे मित्र कहा करते थे कि यदि कोई अच्छे कपडे पहन चोर आये तो वो उस पर नहीं भौंकेगा, और वो चोरी आसानी से कर ले जाएगा!
वो एक दिन बेमार था और उसको मेरे बड़े चचेरे भाई डॉक्टर के पास लेजाने वाले थे...
इसे संयोग कहें कि मैं कुर्सी पर बैठा पढ़ रहा था, घर में अकेला था, और उसकी जंजीर मेरी कुर्सी से बंधी थी और वो सो रहा था... कि अचानक उसने चेन को जोर से खींचा, मैंने चेन खोल दी और वो पीछे आँगन की और चला गया...
जब भाई कोलेज से आये तो उनके पूछने पर मैंने बताया वो आँगन की ओर गया था...
भाई ने तुरंत लौट बताया कि वो शायद मर गया था!
मैं दौड़ के गया तो देखा वो शाष्टांग प्रणाम की मुद्रा में, पारिजात के वृक्ष की ओर अगली टांगें फैलाए मृत पडा था :(
उस दिन हमारे घर में खाना नहीं बना :( हमने सोचा कि क्या वो भाग्यवान था कि उस को शिव के दर्शन हो गए थे, पारिजात वृक्ष के माध्यम से ?!
बड़ी मधुर है भावों की प्रस्तुति।
ReplyDeleteप्रसाद शैली के दर्शन हुए ...
ReplyDeleteआपने क्या कभी जयशंकर प्रसाद जी की कहानियाँ पढ़ी हैं... यदि नहीं तो जरूर पढियेगा... 'आकाशदीप' कहानी संग्रह ... कहानी लेखन में भाव के साथ जिन अन्य तत्वों की जरूरत होती है उसके दर्शन होंगे.
... शुभकामनाएँ .... एक अच्छी और कलात्मक कथा पढ़वाने को आभार...
कहानी पढ रहा था और खिड़की से पवन के साथ हरसिंगार की भीनी खुशबू कमरे में फैल रही है॥
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति.
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी !
देव का अनन्या के प्रति समर्पण और इस कहानी का सुखद अंत जीवन के प्रति बदलती सोच को प्रखर आयाम प्रदान करना भी है शायद. एक प्रश्न करती कहानी का उत्तर देता अंत आपकी रचनात्मकता को झलकाता है और आपके ह्रदय को भी बधाई
ReplyDeleteअर्थपूर्ण और सार्थक प्रस्तुति......
ReplyDeleteNice post.
ReplyDeleteशुभकामनाएं और मंगलकामनाएं !
दिव्या जी, मुझे सिविल इंजीनियर होने के नाते कभी किसी ने कहा था मैं ईंट पत्थर से सम्बन्ध रखने वाला हिंदी साहित्य में जयदेव आदि की रचनाओं के बारे में क्या जान सकता हूँ?! और मेरी बेटी नाराज़ होती थी कि मैं किसी भी विषय को भगवान् से क्यूँ जोड़ देता हूँ?!
ReplyDelete'भारत' में जन्म ले, बचपन से कथा-कहानियों के माध्यम से, कम से कम मुझे, सभी में रहस्यवाद की झलक ही दिखाई देती है...
उदाहरणतया, कृष्ण की बांसुरी (जो फूंक मार बनायी जाती है) कहने से मुझे हर व्यक्ति, जैसा योगियों ने 'अष्ट-चक्र' कह मेरु दंड पर बिंदु दर्शाए, मुझे कृष्ण की बांसुरी दिखाई देता है,,, आठ मंजिली इमारत और उसमें अलग अलग तल पर रहते व्यक्ति मुझे मूलाधार में मंगल ग्रह (सिंदूरी गणेश) से आठवें तल में सबसे ऊपर चन्द्रमा (पीताम्बर कृष्ण) का सार दिखते हैं, चौथे तल में पेट में सूर्य का (सफ़ेद रंग वाली किरणों का स्रोत, जिस रंग में सभी रंग समाये हैं, राहू (पांचवे तल में)-केतु (तीसरे तल में) भी, और कंठ में, छाते तल में शुक्र ग्रह, आदि आदि... और अंत में सातवें तल में मेरे प्रिय शिव (गंगाधर / चन्द्रशेखर, अर्थात पृथ्वी) - तीसरे नेत्र वाले अर्थात वास्तविक दृष्टा (और उसके पशु जगत के अनंत आँखें, किन्तु बाहरी ही खुली, भीतरी बंद अथवा अध्कुली :) !...
.
ReplyDeleteJC जी ,
मुझे तो यही लगता है की हर विषय का उद्गम और अंत दोनों ही ईश्वर में होता है। अतः आपकी टिप्पणियों में विषय को ईश्वर से जोड़कर पढना अच्छा लगता है। इससे विषय को विस्तार मिलता है और और नए आयाम देखने को मिलते हैं।
.
कहानी का मर्म प्रारंभ से एकरूपता में बांधे रहना ही उसकी सफलता है ,जिसमें आप सफल है , अति सुन्दर शुभकामनायें जी
ReplyDeleteसुँदर अर्थप्रद कहानी . पारिजात ऐसे ही मुस्कराते रहे .
ReplyDeleteइस पूरे प्रकरण में देव आरम्भ में एक कमज़ोर व्यक्तित्व के रूप में उभरता है यद्यपि अंत में मन तथाकथित मर्यादा के छलावे पर हावी हो जाता है और देव वही करता है जो उसे काफी पहले करना चाहिए था. अनन्या ने कभी बहिन बन कर या फिर माँ की तरह उसका ध्यान रखा है, ज़ाहिर है उसने भी अंतर्द्वद्व से निकल कर मानवीय आधार पर आवश्यकता के समय देव की सहायता की है. मानवीयता से बड़ा क्या सम्बन्ध हो सकता है !
ReplyDeleteएक मार्मिक, झकझोर देने वाला प्रसंग !
बधाई !
पुनश्च:
ReplyDeleteनवरात्री की बहुत बहुत शुभकामनाएं !
PRANAM ZEAL JI
ReplyDeleteKAHANI KAPHI ACHCHHI HAI.......
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteमन और मर्यादा का अंतर्युद्ध ...........मन की विजय |
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और हृदयस्पर्शी कहानी ...मर्यादा-पालन एक सीमा तक ही उचित होता है |
और मन ?.....'तेरा मन दर्पण कहलाये ....'
बहुत ही खूबसूरत अभिव्यक्ति
ReplyDeleteआपकी कहानी हो या आलेख, सब कुछ मन को छू जाता है.....
ReplyDeleteसच मानो तो कभी संदेह होता है कि आप MBBS doctor है या Ph.D..... और विदेशी धरती पर मात्र भाषा के प्रति इतना समर्पण. अवर्णनीय हैं.
धन्य हैं दिव्या जी आप. आपके लेखन को सादर नमन !
bahut acchhi lagi aapki kahaani....divyaa ji...
ReplyDeleteलेखन शैली बेहतरीन.मन और मर्यादा का सम्वाद - कथानक को गति देने के लिये बड़ा ही उपयुक्त साधन.मैंने भी अपनी एक कहानी 'प्रतीक्षा' में इसका प्रयोग किया था.हर-सिंगार को कथांत में सम्मानित कर केंद्रीय-भाव को सुंदरता से हाई-लाइट कर दिया है.बधाई.
ReplyDeleteदिव्या बेटा,
ReplyDeleteअति हर्षित हुए हैं हम आपकी यह सुंदर "सुखान्तक" कथा पढ़ कर ! प्रभु से आज नवरात्रि के प्रथम दिन प्रार्थना हैं कि इसी प्रकार हमारी बिटिया ----
जीवन पथ पर चले सदा हरसिंगार लुटाते
हंसते गाते प्रीति लुटाते बीती सभी भुलाते
सदा आपके शुभचिंतक
-
अच्छी कहानी है.
ReplyDeleteभावों की मधुरतम,ह्रदय स्पर्शी प्रस्तुति...
ReplyDeleteBeautifully composed :)
ReplyDeleteLovely read !!
मन के उहापोह और मानविकता की जीत को आपने बहुत सुन्दर तरीके से दिखलाया है इस छोटी कहानी में ...
ReplyDeletebahut badiya prastuti..
ReplyDeleteApko NAVRATRI kee spariwar haardik shubhkamnayen
मानवीय रिश्ते सनातन हैं और चलते रहते हैं. उनमें जब कुछ बेहतरी का आवश्यकता होती है तो मर्यादा गढ़ी जाती है. परंतु मानवीय संबंध चलते रहते हैं....बहुत सुंदर कहानी.
ReplyDeleteहरसिंगार जैसे प्रेम हो...उसकी आभा से मन-मन्दिर जगमगाने लगा..
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