हिन्दू , इस्लाम और ईसाई नामक धर्म नहीं हैं. धर्म केवल सनातन है ! सनातन शब्द का अर्थ है - "जिसका न आदि है न अंत "
अंग्रेजी का religion शब्द सनातन धर्म से थोडा भिन्न है ! Religion से श्रद्धा का भाव सूचित होता है और श्रद्धा बदल सकती है ! यही वजह है , विश्वास बदलने के साथ लोग अपना धर्म परिवर्तन कर लेते हैं! लेकिन सनातन धर्म उस धर्म का सूचक है जिसे बदला नहीं जा सकता ! सनातन धर्म किसी साम्प्रदायिक धर्म पद्धति का सूचक नहीं है! यह जीवों में उनके शाश्वत कर्म का निर्देश करता है, जैसे जल से उसकी तरलता और अग्नि से उसकी ऊष्मा विलग नहीं की जा सकती , ठीक उसी प्रकार शाश्वत जीव से उसके सनातन कर्म को अलग नहीं किया जा सकता! सनातन धर्म जीव का शाश्वत अंग है!
अज्ञानता बढ़ने के साथ अलग अलग सम्प्रदायों ने अलग अलग धर्मों का नामकरण कर दिया और आज उसी धर्म के नाम पर अलगाव वा मनमुटाव होते रहते हैं! लेकिन सनातन धर्म साम्प्रदायिक नहीं है! सनातन धर्म विश्व का ही नहीं अपितु ब्रम्हांड के समस्त जीवों का धर्म है!
सनातन धर्म जीव के साथ शाश्वत रूप से रहता है ! गीता में कहा गया है जीव न तो कभी जन्मता है , न ही कभी मरता है ! धर्म की धारणा यदि संस्कृत के मूल शब्द से समझी जाए तो धर्म वह है जो पदार्थ विशेष में शाश्वत रूप से रहता है! जीव का शाश्वत धर्म 'सेवा' है ! पृथ्वी पर उपस्थित जीव किसी न किसी रूप में , किसी की सेवा ही कर रहा है ! निम्न पशु मनुष्य की सेवा , सेवक स्वामी की, एक मित्र दुसरे मित्र की , माता अपनी संतान की , पति-पत्नी एक दुसरे की , दुकानदार ग्राहक की तथा चिकित्सक अपने रोगियों की सेवा में सतत संलग्न रहता है ! कोई भी जीव अन्य जीवों की सेवा करने से मुक्त नहीं है! अतः सेवा करना ही जीव का सनातन धर्म है !
एक डाक्टर जिसका नाम राम है , उसका धर्म चिकित्सा सेवा है! उसके पास सुरेश आये अथवा रहीम , उसका शाश्वत धर्म 'सेवा' ही रहेगा मनुष्य मात्र के लिए !
जब प्रत्येक जीव का शाश्वत धर्म 'सेवा' है तो आस्था के नाम पर साम्प्रदायिक होकर हिन्दू , इस्लाम और ईसाई जैसे वर्गीकरण की आवश्यकता क्या है ? और धर्मनिरपेक्ष होने का औचित्य क्या है?
धर्म केवल सनातन है , जिसका न आदि है न अंत है और जो शाश्वत जीव में उसके शास्वत कर्म 'सेवा' के रूप में रहता है ! सनातन धर्म शाश्वत और स्वयं में ही धर्मनिरपेक्ष है जो मानवता की सेवा भावना पर बल देता है.
Zeal
अंग्रेजी का religion शब्द सनातन धर्म से थोडा भिन्न है ! Religion से श्रद्धा का भाव सूचित होता है और श्रद्धा बदल सकती है ! यही वजह है , विश्वास बदलने के साथ लोग अपना धर्म परिवर्तन कर लेते हैं! लेकिन सनातन धर्म उस धर्म का सूचक है जिसे बदला नहीं जा सकता ! सनातन धर्म किसी साम्प्रदायिक धर्म पद्धति का सूचक नहीं है! यह जीवों में उनके शाश्वत कर्म का निर्देश करता है, जैसे जल से उसकी तरलता और अग्नि से उसकी ऊष्मा विलग नहीं की जा सकती , ठीक उसी प्रकार शाश्वत जीव से उसके सनातन कर्म को अलग नहीं किया जा सकता! सनातन धर्म जीव का शाश्वत अंग है!
अज्ञानता बढ़ने के साथ अलग अलग सम्प्रदायों ने अलग अलग धर्मों का नामकरण कर दिया और आज उसी धर्म के नाम पर अलगाव वा मनमुटाव होते रहते हैं! लेकिन सनातन धर्म साम्प्रदायिक नहीं है! सनातन धर्म विश्व का ही नहीं अपितु ब्रम्हांड के समस्त जीवों का धर्म है!
सनातन धर्म जीव के साथ शाश्वत रूप से रहता है ! गीता में कहा गया है जीव न तो कभी जन्मता है , न ही कभी मरता है ! धर्म की धारणा यदि संस्कृत के मूल शब्द से समझी जाए तो धर्म वह है जो पदार्थ विशेष में शाश्वत रूप से रहता है! जीव का शाश्वत धर्म 'सेवा' है ! पृथ्वी पर उपस्थित जीव किसी न किसी रूप में , किसी की सेवा ही कर रहा है ! निम्न पशु मनुष्य की सेवा , सेवक स्वामी की, एक मित्र दुसरे मित्र की , माता अपनी संतान की , पति-पत्नी एक दुसरे की , दुकानदार ग्राहक की तथा चिकित्सक अपने रोगियों की सेवा में सतत संलग्न रहता है ! कोई भी जीव अन्य जीवों की सेवा करने से मुक्त नहीं है! अतः सेवा करना ही जीव का सनातन धर्म है !
एक डाक्टर जिसका नाम राम है , उसका धर्म चिकित्सा सेवा है! उसके पास सुरेश आये अथवा रहीम , उसका शाश्वत धर्म 'सेवा' ही रहेगा मनुष्य मात्र के लिए !
जब प्रत्येक जीव का शाश्वत धर्म 'सेवा' है तो आस्था के नाम पर साम्प्रदायिक होकर हिन्दू , इस्लाम और ईसाई जैसे वर्गीकरण की आवश्यकता क्या है ? और धर्मनिरपेक्ष होने का औचित्य क्या है?
धर्म केवल सनातन है , जिसका न आदि है न अंत है और जो शाश्वत जीव में उसके शास्वत कर्म 'सेवा' के रूप में रहता है ! सनातन धर्म शाश्वत और स्वयं में ही धर्मनिरपेक्ष है जो मानवता की सेवा भावना पर बल देता है.
Zeal
139 comments:
धर्म क्या है ? विद्वान् जनों के बहस के लिए छोड़ देते है , धार्मिक कौन है ? वही जिसके हृदय में दूसरों का दुःख ,पीड़ा और कस्ट समझने की संवेदना हो और उस को निवारण करने की तत्परता हो यानी सेवाभाव हो , न की बाहरी कर्मकांडों का प्रदर्शन . धर्म का अर्थ कर्तव्यपालन भी होता है और संबंधों के प्रति निष्ठा भी.
अच्छा आलेख
जो जिसको धारण करे या स्थायित्व दे, वह उसका धर्म। जो तोड़े वह धर्म कैसे हो सकता है?
छः अन्धे लोग हाथी को छू कर, हाथी के शरीर के विभिन्न हिस्सों को विभिन्न तरह से महसूस कर रहे थे. दिव्या जी, उसी कहानी जैसे, जीवन के अन्य पहलुओं की तरह धर्म भी हर किसी की दृष्टि पर निर्भर है! :)
धर्म के सनातन शाश्वत स्वरूप की परिभाषा से सहमत!!
कुश्वंश जी से सहमत!!"धर्म का अर्थ कर्तव्यपालन (भी)ही होता है"
कुछ कर्तव्य है हमारे मानव होने के……कुछ कर्तव्य है हमारे सभी जीवन के प्रति………कुछ कर्तव्य है हमारे प्रकृति के प्रति………कुछ कर्तव्य है हमारे मानव से मानव के प्रति भी………कुछ कर्तव्य है हमारे कि बस जिए और जीनें दें………कुछ कर्तव्य है हमारे कि स्वयं सुखी बनें,और इस प्रयोजन से दूसरे को दुख न हो। दूसरों के भी सुख का मार्ग प्रसस्त करें। इन्ही सब कर्तव्यों के समूह का नाम है 'धर्म' यही इन्सान का आदि धर्म होने से सनातन कहा गया है। इसकी आवश्यकता कभी खत्म नहीं होगी इसलिए इसे शाश्वत कहा गया है।
बहुत दिनों के बाद दर्शन दिए परन्तु अच्छे लेख के साथ , वास्तव में किसी भी दो भाषाओँ में पूर्णतयः समानार्थी नहीं हो सकते हैं क्योंकी प्रत्येक भाषा के साथ एक संस्कृति जुडी होती हैं और उस संस्कृति के के आचरण के अनुरूप ही शब्दों का निर्माण भाषा विशेष में होता है और धर्म तो शायद कोई और संस्कृति उत्पन्न कर ही नहीं पाई है , यह मैं अपनी संस्कृति के प्रति प्रेम के कारण नहीं अपितु तथ्यों के आधार पर कह रहा हूँ की भारतीय संस्कृति की पूर्ण सभ्य संस्कृति रही है , बाकी की सभ्यताएं को अर्ध सभ्य रही हैं आईसी स्थिति में उनके लिए धर्म को समझाना संभव नहीं रहा है और शायद इसी लिए उनकी भाषाओँ में धर्म के सामानांतर कोई शब्द नहीं रहा है |
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आस्था के नाम पर साम्प्रदायिक होकर हिन्दू , इस्लाम और ईसाई जैसे वर्गीकरण की आवश्यकता क्या है ?
There is no need of such classifications, but being the most intelligent species on earth we are the most narrow-minded too and that is the only reason why human-race led by some extra smart people is classified so vividly.
Nice read !!
ek aur sundar post ke liye sukriya..........
'
pranam.
'सनातन धर्म' शब्द उस शून्य काल और स्थान से सम्बंधित मिराकार शक्ति रुपी जीव, विष + अणु = योगेश्वर 'विष्णु' अथवा नादबिन्दू को प्रतिबिंबित करता है, बेचारा अथवा भाग्यवान, जो अनंत ब्रह्माण्ड में एक दम अकेला है - शेष नाग पर योगनिद्रा में लेटा 'सच्चिदानंद'...
फिर प्रश्न उठता है कि सब अस्थायी, ('माया' से) साकार प्रतीत होते, अनंत पिंड, अथवा उन पर आधारित अनंत 'प्राणी' आदि क्या कर रहे हैं इस अनंत शून्य में ?
और, हमारे सौर-मंडल में पृथ्वी ग्रह पर केवल मानव, 'ब्रह्मा के चार मुंह समान', 'हिन्दू', 'मुस्लिम', 'सिख', 'इसाई' में बंटा हुआ ही क्यूँ अज्ञानी प्रतीत हो परेशान है? जबकि अन्य पशु आदि में से कुछ ही - किसी भी 'धर्म' को मानने वाले व्यक्तियों की सेवा - भक्ति भाव से करते हुए - न जाने क्यूँ सदियों से जीवन व्यतीत करते आ रहे हैं, जबकि मानव ही अन्य मानव की सेवा करने का 'धर्म' शांति पूर्वक 'जीयो और जीने दो' जानते हुए भी अपना तथाकथित धर्म नहीं निभा पाता?...
क्यों 'हम' समझ नहीं पाते कि उस एक ही सर्वगुणसंपन्न जीव के लिए कुछ भी करना संभव है, जबकि 'हमारे सामने 'माया जगत' से सम्बंधित व्यक्ति, जिन्हें अभी बहुत कुछ जानना अभी शेष है, हमको रुपहले पर्दे पर प्रकाश के द्वारा उसके सामने चलती रील के द्वारा असत्य को सत्य कर दिखाना सरल है?...
सनातन धर्म की सुन्दर व्याख्या की है आपने.
@ छः अन्धे लोग हाथी को छू कर, हाथी के शरीर के विभिन्न हिस्सों को विभिन्न तरह से महसूस कर रहे थे. दिव्या जी, उसी कहानी जैसे, जीवन के अन्य पहलुओं की तरह धर्म भी हर किसी की दृष्टि पर निर्भर है! :)
सुनील दीपक जी,
छः अन्धे लोग हाथी का दृष्टांत जो यथार्थ के खण्ड़ खण्ड़ दृष्टिकोण के समन्वय के लिए दिया जाता है अर्थात् अनेकांत के लिए प्रयुक्त होता है और एकांत दृष्टि सत्य होकर भी सम्पूर्ण सत्य नहीं होती……आपने प्रत्येक दृष्टि को पूर्ण यथार्थ स्थापित कर दिया। यह कहकर कि "अन्य पहलुओं की तरह धर्म भी हर किसी की दृष्टि पर निर्भर है!"
वस्तुतः छहों अंधो के दृष्टिकोण के समन्वय पर ही सम्पूर्ण हाथी का अक्स बनता है। उसी प्रकार यह खण्ड़ खण्ड़ धर्म मान्यताएं यथार्थ धर्म का स्वरूपण नहीं कर सकती।
हमेशा की तरह बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ... ।
आपकी पिछली पोस्ट में मैंने धर्म संबंधी इसी बात को समझाने की कोशिश की थी। पर कुछ लोगों न यह कह कर उस व्याख्या को यह कह कर परे कर दिया कि धर्म की परिभाषा जो मैं दे रहा हूँ,उसे कितने लोग समझते हैं। क्या धर्म को भी बहुमत के आधार पर परिभाषित करने की कोशिश होनी चाहिए? धर्म जो हर जीव का मूलभूत आधार है, को क्या उससे अलग किया जा सकता है? निश्चित ही संप्रदायों को धर्म नहीं कहा जा सकता। धर्मनिरपेक्ष जैसी कोई चीज नहीं है। कोई भी धर्म से निरपेक्ष हो ही नहीं सकता। धर्म हर प्राणी का स्वभाव है, जो जन्म के साथ उसे मिलता है। स्वभाव अर्थात चेतना के विभिन्न पुष्प। जिस तरह से फूलों की विभिन्न जातियां और प्रजातियाँ होती हैं और हम उनमें कोई तुलना नहीं कर सकते उसी प्रकार हर मनुष्य का धर्म अलग होता है,हर मनुष्य अनूठा होता है,चेतना का वह पुंज अद्वितीय होता है। जरूरत है तो विवेक जागरण से इस सनातन स्वरूप चेतना को समझने की।
....
हम सनातनी है .इसके शाश्वत स्वरुप के साथ . सुँदर आलेख .
सनातन धर्म के बारे में विस्तार से बताने के लिए बहुत -बहुत धन्यवाद
sadiav bina aadi-ant ke chalte rahnewala........yahi to hai sanatan dharm.bahut sshakt lekh likhi hain.
सनातन धर्म की व्यावहारिक व्याख्या....
कर्म ही धर्म है
mam exams ke karan bahut dino se busy tha.......
phir se ek or acha lekh likha hai apne.......
jai hind jai bharat
bahut sahi kaha hai divya ji.yahi satya bhi hai.
अरे वाह !!
आपकी पोस्ट से भी महत्त्व-पूर्ण आपके दर्शन ||
सब कुशल-मंगल ??
पोस्ट के लिए भी बधाई ||
सनातन धर्म के बारे में विस्तार से बताने के लिए धन्यवाद ,
Where were you all these days Zeal ! Have missed you a lot.
शाश्वत या सनातन धर्म की आपने बहुत सुंदर व्याख्या की है. सेवा भाव तो धर्म का आधार है ही साथ ही यह भी कहा गया है कि " दया धर्म का मूल है , पाप मूल अभिमान........ " या फिर एक क़व्वाली याद आ रही है :
" रस्ते अलग अलग हैं ठिकाना तो एक है
मंजिल हर एक शख्स को पाना तो एक है "
यह बात अगर सब की समझ में आ जाये तो साम्प्रदायिक्ता का समूल नाश हो जाए. !
विचारणीय विषय पर एक सार्थक लेख !
सनातन धर्म के बारे में बताने के लिए धन्यवाद ,
धर्म के बारे में दिव्या जी का वैज्ञानिक चिंतन जानकर अच्छा लगा. सुज्ञ जी से पूरी तरह सहमत हूँ. वास्तव में सनातन धर्म तो जाति और देश की सीमाओं से परे प्राणिमात्र के लिए एक शाश्वत आचरण है....यह विज्ञान के नियमानुकूल है इसलिए इसकी उपेक्षा संभव नहीं है. ठीक उसी तरह जैसे नित्य कर्म हर व्यक्ति के लिए करणीय है. भिन्नता कर्म के प्रकार में हो सकती है ...वह भी देश-काल और वातावरण के अनुरूप किंचित भिन्नता के साथ. सारा झगड़ा ईश्वर को लेकर ही है ...और फिर ईश्वर के संदेशों को लेकर भी. वस्तुतः ईश्वर के नाम पर बनाए गए तथाकथित "धर्म" मनुष्य की अपनी स्वार्थपूर्ति के माध्यम भर हैं....स्वार्थ,धूर्तता और चालाकी से भरपूर. हम अपने स्वार्थ और दादागीरी में इतने निपुण हैं कि यह भी घोषणा कर बैठे कि ईश्वर को तो सिर्फ मैं ही जानता हूँ ...मैं ही उसका सन्देश वाहक हूँ...इसलिए मेरी हर बात मानना हर किसी के लिए अनिवार्य है....जो मेरी बात नहीं मानेगा हम उसे नष्ट कर देंगे और उसकी सारी संपत्ति लूट लेंगे ....यह ईश्वर की ही आज्ञा है. जहाँ इतनी हठवादिता और दादागीरी हो वहाँ शाश्वत नियमों ...आचरणों और सनातन धर्म की सुनने वाला कौन है ?
दिव्या जी, नमस्कार !
बड़े दिनों के बाद ...
हमवतनों को याद ..???
सेवा कर्म,सबसे बड़ा धर्म !
शुभकामनायें!
Exteremly interesting post.i really loved ths one
अतः सेवा करना ही जीव का सनातन धर्म है !
बिल्कुल सही कहा। बधाई।
'सेवा' को उसके सही अर्थ और बड़े केनवास पर देखना होगा।
सेवा का फलितार्थ है दूसरों के लिए सुख उपजाना!!
सभी के लिए सुख उपलब्ध करवानें में सबसे बड़ी बाधा है हिंसा॥
इसीलिए ज्ञानियों नें कहा है "अहिंसा परमो धर्मः" क्योंकि स्वार्थ प्रेरित जानते अजानते हिंसा से ही सभी प्रणियों के लिए दुखों की एक परम्परा का सृजन होता है। और सेवा की सम्भावनाएं विलुप्त हो जाती है।
इसी आशय से कौशलेन्द्र जी ने कहा "वास्तव में सनातन धर्म तो जाति और देश की सीमाओं से परे प्राणिमात्र के लिए एक शाश्वत आचरण है?
और आरके जी नें भी इंगित किया कि " दया धर्म का मूल है , पाप मूल अभिमान........ "
यह सभी सूत्र उसी सेवा भाव को पुष्ट करने के लिए ही है।
सेवा, सद्भाव और सदाचार सभी अहिंसा में निहित है।
डॉ. शरद सिंह जी के शब्दों में ही कहता हूँ "आपने सनातन धर्म की व्यावहारिक व्याख्या की है."
प्रचलित व्याख्याओं से कुछ हटकर है आपकी व्याख्या....स्वानुभूत चिंतन प्रभावी होता ही है.
आपकी पोस्ट पर सुज्ञ जी, जे.सी.जी, मदन जी, राकेश जी और कौशलेन्द्र जी को पढ़ना बहुत अच्छा लगता है. इस बार भी सुज्ञ जी की व्याख्याओं का सुन्दर साथ है. आनंद आ रहा है.
हे प्राणी ! सोच ,सोच ,सोच, कुछ अच्छा सोच.
सोचना ही तो तेरा परम धर्म है.
सोच में ही तो दया,सेवा,अहिंसा,प्रेम
सत्य आदि सद्विचार रुपी रत्नों के दर्शन होंगें तुझे.
जो शास्वत हैं,सनातन हैं.
इन रत्नों को प्राप्त कर जीवन सजा ले
फिर तू मालामाल हो जायेगा.
तेरे इस खजाने को कभी कोई लूट नहीं पायेगा.
हाय! अफ़सोस,क्यूँ अपनाया तूने विपरीत सोच.
हिंदू,मुसलमान,ईसाई आदि का ठप्पा लगा
सनातन सही सोच को ही दरकिनार कर दिया तूने.
सोचते सोचते भूल गया दिव्याजी. मेरी दावत ?
सुंदर विश्लेषण.सुन्दर आलेख.
दिव्याजी, कई दिनों बाद आपके दीदार हुए ...एक लम्बी छुट्टी के बाद हम मिले हें ..
धर्म इंसान को इंसान से जोड़ना सिखाता हैं न की तोड़ना ?
धर्म की विस्तृत जानकारी के लिए धन्यवाद !
जब प्रत्येक जीव का शाश्वत धर्म 'सेवा' है तो आस्था के नाम पर साम्प्रदायिक होकर हिन्दू , इस्लाम और ईसाई जैसे वर्गीकरण की आवश्यकता क्या है ? और धर्मनिरपेक्ष होने का औचित्य क्या है?
सच ये है कि अगर आपकी ये बातें लोगों की समझ में आ जाएं तो धर्म के नाम पर आए दिन होने वाले फसाद खुद बखुद रुक सकते हैं।
विचारपूर्ण लेख..
बहुत सही मुद्दे की सही व्याख्या की है.....बहुत सुन्दर|
हमेशा की तरह बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ... ।
बिल्कुल सही कहा। बधाई।
आदरणीय दिव्याजी,
बहुत बढ़िया विषय चुना गया है आपके द्वारा आज फिर से, तिस पर ज्ञान-गरिमापूर्ण चर्चा................ इसे ही तो सार्थक ब्लोगिंग कहा जा सकता है.
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जब ऐसा प्रश्न उठता है तो प्रति प्रश्न होना चाहिये की आप किसे धर्म मानते हो ???
धर्म के विषय में दो प्रकार की मान्यता प्रचलित है --
पहली मान्यता की स्थापना\उद्घाटना, प्रसार भारत से हुआ कि ----- सृष्ठी का कोई भी तत्व धर्म रहित नहीं है. 'धर्म' शब्द की उत्पत्ति 'धृ' धातु से हुयी है, जिसका अर्थ धारण और पोषण करना है. पदार्थ के धारक और पोषक तत्व को धर्म कहते है. इसका अभिप्राय यह है कि जिन तत्वों से पदार्थ बनता है वही तत्व उस पदार्थ का धर्म है. सृष्ठी का कोई भी तत्व धर्म रहित नहीं हो सकता है ............. जैसे अग्नि का धर्म ताप और जलाना है, जल का धर्म शीतलता और नमी है, सूर्य का धर्म प्रकाश आदि है ......... भारतीय संस्कृति का अवचेतन "मनु-स्मृति" के आश्रय से संचालित होता है, स्वयं उसमें भी मानव के धारणीय स्वाभाविक धर्म को इंगित करते हुए कहा गया है------
धृति: क्षमा दमो स्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रह: ।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ।
इन दस मानव कर्तव्यों को धर्म घोषित करते हुए किसी भी -उपास्य, उपासना-पद्दति की चर्चा तक नहीं की गयी है. इसी तरह अन्यान्य भारतीय ग्रंथों में भी यही बात दोहराई गयी है.
भारतीय लोक-मानस में प्रतिष्ठित रामचरित मानस में भी धर्म के लिए निम्न कथन आयें है----
धरमु न दूसर सत्य समाना , आगम निगम पुराण बखाना (२-९५-५)
सत्य के सामान कोई धर्म नहीं, सत्य धर्म है .
धर्म की दया सरिस हरिजाना (७-११२-१०)
दया के सामान कोई धर्म नहीं है .
"परहित सरिस धर्म नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहीं अधमाई"
परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा , पर निंदा सम अघ न गरीसा (७-१२१-२२)
यहाँ भी किसी देवी-देवता या पूजा विधान कि गंध नहीं है. अर्थात सिद्ध है कि भारतीय संस्कृति में उपासना-विधान को धर्म के नाम से संबोधित नहीं किया गया है. धर्म तो सृष्ठी के प्रत्येक तत्त्व के साथ स्वाभाविक कर्म के रूप में जुडा हुआ है.
जबकी धर्म की दूसरी मान्यता कि स्थापना, प्रचलन शेष विश्व में क्रमशः हुआ है, और इसे धर्म के स्थान पर उपासना-पद्दति\पंथ\सम्प्रदाय\रिलिजन कहना ज्यादा उचित है.
यूँ तो पश्चिमी विचारको ने रिलिजन को परिभाषित करने की कोशिश की है ,पर मैक्समूलर ने सभी दार्शनिको की परिभाषाओं को नकारते हुए 1878 में "रिलिजन की उत्पत्ति और विकास " विषय पे भाषण देते हुए रिलिजन की परिभाषा इस तरह दी है -"रिलिजन मस्तिष्क की एक मूल शक्ति है जो तर्क और अनुभूति के निरपेक्ष अन्नंत विभिन्न रूपों में अनुभव करने की योग्यता प्रदान करती है". यहाँ मैक्समूलर ने कल्पना की है की ईश्वर जैसी कोई सत्ता है जो असीम है,अनन्त है. इस से तो यह लगता है की मैक्समूलर यहाँ आस्तिकवाद की परिभाषा दे रहा है .
असल बात तो यह लगती है की विश्व में दो ही रिलिजन है, एक आस्तिकवाद और दूसरा नास्तिकवाद . आस्तिक ईश्वर की सत्ता में यकीन रखता है और नास्तिकवाद ईश्वर को चाहे जिस नाम से पुकारो, उसके अस्तित्व को ही नकारता है .
इस तरह स्पष्ट है की आस्तिकता और धर्म का अर्थ पर्याप्त भिन्नता लिए हुए है.
धर्म का नाम लेकर जितने भी उत्पात होतें है वस्तुतः वे उपासना पद्दति की भिन्नत के आधार पर होतें है .................... जबकि धर्म नहीं हो तो लड़ाई-झगडे कि तो दूर रही सृष्ठी ही नहीं हो .......... और अगर ब्राह्मांड के सारे तत्व अपना अपना धर्म छोड़ दे तो ??????
@ अमित शर्मा जी कहते हैं "... धर्म का नाम लेकर जितने भी उत्पात होतें है वस्तुतः वे उपासना पद्दति की भिन्नता के आधार पर होतें है .................... जबकि धर्म नहीं हो तो लड़ाई-झगडे की तो दूर रही सृष्टि ही नहीं हो .......... और अगर ब्राह्मांड के सारे तत्व अपना अपना धर्म छोड़ दे तो ??????..."
सबसे पहले तो शायद 'हमें' सिद्ध करना होगा कि हमारे पूर्वजों द्वारा 'मिथ्या जगत' कहे जाने वाली पृथ्वी / साकार ब्रह्माण्ड में 'हम' वास्तव में ब्रह्माण्ड के अनादि काल से निरंतर फूलते गुब्बारेनुमा अनंत आकार वाले प्रतीत होते शून्य में वास्तव में उपस्थित हैं भी कि नहीं - साकार 'हाड-मांस' से बने प्रतीत होते मानव रूप में, जो हमें पता है कि अस्थायी ही है, मिटटी में मिल जायेंगे...
'मैंने' शायद सत्तर के दशक के अंत में एक फिल्म कोलकाता में देखी थी, जिसका नाम 'शोले' था... वो एक ऐसी फिल्म है जो 'मैंने' सबसे अधिक बार, यद्यपि जबरदस्ती, उसके बाद दिल्ली में देखी होगी, क्यूंकि हमारा केबल वाला उसे टीवी पर भी 'होली' के दिन प्रति वर्ष दिखाता था (गब्बर के "होली कब है? कब है होली? के कारण?)... और टाइम पास के लिए 'हमारा' पांच सदस्यों वाला छोटा सा परिवाए उसको अवश्य देखता था क्यूंकि उस फिल्म को देखना सभी को अच्छा भी लगता था, भले ही उस में मार- काट भी है...
इस बीच संजीव, कुमार ('ठाकुर'), अमजद खान ('गब्बर') आदि कुछ इस जीवन के काल-चक्र से ही बाहर हो गए किन्तु कभी भी फिल्म देखते यह ख्याल ही नहीं आया कि वे अब 'असत्य' हैं - हैं नहीं, फिर भी सत्य प्रतीत हो रहे हैं! और क्यूंकि वो हमारे दूर के भी रिश्तेदार नहीं थे हमें दुःख नहीं हुआ, बल्कि हमने सदैव वही आनंद उठाया, यहाँ तक कि उसके कई डायलोग भी रट गए थे, जो अभी भी टीवी वालों ने जीवित रखे हैं उनकी नक़ल बना बना... "वो दो थे और तुम तीन / फिर भी लौट आये खाली हाथ?"... "हुजूर! मैंने आपका नमक खाया है!" "तो अब गोली खा"!... आदि आदि, और 'सत्य' तो यह है कि एक दिन हमें भी खाली हाथ ही लौट जाना है! कहीं और जाना है क्या?... इत्यादि इत्यादि...????
नमस्ते डॉ० दिव्या जी बहुत सुंदर पोस्ट बधाई |
बेहतरीन व लाजिकल विशलेषण के लिये आप बधाई के पात्र हैं।
दिव्या जी
आपने धर्म को बहुत अच्छे ढंग से परिभाषित किया है | सनातन ....जो शाश्वत है ,प्राणी में सदैव विद्यमान रहता है |
सेवा ही धर्म है ........जहां 'सेवा' शब्द का अर्थ व्यापक परिप्रेक्ष्य में लें |
धर्म -अधर्म ............पुण्य-पाप
सेवा....यानी.. परोपकार
'अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयं
परोपकाराय पुण्याय पापाय परिपीडनं '
'परहित सरिस धरम नहि भाई
परपीड़ा सम नहि अधमाई '
परहित बस जिन्हके मन माहीं
तिन्ह कहं जग दुर्लभ कछु नाहीं
काफी आसान एवं सहज व्याख्या!
आभार
मैं एक हिन्दू धर्म का अनुयायी हूँ जो सनातन है ..
बहुत दिनों बाद आप का लेख पढ़ा..अच्छा लगा
" धर्मं " के शाब्दिक अर्थ हैं (१) religion (२) duty (३) inherent quality (e.g. fire is hot )
इस ब्लॉग पर आप पहले शब्दार्थ की बात कर रही हैं | तो वह शब्द अगले दोनों शब्दों का संगमित संयुक्त अर्थ है - जो "इन्हेरेंट क्वालिटी ' हर प्राणी के अन्दर है अपनी "ड्यूटी" करने की - जो उसे सत्य मार्ग पर चलाने की कोशिश करती है - वह हर एक इन्सान में अलग अलग लेवल पर होती है | तो अलग अलग धर्मों के प्रवर्तकों ने कुछ नियम कायदे बना दिए - जो हर अनुयायी को मानने होते समाज के सुगम और सुचारू रूप से चलने के लिए , चाहे उसकी इन्हेरेंट कोन्शिअस्नेस अधिक हो या कम ||
अब क्योंकि धरती पर अलग अलग जगह अलग अलग माहौल थे - तो अलग अलग तरीके बने - जैसे - जहाँ के भूगौलिक स्थिति ऐसी थी कि खूब अन्ना उपज सके और गायें खूब दूध दें - वहां लोग गाय को देवी माँ मान कर पूजने लगे - मांस खाना निषेध और पाप माना गया | ................ और जहाँ अन्न कम उगता था किन्तु घास खूब थी (तो जानवर खूब होते) वहां मांस खाने की अनुमति दी गयी | ............. कोई हाथ जोड़ कर प्रार्थना करते, तो कोई हथेली खोल कर |
अब यह स्थिति है कि यातायात और संचार की सुविधाओं के साथ सब लोग बहुत पास हो गए हैं - तो अंधी धर्मं निष्ठता उन्हें आपस में लड़ा रही है | इतनी सी बात है कि उसी शक्ति को कोई ईश्वर नाम से बुलाता है तो कोई अल्लाह - और फिर ऐसे लड़ते हैं जैसे उनके ईश्वर को अल्लाह कहने वाले ने गालियाँ दे दी हों !!
अब उदहारण के लिए मैं एक बेटी, बहन, माँ, और टीचर एक साथ हूँ - तो यह सभी संबोधन मेरे लिए - उन लोगों द्वारा जिन पर यह सही फिट बैठते हैं - सही हैं | फिर मेरा बेटा और मेरा स्टुडेंट एक दूसरे को मारने पर उतारू हो जाए कि तुम "मेडम को मम्मी " या कि "मम्मी को मेडम" क्यों कह रहे हो - तो यह तो मूर्खता ही होगी ना?
भारतीय चिंतन परम्परा के अनुसार सनातन धर्म अनादि-अनंत है। प्रलय काल में भी यह नष्ट नहीं होता,सूक्ष्मरूप में अवस्थित रहता है।
सनातन धर्म चाहता है कि सभी सुखी हों, सभी निरोग हों, कोई दुख का भागी न बने।
तुलसी दास जी ने सनातन धर्म की विशेषता को सरलीकृत कर लिखा-
परहित सरिस धर्म नहिं भाई,
परपीड़ा सम नहिं अधमाई।
बहुत ही सरल तरीके से धर्म की व्याख्या |और उतनी ही सारगर्भित टिप्पणिया |
जब हम एक व्यक्ति से प्रेम करते है तो वह प्रेम होता है और जब अनेक लोगो से प्रेम करते है तो वह धर्म बन जाता है |
वैसे इतने दिन कहाँ थी आप ?
शुभकामनाये |
महेंद्र श्रीवास्तव जी ! वस्तुतः सेक्यूलरिज्म का अनुवाद "धर्मनिरपेक्ष" शब्द भारतीय सन्दर्भों में एक बहुत बड़ा छलावा है. इसे जिन अर्थों में प्रचलित किया गया है उसके लिए "सम्प्रदाय निरपेक्ष" या "पंथ निरपेक्ष" शब्द ही उपयुक्त है.पश्चिम के लिए यह शब्द उपयुक्त हो सकता है.....क्योंकि वे प्रकृति के शाश्वत धर्म से अनभिज्ञ हैं. उन्होंने प्रकृति के बारे में जो भी कुछ सीखा है वह फिजिक्स, कैमिस्ट्री और गणित तक ही सीमित है, वह भी अपूर्ण ही है. भारत के सन्दर्भ में धर्मनिरपेक्ष शब्द ने इस देश की अपूरणीय क्षति की है. इस शब्द ने भारत के समाज, राजनीति, संस्कार और आचरण पर गंभीर विपरीत प्रभाव डाले हैं. सत्य तो यह है की भारत तो आदि काल से ही सम्प्रदाय या पंथ निरपेक्ष रहा है. इसे पृथक से परिभाषित करने की कोई आवश्यकता नहीं थी. मुझे लगता है कि शायद पूरे विश्व में इतने पंथ और कहीं नहीं हैं जितने कि भारत में हैं ......वह भी सम्मान के साथ. भारत में उपासना की अनेकों पद्यतियां प्रचलित और सम्मानित रही हैं ...अनेकों दर्शन सम्मानित और प्रचलित हैं. कहीं कोई विवाद नहीं था. फिर आधुनिक भारत में सब कुछ उलट-पुलट हो गया. सिद्धांतों की अपने-अपने तरीकों से परिभाषाएं की गयीं और उनमें स्वार्थ का समावेश कर दिया गया. भारत के बुद्धिजीवियों को यह समझना होगा कि विदेशियों द्वारा दिया गया "हिन्दू-धर्म "नामक शब्द किसी धर्म का नहीं अपितु केवल और केवल राष्ट्रीयता का द्योतक है. दुर्भाग्य है कि हमें अपने शैक्षणिक अभिलेखों में धर्म के कालम में एक भ्रामक शब्द लिखना पड़ रहा है. क्या हमें इसका विरोध नहीं करना चाहिए ?
धर्म और संप्रदाय में सूक्ष्म अंतर है। इसलाम, ईसाई उसी तरह संप्रदाय हैं जैसे शैव, वैष्णव आदि। धर्म का अर्थ है सामाजिक जीवन जीने के नियम जैस हिंदू धर्म जिसमें हिंदुस्तान ही नहीं किसी भी देश के किसी भी संप्रदाय के लिग उसका पालन करके संस्कृत एवं सभ्य समाज की स्थापना कर सकते हैं।
achha lekh aur behtreen charcha....welcome back after long break.
फिर तो मैं भी S D यानी सनातन धर्मी हूं।
धर्म के सनातन शाश्वत स्वरुप पर आपके द्वारा की गयी इस व्याख्या से मैं भी पूर्णत: सहमत हूँ|
वस्तुत: यही कहा जा सकता है कि प्रकृति का नियम ही सनातन है| उससे भला कोई कैसे मूंह मोड़ सकता है?
धर्मनिरपेक्षता केवल ढोंग है| हमारा कर्त्तव्य ही सनातन धर्म है|
प्रस्तुत आलेख को पढ़कर बहुत प्रसन्नता हुई|
सही कहा आपने कि समस्त ब्रह्माण्ड का धर्म सनातन धर्म है|
@ दिव्या जी, आपने कहा, "...जैसे जल से उसकी तरलता और अग्नि से उसकी ऊष्मा विलग नहीं की जा सकती"...
और, जैसा 'मैंने' पहले भी कहीं कहा था, प्रकृति में हर 'वैज्ञानिक नियम' के अपवाद भी हैं... जैसे, सब धातु ठोस हैं किन्तु पारा ही ऐसा धातु है जो तरल है और इस प्रकृति के कारण बुद्धिमान व्यक्तियों द्वारा मानव हित में थर्मामीटर में उपयोग में लाया जाता है,,, किसी समय पारे, लोहे, आदि धातुओं से सोना बनाने में तत्कालीन ज्ञानी सफल अवश्य हुए होंगे, जैसे मान्यता है योगियों के कई 'चमत्कार' कर पाने में...
और जल एक ही समय पर प्रकृति में, हिमालय आदि में जैसे, हिम के रूप में ठोस; तरल तो आम है ही; और बादलों के रूप में गैस के रूप में पाया जाता है,,, और वो एक 'युनिवर्सल सौल्वेंट' भी है यानि सारे पदार्थ, किसी सीमा तक, उसमें घुल सकते हैं... गंगा नदी का राजा सगर (सागर?) के पोते भगीरथ के अथक प्रयास से पृथ्वी पर अवतरण चन्द्रमा से माना जाता है...
और यह भी सभी जानते हैं कि पंचभूतों की विभिन्न प्रकृति के कारण 'भारत' के 'सोने की चिड़िया' कहलाये जाने के पीछे प्राकृतिक 'जल चक्र' का स्थापित किया जाना है,,, जिसके कारण दक्षिण-पश्चिम मॉनसून द्वारा अरब सागर का खारा जल, धरा पर आश्रित अस्थायी मानव और अन्य प्राणीयों के लिए विषैला जल, 'अमृत' समान, प्रत्येक वर्ष पूर्वोत्तर की ओर खिंची चली आती वायु द्वारा ले जाए बादलों के हिमालय के प्राकृतिक बाँध समान कार्य कर पेयजल के रूप में गंगा-यमुना-ब्रह्मपुत्र और उनकी असंख्य सहायक नदियों आदि द्वारा उत्तरीय क्षेत्र में और अन्य प्रदेशों में भी अनेक अन्य नदी घाटी आदि में भी उपलब्ध होता है...
सदियों से मॉनसून के दौरान असम, गुवाहाटी स्थित कामाख्या मंदिर ('शिव की अर्धांगिनी सती' अर्थात शक्ति के मूलाधार) में भारत के हर भाग से आये तांत्रिक अम्बुवाची (बादलों से सम्बंधित) मेले में परम्परानुसार सदियों से एकत्रित होते आते हैं, वैसे ही जैसे 'जनता' हर १२ वर्ष में कुम्भ मेले में उन स्थानों में एकत्रित होते आये हैं, जहां तथाकथित 'अमृत' गिरा था, और सनातन धर्म के अंतर्गत ज्ञान को मौखिक रूप से, आमने सामने शास्त्रार्थ कर, आदान प्रदान करते आये हैं... जो काल के स्वाभाव के कारण वर्तमान में केवल एक 'मक्खी पर मक्खी मारने' समान रह गया है... क्यूंकि काल-चक्र उल्टा चलता है :)...
सनातन होना ही धर्म है और यही सही बात है।
आज हम मजहब को ही धर्म मान बैठे हैं. मजहब उसे कहतेहैं जो किसी व्यक्ति के द्वारा
स्थापित किया गया हो |
धर्म तो इश्वर प्रदत्त है जिसकी जानकारी हमें अपने गुरुजनों द्वारा प्राप्त होती है और वह है सत्य सनातन वैदिकधर्म !
धर्म तो उन मान्यताओं को आचरण में धारने का नाम है जो महर्षि मनु द्वारा बताये गए धर्म के दस लक्षणों के नामसे जाने जाते हैं -
धृति क्षमा दमोस्तेय शौचं इन्द्रिय निग्रह धीर्विद्या सत्यमअक्रोधः दशकं धर्मः लक्षणं
चाणक्य के अनुसार देश काल के अनुसार अलग अलग धर्म होते हैं
आतंकवादिओं तथा दुराचारिओं का संहार राष्ट्र धर्म है, समाज में हो रहे गलत बातों का विरोध भी हमारा धर्म है !
यदि सरकार हद की सीमा को पार कर दे तो उसे उखाड़ फेकना भी हमारा धर्म है !!
मनुष्य को ईश्वर ने इतना बुद्धिमान तो बनाया है कि बिना तर्क के किसी बात को नहीं मानना चाहिए किन्तु फिर भी बहुत से व्यक्ति आसानी से गलत बातों को स्वीकार लेते हैं और कुछ मनुष्यों को आप कितना ही तर्क देलें वो फिर भी अपनी बात मनवाने के लिए कुतर्कों के सहारे हमेशा व्याकुल रहते है। सच में मानव कि बुद्धि बड़ी जटिल है और वो वोही मानना चाहती है जैसे उसको संस्कार मिले हैं चाहे सही या गलत और कुछ बुद्धिमान लोग ही उन गलत संस्कारों को ज्ञान से नाप-तौलते हैं अन्यथा बाकी तो सब भेड़-बकरियों कि तरह ही व्यवहार करते हैं। बुद्धिमान व्यक्ति को उनके छल भरे कुतर्कों को समझना चाहिए। धर्मं मनुष्य को मनुष्यत्व के मूल भूत सिद्धांत जैसे की ब्रहमचर्य, ईश्वर ध्यान, समाधी सज्जनों से प्यार, न्याय, दुष्टों को दंड, सभी जीवधारियों पर दया भाव आदि अनेक जीवन के सिद्धांतों के साथ-२, विज्ञान, गणित और जगत रहस्यों को समझाता या सिखाता है।मैं एक बात उनलोगों से पूछना चाहता हूँ की उनको धर्म का अर्थ भी पता है या नही उनकी अल्प और संकीर्ण बुद्धि धर्म, मजहब और रिलिजन को पर्यावाची शब्द समझती है जबकि धर्म और बाकि सब में धरती आकाश का अंतर्भेद है !
आज धर्म के नाम पर,
हर जगह टकराव हो रहा,
खून हो रहा, देश रो रहा,
प्रेम भाई चारा खो रहा,
खून का ये जो समंदर बह रहा,
वो खून है सारा हमारा,
क्या हम आज यह नहीं कहेंगे,
सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा|
धर्म मारना नहीं सिखाता,
धर्म घृणा भी नहीं सिखाता,
धर्म वैर भी नहीं सिखाता,
फिर भी धर्म के नाम पर,
आज क्या – क्या नहीं हो रहा,
प्रेम टूट रहा और,
टूट रहा है भाईचारा,
क्या हम आज यह नहीं कहेंगे,
सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा!
मानवीयता सनातन धर्म है- सहमत. अन्य प्रकार से बताया गया धर्म वैयक्तिक होता है. उसके समान्यीकरण से समस्याएँ पैदा होती हैं.
gone thru ur post after quite a long time . u r penetrating n marvellous thru ur thoughts as usual. kudos !
धर्म मानवीय ही नहीं बल्कि सारे अस्तित्व का मूल है। केवल मानवीयता को धर्म स्वीकार करना अस्तित्व को खंड-खंड करके देखना है।
हम तो बचपन से ही कहते आये हैं ... समातन धर्म की जय ... हमारा दर्शन यही कहता है की हर धर्म की जय ...
बेहतरीन प्रस्तुति ।
dharm jorta hai.......
अच्छी पोस्ट। मेरे विचार से धर्म से तात्पर्य मानव धर्म से है। यदि हममें मानवीय गुणों का समावेश नहीं है तो हम अधार्मिक हैं। यह किसी पंथ या सम्प्रदाय की बात नहीं है सम्पूर्ण मानवता की बात है।
धर्म मानवीय ही नहीं बल्कि सारे अस्तित्व का मूल है। केवल मानवीयता को धर्म स्वीकार करना अस्तित्व को खंड-खंड करके देखना है।
मनोज भारती जी,
आपने सही कहा, जब धर्म के मात्र मनवीयता को ही टार्गेट रखा जाता है, सेवा में स्वयं मानव के लिए भी कमी रह जाती है। धर्म सम्पूर्ण सृष्टि के लिए है। उसे सीमित करना खण्डित करने के समान है।
मानवीयता से हट कर मैं धर्म को नहीं देख पाता. उदाहरण के लिए 'अहिंसा परमोधर्मः'. सृष्टि में, प्रकृति में कहीं ‘अहिंसा’ नहीं है. प्रकृति अपने नियमों से बँधी चलती है जिसमें हिंसा है. अहिंसा का धर्म मानव-निर्मित है और मनुष्यों के आपसी व्यवहार के लिए बनाया गया है. 'अहिंसा परमोधर्मः' के आगे लिखा भी जाता है 'मनसा, वाचा, कर्मणा'- जिसका सीधा सा अर्थ है कि यह धर्म मनुष्य के लिए बना है. पशुओं को 'मनसा-वाचा-कर्मणा' नहीं पढ़ाया जाता.
मानव यदि एक पुतला है, एक सुपर कंप्यूटर, तो उस का धर्म यदि कुछ हो सकता है तो वो शायद हो सकता है अपने मालिक को खुश रखना, जो किसी भी धर्म के मालिक के कुत्ते के माध्यम से प्रतिबिंबित होता है! अर्थात उसके पास सर्वाधिक मेमरी हो, सब सोफ्ट वेयर हों, हर वाईरस का तोड़ हो, कभी अपने मदर बोर्ड को क्रैश न होने दे, अच्छी स्पीड हो, फटाफट डाउनलोड करे,,, आदि, आदि,,, (इसमें जानकार अन्य आवश्यकताएं जोड़ सकते हैं)...
किन्तु मानव को यद्यपि भगवान् का ही प्रतिरूप मानते हुए भी "शिवोहम! तत त्वम् असी" कहते हुए हमारे बुद्धिमान पूर्वजों द्वारा 'अपस्मरा पुरुष' भी कहा गया है, जो अपने भूत को नहीं जानता, यानी भुलक्कड़ है, जैसे जब उस जैसा शक्तिशाली व्यक्ति भी, बिना बुराई से लड़े ही हार मानने लगा, तो कृष्ण को अर्जुन से कहते दर्शाया गया है कि सब गलतियों का कारण अज्ञान होता है,,, वो उसके साथ आरम्भ से थे, और वो उसके भूत के बारे में भी सब जानते थे,,, जबकि अर्जुन केवल अपने इसी जन्म के बारे में ही जानता था... और कृष्ण के परम रूप, चतुर्भुज विष्णु / शिव, 'परम सत्य', के दर्शन होने पर अर्जुन धन्य हो अपने निर्धारित कार्य करने में तत्पर हो गया... इत्यादि इत्यादि...
divya mam , belated happy birthday
यह पोस्ट और इस पर आये कमेंट पढ़ना अच्छा लगा।
धर्म स्नातन है। जब हम यह कहते हैं तो इसका आशय है कि उसका आदि और अंत नहीं है। धर्म केवल मानव जाति में रहने वाला गुण नहीं है,बल्कि ब्रह्मांड के कण-कण में व्याप्त सार तत्व है। मनुष्य के पास इस तत्व को पहचान पाने की अनुपम शक्ति है। इसलिए उसे सृष्टि की सर्वोत्तम
कृति कहा गया। मनुष्य ही है जो प्रकृति को भी समझने की चेष्टा करता है। सांख्य योग में पुरुष और प्रकृति का वर्णन है। प्रकृति का आशय ही है कि जो कृति से पूर्व है अर्थात किसी के होने से पूर्व भी मौजूद सार तत्व धर्म है।
मनुष्य के पास विवेक दृष्टि होने के कारण उसने जीवन में बहुत सी व्यवस्थाएँ बनाई, जिस से किसी दूसरे प्राणी को किसी प्रकार का कष्ट या उसके अस्तित्व को नष्ट न किया जा सके । इस हेतु उसने अस्तित्व को जिन-जिन चीजों से नुकसान पहुँचता था, उस के लिए कुछ मूलभूत सिद्धांत बनाए और उन्हें धर्म से जोड़ दिया। ताकि सबका अस्तित्व बना रहे और मनुष्य प्रकृति को नुकसान न पहुँचाए।
मैं पुन: कहना चाहूँगा कि धर्म अस्तित्व के कण-कण का स्वभाव है, इसे केवल मानवीय कहना उसे संकीर्ण करना है और अस्तित्व को खंड-खंड करके देखना है।
लेकिन सनातन धर्म साम्प्रदायिक नहीं है! सनातन धर्म विश्व का ही नहीं अपितु ब्रम्हांड के समस्त जीवों का धर्म है!....
बहुत सच कहा है...जो धर्म आदमी और आदमी के बीच नफ़रत के बीज बोए और अलगाव की भावना पैदा करे वह धर्म हो ही नहीं सकता...बहुत सार्थक और समसामयिक आलेख..आभार
धर्म याने धारण करना.अति सुंदर आलेख.
डॉक्टर दिव्या जी, क्षमा प्रार्थी हूँ लम्बी टिप्पणी के लिए! यह टिप्पणी मैंने किसी और सन्दर्भ में एक अन्य ब्लोगर डॉक्टर की सूचनार्थ प्रस्तुत की थी, और सोचा आपके काम भी आ सकती है यदि आप 'सत्य' जानना चाहती हैं (न की टाइम पास)...
'मुझको' समझने के लिए मस्तिष्क की कार्य विधि को पहले समझना होगा (जैसे 'मैंने' प्रयास किया है) प्राचीन ज्ञानी 'हिन्दुओं' के कथन आदि को 'लाइन के बीच' पढ़कर... तभी शायद 'हम' जान सकते हैं कि 'हम' सभी भूतनाथ शिव के भूत को प्रदर्शित करते प्रतिबिम्ब अथवा प्रतिमूर्ति हैं :)
उनके अनुसार, यद्यपि 'हम' सभी योगी हैं (शक्ति, और शक्ति के 'मिटटी' में परिवर्तित रूप के योग से बने), किन्तु 'हम' सभी 'अपस्मरा पुरुष' हैं, यानी भुलक्कड़ जो अपना भूत भूल चुके हैं... और दूसरी ओर 'पहुंचे हुवे' योगी, अथवा 'सिद्ध पुरुष' (ऑल राउंडर, अथवा सर्वगुण संपन्न), कह गए "शिवोहम! तत त्वम् असी"! यानि 'मैं' ('विष' का विपरीत यानि) अमृत 'शिव', अर्थात परमात्मा हूँ, और (यद्यपि) आप भी हो (किन्तु आप यदि इसे समझ नहीं पा रहे हो तो आपको अपने भीतर ही उपलब्ध आठ चक्रों में भंडारित पूर्ण ज्ञान को अपने मस्तिष्क तक एक बिंदु पर संचित करना होगा, निराकार नादबिन्दू से साक्षात्कार करने हेतु)...
'आधुनिक वैज्ञानिक', अर्थात खगोलशास्त्री भी जब ब्रह्माण्ड के अनंत शून्य और उसके भीतर असंख्य साकार स्वरुप गैलेक्सियों, और हरेक गैलेक्सी के असंख्य तारों और ग्रह आदि पिंडों से बना जान 'हमें' बताते हैं कि प्रकाश कि गति ३ लाख किलो मीटर प्रति सैकिंड है और सूर्य की शक्ति दायिनी किरणों को पृथ्वी तक पहुँचने में ८ मिनट (४८० सैकिंड) लगते हैं... और जो तारे पृथ्वी से बहुत दूर ब्रह्माण्ड में कहीं उपस्थित हैं तो उनकी दूरी प्रकाश-वर्ष (लाईट इअर), यानि जितनी दूरी प्रकाश पृथ्वी तक पहुँचने में लेता है, उसके द्वारा दर्शायी जाती है... जिस कारण यह संभव है कि कोई तारा विशेष यदि उस बीच मर भी गया हो, तो उसका प्रकाश हम देख रहे हों, यानि उसका भूत!
दिव्या जी, 'धर्म' के आधार पर बंटे 'वर्तमान भारत' में 'हिन्दू' और 'मुस्लिम' आदि के विषय में प्रश्न पूछा जा रहा था "कसाब मेहमान या आतंकवादी ?"... आदि आदि... 'मैंने' संक्षिप्त में अपनी भी टिप्पणी दी, जो आपकी सूचनार्थ भी नीचे दे रहा हूँ...
बचपन से अनेक बातें सुनते आये हैं,,, उनमें से एक है "उसकी मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता"!
फिर प्रश्न उठता है कि वो अदृश्य कौन है केवल जिसकी मर्जी चलती है,,, जैसा माना गया हमारे पूर्वजों द्वारा जिसे अपनी बुद्धि से वो समझ पाए किन्तु आज हम असफल हैं समझने में ?
यहीं पर हमारी भौतिक इन्द्रियों की कमी का आभास होता है, यद्यपि हमें यह बताया जाता है कि मानव मस्तिष्क में अरबों सेल हैं किन्तु वर्तमान में हम उनमें से नगण्य का ही उपयोग कर सकते हैं, और हमारे पूर्वज इसे काल का प्रभाव बताते हैं...
उनके अनुसार काल-चक्र उल्टा चलता है जिसके अनुसार हमें वो देखने को मिलता है जो भूत में किसी काल विशेष में हुआ, जिस कारण यद्यपि उत्पत्ति 'क्षीर-सागर मंथन' से हुई - कलियुग में विष से आरम्भ कर सतयुग के अंत तक देवताओं द्वारा अमृत प्राप्ति तक, किन्तु हमें काल के साथ मानव कार्य-क्षमता घटती दिखती है!
आज हम देख भी सकते हैं कि चहुँ ओर विष व्याप्त है - खाद्य पदार्थ में, जल में, वायु में, और मानव के विचारों तक में भी... इस कारण वर्तमान को शायद घोर कलियुग कह सकते हैं... हमारे नेता ही हमें चोर दिख रहे हैं अथवा लाचार और मौन... और जनता के पास इन्ही में से हर पांच वर्ष में कोई चुनने के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग है ही नहीं! फिर क्यूँ इनको सब सुख सुविधा, मेहमानों जैसे, दिए जाने को हम मजबूर हैं जबकि सब देख रहे हैं कि इन मेजबानों में एक बड़ी संख्या स्वयं रोटी भी नहीं खाती (अथवा गरीबी रेखा के नीचे है)?
this is called "pregnant pause"
22 june ke baad 13 july..
@ मनोज जी, जिस स्नातन धर्म की बात हो रही है यह मानव निर्मित है. मानव की आवश्यकता ही इसकी जननी है.
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@ -- जिस स्नातन धर्म की बात हो रही है यह मानव निर्मित है. मानव की आवश्यकता ही इसकी जननी है...
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सनातन धर्म मानव निर्मित नहीं है ! मानव तो नश्वर है जबकि सनातन धर्म का आनादि और अनंत है ! मानव ने तो अपनी सुविधा और स्वार्थ के अनुसार छोटे-छोटे religion बनाकर समस्त मानव जाति को सम्प्रदायों में बाँट दिया.
सनातन धर्म कण-कण में है. वो मनुष्य में भी है, पशु में भी , पौधों में भी , हवा , पानी और अग्नि में भी.
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JC ji ,
अहिंसा परमोधर्मः
आतंकवादिओं का कोई धर्म नहीं होता , इसलिए वे अज्ञानतावश हिंसा में लिप्त हैं.
लेकिन दुर्भाग्य तो यह है की सरकार, जिसका धर्म है जनता की सेवा करना वह भी भटक गयी है अपने शाश्वत धर्म सेवा से! उसे यह नहीं समझ आ रहा की जनता की सुरक्षा कैसे की जाए ! बम जब फटता है तो किस सम्प्रदाय के लोगों को शिकार बनाना है यह देखकर नहीं फटता !...बम का शाश्वत धर्म है नष्ट करना और फटने के साथ ही वह वहाँ उपस्थित हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई , पशु, पौधे एवं निर्जीव वस्तुओं को भी नष्ट कर देता है.
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@भूषण जी, क्या आपके सांसों की आपको जरूरत है या आप उसके नियंता है या कि आप कह सकते हैं कि अभी आप ने जो सांस ली उस पर आपकी निर्मिती की मोहर लगी है? नहीं न! आप किसी के अस्तित्व को नकार कर केवल मनुष्य को नहीं बचा सकते। सारा अस्तित्व संयुक्त है...इस सहचर्य में ही जीवन पुष्पित होता है। आप धर्म को मंदिर,मस्जिद,गुरुद्वारे,चर्च तक क्यों सीमित रखे हुए हैं? धर्म के प्राण को समझने की कोशिश कीजिए। क्या आपको अपने अस्तित्व पर भी शक है?
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@--"कसाब मेहमान या आतंकवादी ?"...
JC ji,
कसाब आतंकवादी है और संरक्षण देकर , निर्दोषों को हिंसा का शिकार बनाने वाली सरकार भी किसी आतंकवादी से कम नहीं ! यही सरकार गत माह 'रामलीला मैदान' में भी अपने करतब दिखा चुकी है ! लोग धर्म को भूल कर अपने शाश्वत कर्म से विमुख हो रहे हैं , इसलिए हिंसा , अनाचार और भ्रष्टाचार बढ़ रहा है.
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सारा अस्तित्व संयुक्त है...इस सहचर्य में ही जीवन पुष्पित होता है।
मनोज जी,
धर्म का सार्थक सूत्र!!
सनातन धर्म कण-कण में है. वो मनुष्य में भी है, पशु में भी , पौधों में भी , हवा , पानी और अग्नि में भी.
दिव्या जी,
यह सत्य कथन है। जड चेतन, जीव अजीव सभी का अपना जो मूल गुण-धर्म है वही सनातन धर्म है।
भूषण जी,
सनातन धर्म सम्पूर्ण प्रकृति-सृष्टि के लिए है। पर चुकि मानव के पास अतिरिक्त बुद्धि और विवेक है, इसलिए कर्तव्य पालन की समस्त जिम्मेदारी मानव की है। बस इन्ही अर्थों में वह मानवीय धर्म है। बाकि धर्म समस्त जगत के लिए हितकर कहा गया है।
दिव्या जी, कहते हैं शब्दों द्वारा, विशेषकर लिख कर, किसी आध्यात्मिक अनुभूति को किसी अन्य व्यक्ति को समझा पाना असंभव नहीं तो सरल भी नहीं है (सामने प्राचीन परम्परानुसार गुरु-शिष्य समान बैठ फिर भी बेहतर है) ...
यह निर्भर करता है पढने वाले व्यक्ति के मानसिक परिपक्वता पर, भले ही उसकी आयु कुछ भी हो, जैसा प्रहलाद, ध्रुव आदि बालकों के माध्यम से भी दर्शाया गया है... और, यदि कोई व्यक्ति किसी समय, मान लीजिये, सर/ दांत आदि दर्द से पीड़ित है, तब भी उसका मस्तिष्क / मन तैयार नहीं है ज्ञान ग्रहण करने के लिए...
कुछ क्षण के लिए मान लीजिये आप स्वयं निराकार शक्ति रूप 'विष्णु'/ शिव हैं,,, सर्वगुण संपन्न जो 'योगनिद्रा' में अपना ही भूत देख रहे हैं, अपना ही इतिहास, एक विडियो समान... जिसमें सारे पात्र उन्हीं के विभिन्न रूप हैं, कसाब हो या मनमोहन सिंह, (जिसकी झलक सभी मानव, और कुछ पशु तक, के 'निद्रावस्था' में प्राकृतिक तौर पर स्वप्न देखने द्वारा मिलती है, और 'जागृत अवस्था' में, मान लीजिये अपने फोटो एल्बम अथवा, उससे बेहतर, अपनी पुरानी विडियो फिल्म में, अपनी ही विभिन्न आयु में उतारी गयीं फिल्में)...
शून्य से अनंत तक की उत्पत्ति तो आपकी शून्य काल में ही हो गयी थी, और अब आप अपने आप को आरंभिक अवस्था में 'एक्शन रिप्ले' द्वारा देख रहीं हैं :)
अच्छी प्रस्तुति।
काफी समय बाद आपको पढने का अवसर मिला।
शुभकामनाएं......
@"मानवीयता से हट कर मैं धर्म को नहीं देख पाता. उदाहरण के लिए 'अहिंसा परमोधर्मः'. सृष्टि में, प्रकृति में कहीं ‘अहिंसा’ नहीं है. प्रकृति अपने नियमों से बँधी चलती है जिसमें हिंसा है. अहिंसा का धर्म मानव-निर्मित है और मनुष्यों के आपसी व्यवहार के लिए बनाया गया है. 'अहिंसा परमोधर्मः' के आगे लिखा भी जाता है 'मनसा, वाचा, कर्मणा'- जिसका सीधा सा अर्थ है कि यह धर्म मनुष्य के लिए बना है. पशुओं को 'मनसा-वाचा-कर्मणा' नहीं पढ़ाया जाता."
भूषण जी,
आपकी इस व्याख्या पर मेरा अभी ही ध्यान गया। प्राकृतिक नियमों पर आपकी यह व्याख्या भ्रांत और गम्भीर त्रृटिपूर्ण है।
आपनें प्राकृतिक आवेगों-आवेशों को प्राकृतिक नियमों में खपाकर अनुकरणीय सिद्ध करने का प्रयास किया है।
प्राकृतिक आवेगों को जस का तस स्वीकार करना धर्म नहीं है। धर्म की नीव है 'सभ्यता'। सभ्यता पूर्णरूपेण संस्कृति कहलाती है। प्राकृतिक आवेगों का प्रतिकार ही संस्कृति है।
हिंसा प्राकृतिक आवेग अवश्य है, पर उसे अहिंसा से सुसंस्कृत किया जा सकता है। यही तो संस्कार है। उसी से सभ्यता बनती है। उस सुसंस्कृतिकरण को ही तो धर्म कहेंगे। वही तो सनातन-धर्म है।
यदि प्राकृतिक आवेगों जिसमें मुख्यतः विकृतियां ही होती है को प्राकृतिक नियम की तरह स्वीकार कर व्यवहार किया जाय तो प्राकृतिक आवेग तो नरमेघ या नरभक्षण का भी आ सकता है, क्या उसे प्राकृतिक नियम मानकर, सामान्य वर्तन में लिया जाना चाहिए?
ईष्या, द्वेष, क्रोध,लोभ, प्रतिशोध आदि प्राकृतिक आवेग-आवेश है, इसी के दमन के लिए प्रतिपक्ष है 'धर्म'।
आवेश सहज प्राकृतिक आवेग है, धैर्य संस्कृति है।
बदला सहज प्राकृतिक आवेग है, क्षमा संस्कृति है।
मन का मैलापन सहज प्राकृतिक प्रमाद है, मन की शुचिता संस्कृति है।
प्रकृति का अनियंत्रित भोग और मनमौजीपन प्राकृतिक आवेग है। इन्द्रिय निग्रह संस्कृति है। सुधार है, संयम है।
इसी तरह अन्य धर्म के दस लक्षणों को लिया जाना चाहिए, क्योंकि यह जगत के लिए हितकर है।
--धर्म पशुओं को पालन नहीं करना है, पशुओं के लिए भी मानव को पालन करना है।
सनातन धर्म के बारे में विस्तार से बताने के लिए बहुत -बहुत आभार और आपको गुरु पूर्णिमा के शुभ अवसर पर सुगना फाऊंडेशन मेघलासिया जोधपुर और हैम्स ओसिया इन्स्टिट्यूट जोधपुर की ओर से आपको हार्दिक शुभकामनाएं.
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सुज्ञ जी ,
इतने सूक्ष्म और सुन्दर विवेचन से आत्मा तृप्त हो गयी !
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@ सुज्ञ जी,
आपकी व्याख्या को ध्यान से पढ़ा है. धर्म मानव मस्तिष्क पर पड़े संस्कारों का खेल है जिसे आपने प्रकारांतर से संस्कृति कहा है. यह प्रकृति के कण-कण के साथ नहीं अपितु केवल मनुष्य के मस्तिष्क में घटित होता है. 'कण-कण' में कौन सा धर्म व्याप्त है, काश!! मैं समझ पाता.
@ सुज्ञ जी
"हिंसा प्राकृतिक आवेग अवश्य है, पर उसे अहिंसा से सुसंस्कृत किया जा सकता है।"
शेर अपने मुँह में इंसान का सिर दबा ही ले तो उसे अहिंसा का पाठ कौन पढ़ाएगा. गाँधी जी अहिंसक थे. गोडसे भी अहिंसा के बारे में जानता था लेकिन तुलनात्मक रूप से उसके हिंसक संस्कार प्रबल थे. न्यायालय में उसने बार-बार उसी धर्म को उद्धृत किया जो उसे पढ़ाया गया था. कौन सा धर्म? जिसे वह जानता-मानता था. जो उसके मस्तिष्क पर अंकित था. उसे सुसंस्कृत कैसे बनाया जा सकता था? अहिंसा के विचार देकर ही न? शेर के कण-कण में क्या अहिंसा का विचार डाला जा सकता है? इंसान ने कभी इसकी कोशिश शायद की तो होगी :))
भूषण जी,
आप भी न? हमेशा गम्भीर चर्चा के बीच मजाक-खेल करनें लगते है।
'धर्म' मानव मस्तिष्क पर पड़े संस्कारों का 'खेल' नहीं संस्कारों का सभ्यता के लिए गम्भीर प्रयास है। हर वस्तु पदार्थ कण कण का एक निश्चित गुण-धर्म होता है।(अध्ययन करें उपरी अमित जी की टिप्पणी)
जड़ वस्तुओं के गुण-धर्मों को भी विकसित और संस्कारित करना सम्भव है। वैज्ञानिक पदार्थों के गुणधर्मों को विकसित कर ही नए नए आविष्कार करते है। जैसे एक धातु है 'क्रोम' धातु वैज्ञानिकों नें देखा कि जंग न लगने देना इस धातु का गुण-धर्म है, लोहे को जंग जल्दी लग जाता है। धातु वैज्ञानिकों ने लोह के साथ क्रोम का मिश्रण कर दिया, तो लोहे के गुण-धर्म संस्कारित हो गए और जंग न लगने वाली नई मिश्रधातु का विकास हो गया जो अब है स्टेनलेस स्टील। अब न कहना कण कण का क्या धर्म होता है। हर पदार्थ अपने धर्म-स्वभाव के कारण हमारे धर्म में सहयोगी होता है।
भूषण जी,
फिर मजाक???
मैं पहले ही कह चुका हुं कि धर्म, पशुओं को पालन नहीं करवाना है, पशुओं के लिए भी मानव को पालन करना है।
कभी कभी मुझे मानव होने पर शर्म आती है। जिस अहिंसा के पालन की जिम्मेदारी मुझ मानव को सौपी गई/या बनती है। मैं शेर को पहले अहिंसा का पाठ सिखाने की बात करता हूँ। इस कपट के साथ कि यदि शेर अहिंसक बने तो बादमें मैं अहिंसक बनुं!!
जैसा कि आपने स्वयं कहा-"तुलनात्मक रूप से उसके हिंसक संस्कार प्रबल थे" (वैसे गौडसे का हिंसक रेकार्ड था नहीं)वह गांधी की अहिंसा का भरपूर सम्मान भी करता था जो उसके बयान में दर्ज़ है। बस एक विपरित दृष्टिकोण था, वह सोचता था इसतरह वह कौम का बुरा होने से रोक पाएगा। उसका अपना मात्र दृष्टिकोण था, लेकिन वह घटना हिंसा वर्सेज अहिंसा नहीं थी। जो आप स्थापित करने का प्रयास कर रहे है।
जिस पशु का स्वाभाविक हिंसक आचरण होता है, उन्हें छोडो पर मानव तो स्वभाविक अहिंसक है, वह क्यों हिंसा को पकड़ रखे? और उसके संस्कारित होने की सम्भावनाएं भी प्रबल है और सारी जिम्मेदारी भी उसपर है उसे स्वयं से ही शरूआत करनी होती है। और अन्य निर्दोष जीवों को भी बचाना होता है। हां शेर को भी बचाना उसका धर्म है। जो कि पर्यावरणवादी करते भी है।
मनुष्य को 'ब्रह्माण्ड' का प्रतिरूप अथवा प्रतिबिम्ब माना गया... 'ब्रह्माण्ड' शब्द उसे भी अजन्मा प्रदर्शित करता है, वैसे ही जैसे ब्रह्माण्ड का प्रतिरूप मुर्गी का अंडा, जिसमें से फूटने पर ही जीव का जन्म संभव है...और क्यूंकि ब्रह्माण्ड का शून्य एक गुब्बारे समान निरंतर फूलता ही जा रहा प्रतीत होता है वो 'हिन्दुओं' के शब्द में अनंत है... यद्यपि आधुनिक बिग बैंग को मानने वाले वैज्ञानिक मानते हैं कि संभवतः ब्रह्माण्ड अपने सर्वाधिक आकार प्राप्त कर, फिर से पलट कर शून्य यानि उसके अनुमानित मूल बिन्दू रूप में आजाये,,, किन्तु वो शर्तिया कह नहीं सकते...
'विज्ञान' के अनुसार हमारे ब्रह्माण्ड के ही भीतर अनंत में से एक गैलेक्सी के भीतर उपस्थित हमारे सौर-मंडल के अन्य सदस्यों को, ग्रहों आदि को, शक्ति प्रदान करने वाले सूर्य समान, कोई भी अन्य सितारा, अग्नि के गोले के रूप में अरबों वर्ष तक ब्रह्माण्ड के भीतर ही रहते रहते 'लाल रूप' में पहुँच एक दिन भीतरी दबाव के गुरुत्वाकर्षण से अधिक हो जाने पर फूट जाता है और उसका 'कूड़ा' ब्रह्माण्ड के शून्य के भीतर ही रह, फिर से गुरुत्वाकर्षण के प्रभावित हो जाने से, तीन में से एक संभव परिवर्तित रूप में ब्रह्माण्ड के अन्दर पैदा हो जाता है, जो उसके मूल भार पर निर्भर करता है - वो लगभग शून्य भार किन्तु महान गुरुत्वाकर्षण वाला ("सहस्त्र सूर्य के प्रकाश वाला" कृष्ण!?) 'ब्लैक होल' केवल तभी बन सकता है जब उसका मूल भार हमारे सूर्य के भार की तुलना में पांच (?) गुना या उससे अधिक था...ऐसा १९८३ में भौतिक विज्ञान के लिए नोबल पुरूस्कार विजेता एक अमेरिकन भारतीय एस चंद्रशेखर (१९३७-'९५, और प्रसिद्द भारतीय वैज्ञानिक सी वी रमण के रिश्ते में भतीजे/ भांजे?) द्वारा तारों के अध्ययन के पश्चात जाना गया, और वैज्ञानिक जगत द्वारा माना जाता है...और हिन्दू मान्यतानुसार साकार ब्रह्माण्ड निराकार के विचार समान उसके मन के भीतर ही है, और मानव हमारी गैलेक्सी (कृष्ण) की महान गुरुत्वाकर्षण के क्षेत्र के भीतर स्थित सौर मंडल के पृथ्वी ग्रह पर आश्रित होने से सौर-मंडल के उत्पत्ति द्वारा अमृत प्राप्त सदस्यों के गुणों को प्रतिबिंबित करता है... इत्यादि, जिस कारण मानव को खोजने को कहा गया की वो कौन है?,,, आदि आदि...
हिन्दु, मुस्लिम, ईसाईयों आदि के पूर्वजों ने जो खोजा और जाना वह धर्म नहीं था। धर्म तो है सनातन धर्म, और आज उसे खोज लिया गया है। अपने-अपने धर्मों को श्रेष्ठ समझने की मनोग्रंथी के कारण हिन्दू अपने धर्म को सनातन कहता है, अब ये जुमला कुछ मुस्लिम ब्लॉगर्स के भी हाथ लग चुका है। इसलाम उनके लिए दुनिया का महानतम धर्म है ही। किसी ईसाई का पक्ष नहीं सुना पर शायद वह भी अपने धर्म को ही सनातन कहता। सैंकड़ों पीढियों से इन धर्मों के अनुयायी जो मानते रहे वो धर्म नहीं था। असली धर्म तो है सनातन धर्म और आज उसे खोज लिया गया है।
धर्म और संस्कृति एक दूसरे के पर्याय नहीं हैं। धर्म समाज पर ऊपर से थोपा जाता है। वह ईश्वरीय है, इसलिए उसकी मूल स्थापनाएं अपरिवर्तनीय है। उधर संस्कृति, सभ्यता को हम स्वयं जन्म और विकास देते हैं। धर्म आसमान से आता है और संस्कृति जमीन से विकसित होती है। धर्म और संस्कृति अपनी प्रकृति से ही एक दूसरे के विरोधी हैं। धर्म संस्कृति का सिर्फ इस्तेमाल करता है। प्रेमचंद के शब्दों में सत्ता हथियाने और उसे बनाए रखने के लिए धर्म, संस्कृति का मुखौटा लगाकर आता है। मगर जैसे ही सत्ता धर्म के हाथ आ जाती है वह पहला गुलाम संस्कृति को ही बनाता है। आज भी कहना मुश्किल है कि "धार्मिक गुंडे पता नहीं किसे भारतीय संस्कृति के लिए अपमानजनक घोषित कर दें। धर्म को गुरूओं और पैगंबरों की जरूरत पड़ती है, संस्कृति को रचनाकारों और कलाकारों की। क्योंकि अपने आचार-व्यवहार, व्यवसाय या अन्य सामाजिक संवाद के बीच सामान्य जन उसे अपने बीच उगाते हैं, वही तो मूलतः संस्कृति के निर्माता हैं।
धर्म मनुष्य और जीवन का शत्रु है क्योंकि ईश्वर और परलोक के नाम पर वह जीवन को नकारने का उपदेश देता है, नश्वरता के आतंक से शरीर को अस्वीकार करता है। उधर संस्कृति जीवन का उत्सव है- वह दुनिया से भागने की नहीं, उसे ही बदलने और बेहतर बनाने की प्रेरणा देती है।
मानव अपने मूल स्वभाव से अहिंसक है तो जो आदिकाल से मनुष्यों में ताकत और साम्राज्य के लिए युद्ध होते आये हैं और जो आज भी अनवरत जारी है उसे क्या कहा जाए?
सनातन धर्म या शाश्वत धर्म. एक अच्छा विषय. लेकिन ब्लोगर्स 'सनातन धर्म' से भी 'सनातन' और 'धर्म' को अलग अलग कर रहे हैं.
A nice post.Thanx.
जनाब सज्जन साहब,
अजीब हो यार, क्या शान्ति के शत्रु हो? जब बात किसी नामधारी पूजा पद्धति की हो ही नहीं रही तो क्यों उकसाने में लगे हो? यहां बात मात्र नेचरल धर्म की हो रही है, वह अनादि है अतः उसे सनातन कहा जा रहा है। यह प्राकृतिक है इसलिए जब तक प्रकृति रहेगी यह शाश्वत रहेगा इसलिए भी इसे सनातन कहा गया है।
@ हिन्दु, मुस्लिम, ईसाईयों आदि के पूर्वजों ने जो खोजा और जाना वह धर्म नहीं था।
अच्छा तो अब पूर्वजों के नाम पर भड़काना है? आपको मालूम नहीं कि जब अनादि सनातन कहा जा रहा है तो वहाँ सभी के पूर्वजों का उद्गम एक हो जाता है। वहां सभी एक हो जाते है। आपका व्यंग्य व्यर्थ गया।
हम आस्तिक अब भली भांति समझते है हमारी अलग अलग पूजा पद्धतियों को अनावश्यक चर्चा में लाकर आप जैसे नास्तिक और वाममार्गी मात्र द्वेष उतपन्न के लिए ही यह षड़यंत्र करते है।
धर्म सनातन था या खोजा गया, आपके पेट में चुक क्यों उठने लगी जब आपका धर्म से कोई सम्बंध नहीं।
दिव्या जी, गुरु पूर्णिमा के शुभ अवसर पर लिखी 'अपनी' एक टिप्पणी आपकी सूचनार्थ भी प्रस्तुत कर रहा हूँ.
गुरु हर वो है जिससे आप अपने सीमित जीवन काल में ज्ञान प्राप्त करते चले जाते हैं, सीढ़ी पर एक पायदान से दूसरी पर चढ़ते समान... और जिनके द्वारा केवल भलाई ग्रहण करते (गेहूं से खर पतवार अलग करते समान) अंततोगत्वा आप अपने मन को ऊपर शिखर (कैलाश पर्वत समान) ले जा कर परमात्मा समान परम ज्ञानी हो जाएँ, यानि आत्मा का परमात्मा से मिलन करा पाएं!
गुरु ब्रह्मा/ गुरु विष्णु/ गुरु देवो महेश/
गुरु साक्षात परम ब्रह्मा //
तस्मई श्री गुरुवे नमः
@ सुज्ञ जी
हम भी शांति ही चाहते हैं यदि मेरी आपके विचारों से असहमति प्रकट करने से आपकी शांति भंग हो गई हो तो इसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूँ। कहना सिर्फ इतना ही था कि सनातन का अर्थ होता है जो सदा से चला आ रहा हो। परन्तु मेरे विचार में यह धारणा सही नहीं है। सत्य की कसौटी मनुष्य के विश्वास नहीं बल्कि भौतिक वास्तविकताओं और तथ्यों को माना जाना चाहिए। मनुष्य अपने ज्ञान विश्वासों और विचारों के आधार पर ही धर्मों की व्याख्या करता आया है। मनुष्य का ज्ञान समय सापेक्ष होता है। ज्ञान में वृद्धि और भौतिक परिस्थितियों और आवश्यकताओं के बदलने पर मनुष्य के विचार और धारणाएं भी बदल जाती हैं।
जनाब सज्जन साहब,
बडे कन्फ्यूज हो यार, ऐसी मनोदशा में चर्चा करना आपके अनुकूल नहीं है। कल तक कह रहे थे धर्म लोगों नें कल्पना से बनाया और आज स्वयं उसे ईश्वरीय और आसमानी सिद्ध करने पर तुले हो?
कल तक संस्कार आपको धर्म द्वारा उत्पन्न धार्मिकों की बपौती लग रही थी। आज जब संस्कृति को सदाचार युक्त सभ्यता का कारण पाया तो संस्कृति जमीनी लगनें लगी।
धर्म प्रेरित संस्कृति हमेशा जमीनी ही होती है और सीधे मानव के सदाचारों को प्रभावित प्रेरित करती है।
सद्गुण और सदाचार सर्वदा अपरिवर्तनीय ही रहेंगे। थोडे से दुख या श्रम से घबराकर सदाचार अपने पैमाने बदल दे और समय परिस्थिति अनुसार अपने में परिवर्तन कर दे तो उन्हें कदाचार बनते देर नहीं लगती जो कि प्रत्यक्ष है।
धर्म ही संस्कृति का विवेक देता है। और धर्म से ही संस्कार पल्ल्वित पोषित होते है।
यहां रचनाकारों कलाकारों की संस्कृति की बात नहीं हो रही। यह सदाचार की संस्कृति की बात हो रही है। धर्म भी समान्यजन का है और सामान्य जन के ही लिए है जिस प्रकार संस्कृति और सभ्यता पर सामान्यजन का अधिकार है।
धर्म निश्चित ही जीवन को क्षणिक और शरीर को नश्वर बताकर भोगी और मनमौजी जीवन को नकारने को प्रेरित करता है एवं संयमित रहने का उपदेश देता है जो कि सदाचार के प्रयोजन से है। भोगी और मनमौजीयों को यह विचित्र भी लगता है और अपनी जीवन स्वछंदता का विरोधी भी। धर्मद्वेषी और रिश्तेभंजक इस जीवन-अनुशासन को समझ ही नहीं सकते।
@ मानव अपने मूल स्वभाव से अहिंसक है तो जो आदिकाल से मनुष्यों में ताकत और साम्राज्य के लिए युद्ध होते आये हैं और जो आज भी अनवरत जारी है उसे क्या कहा जाए?
धर्मद्रोही, सदाचार के खलनायक, अहिंसा के प्रतिगामी सदैव से ही रहे है। हर गुण के प्रतिलोम में एक अवगुण अस्तित्व में रहता ही है। शायद गुणों की याद दिलाने के लिए ही धर्म का अस्तित्व है।
धर्म के प्रति आधुनिक मन में बड़ी उपेक्षा है । और यह अकारण भी नहीं है । धर्म का जो रूप आंखों के सामने आता है, वह न तो रुचिकर ही प्रतीत होता है और न ही धार्मिक । धार्मिक से अर्थ है : सत्य, शिव और सुंदर के अनुकूल । तथाकथित धर्म वह वृत्ति ही नहीं बनाता जिससे सत्य, शिव और सुंदर की अनुभूति होती हो । वह असत्य, अशिव और असुंदर की भावनाओं को बल और समर्थन भी देता है । हिंसा, वैमनस्य और विद्वेष उसकी छाया में पलते हैं । मनुष्य का इतिहास तथाकथित धर्म के नाम पर इतना रक्तरंजित हुआ है कि जिनमें थोड़ा विवेक और बुद्धि है, बहुत स्वाभाविक है कि न केवल उनके ह्रदय धर्म के प्रति उदासीन हो जाएं, बल्कि ऐसे विकृत रूपों के प्रति विद्रोह का भी अनुभव करें । यह बात विरोधाभासी मालूम होगी । किंतु बहुत सत्य है कि जिनके चित्त वस्तुत: धार्मिक हैं, वे ही लोग तथाकथित धर्मों के प्रति विद्रोह अनुभव कर रहें हैं ।
धर्म एक जीवंत प्रवाह है । और निरंतर रुढ़ियों, परम्पराओं और अंधविश्वासों को तोड़कर उसे मार्ग बनाना होता है । सरिताएं जैसे सागर की ओर बहती हैं, और उन्हें अपने मार्ग में बहुत सी चट्टाने तोड़नी पड़ती हैं, और बहुत सी बाधाएँ दूर करनी होती हैं, ठीक वैसे ही धर्म का भी विकास होता है । धर्म के प्रत्येक सत्य के आसपास शीघ्र ही सम्प्रदाय अपने घेरे बांध कर खड़े हो जाते हैं । फिर इन घेरों से न्यस्त स्वार्थ होते हैं । स्वाभाविक है कि जहां स्वार्थ है, वहां संघर्ष भी आ जाए । ऐसे संप्रदाय आपस में लड़ने लगते हैं । यह लड़ाई वैसी ही है, जैसी प्रतिस्पर्धी दुकानों में ग्राहकों के लिए होती है । संगठन संख्या पर जीते हैं । इसलिए येन-केन प्रकारेण अनुयायियों को बढ़ाने की दौड़ चलती रहती है । धर्म के नाम पर भी इस प्रकार शोषण शुरु हो जाता है । मार्क्स ने संभवत: इसी कारण धर्म को जनता के लिए अफीम का नशा कहा है ।
धर्म, संप्रदाय सत्य के खोजी भी नहीं रह जाते । वे तो अपनी-अपनी धारणाओं को हर स्थिति में सत्य सिद्ध करने में संलग्न हैं और इसलिए वे ज्ञान के प्रत्येक नए चरण के शत्रु हो जाते हैं । विज्ञान के साथ धर्म का संघर्ष इसी बात की सूचना है । ज्ञान तो नित्य आगे बढ़ता रहता है और तथाकथित धार्मिक पुरानी और मृत धारणाओं से ही चिपके रहते हैं । इसलिए वे प्रगति के विरोध में प्रतिक्रियावादी सिद्ध होते हैं । ऐसे धर्म-संप्रदाय धर्म के ही मार्ग में बाधा बन जाते हैं । धर्म को जितना अहित साम्प्रदायिक दृष्टि ने पहुंचाया है, उतना किसी और बात ने नहीं । सम्प्रदाय जितने बढ़ते गए, धर्म का उतना ही ह्तास होता गया । सम्प्रदाय तो जड़ आवरण है । धर्म की विकासशील आत्मा के वे कारागृह बन जाते हैं ।
धर्म एक है, लेकिन संप्रदाय अनेक हैं और इसी कारण अद्वय सत्य की उपलब्धि में उनकी अनेकता सहयोगी नहीं हो पाती । जैसे विज्ञान एक है और उसके कोई संप्रदाय नहीं, वैसे ही वस्तुत: धर्म भी एक है और उसके सत्य भी सार्वभौम है । धर्म की संप्रदायों से मुक्ति अत्यंत आवश्यक हो गई है । मनुष्य के विकास में ऐसी घड़ी आ गई है कि धर्म संप्रदाय से मुक्त होकर ही प्रीतिकर, उपादेय और वांछनीय ज्ञान हो सकेगा । संप्रदाय से मुक्त होते ही धर्म के न्यस्त स्वार्थ रूप नष्ट हो जाते हैं । वह दुकानदारी नहीं है और न ही किन्हीं अंधविश्वासों का प्रचार है । वह न संगठन है और न शोषण । फिर भी वह व्यक्ति, सत्ता और सर्व सत्ता के बीच प्रेम और प्रार्थना का अत्यंत निजी संबंध है । धर्म अपने शुद्ध रूप में वैयक्तिक है । वह तो स्वयं का समर्पण है । संगठन से नहीं, साधना से उसका संबंध है । क्या प्रेम के कोई संप्रदाय हैं ? और जब प्रेम के नहीं हैं तब प्रार्थना के कैसे हो सकते हैं ? प्रार्थना तो प्रेम का ही शुद्धतम रूप है ।
सत्य की कोई भी धारणा चित्त को बंदी बना लेती है । सत्य को जानने के लिए चित्त की परिपूर्ण स्वतंत्रता अपेक्षित है । चित्त जब समस्त सिद्धांतों, शास्त्रों से स्वयं को मुक्त कर लेता है, तभी उस निर्दोष और निर्विकार दशा में सत्य को जानने में समर्थ हो पाता है । व्यक्ति जब शून्य होता है तभी उसे पूर्ण को पाने का अधिकार मिलता है ।
मनुष्य के सारे जीवन सूत्र उलझ गए हैं । उसके संबंध में कोई भी सत्य सुनिश्चित नहीं प्रतीत होता । न जीवन के अथ का पता है, न अंत का । पहले के समय में जो धारणाएं स्पष्ट प्रतीत होती थी, वे सब अस्पष्ट हो गई हैं । धारणाओं के पुराने भवन तो गिर गए पर नए निर्मित नहीं हुए । पुराने सब मूल्य मर गए हैं, या मर रहें हैं और कोई नए मूल्य अंकुरित नहीं हो पाते । एक ही नया मूल्य अंकुरित हुआ है कि यह भौतिक जीवन ही सब कुछ है । परंतु इस नए मूल्य ने संघर्ष, द्वंद्व और युद्ध तथा अशांति को जन्म दिया है । इस भांति जीवन दिशाशून्य होकर ठिठका सा खड़ा है । यह किंकर्तव्य-विमूढ़ता हमारी प्रत्येक चिंतना और क्रिया पर अंकित है । स्वभावत: ऐसी दशा में हमारे चित्त यदि तीव्र संताप से भर गए हों, तो कोई आश्चर्य नहीं । गंतव्य के बोध के बिना गति एक बोझ ही हो सकती है । जीवन के अर्थ को जाने बीना जीना एक भार ही हो सकता है । अर्थ और अभिप्राय: शून्य उपक्रम अंतत:अर्थ और अभिप्राय: को कैसे जन्म दे सकते हैं ? जिस यात्रा का प्रथम चरण ही अर्थहीन हो, तब तो उसका अंतिम चरण अर्थ नहीं बन सकता । फिर जो पूरी की पूरी यात्रा ही अर्थहीन हो, तब तो अंत में अनर्थ ही हाथ आएगा । यह कोई कोरे सिद्धांत की बात नहीं है । यह तो सीधा अनुभव ही है । चारों ओर हजारों चेहरों पर छाई हुई निराशा, लाखों आंखों में घिरा हुआ अंधकार, करोड़ों ह्रदयों पर ऊब और संताप का भार इसका स्पष्ट प्रमाण है । खोज करने पर भी शांत, संतुष्ट और आनंदित व्यक्ति का मिलना दुर्लभ होता जा रहा है । अभी भी ऋतुराज आता है और सृष्टि सुमनों तथा उनकी सुगंध से भर जाती है । पावस में मेघमालाएं उठती , दामिनी दमकती, वर्षा होती, इंद्रधनुष निकलता और हरियाली छा जाती है । ऊषा और संध्या की सुनहरी आभा से पूर्व और पश्चिम नित्य ही आलोकित होते हैं । उदय होते हुए भास्कर की आभा और नित्य प्रति बढ़ती हुई चंद्रमा की कलाएं अपना सौंदर्य बिखेरती हैं । विविध समीर बहता है और पंछी अपना मधुर राग अलापते हैं । किंतु वे मनुष्य कहां हैं, जिनके ह्रदय संगीत से भरे हों और जिनकी आंखों से सौंदर्य झरे ? निश्चय ही मनुष्य के साथ कुछ भूल हो गई है । निश्चय ही उसके भीतर कुछ टूट और खो गया है । निश्चय ही मनुष्य जो होने को पैदा हुआ है, वही होना भूल गया है ।
यह भूल इसलिए हुई कि मनुष्य जो उसके बाहर है, उसे समझने और जीतने में अतिशय संलग्न हो गया है । उसकी बाहर की अति संलग्नता ने भीतर की भूमि से क्रमश: उसे अपरिचित कर दिया है । धीरे-धीरे यह स्मरण ही न रहा, कि हमारे भीतर भी जानने और जीतने को एक जगत है ।बाहर के जगत में मिली विजय क्रमश: उसे और बाहर ले गई । नए-नए अविजित क्षितिज उसे आकर्षित करते रहे और उनके प्रलोभनों में वह स्वयं से ही दूर बढ़ता गया ।जगत का कोई अंत नहीं है । बाहर अनंत विस्तार है । यह संभव नहीं कि कभी भी उस पूरे विस्तार को हम अपनी मुट्ठी में ले सकेंगे । जितना हम जानते हैं, जगत उतना ही बड़ा होता जाता है । जितना हम उसे जीतते हैं, उतना ही वह अविजित क्षेत्र बड़ा होता जाता है । इस दौड़ में स्वर्णमृग तो हाथ आता नहीं, बल्कि स्वयं की सीता से दूर जरुर हुए जाते हैं । राम ने जैसा अंत में पाया कि स्वर्ण मृग तो मिला नहीं, लेकिन सीता अवश्य खो गई । ऐसी ही दशा पूरी मनुष्यता की है । बाहर के सर्व को खोजने और जीतने हम निकले और अंत में यह पा रहें हैं कि भीतर के स्व को ही हार गए और खो बैठे । मनुष्य की चेतना को वापिस उसके स्व में प्रतिष्ठित करना अपरिहार्य हो गया है ।ऐसा होने पर ही हम स्वयं को जानने में समर्थ हो सकेंगे । और उस ज्ञान के प्रकाश से ही जीवन की उलझी गुत्थी सुलझ पाएगी । यह अज्ञान चरम अज्ञान है कि जो स्वयं को ही न जानता हो, वह शेष सबको जानने में संलग्न हो । प्रकृति नहीं, पुरुष सर्वप्रथम जानने योग्य है । उस ज्ञान के आधार पर शेष सब ज्ञान सार्थक हो सकता है । उस मूल ज्ञान के अभाव में और किसी भी भांति के ज्ञान का कोई भी मूल्य नहीं । मनुष्य प्रथम है, शेष सब पीछे है । मनुष्य को सबसे अंत में रखकर ही भूल हो गई है ।
आज मनुष्य के विकास में एक अद्भूत विरोधाभास दिखाई देता है । जहां एक ओर भौतिक तल पर समृद्धि और प्रगति अनुभव होती है, वहीं इस भौतिक समृद्धि और प्रगति के साथ-साथ ही आत्मिक तल पर ह्तास और पतन भी दिखाई पड़ता है । अत: वे लोग भी ठीक हैं जो कहते हैं कि मनुष्य निरंतर उन्नत हो रहा है और वे लोग भी ठीक हैं जिनकी मान्यता है कि मनुष्य का प्रतिदिन पतन होता जा रहा है । हम दोनों को ठीक इसलिए कहते हैं कि भौतिकवादी अपनी दृष्टि से आधुनिक मनुष्य को देखते हैं और आध्यात्मवादी अपनी दृष्टि से । कठिनाई यह है कि दोनों यह अनुभव नहीँ करते कि उनकी दृष्टि एकांगी है । भौतिक विचारधारा वाले तो, आत्मिकतल जैसी कोई चीज है, इसे जानते तक नहीं हैं । और आध्यात्मिक विचारधारा वाले इस सारी समृद्धि और प्रगति को निरर्थक मानते हैं । विचारणीय यह हो गया है कि विरोधी दिशाओं में खिंच रही मानव की यह स्थिति कहीं उसका अंत ही न कर दे । यह घटना असंभव घटना नहीं है । यह इसलिए है कि यदि हम भौतिकतल की उन्नति में ही लगे रहे और हमारा अंतस जैसा अभी है, वैसा ही रहा, तो यह सारी भौतिक समृद्धि नष्ट हो सकती है । भीतर रुग्णता हो और बाहर स्वस्थता दिखाई पड़े, तो किसी भी क्षण दुर्घटना घटित हो सकती है । जिस ह्रदयरोग का आजकल बाहुल्य हो गया है, उसमें बाहरी स्वस्थता ही दिखाई पड़ती है । परंतु बाहर का स्वास्थ्य अच्छा दिखते हुए भी, यह ऐसा रोग है जो क्षण भर में सारी स्वस्थता समाप्त कर व्यक्ति का नाश कर देती है । बाहर संपदा दिखाई पड़े और भीतर पास में कुछ भी न हो, तो दिवालियापन कभी भी प्रकट हो सकता है । बाहर विकास हो और भीतर ह्तास तो भविष्य के संबंध में आशावान नहीं हुआ जा सकता । बाह्य और अंतस के तनाव से बड़ा और कोई तनाव संभव नहीं है। इससे बड़ी न तो कोई अशांति हो सकती है और न ही कोई आत्मवंचना । हम कब तक अपने आप को धोखा देते जाएंगे । हर धोखे के टूट जाने का समय आता है और भौतिक समृद्धि के रहते हुए अंतस् की इस शून्यता के कारण जिस धोखे की स्थिति में हम रह रहें हैं, उस धोखे के टूटने का समय निकट है । अंतस की यह स्थिति ही भौतिक समृद्धि के बढ़ते रहने पर चारों ओर अनैतीकता और अमानवीयता बढ़ा रही है । जिसे सच्ची धार्मिकता कहते हैं, वह नष्ट हो गई है । इस स्थिति में प्रतिक्षण पैदा हो रहे छोटे-बड़े दुष्परिणाम क्या हमें सजग कर देने को यथेष्ट नहीं हैं ? क्या संपत्ति और समृद्धि के बीच भी तीव्र संताप की मन: स्थिति और चिंता की ज्वाला का ताप हमें जगा देने को पर्याप्त नहीं है ?
व्यक्ति के तल पर ही नहीं, समाज और राष्ट्रों के तल पर भी फैला हुआ विद्वेष, घृणा और हिंसा और आए दिन होते हुए विस्फोट, घातक युद्ध भी क्या हमारी निद्रा को नहीं तोड़ सकेंगे ?विगत शताब्दी में दो महायुद्धों में कोई दस करोड़ लोगों की हत्या हुई । जहां-जहां युद्ध की विभीषिका फैली थी, वहां-वहां युद्ध के पश्चात जीवित जन-समुदाय ने अगणित कष्ट पाए । इतनी बड़ी हिंसा और दुर्दशा का जन्म निश्चित ही हमसे हुआ है । हम ही इसके लिए उत्तरदायी हैं । हम जैसे हैं, उसमें ही उसके बीज मौजूद हैं । ये युद्ध केवल राजनीतिक या आर्थिक स्थिति के ही परिणाम नहीं थे । मूलत: और अंतत: तो सब कुछ मानव के मन से संबंधित होता है । ऊपर से इस प्रकार की घटनाएं चाहे राजनीतिक दिखें या आर्थिक , किंतु गहरे में तो सभी कुछ मानसिक रहता है । समाज में ऐसी कोई स्थिति नहीं है, जिसके मूल कारण व्यक्ति के मन में न खोजे जा सकें । वस्तुत: समाज व्यक्तियों के जोड़ के अतिरिक्त और क्या है ? जो चिंगारियां व्यक्ति के मन में अत्यंत छोटे रूप में दिखाई पड़ती हैं, वे ही तो समूह की सामूहिकता में विकराल अग्निकांड बन जाती हैं ।
पुनश्च:
व्यक्ति की आत्मा में ही यथार्थ में समूह का सारा स्वास्थ्य या रुग्णता छिपी रहती है । आत्म विपन्न व्यक्ति स्वस्थ समाज के निर्माता नहीं हो सकते । दुखी, संतापग्रस्त ईकाइयां किसी भी भांति आनंदपूर्ण और शांतचित्त समाज की घटक कैसे हो सकती हैं ? ऐसा कोई भी चमत्कार संभव नहीं है कि जो तत्व के किसी भी अंश-रूप में, इकाई में उपस्थित न हो और वह पूर्ण जोड़ में आ जाए । जो समूह में और जोड़ में दिखाई पड़ता हो, मानना होगा कि वह अपने अंश-रूप में अति सूक्ष्म रूप से अवश्य ही मौजूद रहता है । इसलिए केवल ऊपर-ऊपर या उथला देख कर ही मानवीय जीवन की किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकता । उथले में समूह ही पकड़ में आता है, गहरे जाने पर व्यक्ति उपलब्ध होता है । जहां समस्या का जन्म है, वहीं समाधान भी खोजना होगा । केवल तभी समाधान और कहना चाहिए वास्तविक समाधान होगा । अन्यथा जिसे हम समाधान मानते हैं, वह और कई दूसरी नई समस्याएँ खड़ी कर देता है । जैसे युद्ध को मिटाने के लिए या शांति पाने के लिए, उथली दृष्टि युद्ध का ही समाधान प्रस्तुत करती है । आज तक जितने युद्ध लड़े गए वे अन्याय का निराकरण करने और न्याय की स्थापना करने के उद्देश्य से ही लड़े गए । यह सदा कहा गया है । परंतु जिसे अन्याय कहा जाता था, न युद्ध से उस अन्याय का निराकरण हुआ और जिसे न्याय कहा जाता था, न उस न्याय की स्थापना हुई । इस प्रकार भ्रांत तर्क के आधार पर हजारों वर्षों से मनुष्य लड़ता रहा है । लेकिन कोई भी युद्ध न अन्याय का निराकरण कर सका और न न्याय की स्थापना । फिर शांति तो वह स्थापित कर ही कैसे सकता था ? जो युद्ध शांति का विरोधी है, उससे शांति की स्थापना !!! अनेक युद्धों को तो धर्मयुद्ध तक कहा गया है । कोई युद्ध भी धर्म युद्ध हो सकता है ? युद्ध शांति का जनक न होकर नए युद्धों का ही जन्मदाता होता है और नया युद्ध पुराने युद्ध से भीषणतर होता है । पश्चिम में जहां सर्वप्रथम सभ्यता का विकास हुआ उस यूनान के ऐथेन्स और स्पार्टा के युद्धों में वीरगति प्राप्त करने वालों की संख्या कितनी और उस यद्ध के आयुध कैसे थे ? पूर्व में भारतीय महाद्विप में महाभारत युद्ध में कितना नरसंहार हुआ था और उसमें भी किस प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का उपयोग किया गया था ? पिछली शताब्दी के दो विश्वयुद्धों के नरसंहार और आयुधों का इन प्राचीन युद्धों से मिलान किया जाए । और अब तो अणुबम और हाइड्रोजन बम तक हम पहुंच गए हैं । यदि तीसरा महायुद्ध हुआ और युद्ध में इन आयुधों का उपयोग किया गया तो विश्व की मानवता की क्या स्थिति रहेगी ? इस संबंध में बड़े से बड़ा भविष्य वक्ता भी कोई ठीक भविष्यवाणी करने में असमर्थ है । ऐसे ही जीवन की अन्य समस्याओं के भी हमारे समाधान हैं । अपराध को मिटाना है, तो दंड और फांसी है। किंतु हजारों वर्षों तक दंड देने पर भी, अपराध मिटा नहीं, वह बढ़ता गया और विकराल रूप लिए खड़ा है । इतने पर भी हमारी आंखें नहीं खुलती और हम सतह पर ही इलाज किए चले जाते हैं, जबकि बीमारी गहरी है और भीतर है । शोषण मिटाने के लिए हिंसात्मक क्रांतियां हुई, जबकि शोषण भी हिंसा ही है । तो वह हिंसा से कैसे मिटाया जा सकेगा ? हिंसा से जो क्रांतियां हुई, उनसे क्या कहीं कोई शोषण मिट पाया है ? इस प्रकार की क्रांतियों का परिणाम यह होता है कि शोषक तो बदल जाते हैं, किंतु शोषण बना रहता है ।
पुनश्च:
व्यक्ति के अंतस्तल के परिवर्तन के बिना कोई परिवर्तन वास्तविक परिवर्तन नहीं हो सकता । व्यक्ति के ह्रदय में समृद्धि आनी चाहिए । वहां की दरिद्रता, दीनता और रिक्तता मिटनी चाहिए । वहां दुख, चिंता और संताप का अंत होना चाहिए । जब तक उस गहराई में आलोक, प्रेम और आनंद का आविर्भाव न होगा, तब तक जीवन को शांत और सुखी बनाने के सब उपाय व्यर्थ होंगे । क्या केवल भौतिक तल की समृद्धि यह कर सकती है ? केवल बाह्य समृद्धि और बाह्य विकास उस अवस्था को देने में असमर्थ है । मनुष्य की आंतरिकता भी विकसित होनी चाहिए । चीज़ों का बढ़ता जाना ही पर्याप्त नहीं है, ह्रदय भी बढ़ना चाहिए । वस्तुओं की पारिमाणिकता ही नहीं, मनुष्य की गुणात्मिकता भी बढ़नी चाहिए । मनुष्यता की वृद्धि जितनी अधिक होगी, उतनी ही अधिक समस्याएं कम हो जाएंगी । क्योंकि हमारी अधिकांश समस्याएं हमारे भीतर जो पाशविकता है, उससे ही उत्पन्न होती हैं । आज हम इस पाशविकता की अभिव्यक्ति के लिए ही अधिकतर नए-नए उपाय खोजते हैं । फिर चाहे वे राष्ट्रों के नाम पर हों, चाहे सिद्धांतों के नाम पर, चाहे वादों के नाम पर । अच्छे-अच्छे शब्दों की आड़ में हम अपने बुरे से बुरे रूप को प्रकट करते रहते हैं । शब्द तो बहाने हैं, उन्हें कोई समस्याएं न समझे । जो उन्हें समस्याएं समझ लेता है, वह समाधान तक कभी न पहुंच सकेगा । समस्या शब्दों की नहीं, चित्त की है । प्रश्न युद्ध का नहीं, युद्ध करने वाले मन का है । वह मन जो संघर्ष, विप्लव युद्ध करना चाहता है, वह एक बहाना न मिलने पर दूसरा बहाना खोज लेगा । इसलिए हम बहाने को बदलते जाते हैं । परंतु अशांति बनी रहती है । जो चित्त इसाईयत और इस्लाम के नाम पर या हिंदु या बोद्ध के नाम पर लड़ता था, वही चित्त साम्यवाद और जनतंत्र के नाम पर लड़ सकता है । लेकिन लड़ाई वही की वही है । इस स्थिति को बदलना हो तो चित्त को बदलना आवश्यक है ।
उक्त दृष्टि मेरी नहीं बल्कि ओशो की है। मुझे लगा कि इस समस्या के समाधान में ओशो को उद्धृत करना समीचीन होगा। इसलिए प्रस्तुत कर रहा हूँ। शायद हमारे मन बदले।
गुरुपूर्णिमा पर इससे अच्छा प्रसाद और क्या होगा।
बहुत सुंदर विवेचना और उससे भी बढ़िया चर्चा,
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
वाह! मनोज भारती जी, आपने ओशो के विचार प्रस्तुत किये तो 'मुझे' आनंद की अनुभूति हुई, इन्हें 'आप के' समझ!
'भारत' कि विचित्र विविधता के कारण 'मेरे' अस्सी के दशक में गौहाटी (गुवाहाटी) में 'भारतवासी' होते हुवे भी 'विदेशी' समान रहते कुछेक वर्ष का साथ एक दिल्ली निवासी, दक्षिण भारत मूल के नारायण नामक व्यक्ति से निकटता बनी जब वो जिस मकान में मैं सपरिवार रहता था, उसी मकान के निचले भाग में रहने आये अपने दो अन्य सहकर्मियों के साथ... एक दिल्ली निवासी और दूसरा चण्डीगढ़ निवासी सिख...नारायण मैनेजर थे एक कंपनी के, एक सफल नौजवान जिसका हाल ही में विवाह हुआ था किन्तु पत्नी परीक्षा के कारण बाद में आई, और तब उन्होनें दूसरा घर ले लिया था... इस प्रकार 'विदेश' में हमको उनका बहुत सहारा मिला और उन्हें हमारा, क्यूंकि तब आये दिन बन्ध आदि होते रहते थे तो 'बेचारे' हमारे साथ खाना खाते थे क्यूंकि उनकी रसोई चालू ही नहीं हुई थी, और चाय तो हम उन्हें थर्मस में दे दिया करते थे... अब वे पुणे में किसी कोलेज में पढ़ते हैं, सरदारजी तो चंडीगढ़ जल्दी ही चले गए थे, और दूसरे दिल्ली निवासी श्री भटनागर का विवाह हमारी पत्नी के माध्यम से हमारे दिल्ली के पडोसी श्री सिन्हा की बेटी से हो गया, और अब वो दो बड़े बड़े पुत्रों के माता-पिता हैं!...
यद्यपि 'मेरी' पत्नी जबलपुर की ही पढ़ी थीं और उन्होंने ओशो, जब 'आचार्य रजनीश' हुआ करते थे, तब उनको कोलेज में सुना था किन्तु आध्यात्म में तब उनकी कोई रूचि नहीं थी... नारायण जी ने ही मुझे उनसे पूछे गए प्रश्न के उत्तरों के रूप में प्रकाशित एक पुस्तिका मुझे पढने को दी... उस में ही मुझे पढने को मिला था कि आध्यात्मिक अनुभूति को शब्दों द्वारा समझाना कठिन होता है... इसी प्रकार मेरे एक सहकर्मी ने भी मुझे परमहंस योगानंद की, योगियों की कार्य क्षमता के विषय में, उनकी आत्म कथा पढने को दी... जिन्हें 'मैं' अब मानता हूँ प्रकृति के संकेत होने के...
'मैंने' अपनी चंद्रशेखर जी के विषय में न मालूम कैसे उनका जन्म १९३७ लिख दिया! वास्तव में वे ८५ वर्ष की आयु तक जीये, और उनका जन्म १९१० में हुआ था. भूल के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ, और इन्टरनेट में पढ़ा कि वे सी वी रमण के भतीजे थे... जब उनके 'ब्लैक होल', हिन्दुओं के 'मथुरा के कारावास में जन्मे कृष्ण', आदि पर अनुसंधान के विषय में अस्सी के दशक में पढ़ा तो 'मुझे' मानव मस्तिष्क की विशेषता के कारण याद आई 'मेरे' बचपन की एक घटना की...
हम चारों भाई दिल्ली में मंदिर मार्ग स्थित एक स्कूल में पढ़े जो 'बिरला मंदिर' नाम से प्रसिद्द लक्ष्मी-नारायण मंदिर के साथ जुड़ा है,,, और हमारा सरकारी निवास-स्थान ५-७ मिनट की दूरी पर ही होने से हमारा बचपन उसी क्षेत्र में खेल-कूद करते बीता...
एक सुबह कृष्ण जन्माष्टमी के दिन हमारी माँ ने 'मुझे' उनके साथ मंदिर तक चलने को कहा क्यूंकि उनकी साथिनें सभी जा चुकिं थी... मंदिर पहुँच उन्होंने मुझे कृष्ण के जीवन से सम्बंधित मंदिर के पीछे सजाई गयी झांकी देख आने को कहा... भीड़ में सीढ़ियों में चढ़ने से पहले 'मैं' जन समूह के बीच पिचक गया और मेरे पैर धरा पर नहीं थे, अन्धकार था चारों और और सांस लेने में भी कष्ट हो रहा था तो 'मैंने' अपनी बाल बुद्धि से सोचा कि 'मैं' मर गया हूँ :) किन्तु जब भीड़ ऊपर पहुँच बिखर गयी तो मेरे पैर जमीन पर फिर से थे, प्रकाश था और सांस चल रही थी तो जाना कि 'मैं' मरा नहीं था!
उस घटना के पश्चात मुझे भीड़ से डर हो गया, किन्तु फिर एक बार जब उसी मार्ग स्थित उनके तत्कालीन निवास स्थान पर अपने पिताजी आदि के साथ गए महात्मा गाँधी का प्रवचन सुनने गए तो भीड़ देख उनको सुना कम और अधिक ध्यान रहा कैसे भीड़ से बचा जायेगा, जिस कारण समाप्ति पर 'मैं' तीर समान बाहर नीचे आ गया और सीधे घर ही आ गया! पिताजी से बाद में डांट भी पड़ी! और दूसरी बार काली (कृष्ण) मंदिर में '५३ में ऐवेरेस्ट विजय के उपलक्ष्य में बंगाली समाज ने टीम को स्वागत करने का निमंत्रण दिया तब भी भीड़ को झेलना पड़ा और रोना आया :)...
@ मनोज जी
“धर्म मानवीय ही नहीं बल्कि सारे अस्तित्व का मूल है।“ यदि धर्म पूर्णतः मानवीय नहीं तो वह किसके अस्तित्व का मूल है? “केवल मानवीयता को धर्म स्वीकार करना अस्तित्व को खंड-खंड करके देखना है।“मानवीयता से तात्पर्य मानव धर्म से ही है. यह किसके अस्तित्व को या दृष्टिकोण को खंडित करता है. “हर मनुष्य का धर्म अलग होता है, हर मनुष्य अनूठा होता है,”इस प्रकार मनुष्य की बात कहते-कहते आप धर्म को विखंडित कर बैठे. नहीं? “धर्म अस्तित्व के कण-कण का स्वभाव है” आपसे अलग कोई अस्तित्व इस लिए है कि आपका (मानव) का अस्तित्व है. इससे अलग कोई अस्तित्व हो भी कैसे. उसे महसूस कौन करता? “क्या आपके सांसों की आपको जरूरत है या आप उसके नियंता है या कि आप कह सकते हैं कि अभी आप ने जो सांस ली उस पर आपकी निर्मिती की मोहर लगी है? नहीं न! आप किसी के अस्तित्व को नकार कर केवल मनुष्य को नहीं बचा सकते। सारा अस्तित्व संयुक्त है...इस सहचर्य में ही जीवन पुष्पित होता है। आप धर्म को मंदिर,मस्जिद,गुरुद्वारे,चर्च तक क्यों सीमित रखे हुए हैं? धर्म के प्राण को समझने की कोशिश कीजिए। क्या आपको अपने अस्तित्व पर भी शक है?” यह तो तर्क को सिर के बल खड़ा करने वाली बात है. “उक्त दृष्टि मेरी नहीं बल्कि ओशो की है। मुझे लगा कि इस समस्या के समाधान में ओशो को उद्धृत करना समीचीन होगा।“यदि उपर्युक्त सभी विचार आपके नहीं हैं, ओशो के हैं, तो निवेदन है कि आप अपनी बात भी कहें संभव है आपके विचार जीवन अनुभव के कारण बेहतर बन चुके हों.
@भूषण जी,धर्म सारे अस्तित्व के होने का मूल है? अस्तित्व में हर चीज अपने मूल-गुण धर्म के साथ है। इस प्रकार वह धर्म से संबंधित है।
अग्नि का धर्म है जलाना,जल का धर्म है शीतलता, वायु का धर्म है प्रवाह...इसी प्रकार ब्रह्मांड में अस्तित्व रखने वाली हर चीज का अपना-अपना धर्म है। जिसे उनसे अलग नहीं किया जा सकता । इस दृष्टि से देखें तो धर्म केवल मानवीय नहीं होता। बल्कि वह प्रकृति से भी पूर्व है,इस तथ्य को उद्-घाटित करता है।
जी, हाँ हर मनुष्य अनूठा होता है। इस अस्तित्व में किसी वृक्ष के दो पत्ते भी एक जैसे नहीं होते...मनुष्यों की तो बात ही दूर की है कि वे एक जैसे हों। परमात्मा के सृजन में अद्वितीयता है। वह कभी कार्बन कॉपी नहीं बनाता। और उसका स्वयं में अनूठा होना ही धर्म को और सर्व-सत्ता को निश्चित करता है।
अगर आप स्वयं को अनुभव करते हैं...तो इसमें इस बात की अनुभूति सहज ही हो जाती है कि आपका अस्तित्व दूसरों के बिना संभव ही नहीं। आपका पिंड (शरीर) पंच तत्वों से बना है...आप जो खा रहें हैं,वह आपको बाहर(दूसरों के अस्तित्व) से मिल रहा है। दूसरे के अस्तित्व के बिना आप एक पल भी जीवित रह के दिखाइए। इस लिए सारा अस्तित्व संयुक्त है।
भूषण जी !!मैने टिप्पणी की थी“क्या आपके सांसों की आपको जरूरत है या आप उसके नियंता है या कि आप कह सकते हैं कि अभी आप ने जो सांस ली उस पर आपकी निर्मिती की मोहर लगी है? नहीं न! आप किसी के अस्तित्व को नकार कर केवल मनुष्य को नहीं बचा सकते। सारा अस्तित्व संयुक्त है...इस सहचर्य में ही जीवन पुष्पित होता है। आप धर्म को मंदिर,मस्जिद,गुरुद्वारे,चर्च तक क्यों सीमित रखे हुए हैं? धर्म के प्राण को समझने की कोशिश कीजिए। क्या आपको अपने अस्तित्व पर भी शक है?”
इस पर आपने कल कोई जवाब नहीं दिया और आज इसे सिर के बल तर्क कह रहें हैं।
उसके बाद सुज्ञ जी और सज्जन जी के बीच संवाद को देखते हुए मैंने ओशो को उद्धृत किया। और आपने ओशो को ठीक से पढ़ा होता तो शायद आपकी इस टिप्पणी का कोई औचित्य न रहता।
हम सब संयुक्त है...अस्तित्व में सहचर्य है। इस मूल बात को समझने में मैं नहीं समझता कि कोई द्वंद्व होना चाहिए। लेकिन द्वंद्व होता है...शायद इसी लिए धर्म की मूल संवेदना को न समझ कर हम झूठे धर्म व संप्रदायों में बंटे आपस में लड़ते रहते हैं। यदि मैं कहूँ कि आज के मानव का मूल धर्म लड़ना ही हो गया है...तो इसमें मुझे आज के संदर्भ में कोई अतिश्योक्ति नहीं नजर आती।
दिव्या जी, सनातन धर्म किसका है? इस विषय में सोच कर योगेश्वर विष्णु / शिव ही प्रतीत होते हैं जो अकेला है जिनका / जिसका यह धर्म प्रतीत होता है जिसे वो निभाते आ रहे हैं अनादि काल से... क्या 'हम' मायावी प्रतिरूप उन तक पहुँच सकते हैं?
पहुंचे हुए योगियों ने मानव को स्वयं एक अद्भुत यंत्र समझने के लिए कहा, जिसके उपयोग से वो अनादि और अनंत निराकार जीव अपना भूत के, अपने उत्पत्ति के इतिहास यानि अनंत कहानियाँ देख रहे हैं, और जिस कारण कहा गया "हरी अनंत / हरी कथा अनंता..."
'मेरे' द्वारा एक अन्य ब्लॉग में दी गयी टिप्पणी शायद काम आये.
हमारी फ्रेंच भाषा टीचर ने हमें फ्रांस में विवाह के विषय में पढ़ाया, कि कैसे वहां पहले शादी चर्च में पादरी के माध्यम से संपन्न होती है तो सर्टिफिकेट मिलता है शादी का... उसके बाद फिर सामाजिक शादी होती है और मस्ती होती है...
उसने मुझसे पूछा यदि मेरे पास कोई सर्टिफिकेट है? तो मैंने कहा मेरे पास तीन हैं! तो वो चौंक गयी! मैंने कहा मेरी तीन बेटियाँ ही मेरे सर्टिफिकेट हैं :)
'भारत' में तो चलन था 'प्राण जायें पर वचन न जाई' का,,, और विवाह के सम्बन्ध में, कि विवाह आकाश में तारों आदि और धरा पर उनके प्रतिरूप बंधू-बांधव की उपस्तिथि में (सूर्य के प्रतिरूप) अग्नि के सात फेरे ले संपन्न होती है, और लड़की अब 'धर्म-पत्नी' (विष्णु की अर्धांगिनी, मायावी लक्ष्मी, अथवा शिव की दूसरी मायावी पत्नी पार्वती का प्रतिरूप) बन डोली में बैठ ससुराल जाती है, और अर्थी में बैठ स्मशान घाट (अर्धनारीश्वर शिव, शिव + शक्ति, का निवास स्थान)!
यूरोप में जब 'जंगली' रहते थे तो 'भारत' में योगी रहते थे...
किन्तु काल-चक्र के कारण आज 'भारत' में जंगली (जैसे हम उत्पत्ति के आरम्भ में रहे होंगे, यानि अपने भूत में!) और पश्चिम में भौतिक रूप से हमसे अधिक प्रगतिशील समाज...
"यह दुनिया गोल है / ऊपर से खोल है / भीतर जो देखो प्यारे/ बिलकुल पोलम-पोल है" :)
यह पोस्ट दिल को छू गयी. बहुत ही सुन्दर व्याख्या. आज के सन्दर्भ में नितांत आवश्यक.
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@--शेर अपने मुँह में इंसान का सिर दबा ही ले तो उसे अहिंसा का पाठ कौन पढ़ाएगा...
शेर एक हिंसक पशु है ! वह अपनी उदर पूर्ती के लिए यदि शिकार करता है तो कुछ भी अनुचित नहीं करता ! "अहिंसा परमोधर्मः " की सीख हिंसक पशुओं के लिए नहीं है ! यह वचन मनुष्य के लिए हैं !
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सुज्ञ जी . मनोज जी , अमित जी एवं jc जी ने बहुत ही सूक्ष्म व्याख्याएं की हैं ! मन मस्तिक्ष दोनों संतृप्त हो गए ! जब ज्ञान वर्षा हो रही हो और लेने वाला ग्रहण ही न करे तो ये तो लेने वाले का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा.
गुरुपूर्णिमा के अवसर पर सभी ब्लॉगर्स एवं टिप्पणीकारों का आभार एवं शुभकामनायें.
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@ सुज्ञ जी
“आपने प्राकृतिक आवेगों-आवेशों को प्राकृतिक नियमों में खपाकर अनुकरणीय सिद्ध करने का प्रयास किया है।“मैंने इतना ही कहा था कि प्रकृति में कहीं अहिंसा नहीं है. यह धर्म मनुष्य के लिए बनाया गया है. आपको कैसे लगा कि मैंने इसे मानवों के लिए अनुकरणीय सिद्ध करने का प्रयास किया है? यह तो विषय को हटा दिया आपने. “आप भी न? हमेशा गम्भीर चर्चा के बीच मजाक-खेल करनें लगते है।“मैंने कोई मज़ाक खेल नहीं किया. एक गंभीर बात मुस्करा कर कही थी. “धातु वैज्ञानिकों ने लोह के साथ क्रोम का मिश्रण कर दिया, तो लोहे के गुण-धर्म संस्कारित हो गए और जंग न लगने वाली नई मिश्रधातु का विकास हो गया जो अब है स्टेनलेस स्टील। अब न कहना कण कण का क्या धर्म होता है। हर पदार्थ अपने धर्म-स्वभाव के कारण हमारे धर्म में सहयोगी होता है।“इस व्याख्या में आपने ‘गुण’ के साथ ‘धर्म’ शब्द जोड़ कर एक खेल खेल डाला जो मेरी दृष्टि से बच नहीं सका. कण-कण के ‘गुण’ को आप कण-कण का ‘धर्म’ कह रहे हैं तो यह विषय से विचलन ही कहलाएगा. आपसे असहमत. “लेकिन वह घटना हिंसा वर्सेज अहिंसा नहीं थी। जो आप स्थापित करने का प्रयास कर रहे है।“ गोडसे के मन पर हिंसा का संस्कार था जिसमें मानवीयता की कमी थी. मैंने उस घटना में हिंसा बनाम अहिंसा जैसा कुछ स्थापित करने का कोई प्रयास नहीं किया. आपको ऐसा क्यों लगा? “बस एक विपरित दृष्टिकोण था, वह सोचता था इसतरह वह कौम का बुरा होने से रोक पाएगा।“क्या आप गोडसे की हिंसा को सही स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं. नहीं न? फिलहाल मैं आपकी सदाशयता पर संदेह नहीं कर रहा हूँ निश्चित जानिए. इसे केवल इससे पहले के प्रश्न के उत्तर में दिए तर्क के रूप में ही देखिए.
अपनी पिछली टिप्पणी को पुनः उद्धृत कर रहा हूँ “मानवीयता से हट कर मैं धर्म को नहीं देख पाता. उदाहरण के लिए 'अहिंसा परमोधर्मः'. सृष्टि में, प्रकृति में कहीं ‘अहिंसा’ नहीं है. प्रकृति अपने नियमों से बँधी चलती है जिसमें हिंसा है. अहिंसा का धर्म मानव-निर्मित है और मनुष्यों के आपसी व्यवहार के लिए बनाया गया है. 'अहिंसा परमोधर्मः' के आगे लिखा भी जाता है 'मनसा, वाचा, कर्मणा'- जिसका सीधा सा अर्थ है कि यह धर्म मनुष्य के लिए बना है. पशुओं को 'मनसा-वाचा-कर्मणा' नहीं पढ़ाया जाता.”
“धर्म मानव मस्तिष्क पर पड़े संस्कारों का खेल है जिसे आपने प्रकारांतर से संस्कृति कहा है. यह प्रकृति के कण-कण के साथ नहीं अपितु केवल मनुष्य के मस्तिष्क में घटित होता है.” दिव्या जी ने सेवा जैसे मानवीय गुण (धर्म) का उल्लेख किया. सहमत. दिव्या जी ने कहा “सनातन धर्म कण-कण में है. वो मनुष्य में भी है, पशु में भी , पौधों में भी , हवा , पानी और अग्नि में भी.” मनुष्य में है, सहमत. क्योंकि मनुष्य को संस्कारित किया जा सकता है (‘संस्कारित’ जैसा सुज्ञ जी ने कहा है). “पशु, पौधों, हवा, पानी और अग्नि में धर्म है.” असहमत. क्यों कि ये तत्त्व हैं इनके अपने गुण हैं (ऐसा विज्ञान मानता है) जिन्हें धर्म या सनातन धर्म के अर्थ से जोड़ना गंभीर असंबद्धता की ओर प्रवृत्त करता है. अंत में इतना ही कि हम कुछ बिंदुओं पर सहमत और कुछ पर असहमत हैं लेकिन इस बात पर सहमत हैं कि यहाँ फिर मिलेंगे.
दिव्या जी आपको और अन्य विद्वद्जनों को धन्यवाद.
धर्म के सनातन शाश्वत स्वरूप पर एक श्रेष्ठ प्रस्तुती ...... आभार ।
धर्म के सनातन शाश्वत स्वरूप पर एक श्रेष्ठ प्रस्तुती ...... आभार ।
धर्म के सनातन शाश्वत स्वरूप पर एक श्रेष्ठ प्रस्तुती ...... आभार ।
धर्म के सनातन शाश्वत स्वरूप पर एक श्रेष्ठ प्रस्तुती ...... आभार ।
धर्म के सनातन शाश्वत स्वरूप पर एक श्रेष्ठ प्रस्तुती ...... आभार ।
परहित सरिस धरम नहिं भाई...!
दिलचस्प बहस, इस धर्म युद्ध में, मैं भी पशु धर्म लिए हाज़िर हूँ !
Animality ?
पशु-धर्म
साम्प्रदायिक दंगा?
नही, बल्कि 'साम्प्रदयिक झगड़े जैसा कुछ' , लग रहा था लोगों को।
इनमें तिलक-धारी भी थे, टोपी-धारी भी, अनेकानेक अन्य भी,
तालियाँ बजाते हुए,अटठहास करते हुए लोग,
सर फुटव्वल की आवाज़े,
झूमते हुए लोग,
खून की धार बह निकलना,
सहमते हुए लोग!
भागते हुए लोग ?
ज़ख़्मों से चूर,
थक कर,
लाचार से बैठे हुए,
दो निरीह प्राणी,
कौन?
एक हिन्दू की बकरी,
एक मुसलमान की गाय्।
ख़ामोशी से एक दूसरे को टकते हुए,
दर्शको के अद्रश्य हो जाने पर,
बकरी मिमियायी ,
गाय रम्भायी,
दौनो को एक-दूसरे की बात समझ में आयी,
बकरी गाय की पीठ पर सवार हुई,
गाय उसे पशु-चिकित्सालय के द्वार पर छोड़ आयी।
मन्सूर अली हाशमी
http://aatm-manthan.com
@ भूषण जी, “पशु, पौधों, हवा, पानी और अग्नि में धर्म है.” असहमत. क्यों कि ये तत्त्व हैं इनके अपने गुण हैं (ऐसा विज्ञान मानता है) जिन्हें धर्म या सनातन धर्म के अर्थ से जोड़ना गंभीर असंबद्धता की ओर प्रवृत्त करता है."
धर्म मानवीय संकल्पना नहीं है। यह अस्तित्व की हर चीज की अंतर्निहित क्षमता है। मनुष्य में विवेक है,जो उसकी सबसे बड़ी क्षमता है,इसलिए इसे धर्म का सबसे बड़ा गुण कहा गया। विवेक ही हमें अस्तित्व की अन्य चीजों को पहचाने की क्षमता देता है। धर्म को केवल मनुष्य का गुण बना कर देखने से ब्रह्मांड में जो एक बृहत अनुशासन है,उसे नकारना होगा । भारतीय मनीषा ने इस अनुशासन को ऋत कहा है। यदि ऋत को समझ लिया जाए...तो मैं समझता हूँ, जो आपने“पशु, पौधों, हवा, पानी और अग्नि में धर्म है.” को अस्वीकृत किया है...उससे सहमत हो जाएं।
हमारे ऋषियों की अंतर्दृष्टि अद्-भुत रही,जिन्होंने ब्रह्मांड के इस अनुशासन को खोजा...जो सबको जोड़ता है,सभी की संबद्धता को दर्शाता है और जो किसी के सापेक्ष नहीं है,किसी भी काल और देश में एक जैसा रहता है।
भूषण जी,
गुण के साथ धर्म शब्द को मैने नहीं जोडा है, यह तो सामान्यतया प्रयुक्त होता है। किसी भी वस्तु के स्वभाव को उसका 'गुण-धर्म' ही कहते है। 'गुण-धर्म'शब्द का प्रयोग आप विज्ञान में भी पदार्थों के स्वभाव के लिए प्रयुक्त होता देख सकते है।
आपको 'धर्म' शब्द से उपासना पद्दतियों का पर्याय ही नजर आ रहा है। सृष्टि की प्रत्येक वस्तु का धर्म नहीं।
अहिंसा के प्रकृति में न होने का कहने के पिछे आपका क्या आशय है अभी भी समझ नहीं आया। पर मानव के साथ ही सभी जीवों को जीना प्रिय है, मरना कोई नहीं चाहता। सभी को सुख प्रिय है। उनके प्रति अहिंसा का गुण होना मानव में जरूरी है। इसी गुण को हम मानवीय स्वभाव कहेंगे। और चुकि स्वभाव को ही धर्म कहा जाता है इसलिए इसे सनातन धर्म कहने में कोई अनर्थ नहीं है। मानव का यह कर्तव्य जगत के समस्त जड़-चेतन तक विस्तृत होता है, इसी आशय से इस कर्तव्य रूपी धर्म को हम समस्त सृष्टि के लिए है, कहते है। जो जीव इस कर्तव्य-धर्म के पालन में असमर्थ है उन पशुओं से पालन कैसे करवाया जा सकता है। मानव बुद्धि और विवेक से इस कर्तव्य पालन में समर्थ है, इसलिए कर्तव्य पालन की आज्ञा मानव को दी गई है। और कहा गया है कि यह मानव का 'धर्म' है। बस!! ताकि मानव सीमित रहे, अनुशासन में रहे, संयम में रहे॥ ऐसा करना उसका धर्म है। सभी को जीने देना इसी आशय से मानव का धर्म है। और इसीलिए वह अहिंसा को सर्वोपरि मानता है। ऐसा मानना उसका धर्म है।
भूषण जी,
जब तक आप 'धर्म' शब्द को उसके मूल भावार्थ, और शुद्ध पर्याय में नहीं लेंगे, आपको यह सारी विवेचना ग्रहित करने में समस्या आएगी।
उसी तरह 'सनातन' शब्द को भी उसके मूल भाव से लेना श्रेयस्कर है। उसके रूढ बने विशेषण के अर्थ में नहीं।
'धर्म' शब्द से ही विचलित हो जाने के पूर्वाग्रह से तटस्थ आकर सोचना होगा। तभी वास्तविकता जानी जा सकेगी।
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मनोज भारती जी , सुज्ञ जी , मंसूर अली जी ,
बहुत सुन्दर विवेचना !
आभार !
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bahut gyaanvardhak aalekh hai.poorntah sahmat hoon.
Dharm is not synonyms of religion. religion is small part of Dharm. kisi vaykti vishes dwara chale gaye mat ko sampraday ya panth kehte hain. jahan tak Dharm ka prasn hai Dharm matra ek hai Sanatan Dharm....The Eternal Religion....
Daya hi Dharm hai, paropkar hi Dharm hai,seva hi Dharm hai....
18 puran k sar k rup me maharsi ved vyas ne kaha hai ki paropkar hi punya hai aur dusro ko peeda dena hi pap hai.....
Dharm is not synonyms of religion. religion is small part of Dharm. kisi vaykti vishes dwara chale gaye mat ko sampraday ya panth kehte hain. jahan tak Dharm ka prasn hai Dharm matra ek hai Sanatan Dharm....The Eternal Religion....
Daya hi Dharm hai, paropkar hi Dharm hai,seva hi Dharm hai....
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Namsakr aap apney lekh www.kranti4people.com per bhi bhej sakti hai.
धर्म का उद्देश्य - मानव समाज में सत्य, न्याय एवं नैतिकता (सदाचरण) की स्थापना करना ।
व्यक्तिगत धर्म- सत्य, न्याय एवं नैतिक दृष्टि से उत्तम कर्म करना, व्यक्तिगत धर्म है ।
सामाजिक धर्म- मानव समाज में सत्य, न्याय एवं नैतिकता की स्थापना के लिए कर्म करना, सामाजिक धर्म है । ईश्वर या स्थिर बुद्धि मनुष्य सामाजिक धर्म को पूर्ण रूप से निभाते है ।
धर्म संकट- सत्य और न्याय में विरोधाभास की स्थिति को धर्मसंकट कहा जाता है । उस स्थिति में मानव कल्याण व मानवीय मूल्यों की दृष्टि से सत्य और न्याय में से जो उत्तम हो, उसे चुना जाता है ।
धर्म को अपनाया नहीं जाता, धर्म का पालन किया जाता है । धर्म के विरुद्ध किया गया कर्म, अधर्म होता है ।
व्यक्ति के कत्र्तव्य पालन की दृष्टि से धर्म -
राजधर्म, राष्ट्रधर्म, मनुष्यधर्म, पितृधर्म, पुत्रधर्म, मातृधर्म, पुत्रीधर्म, भ्राताधर्म इत्यादि ।
धर्म सनातन है भगवान शिव (त्रिदेव) से लेकर इस क्षण तक व अनन्त काल तक रहेगा ।
शिव (त्रिदेव) है तभी तो धर्म व उपासना है । ज्ञान अनन्त है एवं श्रीमद् भगवद् गीता ज्ञान का सार है ।
राजतंत्र में धर्म का पालन राजतांत्रिक मूल्यों से, लोकतंत्र में धर्म का पालन लोकतांत्रिक मूल्यों के हिसाब से किया जाता है ।
कृपया इस ज्ञान को सर्वत्र फैलावें । by- kpopsbjri
सत्य, न्याय और नीति को धारण करके समाज सेवा करना पुलिस का व्यक्तिगत धर्म है । अपराधियों को पकड़ना पुलिस का सामाजिक धर्म है, चाहे पुलिस को अपराधी को पकड़ने के लिए असत्य एवं अनीति का सहारा क्यों न लेना पड़े ।
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