Thursday, October 3, 2013

लालबहादुर शास्त्री


‘‘हम चाहे रहें या न रहें, हमारा देश और तिंरगा झंडा रहना चाहिए और मुझे पूरा विश्वास है कि हमारा तिंरगा हमेशा ऊंचा रहेगा, भारत विश्व के देशों में सर्वोच्च होगा। यह उन सबमें अपनी गौरवाशाली विरासत का संदेश पहुंचाएगा।’’ ये शब्द भारत के द्वितीय प्रधानमंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री के हैं, जो उन्होंने लालकिले की प्राचीर से 15 अगस्त, 1965 को कहे थे।

छोटी कद काठी में विशाल हृदय रखने वाले श्री शास्त्री के पास जहां अनसुलझी समस्याओं को आसानी से सुलझाने की विलक्षण क्षमता थी, वहीं अपनी खामियों को स्वीकारने का अदम्य साहस भी उनमें विद्यमान था। हृदय में छिपी देशप्रेम की चिंगारी से शास्त्रीजी को स्वाधीनता संग्राम में अंग्रेजों के खिलाफ जूझ मरने की शक्ति प्राप्त हुई। सन् 1965 में जब पड़ोसी देश पाकिस्तान ने हमारी सीमाओं का अतिक्रमण करने की भूल की तो उनका सरल स्वभाव उग्र होकर दहक उठा। उनकी ललकार का मनोबल पाकर भारतीय सैनिकों ने पाक-सेना को अपने इरादे बदलने के लिए विवश कर दिया। शास्त्रीजी के नारे ‘जय जवान, जय किसान’ ने किसानों और सैनिकों के माध्यम से देश में चमत्कार भरा उत्साह फूंक दिया।

शास्त्रीजी प्रतिनिधि थे एक ऐसे आम आदमी के, जो अपनी हिम्मत से विपरीत परिस्थितियों की दिशाएं मोड़ देता है। एक साधारण परिवार में जन्मे और विपदाओं से जूझते हुए सत्य, स्नेह, ईमानदारी कर्तव्यनिष्ठा एवं निर्भीकता के दम पर विश्व के सबसे बड़े प्रजातांत्रिक देश भारत के प्रधानमंत्री पद पर पहुंचने की अपने आपमें एक अनोखी मिसाल हैं-लालबहादुर शास्त्री। आज देश को ऐसे ही सशक्त नेतृत्व की जरूरत है।

लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर, 1904 को मुगलसराय, उत्तर प्रदेश में एक प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक मुंशी शारदा प्रसाद श्रीवास्तव (जो बाद में भारत सरकार के राजस्व विभाग के क्लर्क के पद पर आसीन हुए) और उनकी धर्मपत्नी रामदुलारी के पुत्र के रूप में हुआ था। परिवार में सबसे छोटा होने के कारण बालक लालबहादुर श्रीवास्तव को परिवार वाले प्यार से नन्हें कहकर ही बुलाया करते थे। जब वे अठारह महीने का हुए, तब दुर्भाग्य से पिता का निधन हो गया और माँ रामदुलारी अपने पिता हजारीलाल के घर मिर्ज़ापुर चली गयीं। कुछ समय बाद नाना भी नहीं रहे और ऐसे में बिना पिता के बालक नन्हें की परवरिश करने में बालक के मौसा रघुनाथ प्रसाद ने उसकी माँ का बहुत सहयोग किया।

ननिहाल में रहते हुए ही लालबहादुर ने प्राथमिक शिक्षा ग्रहण की और उसके बाद की शिक्षा हरिश्चन्द्र हाई स्कूल में हुई। 17 वर्ष की अल्पायु में ही गाँधीजी की स्कूलों और कॉलेजों का बहिष्कार करने की अपील पर वे पढ़ाई छोड़कर असहयोग आंदोलन से संलग्न हो गए। परिणामस्वरूप वे जेल भेज दिए गए। जेल से रिहा होने के पश्चात्‌ उन्होंने काशी विद्यापीठ (वर्तमान महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ) में पढ़ाई आरंभ की। काशी विद्यापीठ से शास्त्री की उपाधि मिलते ही उन्होंने जन्म से चला आ रहा जातिसूचक शब्द श्रीवास्तव हमेशा के लिये हटा दिया और अपने नाम के आगे शास्त्री लगा लिया और इसके पश्चात 'शास्त्री' शब्द 'लालबहादुर' के नाम के साथ ऐसा समबद्ध हुआ कि लोग इसे ही उनकी जाति समझने लग गए।

स्नातकोत्तर के बाद वह गांधी के अनुयायी के रूप में फिर राजनीति में लौटे। सन्‌ 1926 में शास्त्रीजी ने इलाहाबाद को अपना कार्य-क्षेत्र चुना और 1929 में उन्होंने श्री पुरुषोत्तम दास टंडन के साथ 'भारत सेवक संघ' के इलाहाबाद इकाई के सचिव के रूप में काम किया। बाद में वे इलाहाबाद नगर पालिका, तदोपरांत इम्प्रुवमेंट ट्रस्ट के भी सदस्य रहे| स्वाधीनता आंदोलन के दौरान वे कुल सात बार जेल गए और अपने जीवन में कुल मिलाकर 9 वर्ष उन्हें कारावास की यातनाएँ सहनी पड़ीं। 1928 में उनका विवाह श्री गणेशप्रसाद की पुत्री 'ललिता' से हुआ। ललिता जी से उनके छ: सन्तानें हुईं, चार पुत्र- हरिकृष्ण, अनिल, सुनील व अशोक; और दो पुत्रियाँ- कुसुम व सुमन। उनके चार पुत्रों में से दो- अनिल शास्त्री और सुनील शास्त्री प्रभुकृपा से अभी भी हैं, शेष दो दिवंगत हो चुके हैं।

अपने राजनैतिक सफ़र में उन्होंने संयुक्त प्रांत (वर्तमान उत्तर प्रदेश) की कांग्रेस पार्टी में प्रभावशाली पद ग्रहण किए और 1937 एवं 1946 में वे संयुक्त प्रांत की विधायिका में निर्वाचित हुए। भारत की स्वतंत्रता के पश्चात शास्त्री जी को उत्तर प्रदेश के संसदीय सचिव के रूप में नियुक्त किया गया था। वो गोविंद बल्लभ पंत के मुख्यमंत्री के कार्यकाल में गृह एवं यातायात मंत्री बने। यातायात मंत्री के समय में उन्होंनें प्रथम बार किसी महिला को संवाहक (कंडक्टर) के पद में नियुक्त किया। प्रहरी विभाग के मंत्री होने के बाद उन्होंने भीड़ को नियंत्रण में रखने के लिए लाठी के जगह पानी की बौछार का प्रयोग प्रारंभ कराया।

1951 में जवाहर लाल नेहरु के नेतृत्व में वह अखिल भारत काँग्रेस कमेटी के महासचिव नियुक्त किये गये। 1952 में वह संसद के लिये निर्वाचित हुए और केंद्रीय रेलवे व परिवहन मंत्री बने। इसी पद पर कार्य करते समय शास्त्रीजी की प्रतिभा पहचान कर 1952 के पहले आम चुनाव में कांग्रेस पार्टी के चुनाव आंदोलन को संगठित करने का भार नेहरू जी ने उन्हें सौंपा। चुनाव में कांग्रेस भारी बहुमत से विजयी हुई जिसका बहुत कुछ श्रेय शास्त्रीजी की संगठन कुशलता को दिया गया। 1952 में ही शास्त्रीजी राज्यसभा के लिए चुने गए और उन्हें बहुत ही महत्वपूर्ण “रेल मंत्रालय” का दायित्व मिला।

वर्ष 1954 में इलाहाबाद में महाकुंभ मेला लगा जिसमें करीब 20 लाख तीर्थयात्रियों के लिए व्यवस्था की गई। दुर्भाग्यवश मौनी अमावस्या स्नान के दौरान बरसात होने के फलस्वरूप बांध पर फिसलन होने से प्रात: 8.00 बजे दुर्घटना हो गई। सरकारी आंकड़ों ने 357 मृत व 1280 को घायल बताया, परंतु ग्राम सेवादल कैंप जिसकी देखरेख मृदुला साराभाई व इंदिरा गांधी कर रही थीं, की गणना के अनुसार यह संख्या दोगुनी थी। दुर्घटना पर जांच कमीशन बैठा जिसने डेढ़ वर्ष बाद रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए उत्तर प्रदेश सरकार और रेल अव्यवस्था को दोषी करार दिया। 1956 के मध्य में भी कुछ और रेल दुर्घटनाएं हो गईं, जिसमें 1956 में हुयी अडियालूर रेल दुर्घटना, जिसमें कोई डेढ़ सौ से अधिक लोग मारे गए थे, प्रमुख थी। शास्त्रीजी ने अपना नैतिक दायित्व मानते हुए रेलमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया और इनके इस निर्णय का देशभर में स्वागत किया गया|
शास्त्रीजी को कभी किसी पद या सम्मान की लालसा नहीं रही। उनके राजनीतिक जीवन में अनेक ऐसे अवसर आए जब शास्त्रीजी ने इस बात का सबूत दिया। इसीलिए उनके बारे में अक्सर यह कहा जाता है कि वे अपना त्यागपत्र सदैव अपनी जेब में रखते थे।

अपने सद्गुणों व जनप्रिय होने के कारण 1957 के द्वितीय आम चुनाव में वे विजयी हुए और पुनः केंद्रीय मंत्रिमंडल में परिवहन व संचार मंत्री के रूप में सम्मिलित किए गए। सन्‌ 1958 में वे वाणिज्य व उद्योगे मंत्री बनाए गए। पं. गोविंद वल्लभ पंत के निधन के पश्चात्‌ सन्‌ 1961 में वे गृहमंत्री बने, किंतु सन्‌ 1963 में जब कामराज योजना के अंतर्गत पद छोड़कर संस्था का कार्य करने का प्रश्न उपस्थित हुआ तो उन्होंने सबसे आगे बढ़कर बेहिचक पद त्याग दिया। पंडित जवाहरलाल नेहरू जब अस्वस्थ रहने लगे तो उन्हें शास्त्रीजी की बहुत आवश्यकता महसूस हुई। जनवरी 1964 में वे पुनः सरकार में अविभागीय मंत्री के रूप में सम्मिलित किए गए और नेहरू की मृत्यु के बाद चीन के हाथों युद्ध में पराजय की ग्लानि के समय 9 जून 1964 को उन्हें प्रधानमंत्री का पद सौंपा गया।

शास्त्रीजी को प्रधानमंत्रित्व के 18 माह की अल्पावधि में अनेक समस्याओं व चुनौतियों का सामना करना पड़ा किंतु वे उनसे तनिक भी विचलित नहीं हुए और अपने शांत स्वभाव व अनुपम सूझ-बूझ से उनका समाधान ढूँढने में कामयाब होते रहे। स्व. पुरुषोत्तमदास टंडन ने शास्त्री जी के बारे में ठीक ही कहा था कि उनमें कठिन समस्याओं का समाधान करने, किसी विवाद का हल खोजने तथा प्रतिरोधी दलों में समझौता कराने की अद्भुत प्रतिमा विद्यमान थी।

कश्मीर की हजरत बल मस्जिद से हजरत मोहम्मद के पवित्र बाल उठाए जाने के मसले को, जिससे सांप्रदायिक अशांति फैलने की आशंका उत्पन्न हो गई थी, शास्त्रीजी ने जिस ढंग से सुलझाया वह सदा अविस्मरणीय रहेगा। देश में खाद्यान्न संकट उत्पन्न होने पर अमेरिका के प्रतिमाह अन्नदान देने की पेशकश पर तो शास्त्रीजी तिलमिला उठे किंतु संयत वाणी में उन्होंने देश का आह्वान किया- 'पेट पर रस्सी बाँधो, साग-सब्जी ज्यादा खाओ, सप्ताह में एक शाम उपवास करो। हमें जीना है तो इज्जत से जिएँगे वरना भूखे मर जाएँगे। बेइज्जती की रोटी से इज्जत की मौत अच्छी रहेगी।'

हालांकि भारत की आर्थिक समस्याओं से प्रभावी ढंग से न निपट पाने के कारण शास्त्री जी की आलोचना हुई, लेकिन जम्मू-कश्मीर के विवादित प्रांत पर पड़ोसी पाकिस्तान के साथ वैमनस्य भड़कने पर उनके द्वारा दिखाई गई दृढ़ता के लिये उन्हें बहुत लोकप्रियता मिली| उनको चाहने वाले लोगों को वो दिन आज भी याद आता है जब 1965 में अचानक पाकिस्तान ने भारत पर सायं 7.30 बजे हवाई हमला कर दिया था तो उस समय तीनों रक्षा अंगों के चीफ ने लालबहादुर शास्त्री से पूछा ‘सर आप क्या चाहते है आगे क्या किया जाए…आप हमें हुक्म दीजिए’ तो ऐसे में शास्त्री जी ने कहा कि “आप देश की रक्षा कीजिए और मुझे बताइए कि हमें क्या करना है?” ऐसे प्रधानमंत्री बहुत कम ही होते हैं जो अपने पद को सर्वोच्च नहीं वल्कि अपने पद को जनता के लिए कार्यकारी मानकर चलते है|

सन्‌ 1965 के भारत-पाक युद्ध में उन्होंने विजयश्री का सेहरा पहना कर देश को ग्लानि और कलंक से मुक्त करा दिया। छोटे कद के विराट हृदय वाले शास्त्रीजी अपने अंतिम समय तक शांति की स्थापना के लिए प्रयत्नशील रहे। सन्‌ 1965 के भारत-पाक युद्ध विराम के बाद उन्होंने कहा था कि 'हमने पूरी ताकत से लड़ाई लड़ी, अब हमें शांति के लिए पूरी ताकत लगानी है।' शांति की स्थापना के लिए ही उन्होंने 10 जनवरी 1966 को ताशकंद में पाकिस्तानी राष्ट्रपति अय्यूब खाँ के साथ 'ताशकंद समझौते' पर हस्ताक्षर किए।

भारत की जनता के लिए यह दुर्भाग्य ही रहा कि ताशकंद समझौते के बाद वह इस छोटे कद के महान पुरुष के नेतृत्व से हमेशा-हमेशा के लिए वंचित हो गई। 11 जनवरी सन्‌ 1966 को इस महान पुरुष का ताशकंद में ही हृदयगति रुक जाने से निधन हो गया। मरणोपरांत सन्‌ 1966 में उन्हें भारत के सर्वोच्च अलंकरण 'भारत रत्न' से विभूषित किया गया। राष्ट्र के विजयी प्रधानमंत्री होने के नाते उनकी समाधि का नाम भी 'विजय घाट' रखा गया। भारत के अद्वितीय प्रधानमन्त्री स्वर्गीय लालबहादुर शास्त्री जी भले ही आज हमारे बीच नहीं हैं किन्तु उनके द्वारा स्थापित नैतिक मूल्यों का वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों में अभी भी महत्व है.

शास्त्री जी के पुत्र सुनील शास्त्री की पुस्तक 'लालबहादुर शास्त्री, मेरे बाबूजी' के अनुसार शास्त्री जी आज के राजनीतिज्ञों से बिल्कुल भिन्न थे। उन्होंने कभी भी अपने पद या सरकारी संसाधनों का दुरुपयोग नहीं किया। अपनी इस दलील के पक्ष में एक नजीर देते हुए उन्होंने लिखा है, 'शास्त्री जी जब 1964 में प्रधानमंत्री बने, तब उन्हें सरकारी आवास के साथ ही इंपाला शेवरले कार मिली, जिसका उपयोग वह न के बराबर ही किया करते थे। वह गाड़ी किसी राजकीय अतिथि के आने पर ही निकाली जाती थी।' किताब के अनुसार एक बार उनके पुत्र सुनील शास्त्री किसी निजी काम के लिए इंपाला कार ले गए और वापस लाकर चुपचाप खड़ी कर दी। शास्त्रीजी को जब पता चला तो उन्होंने ड्राइवर को बुलाकर पूछा कि कल कितने किलोमीटर गाड़ी चलाई गई और जब ड्राइवर ने बताया कि चौदह किलोमीटर तो उन्होंने निर्देश दिया, 'लिख दो, चौदह किलोमीटर प्राइवेट यूज।' शास्त्रीजी यहीं नहीं रुके बल्कि उन्होंने अपनी पत्नी को बुलाकर निर्देश दिया कि उनके निजी सचिव से कह कर वह सात पैसे प्रति किलोमीटर की दर से सरकारी कोष में पैसे जमा करवा दें।

शास्त्रीजी की सादगी और किफायत का यह आलम था कि एक बार उन्होंने अपना फटा हुआ कुर्ता अपनी पत्नी को देते हुए कहा, 'इनके रूमाल बना दो।' इस सादगी और किफायत की कल्पना तो आज के दौर के किसी भी राजनीतिज्ञ से नहीं की जा सकती। पुस्तक में कहा गया है, 'वे क्या सोचते हैं, यह जानना बहुत कठिन था, क्योंकि वे कभी भी अनावश्यक मुंह नहीं खोलते थे। खुद कष्ट उठाकर दूसरों को सुखी देखने में उन्हें जो आनंद मिलता था, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता।'

लालबहादुर शास्त्री अपनी सारी व्यस्ताओं के बावजूद अपनी मां के साथ कुछ पल बिताना नहीं भूलते थे और बाहर से चाहे वे कितना ही थककर आयें अगर मां आवाज देती थीं तो वह उनके पास जाकर जरूर बैठते थे। पुस्तक ‘‘लालबहादुर शास्त्री, मेरे बाबूजी’’ में बताया गया है कि शास्त्री जी की मां उनके कदमों की आहट से उनको पहचान लेती थीं और बड़े प्यार से धीमी आवाज में कहती थीं ‘‘नन्हें, तुम आ गये? और शास्त्री जी चाहे कितनी ही परेशानियों से लदे हुए आये हों, मां की आवाज सुनते ही उनके कदम उस कमरे की तरफ मुड़ जाते थे, जहां उनकी मां की खाट पड़ी थी।

पुस्तक के अनुसार शास्त्री जी की मां रामदुलारी 1966 में शास्त्री जी के निधन के बाद नौ माह तक जीवित रहीं और इस पूरे समय उनकी फोटो सामने रख उसी प्यार एवं स्नेह से उन्हें चूमती रहती थीं, मानों वह अपने बेटे को चूम रही हों। सुनील शास्त्री के अनुसार उनकी दादी कहती थीं, इस नन्हे ने जन्म से पहले नौ महीने पेट में आ बड़ी तकलीफ दी और नहीं जानती थी कि वह इस दुनिया से कूच कर मुझे नौ महीने फिर सतायेगा। किताब के अनुसार शास्त्री जी के निधन के ठीक नौ माह बाद उनकी माता का निधन हो गया था। लेखक लिखते हैं, दादी का प्राणांत बाबूजी के दिवंगत होने के ठीक नौ महीने बाद हुआ। पता नहीं कैसे दादी को मालूम था कि नौ महीने बाद ही उनकी मृत्यु होगी।

शास्त्रीजी की मृत्यु को लेकर तरह-तरह के कयास लगाये जाते रहे। बहुतेरे लोगों का, जिनमें उनके परिवार के लोग भी शामिल हैं, मत है कि शास्त्रीजी की मृत्यु हार्ट अटैक से नहीं बल्कि जहर देने से ही हुई। पहली इन्क्वायरी राज नारायण ने करवायी थी, जो बिना किसी नतीजे के समाप्त हो गयी ऐसा बताया गया। मजे की बात यह कि इण्डियन पार्लियामेण्ट्री लाइब्रेरी में आज उसका कोई रिकार्ड ही मौजूद नहीं है। यह भी आरोप लगाया गया कि शास्त्रीजी का पोस्ट मार्टम भी नहीं हुआ। 2009 में जब यह सवाल उठाया गया तो भारत सरकार की ओर से यह जबाव दिया गया कि शास्त्रीजी के प्राइवेट डॉक्टर आर० एन० चुघ और रूस के कुछ डॉक्टरों ने मिलकर उनकी मौत की जाँच तो की थी परन्तु सरकार के पास उसका कोई रिकॉर्ड नहीं है। बाद में प्रधानमन्त्री कार्यालय से जब इसकी जानकारी माँगी गयी तो उसने भी अपनी मजबूरी जतायी।

शास्त्रीजी की मौत में संभावित साजिश की पूरी पोल आउटलुक नाम की एक पत्रिका ने खोली। 2009 में, जब साउथ एशिया पर सीआईए की नज़र (CIA's Eye on South Asia) नामक पुस्तक के लेखक अनुज धर द्वारा सूचना के अधिकार के तहत माँगी गयी जानकारी पर प्रधानमन्त्री कार्यालय की ओर से यह कहना कि "शास्त्रीजी की मृत्यु के दस्तावेज़ सार्वजनिक करने से हमारे देश के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध खराब हो सकते हैं तथा इस रहस्य पर से पर्दा उठते ही देश में उथल-पुथल मचने के अलावा संसदीय विशेषधिकारों को ठेस भी पहुँच सकती है। ये तमाम कारण हैं जिससे इस सवाल का जबाव नहीं दिया जा सकता।", यही बतलाता है कि कहीं कुछ है जो गड़बड़ है।

यही नहीं, कुछ समय पूर्व प्रकाशित एक अन्य अंग्रेजी पुस्तक में लेखक पत्रकार कुलदीप नैयर ने भी, जो उस समय ताशकन्द में शास्त्रीजी के साथ गये थे, इस घटना चक्र पर विस्तार से प्रकाश डाला है। गत वर्ष जुलाई 2012 में शास्त्रीजी के तीसरे पुत्र सुनील शास्त्री ने भी भारत सरकार से इस रहस्य पर से पर्दा हटाने की माँग की थी, जिनका कहना था कि जब शास्त्री जी के शव को उन्होंने देखा था तो उनकी छाती, पेट और पीठ पर नीले निशान थे जिन्हें देखकर साफ लग रहा था कि उन्हें जहर दिया गया है। लालबहादुर शास्त्री की पत्नी ललिता शास्त्री का भी यही कहना था कि लालबहादुर शास्त्री की मौत संदिग्ध परिस्थितियों में हुई थी| सबसे पहले सन् 1978 में प्रकाशित मदनलाल 'क्रान्त ' की काव्य-कृति 'ललिता के आँसू' में शास्त्रीजी की मृत्यु की करुण कथा को स्वाभाविक ढँग से उनकी धर्मपत्नी ललिता शास्त्री के माध्यम से कहलवाया गया था, जो उस समय जीवित थीं।

हे मर्यादा के शुचि प्रतीक! ओ मानवता के पुण्य धाम!
हे अद्वितीय इतिहास पुरुष! शास्त्री! तुमको शत-शत प्रणाम!!
तुमने स्वदेश का कल देखा, अपने जीवन का आज नहीं;
तुमने मानव-मन की पुकार को किया नजर अंदाज नहीं.
तुमने तारों की प्रभा लखी,सूना आकाश नहीं देखा;
तुमने पतझड़ की झाड़ सही,कोरा मधुमास नहीं देखा.
तुमने प्रतिभा की पूजा की, प्रतिमा को किया न नमस्कार;
तुम सिद्धान्तों के लिए लड़े, धर्मों का किया न तिरस्कार.
तुमने जलते अंगारों पर, नंगे पैरों चलना सीखा;
तुमने अभाव के आँगन में भी, भली-भाँति पलना सीखा.
तुमने निर्धनता को सच्चा वरदान कहा, अभिशाप नहीं;
तुमने बौद्धिक विराटता का, माना कोई परिमाप नहीं.
तुमने आदर्शवाद माना, माना कोई अपवाद नहीं;
तुमने झोंपड़ियाँ भी देखीं, देखे केवल प्रासाद नहीं.
तुम वैज्ञानिक बन आये थे, खोजने सत्य विश्वास शान्ति;
तुमने आवरण नहीं देखा, खोजी अन्तस की छुपी कान्ति.
तुमने केवल पाया न अकेले ललिता का ही ललित प्यार;
तुमको जीवन पर्यन्त मिला, माँ रामदुलारी का दुलार.
तुमने शासन का रथ हाँका पर मंजिल तक पहुँचा न सके;
तुम हाय! अधर में डूब गये, जीवित स्वदेश फिर आ न सके.
तुम मरे नहीं हो गये अमर, इतना है दृढ विश्वास मगर;
रह गया अधूरा "जय किसान" इसकी अब लेगा कौन खबर?
तुम थे गुलाब के फूल मगर दोपहरी में ही सूख गये;
तुमने था लक्ष्य सही साधा पर अन्तिम क्षण में चूक गये.
जो युद्ध-क्षेत्र में नहीं छुटा, पथ शान्ति-क्षेत्र में छूट गया;
जो ह्रदय रहा संकल्प-निष्ठ, क्यों अनायास ही टूट गया?
यह प्रश्न आज सबके उर में शंका की तरह उभरता है;
पर है वेवश इतिहास मौन, कोई टिप्पणी न करता है?
जो कठिन समस्या राष्ट्र अठारह वर्षों में सुलझा न सका;
भारत का कोई भी दुश्मन तुमको भ्रम में उलझा न सका.
वह कठिन समस्या मात्र अठारह महिने में सुलझा दी थी;
चढ़ चली जवानी अरि-दल पर तुमने वह आग लगा दी थी.
अत्यल्प समय के शासन में सम्पूर्ण राष्ट्र हुंकार उठा;
उठ गयी तुम्हारी जिधर दृष्टि उस ओर लहू ललकार उठा.
तुम गये आँसुओं से आँचल माँ वसुन्धरा का भीग गया;
जन-जन की श्रद्धांजलियों से पावन इतिहास पसीज गया.
हे लाल बहादुर! आज तुम्हारी चिर-प्रयाण-तिथि पर अशान्त-
मन से अपनी यह श्रद्धांजलि, तुमको अर्पित कर रहा 'क्रान्त'|

गरीबी में जन्मे, पले और बढ़े शास्त्रीजी को बचपन में ही गरीबी की मार की भयंकरता का बोध हो गया था, फलतः उनकी स्वाभाविक सहानुभूति उन अभावग्रस्त लोगों के साथ रही जिन्हें जीवनयापन के लिए सतत संघर्ष करना पड़ता है। वे सदैव इस हेतु प्रयासरत रहे कि देश में कोई भूखा, नंगा और अशिक्षित न रहे तथा सबको विकास के समान साधन मिलें। शास्त्रीजी का विचार था कि देश की सुरक्षा, आत्मनिर्भरता तथा सुख-समृद्धि केवल सैनिकों व शस्त्रों पर ही आधारित नहीं बल्कि कृषक और श्रमिकों पर भी आधारित है और इसीलिए उन्होंने नारा दिया, 'जय जवान, जय किसान।' 

Courtesy- Facebook

20 comments:

Darshan jangra said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल - शुक्रवार - 04/10/2013 को
कण कण में बसी है माँ
- हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः29
पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें, सादर .... Darshan jangra


सूबेदार said...

सुन्दर आलेख अच्छी जानकारी -------------
शास्त्री जी के जन्म दिवस पर देश वासियों को हादिक बधाई.

Dr ajay yadav said...

बहुत ही सुंदर लेखन |जानकारीयुक्त |आभार |
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Anonymous said...

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Unknown said...

बहुत ही अविस्मर्णीय जानकारी दी आपने|सच में शास्त्री जी के व्यक्तित्व के जैसा युगपुरुष न तो जन्मा है और न ही देश की राजनीति में कभी जन्म लेगा| जब -जब त्याग एवं इच्छशक्ति की प्रतिमूर्ति की चर्चा इतिहास में होगी उन सबमें सबसे ऊपर नाम शास्त्री जी का ही रहेगा| ये हमारे चाटुकार इतिहासकारों की अर्धविक्षिप्त मानसिकता ही कही जायेगी कि आजादी के कर्णधारों में हम महात्मा गांधी का नाम एवं जन्मदिवस तो बड़ी श्रद्धा से मनाते हैं किन्तु जनहित की भावना के लिए अपना घर परिवार यहाँ तक की अपना जीवन तक देश के लिए न्योछावर करने वाले लाल बहादुर शास्त्री जी के दिवस पर न तो मीडिया एवं न ही किसी मंच के माध्यम से इस महापुरुष को श्रद्धांजलि दी गयी|
या फिर शायद भारतीय राजनीति ने जान बूझकर इन्हें भुला दिया क्योंकि इतिहास की थोड़ी से भी समझ रखने वाले ये जानते हैं की शास्त्री जी की मृत्यु किन रहस्यमय परिस्थितियों में हुई थी और कौन इनकी मौत का जिम्मेदार था| लालबहादुर शास्त्री के बेटे सुनील शास्त्री का कहना था कि जब लालबहादुर शास्त्री की लाश को उन्होंने देखा था तो लालबहादुर शास्त्री की छाती, पेट और पीठ पर नीले निशान थे जिन्हें देखकर साफ लग रहा था कि उन्हें जहर दिया गया है| लालबहादुर शास्त्री की पत्नी ललिता शास्त्री का भी यही कहना था कि लालबहादुर शास्त्री की मौत संदिग्ध परिस्थितियों में हुई थी| तब से ले कर आज तक इस सभ्य समाज के तथाकथित ठेकेदारों ने कभी जरूरत ही नहीं समझी शास्त्री जी की रहस्यमयी मौत की गुत्थी सुलझाने की| हम तो बस नाथूराम गोडसे को कोसना जानते हैं लेकिन क्या कभी हम में से किसी ने नाथूराम गोडसे के जीवन के बारे में कुछ जानने की कोशिश की, कि कौन था नाथूराम गोडसे और किन वजहों से उसने गांधी जी को मारा था ? दिव्या जी आज बहुत अधिक आवश्यकता है हमें हमारी संस्कृति के इतिहास को दोबारा लिखने की अन्यथा हमारी आने वाली पीढ़ियाँ सत्य से हमेशा ही अनजान रहेंगी और हम बिना कुछ सोंचे बिना कुछ समझे शास्त्री जी जैसे महान व्यक्तित्व को भुलाकर तुच्छ व्यक्तियों के जन्मदिवसों पर भ्रष्ट नेताओं के भाषणों को सुनकर सिर्फ आफ़िस की छुट्टियों का आनंद उठाते रहेंगे| जय हिन्द जय भारत .............

संजय भास्‍कर said...



सुन्दर आलेख
शास्त्री जी के जन्म दिवस पर ....अच्छी जानकारी !

शब्दों की मुस्कुराहट पर ....क्योंकि हम भी डरते है :)

दिवस said...

शास्त्री जी के जीवन को कागज़ पर उतारना बहुत कठिन है. कद के छोटे शास्त्री जी के इरादे बहुँत ऊँचे थे.
भारत पाक युद्ध में भारतीय सेना द्वारा पाकिस्तान को करारी हार देना शास्त्री जी के जीवन की सबसे बड़ी जीत कही जा सकती है. महज तीन साल पहले नेहरु और वी. के. कृष्ण मेनन की भ्रष्ट नीतियों के कारण चीन से हार.झेल चुकी भारतीय सेना में वो जोश शास्त्री जी ने ही भरा कि लाहौर तक घुस कर हमारी सेना ने पाकिस्तान को सबक सिखाया. इसी युद्ध में अमरीका की दादागिरी को भी शास्त्री जी ने सहन नहीं किया और किसी अंतर्राष्ट्रीय दबाव की परवाह किये बिना जय जवान जय किसान के नारे के साथ सेना और जनता में वो जोश भरा कि पाकिस्तान को मूँह की खानी पड़ी.
इसी बेबाकी के कारण उन्हे अपनी जान गँवानी पड़ी और उनके हत्यारों मे यही गांधी खानदान प्रमुख है.
दुख तो तब होता है जब आज का पढ़े लिखे तबके मे से कोई मुर्ख ऐसा निकल कर आता है जो शास्त्री जी को अच्छा नेता मानने से इंकार करता है.
कांग्रेस और गांधी खानदान की नीचता के चलते हमने एक महान नेता खोया. अब वक्त आ तुका है कांग्रेस से उसके पापों का बदला लेने का.
याद रहे सत्ता से बाहर बैठ कर भी कांग्रेस फिर से वही गंदी चालें चल सकती है जो उसने शास्त्री जी के साथ चलीं. हमें उस समय की तरह इस बार अकर्मण्यता नही दिखानी है. कांग्रेस से गिन गिन कर बदला लेना है.
यही सच्ची श्रद्धांजली होगी हमारे शास्त्री जी को...

Anurag Choudhary said...

A Comprehensive article covering each auspect of the life of the real hero. Thanks a lot of

Ramakant Singh said...

Adbhut aalekh badhai

लोकेन्द्र सिंह said...

कांग्रेस पचा नही सकी उनकी ख्याति और.....

Anonymous said...

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प्रवीण पाण्डेय said...

भारतीय इतिहास के विलक्षण व्यक्तित्व

संतोष पाण्डेय said...

वे सच्चे अर्थों में देश के महान नेता थे। अब तो कैसे कैसे लोगों को नेताजी कहा जाने लगा है। आपका लेख उनके जीवन के कई अनजाने पहलुओं से अवगत कराता है। शास्त्री जी को श्रद्धासिक्त नमन।

Anonymous said...

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Anonymous said...

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Dr.Ashutosh Mishra "Ashu" said...

आदरणीया दिव्या जी ..लाल बहादुर जी के बिषय में तमाम बातें मालोम थी पर आज उस जानकारी में अत्यंत इजाफा हुआ ..आज ऐसे व्यक्तित्व की कल्पना करना भी असंभव है ...इस सुंदर जानकारी के लिए तहे दिल धन्यवाद ..सादर प्रणाम के साथ

Anonymous said...

[color=#2288bb]Друг зовет на дом 2 идти, на кастинг, говорит, пойдем мол попробуем, а вдруг возьмут, мол звездами станем. Я то знаю кого он насмотрелся в интернете вот этого участника;[/color] [url=http://zazvezdilsa.ru/news/more/novostі-shou-bіznesa.html]на странице[/url] [color=#2288bb]короче я пообещала, а теперь не знаю как отказаться, ведь он мой друг, просто я боюсь это первое, второе я очень стесняюсь разных кастингов, где все на тебя смотрят как ты поешь, рассказываешь стихи и вообще. Подскажите.Кто нибудь был на кастинге дома 2, как там сильно давящая обстановка, получается друг в четверг уже будет мне звонить, как я ему скажу, что я отказываюсь, он сам боится и говорит, что сом ной только пойдет. Как думаете, я сама себе накрутила и нет нечего страшного или правильно и не идти на это шоу испытывать судьбу, три дня думаю.[/color]

Anonymous said...

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kicyCyday

Anonymous said...

Alan Whitton is a Hypnotherapist, NLP and IEMT Practitioner and Coach
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