Saturday, July 16, 2011

क्या हमारी मीडिया भटक गयी है ?

देश और समाज के हालात से अवगत कराने का कार्य मीडिया का है ! लेकिन क्या हमारी मीडिया इस कार्य को निष्ठा के साथ अंजाम दे रही है ? आम जनता की बहुत अपेक्षाएं जुडी होती हैं मीडिया के साथ , वो उसकी तरफ सहायता पाने की दृष्टि से देखती है. अपनी आवाज को ऊंचा करना चाहती है मीडिया की मदद से! और देश तथा परिवेश का पारदर्शिता से दिखाया गया आइना देखना चाहती है!

क्या हमारी मीडिया नकारात्मक हो गयी है ?

देश में बहुत कुछ सकारात्मक भी हो रहा है ! लेकिन हमारी मीडिया कहीं न कहीं चूक रही है विकास एवं तरक्की के कार्यों को दिखाने में ! बिना किसी पूर्वाग्रह के दोनों पक्षों को उजागर करना चाहिए. फैले भ्रष्टाचार और बुराइयों से अवगत कराते जहाँ हमें सचेत करती है तो वहीँ अच्छे एवं विकास कार्यों को दिखाकर कुछ स्फूर्ति एवं ताजगी भी देनी चाहिए! शिक्षा स्वास्थ्य एवं तकनीक में हो रहे विकास को भी दिखाना चाहिए! निरंतर नकारात्मक ही दिखा दिखा कर दिमाग तथा हमारी सोच को भी निराशा से भर देती है! यदि कहीं आतंकवाद है , तो कहीं सरकार के इस दिशा में सद्प्रयास भी दिखाने चाहिए! यदि भ्रष्टाचार है , तो आम जनता द्वारा उसके खिलाफ लड़ी और लोकपाल बिल जैसे सार्थक प्रयासों को भी जन जन तक पहुँचाना मीडिया का ही कर्तव्य है !


क्या मीडिया जनता की आवाज़ बन पाती है ?

आज हमारे देश में सही नेतृत्व की कमी है ! एक ऐसा नेता जो देश को प्रगति और विकास की दिशा में ले जा सके ! अपनी जनता के मन में आत्मविश्वास और स्फूर्ति दे सके ! ऐसी दशा में जब राजनीतिज्ञों से हटकर कोई अन्ना अथवा रामदेव जैसा व्यक्ति आगे आता है राष्ट्र -हित में तो समूचा देश उसके साथ हो जाता है इस उम्मीद में की अब शायद मुश्किलों से निजात मिलेगी ! यहाँ पर मीडिया का भी दायित्व है वे इन नेतृत्वों के अच्छे और सशक्त पक्षों को सामने रखें , राष्ट्र विकास में सहयोग दें और आम जनता की आवाज़ बनें !


क्या मीडिया युवा वर्ग को भ्रमित कर रही है ?

आजकल विभिन्न चैनलों पर जो हिंसा, अभद्रता , अश्लीलता परोसी जा रही है , वह युवा पीढ़ी को क्या दिशा दे रही है भला ? कुछ नहीं तो , कुछ अच्छे संस्कार देने वाले शैक्षणिक सीरियल , discussions अथवा debates दिखाई जातीं ! निरर्थक प्रोग्राम्स को दिखाने के बजाये विद्वानों द्वारा सार्थक चर्चाएँ प्रस्तुत की जा सकती हैं ! निरंतर ह्रास क्यूँ ? पहले किरण बेदी जी की अदालत आती थी तो अब राखी सावंत की अभद्रता , चैनल की शोभा बनी हुयी है ! कहीं पति-पत्नी का अनावश्यक विवाद ही हर चैनल पर दिखाया जाएगा ! देश और व्यक्तित्व का विकास करने वाले दृश्यों और घटनाओं की प्रस्तुति होनी चाहिए जिससे युवा वर्ग कुछ प्रेरणा ले सके और motivate हो सके !


क्या मीडिया जजमेंटल हो रही है ?

मीडिया का काम है जनता को पारदर्शिता के साथ सत्य से अवगत कराना न की अपने विचारों को उन पर थोपना ! जब मीडिया "बाबा का पाखण्ड" अथवा "बाबा की बाजीगरी " जैसे वक्तव्यों का प्रयोग करती है तब वह निष्पक्ष नहीं रह पाती , जजमेंटल हो जाती है और व्यक्ति विशेष को काले रंग में पेंट करने का अनुचित प्रयास करती है . मीडिया का धर्म है , सत्य को बिना मिलावट के प्रस्तुत करे और पाखंड आदि की विवेचना को पाठक और जनता के लिए अपने-अपने विवेक के अनुसार करने के लिए छोड़ दे ! मीडिया को पक्षपात और पूर्वाग्रहों से रहित होना चाहिए !



मीडिया रामदेव बाबा से तो द्वेष रखती है लेकिन राहुल बाबा और नित्यानंद बाबा के खिलाफ ज्यादा कुछ नहीं कहती ! राहुल बाबा जो देश के भावी प्रधानमन्त्री की तरह देखे जा रहे हैं , उनका कहना है की " आतंकवादी हमले बहुत से देश में होते हैं , इन्हें रोकना मुमकिन नहीं " ....तो राहुल बाबा जब इतने असमर्थ हैं तो इन्हें राजनीति में रहने की क्या ज़रुरत है! मीडिया इस बचकाना और गैरजिम्मेदाराना वक्तव्य को नहीं उछालती ! आखिर क्यूँ ?


क्या हमारी मीडिया किसी प्रकार से मजबूर है ?



यदि हम मीडिया पर दया दृष्टि रख कर सोचें तो एक बात विचारणीय है की कहीं हमारी किसी प्रकार के दबाव में तो कार्य नहीं कर रही . आखिर सत्ता रूढ़ शक्तियां इतनी ताकतवर हैं की उनके खिलाफ सच को सामने लाने से पहले ही मीडिया को खरीद लिया जाता हो , अथवा धमकी दी जाती हो . यदि यह सच है तो विकल्प क्या मीडिया की इमानदारी बनाये रखने के लिए.!


क्या हमारी मीडिया का व्यवसायीकरण तो नहीं हो रहा ?

आज विभिन्न बड़े बड़े अखबार मालिकों की Townships हर शहर में बन रही हैं , जिनके अति-महगें आवास नेताओं ने खरीद रखे हैं ! आज पत्रकारिता एक पारदर्शी आइना बनने के बजाये एक बिल्डर की तरह आवास-विकास योजना से संलग्न नज़र आ रही है !

आज हर चैनल और पत्रकारिता अपना TRP बढाने के लिए उसे sensational करने पर लगी हुयी है ! अपने वक्तव्यों एवं प्रस्तुतियों के प्रति जिम्मेदार नहीं रह जा रही है ! बड़े बड़े नेताओं के संपर्क में रहते हुए अपने मुख्य उद्देश्य से भटक रही है और लालच उन पर हावी हो रही है ! ए राजा केस में , नीरा राडिया आदि प्रकरण इसी और इशारा करते हैं !

मुझे लगता है मीडिया को निष्पक्ष , इमानदार और जिम्मेदार रहना चाहिए अपने कर्म के प्रति !


Zeal

96 comments:

aarkay said...

मीडिया भी बाजारीकरण का शिकार हो चुका है, पथभ्रष्ट तो होगा ही ! निजी चैनल या यों कहें उनकी दादागिरी इस के लिए काफी हद तक उत्तरदायी हैं.

अंकित कुमार पाण्डेय said...
This comment has been removed by the author.
Kajal Kumar said...

जब मीडिया को लौंडै और लाला चलाएंगे तो और क्या होगा...

अंकित कुमार पाण्डेय said...

मीडिया तो लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है और बाकी के तीन स्तंभों की तरह इसमें भी सडन पैदा हो गयी है , पहले अपराध कर के पुलिस को हिस्सा देना पड़ता था अप मीडिया का भी हिस्सा हो गया है |
सुव्यवस्था सूत्रधार मंच
www.adarsh-vyavastha-shodh.com

vidhya said...

bahut kub

आप का बलाँग मूझे पढ कर अच्छा लगा , मैं भी एक बलाँग खोली हू
लिकं हैhttp://sarapyar.blogspot.com/

अगर आपको love everbody का यह प्रयास पसंद आया हो, तो कृपया फॉलोअर बन कर हमारा उत्साह अवश्य बढ़ाएँ।

पी.एस .भाकुनी said...

आम जनता की बहुत अपेक्षाएं जुडी होती हैं मीडिया के साथ....
or midia apni jimmedari bakhubi nibha rahi hai.

सदा said...

मीडिया से जिस निष्‍पक्षता की उम्‍मीद आम जनता को है ...वह उस पर पूरी तरह खरी नहीं उतर पा रही है ..सार्थक एवं सटीक लेखन ..।

Maheshwari kaneri said...

मीडिया युवा वर्ग को ही बल्की सभी वर्ग को भ्रमित कर रही है ? सही तथा सार्थक लेख..शुभकामनाये..

रविकर said...

बहुत बहुत बधाई |
हाँ लगता तो यही है कि हमारी मीडिया नकारात्मक हो गयी है |
मीडिया जनता की आवाज़ नहीं बन पाती है | आकाओं कि जरुर ||
मीडिया युवा वर्ग को ही क्यों, बच्चों या बूढों को भी भ्रमित कर रही है |
बिलकुल मीडिया जजमेंटल हो रही है|---
kal hi to --KALKA k

ड्राइवर को दोषी बता, बचा रहे थे जान,

जान नहीं पाए उधर, जिन्दा है इंसान |

जिन्दा है इंसान, थोपते जिम्मेदारी,

आलोचक की देख, बड़ी भारी मक्कारी |

कह रविकर समझाय, निकाले मीन-मेख सब-

मुंह मोड़े चुपचाप, मिले उनको जिम्मा जब ||


हमारी मीडिया का व्यवसायीकरण हो चुका है |
कोई शंका नहीं ||

कविता रावत said...

मुझे लगता है मीडिया को निष्पक्ष , इमानदार और जिम्मेदार रहना चाहिए अपने कर्म के प्रति ..होना तो यही चाहिए लेकिन वर्तमान हालातों के देख तो यही लगता है मीडिया का व्यवसायीकरण हो चुका है |
सार्थक लेख..शुभकामनाये..

Shalini kaushik said...

divya ji,
bahut sarthak baten kahi hain aapne,aaj media apne kartavya path se dig raha hai aur iska khamiyaja sabhi ko bhugatna pad raha hai .

Deepak Saini said...

@ मुझे लगता है मीडिया को निष्पक्ष , इमानदार और जिम्मेदार रहना चाहिए अपने कर्म के प्रति !
होना तो यही चाहिए लेकिन मीडिया को तो सिर्फ अपनी trp और पैसे से मतलब

Anonymous said...

आपकी कही हर बात ठीक लगी है मुझे.....इस देश में अगर हर कोई अपना काम पूरी निष्ठां और ईमानदारी से करे तो देश कहीं का कहीं पहुँच जायेगा.......आखिरी वाले पॉइंट में मुझे ज्यादा सम्भावना नज़र आती है....सब तरफ पैसो का ही बोलबाला है|

SAJAN.AAWARA said...

DEEPAK SAINI JI KI BAAT BILKUL SAHI HAI.....LEKIN AAJ KAL TO PAISON KA HI BOL BALA HAI.....
JAI HIND JAI BHARAT

सुज्ञ said...

अब मीडिया पूर्वाग्रहों और धनलोभ में निष्ठाच्यूत हो चुका है।
उसे लोकतंत्र का चौथा पहरूआ कहलाने का कोई हक नहीं रहा।
अब नई खबर का स्रोत मात्र है। ऐसा स्रोत जिसकी खबर और बात पर विश्वास नहीं किया जा सकता। जनता जनार्दन को इसे सबक सिखाने का वक्त आ पहूँचा है। कैसे? धन-लोभीयों की जान टी आर पी में बसती है। और जन चाहे तो देखना बंद कर सबक दे सकती है।

महेन्द्र श्रीवास्तव said...

दिव्या जी वाकई आपने एक ऐसा सवाल उठाया, जिस पर चर्चा तो होनी चाहिए, लेकिन चर्चा का मुख्य श्रोत है मीडिया, वहां अभी इतनी ईमानदारी नहीं कि वो अपने बारे में चर्चा करने के लिए लोगों को मौका दें।
अगर आप पहले समाचार पत्रों का इतिहास उठाकर देखें तो कोई भी पत्र किसी खास मिशन को लेकर निकाला जाता था और मिशन पूरा हो जाने पर या तो समाचार पत्र को बंद कर दिया जाता था या फिर वो किसी नए मिशन के लिए काम करता था।
आज मिशन पूरी तरह प्रोफेसन में बदल गया है। इसलिए मीडिया से बहुत ज्यादा उम्मीद करना, मुझे लगता है कि सही नहीं होगा।
सुज्ञ जी की मै इस बात से पूरी तरह सहमत हूं कि अब मीडिया को चौथा स्तंभ कहना बेमानी है। क्योकि यहां अब मै ही नहीं जो लोग भी हैं, वो सिर्फ नौकरी कर रहे हैं, किसी मिशन को पूरा करना ना ही मकसद है और ना ही इस तंत्र में रहकर किया जा सकता है।
प्रिंट से उम्मीदें थीं, लेकिन प्रिंट में पिछले कुछ सालों में जिस तरह से पेड न्यूज का प्रभाव बढा है, वो खतरनाक मोड पर पहुंचता नजर आ रहा है।
रही बात इलेक्ट्रानिक मीडिया की, जो यहां वही दिखता है जो बिकता है।

इन तमाम बुराइयों के बावजूद मैं यह भी कहूंगा कि अगर सरकार में बैठे लोगों में थोडा बहुत भी कहीं भय है तो वह मीडिया से ही है। पिछले दिनों आपने देखा होगा कि जिस तरह भ्रष्टाचार के मामले में मीडिया ने भूमिका निभाई है, उसकी आप प्रशसा भले ना करें, लेकिन कहना होगा कि मीडिया ने भी ताकत दी। आज मीडिया का दबाव ही कह लीजिए कि तमाम बडे नेता और अफसर तिहाड में हैं।

लेकिन समय रहते अगर मीडिया ने खुद को न बदला तो वो दिन दूर नहीं जब राजनीतिज्ञों के साथ मीडियाकर्मी भी आम जनता के निशाना बनें।

अच्छी चर्चा के लिए आपको बधाई

मदन शर्मा said...

इसके लिए सरकार के अलावा क्या हम भी जिम्मेद्वार नहीं हैं ये बहुत ही चिंतनीय विषय है !!

मदन शर्मा said...

मीडिया को निष्पक्ष बनाने के लिए सरकार क्या कदम उठा रही है, सभी भारतीयों को पता चल गया है की मिडिया , टीवी और पत्रिकाए सरकार को बिक चुकी है, बड़े शर्म की बात है, शाम को सिर्फ 4 रोटी खाने के लिए भारत माता से गद्दारी क्यों?

Jyoti Mishra said...

Rightly said.. Commercialization of media is in progress...
and this is 200% true that somewhere media is lacking in showing the good things happening around.

प्रवीण पाण्डेय said...

समस्या को सतत उभारने का ही कार्य कर ले तो दिशा मिल जायेगी।

DR. ANWER JAMAL said...

आपकी रचना अच्छी है।
आपसे सहमत हूं।
संगीन सूरते-हाल की तरफ़ लेख एक हल्का सा इशारा कर रहा है.
ग़द्दारों से पट गया हिंदुस्तान Ghaddar

ashish said...

लोकतंत्र के चौथा खम्भे का व्यपारीकरण हो चुका है , खरीद फरोख्त बदस्तूर जारी है .

अन्तर सोहिल said...

सब बिकते हैं, मीडिया भी
किसी का रेट कम, किसी का ज्यादा
1% भी ज्यादा है ईमानदार कहने के लिये

प्रणाम

रेखा said...

आपकी बात बहुत हद तक सही है ...............मीडिया को अपनी जिम्मेदारी का एहसास होना ही चाहिए

मनोज भारती said...

मीडिया अपने उद्देश्य शिक्षा,सूचना और खोज से भटक गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि इसका पूरी तरह व्यवसायीकरण हो चुका है। वह न तो आम नागरिक को शिक्षा दे रहा है, न ही सही और निष्पक्ष सूचना ही दे रहा है और समाज और देश के हित में खोजी-पत्रकारिता तो अब कहीं दिखाई ही नहीं देती। पत्रकारिता जो कभी एक मिशन होता था,,,वह आज पूरी तरह से और बुरी तरह से व्यवसायीकृत हो चुका है...उसके लिए वही खबर,खबर है जो उसके प्रायोजकों के हितों की रक्षा करे। न किसी को आम आदमी की सुध और न ही उसके सराकारों से।

सुज्ञ जी और महेन्द्र श्रीवास्तव जी से सहमत।

महेन्‍द्र वर्मा said...

सही समय पर, सही मुद्दे पर सटीक चर्चा।
मीडिया को निष्पक्ष होकर समाज की भलाई के लिए कार्य करना चाहिए।
इलेक्ट्रानिक मीडिया तो गर्त में जा चुकी है। प्रिंट मीडिया भी उसी के नक्शे-कदम पर चल रही है।
मीडिया के द्वारा लोगों और संस्थाओं को ब्लैकमेल करने की बात भी सुनाई देती रहती है।
मीडिया पूरी तरह से व्यावसायिक हो गई है। उसका एक ही धर्म है- पैसा।

Sapna Nigam ( mitanigoth.blogspot.com ) said...

विचार मंथन हेतु बाध्य करती पोस्ट.सटीक विषय वस्तु.

डॉ टी एस दराल said...

मीडिया को निष्पक्ष , इमानदार और जिम्मेदार रहना चाहिए अपने कर्म के प्रति !
निसंदेह . लेकिन ऐसा हो नहीं रहा .

Vaanbhatt said...

बेहद सार्थक पोस्ट...मीडिया वो दिखता है...जो लोग देखना चाहते हैं...कुछ चैनल तो स्पोंसर्ड लगते हैं...पानी पी-पी कर बाबा और विपक्ष को कोसते नज़र आते हैं...अच्छी सरकार के लिए मजबूत विपक्ष आवश्यक है...और मीडिया तो राहुल बाबा और...मौनी बाबा के गुण गाने में मगन है...

JC said...

"बुरा जो देखन मैं चला / बुरा न मिलिया कोई / जो दिल खोजा आपना / तो मुझसे बुरा न कोई"!

गीता में कृष्ण जी आम आदमी के लिए कहते हैं कि यदि आप किसी को गाली देते हैं तो आप मुझे ही गाली दे रहे हैं! क्यूंकि हरेक के भीतर मैं ही हूँ!

यद्यपि वो एक अन्य स्थान पर यह भी कहते दर्शाए जाते हैं कि मैं सबके भीतर 'माया' से दिखाई देता हूँ (मानव के हमारे सौर-मंडल के सूर्य से शनि तक 'नवग्रहों' से बने होने के कारण, जो हमारी गैलेक्सी के भीतर समाये हैं). सत्य तो यह है कि सम्पूर्ण सृष्टि मेरे भीतर ही है (यानि मेरे विराट स्वरुप अनंत ब्रह्माण्ड के शून्य के भीतर है, जिसके भीतर हमारी गैलेक्सी भी अनंत में से एक है, और प्राचीन हिन्दू खगोलशास्त्री द्वारा हमारी पृथ्वी को ब्रह्माण्ड का केंद्र माना जाता रहा है, एयर पृथ्वी को ग्न्गादर शिव भी कह किन्तु 'मिथ्या जगत' भी कहा गया)!

और, इस कारण, यदि ज्ञानी 'प्राचीन हिन्दुओं' की मानें तो, दोष 'माया' अथवा शून्य (नादबिन्दू) द्वारा - 'अष्टभुजा-धारी दुर्गा' के माध्यम से - रचित 'मकड़ जाल' का है जिसको तोड़ पाने में 'कलियुग' की प्रकृति के कारण, कोई भी सक्षम नहीं रह गया है जो 'चूहा दौड़' में उसके आँखों में पट्टे लगे घोड़े समान शामिल है (दांये -बांये देखने में अक्षम), यानि काल-चक्र को दूर से देख पाने में अक्षम है, जिस प्रकार हर कोई फव्वारे को दूर से देख एक एक बूँद को उसके मुख से ऊपर, किसी सीमा तक उठ, कई धाराओं में बंट, फिर से नीचे गिरते हुए देख पाता है... किन्तु केवल फव्वारे के मुंह से सीधे ऊपर उठती धारा में बचपन में स्कूल में हमने पिंग-पोंग की गेंद को आराम से बैठे देखा, नादबिन्दू विष्णु के शेषनाग पर लेटे हुए जैसे :)...

'माया जगत' से सम्बंधित व्यक्तियों समान', 'मीडिया' से सम्बंधित सभी 'माया' में फंसे उस से अछूते कैसे रह सकते हैं ???

Arun sathi said...

दिव्या जी, इसमें प्रश्नवाचक लगाने की जरूरत नहीं है, ऐसा हो गया है और इससे सभी वाकिफ भी है।

फिर भी आपने एक सशक्त सवाल उठाया। आभार।

Unknown said...

मीडिया का बाजारीकरण जारी है. प्रोडक्ट की तरह जितना विज्ञापन उतना बिकाऊ. तिल का ताड़ बनाना और ताड़ को तिल भी न आकना मीडिया के बिकौपन का उदहारण है . बार-बार एक ही चीज़ को दिन भर दिखाना और किसी भी घटना-दुर्घटना को अंजाम तक न दिखाना क्या है ? अगर मीडिया भी स्वतंत्रता छोड़ तलुए चाटने प् आमदा हो जाएगी सरकारों के सच और झूठे विज्ञापन दिखाएगी तो किस पर विस्वास किया जायेगा ये सोचने का विषय है. पहले हम-पहले हम की होड़ घटना की गरिमा को कम करके आकना है . कुछ पत्रकार निस्पक्छ बात करते है उन्हें चिन्हित कर देखता हूँ और सबको राय दूंगा वो भी ऐसा करे चैनल का बहिस्कार ही इनका दंड है.. भगवान् बचाए जब सच ही सामने न आये तो कोई क्या करे ..

Smart Indian said...

जब व्यवसाय का उद्देश्य केवल धनार्जन (या शक्ति का दुरुपयोग) रह जाये तो यह बुरी स्थिति है परंतु यह केवल मीडिया के साथ नहीं है। ग़लत लोग जिस किसी व्यवसाय से जुडे हों वहाँ दुरुपयोग ही करते हैं। अच्छे लोग जहाँ भी हैं अच्छे ही हैं।

जयकृष्ण राय तुषार said...

अद्भुत और सराहनीय आलेख बहुत बहुत बधाई और शुभकामनायें |

JC said...

दिव्या जी, क्षमा प्रार्थी हूँ हर टिप्पणी लम्बी हो जाती है और किसी के पास आज टाइम नहीं है, केवल चूहे दौड़ में भाग लेने के अतिरिक्त, क्यूंकि 'मेरे से आपकी कमीज़ अधिक सफ़ेद कैसे है'?!

अपनी टिप्पणी में लिखना चाहा था 'गंगाधर शिव' किन्तु कुछ और ही लिखा गया... उनको 'चंद्रशेखर' भी कहलाया जाना (तस्वीरों में शिव के मस्तक पर चन्द्रमा और पवित्र गंगा नदी का भी दर्शाया जाना) पुष्टि करता है पृथ्वी से आशय होना योगियों का संकेतों द्वारा,,, और जिनके शरीर में श्मशान की राख से अर्थ पृथ्वी की सतही धूल से है, और हिमालयी जंगल में वर्तमान में भी उपलब्ध लताओं, वृक्ष आदि उनकी 'जटा जूट' से !

किन्तु मीडिया द्वारा ही हमें पता चला था कि 'राम की गंगा मैली हो गयी है' और गंगा का स्रोत 'गोमुख' तीव्र गति से पीछे सरकता जा रहा है, और आम आदमी वैसे ही 'फिडल' बजा रहा जैसे तथाकथित रोमन राजा नेरो बजा रहा था जब रोम जल रहा था...:)

Gyan Darpan said...

सही मुद्दे पर सटीक चर्चा।
सरकारी विज्ञापन रूपी हड्डी ने मिडिया को निष्पक्ष नहीं रहने दिया|

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) said...

क्या उपभोक्तावाद एक प्रमुख कारक नहीं है ?

Bharat Swabhiman Dal said...

आज मीडिया का व्यवसायीकरण हो चुका है तो वह पथभ्रष्ट तो होगा ही । आज मीडिया को अपने दायित्व निर्वाहन से अधिक trp और आर्थिक लाभ की चिन्ता है ।
सही तथा सार्थक लेख ...... आभार ।

Asha Joglekar said...

क्या हमारी मीडिया किसी प्रकार से मजबूर है ? मजबूर है ज्यादा से ज्यादा धन कमाने के लालच से टी आर पी बढाने की होड से । टाइम्सनाउ जैसे कुछ चैनल समस्याओं की तरफ ध्यान तो खींच रहे हैं ।पर आपका कहनास ही है कि जो कुछ सकारत्मक होर हा है उस पर भी ध्यान आकृष्ट करना जरूरी है । ताकि लोगों में सकरात्मक कार्यों की तरफ रुचि बढे । आत्मविश्वास और देशाभिमान जागृत हो ।

Unknown said...

मीडिया अपने कर्तव्य निर्वहन से चुक रहा है, जनता का विरोध ही उसे मार्ग प्रदर्शित करेगा।

मनोज कुमार said...

गहन विवेचनापूर्ण आलेख।
असहमति की गुंजाइश ही नहीं है।

दिवस said...

ओह, आपने तो दुखती रग पर हाथ रख दिया|
बहुत पीड़ा दी है इस मीडिया ने| कराह कर रह जाते हैं जब यह मीडिया यह खबर दिखता है "बाबा का पाखण्ड", "व्यापारी बाबा", "राजनेता बाबा" आदि आदि|
इसी मीडिया के कारण आज हमे भारत के सबसे निकृष्ट एवं धूर्त लोगों की दासता को झेलना पड़ रहा है|
बहुत पीड़ा होती है, जब इस देश के स्वाभिमान की रक्षा के लिए हम लाठियां खाते हैं और मीडिया हमे दंगाई बताता है| अभी तक भारत की जनता का एक बहुत बड़ा वर्ग हमें असामाजिक तत्व ही समझ रहा है| ऐसे में पीड़ा होना स्वाभाविक है दीदी|
कोई माने या न माने किन्तु मीडिया ने बाबा रामदेव के इस पूरे आन्दोलन को बाबा की एक कुटील राजनीति व हमे दंगाई के रूप में ही दिखाया है|
और केवल बाबा रामदेव का आन्दोलन ही क्यों, मीडिया ने तो पग पग पर इस देश के साथ घात ही किया है| कहने को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ मीडिया ने इस स्तम्भ की गरिमा को ही धुल में मिला दिया है|
जिस मीडियाकर्मी में साहस था उसे अथवा उसके चैनल को सरकार द्वारा हाशिये पर धकेल दिया गया| आप जानती ही होंगी, क्या हाल हुआ है चौथी दुनिया नामक चैनल का?
इसके अतिरिक्त आज भी कुछ मीडिया कर्मी हैं जो पूरे दिल से इस राष्ट्र की सेवा करना चाहते हैं, किन्तु व्यापारी भी तो हैं न| अपने व्यापार के लिए सरकार के आगे घुटने टेकने को विवश हैं| इनमे इंडिया टीवी के रजत शर्मा व राजस्थान पत्रिका के सम्पादक गुलाब कोठारी के उदाहरण दिए जा सकते हैं|
आदरणीय मदन शर्मा जी का कथन " शाम को सिर्फ 4 रोटी खाने के लिए भारत माता से गद्दारी क्यों?" बेहद सटीक लगा|
इस मीडिया से मुझे तो एक प्रतिशत भी आशा नहीं है| इसीलिए ब्लॉग के माध्यम से स्वयं मीडिया बनना पड़ रहा है| जब असली मीडिया सरकार का पक्ष रख सकता है तो हम भारत का पक्ष रखेंगे|
प्रस्तुत आलेख के लिए आपका आभार दीदी...

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

+पैसा किसे नहीं चाहिये अथाह पैसा. मीडिया वाले भी इन्सान ही हैं. अब हर कोई गणेश शंकर विद्यार्थी तो नहीं बन सकता...

प्रतुल वशिष्ठ said...

मीडिया की सारी की सारी सकारात्मकता मुझे दिखायी देती है :
— दूरदर्शन के चैनल्स पर - सरकार के कार्यों की भरपूर सराहना .. विकास कार्यों का यशोगान... मंत्री साहब ने नेहरू, इंदिरा, राजीव, सोनिया, राहुल नाम के रोज़गार और गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों का उदघाटन किया.. देश ने टेक्नोलोजी के क्षेत्र में एक और लम्बी छलांग ली - पृथ्वी, अग्नि आदि मिसाइलों का एक और सफल परीक्षण. 'भारत माता की जय' मतलब 'भारत सरकार की जय'.
— विविध न्यूज़ चैनल्स पर और दैनिक अखबारों में ... प्रायोजित विज्ञापन के रूप में 'मायावती' और 'शीला' की प्रादेशिक सरकारें अपने विकास कार्यों का एफएम् प्रसारण जारी रखे हुए हैं.
जितने ऊँचे स्वर सरकार के इन दिनों दिखायी दे रहे हैं.. अपनी आत्मकथा और यशोगान में ... उनकी बनिस्पत तो बेहद कमतर स्वर में ही विरोधी स्वर उठे हैं...
यदि विरोधियों के आज़ के स्वर भी द्वि-आयामी हो गये तो सारी की सारी वर्तमान विरोधी हवा 'अपान-वायु' बनकर ही रह जायेगी. इसलिये उठने दीजिये विरोध के बबूलों को.. मत कहिये कि सकारत्मक भी सोचिये.. सकारात्मक भी बोलिए... अभी आग भड़काने की जरूरत है... जब तक इसमें सम्पूर्ण कलुषता स्वाहा न हो जाये.

JC said...

दिव्या जी, जैसा मैंने पहले भी कहीं कहा था, 'पश्चिम' में आजकल चर्चा 'ग्रैंड डिजाइन' की है जिसे आइनस्टाइन ने भी 'यूनीफाइड फील्ड' कहा था... और यह तो प्राचीन 'हिन्दू' ज्ञानी भी पहले ही ढूंढ चुके थे, और मानव को ब्रह्माण्ड का प्रतिरूप दर्शा चुके थे, और पश्चिम में भी किसी काल विशेष में भी आदमी को भगवान् का प्रतिबिम्ब कहा गया था...
जहाँ तक अपनी समझ में अपनी कथाओं को 'लाइन के बीच' पढ़, जो मानव से जो डिजाइन मानव के ब्रह्माण्ड के प्रतिरूप होने से सम्बंधित है उसका सार 'मैंने' एक अन्य ब्लॉग में टिप्पणी द्वारा प्रस्तुत किया... उसे मैं आपकी सूचना के लिए नीचे दे रहा हूँ...

जैसा प्राचीन योगियों ने 'महाभारत' की कथा और भागवद गीता आदि द्वारा दर्शाया, राजा द्योतक है सूर्य का (जिसे हमारी अनंत ब्रह्मांड में अनंत गैलेक्सियों में सर्वश्रेष्ट गैलेक्सी का निराकार केंद्र, सर्वगुण संपन्न विष्णु का द्वापरयुग में प्रतिनिधि कृष्ण, प्रकाशमान करता है) और उसी श्रंखला में राजा के ऊपर निर्भर अन्य दरबारी सौर-मंडल के अन्य सदस्यों का... जिनमें पुरोहित यदि एक है तो वो बृहस्पति और शुक्र ग्रह दोनों का, आध्यात्मिक और भौतिक विषय का, ज्ञाता (सिद्ध) होना आवश्यक है...

किन्तु योगियों ने काल के स्वभाव पर गहराई में जा यह भी जाना कि हर व्यक्ति में यद्यपि सौर-मंडल के ९ सदस्यों का सार है, जिनके माध्यम से हर व्यक्ति में हर ग्रह से सम्बंधित ज्ञान तो ८ चक्रों में बराबर बराबर भंडारित है, यानि कुल ज्ञान तो हरेक व्यक्ति में उपलब्ध तो है, किन्तु उसके उपयोग की सीमा (उच्च और निम्न) युग विशेष पर तो आधारित है ही किन्तु किसी क्षण विशेष में भी हर व्यक्ति में भिन्न है...जिस कारण प्रकृति में व्याप्त विविधता मानव के माध्यम से भी प्रदर्शित होती है...

वर्तमान कलियुग (कृष्ण / काली यानि अन्धकारमय, अर्थात निम्नतम ज्ञान का युग है, जिस कारण हर व्यक्ति भिन्न भिन्न निर्णय पर पहुंचना संभव है...और यह प्राकृतिक ही होगा क्यूंकि छोटे से छोटे विषय पर भी मानव समाज तीन भाग में बँट जाता है - कुछ समर्थक तो कुछ विरोधक और शेष न इधर न उधर...

DR. ANWER JAMAL said...

मीडिया में बैठे हुए लोगों जैसे ही हैं सुरक्षा बलों में खड़े हुए लोग। ये लोग भी कम ग़ज़ब नहीं ढाते हैं। इनमें से कुछ तो विदेशी आतंकवादियों से भी ज़्यादा दहशत वाले काम कर देते हैं। एक गूंगी बहरी लड़की के साथ बलात्कार कर डाला और हमारी इस नई पोस्ट के लिए जब हम गूगल में फ़ोटो ढूंढ रहे थे तो भारतीय नारियों को बिल्कुल नंगा खड़े देखा इस पवित्र धरती पर। जब उस पोस्ट पर पहुंचे तो वहां भारतीय रक्षकों का एक और काला कारनामा नज़र आया। उस फ़ोटो को तो हम अपने ब्लॉग पर नहीं दे सके लेकिन उसका लिंक ‘शर्मनाक घटनाएं‘ में लगा दिया है।
अब आप बताइये कि क्या बीएसएफ़ और सेना के जवान भी नहीं भटक रहे हैं ?
क्या भारतीय नारी भी नहीं भटक गई है ?
इन पर मौन मत रहिए आप।
आप बोलती हैं तो एक ज़माना सुनता है।

शुक्रिया !
समलैंगिकता और बलात्कार की घटनाएं क्यों अंजाम देते हैं जवान ? Rape

JC said...

पुनश्च,

सांकेतिक भाषा में योगियों द्वारा, 'सूर्य पुत्र', शनि ग्रह, के सार को मानव शरीर में स्नायु तंत्र द्वारा प्रतिबिम्बित जाना गया, जिसके अंतर्गत सूचना को मूलाधार (अथवा मंगल ग्रह का सार मूल में, गणेश, हनुमान) और सहस्रार (चन्द्रमा का सार मस्तिष्क में, विष्णु का अमृतदायी मोहिनी रूप) चक्रों के बीच उपलब्ध कराई गयी सूचना को ऊपर अथवा नीचे ले जाना माना गया (फव्वारे के मुंह से निकले जल समान)... अर्थात मीडिया से सम्बंधित व्यक्ति शनि ग्रह के काम को प्रतिबिंबित कर रहे हैं, और वर्तमान घोर कलियुग होने के कारण उनसे सतयुग को प्रतिबिंबित करने की चाह ही त्रुटी पूर्ण है...
किन्तु कहावत है, "जहां न पहुँच रवि / वहां पहुंचे कवि", यानि हर व्यक्ति परम सत्य की अनुभूति अंतर्मुख हो कर सकता है! किन्तु उसके लिए तपस्या / साधना करनी आवश्यक है...

और हर व्यक्ति आज कहते सुनाई देगा कि उसके पास टाइम ही नहीं है (टीवी के 'फालतू प्रोग्राम' के लिए पता नहीं कैसे टाइम निकाल पाते हैं? :) तुलसीदास जी भी कह गए 'जाकी रही भावना जैसी / प्रभु मूरत तिन देखि तैसी' और 'भारत; में तो मूसक से हाथी तक सभी पूजे चले आ रहे हैं, किन्तु काल के प्रभाव से 'हम' भूल गए कि सभी साकार केवल एक ही निराकार के प्रतिबिम्ब जाने गए हैं, इस कारण अभिप्राय केवल उस अदृश्य, योगेश्वर विष्णु/ शिव, तक पहुँचने का था...

आचार्य परशुराम राय said...

मीडिया के प्रति आपके उद्गार बड़े ही सकारात्मक हैं। लेकिन क्या किया जाय नम्बर वन बनने की होड़ में धीरे-धीरे भ्रष्टाचार अपना पाँव पसारने लगा है। साधुवाद।

आचार्य परशुराम राय said...

मीडिया के प्रति आपके उद्गार बड़े ही सकारात्मक हैं। लेकिन क्या किया जाय नम्बर वन बनने की होड़ में मीडिया के लोग भी भ्रष्टाचार बड़े चाव से अपनाने लगे हैं और इसी का परिणाम है जो आपको व्यथित करता है और इस प्रकार सोचने को मजबूर करता है। आभार।

Rajesh Kumari said...

Divya ji bahut dino baad aapki post padh rahi hoon.injaar bhi kar rahi thi.phir ek logon ki chetna jagata hua lekh.bahut achcha topic.sabhi ke mano ka prashn.media hi kanhaan bach payegi koylon ki dalali se.jo sach bolte hain kuch samay baad apna kaha hua hi ulta kar dete hain.isse to yahi samajh me aata hai ki media bhi paison aur sattadhariyon ki jajeeron me bandhi hai.any way..great article as always.god bless you.

Arunesh c dave said...

मीडिया और सत्ता इसके बीच का संतुलन बड़ा अजीब होता है खैर अब हमारे देश मे मीडीया नही कार्पोरेट मीडीया है

अजय कुमार said...

चौथा खंभा अब बिजनेस की इमारत बन गया है

Dr.Ashutosh Mishra "Ashu" said...

sochne ke liye vivash karta hai yeh lekh..media ko mirror hona chahiye..yeh kabhi to concave aur kabhi convex lens ban jaata hai..

JC said...

पृथ्वी और अन्य ग्रह आदि पिंड सब एक पैर वाले हैं, यानि उनके प्रतिरूप वृक्ष समान 'एक पदा' है,,, जैसे अंतरिक्ष के शून्य में पृथ्वी एक बिन्दू पर घूम रही है जिसे 'दक्षिण ध्रुव' कहते हैं... और 'हिन्दू' ने सांकेतिक भाषा में पृथ्वी को विष्णु के कूर्मावतार की सख्त पीठ पर थमे हुआ बताया...

दक्षिण ध्रुव पर यानि एंटार्कटिका पर दृष्टि पात करें तो पायेंगे कि उत्तरी ध्रुव में उपस्थित सागर के स्थान पर यह स्थान उठा हुआ है और कछुवे के आकार का दिखाई पड़ता है! और उत्तरी गोलार्ध में उत्तरी अमेरिका गरुड़ के आकार का प्रतीत होता है, जिस पक्षी को विष्णु का वाहन माना जाता है, जो 'आकाश' से अपनी पैनी दृष्टि से पृथ्वी पर नज़र रखता प्रतीत होता है (सूर्य और चन्द्र के प्रतिरूप समान)! और दूसरी ओर दक्षिण गोलार्ध में ऑस्ट्रेलिया बैल के सर के समान, जबकि नंदी बैल को धरा पर शिव का वाहन माना जाता है :)

प्राचीन 'हिन्दुओं' ने यूं प्रतीत होता है प्रकृति द्वारा साकार रूपों में छोड़े गए संकेतों के माध्यम से निराकार सृष्टिकर्ता नादबिन्दू तक पहुँचने में अनेक प्रयास किये :)

एक अद्भुद डिजाइन देखा मगरमच्छ में; कूर्म यानि कछुवे में; वराह में; सिंह मे; और मानव में शक्तिशाली वामन अवतार में; कुल्हाड़ी वाले परशुराम में; (सूर्य के प्रतिरूप) धनुर्धर राम में, और सुदर्शन-चक्र धारी कृष्ण में (गैलेक्सी के प्रतिरूप)!

किन्तु काल-चक्र को उल्टा चलते जाने, जिस कारण मति-भ्रम सा प्रतीत होता है, और सभी को अज्ञानी प्रतीत होते हुए भी आम आदमी आनंद उठाने के स्थान पर दोष मानव में ही ढूंढ रहा है, यद्यपि सब यह भी जानते हैं कि विचार मानव के नियंत्रण में हैं ही नहीं...

जिस कारण किसी के भी कर्म के लिए कोई एक या अनेक अन्य अदृश्य शक्ति उसके द्वारा किये गए कर्म के लिए जिम्मेवार हो सकते हैं (जैसा हिन्दू ने सोचा, और 'कृष्ण' पर आत्म-समर्पण कर दिए और कह गए "...जो आज करना है अब करले/ पल में प्रलय होएगी, बहुरि करोगे कब? :)

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

मीडिया तो मसाला चाहिए ताकि उसकी टी आर पी बढ सके। उसे उसी मुद्दों में दिलचस्पी होती है॥

Rohit Singh said...

दिव्या जी ..नमस्कार....बड़े दिन बाद आना हुआ है..कई कामो से व्यस्त था..हालाँकि ब्लॉग लिख रहा था...पैर पोस्ट पद नहीं पा रहा था किसीकी ....लिखना तो सुरु करना ही था...आपकी पोस्ट पर आना तो बढिया रहा...कुछ जायदा तो नहीं कहूँगा...कियोंकि मीडिया और सोसाइटी पैर में लास्ट इयर ६ पोस्ट लिख चूका हु...(http://boletobindas.blogspot.com/2010/04/indian-media-१..लोग चाहें तो देख सकते है...आपने बात की तह तक जाने के कोशिश की है....पर अगर कुछ और दीप में जाती तो शयद जान पाती की मीडिया कितना आतम मंथन के दौर से गुजर रहा है...दुःख सिर्फ एक बात का है की जायदा तर कमेन्ट नकारात्मक हैं.....मीडिया के सही तस्वीर काफी हद तक पपली लाइव में भी दिखी थी...सरकार की नीती के कारण जब २०० करोड़ से कम में चैनल नहीं खुलता...और उसे रन करने के लिए २० करोड़ की जर्रूरत साल में पड़ती है तो ..आप समज सकती हैं की एक पत्रकार कुछ नहीं कर सकता....न्यूज़ चैनल विज्ञापन पर निर्भर है...१२ साल पहले १०० फीसदी अब ८६ फीसदी...यानी १२ साल में सिर्फ १४ फीसदी जनता न्यूज़ चैनल देखती है ....ऐसे में खर्चा कहा से निकलेगा......दूसरी बात यह है की ...मीडिया परिमे टाइम में गंगा ,,,, रैन एक्सिडेंट पर ममता बेनर्जी के खिलाफ...न्यू मंत्री मंडल पैर सरकार की खिचाई पूरी थर से कर चूका है..लोग जाने कियों याद नहीं रखते...लोग ६ रुपये की सिगरते मिनट में पी लेते हैं...पैर ४ रुपए का अखबार नहीं खरीदते... में खुद डेली दानिक देनिक पेपर निकल कर झेल चूका हूँ...हाँ यह बात ठीक है की मीडिया पर दवाब है.....आखिर सोसाइटी से ही तो लोग आते है...मीडिया में....खेर बाकि फिर कभी.....

JC said...

boletobindas जी ने मीडिया का पक्ष रखा है...

निष्कर्ष शायद यही निकलता है कि सभी लाचार हैं, क्या राजा क्या प्रजा,,, कहीं भी किसी भी क्षेत्र से सम्बंधित क्यों न हों... हर क्षेत्र में अनंत प्रश्न हैं किन्तु उत्तर एक का भी नहीं, किन्तु (अज्ञानतावश) दोष एक दूसरे पर सभी मढ़ रहे हैं... जैसा रोहित जी (?) ने भी आपको 'डीप' में जाने को कहा, यह तो निश्चित है कि कोई भी गहराई में नहीं जाना चाहता, अथवा नहीं जा सकता क्यूंकि उसके पास टाइम नहीं है गहराई में जाने के लिए (ब्लॉग में लिखने के लिए निकाल लेते हैं 'हम' सभी किन्तु)!

तुलसीदास जी भी 'राम' को ढूंढ नहीं पाते यदि उनकी धर्मपत्नी उनको धिक्कारती नहीं भौतिक सुख में आसक्ति के कारण अपना कीमती समय नष्ट करते... कहावत भी है, कुछ इस प्रकार कि, 'भार्या नाव है भवसागर को पार कराने में' (अर्थात मुक्ति दिलाने में :)...

Khare A said...

kash media is bat ko samjhe!, lekin mere hisab se ye sab bhirasht vyavastha ka hi khel hai!

BK Chowla, said...

India media has completly bent backwardstrying to please congress

जीवन और जगत said...

मीडिया के भी कई प्रकार हो गये हैं। आज इले‍क्‍ट्रानिक मीडिया की पहुँच कहीं ज्‍यादा है। दूर दराज के स्‍थानों में जहां अखबार समय पर नहीं पहुँच सकता, वहां भी टीवी पर लोग समाचार चैनलों के माध्‍यम से खबरें देख-सुन सकते हैं। लेकिन यही इलेक्‍ट्रानिक मीडिया अब अपने आप खबरें पैदा कर रहा है और उन्‍हें जनता को परोस रहा है। जिस मीडिया को देश व समाज के पथप्रदर्शक का काम करना चाहिये, वह आज बाजारीकरण की चकाचौंध रोशनी में खुद अंधा हो रहा है। सार्थक खबरों के बजाय तांत्रिकों, बाबाओं, ज्‍योतिषि-चर्चाओं आदि का चैनलों पर बोलबाला रहता है। अभी कुछ दिन पहले एक चैनल पर एक ज्‍योतिषाचार्य का प्रोग्राम देखा जिसमें बताया जा रहा था कि यदि अपने बच्‍चे को डॉक्‍टर बनाना चाहते हैं तो उसे प्रतिदिन अमुक समय से अमुक समय के बीच एक लाल मिर्च खिलाना शुरू करें, बच्‍चा अवश्‍य ही डॉक्‍टर बनेगा। लेकिन कुछ दोष समाचार दर्शकों का भी है। हम चटपटी मसालेदार खबरों को पढ़ने में ज्‍यादा ध्‍यान देते हैं। हमारा ब्‍लॉगजगत ही इसका एक उदाहरण है जहॉं भडकीले, विवादित, अश्‍लील पोस्‍टों को ज्‍यादा क्लिक किया जाता है।

सुज्ञ said...

boletobindas जी नें भी मीडिया का पक्ष रखते हुए भी बात तो आखिर धन-दबाव की ही की है। बात तो वहीं की वहीं है कि लोकतंत्र के प्रति जिम्मेदारियों पर धन-प्रभाव हावी है।

boletobindas जी इस सामन्यकरण से सहमत नहीं कि-"आखिर सोसाइटी से ही तो लोग आते है." सभी कदाचार समाज से ही आते है। इसका यह अर्थ नहीं कि उन्हे सामान्य बुराई मानकर स्वीकार कर लिया जाय। जिसके हिस्से जितनी गम्भीर जिम्मेदारी होती है उससे उतने ही अधिक सदाचार और कर्तव्य पालन की अपेक्षा की जाती है। और जागरूक जन द्वारा की भी जानी चाहिए।

Anonymous said...

जी हाँ - यह एक बहुत ही गंभीर मुद्दा है - हमारी मीडिया निष्पक्ष नहीं है | कई बातें हैं - -

एक तो यह कि - जब इतनी सारी न्यूज़ चेनल हैं - तो क्यों हैं? हम कहते हैं कि कोई न्यूज़ नहीं दिखाते - तो किस तरह की न्यूज़ देखना चाहते हैं हम? एक्सिदेंट्स के बारे में, स्केम्स के बारे में, रेप्स, मर्डर्स के बारे में?

यदि चेनल पर किसी पति पत्नी की लड़ाई या कि राखी सावंत, या द्विअर्थी बातों के प्रोग्राम, या कुछ सनसनीखेज़ समाचार आये - तो हम देखते हैं - नहीं तो चॅनल बदलते हैं | वहां भी मोनिटरिंग चलती है कि किस तरह के प्रोग्राम देखे जाते हैं - तो कुछ दिन बाद चॅनल भी जान जाती है कि क्या परोसना है दर्शकों की थाली में |

यदि सच में कोई चेनल किसी स्केम का पर्दाफाश करती है तो हम सिटीजंस क्या करते हैं? यदि यह हो कि शहीदों के परिवारों के लिए बने फ्लेट्स किसी और को दे दिए गए-तो हम "च च" कहते हैं और भूल जाते हैं , और यदि "बॉस ने महिला कर्मचारी का यौन शोषण किया" जैसी हेड लाइन हो - तो लोग चटखारे ले कर देखते हैं |

हमारी कुल जनसँख्या का बहुत ही कम प्रतिशत न्यूज़ देखने के लिए न्यूज़ देखता है - तो जो बिकता है वही दिखाया जाता है | अब बात करें हमारे पोलिटिक्स से सम्बंधित न्यूज़ की - तो क्या दिखाएँ और किसे दिखाएँ ? सब ही तो करीब करीब एक ही थाली के चट्टे बट्टे हैं !!

JC said...

shilpa mehta जी, क्यूंकि 'हम' गुलाम 'भारत' देश में पैदा हुए तो हमें अपने 'होश सम्हालने' के बाद दिल्ली शहर में ही केवल ६ दशक में ही आये आश्चर्यजनक परिवर्तन देखने को मिला है...

तब हमारे घर में जो रेडिओ आया वो आजकल के टीवी के बराबर बड़ा था और 'आम आदमी' तब सोच भी नहीं सकता था रेडीओ खरीदने का... हमारे सरकारी मोहल्ले में शायद कुल ३६ घरों में से दो के पास ही था रेडिओ! प्रथम प्रधान मंत्री, जवाहर लाल, के आज प्रसिद्द ऐतिहासिक भाषण को सुनने के लिए हमारा रेडियो घर के बाहर अतिरिक्त तारें जोड़ जोड़ कर मैदान में रखा गया और रात १२ बजे मोहल्ले वालों ने एकत्रित हो सुना!...

तब जोश था 'आज़ादी' का, तिरंगे को सलामी का...आदि आदि...

"आवश्यकता आविष्कार की जननी है", जिस कारण आज आपके क्षेत्र में हुए (अधिकतर पश्चिम में) अनुसंधान के कारण कम से कम शहरों में तो हरेक के पास ट्रांज़िसस्टर है जिसे बगल में लटकाए घूमा जा सकता है... और हमारे जैसे मध्य वर्ग से सम्बंधित तो इन्टरनेट पर, प्रिंट मीडिया से दुखी हो,'ब्लॉग मालिक' हो गए हैं,,, और मीडिया समान वैसा ही भोजन हम भी परोस रहे हैं और एक दूसरे की टांग खींच रहे हैं इतिहास अर्थात भूत के कारण...

'द्वैतवाद' के कारण एक कहता है वो 'आस्तिक' है तो दूसरा कहता है वो 'नास्तिक' क्यूंकि भगत सिंह भी नास्तिक था! आदि आदि जिनसे 'देश' को अथवा 'संसार' का कुछ भी लाभ नहीं होने वाला! आप कितना भी आपस ही में लड़ाई कर लो, होना तो वो ही जो भगवान् को, अथवा प्रकृति को मंज़ूर है (यदि आप 'नास्तिक' हैं तो)...

वैसे 'हिन्दू' कह गए कि जो 'आप' को दिख रहा है वो वास्तव में किसी अदृश्य शक्ति के मन के विचार हैं जैसे वो आरम्भ में थे, अपरिपक्व, जब प्रकृति की उत्पत्ति अभी अभी आरम्भ हुई थी जिस कारण 'आप' को 'विष' दिखाई पड़ रहा है चारों ओर, और न कि अमृत जैसा उत्पत्ति के अंत में संभव हो पाया था जो आज हमारे लिए असंभव है... किन्तु उस कि अनुभूति संभव है यदि आप रील को रिवाइंड करना जानें, यानि अंतर्मुखी हो शून्य में जा केवल प्रकृति को ही अपना काम करने दें, और बाहिर के प्रदूषित वातावरण से विचलित न हों, क्यूंकि आप उसी अदृश्य शक्ति के मॉडल हो,,, स्वयं भी जीयो और अन्य 'प्रतिबिम्बों' को भी जीने, और परमानन्द उठाने, दो :)...

Bikram said...

so very true the media in our country has gone to the dogs its all about how to make money and how to be on top..
Do i trust my media NO is the answer .. in this mad rush to accumulate ratings they have forgotten the basic things that a media is known for..

It is a comedy show when watching the Television programs namely aajtak and other NEWS channels suppsoedly .. I have stopped watching them ..

but it does not matter if you or me stop watching...
lovely post :)

Bikram's

Pahal a milestone said...

हमारी मीडिया आज पूरी तरह से अपने नियम कानूनों को भूल चुकी हे और आज की मीडिया मीडिया अब नाम की मीडिया रह गयी हे. अब तो पुलिस और मीडिया का अंतर भी ख़तम होता नजर आ रहा है .

amit kumar srivastava said...

you simply trigger a issue so intelligently that it itself unfurls its pros and cons.

valuable exchange of comments.

JC said...

अमित जी के शब्दों से मुझे अपने ही बोले शब्द याद आगये... तब मेरी लड़की दसवीं या ग्यारहवीं में रही होगी, वो त्रिगोनोमीट्रि के कुछ प्रश्न जो उसको कठिन लगते थे मेरे से पूछने आती थी तो मैं उन्हें आसानी से कर देता था... उसने एक दिन कहा, "पापा आपको यह विषय पढ़े ३० वर्ष हो गए होंगे फिर भी आपको कैसे याद रहते हैं?"

मेरा उत्तर था कि जब में सातवीं कक्षा में गया था तब छटी कक्षा के मेरे एक दोस्त ने ग्रीष्म अवकाश के आरम्भ में, जब में उसके घर खेलने गया, तो उसे गणित के प्रश्न करते देखा... उसने कहा कि यदि वो प्रश्न के उत्तर अभी निकाल लेगा तो जब स्कूल खुलेगा तो विषय कठिन नहीं लगेगा! और उससे प्रेरित हो मैं भी अपनी गणित की नयी पुस्तक के प्रश्न उसके साथ ही बैठ करने लगा... इस कारण जब स्कूल खुले तो गणित से भय हट गया और आनंद आने लगा :) अब जब नवीं आदि कक्षा के प्रश्न देखता हूँ तो मुझे ऐसा लगता है जैसे वो, (गुप्त चित्र), स्वयं मुझे बताते थे उन्हें कैसे करना है :)

JC said...

इसे आप संयोग कहेंगे और 'मैं' डिजाइन कि मुझे सत्तर के दशक में प्रशिक्षण मिला तत्कालीन बड़े आकार के कंप्यूटर के उपयोग का,,, और जिसके उपयोग में आने वाली कठिनाई के कारण, फिर अस्सी के दशक में, प्रकृति में निरंतर होने वाले परिवर्तन के कारण 'यूज़र फ्रेंडली पीसी' के उपयोग का भी... और मुख्यतः 'मैंने' जाना मशीन और मानव के बीच समानता का (और समझ पाया क्यूँ कृष्ण ने अर्जुन को कहा कि वो एक मशीन था!), कि मानव का मस्तिष्क एक सुपर कंप्यूटर है तो सही, किन्तु 'कलियुग' अथवा 'कलयुग' होने के कारण 'हिन्दुओं' के अनुसार इसकी उच्चतम कार्य क्षमता केवल २५% है, जबकि न्यूनतम तो शून्य ही है,,, और आधुनिक विज्ञानं के अनुसार भी 'सबसे बुद्धिमान व्यक्ति' भी केवल नगण्य सेल का उपयोग कर पाता है यद्यपि हरेक के मस्तिष्क में अरबों सेल हैं... कंप्यूटर में भी सांकेतिक भाषा, 'एल्फा न्यूमेरिक सिम्बल' और ग्राफिक, के उपयोग से, और मशीन द्वारा उन्हें केवल संख्या '०' और '१' उपयोग कर सेटेलाईट कि सहायता से संसार में कहीं भी पहुँचाया और कंप्यूटर द्वारा देखा जा सकता है...

किसी ने तब कहा था जब कंप्यूटर नहीं आये थे और केवल कागज़ पर सूचना टंकण के लिए ही मशीनें होतीं थीं, कि यदि मशीनें बंदरों को पकड़ा दी जाएँ तो शायद उनमें से कोई शेकस्पीयर बन जाए...

JC said...

जो 'हिन्दू' कह गये, उस के अनुसार 'परम ज्ञान' मानव शरीर में जन्म से ही, कुल मिला कर आठ चक्रों में, भंडारित है,,, और, फिर सीमित जीवन काल में उतना ही ज्ञान, 'बहिर्मुखी' होने के कारण, अर्जित होता प्रतीत होता है जो व्यक्ति विशेष की प्रकृति पर निर्भर करता है, और काल के अनुसार भी क्योंकि हर युग की अपनी अपनी उच्चतम और न्यूनतम सीमा है ज्ञान ग्रहण करने की...

फिर भी भगवान् का रूप होने के कारण 'अंतर्मुखी' हो कोई भी - (जैसा योगेश्वर कृष्ण ने गीता में कहा, और मान्यता भी है कि 'यथा पिंडे तथा ब्रह्मांडे') - 'तपस्या'/ 'साधना' द्वारा परम सत्य की अनुभूति कुछ हद तक तो कर ही सकता है अपने ही मन में कोई भी युग क्यूँ न हो... किन्तु उसके लिए स्थित्प्रग्य होना आवश्यक है, हर हालात में एक सा बर्ताव...

जब कलियुग के कारण 'आम आदमी' इधर से उधर भटकता प्रतीत हो रहा है, वो किसी भी क्षेत्र से सम्बंधित है तो यह वैसा ही है जैसे आप चैनेल बदलते रह जाते हो, अथवा अपने देवी-देवता बदलते, कस्तूरी मृग समान भटकते, और जो आपके भीतर ही उपस्थित है उसको नकारते, तो कैसे उसके साथ सम्बन्ध बना पाओगे - चर्चा कर सकोगे ???

Anonymous said...

जे सी जी - मैं कुछ समझ नहीं पायी कि आप मुझसे क्या कह गए ? द्वैत और आस्तिकता - और इस विषय - का क्या सम्बन्ध है?

JC said...

क्षमा प्रार्थी हूँ कहते कि कभी भी समझ नहीं आ सकता यदि कोई दांये-बांये न देख आँखों के बाजू में पट्टे लगे घोड़े के समान केवल 'मीडिया' के भटकने की बात करें,,, और उस में 'भलाई' को नकार 'द्वैतवाद' के कारण 'हम' केवल दोष निकालते चले जायें...

दोष किस में नहीं है? और, इस को नज़र अंदाज करदें कि किसी भी क्षेत्र में जितने भी इलेक्ट्रोनिक्स के क्षेत्र में आविष्कार मानव हित में हुए है, किन्तु कुछ भी सही नहीं चल रहा प्रतीत होता है और मानसिक द्वन्द चलता ही आ रहा है...

अब मीडिया कि तरफ से बोलें तो वो क्या करे यदि वे बताएं कुछ मोबाईल टावर गैर क़ानूनी हैं, और उनसे ऊर्जा विकिरण के कारण मानव स्वास्थ्य पर बुरा असर हो रहा है या होना संभव है,,, और कुछ के अनुसार मोबाईल के अत्यधिक उपयोग से कान के पीछे केंसर तक संभव है, जैसा मेरे एक मित्र के ओपरेशन के समय कहा गया... तथाकथित 'द्वैतवाद' के कारण यद्यपि कुछ एक्सपर्ट कहते हैं यह 'सही' तो कुछ कहते हैं 'सही नहीं' है... आदि आदि...

किन्तु संसार की सेहत पिछले कुछ ही वर्षों में अत्यंत नाज़ुक प्रतीत हो रही है और यहाँ भी कुछ वैज्ञानिक कहते हैं कुछ नहीं होगा तो दूसरी ओर कुछ वैज्ञानिक ही कह रहे हैं कि प्रलय निकट ही है यदि सब देशों ने मिलजुल के कोई उपाय नहीं ढूंढें और उन पर कार्यान्वयन भी सभी के द्ववारा न हो ...

'आम आदमी' क्या करे? यदि उसको हर विषय में दो पक्ष मिलते जाएँ एक 'बुरा', एक 'भला', जिसे कोई भी विज्ञान का विद्यार्थी आँख बंद कर कह सकता है कि यह प्राकृतिक होना चाहिए (किन्तु वो नहीं कहता!)... किन्तु 'हिन्दू' कह गए कि यह माया के कारण है, जगत ही मिथ्या है :)

क्या आप 'माया' क्या है जानना न चाहेंगे 'हिन्दू' होते हुए भी?
नहीं! तो फिर 'मेरी' टिप्पणी को अनदेखा कर दें... दिव्या जी ने भी कहा आप लिखो,जिसे पढना होगा वो पढ़ लेगा :)

अजित गुप्ता का कोना said...

मीडिया आज केवल नकारात्‍मकता से पैसा कमाने का जरिया बन गयी है। पहले एक शब्‍द प्रयोग में आता था पीत पत्रकारिता्, लेकिन अब सम्‍पूर्ण मीडिया ही इसका शिकार है। मुझे तो अब इनपर कुछ भी लिखने का मन नहीं करता।

प्रतुल वशिष्ठ said...

अजित जी से सहमती प्रकट करते हुए अपनी बात कहता हूँ...
मीडिया तो नाम मात्र की रह गयी है ... असल में मीडिया-धर्म तो मीडिया से बाहर के लोग अच्छा निभा रहे हैं.
आज मीडिया शब्द 'कैमरे, माइक, डिश वाहन और बक-बक करने वाले संवाददाता' से पहचाना जाता है.
'मीडिया' संबोधन प्योर बॉडी से रंगे हुए पेपर के लिये भी दिया जाता है... किन्तु मीडिया-धर्म तो कुछ लोग ही निभाते दिखायी देते हैं.. यथा : बेबाक राय देने वाले... निर्भीकता से सत्य को कहने वाले... बिना लाग-लपेट के सीधे-सीधे नामों के साथ खबर देने वाले.. मुझे इस दृष्टि से सुरेश चिपुलूनकर का नाम लेने में कोई हिचक नहीं है...
ब्लॉग-जगत भी काफी हद तक मीडिया-धर्म निभाता दिखायी देता है.

prerna argal said...

mediya bhi sach kahane se katrati hai.yah bhi aek business ho gayaa hai,janataa ko brhamit karane main inakaa bada yogdaan hai.bahut achcha lekh.badhaai aapko.

दिवस said...

प्रतुल भाई, पूर्णत: सहमती जताता हूँ आपसे| सुरेश चिपलूनकर जी की निडर लेखनी का मैं बहुत सम्मान करता हूँ| ब्लॉग जगत के तो वे पुराने खिलाड़ी हैं ही, साथ ही स्वतंत्र पत्रकारिता में भी उनका कोई सानी नहीं| आज भी 2G Scam से जुड़े उनके खुलासे ने मारन व मनमोहन सिंह को कटघरे में खडा किया है| जबकि वे कोई पेशेवर पत्रकार नहीं हैं| उज्जैन में फोटो स्टेट व इंटरनेट कैफे की दूकान चलाने वाले इन राष्ट्रवादी लेखक का मैं ह्रदय से सम्मान करता हूँ|
आज के print व electronic media में उनके जैसे बेबाक पत्रकारों की बहुत आवश्यकता है|

JC said...

'मेरे' लिए तो भाई '०' कृष्ण यानि, हमारी गैलेक्सी का केंद्र है, और '१' सौर मंडल का राजा सूर्य है... जो आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार केंद्र में है और उसके चारों ओर अपनी अपनी कक्षा में कई ग्रह आदि चक्कर काट रहे हैं, जिनमें से सूर्य के सबसे निकट बुद्ध ग्रह, दूसरा शुक्र, और तीसरी हमारी पृथ्वी-चन्द्र की जोड़ी, मंगल ग्रह, छोटे छोटे उपग्रहों का समूह (ऐस्तेरोइड), बृहस्पति ग्रह (शनि समान किन्तु उससे मैले छल्ले वाला ग्रह), और शनि ग्रह (सुंदर छल्लेदार ग्रह, 'रिंग प्लेनेट')... इत्यादि इत्यादि हैं...

हिन्दुओं ने मानव शरीर को सूर्य से शनि तक नौ पिंडों के सार से बना जाना, सूर्य का सार केंद्र में यानि पेट में, शुक्र का गले में, और चन्द्र का मस्तिष्क में, यानि हम अनुमान लगा सकते हैं की हृदय में स्थान बुद्ध का है, और क्यूंकि मंगल के सार को मूलाधार में जाना गया, तो ऐस्तेरोइड का उसके ऊपर और बृहस्पति का पेट के नीचे नाभि स्थान में होगा,,, और शनी ग्रह के सार को जाना गया स्नायु तंत्र के रूप में शक्ति को उपर अथवा नीचे ले जाते... और क्यूंकि हरेक पिंड के केंद्र में संचित शक्ति को '०' का प्रतिरूप माना गया प्रतीत होता है, और '१' से ८ तक हम अनुमान लगा सकते हैं ग्रहों के साकार रूप सूर्य से बृहस्पति में परिवर्तित शक्ति को...

और हिन्दू मान्यता अनुसार 'हम' सब शक्ति रूप में कलियुग के पात्र हैं, भूत के, भूतनाथ का इतिहास दर्शाते मोहरे, उलटी चलती फिल्म की रील के परदे पर चित्र देखते समान, असत्य, राज ठाकरे हो या चिपलूनकर हो या 'राजा' मन मोहन (सूर्य का शायद प्रथम प्रतिरूप, जब उत्पत्ति आरम्भ ही हुई थी ?)...

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

दिव्या जी
मीडिया के बारे में आपका विश्लेषण और आपकी राय शत-प्रतिशत सही है |
लगता है कि लोकतंत्र का चौथा खम्भा भी कहीं न कहीं लोच खा रहा है |

Vivek Jain said...

there is no news channel like media present in India, Only Masala-channels are operating and they just show what they can acquire at cheap rates and sell in the market,
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

JC said...

दिव्या जी, पानी में फेंके गए कंकर से उठती लहरों समान मन में विचार उठ जाते हैं... एक अन्य विचार द्वारा उठी तरंग नीचे दे रहा हूं आपकी सूचनार्थ भी...

माफ़ करना xxxx जी, केवल 'हिन्दू परिवार' में पैदा होने से कोई 'हिन्दू' नहीं हो जाता... मायावी राक्षशों द्वारा प्रभावित कोई भी इतिहासकार आपको नहीं बता सकता कि 'इंदु' यानी चन्द्रमा को क्यूँ (अमृत, अनादि-अनंत) शिव के माथे पर दर्शाया जाता आ रहा है, जो अकेले ही विष पान करने में सक्षम हैं, और इस कारण नील-कंठ कहलाये गए, और वो ही अकेले इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के राजा हैं अनादि काल से... शेष सब तो उनकी माया के प्रभाव से साकार प्रतीत होते अस्थायी प्रतिबिम्ब हैं, जैसा 'हम' को अपना प्रति पल बदलता भिन्न भिन्न चेहरा शीशों में नज़र आता प्रतीत होता आया है जन्म से अब तक, और जो कभी भी किसी भी बहाने से मिटटी में मिलने को तैयार है... आदि आदि...

इतिहासकार को मुट्ठी भर 'पश्चिम दिशा' (शैतान अथवा शनि ग्रह के नियंत्रण वाली दिशा, सार नीला रंग और धातु स्टील जिसको 'मैंने' भी राउरकेला में सन '६१ में बनते देखा) से आते 'मुग़ल', और जल मार्ग से आते 'अँगरेज़' दिखाई दे गए क्यूंकि वो मायावी साकार रूप में थे,,, और मज़ा यह है कि उनके भीतर भी शिव (शक्ति रुपी आत्मा) विराजमान थी, जो केवल 'हिन्दू' योगियों द्वारा 'अंतर्मुखी' हो देखे जाना संभव है... और यद्यपि वर्तमान 'घोर कलियुग' है, जब चारों दिशाओं में विष व्याप्त है, भले ही वो खाद्य पदार्थ हों, जल हो, वायु हो और यहाँ तक कि अधिकतर वर्तमान में आधुनिक 'भारतीयों' के मन हों (ध्रितराष्ट्र के रिश्तेदार?)... अब तो हमारे राजा भी लाचार प्रतीत होने लगे हैं और मुनि समान मौन धारण करना चाहते हैं, क्यूंकि भय है पोल खुल जाने की... गले में स्थान शुक्र का जाना गया है जबकि चन्द्रमा का स्थान माथे में है, जहां योगी ही पहुँच सकते हैं...स्वार्थी राक्षश नहीं...

Kunwar Kusumesh said...

News papers are more crazy about advertisements nowadays.

Anonymous said...

जे सी जी - माफ़ कीजियेगा - मैं अब भी नहीं समझी | हो सकता है मेरी आँखों पर पट्टी हो, हो सकता है मेरी बुद्धि कम हो - तो मेरे कान्हा जी मेरी मदद कर देंगे समझने में | किन्तु मुझे बिल्कुल ही समझ नहीं आ रहा कि मेरी आस्तिकता से मेरे मीडिया के बारे में विचारों का क्या सम्बन्ध है ?

और - मैंने नहीं कहा कि मीडिया "इज़ अ वेस्ट" - शायद आपने मेरी बात ठीक से समझी नहीं | मैंने कहा कि वे वही परोसते हैं जो वे स्टेटिस्टिक्स से पाते हैं कि दर्शक देख रहे हैं - न्यूज़ चैनल वालों को भी अपना चॅनल चलाना है - पैसे कमाने हैं , कोम्पीट करना है | यह कहा था मैंने |

JC said...

श्रीमती शिल्पा मेहता जी, 'मैं' क्षमा प्रार्थी हूँ... 'कान्हा' जितने आपके हैं शायद उतने ही वे सभी संसारियों के ही नहीं अपितु सम्पूर्ण सृष्टि के हैं. 'शिव के ह्रदय में निवास करती माँ काली', अथवा हमारी गैलेक्सी के केंद्र में संचित शक्ति 'ब्लैक होल' के रूप में, आदि आदि...

और, वो ही 'मेरे' पागलपन का कारण भी हैं... 'मैंने' गीता '८४ में पहली बार पढ़ी (और उसका सार मेरे मस्तिष्क में समां गया!) यद्यपि उसकी एक प्रति मेरे पास '७५ से पड़ी थी, और तब 'मैंने' सोचा यह पहले क्यूँ न पढ़ी!, क्यूंकि 'मेरे' सभी प्रश्नों का उत्तर उसमें मिला! तभी 'माया' का अर्थ भी समझ में आया, और क्यों बचपन में पढ़ा था और समझ नहीं आया था माँ यशोदा को बाल-कृष्ण के मुंह में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड देखने के संकेत को!... आदि आदि...
जय श्री कृष्ण!

Anonymous said...

जय श्री कृष्ण जे सी जी - :)

यदि मेरी किसी बात से आपको कुछ बुरा लगा हो - या आपकी कोई भावना आहत हुई हो - तो कृपया बता दें - क्योंकि मुझसे अवश्य कोई तो गलती हुई ही होगी जो आप इतने नाराज़ हुए होंगे | यदि आप बता देंगे - तो शायद मैं अनजाने में किसी और की भावनाएं इस तरह से आहत ना करूँ, ध्यान रखूँ | इसीलिए पूछ रही हूँ बार बार |

और हाँ - मेरे कान्हा जी मेरे भी हैं - आपके भी हैं - और हम में से हर एक के हैं - सिर्फ एक राजा की तरह नहीं जो सबका राजा तो होता है किन्तु निजी तौर पर किसी का नहीं होता, बल्कि एक सखा या पिता [ या जिस भी तरह से आपको अच्छा लगे ] निकटतम स्तर पर वह हर एक के लिए "मेरा " है |

Kailash Sharma said...

आज की मीडिया का बहुत सार्थक और विषद विश्लेषण. आज मीडिया अपना सामजिक रोल भूल चुकी है और sensatinalism को अपना कर अपनी टी आर पी बढाने के चक्कर में लगी हुई है. सभी किसी न किसी business houses से जुडी हुई है और उनके अपने निहित स्वार्थ हैं और उनके लिये यह भी एक बिजनस है. बहुत सुन्दर और सार्थक पोस्ट..आभार

दिगम्बर नासवा said...

आज के मीडिया में वो सारी कमजोरियां है जो आपने लिखी हैं ... और इसका कोई तोड़ भी नज़र नहीं आ रहा ...

JC said...

शिल्पा जी, वो गुस्सा आप पर नहीं था, वो स्वयं की 'हिन्दू' मान्यता को शब्दों द्वारा बताने के प्रयास में असमर्थता पर था... कृष्ण जी ही गीता में 'आम आदमी' के लिए कह गए कि यदि कोई किसी अन्य व्यक्ति को गाली देता है तो वो वास्तव में उन्ही को गाली दे रहा होता है क्योकि वो सबके भीतर हैं!

गीता सभी मानव जाती के ज्ञान वर्धन के लिए है और इसका विभिन्न सांसारिक भाषाओं में रूपांतर भी किया गया है, जिस कारण किसी भी 'धर्म' के मानने वाले इस की ओर आकर्षित होते प्रतीत तो होते हैं किन्तु गहराई में जाने में संभवतः नगण्य ही होंगे, क्यूंकि टीवी के माध्यम से इतने 'धार्मिक' चैनेल भी आज हैं जो पुराण वैसे ही पढ़ते दिखाई देते हैं जैसे बच्चे अपने स्कूल की पुस्तकें रट रहे होते हैं और अधिक मार्क्स प्राप्त करते हैं यदि 'मक्खी पर मक्खी मारने' की क्षमता रखते हों किन्तु सार निकालने में असमर्थ, और दोष शिक्षा प्रणाली को देते हैं!

हालांकि वो एक अन्य स्थान में 'पढ़े लिखे' लोगों के लिए यह भी कहते हैं कि उन्हें 'ज्ञान' और 'विज्ञान' से भी पाया जा सकता है किन्तु उनको वो प्रिय हैं जो उनमें आत्म समर्पण कर देते हैं (क्यूंकि परम सत्य को उनकी सहायता के बिना पाना संभव है ही नहीं),,, हर कोई 'माया' से उन्हें अपने अन्दर देखता है और वास्तव में पुरी सृष्टि ही उनके भीतर समाई हुई है!

इसे 'आधुनिक वैज्ञानिक', जिन्होंने जान लिया है कि ब्रह्माण्ड एक अनंत अंधकारमय (कृष्ण) शून्य है और जो निरंतर गुब्बारे के समान फूलता ही चला जा रहा है, वो सक्षम हैं गीता में लिखे सत्य को जानने में कि वो ही गीता के कृष्ण हैं जिनके भीतर मायावी साकार, किन्तु अस्थायी, ब्रह्माण्ड समाया है! ... आदि आदि...

जय श्री कृष्ण!

रमेश कुमार जैन उर्फ़ निर्भीक said...

डॉ.दिव्या श्रीवास्तव जी,आज सबसे पहले अपनी बात कहने से पहले आपकी इस पोस्ट की आलोचना और फिर प्रशंसा करूँगा

अपने उपरोक्त पोस्ट में पांच-छह शब्दों का प्रयोग अंग्रेजी में किया.जिनको समझने के लिये मुझे एक-एक शब्द को यहाँ से काटकर अपने ब्लॉग लगे "अंग्रजी-हिंदी शब्द अनुवाद" में डालकर उसका अर्थ पता करना पड़ा. आपने हिंदी के इतने खूबसूरत शब्दों का यहाँ पता नहीं क्यों अंग्रेजी में किया? यह मैं नहीं जानता हूँ. मगर आपको कम से कम ब्लॉग जगत के एक अनपढ़ व गंवार इंसान "सिरफिरा" का ख्याल रखना चाहिए था. आपको किसी प्रकार के किसी अंग्रेजी के शब्द का हिंदी का अर्थ नहीं याद आता है. तब आप भी मेरे तरह से अपने ब्लॉग पर एक "अंग्रजी-हिंदी शब्द अनुवाद" बना सकती है. अगर आपको यह कालम बनाने में परेशानी हो. तब आपने ब्लॉग पर आकर उसी कालम में लिखे "विजेट लगाये" पर किल्क करके आगे दिए निर्द्शों का पालन करें. भगवान महावीर स्वामी की कृपया से आपको सफलता मिलेगी.

आपने उपरोक्त पोस्ट में जो विचार व्यक्त किये है. उनसे और यहाँ अब तक आई 86 टिप्पणियों(एक-आध अपवाद छोड़ दें,जहाँ व्यक्ति विशेष या समाचार पत्र और चैनल का नाम लिया गया.मेरे पास ऐसे बहुत से पुख्ता सबूत है.जो यह बताते हैं कि-आज जो बड़ा पत्रकार,समाचार पत्र या चैनल हैं,उसके किसी न किसी तरह से राजनीतिक से संबंध है)से पूर्णत सहमत हूँ. मैं इस पेशे से जुड़ा होने के कारण जानता हूँ कि-कहाँ-कहाँ पर सौदेबाजी होती है और कहाँ पर एक पत्रकार मजबूर होता है.मैं आज तक अपने कर्म "पत्रकारिता" में मजबूर नहीं हुआ,क्योंकि सरकार द्वारा दी जा रही पत्रकारों को सुविधाओं को स्वीकार नहीं किया. इनकी आदत पड़ने पर और लेने पर मैं अपने ईमान और जमीर से निष्पक्ष नहीं रह सकता था आम आदमी कहूँ या पीड़ित व्यक्ति के प्रति.सरकार से अपने समाचार पत्रों को पंजीकृत कराने का लाभ प्राप्त किया है. वो भी कानून और संविधान में अपने मौलिक अधिकारों के कारण.आज अपने बड़े उसूलों कहूँ या सिध्दांतों के कारण भुखमरी की कगार पर खड़ा हूँ. हो सकता आने वाले कुछ दिनों में मेरी मौत भी हो जाए.मगर मैं पहले भी कहता आया हूँ और आज ब्लॉग जगत पर कह रहा हूँ कि-मुझे मरना मंजूर है,बिकना मंजूर नहीं.जो मुझे खरीद सकें, वो चांदी के कागज अब तक बनें नहीं.
दोस्तों-गगन बेच देंगे,पवन बेच देंगे,चमन बेच देंगे,सुमन बेच देंगे.कलम के सच्चे सिपाही अगर सो गए तो वतन के मसीहा वतन बेच देंगे.

अगर हिंदी ब्लॉग जगत के सभी ब्लोग्गर अपने एक-एक ब्लॉग को एक अच्छी "मीडिया-कलम के सच्चे सिपाही" के रूप में स्थापित करने को तैयार हो तो मैं 200 ब्लोग्गरों की यहाँ sirfiraark@gamil.com पर ईमेल आने पर उसके सारे नियम और शर्तों को बनाकर अपना पूरा जीवन उसको समर्पित करने के लिये तैयार हूँ. मैं आज सिर्फ अपनी पत्नी के डाले फर्जी केसों से परेशान हूँ. जिससे मेरे ब्लोगों को पढकर थोड़ी-सी मेरी पीड़ा को समझा जा सकता है. हर पत्रकार पैसों का भूखा नहीं होता,शायद कोई-कोई मेरी तरह कोई "सिरफिरा" देश व समाज सेवा का भी भूखा होता हैं,बस ब्लॉग जगत पर मेरी ऐसे पत्रकारों की तलाश है.

आजकल ब्लॉग जगत में भी गरीबों और मजबूर लोगों पर अत्याचार किये जा रहे है. इससे आप नीचे दिए लिंकों को पढकर जान सकती है.
"सवाल-जवाब प्रतियोगिता-कसाब आतंकी या मेहमान" मैं विचार व्यक्त करने का सुअवसर मिला.
यहाँ चलता हैं बड़े-बड़े सूरमों का एक छत्र राज और अंधा कानून"व्यक्तिगत हित के स्थान पर सामूहिक हित को महत्त्व" http://blogkeshari.blogspot.com/2011/07/blog-post_4919.html और उसके बाद की कई पोस्टें और पहले की कई पोस्ट और उसकी टिप्पणियाँ. मेरे ख्याल से काफी हद तक आप द्वारा पूछे प्रश्न "मेरे नाम के पीछे 'सिरफिरा' क्यों है. वैसे आने वाले कुछ दिनों इसका जवाब मेरे समाचारों पत्र-पत्रिकाओं और ब्लॉग के पाठकों के साथ ही पूरे ब्लॉग जगत को पता भी चल जाएगा. आप इन लिंकों को या मेरे ब्लोगों को एक शोध समझकर पढ़ेंगी तब आपको बहुत कुछ इस "सिरफिरा" को समझ पाएंगी.शायद आपको किसी प्रश्न का उत्तर जाने की इच्छा ही न रहे.ऐसा मेरा विचार है.
"रमेश कुमार जैन ने 'सिर-फिरा' दिया"नाम के लिए कुर्सी का कोई फायदा नहीं http://blogkikhabren.blogspot.com/2011/07/blog-post_17.html
जरुर देखे."हम कहाँ से आरंभ कर सकते हैं?" http://anvarat.blogspot.com/2011/07/blog-post_17.html

रमेश कुमार जैन उर्फ़ निर्भीक said...

डॉ.दिव्या श्रीवास्तव जी, मुझे नहीं मालूम आपकी लेखनी के किस प्रशंसक ने आपकी उपरोक्त पोस्ट को इस लिंक http://blogkikhabren.blogspot.com/2011/07/blog-post_20.html पर चार चाँद लगाकर बहुत खूबसूरत बना दिया है. आप एक बार वहाँ जरुर जाकर आये. यहाँ आपको सिर्फ सूचित कर रहा हूँ. आपसे अपने हर ब्लॉग की हर पोस्ट पर टिप्पणी नहीं मांग रहा हूँ. मुझे तो अब कोई भीख भी नहीं देता है. फिर टिप्पणी(विचारधारा) क्यों दें या देंगा. पढ़े-लिखों की दुनियाँ में इस अनपढ़ व गंवार सिरफिरे की विसात कहाँ? इस पागल का कोई दिन-मान नहीं है.क्या पता किसको काटने दौड़ पड़ें?

जरुर देखे."प्रिंट व इलेक्ट्रोनिक्स मीडिया को आईना दिखाती एक पोस्ट"

Rohit Singh said...

जे सी जी
आपके लगाये आरोप को में पूरी नम्रता के साथ अस्वीकार करता हूँ...

मैंने गहरे मैं जाने की लिए दिव्या जी को इसलिए कहा की कियोंकि वोह ब्लॉग की एक लोकप्रिय लेखिका है...सो उनसे अपेक्षा रहती है की वो कुछ जायदा गहराई मैं जाएँगी ... अगर वो जातीं तो श्याद लिखिती की ...खुद को ढूंढे में लगा मीडिया....न की दिग्भर्मित...यानी की उत्तर खुद मीडिया के लोग अपने अन्दर ही धुंडने की कोशिश कर रहे है....माफ़ कीजियगा मीडिया दुसरो पर उत्तर न मिलने की बात भी नहीं कह रहा...हम हर प्रशन का उत्तर तलाशने की कामयाब कोशिश करते हैं...

कई प्रहसन है...जो जनता ने देने है....न की मीडिया को....
१रूपये की सिगरते पे सकतें हैं लोग..पर २ रुपए का अखबार नहीं खरीद सकते...
घर मैं सीरियल देख सकते है पर कभी समाचार चैनल नहीं देखिते बचे...
आखिर इस बात का जवाब भी देते की १२ साल मैं सिर्फ १४ फिसिदी लोग ही समाचार चैनल देख रहे है..ऐसेह मैं चैनल का खर्चा कहा से चले....

कुछ सौ आमिर पत्रकारों को देख कर विचार नहीं बाना लेना चाहिए....कई हज़ार पत्रकार बिना सुरक्षा के ..बिना खाए पिए देश की खबर आपको देता है..गोली खता है....जेल मैं नेता और माफिया की कारण सड़ता है.....फिर भी खबर देता है....

जबकि दिली मैं भी कई पत्रकार मजदूर से जायदा नहीं कमाते ...सरकार की किताब मैं ४५०० रुपए यानी एक दिन मैं १३० रूपये रोज कमाने वाला पत्रकार होता है..जबकि एक मजदूर के दिहाड़ी २०० सारकार ने तये कर राखी है....

देश के बिगड़े हालात के बारे में मीडिया ने देश भर के अखबारों मैं चैनल मैं छपा है...अगर लोगो को नहीं पता तो किया यह मीडिया की गलती है....

जैसे दिली देश की तस्वीर नहीं ..वैसे ही कुछ पत्रकार और चैनल साड़ी मीडिया कइ तस्वीर नहीं है....इनकी चकाचोंद से निकल कर असली कराहते मीडिया को देखिये...समर्थन करिए...

Rohit Singh said...

दिव्या जी का किया कहना है...इंतज़ार रहेगा.....

JC said...

boletobindas जी, क्षमा प्रार्थी हूँ... 'मैंने' केवल आपका उदाहरण दिया था यह जताने के लिए कि किसी के पास आज 'टाइम' नहीं है गहराई में जाने के लिए, यद्यपि बहुत टाइम है दोष ढूँढने में - कभी मीडिया के तो कभी राजनीतिज्ञों के, कभी शिक्षा प्रणाली के तो कभी किसी अन्य सैक्टर के...

कोई दूर से देखे,,, जैसे उदाहरणतया फव्वारे से ऊपर जाते और फिर नीचे गिरते जल की अनंत बूंदों को... तो पा सकेगा कि वर्तमान में सभी क्षेत्र यदि भ्रष्ट व्यक्तियों से भरे हैं तो 'साधू' भी हैं किन्तु उनकी संख्या निरंतर घटती चली आई है, और विशेषकर कुछ ही वर्षों में त्वरित गति से, जैसे ऊपर फेंके गया पत्थर अथवा गेंद, उलट कर, शून्य गति से आरम्भ कर अपने पतन के मार्ग पर गिरते - धरती से टकराने से पहले - सबसे अधिक गति प्राप्त कर चुका होता है...

प्राचीन अत्यंत बुद्धिमान 'हिन्दुओं' ने तो कभी का कहा हुआ है कि काल-चक्र उल्टा चलता है - सतयुग से घोर कलियुग तक जब चारों ओर विष ही दिखाई देगा,,, और काल-चक्र में, ब्रह्मा के लगभग चार अरब वर्षों से अधिक एक दिन में,,, हर युग सत, त्रेता, द्वापर, कलि १०८० बार, बार बार आता है! क्या इस में आपको आज जब पृथ्वी की आयु साढ़े चार अरब वर्ष आंकी गयी है, और जैसा 'मुझे' ब्लॉग से जान्ने को मिला, 'दिल्ली बैली' जैसी मानव को निम्तम स्तर में दर्शाती फिल्म, जबकि सत्तर के दशक में ही 'शोले', और थ्री इडिअटस' भी, इससे बेहतर थी, संकेत नहीं करती कि क्या कि 'ब्रह्मा की रात' अब निकट ही है?... जब में रेलगाड़ी से मुंबई से दिल्ली आया हूँ कई बार, तो जैसे ही निज़ामुद्दीन स्टेशन से गाड़ी छूटती थी तो अपना बिस्तर लपेट तैयार हो जाता था...
और प्राचीन ज्ञानी भी कह गए "... पल में प्रलय होउगी / बहुरि करोगे कब" (कब याद करोगे उस लीलाधर को, दोष ही ढूंढते रह जाओगे मीडिया वालो और अन्य व्यक्तियों को भी भटकाओगे)?

कहना ही पड़ेगा, "जय श्री कृष्ण", "हमको मन की शक्ति देना / मन विजय करें/..."

सञ्जय झा said...

bahut achhe.....vimarsh ka rang........yahan hota hai........

pranam.

संजय भास्‍कर said...

दिव्या जी
आपके सवाल पर चर्चा तो होनी चाहिए
मीडिया में बहुत सारी कमज़ोरिया है......जागरूक करती पोस्ट

prerna argal said...

मुझे ये बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है की हिंदी ब्लॉगर वीकली{१} की पहली चर्चा की आज शुरुवात हिंदी ब्लॉगर फोरम international के मंच पर हो गई है/ आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा आज सोमवार को इस मंच पर की गई है /इस मंच पर आपका हार्दिक स्वागत है /आइये और अपने विचारों से हमें अवगत कराइये/इस मंच का लिंक नीचे लगाया है /आभार /

www.hbfint.blogspot.com

Anonymous said...

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Anonymous said...

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