यहाँ विश्वविद्यालय के बायोकेमिस्ट्री विभाग में डाइबिटीज़ पर रिसर्च चल रही थी ! प्रोफ़ेसर साहब के शोधार्थी हल्दी, गुड़मार आदि ऐसे ही अनेक द्रव्यों पर शोध कर रहे थे और उन शोध के आधार पर जो दवाईयां बन रही थी उनमें माइक्रो लेवल पर द्रव्यों के अनुपात को बदलकर नयी औषधियां तैयार की जा रही थीं जो डायबिटीज़ के मरीजों को दी जा रही थीं ! रविवार के दिन डायबिटीज़ के मरीजों को निशुल्क चिकित्सा परामर्श एवं दवाईयां दी जाती हैं ! प्रत्येक पंद्रह दिन पर शोध के तहत रजिस्टर्ड मरीजों की निशुल्क लैबोरेटरी जांच होती है जिसका खर्चा तकरीबन ३००० रूपए प्रति मरीज आता है !
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इस पूरे शोध कार्य में एक आयुर्वेदिक डॉक्टर की हैसियत से आयुर्वेदिक द्रव्यों के गुण-धर्म, उनकी सम्प्राप्ति और मात्रा का प्रमाण , उनमें परिवर्तन , उनका प्रयोग , उनकी शरीर एवं विभिन्न तंत्रों पर प्रभाव का बारीकी से निरीक्षण और पूरा शोध कार्य तो हमने कराया , लेकिन अफ़सोस ये की उन शोध कार्यों को बायोकेमिस्ट्री के जर्नल्स में प्रकाशित किया जा रहा है , आयुर्वेद के नहीं ! और नयी शोधित दवाओं का नाम भी आयुर्वेदिक शास्त्रोक्त पद्धति पर न रखकर अंग्रेजी में रख उसे आयुर्वेद से पूर्णतः पृथक कर दिया जा रहा है !
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कुछ समय वहां काम करने के बाद जब मैंने ये आपत्ति उठायी की ये ये शोधकार्य आयुर्वेदिक द्रव्यों पर आयुर्वेदिक चिकित्सकों के द्वारा हो रहा है! दवाएं भी आयुर्वेदिक हैं तो फिर ये शोधकार्य बायोकेमिस्ट्री के खाते में क्यों जा रहा है, आयुर्वेद के खाते में क्यों नहीं ? और दूसरी बात, यदि ये शोध बायोकेमिस्ट्री की किताबों में जोड़ा जा रहा है तो बायोकेमिस्ट्री विषय , केवल ऐलोपैथी पाठ्यक्रम के प्रथम वर्ष में ही क्यों है ! इस विषय का लाभ आयुर्वेद के छात्र-छाओं को क्यों नहीं मिल रहा जबकि इन शोध कार्यों में आयुर्वेदिक डॉक्टरों का पूरा योगदान है ! तब इन लोगों ने चुप्पी साध रखी है !
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ऊपर से कुछ उतावले तथा समग्रता से ज्ञान न रखने वाले अज्ञानीजन का तुर्रा ये की आयुर्वेद में शोध नहीं होता ! अरे कोई ये बताये , की पकवान बनाते ही पडोसी आपकी हंडिया चुरा ले जाए तो हम आपको खिलाएं क्या ?
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इस पूरे शोध कार्य में एक आयुर्वेदिक डॉक्टर की हैसियत से आयुर्वेदिक द्रव्यों के गुण-धर्म, उनकी सम्प्राप्ति और मात्रा का प्रमाण , उनमें परिवर्तन , उनका प्रयोग , उनकी शरीर एवं विभिन्न तंत्रों पर प्रभाव का बारीकी से निरीक्षण और पूरा शोध कार्य तो हमने कराया , लेकिन अफ़सोस ये की उन शोध कार्यों को बायोकेमिस्ट्री के जर्नल्स में प्रकाशित किया जा रहा है , आयुर्वेद के नहीं ! और नयी शोधित दवाओं का नाम भी आयुर्वेदिक शास्त्रोक्त पद्धति पर न रखकर अंग्रेजी में रख उसे आयुर्वेद से पूर्णतः पृथक कर दिया जा रहा है !
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कुछ समय वहां काम करने के बाद जब मैंने ये आपत्ति उठायी की ये ये शोधकार्य आयुर्वेदिक द्रव्यों पर आयुर्वेदिक चिकित्सकों के द्वारा हो रहा है! दवाएं भी आयुर्वेदिक हैं तो फिर ये शोधकार्य बायोकेमिस्ट्री के खाते में क्यों जा रहा है, आयुर्वेद के खाते में क्यों नहीं ? और दूसरी बात, यदि ये शोध बायोकेमिस्ट्री की किताबों में जोड़ा जा रहा है तो बायोकेमिस्ट्री विषय , केवल ऐलोपैथी पाठ्यक्रम के प्रथम वर्ष में ही क्यों है ! इस विषय का लाभ आयुर्वेद के छात्र-छाओं को क्यों नहीं मिल रहा जबकि इन शोध कार्यों में आयुर्वेदिक डॉक्टरों का पूरा योगदान है ! तब इन लोगों ने चुप्पी साध रखी है !
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9 comments:
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आपने वैदिक कल के तरफ ध्यान खींचा है बहुत सरहटिय कदम है वास्तव मे माँ अटल जी के समय इस पर ध्यान गया था और किसी सरकार ने आयुर्वेद पर ध्यान नहीं दिया शायद वर्तमान सरकार इस पर ध्यान डॉ क्योंकि इस पर भारत को भरोषा है की अपने पुराने वैदिक धर्म, आयुर्वेद इत्यादि की तरफ यह सरकार ध्यान देगी हमे भी ऐसी मुहिम चालाए रखनी चाहिए।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (16-01-2016) को "अब तो फेसबुक छोड़ ही दीजिये" (चर्चा अंक-2223) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
नववर्ष 2016 की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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