Monday, May 23, 2011

क्या पश्चिमी सभ्यता का अन्धानुकरण सिर्फ महिलाएं कर रही हैं ?

अकसर लोगों की ज़बान पर एक जुमला चढ़ा रहता है - "महिलाएं पश्चिम का अन्धानुकरण कर रही हैं , वस्त्र पहनने के मामले में मान मर्यादा का ध्यान नहीं रख रही हैं। "

और भी गन्दी भाषा में लोग इस बात को कहते और विभिन्न ब्लॉग्स पर लिखते हैं। लेकिन क्या ये सच है ? कुछ प्रश्न मन में आ रहे है -
  • क्या ये वास्तव में पश्चिम का ही अन्धानुकरण है ?
  • क्या पश्चिम का प्रभाव महिलाओं पर ज्यादा है ? पुरुष कितने ही वर्ष विदेशों में क्यूँ न रह लें , वे शरीफ ही रहते हैं ? पश्चिम का कोई भी दुष्प्रभाव पुरुषों पर नहीं होता ?
  • यदि पुरुष पश्चिमी दुष्प्रभावों से मुक्त हैं तो उनकी माँ , पत्नी और बेटी कैसे संस्कारों को भूल गयी ?
  • भारतीय स्कूलों में शिक्षिकाओं को , अस्पातालों में डाक्टर्स को , कार्यालयों में महिला कर्मचारियों को , घरों में दादी , नानी , चाची , मौसी , बुआ , सभी को सभ्रांत वस्त्रों में ही पाया आज तक । क्या आपके घर की महिलाएं या आस-पास महिलाएं अभद्र वस्त्रों में दिखती हैं?
  • मोहल्ले में या बाज़ार में , रेलवे स्टेशन पर या एअरपोर्ट पर , सभी जगह भारतीय महिलाओं को मर्यादित ही पाया है आज तक , फिर पश्चिम का अन्धानुकरण कहाँ है ?
  • क्या साड़ी पहनने में ही एक महिला मर्यादित है ? अन्य किसी भी परिधान में अमर्यादित ?
  • समय के साथ स्त्री यदि सुविधानुसार सलवार कमीज़ अथवा जींस-टॉप पहनती है तो क्या यह अभद्र और अश्लील की श्रेणी में गिना जाएगा ?
  • पहले महिलाएं न स्कूटर चलाती थीं, न गाडी , न प्लेन उडाती थीं । पहले नौकरी के लिए भागते हुए लोकल ट्रेनें और बस नहीं पकडनी होती थी । पहले स्पोर्ट्स में भी इतनी शिरकत नहीं होती थी महिलाओं की । तो क्या ज़रुरत के अनुसार यदि परिधान बदलते गए तो उसे अभद्र , अश्लील और पश्चिम का अन्धानुकरण कहेंगे?
  • सुविधानुसार इंसान साइकिल से स्कूटर, फिर कार आदि को अपनाता गया , लेकिन सुविधानुसार यदि एक स्त्री अपने लिए परिधान का चुनाव करती है तो वो समाज के ठेकेदारों को खटकने लगता है।
  • पुरुषों का पहनावा ऐसा होता है , जो सुविधाजनक होता है तथा एक्टिव बने रहने में मदद करता है । तो यदि महिलाएं आज भाग-दौड़ की ज़िन्दगी में अपनी सुविधानुसार सलवार कमीज़ अथवा जींस टॉप को प्राथमिकता देती हैं तो क्या यह अभद्र है , जो आज ज्यादातर बच्चियां , बहुएं , सासें , अमीर और गरीब दोनों तबका पहन रहा है।

अब बात करते हैं उस वर्ग की जहाँ वास्तव में अभद्रता दिखाई देती है । वो है मोडलिंग अथवा फिल्म जगत। यहाँ पर चंद कलाकार अश्लीलता और फूहड़ता का प्रदर्शन करते हैं , जिसके कारण आम जनता को भी उसी श्रेणी में खड़ा कर देना सर्वथा अनुचित है।

इसलिए ये व्यापक कथन कहना की "महिलाएं वस्त्र धारण में पश्चिम का अन्धानुकरण कर रही हैं" , थोडा आपत्तिजनक लगता है। दो-चार बिपाशा , राखी और मल्लिका को छोड़ दें तो ज्यादातर महिलाएं अपने तन पर वस्त्रों की गरिमा को बखूबी समझती हैं और अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए क्या ज़रूरी है , ये भी बेहतर जानती हैं।

यदि साड़ी को सबसे गरिमामय मानें तो कुछ लोगों का ये प्रश्न है की -"आधा पेट खुला क्यूँ रहता है ? साडी navel के नीचे क्यूँ बंधी है ? और माशा अल्ला क्या खूब आधुनिक ब्लाउज हैं, पीठ पर मात्र दो इंच की पट्टी । क्या ये डिजाईन भी पश्चिम से आई है ? फिर पश्चिम का दोष क्यूँ ?

गन्दगी लोगों के दिमाग में होती है। जिसके पास संस्कार है , वो कोई भी परिधान पहने , शोभनीय और अशोभनीय का ख़याल हमेशा रखता ही है। जिसके पास संस्कार ही न हो अथवा लज्जा ही न हो तो उससे क्या उम्मीद रखना । लेकिन फिल्म जगत की अभद्रता की सजा आम स्त्री को उपरोक्त जुमले से नहीं मिलनी चाहिए।

आभार

101 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

जिसके पास संस्कार है , वो कोई भी परिधान पहने , शोभनीय और अशोभनीय का ख़याल हमेशा रखता है..

सही आकलन करता लेख ... थोड़े से घुन के साथ ज्यादा स गेंहूँ पीसने में लग जाते हैं लोंग ...जब कि मुहावरा उल्टा है ...

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

इसमें कोई शक नहीं कि पाश्चात्य संस्कृति का दुष्प्रभाव हमारे देश में पड़ रहा है। इस दुष्प्रभाव को स्त्री-पुरुष में बांटना तर्क-संगत नहीं लगता:)

somali said...

bahut sahi baat kahi hai aapne

vandana gupta said...

गन्दगी लोगों के दिमाग में होती है। जिसके पास संस्कार है , वो कोई भी परिधान पहने , शोभनीय और अशोभनीय का ख़याल हमेशा रखता है। जिसके पास संस्कार ही न हो अथवा लज्जा ही न हो तो उससे क्या उम्मीद रखना । लेकिन फिल्म जगत की अभद्रता की सजा आम स्त्री को उपरोक्त जुमले से नहीं मिलनी चाहिए।
बिल्कुल सटीक बात कही है।

ashish said...

पश्चिम के अन्धानुकरण में स्त्री पुरुष को अलग अलग करके देखना तर्कसंगत नहीं है . बढ़िया आलेख .

दिवस said...

दिव्या दीदी मैं मानता हूँ कि पश्चिमी कुसंस्कृति का दुष्प्रभाव हम भारतीयों पर पड़ रहा है| किन्तु केवल महिलाएं इसका अन्धानुकरण कर रही हैं ऐसा कहना गलत है| स्त्री हो या पुरुष कहीं न कही बराबर के भागीदारी हैं| यह अन्धानुकरण केवल भूषा तक ही सीमित नहीं है| आचरण में भी समाया हुआ है|
हाँ यह भी सत्य है कि पुरुषों द्वारा खिलाए गए गुल समाज के सामने नहीं आते और यदि आ भी जाएं तो कोई इन पर अधिक ध्यान नहीं देता| वहीँ दूसरी तरफ महिलाओं पर विशेष ध्यान दिया जाता है| महिला हो या पुरुष मर्यादा सभी को सीखनी चाहिए| कई पुरुष यह भी चाहते हैं कि हमारी पत्नियां सावित्री बनी रहें और हम कुछ भी करने को स्वतंत्र हैं| कई ऐसे पुरुषों को भी देखा है जिनकी पत्नियां घर पर बैठी अपने पति को देवता मान बैठी है और बाहर उसका देवता(?) पता नहीं कहाँ कहाँ मूंह मार रहा है इसका उन्हें कोई ज्ञान ही नहीं है| किन्तु ऐसा भी नहीं है कि केवल पुरुष ही इसमें शामिल है| कई स्त्रियाँ तो पता नहीं कहाँ तक गिर चुकी हैं?
एक तरफ जहाँ युवा लड़कों की जींस की कमर नीचे खिसकती जा रही है तो दूसरी ओर लड़कियों के स्कर्ट ऊपर तक सिकुड़ते जा रहे हैं|
यहाँ बात महिला या पुरुष को वर्गीकृत करने की है ही नहीं| जो भी मर्यादा से बाहर जाएगा वह दोषी है| अत: महिला हो या पुरुष किसी एक पर दोष मढ़ देना गलत है| अत: यहाँ हमें तटस्थ होकर विचार करना होगा|
आदरणीय दिव्या दीदी बहुत ही अच्छा प्रश्न उठाया है आपने| वरना इस प्रकार के दुष्प्रचार से समाज भ्रमित होता है| महिलाएं इस सब के लिए पूर्णत: दोषी नहीं हैं|
आभार...
सादर...
दिवस दिनेश गौड़...

पृथ्वीराज said...

आजकल कुछ शहर जैसे बांबे गोवा आदि को छोड़ दिया जाये तो बाकि हर जगह स्त्री मर्यादित रहती है.
और जिनके दिमाग मे गंदगी भरी होती है उनके सामने परिधान का कोई मतलब नही है.
ये सब फिल्म वालो का किया धरा है.
अभी जो दो फूहड़ गाने मुन्नी और शीला के नाम पर आये थे. उससे जिन महिलाओ का नाम मुन्नी और शीला था . उनका जीना दूभर हो गया था.
मै दबंग के निर्माता अरबाज खान और तीसमारखा के निर्माता फरहा खान से पूछना चाहता हू क्या उन्हे ये ही नाम मिले थे ज्यादा ही गाने हिट कराने का शौक था तो
"माय नेम इज सकीना और "रजिया बदनाम हुयी "रख लेते.
ऐसे ही एक आमिर खान की फिल्म मे पप्पू नाम के लोगो की ऐसी की तैसी कर के रख दी.
क्या तमाशा चल रहा है ये सब.
इन लोगो पे करोड़ो रुपये की मानहानि का मुकदमा ठोकना चाहिये .

prerna argal said...

गन्दगी लोगों के दिमाग में होती है। जिसके पास संस्कार है , वो कोई भी परिधान पहने , शोभनीय और अशोभनीय का ख़याल हमेशा रखता ही है। जिसके पास संस्कार ही न हो अथवा लज्जा ही न हो तो उससे क्या उम्मीद रखना । लेकिन फिल्म जगत की अभद्रता की सजा आम स्त्री को उपरोक्त जुमले से नहीं मिलनी चाहिए।
bahut hi badiyaa baat kahi aapne .aek saarthak lekh soch aur najariyaa badalne ki baat hai.badhaai aapko itane achche lekh ke liye.

सदा said...

बहुत सही कहा है आपने ... विचारात्‍मक प्रस्‍तुति ।

Anonymous said...

पहली बार आपके ब्‍लॉग पर आना हुआ .. सच बहुत ही अच्‍छा लिखती हैं आप ... इस विचारणीय प्रस्‍तुति के लिये आभार ।

DR. ANWER JAMAL said...

फिल्में और टी. वी. सीरियल में नज़र आने वाली कलाकार और मॉडल्स अश्लीलता फैला रही हैं ,
ऐसा आप कैसे कह सकती हैं ?
जबकि वे अपना काम करते हुए संवैधानिक नैतिकता का पालन करती हैं । आप आम जनता को क्लीन चिट दे रही हैं तो उनके रोल मॉडल पर इल्ज़ाम क्यों ?
आम जनता उनके जैसी ड्रेस पहनना फ़ख़्र की बात समझती है।

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

दिव्या जी ,

पश्चिमी सभ्यता का दुष्प्रभाव महिलाओं से कहीं अधिक पुरुषों और बच्चों पर पड़ रहा है | कुछ एक अपवाद को छोड़कर महिलायें ही हैं जो हमारे संस्कारों को संरक्षित किये हुए हैं |

सामयिक एवं सार्थक ...विचारणीय लेख

Bharat Bhushan said...

घरों में लोग कैसा परिधान पहनते हैं यह एक अलग विषय हो सकता है.

दिल्ली एयरपोर्ट पर मैंने एक यूरोपियन लड़की को देखा जो कमतर कपड़े पहने थी और थोड़ी दूरी पर दूसरे यूरोपियन लोग उसके परिधान पर हँस रहे थे.

हमें यह भी देखना होगा कि जो अँग्रेज़ी फिल्मों में दिखाया जाता है, वह मनोरंजन के लिए अधिक होता है और बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया गया होता है.

पंजाबी में कहावत है-
खाओ मन भाता
पहनो जग भाता
है न सरल का संस्कार!

ZEAL said...

.

@--पश्चिम के अन्धानुकरण में स्त्री पुरुष को अलग अलग करके देखना तर्कसंगत नहीं है...

----

आशीष जी ,

मैं अलग करके 'नहीं' देख रही हूँ। बल्कि कुछ महान पुरुषों को दिखाना चाहती हूँ जो यत्र-तत्र यह कहते/लिखते फिरते हैं की महिलाओं पर पश्चिमी सभ्यता का असर है।

हो सके तो लेख को ध्यान से पढ़िए और समझने की कोशिश कीजिये की कहा क्या गया है और किस तरफ ध्यान आकृष्ट किया गया है। हर बुराई को महिलाओं पर थोप देना उचित नहीं है।

मैं उस वाक्य को यहाँ नहीं लिखना चाहती जो समाज के ठेकेदार टाइप कुछ पुरुष यत्र-तत्र लिखते हैं।

हो सके तो ध्यान से पढ़कर विषय के साथ न्याय करता हुआ कुछ लिखिए। एक लाइन पकड़कर टिप्पणी की हाजिरी मत दीजिये।

आभार।

.

ZEAL said...

.

आशीष जी ,

"महिलाएं अधनंगी घूम रही हैं " .....ये जुमला पुरुषों का वक्तव्य है। ब्लौग पर यत्र तत्र देखने को मिल जाएगा और मेरे लेखों पर भी अनेक टिप्पणीकारों में यह जुमला लिखा है। इसलिए यह आलेख समाज के ठेकेदार पुरुषों से यह प्रश्न कर रहा है की कभी अपने गिरहबान में भी झाँक कर देखें , जिनकी आधी जिंदगी अधनंगे रहकर ही गुज़र जाती है।

--------

@-- उत्तम आलेख ....

एक और आप कह रहे हैं की लेख तर्क-संगत नहीं है। दूसरी और 'उत्तम आलेख' भी है ??...

बात कुछ हज़म नहीं हुयी।

.

Shah Nawaz said...

दिव्या जी,

केवल मोडलिंग अथवा फिल्म जगत ही नहीं, बड़े शहरों में अभद्र अथवा नग्न पहनावा आम बात होती जा रही है. पुरुष हो अथवा महिला, कपड़ों में बदन को ढकने के लिए ही पहने जाते हैं. लें आजकल दिन-बा-दिन यही कपडे बदन पर कम से कमतर होते जा रहे हैं.

वीना श्रीवास्तव said...

अच्छा और विचारणीय आलेख...

रविकर said...

जब कालेज जाने वाली या नौकरी-पेशा,

अपनी बेटी भाग-दौड़ की ज़िन्दगी

में अपनी सुविधानुसार

सलवार कमीज़ अथवा जींस टॉप को

प्राथमिकता देने लगती है तो-----

बाजार-हाट करनेवाली अपनी पत्नी को

लोग सलवार-कुरता पहनने का

परामर्श देकर दरिया-दिली दिखाते हैं,

जबकि कहीं, काफी पहले, पत्नी

साडी के मोटर-बाइक में

फंसने की दुर्घटना का शिकार

हो चुकी होती है.

Bikram said...

A good article, and I do feel its not jsut the women or men thing.. We as humans have this thing that we pick on the bad things faster and easily .. There are a lot of Good qualities in western ways , we never seem to pick them up.

And going back to you article they are all the same men-women-old-young- It would be wrong to say that only women are doing it .. Well men have there lusty eyes on them so they are both responsible.
and as you mentioned the Tele serials and movies in India are getting more and more Vulgar, It is wrong to say tat Foreign =Movies do so , I dont believe that, That is there way fo living , and even if they do I have a feeling that the clothes worn by them are still worn with atiquites and not the way we show in Hindi movies.

Moreover we should not have any thing ot say on there culture or what they do (foreigners I mean).. Why do we pick it up if we think its wrong is a more relvant question. I feel More embarassed watching a Hindi Serial with family then I am while watching a english one.

I hope good sense prevails on us mere mortals and we look at our values and culture and what we do ..

Bikram's

पृथ्वीराज said...

कुछ शहरो जैसे बांबे ,दिल्ली , गोवा आदि की बात छोड़ दे तो बाकि सब जगह पर महिलाये मर्यादित है.
और जहाँ महिलाये पूरी ढकी रहती है वहाँ भी रेप जैसी घटनाये बहुत है.
क्यो कि सवाल पहनावे का नही बल्कि गंदी सोच का है.
गंदी सोच वाले व्यक्ति के लिये महिला का पहनावा कोई मायने नही रखता .

हल्ला बोल: हिँदूओ की निष्क्रियता का दुष्परिणाम

Unknown said...

जो लोग ये कहते हैं कि देह दिखाऊ वस्त्र पश्चिम की देन हैं अथवा केवल महानगरीय जीवन की आधुनिक देन है उन्हें कहिये कि ज़रा घर से बाहर निकलें और भारत के देहात में जाकर महिलाओं के लिबास देखें..................

मणिपुर और मिजोरम या नागालैंड जाने की ज़रूरत नहीं है, अपने नारीत्व को घूँघट की आड़ में रखने लिए प्रसिद्द राजस्थान और गुजरात में आज भी ऐसे अनेक समाज हैं जिनकी महिलाओं के लिबास देख कर महानगरीय आधुनिक लिबास भी शर्म के मारे लाल हो जायेंगे.............हालांकि वो लिबास कोई देह दिखाने के लिए नहीं है, लेकिन परम्परा ही ऐसे वस्त्र पहनने की है जिसमे सब दिखता है

ये सच है, गन्दगी आदमी के मन में होती है परन्तु ये गन्दगी सिर्फ़ पुरूषों के मन में होती है ऐसा कहना भी उचित नहीं है

जो मन में आये वो पहनो.कौन रोकता है और किसी को अधिकार भी क्या है रोकने का ?

मैं तो सिर्फ़ अपनी माँ की एक सीख याद कर रहा हूँ जो कहती है - खाओ पीयो अपना घर देख कर और ओढो पहनो लोगों की नज़र देख कर.......

धन्यवाद

Smart Indian said...

टु बी वैरी फ्रैंक, भारतीय परम्परायें तो टिकी ही भारतीय महिलाओं के कारण हैं। धोती, चोटी, तिलक और कुंडल कितने मर्द पहने दिखते हैं आज के भारत में? मगर महिलाओं की साडी, चोटी, बिन्दी और आभूषण तो आज भी विश्व में भारत की पहचान सी ही है। यह एक छोटा उदाहरण इसलिये दिया कि यह आसानी से दृष्टव्य है। हर स्तर पर यही हुआ है। भारत की आत्मा भारत की नारियों में बसती है। जननी, जन्मभूमिश्च ... यूँ ही नहीं कहा गया है।

मदन शर्मा said...

@ "फिल्में और टी. वी. सीरियल में नज़र आने वाली कलाकार और मॉडल्स अश्लीलता फैला रही हैं ,
ऐसा आप कैसे कह सकती हैं ?
जबकि वे अपना काम करते हुए संवैधानिक नैतिकता का पालन करती हैं ।"
ये संवैधानिक नैतिकता है क्या ? क्या अंग प्रदर्शन करना संवैधानिक नैतिकता है ? कृपया संवैधानिक नैतिकता को गलत रूप में परिभाषित न करें !!

गन्दगी लोगों के दिमाग में होती है। जिसके पास संस्कार है , वो कोई भी परिधान पहने , शोभनीय और अशोभनीय का ख़याल हमेशा रखता ही है। जिसके पास संस्कार ही न हो अथवा लज्जा ही न हो तो उससे क्या उम्मीद रखना ।

Dr Varsha Singh said...

सहमत हूं आपसे....
जिसके पास संस्कार है , वो कोई भी परिधान पहने , शोभनीय और अशोभनीय का ख़याल हमेशा रखता ही है।

सार्थक लेखन के साथ विचारणीय प्रश्न भी .....हार्दिक आभार।

रश्मि प्रभा... said...

itne sashak vichaaron kee dhaar badi paini hai

सुज्ञ said...

अनुराग जी से पूर्ण सहमत!!

भारत की आत्मा भारत की नारियों में बसती है।

प्रकृति नें नारी देह को कमनीय और आकर्षण के गुण प्रदान किए है। शायद उस आकर्षण का प्रदर्शन न करनें की अपेक्षा की जाती होगी।

पश्चिमी संस्कृति से अभिप्राय यह रहता होगा कि इस संस्कृति प्रभाव पहले फिल्मों और धारावाहिकों पर होता है। और फिर इस मिडिया का प्रभाव युवा पीढी पर देखा भी जाता है। जो इन्हें रोल मॉडल मानने की मानसिकता से ग्रस्त हो। इन माध्यमों में भी अधिकांश अंग-प्रदर्शन का प्रयोग नारी-देह पर किया जाता है।

रही बात अश्लील कपडों को मानने की तो कपडे कोई भी हो उसे अंगीकार करने की शैली में अश्लीलता छुपी होती है। कभी साडी भी अश्लील हो उठती है तो जिंस-टॉप भी पूर्ण मर्यादित नजर आते है।

डा० अमर कुमार said...

.एक नामुराद मुद्दे पर अत्युत्तम आलेख.. पर,
ऎसे दकियानूसी विचारों से जन्मे प्रश्नचिन्हों पर बहस बेमानी है ।
साथ ही स्त्री बनाम पुरुष के सँदर्भ को लेकर यह प्रश्न निताँत गैर-प्रासँगिक है ।
वस्त्र चाहे जिस परिवेश के हों, प्रश्न शालीनता बनाम अश्लीलता का है, न कि स्त्री बनाम पुरुष का ।
प्रलोभन की हद तक उकसाने वाले फूहड़ परिधान निन्दनीय तो हैं ही, आपने दो इँची पीठ वाले ब्लाउज़ का जिक्र तो किया, गैर-वाज़िब उठान वाले टॉप का जिक्र हम किये देते हैं । सुरुचिपूर्ण तरीके से तन ढकने वाले वस्त्रों का पूरब पश्चिम से क्या लेना देना !

डॉ टी एस दराल said...

क्या पश्चिमी सभ्यता का अन्धानुकरण सिर्फ महिलाएं कर रही हैं ?
जी नहीं । पुरुष भी कहाँ कम हैं । बस महिलाओं पर सबका ध्यान जाता है ।
मैं तो जब भी देखता हूँ , सोचता हूँ , जाने कहाँ टिकी है ये लो वेस्ट की जींस !!

SANDEEP PANWAR said...

दस प्रतिशत महिला ही इस श्रेणी में आती है, बाकि सब भारतीय है पक्के तौर पर,

Unknown said...

दिव्या जी एक ज्वलंत प्रश्न उठा दिया फिर आपने, पश्चिम का अन्धनुकरण सिर्फ स्त्रियाँ ही नहीं कर रही है, पुरुष भी कर रहे है वे परिधानों में नहीं कर रहे तो वहां प्रचलित मानदंडो का कर रहे है , लिविंग-इन, एवं अप्राकृतिक विवाह मात्र स्त्रियाँ नहीं कर रही. आप का कथन सही है हो हल्ला ज्यादा है बात उतनी नहीं है , कितनी स्त्रियाँ फैशन शो में धारित कपडे पहनकर निकलती है मुझे तो लगता है वो माडल भी नहीं, जो ये शो करती है. अब ये बात तो है ही की इस उपभोक्तावाद के युग में किसी वस्तु को स्त्रियों से अधिक आकर्षण पुरुष दे सकता है क्या ? अब वो चाहे सीमेंट का प्रचार ही क्यों न हो ? किसे दोष दे , शायद दोषी कोई नहीं ..

ललित "अटल" said...

सार्थक लेखन के साथ विचारणीय प्रश्न भी .....हार्दिक आभार।

Sawai Singh Rajpurohit said...

आदरणीय डॉ.दिव्याजी,
बहुत सुन्दर और प्रेरक और विचारणीय आलेख लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है बधाई स्वीकारें .. सवाई

Sunil Kumar said...

पश्चिम के अन्धानुकरण में स्त्री पुरुष को अलग अलग करके देखना तर्कसंगत नहीं है |अगर यह अपराध है तो दोनों ही एक वर्ग में आते है सही कहा आपने

शूरवीर रावत said...

दिव्या जी, आपके सभी लेख सार्थक व प्रेरणास्पद होते हैं. इतना खुलकर लिखने और सार्थक लेख के लिए आभार ! ..... अनेकानेक शुभकामनायें.

ashish said...

दिव्या जी , शायद आपने हमारी टिपण्णी को गलत तरह से ले लिया . मेरा कहने का मतलब बस इतना ही था की पश्चिम का अँधा अनुकरण चाहे स्त्री करे या पुरुष , दोनों ही गलत है. हाजिरी लगाने की अपनी कोई मंशा नहीं है .

अजित गुप्ता का कोना said...

ऐसे ही विषय की किसी पोस्‍ट पर शायद मैंने यह विचार दिए थे कि पुरुष भी ऐसे फूहड़ वस्‍त्र पहन रहे हैं कि उन्‍हें देखकर शर्म आने लगती है। लो-कट जीन्‍स (शायद यही नाम है) को देखकर तो इतना भद्दा लगता है और जब वे कभी नीचे बैठकर झुकते हैं तब तो क्‍या नजारा होता है? शर्ट नहीं पहनने का तो फैशन ही हो गया है लेकिन मुझे तो आश्‍चर्य होता है कि कैसे अपने सीने को सफाचट करा लेते हैं? वे क्‍यों महिला की तरह बनना चाहते हैं? रही आपकी बात कि पश्चिम की सभ्‍यता से यह आया है या नहीं, मैं इतना ही कहना चाहूंगी कि वहाँ केवल नारी और पुरुष का ही सोच है, इस कारण दोनों ही केवल नर और मादा बने रहना चाहते हैं। भारत में परिवार की सोच है इसलिए यह कथन आता है कि पश्चिम से यह बदलाव आया है।

ZEAL said...

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रविकर जी ,

आपने जो दुर्धटना का जिक्र किया है , वैसी ही एक घटना हमेशा याद रहती है। जिससे मन में एक भय सदा बना रहता है। उस समय मैं बारहवीं की छात्र थी , मेरी सहेली अपने भाई के साथ bike पर जा रही थी। उसका दुपट्टा bike की पहिया में फस गया और जब तक गाड़ी रोकी गयी , तब तक मफलर की तरह गले पर टाईट हुआ दुपट्टा , उसके लिए फांसी का फंदा बन चुका था। उस दिन से मन में एक भय व्याप्त है । तब से सिर्फ सूती दुप्पटे ही इस्तेमाल करती हूँ। जो सिंथेटिक दुपट्टों की तरह फिसलते नहीं हैं। आज भी bike पर किसी महिला को एक हाथ में समान , और गोदी में छोटा बच्चा , दुपट्टा और साडी संभालती हुयी देखती हूँ तो बहुत डर लगता है । शायद मेरे मन से सहेली की मृत्यु का डर कभी नहीं निकल सकेगा।

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आशीष जी ,
आपने अपनी बात स्पष्ट कर दी , इसके लिए आभार।

.

महेन्‍द्र वर्मा said...

फिल्मों में कुछ महिलाएं जिस तरह के अशोभनीय वस्त्र पहनती हैं, उसके आधार पर समूचे नारी वर्ग को दोषी ठहराना बिल्कुल ग़लत है।
स्थान-समय-कार्य के अनुकूल वस्त्र पहनने से किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।

गौरव शर्मा "भारतीय" said...

सार्थक एवं विचारणीय आलेख........पश्चिमी सभ्यता का अन्धानुकरण चारों ओर स्पष्ट दृष्टिगत है जिसमे समाज का हर वर्ग बराबर की भागीदारी निभा रहा है जो सर्वथा अनुचित है |

Dr (Miss) Sharad Singh said...

गन्दगी लोगों के दिमाग में होती है। जिसके पास संस्कार है , वो कोई भी परिधान पहने , शोभनीय और अशोभनीय का ख़याल हमेशा रखता ही है।


बहुत सटीक तथ्य सामने रखे हैं आपने...

देवेन्द्र पाण्डेय said...

गन्दगी लोगों के दिमाग में होती है। जिसके पास संस्कार है , वो कोई भी परिधान पहने , शोभनीय और अशोभनीय का ख़याल हमेशा रखता ही है। जिसके पास संस्कार ही न हो अथवा लज्जा ही न हो तो उससे क्या उम्मीद रखना । लेकिन फिल्म जगत की अभद्रता की सजा आम स्त्री को उपरोक्त जुमले से नहीं मिलनी चाहिए।
...पूर्णतया सहमत।

P.N. Subramanian said...

आप सही कह रही हैं. मानकीकरण करने वालों के मानस को हम दोषी पा रहे हैं.

G Vishwanath said...

No, I don't feel only women are blindly aping the west.
Men do that too.

There is a difference between Andhanukaran and anukaran.

Nothing wrong in anukaran.
We could imitate/accept/adopt some positive things from the west, just as the west is now doing.
Yoga is becoming popular in the west.

Anukaran is okay as long as we choose wisely what to imitate.

Leave the people showbiz alone. They are a minority. Let us not bother about them at all.

Regards
GV

poonamsingh said...

आदरणीय zeal जी,नमस्ते!आपने बहुत सुन्दर लिखा है.
गन्दगी लोगों के दिमाग में होती है। जिसके पास संस्कार है , वो कोई भी परिधान पहने , शोभनीय और अशोभनीय का ख़याल हमेशा रखता ही है।

प्रवीण पाण्डेय said...

सभी नप रहे हैं इस तराजू में।

SAJAN.AAWARA said...

PTA NAHI KAB BADLEGI YE VIKIRN MANSIKTA. . .
JAI HIND JAI BHARAT

mridula pradhan said...

पीठ पर मात्र दो इंच की पट्टी । क्या ये डिजाईन भी पश्चिम से आई है ? फिर पश्चिम का दोष क्यूँ ?
sahi sawal hai.

amit kumar srivastava said...

revealing dresses should be avoided to some extent,and so far as one feel's confidence and comfort in one's outfit, it is ok.

decency or indecency is nothing but, state of mind.

an imp. issue penned well.

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना said...

परिधान में परिवर्तन आ रहा है .....मर्यादा से अमर्यादा की ओर. यह अमर्यादा किसी भी तरफ हो दोनों ही मामलों में मैं प्रथम दोषी पुरुष को मानता हूँ. पिछले ही दिनों लिखी क्षणिका को फिर से पोस्ट कर रहा हूँ , ध्यान से देखिये

जिन कपड़ों में
कोई दीगर लड़की
लगती है बड़ी कामुक
..........
छलकता है भोला बचपन
जब पहनती है उन्हें
मेरी सोलह बरस की बच्ची.

प्रतुल वशिष्ठ said...

जब आंधी (भौंडी कल्चर की ) आती हो तब घर का यदि एक वातायन (सदस्य) भी खुला (खुली सोच का) रह जाता है, घर में गर्द घुस जाती है. घर का बुहारन करने वाला सदस्य उस गर्द को निकालने की जुगत में लग जाता है... शेष .. कार्यालय जाकर स्पष्ट कर पाऊँगा...

Nirantar said...

Thanks for your comment on my poem "Indecision"
Indecision can make one repent life time.One can miss the goal for which they have hankered for.
Prople like you are a rare commodity.
Regards and best wishes

प्रतिभा सक्सेना said...

आज के भाग-दौड़ भरे जीवन में नारी के लिए वे परंपरागत वस्त्र उपयुक्त नहीं हैं - बदलाव समय की माँग है .पुरुष तो पहले ही पारंपरिक पोशाकों का (विशेष अवसरों को छोड़ कर )परित्याग कर चुके हैं .पाश्चात्य प्रभाव सारे समाज पर पड़ रहे हैं किसी एक वर्ग पर नहीं . हाँ ,दिखावे की बातों का प्रभाव अधिक है ,वहाँ के जीवन की अच्छी और उपयोगी विशेषताओं को भी ग्रहण करें तो उचित हो .

RAJPUROHITMANURAJ said...

आदरणीय zeal जी,नमस्ते!आपने बहुत सुन्दर लिखा है.
गन्दगी लोगों के दिमाग में होती है। जिसके पास संस्कार है , वो कोई भी परिधान पहने , शोभनीय और अशोभनीय का ख़याल हमेशा रखता ही है।

Satish Saxena said...

गन्दगी लोगों के दिमाग में होती है !
यही सच है ...शुभकामनायें !!

रविकर said...

धन्यवाद---

एक पोस्ट टीन-एजर्स गर्ल्स की
कामन मेडिकल प्रॉब्लम पर आना चाहिए,
इस आयु में होने वाले रोग, उपचार & सावधानियां
शामिल किया जा सकता है.
मनोवैज्ञानिक पक्ष भी.

aarkay said...

पश्चिम के अन्धानुकरण के सम्बन्ध में केवल महिलाओं को ही टार्गेट करना सर्वथा अनुचित है. इस मामले में पुरुष वर्ग भी पीछे नहीं है. वास्तव में अपनी सभ्यता एवं सांस्कृतिक मूल्यों का संरक्षण हम सभी का दायित्व है.
सुंदर आलेख एक विचारणीय विषय पर !

नश्तरे एहसास ......... said...

इतना दो टूक लिखा है की दुनिया की इस अभद्र सोसाइटी को आइना दिख गया होगा.....
पढ़ कर अच्छा लगा आपका ब्लॉग.

Urmi said...

बहुत बढ़िया पोस्ट! बिल्कुल सही लिखा है आपने! सार्थक और विचारणीय पोस्ट!

rashmi ravija said...

महिलाओं के पहनावे पर, पुरुष हमेशा...आपत्ति करते हैं...पर भूल जाते हैं...कि उन्होंने भी सिर्फ सुविधा की दृष्टि से कभी धोती छोड़कर फुलपैंट अपनाई थी....पर महिलाएँ उन्हें हमेशा भारतीय परिधान में ही दिखनी चाहिए.

चंद सी ग्रेड फ़िल्मी नायिकाओं की वजह से समस्त नारी जाति को दोष देना सर्वथा अनुचित है.

Suman said...

दिव्या जी, बिलकुल सहमत हूँ आपसे !

डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) said...

sahamat hun aapse divya ji ....... mere scrapbook se words copy nahi ho rahe ath tippani hindi me likh kar bhi nahi paste kar payi yaha ........isi vishay se sambndhit tipnni likhi par aa nahi pa raha yaha ...........

irshad ahmad said...

mai apana islamic bichar vayakkt karinga to shayad kuch logo ko bura lage issss wajah se

G.N.SHAW said...

वस्त्र पहनने के मकसद --तन ढकना होनी चाहिए , नुमाईश नहीं ! हमारे देश के पहनावे .. हमारे जलवायु के अनुरूप होते है !

Anonymous said...

मज़दूर तो मज़दूर है क्या स्त्री क्या पुरूष!

तिरंगे झंडे की स्थिति देखने आया था, पोस्ट पर नज़र पड़ गई

Kunwar Kusumesh said...

लज्जा स्त्री का आभूषण माना जाता है भारत में,इस लिहाज़ से ज़रा देखिये.

ZEAL said...

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लज्जा स्त्री का आभूषण माना जाता है भारत में,इस लिहाज़ से ज़रा देखिये.
May 25, 2011 7:41 AM

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लज्जा केवल स्त्री का आभूषण होता है ? क्या पुरुषों को निर्लज्ज होना चाहिए ?
जब पुरुष सम्मान्यीकरण करके कहते हैं की स्त्रियाँ अर्धनग्न घूम रही हैं तो क्या पुरुष अपने वक्तव्य में अपनी निर्लज्जता का परिचय नहीं देते ?
क्या वो वक्तव्य हर स्त्री पर लागू नहीं हो जाता , जो मान मर्यादा का भी पालन कर रही है ?
या तो नाम लेकर कहना चाहिए की अमुक स्त्री अमर्यादित है । Generalize करने का कोई औचित्य नहीं बनता।
जगह जगह लोलुप दृष्टि लिए , अमर्यादित अनेक पुरुष दिख जायेंगे , जो बलात्कार और छेड़ छाड़ जैसी घटनाओं को अंजाम देते हैं, ऐसे पुरुषों के बारे में आपका क्या कहना है ?

स्त्रियों पर ऊँगली उठाने से पहले पुरुषों को अपनी तरफ एक बार निगाह अवश्य डाल लेनी चाहिए।

संस्कारवान स्त्रियाँ भी हैं और पुरुष भी । यदि पुरुष प्रधान समाज में , पुरुष मर्यादित रहे , चरित्रवान रहे और संस्कारवान रहे तो फिल्म जगत में भी स्त्रियों की फूहड़ता नहीं दिखाई देगी , जिसके जिम्मेदार गन्दी मानसिकता वाले फिल्मों के निर्माता और निर्देशक होते हैं।

आने वाली युवा पीढ़ी , जो देखेगी वही तो सीखेगी। क्या युवाओं को संस्कार देना भी मात्र स्त्रियों का दायित्व है ?
बच्चों में यदि गलती से संस्कार आ गए तो ---" worthy child of a worthy father"...अन्यथा सारा दोष माँ का।

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महेन्द्र श्रीवास्तव said...

मुझे लगता है कि इस लेख को पुरुष और स्त्री में बांट कर नहीं देखा जाना चाहिए। सच तो यह है कि वाकई पहनावा देश में एक गंभीर समस्या बनती जा रही है। सब जानते हैं हम हर क्षेत्र में तेजी से विकास कर रहे हैं, और इसी वजह से दुनिया के दूसरे देश हमें सिर्फ "बाजार' समझने लगे हैं। विश्व के मानचित्र में हमारी भूमिका एक बिगडैल बाजार की है, जहां हर चीज को खपाया जा सकता है। रही बात सही गलत की तो इसमें तो हमेशा तर्क कुतर्क की गुंजाइश बनी रहेगी। इसलिए इसे लोगों पर ही छोड़ देना चाहिए कि उन्हें क्या पहनना है और कितना पहनना है। आप सभी जानते हैं कि पिछले दिनों बैडमिंटन की अंतर्राष्ट्रीय संस्था ने ऐलान किया कि इस खेल को और आकर्षक बनाने के लिए महिला खिलाड़ियों को स्कर्ट पहनना होगा। सवाल उठता है कि क्या टेनिस इसीलिए लोकप्रिय है कि यहां महिलाएं स्कर्ट पहनती हैं। क्या देश में आईपीएल क्रिकेट के लिए नहीं छोटे कपड़ों वाली चीयर गर्ल से ज्यादा लोकप्रिय है। इन सबके लिए महिलाओं को आगे आना होगा कि कहीं बाजार को आकर्षित करने के लिए उनका बेजा इस्तेमाल तो नहीं हो रहा है। इस गंभीर मुद्दे को स्त्री पुरुष में प्लीज ना बांटना मेरे ख्याल से मुद्दे से हटना होगा।
मेरा इरादा किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है। अगर मेरी बात से किसी की भी भावनाएं आहत हैं तो मैं पहले ही उनसे क्षमा मांग लेता हूं।

Aruna Kapoor said...

आप से सहमत हूं दिव्या!...अब मै और सभी लोग कई बरसों से देख रहे है कि पुरुषों ने शर्ट-पैन्ट और सूट का पहनावा तहेदिल से अपनाया हुआ है!...ऐसा लगता ही नही है कि यह विदेशी पोशाकें है....जब कि अब भी बहुसंख्य भारतीय महिलाएं साडीयां और सलवार-कमीज पहने नजर आती है...वेस्टर्न ड्रेसीस कितने % महिलाओं ने अपनाई है?..महिलाओं के सिर पर निरर्थक ही दोष मढ दिया जाता है! ..विचारणीय आलेख!

ज्ञानचंद मर्मज्ञ said...

आपने सही लिखा है गन्दगी तो लोगों के दिमाग में होती है !
गंदे लोग अच्छी बातों में भी गन्दगी ही ढूढने की कोशिश करते हैं !
आपके लेख से मैं पूरी तरह सहमत हूँ !
आभार !

pramod kush ' tanha' said...

गन्दगी लोगों के दिमाग में होती है। जिसके पास संस्कार है , वो कोई भी परिधान पहने , शोभनीय और अशोभनीय का ख़याल हमेशा रखता ही है। जिसके पास संस्कार ही न हो अथवा लज्जा ही न हो तो उससे क्या उम्मीद रखना ...

behad tarkik satya...sunder prastutikran.

कविता रावत said...

आज का सच तो यही है कि पश्चिमी सभ्यता का अन्धानुकरण करने में कोई पीछे नहीं है, इसमें स्त्री और पुरुष का कोई भेद नहीं.... ..
आपकी यह बात बिलकुल सही है कि...
गन्दगी लोगों के दिमाग में होती है। जिसके पास संस्कार है , वो कोई भी परिधान पहने , शोभनीय और अशोभनीय का ख़याल हमेशा रखता ही है। जिसके पास संस्कार ही न हो अथवा लज्जा ही न हो तो उससे क्या उम्मीद रखना । लेकिन फिल्म जगत की अभद्रता की सजा आम स्त्री को उपरोक्त जुमले से नहीं मिलनी चाहिए.......

संतोष त्रिवेदी said...

हमारा दुर्भाग्य है कि हमने पहनावे में तो नक़ल कर ली पर अपनी अकल विकसित नहीं कर पाए ! फैशन के दुष्प्रभाव पुरुष और स्त्री दोनों में समान रूप से हैं !
पहनावे में स्वतंत्रता ज़रूरी है पर फूहड़पन नहीं !

Kailash Sharma said...

गन्दगी लोगों के दिमाग में होती है। जिसके पास संस्कार है , वो कोई भी परिधान पहने , शोभनीय और अशोभनीय का ख़याल हमेशा रखता ही है। जिसके पास संस्कार ही न हो अथवा लज्जा ही न हो तो उससे क्या उम्मीद रखना ।....

बहुत सच कहा है..केवल कपड़े पहनने से ही किसी के संस्कारों पर निर्णय नहीं दिया जा सकता..पश्चिमी सभ्यता का अंधानुकरण के लिये केवल स्त्रियों को ही दोष क्यों दें, पुरुष भी पीछे नहीं हैं, पर उन पर कोई उंगली नहीं उठाता..बहुत सार्थक और सकारात्मक पोस्ट..आभार

शोभना चौरे said...

हमारी तो आदत में ही शुमार हो गया है पश्चिम को कोसने का |हमार्रे यहाँ की शादियों में दुल्हन के लिए देशी कपड़े ही आते है और दूल्हें के लिए विशुद्ध पश्चिमी कपडे |हमे अपनी मानसिकता ही बदलनी होगी |

Mansoor ali Hashmi said...

सामयिक विषय पर तर्क संगत बहस करता आलेख. टिप्पणी रूपी आलोचना-समालोचना को आमंत्रित

करने का गुण आपकी सशक्त लेखनी में है [ for that many of us bloggers are jealous of

'Zeal']. "टिप्पणी के नाम पर तो हमें - 'सटीक', 'वाह', 'ख़ूब' और 'बहुत ख़ूब' ही मिलता है. काश! कुछ

स्वस्थ्य या अस्वस्थ्य ही सही आलोचनाए भी मिल जाती!


तो आज कुछ prominent ब्लागर्स, टिप्पणीकारो पर कुछ भड़ास ही निकाल लू !




# अन्धानुकरण केवल करती क्या महिलाए?

'उत्साह' [Zeal] से भरपूर हमें लेख पढ़ाये.


# पढ़कर ये विषय वस्तु , डाक्टर्स* भी चले आये,
[डा. अमर कुमार /डा.दराल]

एक 'Top 'निरीक्षक रहे, इक 'Low' पे हो आये.


# 'नज़्ज़ारे' से भयभीत है गुप्ता जो 'अजित' है,

'मृदुला' तो 'दो ईंच की पट्टी' पे चकित है!



# 'पृथ्वी' ने तो 'दूजो' के भी कुछ नाम गिनाये,

अलबेले जो 'खत्री' है वो 'दर्शन' भी कर आये!


#'शाहों की नवाज़िश' है कि कमतर हुए कपड़े,

'पाण्डेय' थे सरे राह तराज़ू कही पकड़े.


# 'कौशलेन्द्र' को ख़ामी नज़र आती है पुरुष में ,

'इरशाद' पसोपेश में मज़हब की कसक में.


# स्त्री ही का गहना है ये, लज्जा जो वो पहने! -'कुश्मेश'

निर्लज्ज पुरुष भी तो है जो शर्ट न पहने !!


http://aatm-manthan.com

--

Vivek Jain said...

सहमत हूँ आपसे
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

एस एम् मासूम said...

फूहड़ता और अश्लील वस्त्रों कि सभ्यता कहा कि है यह बहुत अधिक मेने नहीं रखता. आपने कहा ज्यादातर महिलाएं अपने तन पर वस्त्रों की गरिमा को बखूबी समझती हैं. एक अच्छी बात है.
पूरे लेख मैं यह समझ नहीं आया कि आप उनपे पश्चमी सभ्यता का असर शब्दों से मर्दों के वस्त्रों कि बात कर रही हैं या उनके चाल चलन कि? पश्चिमी सभ्यता या हर वो दूसरी सभ्यता कि जो महिलों को नग्नता के लिए प्रोत्साहित करती है, सभी महिलाओं पर घोर अत्याचार करती है। कोई भी महिला या पुरुष यदि स्वम को अपने झान,शिक्षा वफादारी तथा गुणों व मानवीय मूल्यों के द्वारा समाज मैं पह्चंवाता है तो बात समझ मैं आती है लेकिन यदि अपने यौंन आकषर्णों को ही दुसरों के सामने प्रस्तुत करने कि कोशिश करता है तो यह अनुचित है.
वेल ड़ोरेन्ट के अनुसार पश्चिमी महिला 19 वीं शताबदी के आंरम्भिक काल तक मानवधिनारों से वंचित की, आकस्मिक रूप से लालची लोगों के हाथ लग गई। इस प्रकार इन समाजों में महिला एक वस्तु तथा उपकरण के रूप में सामने आई है।

Vaanbhatt said...

जहाँ कानून व्यवस्था दुरुस्त है ...वहां महिलाएं कपड़ों कि चिंता नहीं करतीं...भाई जब सलमान को छूट है तो मल्लिका को क्यों नहीं...खुली सोच के कारण आज के बच्चे निश्चय इन दुविधाओं से ऊपर हैं...वो जमाना गया जब एक सीन डाल के राज कपूर पिक्चर हिट करा लेते थे...

Rajesh Kumari said...

Dear divya,achcha hua der se aai,aap ke behtreen lekh ke saath logon ke tark vitark padhe.ye ek yesa mudda hai ki ek book likh sakte hain is topic par.main aapki baaton se poortah sahamat hoon.bas itna kahna chahoongi ki samay occasion,weather ke anusaar jo bhi pardhaan aapko suit karen use apnaane me kisi stri purush ko aapatti nahi honi chahiye.or hume apni aane vaali peedhi ko yahi seekh deni chaahiye ki bikne vaale so called fashion ko soch samajhkar follow karen.vaastvikta aur screen me fark samjhe.keep writing on such challenging tpoics.my blessings are with you.

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) said...

विचारणीय लेख."शीर्षक" को व्यापक कथन के तौर पर कहना नि:संदेह ही आपत्तिजनक है.युग परिवर्तन के साथ ही पहनावे में भी परिवर्तन आया फिर भी गाँव से लेकर महानगर तक आज भी भारतीय परिधानों का ही प्रचलन है.एक प्रश्न यह भी उठता है -माडलिंग और फिल्मो में कुछ अभिनेत्रियाँ आपत्तिजनक वस्त्र क्यों पहनती हैं ? जाहिर है मांग के कारण .(इसके लिए निर्माता मोटी रकम अदा करते हैं.) यह मांग वास्तव में बाजार में रहती है या पैदा की जाती है.मांग है तो उपभोक्ता भी होंगे.अब प्रश्न यह है कि उपभोक्ता कौन हैं और क्यों है ?इस पर भी विचार करें.

मीनाक्षी said...

पश्चिम को कोसने की आदत सी हो गई है .. हर बात के लिए उसी को ही कटघरे में खड़ा कर देते हैं और अपने अन्दर झाँकने की ज़रूरत ही नहीं समझते...

JC said...

दिव्या जी, बहुत जटिल विषय है! जैसा आज के सन्दर्भ में मौसम आदि को ध्यान में रख परिधान में विविधता आना आवश्यक है कहा गया,,, उसी प्रकार यदि मानव जीवन के 'सत्य' को जानना हो, 'माया' को भेदने के लिए, प्राचीन ज्ञानी हिन्दुओं के विचारों को पहले जानना उपयोगी हो सकता है, जैसा वर्तमान में भी किसी भी विषय पर अनुसंधान हेतु पहले उसके इतिहास को पढना उपयोगी माना जाता है, जिससे समय की बचत हो सके, कोई काम दोह्राराने से बचा जा सके (भारत में बहुत क्षेत्रों में आप पाएंगे एक ही काम कई जगह साथ साथ अनजाने चल रहा होता है क्यूंकि विचारों का आदान प्रदान की कोई सरकारी व्यवस्था नहीं है)...

दूसरी ओर, प्राचीन हिन्दू कह गए कि मानव की कार्य-क्षमता काल के साथ साथ घटती ही जाती है और कलियुग में वो २५ से ०% ही रह जाती है, आदि... यदि काल-चक्र के अनुसार आध्यात्मिक पतन प्राकृतिक मानें तो शायद हम व्यक्ति को दोष नहीं देंगे, जैसे तूफ़ान में क्षति होना अनिवार्य है और हम अदृश्य भगवान् अथवा प्रकृति के सामने अपने को लाचार मान अपने को अभागा अथवा भाग्यवान मान लेते हैं, आत्म-समर्पण कर देते हैं, और जीवन यापन में फिर से जुट जाते हैं...

मनोज कुमार said...

@ गन्दगी लोगों के दिमाग में होती है। जिसके पास संस्कार है , वो कोई भी परिधान पहने , शोभनीय और अशोभनीय का ख़याल हमेशा रखता ही है। जिसके पास संस्कार ही न हो अथवा लज्जा ही न हो तो उससे क्या उम्मीद रखना ।
बिल्कुल सहमत।

निवेदिता श्रीवास्तव said...

दिव्या ,सहमत हूं तुमसे .....बुराई न तो किसी वस्त्र में है और न ही किसी परिवेश में ...अगर गरिमापूर्ण तरीके से सलीके से वस्त्र पहने तो कोई भी परिधान अच्छा है ...सबसे बड़ी बात जो मुझे लगती है वो यही है कि आलोचक उस को देखता कैसे है .....अच्छा विषय लिया तुमने ...शुभकामनायें !

दिगम्बर नासवा said...

पश्चिमी सांस्कृति का प्रभाव तो ज़रूर है .... पर जितना पहनावे और विचार को लेकर बोला जाता है उतना नही ... और पहनावे से कुछ नही होता ... बात विचारों की है ... वो अपने ही हों तो अच्छा है ...

Pratik Maheshwari said...

इस बात पे समर्थन नहीं है कि केवल महिलाएं ही पश्चिमीकरण से ग्रस्त हैं.. पुरुष भी उतने ही इस रोग से ग्रस्त हैं..
पर जो आम जगहों पर आपने महिलाओं का आज भी गरिमा के साथ रहने के बात कही है, उसमें थोडा संशय है..
दिल्ली और मुंबई के चंद इलाकों में जाएंगे तो शर्मसार हो कर लौटना पड़ेगा वहां के नौजवानों को देख कर..

और पश्चिमीकरण सिर्फ वेशभूषा की ही नहीं परन्तु दारु पीने में भी हो रही है.. भद्र परिवार के शिक्षित लोग आज इसे समाज में स्टेटस का नाम देने लगे हैं..
बहुत ही दुःख होता है यह देख कर पर ज्यादा कुछ किया नहीं जा सकता.. बचपन के संस्कार गलत हों तो उन्हें बदलना मुश्किल है...

नवीन पाण्डेय 'निर्मल' said...

"..साड़ी को सबसे गरिमामय मानें तो कुछ लोगों का ये प्रश्न है की -"आधा पेट खुला क्यूँ रहता है ? साडी navel के नीचे क्यूँ बंधी है ? और माशा अल्ला क्या खूब आधुनिक ब्लाउज हैं, पीठ पर मात्र दो इंच की पट्टी । क्या ये डिजाईन भी पश्चिम से आई है ? फिर पश्चिम का दोष क्यूँ ?
वाकई बेहद सटीक आकलन। भ्रमित लोगों की आंखें खुल जानी चाहिए।

Pahal a milestone said...

दिव्या जी हम लोग हर बार पश्चिमी सभ्यता को अपनाने चर्चा करतें हैं ! उसमे केवल एक विषय ज्यदा देखने पड़ने को मिलता हे जो की सभ्यता को असभ्यता की पर ख़तम हो जाता हे लेकिन कभी उनकी तरकी को किस तरह अपनाएं ये कोई बात नहीं करता है काश !अगर हम लोग ये सब भी देख समझ पाते तो शायद देश का नक्षा ही कुछ और होता !

M VERMA said...

अन्धानुकरण स्त्री करे या पुरूष नहीं होना चाहिये.

Patali-The-Village said...

वस्त्र पहनने के मकसद तन ढकना होनी चाहिए , नुमाईश नहीं|

राज भाटिय़ा said...

महिलाएं वस्त्र धारण में पश्चिम का अन्धानुकरण कर रही हैं, मर्द भी तो सदियो से कर रहे हे, लेकिन चाहे मर्द हो या ऒरत नकल तो नकल ही हे, उसे क्यो करे, शीलता ओर आशीलता की बात तो तभी आती हे जब अंग प्रदर्शन किया जाये, एक आदि वासी या मजदुर, या साडी पहनी नारी या किसी नारी की दुर्घटना के समय फ़टे कपडे देख कर भी आशीलता का भाव नही आता, ओर दुसरी तरफ़ कोई नर/नारी पुरे कपडे पहन कर भी अपनी हरकतो से आशीलता फ़ेलाते हे... इस लिये इस मे कपडो का कोई दोष नही हाव भाव ही दर्शते हे शीलता ओर आशीलता

Rakesh Kumar said...

सुन्दर सार्थक लेख.
वस्त्र शालीनता से पहने जाये तो अच्छे लगते हैं.
शालीन पहरावे से भी आदर भाव का उदय होता है.
मेरी नई पोस्ट आपका इंतजार कर रही है.
'सरयू' स्नान का न्यौता है आपको.

JC said...

यद्यपि सृष्टिकर्ता, परमेश्वर अथवा 'परम सत्य' को निराकार जाना गया... और उस शक्ति रूप में अनादिकाल से उपस्थित अदृश्य जीव को, जो शून्य काल और स्थान से सम्बंधित है, उसे जानने के लिए अनंत साकार रूपों के 'सत्य' के माध्यम से प्राचीन काल में विभिन्न कहानियों के माध्यम से दर्शाया जाता आ रहा है ("हरी अनंत, हरी कथा अनंता..."),,,
जिसे कुछ अंधों का हाथी को जानने हेतु प्रयास द्वारा वर्तमान में उदाहरण दिया जाता है, मस्तिष्क की कार्य विधि के कारण - जिसने पूँछ को छुआ उसने हाथी को रस्सी समान जाना; जिसने उसके पैर छुए उसने खम्बे समान; जिसने उसका बदन छुआ उसने दीवार समान; आदि, आदि, अर्थात यद्यपि जितनी हरेक ने अनुभूति की वो सत्य था किन्तु सम्पूर्ण हाथी को जानने के लिए जिसने उसे देखा है वो ही कह सकता है कि हाथी यानि परम सत्य क्या हो सकता है...

और दूसरी ओर हम जानते हैं कि 'पंचतंत्र' की कहानी वर्तमान में हाल ही में एक राजा के मूर्ख बच्चों को सरल शब्दों में 'निति शास्त्र' पढ़ाने हेतु किसी ज्ञानी पूर्वज ने पशुओं के राजा सिंह और उसके दरबारी, अन्य निम्न स्तर के पशुओं आदि, के माध्यम से मनोरंजक कहानियों के माध्यम से दर्शाया...

वास्तव में जोगियों और 'सिद्ध पुरुषों' ने तपस्या से चंचल और अस्थिर मन को साध, जंगली पाशों को साधने समान, जाना कि मानव सौर-मंडल के ९ सदस्यों (सूर्य से शनि तक) के सार से बनी शक्ति रूप अनंत परमेश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति है, उसीका प्रतिरूप अथवा प्रतिबिम्ब, जो प्रकृति में व्याप्त विविधता और काल के साथ परिवर्तनशीलता को दर्शाने हेतु एक अद्भुत रचना है... किन्तु तपस्या और साधना, यानि अथक अनुसन्धान आज भी आवश्यक है परम सत्य अथवा परम ज्ञान तक पहुँचने हेतु... उन्होंने यह भी जाना कि एक बिंदु ('नादबिन्दू', विष्णु) पर केन्द्रित ज्ञान, मानव शरीर में किन्तु आठ चक्रों में बंटा है (जिसे नौवां शनि मूल से मस्तिष्क पहुँचाने का काम करता है उसके सार नर्वस सिस्टम द्वारा), जिस कारण परम ज्ञान पाने के लिए आठों चक्रों में, अथवा बंधों में, रिकॉर्ड की गयी शक्ति और ज्ञान को मस्तिष्क तक उठाना अनिवार्य है, किन्तु काल के प्रभाव से और शरीर के निचले भाग से कंठ तक ६ चक्रों की, यानि ६ ग्रहों की प्रकृति जानी गयी कि वो शक्ति अथवा ज्ञान को मस्तिष्क तक पहुँचने में साधारणतया बाधा डालते हैं, यानि 'राक्षश' हैं, जिनके राजा शुक्र का निवास स्थान गले में है... (शिव नीलकंठ हैं क्यूंकि विष वो ही धारण कर सकते हैं ! उनके पुत्र कार्तिकेय का वाहन नीला मोर है, और कृष्ण 'नीलाम्बर' भी हैं, और 'आकाश' सूर्य की माया के कारण नीला प्रतीत होता है यद्यपि उसका सही रूप रात में ही पता चलता है, यानि वह कृष्ण है! आदि आदि,,,)...

ZEAL said...

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JC जी ,

आपने हाथी के उदाहरण द्वारा बहुत ही अच्छे तरीके से बात रखी है। जिसने जो देखा सुना वही समझ लिया और कह दिया। शायद समग्रता में सोचने की जरूरत नहीं समझी किसी ने। कव्वा कान ले के भागा वाली कहावत हो गयी ।

यदि कोई पुरुष , किसी स्त्री में उसके 'माँ' और 'बहन' के स्वरुप को देखेगा , तो उसकी निगाह वस्त्रों पर नहीं जायेगी।
मुझे तो एक आम महिला कभी अभद्र नहीं दिखी। आस पास परिवेश में भी कभी किसी महिला को अभद्र अथवा अशालीन वस्त्र में नहीं देखा। व्यक्ति की निगाह उन्हीं पर जाती है , जिन्हें वो देखना चाहता है और जैसा देखना चाहता है।

क्या एक बड़ा वर्ग जो सभ्रांत और सुसंस्कारित है , उस पर दोष मढना भी उचित है क्या ?

स्वामी विवेकानंद ने , अपने विवाह के बाद जब पहली बार अपनी पत्नी को देखा तो उनके मुंह से निकला - "माँ".....और उनकी पत्नी ने कहा -- "वत्स" ।

सब कुछ विचारों का खेल है। सोच और संस्कारों का खेल है। आँखों से तो सिर्फ स्थूल दुनिया ही दिखती है।

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ZEAL said...

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@--Pahal A milestone said...

दिव्या जी हम लोग हर बार पश्चिमी सभ्यता को अपनाने चर्चा करतें हैं ! उसमे केवल एक विषय ज्यदा देखने पड़ने को मिलता हे जो की सभ्यता को असभ्यता की पर ख़तम हो जाता हे लेकिन कभी उनकी तरकी को किस तरह अपनाएं ये कोई बात नहीं करता है काश !अगर हम लोग ये सब भी देख समझ पाते तो शायद देश का नक्षा ही कुछ और होता !
May 26, 2011 5:13 PM

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अपील तो की थी लोगों से की पश्चिम के एक अनुकरणीय व्यक्तित्व से कुछ सीख भी लें। लेकिन वहां भी ज्यादातर लोगों ने सुना नहीं। या फिर शायद इंसान तैयार नहीं है स्वयं को बदलने के लिए। जो भी हो, कोशिश जारी है...

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ZEAL said...

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अपील तो की थी लोगों से की पश्चिम के एक अनुकरणीय व्यक्तित्व से कुछ सीख भी लें। लेकिन वहां भी ज्यादातर लोगों ने सुना नहीं। या फिर शायद इंसान तैयार नहीं है स्वयं को बदलने के लिए। जो भी हो, कोशिश जारी है...

http://zealzen.blogspot.com/2011/05/blog-post_7214.html

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जीवन और जगत said...

स्त्रियों के सामने दुविधापूर्ण स्थिति है। यदि वे सामान्‍य वेशभूषा में रहें तो कहा जाता है कि इसे तो सलीके से कपडे पहनना भी नहीं आता। यदि वे थोडा बनाव श्रृंगार कर लें तो उन पर फिकरे कसे जाते हैं। हमें पश्चिम का अन्‍धानुकरण करने के बजाय उसकी सकारात्‍मक चीजों को अपनाना चाहिए।

रविकर said...

4 din se koi nai post nahin, jara sahaanubhuti k 2 shabd meri post par ----

JC said...

दिव्या जी, बंगाल में शक्ति पूजा का चलन माँ काली और माँ दुर्गा (काली और गौरी) के रूप में अनादि काल से चला आ रहा है,,, यानि शक्ति को नारी स्वरुप में सांकेतिक भाषा में अपनाया गया है...

सन '५९ में दशहरे की छुट्टियों में हम अपने कॉलेज से कलकत्ता पहुंचे थे, और एक लौज में रह रहे थे... अगली सुबह सबेरे हम चार पांच मित्रों ने सोचा किसी से जानकारी प्राप्त कर लें कौन कौन से दर्शनीय स्थल निकट में हैं जो हम अपने निर्धारित कार्यक्रम के पश्चात देख सकें ... उस समय एक वृद्ध हलवाई की ही दूकान खुली मिली... इससे पहले कि हम उससे कुछ पूछते, एक ४-५ वर्षीय कन्या दूध खरीदने आ गयी... उसके आने पर उस वृद्ध व्यक्ति ने उसे "माँ " संबोधित किया तो हम उत्तर भारतीयों के मुख पर अज्ञानतावश मुस्कान छा गई !

Anjana Dayal de Prewitt (Gudia) said...

Excellent post!!! I have been thinking on the same lines... thanks so much for giving words to my questions!!! Congratulations! :-)

Pallavi saxena said...

गन्दगी लोगों के दिमाग में होती है। जिसके पास संस्कार है ,वो कोई भी परिधान पहने,शोभनीय और अशोभनीय का ख़याल हमेशा रखता ही है। जिसके पास संस्कार ही न हो अथवा लज्जा ही न हो तो उससे क्या उम्मीद रखना । में आप की इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ एक दम सही और सटीक बात कही है आप ने ,लकीन दुनिया में ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो बाहर से कुछ और अंदर से कुछ और ही होते हैं।

यह जरूरी नहीं की कम कपड़े वाली लड़की की विचार धार भी बुरी ही हो और साड़ी में लिपटी औरत के विचार शुद्ध ही हों, यह बात परिधानों पर नहीं संस्कारों पर ज्यादा निभार करती है,इसलिए सभी को एक ही श्रेणी में रखना ठीक बात नहीं i am agree with you many thanks...