जीवनसाथी से बढ़कर साथ निभाने वाला दूसरा कौन हो सकता है भला ? जब दो में से एक नहीं रह जाता तो उसका दर्द क्या होता है ये उनसे पूछिए जो नितांत अकेला होकर , जीवन के इस कठिन सफर को उसकी यादों के सहारे काट रहा होता है ! पिताजी (श्री वी पी श्रीवास्तव , रिटायर्ड बैंक अधिकारी) द्वारा , उनकी स्वर्गीय पत्नी की याद में रचित उनकी कविता , उनकी अनुमति से यहाँ प्रकाशित कर रही हूँ!
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A tribute to my second self
A tribute to my second self
(my soulmate , my life companion )
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भूल न पाऊं तुम्हें मैं प्राणप्रिया
अगणित उपकार मुझपर तुमने किये
मोक्ष मिले तुम्हें यही विश्वास किया
क्षमाप्रार्थी हूँ भाव विह्वल कभी किया !
अगणित उपकार मुझपर तुमने किये
मोक्ष मिले तुम्हें यही विश्वास किया
क्षमाप्रार्थी हूँ भाव विह्वल कभी किया !
बन गयी तुम अब मेरा इतिहास
रक्षा कवच तुम्हारा सदा रहे मेरे पास
कैसा वियोग टूट गयी सब आशा
विधान मधुस्पर्श का होता काश
रक्षा कवच तुम्हारा सदा रहे मेरे पास
कैसा वियोग टूट गयी सब आशा
विधान मधुस्पर्श का होता काश
पीड़ा उभरी भवसागर में होने का
दिखे न कोई छोर, चहुँ और
प्रबल प्रवाह वेदना कर प्रताड़ित
बह रहा हूँ पकडे तेरी स्मृति डोर
दिखे न कोई छोर, चहुँ और
प्रबल प्रवाह वेदना कर प्रताड़ित
बह रहा हूँ पकडे तेरी स्मृति डोर
त्यागमूर्ति थी, त्याग किया जीवन भर
बहाई प्रेमपुंज की मधुधारा जी भर
करती रही सदा तुम सेवा निस्वार्थ
तत्पर रहती करने को पूण्य परमार्थ
बहाई प्रेमपुंज की मधुधारा जी भर
करती रही सदा तुम सेवा निस्वार्थ
तत्पर रहती करने को पूण्य परमार्थ
निर्मूल्य हुए सपने संजोये आस रही न मेरी
अपूर्ण लक्ष्य न होगी, सच श्रद्धांजलि तेरी
करने हैं कार्य तुम्हें ही, रहे जो शेष
करूँ याचना तुम्हीं से, शक्ति दो मुझे विशेष
अपूर्ण लक्ष्य न होगी, सच श्रद्धांजलि तेरी
करने हैं कार्य तुम्हें ही, रहे जो शेष
करूँ याचना तुम्हीं से, शक्ति दो मुझे विशेष
साथ निभाये तुमने जो तैतालीस वर्ष
सच्चा था वही मेरे जीवन का उत्कर्ष
हो गया हूँ संतप्त अब नहीं रही आस
विस्मृत नहीं होगी तुम मेरी अंतिम सांस
सच्चा था वही मेरे जीवन का उत्कर्ष
हो गया हूँ संतप्त अब नहीं रही आस
विस्मृत नहीं होगी तुम मेरी अंतिम सांस
शक्ति स्वरूपणी, शक्तिपुंज में हुयी विलीन
तेरे ज्ञान की गंगा बचा ले, होने से मेरा ह्रदय मलीन
वचन दो शुभे, आज न कहना काश
सदा रहो ह्रदय में जब तक आऊं तेरे पास
तेरे ज्ञान की गंगा बचा ले, होने से मेरा ह्रदय मलीन
वचन दो शुभे, आज न कहना काश
सदा रहो ह्रदय में जब तक आऊं तेरे पास
सरल स्वभाव तेरा , कैसा सलिल ह्रदय
निर्मल सारा जीवन , रही सदा करुणामय
त्यागमूर्ति थी तुम, ममता की पारावार
समझ न पाया कोई , तेरा विशाल आकार
निर्मल सारा जीवन , रही सदा करुणामय
त्यागमूर्ति थी तुम, ममता की पारावार
समझ न पाया कोई , तेरा विशाल आकार
तुम शक्ति अपार, कर दिया जीवन पार
ऋणी रहूँगा सदा तेरा, हुआ मैं लाचार
अनवरत प्रेरणा दो, न रहे अपूर्ण व्यवहार
चाहूँ बस हो पूर्ण तेरा विचार , मेरा आचार !
ऋणी रहूँगा सदा तेरा, हुआ मैं लाचार
अनवरत प्रेरणा दो, न रहे अपूर्ण व्यवहार
चाहूँ बस हो पूर्ण तेरा विचार , मेरा आचार !
वेद प्रकाश श्रीवास्तव
10 comments:
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "प्रथम भारतीय अंतरिक्ष यात्री - राकेश शर्मा - ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
श्रद्धासुमन।
मार्मिक!
वाकई...जो चला जाता है..दूसरे को बहुत याद आता है। मन छूने वाली रचना।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (15-01-2017) को "कुछ तो करें हम भी" (चर्चा अंक-2580) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
मकर संक्रान्ति की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (15-01-2017) को "कुछ तो करें हम भी" (चर्चा अंक-2580) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
मकर संक्रान्ति की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
एक प्यारभरी समर्पित रचना
हार्दिक श्रद्धा सुमन!
मकर संक्रांति की हार्दिक शुभकामनाएं!
घनीभूत व्यथा शब्दों में बहे भी तो पूरी तरह कहाँ व्यक्त हो पाती है -पढ कर मन भर आया है ,जिस पर बीतती होगी कैसे पार पाता होगा ...
निःशब्द
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