Wednesday, June 1, 2011

स्त्री पुरुष मानसिकता एक विशेष पहलू पर --एक विमर्श !

स्त्री एवं पुरुष में आकर्षण एक बहुत ही स्वाभाविक सी प्रक्रिया है। लोग करीब आते हैं फिर दूर जाते हैं। सबसे पहले mesmerized रहते हैं , फिर धीरे-धीरे उसकी खूबियों से उकता जाते हैं और अपने विचारों को एक दुसरे पर थोपने लगते हैं। एक दुसरे की जिंदगी की कमान अपने हाथ में ले लेना चाहते हैं। विचारों के टकराव और अपेक्षाओं के पूरा होने की स्थिति में पूर्वाग्रह और दुराग्रह पनपने लगते हैं

द्वेष बढ़ने की स्थिति में अक्सर ये देखा गया है की स्त्रियाँ उस व्यक्ति से दूरी बना लेती हैं बिना वजह , अनावश्यक विवाद नहीं करतीं ज़िन्दगी में आगे बढ़ जाती हैं व्यक्ति और घटना दोनों को आसानी से भुला पाती हैं। माफ़ कर देने की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है उनमें अगर विचार नहीं मिलते तो उससे अपना 'अहम्' नहीं घायल होने देतीं और उससे 'मुद्दा' बनाकर ताउम्र ढोती नहीं हैं।

इसके विपरीत द्वेष होने की स्थिति में पुरुष अक्सर , वैचारिक मतभेद को स्वीकार नहीं कर पाते। अपने अहम् को घायल समझते हैं स्त्री का पूरा समर्पण ही उनका एकमात्र उद्देश्य होता है स्त्री को कमतर समझते हैं और अपनी बात मनवाना चाहते हैं यदि उनके विचारों का समर्थन नहीं हुआ तो वे उस स्त्री के पीछे साबुन से हाथ धोकर पड़ जाते हैं उस स्त्री की पूरी हस्ती मिटा देना चाहते हैं। वो स्त्री जो उस पुरुष से मत वैभिन्न होने के कारण अथवा frequency match होने के कारण उस पुरुष को माफ़ करके उससे अच्छी खासी दूरी बना लेती है ताकि वह भी जिए और वो भी शान्ति से जी सके फिर भी वे पुरुष उस स्त्री के जीवन में अनायास ही , येन , केन प्रकारेण विष घोलने की कुचेष्टा में लगे रहते हैं

जबकि ऐसा व्यवहार वे अपने से द्वेष रखने वाले पुरुषों के साथ नहीं रखते उसके साथ वे थोड़े दिनों के बाद सुर में सुर मिलाते दिखेंगे। 'अमां यार ' कहकर दोस्ती की पेंगे वापस बढ़ा लेते हैं और पुरुष आपस में द्वेष इतनी लम्बी अवधी तक नहीं रखते।

एक व्यक्तिगत अनुभव ब्लौगजगत का , जिसके कारण इस विषय पर चर्चा की आवश्यकता समझी....

एक ब्लॉगर ने मुझे गाली दी दुसरे विद्वान् ब्लॉगर ने मुझसे सहानुभूति दिखाई और कहा- "दिव्या चिंता करो , मैं उसे अच्छी तरह जानता हूँ , बहुत ही घटिया इंसान है वो , यदि हाथ जाये तो उसका गला काट दूँ"

दुसरे नामी गिरामी ब्लॉगर ने सहानुभूति जताई और कहा - " दिव्या मैं उसको कई सालों से जानता हूँ, उसने बहुत सी स्त्री ब्लॉगर्स को गाली दी है। वी सुधरेगा भी नहीं और इसीलिए मैं उससे दूर ही रहता हूँ। "

इसी प्रकार कुछ अन्य पुरुष ब्लॉगर्स ने सहानुभूति जताई लेकिन मुझे सबके ज्यादा अफ़सोस और आश्चर्य तब हुआ जब मैंने इन्हीं लोगों को उस पुरुष की पूजा-अर्चना करते पाया तो क्या वजह हो सकती है इस दोहरी मानसिकता की ?

  • क्या स्त्री का attention मिलने की अवस्था में वे पुरुष के खेमे में चले गए ?
  • क्या इनका भी अहम् चोटिल हो गया ?
  • क्या इन्हें भी द्वेष हो गया और 'स्त्री' से द्वेष रखने वाला पुरुष उनको मित्र सदृश्य लगने लगा?------[दुश्मन का दुश्मन , मित्र हो गया?]
  • स्त्री-पुरुष मत-वैभिन्न होने की स्थिति में पुरुष स्त्रियों के साथ आजीवन द्वेष रखता है , जबकि पुरुष-पुरुष में विचार मिलने पर भी वे थोड़े समय बाद एक हो जाते हैं और एक दुसरे को महिमा मंडित करके अपना जीवन आसान बना लेते हैं
  • क्या पुरुष आपस में एक-दुसरे से डरते हैं इसलिए जल्दी ही एक हो जाते हैं?....और स्त्री को कमतर समझते हैं इसलिए उसे harass करते रहते हैं और उसे मिटा देने की ख्वाहिश रखते हैं ?
  • सामान्यतः स्त्रियाँ किसी प्रकार की हानि नहीं पहुंचाती और तटस्थ रहती हैं , इसलिए आसान शिकार लगती हैं ?
  • ये दोहरी मानसिकता क्यूँ ?

कृपया ध्यान दें - सब धान २२ पसेरी नहीं होता इसलिए सभी पुरुष अथवा स्त्री एक जैसे नहीं होते , अपवाद तो होता ही हैयहाँ लेख लिखते समय अधिकाँश [majority] का जिक्र किया गया है

52 comments:

अजित गुप्ता का कोना said...

मेरा अनुभव यह कहता है कि जितनी पुरुषों में एकता होती है उसकी 10 प्रतिशत एकता भी महिलाओं में नहीं होती। पुरुष हमेशा पुरुषों का ही साथ देते हैं। महिलाओं के साथ होने का तो केवल दिखावा करते हैं वास्‍तव में वे पुरुषों के साथ ही खड़े होते हैं। कोई भी पुरुष किसी भी महिला के कारण आहत हो, यह कोई भी पुरुष पसन्‍द नहीं करता।
पुरुष हमेशा से सत्ता केन्द्रित होता है, उसे सत्ता चाहिए ही। इसलिए कुछ पुरुष जिन्‍हें बाहर सत्ता प्राप्‍त हो जाती है वे परिवार में शान्‍त रहते हैं लेकिन जिन्‍हें बाहर सत्ता प्राप्‍त नहीं होती वे अक्‍सर महिलाओं पर अपना हक जमाते हैं।
सत्ता के अतिरिक्‍त उन्‍हें आनन्‍द की भी सदैव तलाश रहती है। पुरुष में स्‍वयं में आनन्‍द नहीं है, वे महिला में ही अपना आनन्‍द पाता है। इस कारण अपने आनन्‍द छिनने के डर से भी महिला पर रौब जमाता है। इसी के साथ बाहरी दुनिया से समझौता करता है क्‍योंकि यदि उसने उनसे झगड़ा किया तो उनके सारे सुख छिन सकते हैं। इसलिए व्‍यक्ति दुख से नहीं सुख की छिनने से ज्‍यादा डरता है। जी हजूरी करना इसी कारण प्रारम्‍भ होता है। क्‍योंकि पुरुष जानता है कि दूसरा पुरुष उसको हानि पहुंचा सकता है इसलिए वे एक हो जाते हैं लेकिन पुरुष यह भी जानता है कि महिलाएं अक्‍सर हानि नहीं पहुंचाती हैं इसलिए उनसे पंगा लेकर पुरुषों के खेमे में चला जाता है।

S.M.Masoom said...

खुद की तारीफ के पुल बांधना या एक पुरुष द्वारा पुरुष की तारीफ करना, या किसी महिला द्वारा महिला की तारीफ करना एक आम सी बात है, इसका सच्चाई से कुछ लेना देना नहीं. मज़ा किसी लेख़ मैं तब आता है जब वो निष्पछ हो के लिखा जाए.

Irfanuddin said...

well...i don't think its honesty to label the whole "Male Community" as egoistic or what ever you name them bcoz of their attitude or acts....

i personally feel there are this type of characters in both the genders....but yes, percentage may differ from one gender to another....

more over it does not always mean that if a male is having sympathy with other gender then he always expecting something in return from her, but it can be a genuine sympathy also.....

PS: Readers from other gender may see my reaction as a statement from a male who is simply supporting his counter part, but i never intended to be so.

Apanatva said...

APEKSHA AUR UPEKSHA VICHAR DHARA SE JUDE RAHTE HAI . APNE BHAVO KO SAYYMIT RAKHNA BAHUT JAROOREE HAI . SAHANUBHUTI KAMJOR KA SAMBAL HO SAKTEE HAI PAR AATM VISHWASEE KE LIYE ANCHAHEE KHAIRAT SE BADKAER KUCH NAHEE .
DADEE KAHTEE THEE KI APSHAVD KAHNE WALE KO PALAT KE KABHEE KUCH MAT KAHO YE KAMJOREE NAHEE SAMAJHDAREE HAI . JO KEECHAD UCHALTA HAI AAP PAR TO KUCH CHEENTE HEE AATE HAI PAR USAKE HATH TO POORE KEECHAD SE SAN JAATE HAI.

रचना said...


समय बदलेगा और जरुर बदलेगा उस दिन जिस दिन हर महिला उठ कर किसी भी नारी के प्रति कहे गए अप शब्दों मे पूरी नारी जाति का अपमान देखेगी ।


Good post
Looks like we are still where we were
The above link posted in 2008 says the same thing

Inside the link that i have given you there are several other links which if you and your readers will read they will see the similarity

the basic problem is that people have a short memory but on internet if you search somewhere in archive you can find how bad those were who are so good now and how consistently bad few who were still are

प्रतिभा सक्सेना said...

हाँ ,स्त्री और पुरुष की मानसिकता में काफ़ी अंतर है.अक्सर तो पुरुष स्त्रियों से संबद्ध बोतों को वे गंभीरता से लेते नहीं ,कभी लें भी लें तो कुछ ही समयके लिए .फिर वही सोच कि हमें क्या करना .स्त्रियाँ दूसरी को परेशानी में पड़ा देख कर सोचती हैं कहीं हमें झंझट में न पड़ जायँ सो सहानुभूति दिखा कर तटस्थ हो जाती हैं .पुरुष दूसरे आदमी की खोट जानते हुए भी चुप्पी लगा जाते हैं ,उसके साथ यह भी डर होता होगा कहीं बेकार मैं बदमज़गी न हो जाय ..स्त्रियों पर आक्षेप करने में उन्हें कोई ख़तरा नहीं लगता कभी मज़ा लेने के लिए ,या दूसरे समर्थन करने के लिए ,तो वहाँ कमेंट करने से चूकते नहीं .
साघारणतया ऐसा होता है -विशेष स्थिति की बात अलग है

Unknown said...

दिव्या जी एक बार फिर आप आहात दिखी, आप बार बार आहात होती है ऐसा क्यों है , अपने लेखो में आपने बहुत बार अपनी मानसिक दृढ़ता का परिचय दिया है मगर कई बार अपनी बेबाक और बिंदास विचारों से अति-चर्चा की केंद्र बन जाती है, आप खुल कर लिखती है , खुल कर बुरी लगी बात कह भी देती है और यही बात कुछ नकारात्मक मानसिकता वाले लोगों को नागवार भी लगती होगी और वो आपको निशाना बनाते है . दिव्या जी मुझे आपका लेखन अच्छा लगता है एक बात बिना किसी भूमिका के कहना चाहता हूँ , आपने अपने बारे में बहुत लिखा अब और न लिखे , अपने को एक मानसिकता में न बांधे और ये विचार मन से हटा दे की गली देने वाले या खेमे गढ़ने वाले आपका अहित कर सकेंगे. आपके ब्लॉग पर टिप्पनिओं पर अप्प्र्रोवल जरूरी है कुछ समय के लिए ही सही.नहीं तो मुझे लगता है आप नकारात्मक प्रतिक्रिओं में पड़कर अपने लेखन का प्राकृतिक सौंदर्य खो देंगी . शुभकामनाओ सहित.

रविकर said...

पुरुष -विचार-----


रास के महके पलों का दे हिसाब
आसक्ति का मसला बड़ा फिसलन भरा
पकड़ ढीली कर जुदा अंदाज से-
था समर्पण भाव हौले से झुके
चपल नयनों की पलक थी अधखुली
मदहोश मादक पूर्णिमा में आस्मां
आगोश में आवेश था बिलकुल सफा---
बेवफा ! सुन बेवफाई, बेवफा

तेज सिहरन सी उठी थी हूक सी
संस्कारों से बंधा यौवन विवेकी
क्या करे, इस ज्वार में संबल बिना
आत्मबल भी बह गया उच्छ्वास में
धैर्य ने भी साथ छोड़ा इस दफा --
बेवफा ! सुन बेवफाई, बेवफा


इस कृत्य के भागी बराबर के हुए
था चाँद-दिन संताप्मय-रोमांच भी
आतुर हुई तुम इस कदर खुद को छली
हाथ का तेरे बना मैं तुच्छ प्यादा
नुक्सान किसका क्या हुआ किसको नफ़ा--
बेवफा ! सुन बेवफाई, बेवफा


अपना बिगत प्रवास कुछ लम्बा खिंचा
रास्ते तुमने बनाए बीच में कुछ
एक रिश्ते ने अधिक तुमको लुभाया
तोड़कर तुम चल पड़े रिश्ते पुराने
बेवफाई क्यों करी, कर दी खफा
बेवफा ! सुन बेवफाई, बेवफा

तू घड़ों पानी में अब बैठी रहे
प्यास तेरी न बुझेगी सत्य-शाश्वत
खेल के शौकीन हो तुम खेल कर लो
धैर्य धारण कर प्रतीक्षारत रहूँगा
लौटकर आना पड़ेगा जानता हूँ
प्यार मेरा याद आएगा दुबारा
जब वफ़ा कर न सकी मत कर जफा
बेवफा ! सुन बेवफाई, बेवफा



स्त्री-विचार---


फ़ूल-पौधों में सुबह पानी पटाया
द्वार तेरे शाम को दीपक जलाया
छज्जे से अपने, रास्ता ताका किये
कितने दिनों तक याद में फाँका किये
अहले सुबह उस रोज झटका खा गई
मेरे अलावा कौन दूजी आ गई ---
दीपक बुझा के, फर्श बाहर धो गई
बर्बाद मेरी जिंदगानी हो गई


सामने सालों रहे खुद को भुलाए
चाय पीने आ गए फिर बिन बुलाये
मम्मी को मेरी आप माँ कहने लगे
हम प्रेम की पींगे बढ़ा बहने लगे
माँ ने हमारी और थोड़ी छूट दी
और तुमने अस्मिता ही लूट ली
मुश्किल बढ़ी, बेहद सयानी हो गई
बर्बाद मेरी जिंदगानी हो गई

करार मेरा ख़ुशी मेरी खो गई
महबूब की चौखट पराई हो गई
अब पुरानी नीम से बहता है नीर
पीर करती खोखला मेरा शरीर
बेवफा कहने से पहले जान लो
जान लेकर अब हमारी जान लो
जान की दुश्मन स्वयं की हो गई
प्रेम की मेरी निशानी खो गई
प्यार की बाते पुरानी हो गई
बर्बाद मेरी जिंदगानी हो गई

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

बड़ा मुश्किल है generalize कर पाना...

Mohini Puranik said...

दिव्याजी मैं आपसे सहमत हूँ | अपवाद अवश्य होतें हैं, परन्तु अधिकांश तो यही दीखता है जो आपने कहा है | और मैं अजित गुप्ता जि से भी सहमत हूँ|

आपने बहुत अच्छा विश्लेषण किया है |

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

इसके विपरीत द्वेष होने की स्थिति में पुरुष अक्सर , वैचारिक मतभेद को स्वीकार नहीं कर पाते। अपने अहम् को घायल समझते हैं । स्त्री का पूरा समर्पण ही उनका एकमात्र उद्देश्य होता है । स्त्री को कमतर समझते हैं और अपनी बात मनवाना चाहते हैं ---

यह प्रवृति आप अच्छी तरह समझती हैं ... और अजीत गुप्ता जी ने बहुत सार्थक विश्लेषण कर दिया है ...

सही तो यह है कि जो सक्षम है उसे किसी को कुछ दिखाने की ज़रूरत नहीं होती ...जो स्वयं ही डरा होता है वही स्पर्धा करता है ..और इस तरह शायद अपने अहम की तुष्टि भी ..

प्रवीण पाण्डेय said...

व्यक्ति द्वन्द में रहता है, प्रवृत्ति चाहता है या निवृत्ति। तटस्थ रहना मन का स्वभाव ही नहीं।

Bharat Bhushan said...

ब्लॉगरों की दुनिया अलग है. इसकी तुलना पति-पत्नी जैसे संबंधों से नहीं हो सकती. साथ-साथ रहते पति-पत्नी एक दूसरे से निरंतर प्रभावित होते हैं और उनकी संताने उनसे प्रभावित होती हैं. वे प्रेम से रहते हैं तो अच्छा, अन्यथा नरक तो है ही. किस की कैसी मानसिकता है यह उसके पर्यावरण से उसको मिलता है. किसको दोषी ठहराया जाए. इसका एक साधारण सा नियम यह सुना है कि यदि पति-पत्नी एक दूसरे को अपने ही जैसा इंसान समझते हैं तो गुज़ारा बहुत अच्छा हो जाता है.

रविकर said...

ajit gupta said...
@ मेरा अनुभव यह कहता है कि जितनी पुरुषों में एकता होती है उसकी 10 प्रतिशत एकता भी महिलाओं में नहीं होती। पुरुष हमेशा पुरुषों का ही साथ देते हैं। महिलाओं के साथ होने का तो केवल दिखावा करते हैं वास्‍तव में वे पुरुषों के साथ ही खड़े होते हैं।

पूरे आदर एवं सम्मान के साथ --------

----पिताजी को अपनी बेटी के साथ खड़ा हुआ महसूस नहीं किया क्या कभी ?

@ उसकी 10 प्रतिशत एकता भी महिलाओं में नहीं होती।

यह शुद्ध रूप से महिलाओं का विषय है .
एकता होने पर एक प्रत्यक्ष लाभ और होगा ,
दहेज़ -हत्या एवं भ्रूण -हत्या पर
चमत्कारिक ढंग से रोक लग सकेगी .

सामजिक धारणा है की आज भी मुश्किल समय
में बेटा -बहू से पहले बेटी -दामाद हाजिर हो जाते हैं

आज पिता अपनी बेटी को बेटे से कमतर नहीं मानता.
धारणा मजबूत हो रही है. कमजोर न करें.
महिला पुरुष के सम्बन्ध की चर्चा मात्र
प्रेमी-प्रेमिका धोखा-फरेब तक सिमित* न रखे.

अपने पुत्रों पर कृपा-दृष्टि बनाए रखे.

Jyoti Mishra said...

I think mentality and attitude varies from person to person...

prerna argal said...

purushon ke isi gun ke karan hi to wo log auraton pe raj kar rahe hain auraton mai aektaa nahi hai tabhi to aaj bhi samaaj main auraton ki ijjat kam hai.aadmi aadmi ki burai kam karate hain per auraten jab tak doosri aurat ki burai naa kar le usko chain hi kahan aata hai.hakikat bayan karati hui saarthak rachanaa.badhaai aapko.

Anonymous said...

good questions you have put there .. I am not sure who these bloggers are who changed there attitude with the change of the BLOG PAGE.. I hope I am not one of them ...

I beleive that this menatality of Man-Woman needs to go away , till this is there things will not change ..

the points you have point are true to a certain extent though exceptions are always there.. I went out with a girl who for 4 years treid to make a fool of me only to tell me that she did not want to be with me as she was in love with a guy from her 10th class.. and while she went to him.. she again had someone else on the side ..
and all this time her parents did not know anything .. what would you say here .if this was me doing it I am sure and I know what everyone would say OH he is a MAN so he did it :)

So Things are not always man-woman... It depends on the experiences you go through, inspite of my my bad experience I do feel that IF you treat the other person Irrespective of there sex.. The same way as you urself want to be treated .. things will be rosier ..

I am totally against this categories oh he did this cause he is a man.. and vice versa.. I have lived in a household where Woman never had to go through this and I lived in a joint family of parents-chacha's-bhuas etc etc ...

I can assure you that If a person is in a situation and we ask Another Woman And a Man to deal with the situation and even if BOTH deal it with the same way YET the outcome will be Oh a MAN did this or that ...

women have come a long way it is no more the old ways and i ma sure in future and years to come a lot will furthur change tooo...

each one of us has to change for the good of the entire world :)


Sorry for such a long post ...
Bikram's

दिवस said...

दिव्या दीदी सहमत हूँ आपसे कि आजकल पुरुष स्त्री को स्वयं से कमतर समझने लगे हैं...अपवाद भी हैं जहाँ कई महिलाओं ने सत्ता हासिल कर रखी है और पुरुष तो बेचारा कठपुतली है...अभी अपने मंदमोहन और सोनिया को ही देख लीजिये...
किन्तु ये अपवाद हैं...पुरुष को चाहिए कि महिला को उसका उचित सम्मान मिले...
आदरणीय अजित गुप्ता जी की बात से यहाँ सहमत हूँ कि जितनी पुरुषों में एकता होती है, महिलाओं में उसकी दस प्रतिशत भी नहीं होती...अक्सर देखा गया है कि महिलाओं का आपस में ही झगडा ज्यादा चलता है...चाहे वह किसी कॉलेज की सहपाठी हों, साथ काम करने वाली सहकर्मी हों या अडोस पड़ोस में रहने वाली महिलाएं ही क्यों न हों...
खैर मेरी राय थोड़ी अलग है कि अभी की विकट परिस्थितियों को देखते हुए स्त्री एवं पुरुषों को चाहिए कि वे अपने आपसी भेदभावों में ना पड़ें...मैं यहाँ स्त्री एवं पुरुष में कोई भेदभाव नहीं रखता हुआ सभी की अहम् भूमिका के समर्थन में हूँ...यह समाज दोनों के कन्धों पर टिका है...अत: किसी एक के साथ भी अन्याय की स्थिति में यह समाज के लिए खतरा है...
दिव्या दीदी आदरणीय कुरुवंश जी की राय सही है कि आप अपने ब्लॉग पर टिप्पणियों पर मोडरेशन लगाएं...इस प्रकार कुछ मानसिक रोगी आपके ब्लॉग पर घटिया हरकतें नहीं कर सकेंगे...क्यों कि आपके लिए किसी प्रकार की गालियाँ हमें भी स्वीकार नहीं हैं...यह ब्लॉग जगत की विवशता है कि हम आमने सामने कुछ नहीं कर सकते...
आशा है आप विचार करेंगी...
आदर सहित
आपका बंधू
दिवस दिनेश गौड़...

सुज्ञ said...

इस विषय पर मेरा व्यक्तिगत मंतव्य तो यह है कि ऐसे किसी विभाजन के बारे में मैं सोच भी नहीं सकता।

आखिर ऐसी विभाजन एकता किस काम की जिसका अंत मानव और मानव समाज के हित पर जाकर समाप्त होने की सम्भावनाएं नगण्य हो।

आपने जो पुरूषों का नारी के विरूद्ध लाम-बद्ध होने की बात कही वह वास्तव में तो उनकी अपनी अपनी व्यक्तिगत मानसिकता होती है। जो ज्योति मिश्रा जी ने कहा भी है। इस मानसिकता को अधिकांश पुरूष जाति पर थोपना थोड़ा अतिवाद है। अधिसंख्य मामलों में तो पुरूष आपसी प्रतिस्पृद्धा में ही रहते है।

फिर भी इस बात पर लक्ष करना आवश्यक है कि इस तरह की एकता से किस लक्ष्य को अचीव किया जायेगा। शायद इस विभाजन मार्ग के अधबीच में एक दूसरे को छोटे छोटे सबक़ तो सिखाए जा सकते है। पर इस वर्ग-विभेद का अंत कहाँ जाकर होगा?

रविकर said...

@ विषयांतर करने से विषय के साथ अन्याय होता है। मैंने तो मात्र यह बताने की कोशिश की है कि एक विषय विशेष (घटना) को स्त्री-पुरुष अपने-अपने दृष्टिकोण से सत्य सिद्ध करने कि कोशिश करते हैं.

ब्लॉग से अपनी टिप्पणी हटाना नहीं आता, इस लिए अभी खेद व्यक्त कर लेने की आदत का उपयोग कर लेता हूँ,


सामान्यतया जल्दबाजी कर जाता हूँ टिप्पणी करने में,

आइन्दा ध्यान रखूँगा, टिप्पणी करते समय, कविता तो हरगिज नहीं, मैंने पहले भी लिखा था फिर दोहराता हूँ.

इस बार अपने लिए---

लेख का कारण, तनाव हो सकता है
परन्तु, लेख के कारण तनाव नहीं होना चाहिए

गुलशन के फूलों को देखकर आनन्दित हों---
लीक से हटकर की गई टिप्पणियों पर गुस्सा न करें

प्रतुल वशिष्ठ said...

समाज में मेरे पिता के अनेक शत्रु बने लेकिन वे उनसे भी जब मित्रवत मिलते थे तो हमें बहुत बुरा लगता था... जब उनके विचार मैंने जाने तो उनको काव्यबद्ध कर लिया, आपको भी कहता हूँ :

'व्यक्ति गलतियों का पुतला है' —
जैसे पाश्चात्य कथन,
'नकारात्मक सोच लिये
आदर्शविहीन वाक्य' — मैंने नहीं गढ़े.

मैंने तो माना है
व्यक्ति को संबंधों का वृक्ष
जिस पर लगते भाँति-भाँति के फल.
किन्तु उनके फलों की मधुरता
'स्वार्थ, संदेह' जैसे मीतनाशक
भावों से दफा हो जाती है.

समस्त जीवन के अनुभवों का
निचोड़ लेकर समाज के
बुद्धिजीवी वर्ग से
एक ही अपेक्षा पाले हूँ
कि
"समाज-हित के
कार्यों में सहयोगी बनें
........... प्रतिस्पर्धी नहीं.
धार्मिक कर्मों की व्याख्या करें
.......... अवहेलना नहीं.
नैतिकता का प्रसार करें
........... राजनीतिक छल नहीं.
साहित्य से समाज की सेवा करें
............ संस्कारित कर.
उसे दर्पण न दिखाएँ, बार-बार
कि वह नंगा है
सदियों से
जब से वह जन्मा है. "

दिव्या जी,
जीवन में मित्र भी मिलते हैं शत्रु भी मिलते हैं... लेकिन उन्हें कभी भी फिक्स करके नहीं चला जा सकता. जिस पर हम एक पल प्रतिस्पर्धा करते हैं दूसरे ही पल समर्पित भाव से कविता करने लगते हैं. ईर्ष्या करने वाला हमेशा हानि अपनी ही करता है....

JC said...

दिव्या जी, जब तक मैंने गीता नहीं पढ़ी थी, तब तक मेरा 'भगवान्' के बारे में विचार था कि वो निराकार है और उसका काम मानव को ही नहीं अपितु सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को चलाने का है, जिसे वो अनादि काल से बखूबी चलाता आ रहा था, जबकि हमसे तो कुछ भी अच्छी तरह नहीं चल पाता, भले ही वो हमारा छोटा सा परिवार हो अथवा कार्यालय... और उसका दोष हम अधिकतर अपने को सिद्ध मान किसी अन्य व्यक्ति या जीव पर डाल देते हैं...

किन्तु जब लगभग ४६ वर्ष की आयु में गीता पहली बार पूरी पढ़ी तो उसमें 'कृष्ण' को कहते पाया कि हर गलती का कारण अज्ञान है! और यह कि मानव जन्म का उद्देश्य केवल निराकार भगवान् को और उसके साकार रूपों को जानना है ! और यह भी कि कोई भी, 'स्त्री हो या पुरुष', उन्हें पा सकता है, किन्तु उसके लिए कृष्ण में 'आत्म समर्पण' आवश्यक है !

यह मुझे किसी ने कभी पहले बताया ही नही था, जबकि मैंने अपने माँ- बाप को घर में मूर्तियों आदि के सामने आँख बंद किये पूजा करते अवश्य देखा था... और कभी कभी मैं भी उनके साथ अधिकतर माँ काली के मंदिर ले जाया जाता था, और बचपन से ही हम बच्चे उनकी लाल जुबान बाहर निकाले मूर्ती को देख डरा करते थे, और पुजारी भी अधिकतर उनके मंदिर के साथ एक कुटिया में शायद गांजे के कश के कारण हुई लाल आंखें लिए बाहर आ कर पूजा कराता था, जिससे और डर लगता था ! प्रसाद में पिताजी द्वारा चढ़ाई गयी खोये की मिठाई निकाल डब्बे में अधिकतर बताशे रख डब्बा उन्हें पकड़ा देता था, जो हमें नहीं भाता था, हमें मिठाई थोड़ी से मिलती थी ! इस कारण मैं उन्हें कहता था आप ऊपर जाओ मैं बाहर, नीचे, जूते- चप्पल का ध्यान रखूँगा !

shikha varshney said...

इसके विपरीत द्वेष होने की स्थिति में पुरुष अक्सर , वैचारिक मतभेद को स्वीकार नहीं कर पाते। अपने अहम् को घायल समझते हैं । स्त्री का पूरा समर्पण ही उनका एकमात्र उद्देश्य होता है । स्त्री को कमतर समझते हैं और अपनी बात मनवाना चाहते हैं ---
काफी हद तक सही विश्लेषण किया है.

rashmi ravija said...

ब्लॉगजगत में अच्छी और सच्ची मित्रता ढूंढनी बहुत मुश्किल है. अधिन्कान्शातः यहाँ दोस्ती टिप्पणियों के आदान-प्रदान और आलेखों की प्रशंसा पर टिकी होती है.

अगर कोई आपके आलेखों के तारीफ के पुल बाँध रहा हो..फिर वो भले ही आपके किसी अजीज़ मित्र को गालियाँ दे दे. वो आपका प्रिय बना रहता है क्यूंकि दोस्ती के ऊपर प्रशंसात्मक टिप्पणियां भारी पड़ती हैं.

स्त्री-पुरुष दोनों की मानसिकता...एक सी ही है...इस ब्लॉगजगत में

G Vishwanath said...

यह स्थिति, जिसका आप वर्णन कर रहीं हैं, पुराने जमाने में आम थी।
आजकल स्थिति सुधर रही है।
महिलाएं पढ लिख कर उन्नति कर रहीं हैं।
पुरुषों के साथ साथ चलने के काबिल हो गई हैं और कभी कभी तो पुरुषों से आगे भी निकल जाती हैं।

कभी ईर्ष्या के कारण मर्द ऐसा बर्ताव करता है।

जैसा औरों ने कहा, आप बस लिखती रहिए।
हमेंशा moderation सक्षम रखिए।
ब्लॉग जगत के अपने दुश्मनों की पर्वाह न करें।
आपका कुछ नहीं बिगाड सकते।

शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ

Vivek Jain said...

Your disclaimer was necessary otherwise a lot of unecessary objections were raised. Really nice article,
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

राज भाटिय़ा said...

मै आज आप की इस पोस्ट से पुर्णत्या सहमत नही, पुरुष ओर महिला दोनो ही कम नही, फ़र्क बस इतना हे कि पुरुष बात का निपटारा अपनी हिम्मत के अनुसार कर लेता हे, चाल नही चलता, जो दिल मे हो साफ़ बोल देता हे, ओर महिला...., वैसे दुनिया जहान के ७०% झगडे महिलाओ के दुवारा होते हे, जिन का फ़ल पुरुषो को भुगतना पडता हे

Kunwar Kusumesh said...

I agree with the comment of Jyoti Mishra ji.

ashish said...

अच्छा विमर्श चल रहा है , निष्कर्ष का इंतजार करता हूँ . पुरुषोचित और स्त्रियोचित गुणों के बारे में काफी कुछ पढने और गुनने को मिला .

SAJAN.AAWARA said...

mam is bare me me kuch kaha nahi sakta kyunki abhi meri mansikta itni viksit nahi hui hai in mamlo me. or na hi kabhi mahsus kiya hai.... me to yahi kah sakta hun ki har admi or orat ek jese nahi hote............. mam kafi dino baad apke blog par aaya hun , sory.....
jai hind jai bharat

महेन्‍द्र वर्मा said...

स्त्री और पुरुष की मानसिकता में यह अंतर प्राकृतिक है। इस संदर्भ में आपकी विवेचना सही प्रतीत होती है।

आशुतोष की कलम said...

हरी अनंत हरी कथा अनंता..इतने विचारों के क्षीरसागर में खो गए इस विषय पर मेरे विचार

मनोज भारती said...

पुरुष और स्त्री का भेद न केवल प्राकृतिक है, बल्कि शारीरिक,मानसिक,भावनात्मक और वैचारिक भी है। स्त्री जैविक रूप से संतुलित है...उसमें हर तल पर एक संतुलन दिखाई पड़ता है।इसलिए उसमें कोमलता सहज है। पुरुष जैविक दृष्टि से असंतुलित है,इस असंतुलन के कारण ही उसका मानसिक,भावनात्मक और वैचारिक स्तर एक अलग ही ढ़ग का है। संघर्ष उसकी प्रकृति में है, सुकून उसे केवल तब हासिल होता है,जब वह बुद्धत्व या संबोधि को प्राप्त होता है। इसीलिए पुरुष सत्य की खोज में जंगलों में जाता रहा है। स्त्री को कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है। वह सहज ही संतुलन बनाए रखना जानती है। स्त्री और पुरुष की तुलना करना प्रकृति को नकारना होगा।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!
प्रशनों का उत्तर नहीं सूझ रहा है!

mridula pradhan said...

सब धान २२ पसेरी नहीं होता इसलिए सभी पुरुष अथवा स्त्री एक जैसे नहीं होते , अपवाद तो होता ही है । aur yahi sabse mukhy baat hai.

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

पता नहीं, इस मामले में मैं हमेशा भ्रमित रहता हूं..

डा० अमर कुमार said...

व्यक्ति द्वन्द में रहता है, प्रवृत्ति चाहता है या निवृत्ति। तटस्थ रहना मन का स्वभाव ही नहीं ।
इस लाख टके की टिप्पणी को मेरा दो कौड़ी का समर्थन !

और.. ऎसे आसान विश्लेषण को मेरा नमन ...
अगर कोई आपके आलेखों के तारीफ के पुल बाँध रहा हो..फिर वो भले ही आपके किसी अजीज़ मित्र को गालियाँ दे दे. वो आपका प्रिय बना रहता है क्यूंकि दोस्ती के ऊपर प्रशंसात्मक टिप्पणियां भारी पड़ती हैं.

थैंक गॉड, कि मैं 22 पसेरी में नहीं गिना गया !:-)

Suman said...

majority ki phikr mat karna bas likhte rahna ..........

Urmi said...

बहुत बढ़िया और सटीक लिखा है आपने! मैं आपकी बातों से सहमत हूँ!

Sapna Nigam ( mitanigoth.blogspot.com ) said...

सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण आपके आलेखों में देखने को मिलता है.समाज में मान्यताओं के चलते बहुत सी कुरीतियों की जड़ें अभी भी बहुत गहरी हैं.धीरे-धीरे खोखली होंगी.खोखली होती भी जा रही हैं.शिक्षा,अधिकार और कर्त्तव्य का ज्ञान बहुत जरुरी है.उचित नेतृत्व का अभाव भी रहा है.धीमी गति से ही सही,बदलाव तो आ रहा है.

Rajesh Kumari said...

bahut vicharniye lekh hai.yahan na jaane kitne dohri mansikta vaale log mil jayenge.mukhya karan hai male ego.isse vo stri ka takraav sahan nahi kar paate.any way time is changing...keep writing.god bless you.

smshindi By Sonu said...

very nice post

Coral said...

अपवाद होते है और यहाँ कुछ जादा ही मिलते है .... :)...

पी.एस .भाकुनी said...

आपके व्यक्तिगत विचार हैं, सर्वमान्य नहीं हो सकते,

aarkay said...

एक मान्यता के अनुसार स्त्री और पुरुष एक ही ऑक्टोपस के अलग किये हुए भाग है , अतः एक दूसरे के पूरक भी . यह तर्क भी मान्य है कि स्त्री अपने आप में पूर्ण है , जबकि पूर्ण होने के लिए पुरुष को स्त्री का, साथ , संगति व support चाहिए ही. मानसिकता में अंतर भी समझ में आता है. आदर्श स्थिति तो स्त्री सुलभ तथा पुरुषोचित गुणों के समावेश से ही बनेगी.
अपने प्रिय कवि दिनकर जी की कही बात याद आती है ;

मर्दाना मर्दों और औरतानी औरतों ने सब हिसाब बिगाड़ रखा है
मज़ा तो तब है जब मर्द कुछ औरताना और औरत कुछ मर्दाना हो.

विषयांतर यदि हो गया हो तो क्षमा प्रार्थी हूँ !

महेन्द्र श्रीवास्तव said...

अच्छी रचना और विषय भी। बिल्कुल समझ नहीं पा रहा हूं क्या कहूं। अपने को तटस्थ रख नहीं पा रहा हूं, जो भाव आ रहे हैं, लगता है उससे लोग आहत होंगे। और मैं विवादों से दूर रहना चाहता हूं।

AS said...

Generalizing it the way you have written could be true 10 years back. Interaction between the sexes is quite mature now. The behavior and pattern has under gone a change. What you have said may not be true for the next generation that is coming down. Maybe the bloggers you are referring to could be of the earlier generation.

Suyash Singh said...

आधी आबादी नास्तिक ही है....Divya ji! yah aap kaise kah sakte hain, jo naastik dikhta hai wahi to sachha aastik hota hai.. dhongiyon ko kya aastik kaha jaayega? Ishwar ke satta ko nakkarne ki kisi mein himmat nahi, bhale ko kuch bole..

सञ्जय झा said...

matlab....aajkal....aap to......kya kahen.......
ekdum se hilerious post laga baithin hain.......

baat aur vichar kuch bhi galat nahi hain.....aisa
hai.....ye vastavikta hai......kab..kaise aur kitna......ye sthan/kaal/patra ke hisab se badalta rahta hai...............

pranam.

सञ्जय झा said...

TAZI POST PE TIPPANI BAND HAI......ACHHI BAAT HAI.......BUS 'NISWARTH PREM' PAR MERE DWARA KI
GAYI TIPPANI KO 'TAZI POST' KE LIYE CUT-PEST KAR RAHA HOON......

MERE VICHAR SE....IS GUL AUR GULSHAN KO SAVARNE ME JITNI BHOOMIKA 'IRFAN' KI HAI OOTNI HI BALKI
OOS-SE KUCH ADHIK 'GULFAM' KI HI HAI...........

SARE AANKARE IS GUL-GULSHAN PAR FAILE HUE HAIN...BUS STATICS BANA KAR EK BAAR DEKH LENE HAIN.......


bakiya, apke guruta, gambhirta evam shresthta par bal-man ki samvedanshilta....sahajta evam sarlta apna adhikar kar baithta hai...........

mitra sugya ne man mohne wali baat kahi.......

hamari hardik iksha ke 'ye gul...gulshan.......
gulfam/irfan se bhari rahe........


PRANAM.

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

दिव्या जी ,
जिन भी तीन लोगों का जिक्र आपने किया है , लगभग एक ही मानसिकता के लगते हैं | यहाँ ब्लाग जगत में या असल जिंदगी में , मैं तो सही को सही और गलत को गलत कहना ही जानता हूँ -उसमें पुरुष - स्त्री का कोई भेद नहीं |

Pallavi saxena said...

माफ कीजिएगा में आप कि बातों से सहमत नहीं हूँ ,क्यूंकि मेरा मानना तो यह है कि पुरूष स्त्री के प्रति ज्यादा बड़े दिल वाले होते हैं अपनी स्कूल life और collage life से तो मुझे यही अनुभव हुआ है जिस तरह यह बात सच है कि एक स्त्री ही दूसरी स्त्री के दुख को उसके मन को जितनी अच्छी तरह समझ सकती है और कोई दूसरा नहीं समझ सकता ठीक उसी तरह यह बात भी उतनी ही सच है कि स्त्री ही दूसरी स्त्री कि सबसे बड़ी दुश्मन साबित होती है फिर उस के पीछे वजह चाहे कोई भी हो मेरे अनुभव के आधार पर तो में बस यही कहूँगी कि स्त्री कि दोस्ती से ज्यादा अच्छी मुझे एक पुरूष कि दोस्ती लगती है जो कि मुझे मेरे आज तक के अनुभव के आधार पर निश्चल लगती आई है फिर चाहे वो दोस्ती का रिश्ता हो या पति पत्नी का ऐसा मेरा मत है। धन्यवाद...