आजकल समाचार में दस वर्षीय 'अवतार' नामक बच्चे को देखकर , जिसका पुनर्जन्म हुआ है , पर मंथन किया। पुनर्जन्म होता है । आत्माएं नया शरीर धारण करती हैं। लेकिन अधिकांशतः पूर्वजन्म की स्मृतियाँ शेष नहीं रह जातीं , इसलिए पता नहीं चल पाता की किस व्यक्ति का कहाँ जन्म हुआ है।
जैसे पंजाब के 'सुभाष' का जन्म 'अवतार' नामक राजस्थानी बालक के रूप में हुआ है , जिसे अपने माता-पिता , भाई-बहन , पत्नी आदि सभी याद हैं । यहाँ तक की उसे पंजाबी भाषा भी अच्छी तरह आती है। लेकिन उसका पूर्व जन्म में क़त्ल हुआ था , इसलिए शायद आत्मा पर एक बोझ के तहत पुनर्जन्म हुआ। यदि कुछ पेंडिंग नहीं रहता तो शायद मोक्ष मिल जाता ।
इसी समाचार पर मनन करते हुए स्वतः ही ब्लॉगर मित्रों का ध्यान आ गया । क्या ब्लॉगर्स का पुनर्जन्म होगा ? क्या ब्लॉगर्स मोक्ष के अधिकारी हैं ?
हमारे यहाँ सभी दर्शनों में पुनर्जन्म को माना गया है , सिवाय 'चार्वाक' दर्शन के , जो कहता है की व्यक्ति अपने कर्मों का फल इसी जीवन में भुगत लेता है और उसको मोक्ष मिल जाता है।
यावद जीवेद सुखं जीवेद ,
ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत।
यदि चार्वाक दर्शन को मानें तो एक ब्लॉगर को अपने पाप-कर्मों का फल 'भडासी-टिप्पणियों' के माध्यम से बखूबी मिल जाता है और वह ब्लॉगर जन्म-मृत्यु के बंधनों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।
इस आलेख के माध्यम से भडासी-टिप्पणीकारों का आभार अभिव्यक करती हूँ , क्यूंकि उन्हीं के द्वारा दी गयी यातना से मेरे पाप-कर्म कट रहे हैं और मोक्ष प्राप्ति के फलस्वरूप , स्वर्ग में मेरा स्थान सुनिश्चित हो रहा है।
कहते हैं ना की जो होता है , अच्छे के लिए होता है । अब देखिये मित्र ब्लॉगर की टिप्पणियां ही उऋण कर रही हैं और मोक्ष दिला रही हैं। सभी भडासी-टिप्पणीकारों से निवदन है की मुझे मेरे पाप कर्मों के लिए यातना देने अवश्य आयें ताकि मेरे रहे-सहे पाप कर्म भी नष्ट होवें और मन निश्चिन्त होकर परलोक गमन करे।
यकीन जानिये ऐसा करके आप भी पुण्य के भागीदार होंगे हम सभी मोक्ष प्राप्त करके स्वर्गलोक में पुनः मिलेंगे।
Zeal
जैसे पंजाब के 'सुभाष' का जन्म 'अवतार' नामक राजस्थानी बालक के रूप में हुआ है , जिसे अपने माता-पिता , भाई-बहन , पत्नी आदि सभी याद हैं । यहाँ तक की उसे पंजाबी भाषा भी अच्छी तरह आती है। लेकिन उसका पूर्व जन्म में क़त्ल हुआ था , इसलिए शायद आत्मा पर एक बोझ के तहत पुनर्जन्म हुआ। यदि कुछ पेंडिंग नहीं रहता तो शायद मोक्ष मिल जाता ।
इसी समाचार पर मनन करते हुए स्वतः ही ब्लॉगर मित्रों का ध्यान आ गया । क्या ब्लॉगर्स का पुनर्जन्म होगा ? क्या ब्लॉगर्स मोक्ष के अधिकारी हैं ?
हमारे यहाँ सभी दर्शनों में पुनर्जन्म को माना गया है , सिवाय 'चार्वाक' दर्शन के , जो कहता है की व्यक्ति अपने कर्मों का फल इसी जीवन में भुगत लेता है और उसको मोक्ष मिल जाता है।
यावद जीवेद सुखं जीवेद ,
ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत।
यदि चार्वाक दर्शन को मानें तो एक ब्लॉगर को अपने पाप-कर्मों का फल 'भडासी-टिप्पणियों' के माध्यम से बखूबी मिल जाता है और वह ब्लॉगर जन्म-मृत्यु के बंधनों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।
इस आलेख के माध्यम से भडासी-टिप्पणीकारों का आभार अभिव्यक करती हूँ , क्यूंकि उन्हीं के द्वारा दी गयी यातना से मेरे पाप-कर्म कट रहे हैं और मोक्ष प्राप्ति के फलस्वरूप , स्वर्ग में मेरा स्थान सुनिश्चित हो रहा है।
कहते हैं ना की जो होता है , अच्छे के लिए होता है । अब देखिये मित्र ब्लॉगर की टिप्पणियां ही उऋण कर रही हैं और मोक्ष दिला रही हैं। सभी भडासी-टिप्पणीकारों से निवदन है की मुझे मेरे पाप कर्मों के लिए यातना देने अवश्य आयें ताकि मेरे रहे-सहे पाप कर्म भी नष्ट होवें और मन निश्चिन्त होकर परलोक गमन करे।
यकीन जानिये ऐसा करके आप भी पुण्य के भागीदार होंगे हम सभी मोक्ष प्राप्त करके स्वर्गलोक में पुनः मिलेंगे।
Zeal
509 comments:
«Oldest ‹Older 401 – 509 of 509आप का बलाँग मूझे पढ कर आच्चछा लगा , मैं बी एक बलाँग खोली हू
लिकं हैhttp://sarapyar.blogspot.com/
मै नइ हु आप सब का सपोट chheya
joint my follower
भडासी टिपण्णी ..... बड़ा ही घातक शब्द लिखा है आपने... ... अच्छा व्यंग है, .. पढ़ के गुदगुदी सी हुई.
__________
वन्स मोर !
यहाँ पर तो बहुत शान्ति छाई है लगता है की सारा ऊर्जा ख़त्म हो गया है
यहाँ से अब मई शुरू होता hun किसी के पास जबाब है तो दे
आदरणीय मदन शर्मा जी आप ने राजेंद्र यादव जैसे कम्युनिस्ट और
वाहियात आदमी के सुर में सुर मिला कर सारे हिन्दू कौम को
लद्दड़ कैसे मान लिया
वो तो जिस थाली में खाता है उसी में छेद करता है
हिन्दू कौम में जनम लेकर हिन्दू कौम की बुराई तथा
मुसलमानों के साथ गलबहिया करता फिरता है
अपने विचारों से उसने हंस जैसी पत्रिका का भी
सत्यानास कर दिया है
आप जैसे सुलझे विचारों वाले लोग से मुझे ऐसी उम्मीद नहीं थी
अंकुर शाह जी, योगियों ने सभी भौतिक प्रतीत होते आकारों को शक्ति, और उसी शक्ति के विभिन्न अंश के एक परिवर्तित साकार रूप के योग से बना जाना... और विभिन्न प्राणियों को केवल नौ ग्रहों के मिले जुले सार से बना 'पुतला' जाना, यानि एक माध्यम मात्र, जिसको मानव जीवन में प्रतिबिंबित करते, उदाहरणतया, स्टील से ही बने विभिन्न उपकरणों, बर्तन आदि, द्वारा देखा जा सकता है, जिनका किसी विशेष रूप में निर्माण रोज मर्रा की आवश्यकता के अनुसार हुआ है, क्यूंकि "आवश्यकता आविष्कार की जननी" मानी गयी है...
उसी प्रकार सारे ब्रह्माण्ड में उपस्थित साकार रूप, गैलेक्सी, ग्रह, पृथ्वी आदि और उस पर बसे अनंत प्राणी, जीव-जंतु यदि हैं, या मिथ्या जगत के सन्दर्भ में दिखते प्रतीत होते हैं, तो वो अज्ञानी मानव की कृपा से नहीं हो सकते... यह तो किसी सर्वगुण संपन्न जीव का अपनी आवश्यकतानुसार बनाया एक क्लिष्ट प्रतीत होता तंत्र ही हो सकता है... किन्तु एक बात तो निश्चय मानी जायेगी की कोई भी वस्तु अथवा प्राणी कुछ न कुछ उपयोगी कार्य कर रहा है, नहीं तो 'आधुनीक' अथवा कलियुगी संसारी मानव को धीरे धीरे लुप्त होते 'निम्न स्तर' के पशुओं के कारण चिंता नहीं होती (स्वार्थ वश)...
सेंट मैथ्यू के द्वारा भी कहलाया गया, "Judge not that ye be not judged..."
डॉ. दिव्या, आप आस्तिक हैं और एक सर्वशक्तिमान सत्ता में विश्वास रखती हैं. यह सकारात्मक गुण है. समस्या उन्हें होती है जो अपने भीतर कोई भी विश्वास नहीं जगा पाते. समस्या उनसे होती है जो अपना विश्वास बलात् दूसरों पर थोपने का प्रयास करते हैं.
भूषण जी, 'मेरी' किसी दूसरे सन्दर्भ में लिखी गयी टिप्पणी शायद 'आप' के औरों के सोचने के काम आये...
इससे नकारा नहीं जा सकता है कि भारत निश्चय ही महान है... इसी भूमि से संसार को शून्य अथवा निराकार ब्रह्म का ज्ञान मिला, और हमारी 'मिल्की वे गैलेक्सी' के केंद्र में तो हाल ही में 'ब्लैक होल' जानी गयी किन्तु प्राचीन हिन्दुओं ने उसे 'कृष्ण' क्यूँ संबोधित किया, अनुमान लगाया जा सकता है यह जान कर कि गैलेक्सी, सुदर्शन-चक्र समान, तश्तरीनुमा आकार की असंख्य सितारों, ग्रहों आदि से बनी प्रतीत होती है - बीच में मोटी और किनारे की ओर पतली - जिसके बाहरी ओर हमारा सौर-मंडल उसी प्रकार स्थित है जैसे मथनी द्वारा मथने के कारण दूध से मक्खन निकल बाहर की ओर चला जाता है... और 'क्षीर सागर मंथन' की कथा द्वारा विष से आरम्भ कर 'देवताओं' की अमृत प्राप्ति दर्शाई गयी है, अनादि काल से... आदि आदि... किन्तु 'माया' के कारण काल-चक्र उल्टा चलता प्रतीत होता कहा गया है, अमृत प्राप्ति से 'मंथन' के आरंभ तक, एक बार नहीं किन्तु १०८० बार, अनंत ब्रह्मा के चार अरब वर्ष से भी अधिक एक दिन में!...
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यद्यपि 'मैं' जानता हूँ कि जिन्हें 'मैं' अपने विचार कहता हूँ वो 'मेरे' हो ही नहीं सकते क्यूंकि जितना भी 'मैं' प्रयास करूं कि कुछ न सोचूँ, फिर भी वो तो आते ही रहते हैं, और यूं दर्शाते हैं कि वे 'मेरे शरीर' के भीतर ही भंडारित हैं, और निद्रावस्था में भी स्वप्न के रूप में आते ही रहते हैं, शैशव काल से ही (और मानव जाति तो अभी हाल ही में सिनेमा का आविष्कार कर पायी है जिसके माध्यम से 'माया जगत' से सम्बंधित व्यक्तियों द्वारा 'असत्य' को भी 'सत्य' कर दिखा पाना संभव हो गया है,,, और दूसरी ओर आम 'निम्न स्तर' के पशु भी स्वप्न देखते हैं जान लिया गया है!... इत्यादी इत्यादि...
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भूषण जी ,
विश्वास ही तो सबसे बड़ी बात है , चाहे ईश्वर में हो , चाहे माता -पिता में , चाहे किसी शुभचिंतक में हो , हम उसी से हिम्मत और ऊर्जा प्राप्त करते हैं , और जिससे हाँ ऊर्जा प्राप्त करते हैं , उसी में आस्था बढती जाती है और हम उसे अपने से श्रेष्ठ और सर्वशक्तिमान मान लेते हैं. लेकिन जो जो लोग स्वयं को ही श्रेष्ठ समझते हैं , उनका अहंकार पोषित होता रहता है.
ईश्वर निराकार है , आस्था रखने वालों को किसी भी रूप में मिल सकता है , ईश्वर के स्मरण से ऊर्जा मिलती है क्यूंकि वो एक शक्तिपुंज है.
रही बात किसी पर अपने विचारों को थोपना , तो यह सर्वथा अनुचित है. जिसे मीठा पसंद है उसे जबरदस्ती नमकीन नहीं खिलाया जा सकता .
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JC जी ,
कृष्ण , jiske अन्दर समस्त सृष्टि समाई हुयी है , और विकराल स्वरुप में सभी कुछ एक अवधी के बाद समां ही जाता है , उसी को पश्चिम से आई विद्या ने ब्लैक होल का नाम दे दिया . जिनको अपने प्राचीन विद्वानों , गणितज्ञों , पर भरोसा नहीं है , वे 19 th शताब्दी के वैज्ञानिकों द्वारा परिभाषित तथ्यों को ज्यादा सच मान रहे हैं.
पश्चिम के लोग जागरूक ज्यादा हैं , वे हमारा literature ले जाकर अध्यन करते हैं तोड़-मरोड़कर तथ्यों को प्रस्तुत करते हैं , और गुलाम मानसिकता की जनता जिसे अपने प्राचीन ज्ञान के भण्डार में विश्वास नहीं है , वे उन्हें सही मान लेते हैं. और वे स्वयं को ज्यादा आधुनिक के भुलावे में रख लेते हैं.
सेतुबंध रामेश्वरम को "adam 's bridge" का नाम देकर हमारी आस्था और ग्रंथों को ही नकार देते हैं .
भारत को सोने की चिड़िया कहा गया था . क्यूंकि हमारे प्राचीन विद्वान् 'पारद " ( mercury) से सोना (gold) बनाना जानते थे . उनके द्वारा पारद से सोना बनाने की विधि में mathematical calulations और perfect science भी है. लेकिन तो ये है की आजकल के नवोदित वैज्ञानिक का ज्ञान उतना उन्नत ही नहीं है , वे ग्रंथों में लिखी विधि के sixteen steps का आज तक proper translation ही नहीं कर पाए और gold बनाना भी नहीं जानते.
जब तक हम स्वदेशी ज्ञान का सम्मान नहीं करेंगे , ना स्वाभिमान " बचेगा , न ही "भारत" ......सब कुछ विदेशी हो जाएगा .
ग्रंथों में वर्णित ज्ञान को nakaarne में बुद्धिमानी नहीं है , अपितु शोध करने की ज़रुरत है . आजकल के शिक्षित वर्ग में इतना दम ही नहीं है की प्राचीन गंथों को सही तरह से समझ सकें. आर्यभट्ट का गणित तो सदियों पहले ही अत्यंत उन्नत था
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दिव्या जी, यह निर्भर करता है कि हर व्यक्ति कब अपने को बड़ी तोप न मान एक माध्यम मात्र मान लेता है, वो पश्चिम का हो अथवा पूर्व का, या उत्तर का अथवा दक्षिण का, है तो एक मशीन अथवा एक कंप्यूटर ही...शेष तो सब नाटक है, जिसे हस्तरेखा शास्त्री हाथ की लकीरें पढ़ अथवा खगोलशास्त्री जन्म काल के आधार पर, और समुद्र-शास्त्री माथा पढ़, आदि आदि भिन्न गणना के आधार पर 'भविष्य' का अनुमान लगा लेते थे (जो वास्तव में भूत ही जाना गया है), और यदि आज सही नहीं कर पा रहे हैं तो उसका कारण काल के साथ घटती कार्य-क्षमता का होना है...
पश्चिम के माध्यम से हम जान सकते हैं कि मानव मस्तिष्क में अरबों सेल हैं किन्तु 'सबसे बुद्धिमान व्यक्ति' भी केवल नगण्य सेल का उपयोग कर पाता है जबकि हिन्दू मान्यतानुसार (जो सत्य उसे मानते थे जो काल पर आधारित नहीं है) कलियुग में कार्य-क्षमता सतयुग की १००% से ७५% क्षमता कि तुलना में केवल २५% से ०% के बीच ही रह जाती है...
और जैसा 'मैंने' पहले भी कहा था संकेत हैं कि अब या तो सतयुग के लौटने की बारी है अथवा ब्रह्मा की रात (हिमयुग) के आने की बारी है, जो अधिक संभव है क्यूंकि सौर-मंडल की आयु साढ़े चार अरब वर्ष आंकी गयी है और हिन्दू मान्यतानुसार ब्रह्मा का एक दिन भी लगभग इतना ही बनता है (४३,२०,००० x १०८०)... और यदि हिमयुग आना ही है तो, न तो आस्तिक न नास्तिक ही उसे रोक पायेगा...
411 टिप्पणियाँ.
वाह,आपने रिकॉर्ड कायम कर दिया.
बधाई के लिए शब्द ढूंढें नहीं मिल रहे.
बधाई,बधाई बधाई......................
I guess I am very late to comment on this post.. almost all possible points are already said.
I just loved the comparison u made.
413 टिप्पणी
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Dear Jyoti, It's better to be late than never.
Kusumesh ji , Thanks.
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कुछ लोग कर्मकांडों को धर्म समझ लेते हैं और ईश्वर से घृणा कर बैठते हैं , लेकिन आस्था और कर्मकांडों में बड़ा अंतर है. अंधविश्वासों में जीना अपनी ही अज्ञानता है . लेकिन एक ईश्वरिरिय सत्ता में आस्था और अंधविश्वासों में अंतर तो समझना ही चाहिए.
दिव्या जी, आजकल पश्चिम में 'ग्रैंड डिजाइन' की चर्चा है, जिसके मूल में, मानव के माध्यम से, कोई भी सरलता पूर्वक देख सकता है कि मानव समाज किसी भी, छोटे से छोटे विषय पर भी, सिक्के के दो चेहरे समान, कम से कम दो, अथवा तीन भाग में (यदि सिक्के का 'खालिस्तान' यानी खाली स्थान को भी कोई देख ले), प्राकृतिक तौर पर, बंटता देखा जा सकता है... उदहारणतया आप यदि पूछें कि ईश्वर है? तो एक भाग कहेगा हाँ है! दूसरा कहेगा नहीं है! किन्तु एक तीसरा भाग -त्रिशंकु समान - न तो 'हाँ' कहेगा और न 'ना'!
उपरोक्त तथ्य में 'त्रिपुरारी शिव' का हाथ होना जाना गया, जो तथाकथित राजा है आकाश, धरा और पाताल, तीनों का (त्रैयम्बकेश्वर), जो 'तीसरी आँख' खोल दे तो सब भस्म हो जाए, 'कामदेव' हो अथवा 'भस्मासुर' (जो 'वैज्ञानिक' दृष्टिकोण से ऐन्तारटिका के आकाश पर हाल में दिखाई देते ओज़ोन गैस में बड़े होते छिद्र के कारण (सूर्य की अल्ट्रा वायोलेट किरणों के दुषप्रभाव के कारण) एक खतरे की घंटी मानी जा रही है, और एक कवि, तुलसीदास, तक ने 'धनुर्धर' राम को लक्ष्मण (पृथ्वी के प्रतिरुप) से वो तीर मांगते दिखाया जिससे वो सूर्य समान सागर जल को ही सुखा दे )
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JC ji ,
You are right. Apart from theists and atheists, there are few called agnostics who have found a middle way out.
Theists are open minded and believers while atheists are considered close minded, because they deny the existence of God.
Atheists quite often prefer to be called as 'Agnostic', because this category appears to be more open minded and respectable.
It is true that majority of people are oscillating between theism and atheism . They themselves are not sure about their beliefs. So they are 'agnostics'...more or less like 'Trishanku'
.
दिव्या जी,
जे.सी. जी और आपकी बातों में आनंद आ रहा है.
मोर्चा संभाले रखियेगा.
लगता है इंतजार हो रहा है आपकी टिप्पणियों पर
सुधिजनों की प्रतिक्रिया का.
कोई ४२० न कहलायें,इसीलिए यह टिपण्णी मेरी ओर से.
janm din mubark ho bahn ..akhtar khan akela kota rajsthan
पोस्ट शीर्षक भी जन्म दिवस की खुशखबरी तक बरकरार है...
वास्तव में आपका जन्मदिवस सभी ब्लोगर्स के लिये खुशखबरी बनकर आया है.
@ ZEAL
क्या कह रही हैं आप। आपके कहे का कुछ सिर-पैर भी होता है। नास्तिक close minded और आस्तिक open minded होते हैं, जरा इतिहास के पन्ने पलटिये किसने हमेशा विज्ञान और प्रगति का विरोध किया है नास्तिकों ने या आस्तिकों ने?
कर्मकांड में विश्वास पहली शर्त होती है। विश्वास के बिना कर्मकांड करना संभव नहीं है। आपका ये कहना सही होता की सभी आस्थावान कर्मकांडी नहीं होते। सभी अंधविश्वासी लोग ईश्वरीय सत्ता में परम आस्था रखते हैं। क्योंकि ईश्वर सभी अंधविश्वासों की जड़ है। ये कहना सही होता की सभी आस्थावान अंधविश्वासी नहीं होते। पहले पेज की टिप्पणीयों में मैंने आपसे कुछ सवाल पूछे थे उनके जवाब आपने नहीं दिये। कुछ भी कहने से पहले उस पर थोड़ा विचार कर लिया किजिए। और थोड़ा अध्ययन करके बोले तो ज्यादा बेहतर होगा।
दिव्या जी, जहां तक अनुमान लगाया जा सकता है, यह ऐतिहासिक तथ्य माना जाता है कि जब यूरोप में जंगली रहते थे तब 'भारत' अथवा 'हिन्दुस्थान' में ज्ञान अपनी चरम सीमा पर था (यद्यपि आज हिन्दुस्तानी 'लद्दड़' प्रतीत होते हों, 'माया' के कारण)...
आपके क्षेत्र की ही बात करें तो, आयुर्वेद अर्थात जड़ी-बूटी आदि के चिकित्सा क्षेत्र में औषधि के रूप में उपयोग इसी भूमि पर, हिमालय के पहाड़ी क्षेत्र में पाये जाने वाले वनस्पति आदि द्वारा, अनादि काल से अपनाया जाता आ रहा है...
और यह भी 'सत्य' है कि दिन प्रतिदिन इसका ज्ञान और वनस्पति आदि की उपयोगिता भी कम होती जा रही है, वैसे ही जैसे मानव में भी प्रतीत होती कार्य-क्षमता में गिरावट काल-चक्र के कारण, समय के साथ हिन्दुओं द्वारा मानी जाती आई है...
और, जैसे निराकार को प्रतिबिंबित करते संख्या शून्य ('०'), और '१' (आदित्य / अदिति अथवा सूर्य) से ले कर, एक एक संख्या से बढती संख्या, '२' से '९' (जिनसे अनंत तक दर्शाया जाना संभव हुआ) तक प्रतिबिंबित करते माने गए सौर-मंडल के अन्य सदस्यों को, 'देवताओं' को, संख्या '९' को शनि अर्थात 'सूर्य-पुत्र', संख्या ० से ९ तक का स्रोत अरब देश (मिस्र) माना गया,,,
वैसे ही 'चाय' का स्रोत भी चीन माना जाता आ रहा है वर्तमान काल में, आधुनिक इतिहासकारों की कृपा से... और इसका उपयोग यूरोप में हाल ही में हुआ, कुछेक सदियों पहले... लैटिन भाषा में 'चाय' के लिए कोई शब्द पहले था ही नहीं! फ़्रांस में अब इसे 'ते' (the') कहा जाता है, जिससे शायद 'तेइस्ट' अर्थात आस्तिक शब्द की उत्पत्ति हुई,,, जो 'आम आदमी' को, हिन्दुस्थान में, शायद अनंत का 'सार' अथवा 'सत्व' अथवा 'सत्य' / 'परम सत्य', 'परमात्मा', को अपने एक लघु जीवन काल में ही खोजने की ओर संकेत रहा होगा ("सत्यम शिवम् सुन्दरम")...
दिव्या जी,
यह 425 वा कमेंट!! आपके जन्म दिन पर 425 आशिर्वाद!! बधाई और शुभ-कामनाएँ।
जनम दिन की ढेर सारी शुभ कामनाये |
@sajjan singh
बंधुवर...पहले पन्ने की छोडिये, दुसरे पन्ने पर मैंने आपसे कुछ प्रश्न किये थे, उसका उत्तर दिए बिना ही आप पलायन कर गए थे यह कहकर की आप थक गए हैं| थकान मिट गयी हो तो पहले कुछ ब्रह्म ज्ञान हमे भी दें, दिव्या जी से उत्तर बाद में मांगिएगा|
@"नास्तिक close minded और आस्तिक open minded होते हैं, जरा इतिहास के पन्ने पलटिये किसने हमेशा विज्ञान और प्रगति का विरोध किया है नास्तिकों ने या आस्तिकों ने?"
sajjan जी,
यदि यह मानते हो कि नास्तिक open minded होते है। तो जरा खुल्ले दिमाग से चिंतन करो। आस्तिक दिखावे का open minded नहीं होता बल्कि सही अर्थों में open minded होता है। वह विज्ञान को ज्ञान मानता है उसे उसी रूप में स्वीकार करता है। वह विज्ञान की अंध-भक्ति नहीं करता जिस प्रकार आप जैसे कथित नास्तिक विज्ञान के तात्कालिक परिक्षणों के भी अंधश्रद्धालु होते है।
आस्तिक अंधा बनकर विकास को स्वीकार नहीं करता, विकास के अन्तर में छुपी विकृति का भी अनुशीलन करता है। नीर क्षीर विभाजन करता है और विकृति का निषेध करते हुए सार्थक विकास ही ग्रहण करता है।
माईन्ड की बात करते है? इतना तो सोच ही सकते है कि चिंतन किसका गुण है?
आपको जन्मदिन की हार्दिक बधाई ......... आप अपनी लेखनी से हिंदी का गौरव इसी प्रकार बढाती रहे और हमें अपने स्नेहाशीष से सदा सिक्त रखें यह कामना ठाकुर जी से करता हूँ.
पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं श्रुणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात्।।
@ Er. Diwas Dinesh Gaur
आपके बाद मैंने टिप्पणी की थी, ध्यान से देखिए। अपने बात की पुष्टि के लिए कुछ लिंक भी दिए हैं।
वाह! क्या बात है.
आज का दिन तो खुशियों की सौगात है.
'दिव्या' जी का शुभ अवतरण हुआ आज
शत शत बधाई,और ये दुआएं कि
सद् लेखन से वे बनें ब्लॉग जगत की प्यारी दुलारी 'सरताज'.
आदरणीय दिव्या श्रीवास्तवजी
जन्मदिन की बहुत बहुत हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनाएं!
'मन चंचल होता है', वो उन जंगली पशु समान होता है जिनको 'तपस्या' अथवा 'साधना' द्वारा प्राचीन योगियों ने साधा,,, और जो तबसे, और आज भी, तुलना में अज्ञानी मानवों द्वारा परंपरागत तौर पर, सरलता पूर्वक साध लिए जाते देखे जा सकते हैं - जैसे हाथी, घोड़े, शेर आदि ज़ू, अथवा सर्कस में अनेक करतब दिखाते जैसे, या जंगलों/ सड़क आदि पर भारी समान ढोते, अथवा घोड़े समान अर्जुन का रथ खींचते... किन्तु बिगड़ गए तो 'ऊपर वाला' ही मालिक है :)...
[किसी ने पहले भी कहा, "यह इश्क नहीं आसां / बस इतना समझ लीजे/ एक आग का दरिया है / और डूब के जाना है!]...
आदरणीय दिव्या श्रीवास्तवजी
आपका जन्मदिन अब याद रहेगा!इस का कारण है की कल मेरा भी जन्मदिन है और एक दिन पहले आपका!
फूलों ने अमृत का जाम भेजा है,
सूरज ने गगन से सलाम भेजा है,
मुबारक हो आपको नया जानम दिन,
तहे-दिल से हमने ये पैगाम भेजा है!
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to dr Divya Sriwastwji
@ सुज्ञ
आपने कैसे जान लिया की मैं विज्ञान का अंधभक्त हूँ। लेकिन आप शायद धर्म के अंधअनुयायी लगते हैं। विज्ञान में लोग इसलिए विश्वास करते हैं क्योंकि विज्ञान जो तथ्य पेश करता है वे इतने प्रमाणित, जीवंत और प्रयोगसिद्ध होते हैं कि धर्म उनके आगे अपनी वैचारिक कट्टरता दखाकर खुद को और अप्रासंगिक ही बना सकता है। चलिए यहां मैं विज्ञान की बात नहीं करता हूं मैं चार्वाक दर्शन को मानता हूं। जो सर्वव्यापी है और जिसकी प्रकृति और सिद्धांत सभी जगह समान है। विज्ञान इसकी सत्यता पर मोहर लगाता है। ईश्वर में विश्वास करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। सर्जक मानने की आवश्यकता तो तभी होगी जब कि यह प्रमाणित हो जाए कि कभी सृष्टि की उत्पत्ति हुई होगी। यह जगत् सदा से चला आ रहा है। बिग बैंग का सिद्धान्त इस बात की पु्ष्टि करता है कि यह ब्रह्मांण्ड बिग बैंग का चक्र है जो खुद ही बनता और बिगड़ता है। इसे चलाने वाली कोई बाह्मय शक्ति नहीं है। आपको सत्य से कोई मतलब नहीं है आपको केवल अपने विश्वास ही सत्य प्रतित होते हैं और ये विश्वास भी आपके अपने कहां है ये तो धर्म ग्रन्थों ने आपको पकड़ा दिये हैं।
@sajjan
भाई अभी तो ब्रह्मांण्ड रचना की कोई बात ही नहीं निकली। मैने केवल मानसिकता पर ही कहा है।
मैने कैसे जान लिया कि आप विज्ञान के अंधभक्त है। भाई आप ही तो कह रहे है हम विज्ञान में मानते है और साथ ही दिखाई दे रहा है कि विज्ञान के परिक्षण स्तर पर हो रहे अनुसंधानों को भी इस तरह प्रस्तुत करते है जैसे विज्ञान नें निष्कर्ष ही दिया हो। विज्ञान आपसे कहीं अधिक ईमानदार है। जिस बात को उसने अभी तक न खोजा हो कभी दावे से नहीं कहता कि वह नहीं है। जबकि आप जैसे लोग विज्ञान के नाम पर निषेध के दावे ठोक देते है। याद रहे विज्ञान को झूठ से सख्त नफरत है।
इसी आशय से मैने तो केवल विज्ञान के अंधभक्त कहा, पर वस्तुतः आप विज्ञान द्रोही है। जो विज्ञान को अपने लाभ के लिए मिसकोट करते है।
आज कल कहाँ संन्यास लिया हुआ है ? बहुत दिनों से ब्लॉग जगत से गायब हैं ?
आज जन्मदिन मुबारक ... ढेर सारी शुभकामनायें
भगवान् है या नहीं, भौतिक जगत और उस में 'आदमी' अगर है, और केवल उसका फिल्म समान ३-डी प्रोजेक्शन नहीं , तब भी इतना तो हर कोई मानेगा की सभी अस्थायी हैं, भले ही वो किसी समय हीरो दीखता हो या विलेन, आस्तिक अथवा नास्तिक,,, सभी को अंततोगत्वा एक दिन राख या मिटटी में ही मिलना है कितना भी बिग बैंग को प्रतिबिंबित करते शोर मचा लो, या मौन रहो, जैसा सृष्टि के आरम्भ में माना जाता है...
@मैं चार्वाक दर्शन को मानता हूं। जो सर्वव्यापी है और जिसकी प्रकृति और सिद्धांत सभी जगह समान है। विज्ञान इसकी सत्यता पर मोहर लगाता है।
@sajjan
चार्वाक दर्शन को मानते हो तो जानते होंगे कि वह कौनसा ग्रंथ है जो चर्वाक दर्शन और सिद्धांत का प्रमाणिक ग्रंथ है? अगर प्रमाणिक सिद्धांत ही अवेलेबल नहीं है तो विज्ञान नें आकर मोहर किस पर मारी।
भारतीय मनिषा के किसी दर्शन की ओट मत लो। चार्वाक के नास्तिक दर्शन के बारे में जो भी थोड़ा बहुत जानते हो वह सब आस्तिक दर्शन ग्रंथो की देन है। वहीं से सामग्री प्राप्त होती है। विज्ञान नें उस बात पर ठप्पा कैसे मार दिया कि 'ॠण लेकर भी घी पीना चाहिए'क्या यह विज्ञान का क्षेत्र है? विज्ञान कहेगा कि मजे करो?
प्रकृति की तो बात भी मत करो, प्रकृति का निर्दयता पूर्वक बेफाम उपयोग को ललचाते प्रेरित करते इस चर्वाक-दर्शन के प्रति पर्यावरण प्रेमी विज्ञान, समर्थन तो दूर इस और दृष्टि भी डालेगा,असंभव है।
माता प्रकृति उसके अनियंत्रित शोषकों को कभी माफ नहीं करेगी।
मित्रों!! पुनर्जन्म का विषय था, और संयोगवश आप दिव्या जी का जन्मदिन भी है जो कि पुनर्जन्म में आस्था रखती है। पुनर्जन्म पर चर्चा का आस्तिकता नास्तिकता में विवेचन होना अवश्यंभावी है।
नास्तिकता के विषय में मेरे मंतव्य के अन्यार्थ न लिए जाय यह स्पष्ठीकरण जरूरी है।
मैं नास्तिकता को दो भेदों में विभाजित करता हूँ।
1-वे नास्तिक जो निरपेक्ष व नैतिक होते है। अर्थात् ईश्वर के होने न होने से उन्हें कोई समस्या नहीं, वे सोचते है जब ईश्वर को मानना ही नहीं है तो उसकी अनावश्यक निंदा भी क्यों की जाय। वे सदगुणो का सम्मान करते है, सदाचार अपनाते है भले उसका स्रोत धार्मिक ग्रंथ ही क्यों न हो। वे नैतिकता को प्रशय देते है।
ऐसे नास्तिकों का मैं सम्मान करता हूँ, एक आस्तिक से भी ज्यादा उनका सम्मान किया जाना चाहिए। मेरी मजबूरी है कि ऐसे नास्तिकों के लिए कोई सौम्य शब्द नहीं है।
2- दूसरे वे नास्तिक है जो वास्तव में ईश्वरनिंदक और धर्मद्वेषी है। इनका एक मात्र उद्देश्य होता है ईश्वर पर दोष मंड़ण करे। ईशनिंदा को ही वे अपनी बहस की जीत मानते है। धर्महंता होते है और धर्म-ग्रंथो से पागलों जैसा द्वेष रखते है। धर्म नाम देखकर ही बिदक उठते है। भूल से भी कोई सदाचार अगर धर्म-ग्रंथो से आ जाय तो ये लोग सदाचार त्याग तक कर देते है पर उसका श्रेय धर्म-ग्रंथो को देना इन्हें मंजूर नहीं। पापों का मतलब ही नहीं जानते, और उचित अनुचित में भेद भी नहीं कर पाते। ऐसे नास्तिक सद्कर्म-द्रोही नास्तिक होते है। जहां गुण नहीं वहाँ सम्मान नहीं की तर्ज पर मैं ऐसे नास्तिकों का सम्मान नहीं करता।
इस प्रकार प्रथम श्रेणी के कईं नास्तिक मेरे मित्र है। मैं उनका आदर करता हूँ। मेरे नास्तिक-नास्तिक शब्द प्रयोग से अगर उनका मन आहत हुआ हो तो हृदय से क्षमा-प्रार्थी हूँ। मेरी आलोचना का लक्ष्य वे दूसरे दर्जे के नास्तिक है।
कोई विद्वान शब्दज्ञ इन भेदों के अनुसार नास्तिकों के लिए उपयुक्त शब्द गढे तो महती कृपा होगी।
दिव्या जी, आपको जन्म दिवस की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं।
आप शतायु हों।
दिव्या जी
आपको जन्मदिन की हार्दिक बधाई और ढेरो शुभकामनाये.
हमारी संस्क्रति तो कहती है.
कम खाओ गम खाओ.
या फिर
जितनी चादर हो उतना पैर फैलाओ.
न कि उधार लेकर घी पियो.
और उधार चुकाते चुकाते मर जाओ.
सुज्ञ जी ने नास्तिकों का भेद अति उत्तम किया है.. इसे भी पोस्ट की उपलब्धि कहा जाना चाहिए.
आनंद आ गया.... हाँ, जहाँ तक नास्तिकों के पृथक-पृथक नामकरण का प्रश्न है.. वे हो सकते हैं :
१] सहज नास्तिक अथवा
२] कुटिल नास्तिक अथवा बिगडेल नास्तिक ... इसे असहज भी कह सकते हैं.
सुज्ञ जी आपका ये विश्लेषण बेहद आनंददायक लगा और रोचक भी, तार्किक भी.
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प्रिय भाई सज्जन सिंह ,
आपने पहले ही सर्टिफिकेट दे दिया की मैं बिना सर-पैर के लिखती हूँ , इसलिए ज्यादा कुछ लिखने में संकोच हो रहा है.
बस इतना ही कहूँगी की जो लोग किसी आस्था, विचारधारा अथवा प्राचीन ग्रंथों को बिना किसी बुनियाद के सिरे से नकार देते हैं , वे closed minded ही कहे जायेंगे. लेकिन नास्तिक के दुसरे प्रकार किन्हें 'agnostics ' कहा गया है वे निसंदेह open minded हैं. . धरती पर इतनी बड़ी आबादी जो आस्थावान है उसे नकार देना कुछ अनुचित जान पड़ता है.
व्यक्ति को --"ऐसा क्यूँ" अथवा "Why" नामक खिड़की सदा खुली रखनी चाहिए.
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सुज्ञ जी ,
आपके द्वारा वर्णित पहले प्रकार के नास्तिकों को ही "Agnostics" कहते हैं . इसका हिंदी में शब्द नहीं पता , लेकिन प्रतुल जी द्वारा प्रस्तावित शब्द "सहज नास्तिक" काफी convincing लग रहा है.
जन्म दिन पर बधाई प्रेषित करने वाले सभी मित्रों का हार्दिक आभार.
राकेश जी , आपने ४२० कहलाने से सभी को बचाया , इसके लिए आपका पुनः आभार.
अच्छी कमान संभाली है आपने दिव्या जी.
आप बिलकुल संकोच न करें.मोर्चे पर डटी रहें.
सहज नास्तिक को 'आस्तिक ऐ नास्तिक'
और असहज नास्तिक को 'नास्तिक ऐ नास्तिक' कहें तो कैसा रहे.
'आस्तिक ऐ आस्तिक' वह जो आस्तिकों की अच्छी बातों को माने,भले ही भगवान को न माने.
'नास्तिक ऐ नास्तिक' वह जो केवल नास्तिक होने में ही भलाई समझे,आस्तिकों की किसी भी अच्छी से अच्छी बात को भी सिरे से ही नकार दे.
आज आपके जन्म दिन पर ही ५०० टिपण्णी हो जाये तो अचरज नहीं.
पानी तो आपने खूब खौला ही दिया है.
देखें कितना पानी है हमारे 'आस्तिक ऐ नास्तिक','नास्तिक ऐ नास्तिक' और आस्तिक ऐ आस्तिकों में.
५०० पुरी होने पर दिव्या जी शानदार दावत देंगीं(जन्म दिन की तो बनती ही है)
४५० के पास तो आ ही गए हैं.जोर लगाओ अहि सा.
दिव्या जी,
आपने मुझे ४२० होने पर आभार प्रकट किया. क्या बात है .
मैं भी आपका तहे दिल से धन्यवाद करता हूँ.
हो गयीं अब तो ४५०.
मेरी दावत पक्की न ?
j a n a m d i n m u b a r a k h o . . .
b a d h i y a a n . . . .
pranam.
दिव्या जी, जैसा हम सभी को पता होगा, राकेश कुमार जी इंजिनियर होने के अतिरिक्त वकील भी हैं... जिस कारण उनको 'आई पी सी' के अंतर्गत दफा ४२० के बारे में पूरी जानकारी होगी (वैसे मेरे एक मामा जी भी वकील थे, और एक दामाद भी वकील है, किन्तु इस विषय में कभी चर्चा नहीं हुई)... वो ही जानें उन्होंने क्यूँ अपनी टिप्पणी इस स्थान पर होना सहर्स स्वीकार कर लिया...
वाह,आपने रिकॉर्ड कायम कर दिया.
बधाई के लिए शब्द ढूंढें नहीं मिल रहे.
बधाई,बधाई बधाई.....................
जन्मदिन की असीम शुभेच्छायें !
जन्मदिन की असीम शुभेच्छायें !
@मै यहाँ से कुछ दिनों के लिए गायब क्या हुआ की फिर वाद विवाद शुरू हो गया !
कौसल वालिया जी आपने मुझे अपना मुहँ बोला गुरू बनाया,पर प्रोफाइल
अपना कोई और ही चित्र लगाया,यह भेद मुझे समझ नहीं आया.
हाँ आपकी बातों से मुझे अपने प्रिय मित्र और भाई की झलक दिखलाई पड़ रही है.अब आप ही बताएं कुछ,आप वे ही हैं या कोई और.
दिव्या जी आपके जन्म दिन पर प्रश्न यह उठता है 'मेरे' मन में कि 'हम' अपना जन्मदिन क्यूँ मनाते हैं? क्यूँ खुश होते हैं उस दिन - पार्टी देते हैं अपने शुभ चिंतकों को, और वे सब कामना करते हैं कि वो दिन हमारे जीवन में बार बार आये?
क्या इस प्रकार अनादि और अनंत के स्वरुप होने के कारण 'हम' आशीर्वाद तो नहीं दे रहे हैं अपने सौर-मंडल के अमृत सदस्यों को, और अपने दीर्घायु होने का उनसे भी आशीर्वाद पाने हेतु, क्यूंकि 'हम' उन्ही के ऊपर निर्भर भी हैं?
पुनर्जन्म क्यूंकि माना जाता है उनका होते जो 'अवतार' समान 'अकाल मृत्यु' को प्राप्त होते हैं, किसी दुर्घटना आदि के कारण?
@ वो ही जानें उन्होंने क्यूँ अपनी टिप्पणी इस स्थान पर होना सहर्स स्वीकार कर लिया...
जे.सी. जी,
यह दिव्याजी का ब्लॉग है.
इसपर जो भी 'एफ.आई.आर.' करेंगीं वह दिव्या जी ही करेंगीं.
दिव्या जी ने अपना आभार प्रकट कर दिया है.
मैं तो उनसे अब दावत की इंतजार में हूँ.
आप मेरे '४२०' होने का गुनाह कैसे साबित करेंगें अब?
जरा सलाह ले लीजियेगा आदरणीय मामा जी की और प्रिय दामाद जी की.
आदरणीय गुरु जी नमस्ते आप ने बिलकुल ठीक समझा !
मै अपने मित्र के कंप्यूटर से कॉमेंट्स कर रहा था लेकिन गलती ये हो गयी की बिना लाग इन किये मैंने अपना कार्य जरी रखा !
बाद में गलती पता चली तो फिर से डिलीट किया !
न जाने क्यों आपका मेरे प्रति विशेष स्नेह मुझे आपसे बांधे रखती है !
मै यहाँ से कुछ दिनों के लिए गायब क्या हुआ की फिर वाद विवाद शुरू हो गया !
और प्रतुल वशिष्ठ जी सिर्फ खाली पीली विचरण करने से काम नहीं चलेगा कुछ अपना भी राय दीजिये !
राकेश कुमार जी जो की हमारे मुह्बोले गुरु जी भी है आपसी वाद विवाद का अच्छा आनंद ले रहे हैं
ज़रा आप भी चर्चा में शामिल हों तो हम सब का आनन्द भी और बढ़ जाए !
अहोभाग्य हमारे जो दिव्या जी ने भी आखिर दर्शन दे ही दिया |
उनको मेरी तरफ से जन्म दिन की हार्दिक शुभ कामनाएं |
अभी मै थोड़ा कार्यों में व्यस्त हूँ फिर से फुर्सत में चर्चा में शामिल होने की कोशिश करता हूँ तब तक इन्तजार करें !
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JC ji ,
विचारणीय प्रश्न है जन्मदिन क्यूँ मानते हैं . शायद इसलिए की शुभचिंतक अपने प्रियजनों को शतायु देखना चाहते हैं क्यूंकि एक बार बिछड़े तो दुबारा कब मिलेंगे, निश्चित नहीं होता. अन्यथा aatma तो ajar-amar है ही.
शायद हमारे पूर्वज ही हममें हैं और यह शुभकामनाएं इसी prakaar से nirantar amrit sadasyon में sthanaantarit हो रही है और chunki uurja का naash नहीं होता इसलिए shubhkaamnaon में nihit uurja ब्रम्हांड में संचित हो रही है.
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मेरे विचार से राकेश जी ने अपने ब्लौगर मित्रों पर कृपा दृष्टि रखकर ही ४२० की संख्या का भार स्वयं पर ले लिया होगा. ये उनका बद्दप्पन (generousity) है.
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राकेश जी ,
निसंदेह पार्टी due रही. nimantran abhi से.
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आदरणीय गुरु जीआपने बिलकुल प्रभु इशू मसीह की तरह दुसरे के पापों को ( ४२० बनना ) अपने सर धारण कर के सराहनीय कार्य किया है आपको कोटिशः साधूवाद !!
आदरणीय गुरु जीआपने बिलकुल प्रभु इशू मसीह की तरह दुसरे के पापों को ( ४२० बनना ) अपने सर धारण कर के सराहनीय कार्य किया है आपको कोटिशः साधूवाद !!
दिव्या जी !!! जन्म दिन की हार्दिक शुभकामनाएं!!!
हा! हा! हा! राकेश कुमार जी, तभी तो कहा जाता है, "Show me the man / And I will show you the rule"!
विज्ञान के क्षेत्र में भी नियम तो ठोक बजा कर ही बनाए गए हैं, किन्तु यह भी पाया जाता रहा है कि हर नियम के कुछ न कुछ अपवाद भी होते हैं,,, और सदियों से माने जाते आ रहे नियम भी बदल जाते हैं यदि कुछ नये तथ्य मिल जाएँ... सर फ्रेड हौयेल ने भी कहा था कि जब विज्ञान के क्षेत्र में कार्य आरम्भ हुआ तो सूचना के अभाव के कारण कई नियम अनुमान के आधार पर (hypothesis) भी बने जिन का सत्यापन काल के साथ शोध के बाद ही हो पाया, अथवा वो हटा दिए गए,,, और वर्तमान में इतनी अधिक सूचना एकत्र हो गयी है कि कोई नया नियम, पहले समान, सरलता पूर्वक नहीं बन सकता क्यूंकि पहले उसको उपलब्ध अनंत सूचना पर खरा उतरना आवश्यक होता है...
अपवाद की बात करें तो भारत में कवियों ने भी किसी अदृश्य शक्ति के विषय में भी कहा, "जाकी कृपा पंगु गिरी लंघई,,, आदि", जिसे वर्तमान में सत्यापित होते 'हम' ऐवेरेस्ट पर विजय पाने में 'फिजिकली चैलेंज्ड' यानी नकली टांग लगा कुछ व्यक्तियों को सक्षम देख चुके हैं...
जन्म दिन, हम या हमारे स्वजन हमारा इसलिए मनाते है कि मनुष्य जीवन पाना दुर्लभ है। हमारी कितनी ही निष्काम शुभ प्रवृतियों के फल स्वरूप हमें मानव जन्म प्राप्त होता है। अन्यथा कितनी ही बार कीडे मकोडों की योनियों में जीवन व्यर्थ चला जाता है। जन्म-दिन मनाना दुर्लभ मानव भव पानें और उसे कुछ लम्बा टिकाए रखनें की शुभाकांशा के प्रतिक्रिया स्वरूप होता है। ऐसे महान अवसर को क्यों न खुशीयों का उत्सव बनाएँ।
हमारे प्राचीन ग्रंथों में प्रत्येक विषय पर इतनी वैज्ञानिक सोच को लेकर लिखा जा चुका है की उस पर शोध करने वाले भी usko समझने में ही काफी वक्त लगा देते हैं , नया कुछ निकाल पाने के लिए बहुत ही हाई लेवल का ब्रेन चाहिए.
गणितीय और खगोलीय अध्ययन पर पूर्व में ही उत्कृष्ट ग्रन्थ उपलब्ध हैं . हम शोध करना को दूर यदि उसका दसवां अंश भी सही अर्थों में समझ लें तो बहुत विकास हो जाएगा.
१९विन शताब्दी में की चिकित्सा प्रणाली में जिन व्याधियों का जिक्र है , वे तो शताब्दियों पूर्व ही हमारे ग्रंथों में उलिखित हैं , लेकिन अथर्ववेद के उपवेद 'आयुर्वेद' का सम्मान ही नहीं है हमारे आजकल के so called शिक्षित वर्ग में ..... isliye ही हम अत्यंत विनाशकारी आधुनिक औषधियों के गुलाम होते जा रहे हैं .
ग्रंथों में वर्णित नीम और हल्दी को जब अंग्रेज अपने नाम से पेटेंट करा लेते हैं तो वही नीम हल्दी आधुनिक हो जाती है ?
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कल आपका जन्मदिन था और बधाई हम आज दे रहे हैं... भला हो पाबला जी के ब्लॉग का, चलिए देर आयद, दुरुस्त आयद...
आपको जन्मदिन की ढेरों शुभकामनाएँ!
आपका ईमेल पता मेरे पास नहीं था, इसलिए आपके ब्लॉग पर ही शुभकामनाएँ भेज रहा हूँ
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सुज्ञ जी , बहुत सुन्दर तर्क उपस्थित किया है . ..८४ लाख योनियों में विचरण करने के बाद मनुष्य जन्म मिलता है . और हर श्रेष्ठ वास्तु की प्राप्ति पर उत्सव करना ही चाहिए.
एक अन्य प्रश्न भी आ रहा है मन में ...नास्तिक व्यक्ति अत्यंत aggressive क्यूँ होते हैं . ऐसा लगता है सारे ब्रम्हांड की नकारात्मक ऊर्जा गुस्सा बनकर उनमें समां गयी हो .
कहते हैं 'निर्मल और सहज बुद्धि , 'सुमति' और भक्ति भी ईश्वर की कृपा से ही मिलती है.
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शाहनवाज़ जी ,
देर से ही सही , आप आये तो . शुभकामनाओं की मुझे बहुत ज़रुरत है . जब स्वास्थ्य अच्छा न हो तो शुभचिंतकों द्वारा शतायु की कामना सबसे ज्यदा सुकून देती है.
rohit ji - do you have a blog ? please send a link - i am interested . thanks . i am asking here because profile is not opening - some error in blogger - hindi tying also is not working ...
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Shilpa ji didn't feel like uttering a word on the discussion going on but utilized the blog space in her own interest.
nevermind ...happens !
Mind paying the tax mam ?
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कंस ने देवकी और वासुदेव को बंदी बनाकर अपनी रक्षा का पुख्ता इंतज़ाम कर लिया था , लेकिन सुनियोजित मृत्यु से ( प्रभु माया) से बच पाया था क्या ?
जापान देश से ज्यादा तरक्की अन्य किसी देश ने नहीं की है अभी तक . लेकिन विज्ञान के उन्नत होने के बावजूद भी वह स्वयं को प्रकृति के कोप से बचा पाया क्या ?
Man proposes God disposes.
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नास्तिकों को अमेरिका और अमेरिकन्स ही सर्वशक्तिमान लगते होंगे , इसमें गलत भी कुछ नहीं , पश्चिम वाले कर्मठ जो हैं , भारतीय प्राचीन ग्रंथों को चुराकर उसे अंग्रेजी में translate करके अपने शौर्य को बढ़ा रहे हैं. और हमारे यहाँ के विद्वान् जिनमें पुरुषार्थ था, या है , उन्हें bhrashtachariyon के हाथ मसला और दमित किया जा रहा है .
क्यूँ लोग 'सतयुग' की मिसाल दिया करते हैं ? सोचने का विषय है . उस समय विज्ञान भी उन्नत था और भक्ति भी . अहंकार और अज्ञानता नहीं थी .
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दिव्या जी, और सुज्ञं जी, बचपन में श्री कुंदन लाल सहगल द्वारा, '४६ में घर आये रेडिओ पर, सुने गाने की पंक्तियाँ अभी भी याद हैं, "...लाख चौरासी भुगत के आया / बड़े भाग मानुस तन पाया / तापर भी नहीं करी कमाई / फिर पाछे पछताते हैं // दिन नीके बीते जाते हैं..." जिसके द्वारा हिन्दू दर्शन का सार प्रस्तुत किया कवियों आदि ने...
गीता में 'योगियों' द्वारा कृष्ण को कहते दर्शाया गया है कि मानव जन्म का उद्देश्य केवल निराकार ब्रह्म और उसके साकार रूपों को जानना मात्र है,,, और यह कि कोई भी उन्हें पा सकता है, ज्ञान, और विज्ञान से भी, किन्तु उनको वो अधिक प्रिय हैं जो उन पर आत्म समर्पण कर देते हैं (मीराबाई, सूरदास समान?)...
स्कूल की पुस्तक में पढ़ा था, "सूर सूर (सूर्य) / तुलसी शशि / उडगन (? तारा?) केशव दास',,, जिसमें हमारे टीचर ने जोड़ दिया था 'अब के कवि खद्योत्सम / जहं- तंह करें प्रकाश'...
इस संसार में यह भी देखा जा सकता है कि मिटटी, हवा, पानी, अग्नि, आदि, और सब प्राणी आदि अपने अपने गुणों से मानव के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकता है यदि ज्ञान हो,,, गीता में कृष्ण भी कहते दिखाए गए हैं कि साड़ी गलतियों का कारण अज्ञान है...
योगियों ने गहराई में जा विभिन्न युगों की भिन्न भिन्न प्रकृति का वर्णन किया और काल-चक्र को उल्टा (सतयुग से कलियुग} तक चलते दिखाया - 'ब्रह्मा' के चार अरब वर्ष से अधिक एक दिन में १०८० बार...
जिसे 'मैंने' उसी प्रकार सरल शब्दों में सोचा, (इस पृष्ठभूमि से की पृथ्वी पहले आग का गोला थी और उत्पत्ति के कारण धीरे धीरे हवा और पानी से ठंडी हो वर्तमान में सुंदर साकार रूप तक पहुँच गयी, किन्तु कहीं हरियाली तो कहीं उसके विपरीत रेगिस्तानों कि उपस्तिथि भी होते हुए), कि मान लो एक किसान एक बंजर भूमि के अंश पर कुछ वर्षों में अथक प्रयास से उसे एक हरी भरी भूमि में परिवर्तित कर दे,,, और इस प्रक्रिया कि फिल्म भी बनाता जाये... अब यदि वो इस फिल्म को उल्टा चलाये तो हंम एक हरी= भरी भूमि को रेगिस्तान में परिवर्तित होने की अनुभूति करेंगे :)
@एक अन्य प्रश्न भी आ रहा है मन में ...नास्तिक व्यक्ति अत्यंत aggressive क्यूँ होते हैं . ऐसा लगता है सारे ब्रम्हांड की नकारात्मक ऊर्जा गुस्सा बनकर उनमें समां गयी हो .
कहते हैं 'निर्मल और सहज बुद्धि , 'सुमति' और भक्ति भी ईश्वर की कृपा से ही मिलती है.
दिव्या जी,
वस्तुतः 'सहज अबोध नास्तिक' तो आक्रोशित नहीं होते। बस उन्हें जब भी लगता है आस्तिक उन्हें स्वयंस्फूर्त बुद्धि से सोचने नहीं देते इसलिए उनसे आहत से रहते है।
'कुटिल दुर्बोध नास्तिकों' में द्वेष भाव जड़ें जमाए रहता है। वे पल भर भी द्वेष भाव से मुक्त नहीं हो पाते, इसीलिए आवेशित-आक्रोश में ही रहते है। जैसे क्रोध सांप का स्वभाव होता है,हर हलचल को आक्रमण समझकर स्वबचाव में फूफकारता-डसता है। मानव स्वभाव में द्वेष यही कार्य करता है। ज्ञानी इसिलिए द्वेष को दुर्गुण कहते है।
इन सबके अलावा अपने आस पास ऐसे प्राणी भी देखे हैं जो केवल शौक शौक में स्वयं को नास्तिक बताते हैं, पता नहीं शायद आजकल लेटेस्ट फेशन होगा| क्योंकि इनके पास कोई उचित कारण भी नहीं है की वे स्वयं को नास्तिक बता सकें|
साथ ही कुछ महेश भट्ट की फिल्मों के रोंतलू हीरो जैसे होते हैं, की या तो जिनकी प्रेमिका उन्हें छोड़ गयी, या घरवाले प्रेमिका को छोड़ने के लिए दबाव बना रहे हैं, माँ प्यार से समझाती है, बाप से बनती नहीं है, ज़माने से रूठ कर अपनी शक्ल पर बारह बजाए यहाँ-वहां मजनू बने भटकते रहते हैं, अंत में स्वयं को नास्तिक कहने लगते हैं|
अब बताइये यह क्या कारण हुआ? मतलब भगवान् ने तेरी गर्ल फ्रेड से तेरा मामला सेट नहीं किया तो भगवान् है ही नहीं? जैसे भगवान् न हुआ, कोई दल्ला हो गया|
जब तक हमारी इच्छाओं की पूर्ती हो रही है तब तक भगवान् है, यदि एक भी इच्छा रह गयी तो भगवान् का अस्तित्व ही संकट में| ऐसे बहुत देखे हैं मैंने|
और कुछ तो खुद को ब्रॉड माइंडेड कहलाने के लिए भी नास्तिक बन जाते हैं| जी हाँ ऐसा भी होता है|
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गीता में 'योगियों' द्वारा कृष्ण को कहते दर्शाया गया है कि मानव जन्म का उद्देश्य केवल निराकार ब्रह्म और उसके साकार रूपों को जानना मात्र है,,, और यह कि कोई भी उन्हें पा सकता है, ज्ञान, और विज्ञान से भी, किन्तु उनको वो अधिक प्रिय हैं जो उन पर आत्म समर्पण कर देते हैं (मीराबाई, सूरदास समान?)...
मीराबाई और सूरदास को भगवान् मिले , लेकिन नास्तिक इसे महत्वपूर्ण थोड़े ही समझेंगे. उनके लिए तो जीवन की सफलता कलमाड़ी , ए राजा , मायावती , लक्ष्मी मित्तल औए मुकेश अम्बानी जैसे करोड़पतियों में दिखाई देती है . धन द्वारा ही व्यक्ति का बौधिक , नैतिक और वैज्ञानिक विकास आँका जा रहा है . अफ़सोस जनक है ये
ज्ञान का भण्डार और हमारा वैदिक ज्ञान धूल सामान हो गया है ? शायद यही कलियुग है और हम अपनी brain cells का मात्र २ प्रतिशत ही इस्तेमाल कर पा रहे हैं.
विचारणीय है की हमारे प्राचीन विद्वान् , ऋषि मुनि कैसे तप करते थे , कैसे ज्ञान अर्जित करते थे और कैसे अपने वेदों और ऋचाओं की रचना करते थे ?
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आस्था बनी रहने के लिए नास्तिकों का होना बहुत जरूरी है. जैसे विद्यार्थियों के बगैर शिक्षक का क्या अस्तित्व भला ? वैसे यदि नास्तिक प्रश्न नहीं उपस्थित करेंगे तो ग्रंथों में निहित उत्तरों का महत्त्व क्या रह जाएगा भला?
ऐसा नहीं है की विद्वान्-नास्तिक ग्रंथों का अध्ययन नहीं करते , वे भी पढ़ते हैं , घोर अध्ययन करते हैं , लेकिन ऐसी पुस्तकों का जिसमें आस्था पर भरपूर प्रहार किया गया हो. फिर वे इन किताबों का सन्दर्भ देते हैं
दुखद तो यह है की ये जिन ग्रंथों और प्रमाणों को नकारते हैं उन्हें , इन्होने एक बार भी पढ़ा नहीं होता है. यदि ये वैदिक पुतकों को पढ़ लें तो इस नकारात्मकता से मुक्त हो जायेंगे.
यदि आस्था ही नहीं होगी तो न ही पर्व होंगे , न उत्सव ...होली दिवाली, ईद, गुरुपर्व क्या बचेगा ?
फिर हम जी क्यूँ रहे हैं ?
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@--इन सबके अलावा अपने आस पास ऐसे प्राणी भी देखे हैं जो केवल शौक शौक में स्वयं को नास्तिक बताते हैं, पता नहीं शायद आजकल लेटेस्ट फेशन होगा| क्योंकि इनके पास कोई उचित कारण भी नहीं है की वे स्वयं को नास्तिक बता सकें|
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ये सच है की लोग स्वयं को नास्तिक कहलाना एक लेटेस्ट फैशन जैसा हो गया है . आस्था की चर्चा करने वाले पाखंडी और पिछड़ी जाति में गिने जाने लगे हैं . उनकी शिक्षा व्यर्थ की श्रेणी में गिनी जाने लगी है. चिंताजनक है ये.
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@---'कुटिल दुर्बोध नास्तिकों' में द्वेष भाव जड़ें जमाए रहता है। वे पल भर भी द्वेष भाव से मुक्त नहीं हो पाते, इसीलिए आवेशित-आक्रोश में ही रहते है। जैसे क्रोध सांप का स्वभाव होता है,हर हलचल को आक्रमण समझकर स्वबचाव में फूफकारता-डसता है। मानव स्वभाव में द्वेष यही कार्य करता है। ज्ञानी इसिलिए द्वेष को दुर्गुण कहते है।
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सुज्ञ जी इस द्वेष से बचने का उपाय क्या है ?
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@--मै यहाँ से कुछ दिनों के लिए गायब क्या हुआ की फिर वाद विवाद शुरू हो गया !
और प्रतुल वशिष्ठ जी सिर्फ खाली पीली विचरण करने से काम नहीं चलेगा कुछ अपना भी राय दीजिये !...
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मदन जी ,
लगता है प्रतुल जी हमसे सहमत नहीं हैं इसलिए मौनं श्रेयस्करं का माध्यम मार्ग अपनाए हुए हैं.
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एक अहम् प्रश्न मन को मथ रहा है. ....आखिर नास्तिक चाहते क्या हैं ? ईश्वर की सत्ता नकारने की जद्दोजहद क्यूँ है ?
जब स्वयं से श्रेष्ठ कोई सत्ता होती है तभी हम विकास के मार्ग पर उन्मुख होते हैं अन्यथा कोम्प्लासेंट हो जायेंगे.... आज के वैज्ञानिक आखिर कर रहे हैं ...ईश्वर की रचना, जिसमें insaan पशु और प्रकृति है उसी पर शोध मात्र ही तो कर रहे हैं. ....क्या नया सृजन कर सकते हैं ?
टेस्ट तुबे बेबी तो बना सकते हैं , लेकिन क्या nishechan के लिए प्रयुक्त शुकाणु एवं एंड भी बना सकेंगे? ...क्या गर्भाशय बना सकता है विज्ञान ? ....क्या स्त्री और पुरुष के मूलभूत अंतर को मिटा सकता है विज्ञान ?
बिना प्राकृतिक वस्तुओं की मदद लिए विज्ञान एक छोटी सी tablet भी बना सकता है क्या ?
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यदि विज्ञान , गर्भ- धारण और संतानोत्पत्ति की प्रक्रिया स्त्री के बजाये परुषों में करवा दे तो नास्तिक होना स्वीकार है मुझे.
विज्ञान सिर्फ शोध कर सकता है सृजन नहीं.... ईश्वरीय व्यवस्था को बदलना इतना आसान नहीं.
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@--सुज्ञ जी इस द्वेष से बचने का उपाय क्या है ?
दिव्या जी,
जिस क्षण व्यक्ति के अन्तर में द्वेष को दुर्गुण मानने और बचने की कामना जगती है, द्वेष से दूर होनें की प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी होती है। बदी को बदी मानना ही सुधार का पहला सोपान है। बाकी का काम मनोबल को करना है। जो लोग ॠजु (सरल)होते है, उन्ही में सदगुणों के प्रति आकर्षण जगता है।
प्रस्तुत द्वेष जिन 'कुटिल दुर्बोध नास्तिकों'के लिये प्रयुक्त किया गया है। वे तो द्वेष को पाप ही नहीं मानते। उसे दुर्गुण या अनुचित ही नहीं मानते। उनमें इससे बचनें की इच्छा जगना ही दुर्लभ-दुष्कर है्। अतः बचने के उपाय उनके लिए कोई मायने नहीं रखते।
@ दिव्या जी, आप की पैनी नज़र से 'मेरा' लिखा छूट गया, "...मान लो एक किसान एक बंजर भूमि के अंश पर कुछ वर्षों में अथक प्रयास से उसे एक हरी भरी भूमि में परिवर्तित कर दे,,, और इस प्रक्रिया की फिल्म भी बनाता जाये... अब यदि वो इस फिल्म को उल्टा चलाये तो हंम एक हरी- भरी भूमि को रेगिस्तान में परिवर्तित होने की अनुभूति करेंगे :)..."
उपरोक्त द्वारा मेरा अभिप्राय था कि आप सोच पाएंगी कि 'माया' का सही अर्थ क्या है, जो 'हिन्दू मान्यता' में एकान्तवाद को दर्शाता है - एक 'परमज्ञानी', 'परमात्मा' जो सर्वगुण संपन्न है, अमृत है, शून्य काल और स्थान से सम्बंधित, किन्तु सम्पूर्ण अनंत ब्रह्माण्ड में अकेला ही है (जैसे उसके प्रतिबिम्ब समान हर अस्थायी व्यक्ति भी अपने को भीड़ में भी सदैव अकेला ही पाता है)... जिस कारण वो अपने स्रोत को ढूँढने जैसे अपने मन में ही विभिन्न सत्य प्रतीत होती अनंत भौतिक आकृतियों, मशीनों अथवा उपकरणों, के माध्यम से अपने संभावित भूत काल की ओर यात्रा कर रहा है (जैसे मेरे जैसा बूढा व्यक्ति अपने भूत का ही आनंद ले पाता है, और वो तो परमानन्द है क्यूंकि वो 'सत्य' जानता है)... और इस प्रकार एक चक्र में तथाकथित ४३,२०,००० वर्ष की प्रतीत होती यात्रा कर, फिर से (स्क्वेयर वन) आरम्भ में आ जाता है... और ३६० डिग्री गुणा तीन ('३'), अर्थात ब्रह्मा-विष्णु-महेश, 'त्रैयम्बकेश्वर' की दृष्टि से (४३,२०,००० x १०८०) साढ़े चार अरब के 'ब्रह्मा' के एक दिन में सम्पूर्ण निरंतर फूलते बैलून के आकार के अनंत शून्य में ढूंढता चला आ रहा है... और हिन्दू मान्यतानुसार उसकी इतनी ही लम्बी रात आ जाती है, और उसके पश्चात उसका नया दिन आरम्भ हो जाता है जहां से वो 'टाइम पास' करने फिर खोज में लग जाता है... {उसकी इच्छा प्रतिबिंबित होती है 'कृष्ण' के देवकी-वासुदेव से जेल में उत्पन्न होने (जैसे हर शिशु माँ के गर्भ में लगभग नौ (९) माह रहता है) , किन्तु माँ यशोदा (यश + दायिनी), और राजा नंद, अर्थात आनंद का स्रोत, जिनकी छत्र- छाया में वो बांसुरी बजाये, बुराई (कंस) को मार, और गोप-गोपियों संग रास लीला रचा सके :)
यह तो शब्दों का हेर फेर है... आस्तिक यदि सिक्के का एक चेहरा (सर) है तो द्वैतवाद के कारण आस्तिक के विपरीत नास्तिक (पूंछ) ही हो सकती है, (अथवा कुछ आस्तिक / नास्तिक सर भी हो सकते हैं और कुछ पूँछ भी) और नाटक / सिनेमा जैसे, कोई यदि हीरो का रोल करेगा तो कोई विलेन का...
पहले बॉलीवुड में हीरो 'अच्छा' होता था, किन्तु एक लहर आई की 'बुरा' भी हीरो दिखने लगा :)
इतनी सी बात के लिए नास्तिक न बन जाईयेगा दिव्या जी.
विज्ञान जिस बुद्धि की उपज है वह भी तो ईश्वरीय देन है.
ईश्वर की कृपा से सब कुछ संभव है.
जिन वैज्ञानिकों ने शोध किये और विज्ञान को आज तक की स्थिति में
पहुँचाया और जो शोध कर रहे हैं विज्ञान को आगे ले जाने में उन सबपर ईश्वर की असीम कृपा है.
कुंठित, अविकसित बुद्धि से क्या कोई वैज्ञानिक शोध संभव है ?
स्वयं पर विश्वास ईश्वर पर विश्वास का ही एक रूप है.
इसीलिए वेदों/उपनिषदों में कहा गया 'अहं ब्रह्मास्मि'.
मानव मस्तिक्ष सेल व उसके उत्तकों से कार्य करता होगा, स्मृतियों को पढनें उजागर करने के कार्य करता होगा। लेकिन क्या कोई बता सकता है मानव मस्तिक्ष जिन पदार्थों का बना होता है, उसमें किस पदार्थ का गुण-धर्म 'ज्ञान' होता है। यदि किसी पदार्थ का गुण-धर्म ज्ञान होता तो मानव मृत्यु के बाद भी वे पदार्थ ज्ञान के आदान प्रदान का कार्य कर पाते। पर कहते है, मृत्यु के बाद वे तंतु भी निस्क्रिय हो जाते है। फ़िर उनमें ज्ञान खोजा नहीं जा सकता। तो निश्चित है मानव मस्तिक्ष के सेल या उत्तक इंस्ट्रूमेंट मात्र है, ज्ञान का धारक कोई अन्य है। स्मृति का प्रस्तोता कोई अन्य है। जैसे कान,आंख उपकरण मात्र है, श्रोता, दृष्टा उससे भिन्न है। वह आत्मा है। ज्ञान आत्मा का गुण है। वही ज्ञान धारण करता है।
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सुज्ञ जी ,
शायद दुर्गुण दूर होने की कामना भी ईश्वरीय कृपा से ही होती है ..आपने सही कहा की मस्तिष्क के ऊतक भी उपकरण मात्र हैं .
@-- स्मृति का प्रस्तोता कोई अन्य है। जैसे कान,आंख उपकरण मात्र है, श्रोता, दृष्टा उससे भिन्न है। वह आत्मा है। ज्ञान आत्मा का गुण है। वही ज्ञान धारण करता है।
आत्मा के शरीर छोड़ने के साथ ही शरीर के सभी अंग निष्प्राण हो जाते हैं , इससे यही प्रतीत होता है की ज्ञान अथवा चेतना की धारक आत्मा ही है.
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JC ji ,
सचमुच मुझसे इतना अहम् बिंदु नोटिस नहीं हो पाया , खेद है मुझे.
शरीर रुपी गृह में कुछ समय व्यतीत करने के बाद आत्मा अपने परम स्वरुप से मिलने को अधीर हो जाती है. वापस लौटकर वहीँ जाना चाहती है और परमानन्द की अनुभूति पाना चाहती है. शायद इसी से जनम मरण का चक्र चलता रहता है. ...शिर और पूंछ का उदाहरण बहुत सटीक दिया है आपने...मूलतः नास्तिक भी आस्तिक ही हैं . केवल निराशाजन्य परिस्थियों में द्वेष पाल लेते हैं.
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राकेश जी .
मैंने नास्तिकता स्वीकार करने के लिए एक शर्त रखी है और मुझे मालूम है की कोई भी विज्ञान प्रकृति की व्यवस्था बदलने की क्षमता नहीं रखता , इसलिए मेरे नास्तिक होने की संभावनाएं नगण्य है.
@--जिन वैज्ञानिकों ने शोध किये और विज्ञान को आज तक की स्थिति में
पहुँचाया और जो शोध कर रहे हैं विज्ञान को आगे ले जाने में उन सबपर ईश्वर की असीम कृपा है
सहमत हूँ आपके उपरोक्त वक्तव्य से.
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विज्ञान जितना ही तरक्की कर रहा है , प्रकृति का संतुलन बिगड़ता जा रहा है. इंसान आरामतलब हो रहा है और AC में ही बैठ रहना चाहता है. chlorofluorocarbons बढ़ रहे हैं atmosphere में और ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है . असंतुलन की अवस्था में प्रकृति हमें कोप का शिकार बना रही है . ...
प्रकृति का नियंत्रण है विज्ञान पर या फिर विज्ञान नियंत्रित कर रहा है प्रकृति को ?
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'आधुनिक विज्ञान' के अनुसार मेरा दिल मसल- पम्प है और दिमाग मसल- कंप्यूटर है... जबकि 'हिन्दू' मान्यतानुसार मानव शरीर हमारे सौर-मंडल के नौ सदस्यों, 'नवग्रह', सूर्य से शनि तक के सार से बना,,, जिस में से शनि के सार, स्नायु तंत्र, का कार्य शक्ति को केवल मूलाधार, मंगल ग्रह के सार का स्थान, से सहस्रार, चंद्रमा के सार का स्थान मस्तिष्क, के बीच के मेरुदंड में विभिन्न स्तर पर उपस्थित शक्ति के विभिन्न भंडार से उपलब्ध की गयी शक्ति को, अष्ट-चक्र के बीच, ऊपर अथवा नीचे ले जाना है... और 'विष्णु के शेषनाग पर योगनिद्रा में लेटे रहने' संकेतानुसार, आठों में से हरेक ग्रह कुल बराबर बराबर शक्ति में से एक आंशिक शक्ति के परिवर्तित रूप, 'मिटटी', और शेष अंश उसके केंद्र में संचित शक्ति के योग से बना दर्शाया गया है,,,
और हर ग्रह के सार को ब्रह्माण्ड के प्रतिरूप मानव, यानि विष्णु के प्रतिरूप कृष्ण, के शरीर के भिन्न भिन्न अवयव के अतिरिक्त विभिन्न रंगों से भी सम्बंधित माना गया है,,, जबकि हर इन्द्रधनुषी रंग किसी शक्ति विशेष से भी सम्बंधित दर्शाया गया है... जैसे, मसल हरे रंग से, हड्डी लाल से, हड्डी की मज्जा नारंगी से, स्नायु तंत्र नीले से, सफ़ेद रक्त से, आदि, आदि... कृष्ण का अपने सात भाई बहन की अकाल मृत्यु, जन्म लेते ही वध, के कारण जन्म लेना दर्शाता है कृष्ण के शरीर में कुल आठ ग्रहों के सार की शक्ति का सहस्रार में प्राकृतिक रूप से संचित होना और उनका गोवर्धन पर्वत को एक ऊँगली पर उठा लेना आदि चमत्कार कर पाना, जबकि 'हमारे' शरीर में वो बंटी हुई हैं... जिस कारण परमात्मा से आत्मा के मिलन के लिए प्रयास करने पड़ेंगे कि आठों चक्रों में भंडारित शक्ति मस्तिष्क, यानि सहस्रार चक्र, तक एक बिंदु पर 'कुंडली जागरण कर उठाई जाए... अथवा 'योगीराज कृष्ण' की सहायता से ऊपर स्वयं उठ जाए :)
जब इंसान सीखने की सच्ची इच्छा रखता है,वह परमात्मा सैदेव तैयार रहता है सिखाने के लिए.
विज्ञान अंत:करण में ज्ञान के अहसास को आगे बडा भौतिक जगत में उसे प्रकट करता चलता है.विज्ञान का सदुपयोग दुरपयोग इंसान कर सकता है और तदनुसार ही प्रकर्ति का नियंत्रण भी अपना कार्य करता है.
विज्ञान का प्रकृति के नियमों के बाहर जाने का कोई प्रश्न ही नहीं होता.वास्तव में ईश्वर ही गुरू है,जिससे समस्त ज्ञान-विज्ञान का उदभव होता है और उसकी सत्ता के अंतर्गत ही प्रकृति, भुक्ति,मुक्ति का नियंत्रण स्थापित रहता है.
ईश्वर का गुरु रूप में इस प्रकार से भी ध्यान किया जाता है.
ज्ञान शक्ति समारूढ: तत्व माला विभूषित:
भुक्ति मुक्ति प्रदाता च,तस्मै श्री गुरवे नम:
प्रार्थना और समर्पण के रहस्य पर भी विज्ञान शोधरत हैं.
सुपरिणामों से इनकार नहीं किया जा सकता.
@ सुज्ञ जी इस द्वेष से बचने का उपाय क्या है?
हंसराज भाई, आपका उत्तर सार्थक लगा|
@ मानव मस्तिक्ष के सेल या उत्तक इंस्ट्रूमेंट मात्र है, ज्ञान का धारक कोई अन्य है। स्मृति का प्रस्तोता कोई अन्य है। जैसे कान,आंख उपकरण मात्र है, श्रोता, दृष्टा उससे भिन्न है। वह आत्मा है। ज्ञान आत्मा का गुण है। वही ज्ञान धारण करता है।
यही बात मैं सज्जन भाई को समझाना चाहता था, जब उन्होंने रेल के इंजन का उदाहरण दिया| आपने इसे बेहतरी से समझाया है| साधुवाद...
दिव्या दीदी...आपकी आज की टिप्पणियों को पढ़ कर बेहद प्रसन्नता हुई| सार्थक एवं तार्किक...
टिप्पणियों की संख्या देखकर सभी आपको बधाइयां प्रेषित कर रहे हैं, मैं भी अब आपको बधाई देना चाहता हूँ|
अर्धशतक मारने वाले तो बहुतेरे मिल जाएंगे| अर्धसहस्त्र तो पहली बार लगने वाला है|
496 NOT OUT...बधाई...
@आदरणीय मदन शर्मा जी आप ने राजेंद्र यादव जैसे कम्युनिस्ट और वाहियात आदमी के सुर में सुर मिला कर सारे हिन्दू कौम को
लद्दड़ कैसे मान लिया
श्रीमान अंकुर जी आपको पहले ये बता दे की हिन्दू एक धर्म नहीं अपितु एक विचारधारा है
जिसे हमारे राज नेताओं ने नासमझी की वजह से इसे धर्म के रूप में स्तापित कर दिया है |
हमारा मुख्य धर्म तो वैदिक या सनातन धर्म है
कृपया ध्यान दें यहाँ हमारा धर्मं का अभिप्राय पंथ से नहीं अपितु आचरण या कर्त्तव्य से है
बड़े दुःख की बात है की इन छोटी बातों को न समझते हुवे हमारे मुस्लिम या इसाई भाइयों ने
अपने को हिन्दू धर्म से बिलकुल अलग समझा | और यही आज समाज के विघटन का कारण भी है |
प्राचीन इतिहास के अनुसार इरान तक हिन्दू धर्म फैला हवा था | किन्तु आज हम सिमट कर हिन्दुस्तान
तक ही सीमित रह गए है यहाँ तक की विभिन्न प्रान्तों में भी हम सिमटते जा रहे हैं |आप ने कभी सोचा है की ऐसा क्यों हो रहा है ?
प्राचीन इतिहास के अनुसार इरान तक हिन्दू धर्म फैला हवा था | किन्तु आज हम सिमट कर हिन्दुस्तान
तक ही सीमित रह गए है यहाँ तक की विभिन्न प्रान्तों में भी हम सिमटते जा रहे हैं |आप ने कभी सोचा है की ऐसा क्यों हो रहा है ?
क्यों की आज हम वेदों का ज्ञान भूल चुके हैं | जिन महा पुरुषों से हमें सिख लेनी चाहिए थी
जिनके बताये मार्गों का हमें अनुसरण करना चाहिए था उन्हें आज हमने विभिन्न मंदिरों
में मूर्ति के रूप में बैठा कर हमने कैद कर दिया है |
हिन्दू कौम ही एक ऐसी कौम है जिसके नस नस में जाती वाद का जहर कूट कूट कर भरा है |
इतना शिक्षित होने के बाद भी वह अपने में सुधार नहीं ला पा रहा है | जिसकी वजह अधिकतर
छोटी जातियां अन्य पंथों की और झुक रही हैं | जिसकी परिणिति धर्म परिवर्तन के रूप में हो रही है |
यह सब जानते समझते हुवे भी वही गलती वह बार बार दोहरा रहा है | अब आप ही बताएं ऐसी कौम को क्या कहा जाय
और ये लीजिये आपकी वजह से एक रिकार्ड और कायम हो गया बधाई हो दिव्या जी !!!!!!!!!!!!
दिव्या जी, पता नहीं मैं आपको ५०० टिप्पणियों के लिए बधाई दूं कि 'महाभारत' कि याद दिलाऊँ...
स्वार्थी कौरवों और, कृष्ण के मित्र, पांडवों के बीच युद्ध निश्चित हो गया जब दुर्योधन द्वारा कृष्ण के माध्यम से पांडवों को सुई की नोक के बराबर जमीन देने से भी इनकार कर दिया गया...
'हिन्दू मान्यतानुसार' 'भारत' के उत्तर में स्थित हिमालय श्रंखला को (जिसका विस्तार पश्चिम से पूर्व की ओर है) विष्णु का मेरुदंड माना जाता आ रहा है अनादि काल से,,, सहस्रार यानि मस्तक 'भारत' में दक्षिण-पश्चिम की ओर, जो हिमाचल प्रदेश में 'नैना देवी', 'ज्वाला मुखी' आदि मंदिरों द्वारा दर्शाया गया,,, और उनका मूलाधार पूर्व में पूर्वोत्तर की ओर,,, जिसे प्राचीन किन्तु 'ज्ञानी हिन्दुओं' ने असम में कामाख्या मंदिर द्वारा 'शक्ति पीठ' जान दर्शाया... जिसे सांकेतिक भाषा द्वारा भी दर्शाया गया, 'सती की जननेंद्रिय जहां गिरी' जब विष्णु द्वारा शिव को शांत करने हेतु उनके कंधे पर सती के मृत शरीर को उठा तांडव करते देख कर, देवताओं द्वारा पृथ्वी के टूटने के भय से उनकी प्रार्थना पर, अपने सुदर्शन चक्र से उनके मृत शरीर के ५१ भाग कर,,, जो यूं हिमालय में विभिन्न स्थान पर गिरे!...
कृष्ण क्यूंकि विष्णु के अष्टम अवतार हैं, उन्हें भी महाभारत में विष्णु समान सोते दिखाया गया जब दुर्योधन (शुक्र ग्रह के प्रतिरूप) और अर्जुन (सूर्य के प्रतिरूप) दोनों उनसे युद्ध में सहायता मांगने हेतु सुबह सुबह पहुंचे... स्वार्थी दुर्योधन ने उनकी विशाल सेना मांगी, जबकि अर्जुन ने केवल अकेले कृष्ण का साथ माँगा!
(पृथ्वी पर सूर्योदय पूर्व दिशा में होता है, जिसे अर्जुन का, युधिस्थिर के सुझाव पर, कृष्ण के पैर की ओर खड़ा होना दर्शाता है,,, और क्यूंकि शुक्र ग्रह में सूर्योदय पश्चिम में होता है, दुर्योधन को उनके सर की ओर दर्शाया जाता है! इसलिए हिन्दू पूर्व की ओर मुंह कर पूजा करता है, अथवा उत्तर की ओर जिस दिशा में अचल 'ध्रुव तारा' स्थित है!)...
दिव्या जी, आपको जन्म दिवस की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं
देर आयद, दुरुस्त आयद...
दिव्याजी,
सुप्रभात.
५०० तो पूरी हुईं
अब १००० की बारी है.
आपने जिस सुन्दर ढंग से मोर्चा संभाला, वह काबिले तारीफ़ है.
जो कच्चे नास्तिक हैं,वे आस्तिक हो जाने चाहियें.
जो पक्के नास्तिक हैं,वे कच्चे हो जाने चाहियें.
जो कच्चे आस्तिक हैं,वे पक्के हो जाने चाहियें.
पक्के आस्तिकों का तो कहना ही क्या,वे भी अंध:विश्वास के
अंधेरों से निकल विज्ञान के प्रकाश में ईश्वरीय आस्था से आलोकित
हो जाने चाहिये.
मेरी दावत तो आपने पक्की कर ही दी है.
दावत के लिए थाईलैंड का कब का टिकिट बुक करूँ.
दिव्या जी,
आप सभी आध्यात्मिक चर्चाकारों के बीच मेरा बोलना जबरदस्ती की घुसपैठ होगा...कुछ ऐसे भी होते हैं जो शांत भाव से प्रवचनों और शंका-समाधानों का आनंद लिया करते हैं...
कुछ कहूँगा तो बस इतना ही ...
आँख की विषयवस्तु दृश्यमान जगत है, नाक की विषयवस्तु गंध है, कान की विषयवस्तु शब्द है, त्वचा की विषयवस्तु स्पर्श है, जिह्वा की विषयवस्तु स्वाद है.. अब वह अच्छा प्राप्त हो अथवा बुरा वह हमारी इच्छा पर निर्भर करता है. कई बार ये विषयवस्तु प्रकृति प्रदत्त भी होती है. इसी प्रकार, आत्मा की विषयवस्तु परमात्मा में लय होना है, ज्ञान से आवेशित होना है. अब ये हमारी इच्छा है कि हम आत्मा पर कैसा चिंतन आवरण चढाते हैं. परमात्मा के स्वरूप चिंतन में उसे लय करते हैं अथवा परमात्माकृत वस्तु-व्यक्ति चिंतन में डुबोते हैं.
मदन शर्मा जी और कौशल वालिया जी मुझे स्नेहवश आमंत्रित कर रहे हैं.... मैं हूँ कि चर्चा का आनंद लेने में ही लगा हूँ. उसे खंडित करना नहीं चाहता.
mam itne sare comment, me kya likhun ? jai hind jai bharat
mam apke bday ke bare me pata nahi tha so ab kahta hun....././// apke janmdin ke awasar par kya de apko uphar, mile jivan me apko khusiyan apar..../////
jai hind jai bharat
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वरिष्ठ जनों के अनुभव और ज्ञान से , युवा पीढी के वैज्ञानिक तर्कों से तथा प्रतिपक्ष के प्रश्नों से बहुत ज्ञान लाभ हुआ है , इसलिए यहाँ आये सभी सम्मानित टिप्पणीकारों का ह्रदय से आभार प्रकट करती हूँ !
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@--मेरी दावत तो आपने पक्की कर ही दी है.
दावत के लिए थाईलैंड का कब का टिकिट बुक करूँ ?
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राकेश जी ,
शुभस्य शीघ्रम !
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अच्छा है...
511 KA NEG HAM LENGE....
JAI HIND JAI BHARAT...
INTJAAR RAHEGA 786 KA
aadrniy divya ji aap bda kam kr rhi hain sadhu8vad
pr jaise ulook ko din me nhi dikhai deta aise hi kai logom apni prkrti ke karn kuchh dekhna hi nhi chahte aur lkir ke fkir ho kr use grv kii bat man kr auron ko bhi andha bnana pana frj smjhte hain sb apni khtti chhaachh hi un ke liye khir hai jb doosron kii khir bhi unhe andhe pn ke karn khtti lgti hai aise logon ka koi ilaj nhi hai bhgvan ujne roshni bkhshe ki kaash ve shi vaigyanik soch pr aa jaye aur dkiya noosi batob ko chhoden
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