- हे शक्ति स्वरूपा दुर्गे ! हे गृह लक्ष्मी ! हे अन्नपूर्णा -- क्या आप अपने स्थान को छोड़कर नीचे गिरना पसंदकरेंगी ?
- अपनी कोख से जीवन देने का अद्भुत वरदान त्यागकर , क्या आप पुरुष बनने में गर्व महसूस करेंगी ?
- 'माँ' जैसी ममतामयी पदवी को त्याग क्या पुरुष बनना चाहेंगी
- प्रथम नौ महीने आपका शिशु हर पल आपके अस्तित्व का हिस्सा होता है। क्या इस सुख से वंचित होना चाहेंगी , पुरुष की बराबरी करने की लालसा में ?
- आप जिस तरह समर्पित होकर प्रेम करती हैं । भावुक हैं , संवेदनशील हैं, क्या आप बदलना चाहेंगी खुद को ?
- आप जिस तरह पल-पल अपने शिशु को , खुद में अर्जित सुन्दर संस्कार देती हैं, क्या आप निर्मोही होकर खुद को पुरुषों की तरह धनोपार्जन में लगा सकेंगी ?
- आप विवाहोपरांत जिस तरह अपनी खुशियों का बलिदान देकर , अपने माता-पिता से दूर रहकर , अपनी योग्यता को भी दरकिनार करके -अपने सास-ससुर , पति की सेवा को अपना धर्म समझ अपना लेती हैं , क्या वो त्याग सकेंगी ?
- जीवन पर्यंत अपने पति की लम्बी आयु , की कामना करती हैं और सदा सुहागन रहो के वरदान की कामना रखती हैं। क्या आप कभी अपनी लम्बी आयु के लिए वरदान मागेंगी ?
- क्या आप पुरुषों की तरह स्वार्थी बनकर अपने जीवन साथी को ऐसा वरदान दे सकेंगी ?
- क्या आप अपने ५० वैवाहिक वर्षों में पुरुष की तरह होकर अपने जीवन साथी से प्रतिदिन घरेलु कार्यों की सेवा ले सकेंगी ?
- दे सकेंगी आज्ञा-- 'चाय लाओ' , भोजन लगाओ ।
- क्या आपको नहीं लगता की पुरुषों की बराबरी के लिए बहुत नीचे गिरना होगा ?
- सामाजिक समारोहों में शाराब पी सकेंगी ?
- क्या आप दहेज़ मांग सकेंगी ?
- क्या आप गली-गलौज कर सकेंगी ?
- क्या आप अपने पति पर हाथ उठा सकेंगी ?
- कभी कोई उपवास अपनी लम्बी आयु , अच्छे स्वास्थ्य और तरक्की के लिए रखेंगी ?
खुद को जागरूक करिए और अपनी महिमा को पहचानिए। नारी की कोमलता ही उसको विजय दिलाती है। उसका भावुक , संवेदनशील आचरण ही उसको घर और समाज दोनों जगह इज्ज़त दिलाता है।
इनकार कर दीजिये --
- महिलाओं के लिए किसी भी प्रकार के रेसर्वेशन से।
- दहेज़-लोभियों से शादी करने से।
- कन्या भ्रूण-हत्या में भागीदार होने से।
108 comments:
इनकार कर दीजिये --
दहेज़-लोभियों से शादी करने से।
कन्या भ्रूण-हत्या में भागीदार होने से।
जिस घर में स्त्री का सम्मान होता है, वहां देवता स्वयं निवास करते हैं।
PICHADE ILAKO ME..SHAYAD ABHEE JUB TUK SHIKSHA HAVEE NAHEE HO JATEE KUCH VISHESH SUVIDHAE MAHILAO KO MILA TO UNAKA AATM VISHWAAS BADEGA ...AISA MERA SOCHANA HAI.....
AAP ANYTHA NA LE ............ GUZARISH HAI ........
कृपया कमजोर हृदय वाले न पढ़ें या डॉक्टर से सलाह ले पढ़ें।
१-मै खुद किसी रिजर्वेशन के पक्ष में नहीं हु क्योकि इससे उनका कोई भला नहीं होने वाला है |
२-दहेज़ लोभियों से विवाह के लिए इंकार करेंगी तो सारा जीवन अविवाहित ही रहना पड़ेगा बिना दहेज़ के शादी करेगा कौन कुछ दो चार लोग है पर बाकि लड़कियों का क्या होगा चलो वो तो रह लेंगी अविवाहित पर वो अविवाहित रही तो उनसे छोटी बहनों का क्या होगा ? फिर क्या करे बेमेल विवाह किसी से भी बस वो दहेज़ ना ले मुझे लगता है की इसके लिए व्यवहारिक रूप से लड़को को पहल करनी चाहिए |
३- इंकार कर दीजिये कन्या भ्रूण हत्या में भागीदार होने से पर इसके लिए उसे काफी मजबूत होना पड़ेगा ताकि वो उसके बाद होने वाले अंजाम को सह सके जैसे बेमतलब के इल्जाम लगा कर तलाक देना या घर से निकल देना या पति का गैर क़ानूनी या क़ानूनी तौर पर दूसरा विवाह
वैसे पुरुषो की बराबरी करना कौन चाहता है पुरुषो की बराबरी करने के लिए तो नारी को दो कदम पीछे आना पड़ेगा नारी वो सब कर सकती है जो एक पुरुष कर सकता है और उसके अलावा भी बहुत कुछ कर सकती है | वो अपनी जगह है और नारी अपनी जगह |
some question asked in here and the conclusion dont match
if you say that the ultimate existence of woman is in being mother then you are undervaluing people like lata mangeshkar , mother Teresa
if you say that woman should remain a mute and silent spectator then you are contradicting every thing that you wrote on this blog
is you say that woman should not copy man think again because woman dont copy man they merely are trying to be on their own
i am surprised with this post because
you say ultimate woman hood is in being a mother and you add that dont marry someone who takes dowry
perhaps you dont know that in india marriages dont happen without dowry and lets not debate on that because if even one rupee is spent which you have not earned yourself then its a dowry in some form or other
but then you have already said that if a woman earns she is coping a man
looks like you have mixed some where in the thought sharing process because every line is contradictory and against man -woman equality
I SOMETIMES WONDER WHEN WILL PEOPLE START THINKING THAT MAN - WOMAN EQUALITY IS NOT SAME AS WOMAN BECOMING MAN
this post is just trying to pot ray the author as woman wanting to earn respect by speaking what people like to hear
बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
कोटि-कोटि नमन बापू, ‘मनोज’ पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें
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Dear Rachna,
Kindly read the post carefully.
Regards.
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खुद को जागरूक करिए और अपनी महिमा को पहचानिए। नारी की कोमलता ही उसको विजय दिलाती है। उसका भावुक , संवेदनशील आचरण ही उसको घर और समाज दोनों जगह इज्ज़त दिलाता है।
इनकार कर दीजिये --
* महिलाओं के लिए किसी भी प्रकार के रेसर्वेशन से।
* दहेज़-लोभियों से शादी करने से।
* कन्या भ्रूण-हत्या में भागीदार होने से।
जिस घर में स्त्री का सम्मान होता है, वहां देवता स्वयं निवास करते हैं।
बहुत सुंदर प्रस्तुति !!
रचना ने अपनी बहुत व्यावहारिक टिप्पणी में ऊपर जो कुछ भी कहा हो, यह आलेख विचारों को आंदोलित तो करता ही है.
विचारणीय बात कही है ...
संपूर्ण भारतीय वांग्मय यह सिद्ध करता है कि निस्संदेह नारी का स्थान पुरुषों की तुलना में कहीं अधिक, बल्कि बहुत अधिक गरिमामय रहा है। कोई भी भारतीय नारी पोस्ट में लिखे अर्थों के संदर्भ में पुरुषों की बराबरी नहीं करना चाहेगी।...यत्र नार्यस्तु पूज्यंते ,रमंते तत्र देवता।
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आज पुरुषों के सामाजिक गुणों से परिचित हुआ.
कभी-कभी दर्पण देखकर भी अपनी कुरूपता पता नहीं चलती, इसीलिये तो समाज के सभी वर्गों में घूमना जरूरी है.
और पूछना जरूरी है कि 'हमारा आदर्श रूप क्या हो?"
— बच्चे समाज के गुरुजनों और अपने आश्रयदाताओं [माता-पिता आदि] से क्या अपेक्षा रखते हैं?
— स्त्रियाँ पुरुषों [पिता, भाई पति, पुत्र] से क्या अपेक्षा रखती हैं?
— वृद्ध क्या चाहते हैं सक्षम पुरुषों [पुत्रों] से?
— जितना अनुशासन बच्चों पर किया जाता है उतना किसी अन्य पर नहीं. कारण जानते हैं, क्यों?
— जितनी सामाजिक वर्जनाएँ हैं प्रायः सभी स्त्री के लिये ही हैं. कारण जानते हैं, क्यों?
— वृद्ध अपने ही घरों में प्रायः जितना उपेक्षित होते हैं उतना कोई अन्य सदस्य नहीं. कारण जानते हैं. क्यों?
.............. सभी का उत्तर है 'चपलता'
अनुशासन, वर्जनाएँ और उपेक्षा के अवरोधक [बेरियर] लगाने के मूल में छिपा है उन सभी का 'चपलता पूर्ण आचरण'.
— बच्चे की शारीरिक चपलता जिज्ञासावश है जो स्वयं की और भौतिक वस्तुओं की हानि करती है. .......... इसीलिए उनपर अनुशासन है.
— युवा स्त्री की चपलता भावुकतावश है जो भौतिक वस्तुओं से अधिक स्वयं की ही हानि ज्यादा करती है. .... इसीलिए उनपर वर्जनाएँ हैं.
— वृद्ध की चपलता मोहवश है जो दैहिक क्षमताओं के निचुड़ने के बावजूद स्पंज होकर शारीरिक सुखों को सोख लेना चाहती हैं. ... इसीलिए उनकी उपेक्षा है. उनको वानप्रस्थ का उपदेश भी इसीलिए है.
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जिस घर में नारी का सम्मान नहीं वो भूतों का डेरा है...
और घर का सम्मान नारी का आभूषण है...
जय हिंद...
अभी तो आलेख आया है देखिये कितने नर-नारी आपसे सहमति असहमति में आएंगे। कुछेक तो बस इसलिये आएंगे कि कहाँ मीनमेख निकाल सकें। आपका विचार आपने रखा पूर्ण सार्थकता के साथ ये बड़ी बात है। एक बात जरूर कहना चाहता हूँ कि गाली देने के लिये पुरुषों से बराबरी की जरूरत नहीं है कई बार स्त्री होकर भी आपका मन करता होगा कि कुछ लोगों को न सिर्फ़ आप गरिया दें बल्कि जुतिया-लतिया भी दें।
स्त्री को आरक्षण की आवश्यकता का अर्थ है कि उसकी शक्ति का आँकलन कम करा जा रहा है।
जिस घर में स्त्री का सम्मान होता है, वहां देवता स्वयं निवास करते हैं।और सत्यतः बात यही है कि जिस घर में माँ,बहन,बेटी,पत्नी आदि जैसे संबंधों का सम्मान नहीं है वहाँ पुरुष नहीं पिशाच निवास करते हैं ठीक ये बात उलट भी लागू होती है ये ध्यान देने योग्य है। जनाब शेखर सुमन जी चुड़ैल,डायनों और भुतनियों को स्त्री मान रहे हैं और उन्हें भ्रम है कि आप शायद कहीं फ़ाफ़ामऊ या मऊ आइमा में रहती हैं, जरा उनका भ्रम दूर करिये।
अब मेरे शब्दों को पकड़ो और करो लत्तम-जुत्तम.... किधर गये?? आ जाओ मुँह मारे बिना तुम्हारे पेट की मरोंड़ कैसे मिटेगी??
मौलिक एवं सुन्दर जागरूकता लाते विचारों के लिये साधुवाद स्वीकारिये
Rachna said most of the points I wanted to say. The common theme of all your points seem to be motherhood which is only one aspect of being a woman.
दिव्या जी ताली एक हाथ से तो नहीं बजती।
रचना जी से शब्दशः सहमत ।मुझे इस पोस्ट में दो तीन जगह विरोधभास नज़र आ रहा हैं।जिसकी तरफ रचना जी ने इशारा किया हैं।वैसे हो सकता हैं कि मुझे आपकी बात समझ ही न आई हो।मैं आपकी पोस्ट से सहमत या असहमत नहीं पर कन्फ्यूज्ड जरूर हूँ।कृप्या स्पष्ट करें कि स्त्री का स्थान आप कौनसा मानती हैं जिसके छोडे जाने की आशंका आपको सता रही हैं।विवाह या मातृत्व से इन्कार करने पर कोई महिला पुरूष कैसे बन जाती हैँ(आप चाहें तो यह टिप्पणी मोडरेट भी कर सकती हैं,मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी) शुभरात्रि।
sochane ko vivash karne wali post......
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@ प्रतुल वशिष्ठ -
कृपया नारी की चपलता को स्पष्ट करें ? नारी की भावुकता समाज के लिए किस प्रकार घातक है बताएं ? क्या स्त्री के भावुक होने से पुरुष उसकी भावनाओं का नाजायज फ़ायदा उठा सकते हैं ?...यदि हाँ तो पुरुषों पर वर्जनाएं क्यूँ नहीं ?,....क्यूँ सिर्फ पवित्र मन वाले बच्चों , नारियों और वृद्धों पर ही वर्जनाएं हैं ?
क्यूँ हैं समाज में ऐसा डबल स्टेंडर्ड??
पुरुष अपनी कमजोरियों को छुपाने के लिए नारी को कहीं भावुक, तो कहीं चपल कहकर उसपर वर्जनाएं थोपने के अधिकारी नहीं हो सकते ।
वर्जनाएं और नैतिक मूल्य किसी वर्ग विशेष के लिए नहीं हो सकते। चपलता सबमें होती हैं, इसलिए किसी वर्ग विशेष पर उत्तरदायित्व डालना उचित नहीं प्रतीत होता।
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@ -दहेज़ लोभियों से विवाह के लिए इंकार करेंगी तो सारा जीवन अविवाहित ही रहना पड़ेगा बिना दहेज़ के शादी करेगा कौन कुछ दो चार लोग है पर बाकि लड़कियों का क्या होगा चलो वो तो रह लेंगी अविवाहित पर वो अविवाहित रही तो उनसे छोटी बहनों का क्या होगा ? .....
@ अंशुमाला जी,
'विवाह नहीं हो पायेगा '.....यही भय तो लड़कियों और उनके माँ-बाप में घर कर गया है। इस भय के चलते ही तो लड़कों द्वारा होने वाली नाजायज डिमांड को माना जा रहा और दहेज़ जैसा दानव , रक्तबीज की तरह द्विगुणित हो रहा है ।
हम क्यूँ लड़कों से अपेक्षा करें की वो बदलेंगे ? क्यूँ न हम खुद बदलने की पहल करें ? आज बहुत सी निर्भीक स्त्रियाँ इनकार कर रही हैं , लालची लड़कों से शादी करने , औरउनके अच्छे परिणाम भी आ रहे हैं।
एक बात और -- आज कुंवारे लड़कों की संख्या , कुंवारी लड़कियों से कम नहीं है।
केवल शादी हो जाए , इस मोह में हम दहेज़ लालची भेडियों से विवाह कर लेंगे ? क्या हम इतने कमजोर हैं
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राजन जी --रचना जी ,
पोस्ट अपनी जगह स्थित है । कृपया दो बार और पढ़ें।
लेख में साफ़ कहा गया है स्त्रियों का स्थान सदियों से ऊँचा रहा है , और आज भी है। इसलिए महिलाओं को सिर्फ अपनी शक्ति को पहचानना है, और उसपर गर्व करना है । जागरूक होना है और स्वयं की इज्ज़त करनी है।
बराबरी की होड़ में नहीं लगना है । क्यूंकि पुरुषों के बराबर आने के लिए खुद को बहुत नीचे गिराना होगा।
नैतिकता, संवेदनशीलता, समर्पण, क्षमाशीलता और बौधिक स्तर पर स्त्री पुरुषों से पीछे नहीं। आज मेडिकल, इंजीनियरिंग, , कोर्पोरेट-जगत , राजनीति और देश-विदेश में स्त्री अपना परचम लहरा रही है ।
जरूरत है , सिर्फ अपनी शक्ति को पहचानने की । किसी भी अधिकार को पाने की जरूरत ही नहीं है।
नारी होने में जो आनंद है, वो नारीवादी होने में कहाँ ?
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हमारे सर्व अधिकार हमारी हिम्मत और विवेक से हैं। हम [ नारी] जितना ऊपर उठाना चाहेंगे, उठ सकते हैं। इसके लिए किसी से अधिकार नहीं चाहिए। इश्वर प्रदत्त बुद्धि के इस्तेमाल से हम दुनिया का हर ऐश्वर्य अपनीं झोली में स्वयं ही डाल सकते हैं।
वीर भोग्या वसुंधरा !
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प्रेरक लेखन , बधाई । - आशुतोष
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@ डॉ अमर --
हे निठल्ले पुरुष ,
तुम्हारा निट्ठाल्लापन भी स्तुत्य है । ये भोलापन तुम्हारा, ये शरारत और ये शोखी, ज़रुरत क्या तुम्हें तलवार की तीरों की खंजर की ।
और हाँ -- ये जेट-एज [jet-age] है, जेट !.... भागो नहीं, बल्कि उडो ....गया ज़माना Cytoplasmic movement का।...lol
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आपका आलेख मन में द्वन्द को जगाता है ! हमें पुरुषों के समकक्ष आने के लिये पुषों की तरह आचरण करने की ज़रूरत ही क्यों है ! हम अपने समस्त नारीत्व के साथ भी उनसे बेहतर हो सकते हैं ! आपने अपने आलेख में पुरुषों के जिन 'सद्गुणों ' की ओर संकेत किया है वह भी मुझे न्यायोचित नहीं लगा ! सारे पुरुष तो इतने तुच्छ नहीं होते ना ही सब शराबी और गाली गलौज करने वाले होते हैं ! अपवाद हर वर्ग में मिलते हैं ! कुछ स्त्रियाँ भी ऐसी होती हैं कि उन्हें नारी कहने में भी शर्म आये ! रहा सवाल घर परिवार के रीति रिवाजों का और तौर तरीकों का तो वहाँ भी बदलाव आ रहा है धीरे धीरे ! व्रत उपवास स्त्रियाँ अपने मन से रखती हैं ! ये संस्कार उन्हें सदियों से मिल रहे हैं जिन्हें वे स्वयं छोडना नहीं चाहतीं ! आज आप सर्वे कर लीजिए ! कितनी स्त्रियाँ आप उँगलियों पर गिन कर अलग कर सकेंगी जो करवा चौथ का व्रत स्वेच्छा से नहीं वरन किसीके दबाव में आकर रखती हैं ! और अब ऐसे दम्पत्तियों की भी कमी नहीं जो अक्सर पत्नी को सुबह की चाय बना कर पिलाने में गुरेज़ नहीं करते ! आशा है आप अन्यथा नहीं लेंगी !
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प्रिय शेखर सुमन जी,
ख़ुशी हुई ये जानकार आपको मेरी पोस्ट पढ़कर हंसी आई, मुझे डर था कहीं पुरुष-दर्प आह़त होकर मेरी चटनी न बना दे। चलिए अब फटाफट मुस्कुराने की रोयल्टी भी दे डालिए।
और हाँ आपने सही फ़रमाया में एक छोटे से गाँव अयोध्या-फैजाबाद से ताल्लुक रखती हूँ। Canossa convent में कुछ वर्ष पढने के बाद, Loreto convent Lucknow से 12th तक की पढाई की। फिर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से मेडिकल की शिक्षा ग्रहण करने उपरान्त Bangkok में रहती हूँ.
मेरी आत्मा कभी सरयू के तट पर तो कभी बनारस की गलियों में भ्रमण करती है।
जिन महिलाओं का जिक्र आपने किया है , जो शराब पीती हैं या अभद्र-व्यवहार करती हैं, वो स्त्री-जाती पर कलंक हैं। लेकिन ऐसी स्त्रियों का प्रतिशत नगण्य है।
आभार !
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@-स्त्री को आरक्षण की आवश्यकता का अर्थ है कि उसकी शक्ति का आँकलन कम करा जा रहा है।..
@ Dr Rupesh -
सही कहा आपने। महिलाओं के नाम पर किसी प्रकार का भी आरक्षण उनका अपमान है। यदि कोई महिला ऊपर आना चाहती है तो अपने सामर्थ्य , आत्मविश्वास और कर्मठता के दम पर आये।
महिलाओं को दहेज़ में मिली रेसर्वेशन की भीख नहीं चाहिए।
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साधना वैद्य जी,
पुरुषों के लिए आपके पवित्र विचार जानकार मन अति-हर्षित है। मैं भी आपकी बातों से इत्तिफाक रखती हूँ। वहां कोई द्वन्द नहीं है।
लेकिन जिन बिन्दुओं को उठाया गया है , वो लेख को बेहतर समझाने के लिए है। न की पुरुषों का अपमान करने के लिए। नारी का पक्ष रखना किसी भी तरीके से पुरुषों का अपमान नहीं माना जाना चाहिए।
एक बात मैं स्पष्ट कर दूँ मैं नारीवादी नहीं हूँ। ये लेख खुद में [नारी में ] एक जागरूकता लाने के लिए है। अपने अस्तित्व और महिमा को समझने के लिए है। किसी को तुच्छ दिखाने के लिए।
और हाँ ये चर्चा एक Freindly discussion है, इसमें अन्यथा लेने की गुंजाइश ही नहीं है।
आपका आभार।
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किसी को तुच्छ दिखाने के लिए नहीं है । **
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पता नहीं मैं क्यूँ इतनी कंफ्यूज हूँ ...ये पोस्ट कही व्यंग्य तो नहीं ...जो भी हो पर ...
इनकार कर दीजिये
* महिलाओं के लिए किसी भी प्रकार के रेसर्वेशन से।
* दहेज़-लोभियों से शादी करने से।
* कन्या भ्रूण-हत्या में भागीदार होने से।
हमने तो कबका इनकार कर दिया है ...
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इतना स्पष्ट लिखा होने के बाद , कन्फ्यूज़न की गुंजाइश ही नहीं है। विचारों के मंथन को कन्फ्यूज़न मत समझिये। आयाम दीजिये विचारों को।
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"नारी हूँ नारीवादी नहीं " ये पंक्तिया उत्तम है . नारी को उसके सम्मान और अधिकार के लिए पुरुषो से बराबरी करने की कोई आवश्यकता नहीं है .मै समझता हूँ विचारणीय होने के लिए किसी दुसरे लोक का वासी होने की जरुरत नहीं है और पृथ्वी पर विचारवान हर जगह पाए जाते है . धन्यवाद .
"नारी हूँ नारीवादी नहीं "
This is a mere obnoxious comment on those woman who try to bring an era of equality in man- woman
Woman who are born with slave mentality always try to justify the slavery that they have been going thru for ages
Being a woman means to enjoy ones woman hood which is far more than just
marriage
being mother
being daughter
cleaning nappies
breast feeding
hormonal problems
menopausal problems
making tea lunch for the entire household
because YOU ARE MEANT TO DO
this in itself is reservation { certain tasks that are reserved for woman }
If you are against reservation Ms Divya then please dont ask woman to do reserved tasks so that they become A GLORY A DEITY in the eyes of society
We need more human beings here as we have ample of deities and dharma . pujan etc in india
Enjoyment of woman hood means
To do all the above things IF YOU WANT TO DO THEM AND NOT BECAUSE YOU ARE EXPECTED TO DO THAT
and
to do all the other things that you feel will bring happiness and fulfillment in your own self
A TRUE FEMINIST is one who knows that
she has equal rights given by nature , law and constitution to do what ever she wants to do
and which means the RIGHT TO CHOOSE HER OWN WAY OF LIVING which is not governed by the whims and fancies of someone else
No woman copies man because matriarchal society existed before patriarchal society
No man is cruel if he is doing what he has been trained to do The society is cruel
Writing all that woman needs to do and then saying say No to reservation means what ????
Writing that marriage and motherhood makes woman a woman and then saying refuse maariage because of dowry will make woman a FEMINIST AND NOT NAARI
BE A WOMAN AND ENJOY BEING A WOMAN
अपने अस्तित्व और महिमा को समझने के लिए है।
set example by your own deeds
do sacrifice yourself rather than asking others to do it
be a leader then a follower
BE A FREE THINKER DONT LET YOUR THOUGH PROCESS BE POLLUTED BY WHAT OTHERS HAVE DONE BEFORE YOU
मेरी सोच स्वतंत्र है ।
।
इतना स्पष्ट लिखा होने के बाद , कन्फ्यूज़न की गुंजाइश ही नहीं है।
No the post is crystal clear
Two third has been written to please the society
One third is written to appease the conscience
I agree with Ashish
नारी पुरुष एक दुसरे के पूरक हैं ।
आपके बताये तीनों अवगुणों में नारी बराबर की भागीदार है , शायद इक्कीस ही ।
Dearest ZEAL:
Mark Twain said "East is east and west is west and the 'twain shall ne'er meet."
I take it quite applicably to the reference at hand.
Social order in its evolutionary course has prescribed the superiority of men. It doesn't mean that men are better. It was just an arrangement of convenience.
The cave-dwelling folks had to take a call, as to who hunts and who stays back to take care of the younger ones. That was society for starters.
With time, the role stayed on but therein too there were many a tasks which were beyond the domain or capacities of men and considered to be the exclusive realm of women.
Further, history shapes the needs of the society.
Post World-War II, many nations had lost out heavily on male workforce due to war-time casualties or there were many males rendered ineffective to work due to injuries of permanent nature. By natural dictum, the women stepped out and took the jobs that earlier were the exclusive reserve of the males.
We here are debating the man-woman inequalities because we are still in some ways chained to the orthodox. Nations which have unshackled themselves of this bondage, have no discrimination or distinction between the two genders.
The winds of change are blowing and none shall be left unswept by it. The more rigid ones will take more time to adapt. But then, they will be seen as the laggards - and certainly not as the guardians of the old bastion.
You are presently in a nation where women are a bigger work-force than men. Wherever you see, women are there doing all the jobs.
There is no point 'aspiring' to be the other gender. A nation progresses with development and whosoever contributes to it will be heralded respectfully.
Arth Desai
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Dear Rachna,
Calm down !
You are talking about equality and equal rights.
On the contrary I am thankful to almighty for making us more blessed than men.
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Readers are requested not to make personal comments on the blog author or the fellow readers.
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Your views are welcome on the topic . Try to read and write with a calm and unbiased mind.
Don't let your bitterness be reflected in public.
Thanks.
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सारे प्रश्न स्वाभाविक हैं.
वैश्विक परिदृश्य में महिलाएं अन्तरिक्ष तक की सैर कर आयीं हैं किन्तु ये भी सत्य है कि पुरुषों की मानसिकता में क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं आया हैं.
महिलाओं के साथ साथ पुरुषों को भी जागरूक होना होगा और केवल लेखों और कविताओं में ही नहीं वरन वास्तविक जीवन में भी महिलाओं के प्रति सम्मान की भावना प्रदर्शित करनी होगी.
आप की वाणी विश्व के हर घर तक जरुर पहुचनी चाहिए .
आज जरूरत है जागरूक और आत्मनिर्भर नारी की ,पुरुषों को नीचा दिखाने वाली नहीं ।
अक्सर हमारा मन करता है ..
औरतों की बराबरी करने का.....
Dearest ZEAL:
Your views are very strong on any topic you write on and hence, it stirs the proverbial hornet's nest.
People usually try to argue logically on the topic but when they run out of it, they simply stoop to being personally vindictive.
If idiots knew what it takes to be a doctor, they would not have ranted the way they have done [questioning your qualifications]. I pity them on their lesser capability of comprehension. They might not have cleared PMT but still have the gall of insinuating doctors without any reference to subject matter at hand.
A disagreement has its place in any debate but it has to be strongly backed by logic. Ironically, here the notion is different.
People at times read your post with the glasses of biases - be it of their upbringing or motiviated by other reasons - so the rightful sight is distorted and a long discourse on errors is written.
Conviction is the key to any writing.
People who insist that dowry is a must, thereby concede that they are willing participants to the act - while they may pretend to be against it on such verbal duels.
Pretense, per se, is a widely used denomination in the blog world for the fake praisers who abound plenty hunting for preys.
Do not be bothered by the Rachnas and Shekhars of the world nor be waylaid by the wolves that you have seen so far in your journey of the blog world. They have their vested interests for what they opine or do. You are convinced of your views and as long as they are justified - that is what matters.
Arth Desai
महिलाये पुरुषो को बराबरी कैसे कर सकती है ? धर्म ग्रन्थ तो यही कहते है
बाईबिल के अनुसार नारी पुरुष की पसली व मास से बनी है , अर्थात नारी पुरुष की बपौती है
कुरान के अनुसार
सुराए निशा की आयत २४ देखिये
और शौहरदार औरते मगर वे औरते जो जेहाद के द्वारा कुफ्फर से से तुम्हारे कब्जे में आ जाये हराम नही ये खुदा का तहरीरी हुक्म है जो तुम पर फर्ज किया गया है .
सुराए निशा आयत ३४ के अनुसार औरतो पर मर्दों का काबू है .जो औरते कहना न माने उन्हें पीटो और जब कहना मानने लगे तभी बख्सो
और भी आयते है जिन के अनुसार अगर पुरुषो का कहना न माना तो वे नरक में जाएँगी
तुलसीदास जी ने लिखा है
''ढोल गावर शुद्र पसु नारी
सकल ताड़ना के अधिकारी ''
सायद मुग़ल काल में ये मानसिकता अन्य धर्मो से हमारे धर्म में आ चुकी थी .
शिन्धु घाटी सभ्यता पित्र सत्तात्मक न हो कर के मात्र सत्तात्मक थी
@ethereal_infinia said...
Do not be bothered by the Rachnas
WHAT GIVES YOU A RIGHT TO CLASSIFY ME AS RACHNAS
I AM SURPRISED BECAUSE I HAVE NOT SAID ONE SINGLE THING ABOUT ANY ONES QULAIFICATION OR PERSONAL LIFE
SUCH CLASSIFICATIONS SHOW THE TALENT YOU HAVE AND YOUR THINKING PROCESS
BYE DIVYA WE DONT COME HERE TO GET PRIVATE COMMENTS AND YOU ARE ACCEPTING THE SAME
... man and woman are "separate but equal". बात महिलाओं द्वारा पुरुषों की बराबरी करने की नहीं है. बात है कि उन्हें द्वितीय श्रेणी का नागरिक ना समझा जाए, चाहे वो घरेलू महिला हो या कामकाजी.
AND PREY DO TELL ME WHAT ARE MY VESTED INTERSTS ARTH DESAI I AM REALLY CURIOUS TO KNOW
दिव्या जी मुझे स्त्री व पुरुष के बीच समानता करवाने का प्रयास कभी भी ठीक नहीं लगा है. दोनों की अलग अलग विशिष्ट गुण हैं और उन्हें एक में ही समाहित नहीं किया जा सकता. जाने क्यों लोग स्त्री व पुरुष में समानता लाने की कोशिश में हैं.
अगर आपका नजरिया स्त्री को शोषित और पुरुष को एक शोषक मानने का है तो इसे बदलिए क्योंकि समाज में जो भी ताकतवर है चाहे वो स्त्री हो या पुरुष वो शोषक बन जाता है और कमजोर हमेश ही शोषित होता है.
मेरे शब्द गलत हो सकते हैं उनमे निहित मेरी भावनाओ को समझें .
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विचार शून्य जी,
अफ़सोस है आपने भी ठीक से नहीं पढ़ा लेख को। स्त्रियों को पुरुषों से बेहतर बताया और समझा गया है हर युग में, जो आज का भी सच है। यही तो अपील है इस लेख में की अपने को कमतर मत समझो जब इश्वर ने तुम्हें बेहतर बनाया है तो ।
जब बेहतर हैं तो बराबरी के लिए अनावश्यक द्वन्द क्यों?
स्त्रियाँ अगर शोषण पे उतर आयें , तो पुरुष समूल नष्ट होजायेगा। कन्या भ्रूण हत्या की जगह पुरुष -भ्रूण मारा जाएगा। वो चौका चूल्हा करेगा और सांझ ढले पत्नी के आने का व्यग्रता से इंतज़ार करेगा।
लेकिन नहीं, स्त्री की उदारता है जो वो पुरुष को आगे रख , उसके सम्मान में ही अपना सम्मान समझती है, उसकी ख़ुशी को अपनी ख़ुशी । और अपनी क्षमाशीलता से चुप होकर पुरुषों की अनेकानेक अभद्र बातों को उसका बचपना जान माफ़ कर देती है।
नोट-- कुछ स्त्रियाँ कोमलता से विहीन होने के कारण , सुन्दर एवं स्तुत्य नारी-रूप का अपवाद भी होती है। यहाँ उनका जिक्र नहीं हो रहा।
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ये बहस कहाँ जा रही हैं?जिस मुद्दे को आपने उठाया था उस पर अच्छी बहस हो सकती थी पर यहाँ तो व्यक्तिगत हमले शुरू हो गये हैं।जिनसे बचना चाहिये था।
NOTE - कुछ स्त्रियाँ कोमलता से विहीन होने के कारण , सुन्दर एवं स्तुत्य नारी-रूप का अपवाद भी होती है। यहाँ उनका zikr nahin ho rahaa...
:)
:)
यह सब रह कर भी नारी पुरुष के कंधे से कंधा मिला कर चल सकती है:)
२-दहेज़ लोभियों से विवाह के लिए इंकार करेंगी तो सारा जीवन अविवाहित ही रहना पड़ेगा बिना दहेज़ के शादी करेगा कौन कुछ दो चार लोग है पर बाकि लड़कियों का क्या होगा चलो वो तो रह लेंगी अविवाहित पर वो अविवाहित रही तो उनसे छोटी बहनों का क्या होगा ? फिर क्या करे बेमेल विवाह किसी से भी बस वो दहेज़ ना ले मुझे लगता है की इसके लिए व्यवहारिक रूप से लड़को को पहल करनी चाहिए |
@ दिव्या जी
मेरे कहने का अर्थ सिर्फ इतना है की ये व्यवहारिक नहीं होता है | क्या सभी लड़कियों में इतनी हिम्मत या इच्छा है की वो सारा जीवन अविवाहित रह कर गुजार दे चलिए एक लड़की ने हिम्मत की और दहेज़ प्रथा का विरोध करते हुए विवाह नहीं किया पर जानती है इसका असर उसके पूरे परिवार पर पड़ेगा उसकी छोटी बहनों का भी विवाह मुश्किल हो जायेगा ये जरुरी नहीं है की वो भी इतनी हिम्मती हो और माँ बाप के लिए एक बड़ी मुश्किल और इन सब परेशानी के लिए उसे दोष दिया जाने लगेगा | हम अपने विचार अपने आदर्श अपने पर तो लागु कर सकते है और उसके बुरे अंजाम को सह भी सकते है पर उसका बुरा परिणाम पूरे परिवार पर पड़े तो ये ठीक नहीं है ये गलत होगा | जैसा की आप ने कहा की सारी लड़किया इसका विरोध करने लगे तो ये ख़त्म हो जायेगा | तो दिव्या जी यदि सारी लड़कियों में इतनी हिम्मत होती तो नारी की हालत ही आज ये नहीं होती | इस लिए आज की परिस्थिति को देखा कर मैंने व्यवहारिक बात की है | हा ये बात मै अब जोड़ती हु की लड़किया अपने पिता को इस बात के लिए मजबूर कर सकती है की उसके भाई के विवाह में दहेज़ ना लिया जाये या भविष्य में वो अपने बेटे के विवाह में दहेज़ नहीं लेंगी | पर इसकी भी वो सिफ कोशिश ही कर सकती है अपने घरवालो को मजबूर नहीं कर सकती है |
जिस घर में स्त्री का सम्मान होता है, वहां देवता स्वयं निवास करते हैं..
आपसे सहमत हूँ .... और चाहता हूँ की स्त्रियाँ भी अपने मनोबल को पहचानें ... अपने आप को जानें .... मानसिक रूप से वो निश्चित ही पुरुषों से आगे हैं ....
@--हा ये बात मै अब जोड़ती हु की लड़किया अपने पिता को इस बात के लिए मजबूर कर सकती है की उसके भाई के विवाह में दहेज़ ना लिया जाये या भविष्य में वो अपने बेटे के विवाह में दहेज़ नहीं लेंगी ..
अंशुमाला जी,
बहुत सार्थक बात लिखी आपने, बिलकुल सहमत हूँ आपसे। यदि हर लड़की ऐसी कोशिश करे तो बदलाव लाना मुश्किल नहीं।
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राजन जी,
अफ़सोस तो मुझे भी बहुत है। पर मेरे चाहने से कुछ नहीं होता। लाचार महसूस कर रही हूँ।
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पूरी रामायण में सुन्दर कांड कि इस चोपाई" ढोल, गवार, शुद्र, पशु, नारी ,सकल ताड़ना के अधिकारी "
का उदाहरन देकर लोग आत्म सन्तुष्टी पाते है |रामबोला से रत्नावली कि शक्ति पाकर ही तुलसीदास बनने वाले तुलसी कि शक्ति कि चर्चा क्यों नहीं करते ?
दिव्याजी
हमारे देश में हमारा समाज कई वर्गो में बँट गया है आर्थिक आधार पर और कार्य के आधार पर |रात दिन घर से दूर समाज दूर जो लोग रहते है जिनका काम अनिश्चित होता है जो ज्यादा पढ़े लिखे भी नहीं होते और इस विचार विमर्श से जुड़े भी नहीं होते और नारी को देखने समझने का उनका नजरिया नितांत अलग होता है किन्तु बुद्धि जीवी लोग उच्चवर्ग के लोग भी यही चोपाई का अर्थ लगाते है और अमल में लाते है तब आपका आलेख प्रासंगिक है |
और मै तो यही कहूँगी अगले जन्म मोहे नारी ही कीजो |
is lekh ke purush ke aham thes nahi lgegi bulki usape kuthataghat hoga.
krantikari vichar hain.
Diviyaji evam sabhi tippanikarjan,
Personal attack kisi per bhi nahi hona chahiye,SAIDHANTIK sahmati-asahmati ho sakti hai jiski abhivyakti purn maryada me hi honi chahiye.
Ram bhi jab Adhinayakvadi ho gaye to SITA hi ne Vidroh kiya aur apne putron se Ram ko parast kara diya.
Goswami Tulsidas ne dhol,gawar adi nahi likha hai wah GULAMI ke dauran PRCHEPAK unhe BADNAM karne hetu tatkalin SHASKON ne dalwaya tha.
Meri shrimatiji kah rahi hain ki POST ko log KHICHRI na bana diya karen use sahi SANDHARBH me hi liya karen.
शोभना जी,
आपकी टिप्पणियां तो लेख की सार्थकता द्विगुणित करती हैं। आपने लेख की आत्मा को समझा...
मैं भी आपकी बात दुहराती हूँ --
-- अगले जन्म मोहे नारी ही कीजो --
आभार।
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विजय माथुर जी,
यदि मुझसे कहीं कोई भूल हो रही हो तो कृपया मार्ग दर्शन करें।
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दिव्या जी,
आप का नाम अन्य टिप्पणीकारों के साथ लिख जाने के कारण शायद आप को कुछ भ्रम हो गया होगा.
मैंने आप की किसी भूल की ओर इशारा नहीं किया था.बल्कि आपकी मूल भावना के समर्थन में सीता द्वारा राम के प्रति विद्रोह का उल्लेख किया था ('सीता का विद्रोह' आप को आगे की किसी पोस्ट में क्रांति स्वर पर पढने को भी मिलेगा).तुलसी दास जी ने ढोल गंवार नहीं लिखा है उस समय के शासकों ने बाद में प्रक्षेपक डलवाकर उन्हें बदनाम किया है.यही स्पष्ट किया था.
प्रिय बहन,जैसा कि आपने टिप्पणियों के प्रत्युत्तर में लिखा है कि व्यक्तिगत बात न करके आलेख विषयक चर्चा करें लेकिन आप अपने पाठकों,आलोचकों और समीक्षकों के आगे लाचार महसूस कर रही हैं ये लिखना एक पत्रास्वामिनी होने के बाद भी आपका बड़प्पन है। शेखर सुमन जी महान लोगों की कतार में सबसे आखिरी में भी खड़ा यदि मुझे स्वीकारा है तो उनका हार्दिक आभार। दूसरी और अंतिम बात कि शेखर जी स्वयं तो वैचारिक जुलाब में उलझे हैं और आपके हाजमें के प्रति चिंता प्रकट करते हैं हिंदी में लिखते हैं कि और जहाँ तक रही आपकी शैक्ष्णिक योग्यता की बात मुझे अफ़सोस रहेगा कि उसका आपकी सँकरी सोच पर कोई असर नहीं दिख रहा है...और अंग्रेजी में लिखते हैं i have no doubt what so ever about her talent and knowledge...
बहन,आपने जो लिखा नितांत मौलिक है जिसे आपत्ति हो वो न तो पढ़े और न ही माने। क्या इनमें से कोई मनीषा दीदी के बारे में लिखने का साहस कर सकता है????
साधुवाद स्वीकारिये
Rachna:
While your English seems quite good, I am surprised at your lack of comprehending the conjunctive clauses of a sentence.
[Or, mayhaps, that was on purpose....zmiles]
Had you read the entire sentence rightly, you would not have been asking me the questions you have asked.
Your vein of comment was contrarian to the belief of the writer and since I align with the views of the writer, I sought to opine to her that the generalized forms of people like you [who hold a different viewpoint] must not distract her from sights on the matter.
And I do not know whether it was a play of words or not, but the right usage is "Pray Do Tell Me". It isn't 'prey', Miss and I am not ‘hunting’ either. If there be any such illusion that you think I am a prey, I can only laugh at the ridiculous notion.
"Pray do tell me" is a seeker's supplication.
"Prey do tell me" is the hunter's intimidation.
I wonder, what you intended.
I always try to use the language that I know properly warnaa Arth kaa Anarth hotaa hain. Laughz.
Again to summarize, I said "Rachnas" and not "Rachna". The former denotes a generalized lot while the latter shows a personalized reference.
Is that clear?
And, one more thing, typing in upper-case is 'shouting' in net-language parlance. You can't prove yourself right by resorting to such an act. I see it as uncivilized.
Try better. Zmiles.
Arth Desai
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विजय जी,
निसंदेह वो पंक्ति तुलसीदास रचित नहीं लगती। तत्कालीन शासकों द्वारा तुच्छ मानसिकता से ग्रस्त होकर ऐसा किया गया प्रतीत होता है।
ये जानकारी मेरे लिए बिलकुल नवीन है। इसके लिए आपका आभार।
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Shekhar:
I like replying point on point.
01] English is my preferred language of writing and I place it even before my mother tongue when it comes to expressing my thoughts in the best possible way. Hindi blog is like a small well in front of the ocean that the English blog world is. I can not consign myself to being a Kue kaa medak. Tu Hindi mein likh agar tujhe likhnaa hain to. Clear?
02] Back tracking on what you have written, smart alec? Laughz. Read your earlier comment and the one now. I do not abuse someone saying her education does not reflect in her 'narrow' outlook and then when someone comes after you about it, you do a volte-face. By the way, spitting and licking is not my way of doing things. But then, different people have different habits. Zmiles.
03] While I am certain of her qualifications, I am not so sure of yours. For a moment, taking your word, if we do see you as a PET cracker, the way you are being vindictive reflects poorly on your education and upbringing or whatever of the two you have got. As to your challenge, I can only say -
Qatl ki jab usne di dhamki mujhe
Keh diyaa maine bhi "Dekhaa jaayegaa"
Mai pilaakar aapkaa kyaa jaayegaa
Jaayegaa imaan jiskaa jaayegaa
Ab chhupke to main bhi itnaa hi baithaa hoon jitnaa tu baithaa hain. Aage kyaa kahe.
And oh yeah! Fake profile........you made me laugh heartily with this silly mention of yours.
You think you can trigger me by that silly joke? Come on, buddy, grow up and try better. Laughz.
Arth Desai
दिव्या जी,
मैंने कई बार पढ़ा, नारी पुरुष क्यों बनाना चाहेगी. ये सृष्टि दोनों से ही मिल कर बनी है और वे एक दूसरे के पूरक हैं.पुरुष के गुणों को स्त्री नहीं पा सकता है और स्त्रियोचित गुण पुरुष ग्रहण नहीं कर सकते हैं. प्रकृतिदत्त स्त्री गुण ( मातृत्व, गृहणी, अन्नपूर्णा और लक्ष्मी स्वरूप ) कोई और ग्रहण नहीं कर सकता है. पुरुष की बराबरी शिक्षा में, नौकरी में, प्रगति में और आत्मनिर्भरता में की जा रही है और उसमें कोई भी बुराई नहीं है. विवाह के बाद के दायित्व वह सभालती है और उससे वह एक नए संसार की रचना करती है. इसको त्यागने की बात कहाँ उठती है. क्या पुरुष की बराबरी करना - स्त्रियोचित गुणों का त्याग ही है. मैं ऐसा नहीं समझती हूँ. हम पति को आदेश तो नहीं दे सकते हैं लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि प्लीज आज चाय आप पिला दीजिये (अगर उनको बनाना आता है.) इसमें कोई बुराई नहीं है. नारी ३० दिन ये कम करती है और अगर मजबूरी है तो, और ये तो मैं अपनी पीढ़ी की बात कर रही हूँ. जो ५०+ है, आज की पीढ़ी हमारी पीढ़ी से बहुत ठीक है. आज पति और पत्नी दोनों ही अगर जॉब कर रहे हैं तो उनमें बहुत अच्छा सामंजस्य देखा है मैंने. उनके बच्चे भी हैं और वे उनको सही ढंग से देख रहे हैं. हमारी पीढ़ी के पुरुष भले ही इस अहंकार से भरे रहते हों कि मैं पति हूँ या ससुर हूँ. लेकिन आज अगर समझदार पुरुष हैं तो वे बहू और बेटे दोनों के ही साथ बराबरी का व्यवहार करते हैं. गाली गलौज करना, हाथ उठना और शराब पीने की आदत सभी पुरुषों में नहीं होती. अगर किसी की सोच गलत हो तो बात अलग है.
इनकार कर दीजिये --
* महिलाओं के लिए किसी भी प्रकार के रेसर्वेशन से।
* दहेज़-लोभियों से शादी करने से।
* कन्या भ्रूण-हत्या में भागीदार होने से।
आपके इन विचारों से सहमत हूँ, दहेज़ लोभियों से शादी करने से इन्कार का संकल्प सभी को लेना ही चाहिए ताकि जब उन्हें दहेज़ देने वाला मिलेगा ही नहीं तो फिर दहेज़ लेंगे कहाँ से? ये संकल्प दृढ़ता से होना चाहिए और इसमें माँ बाप को भी लड़कियों और लड़कों का साथ देना चाहिए. उनका जो दहेज़ का औचित्य होता हैकि हमने इसकी पढ़ाई में इतना खर्च किया है तो लड़कियाँ भी मुफ्त में नहीं पढ़ जाती हैं और सभी आज कल व्यावसायिक शिक्षा ले रही हैं और जो कमा रही हैं वो शादी के बाद उनके ही घर में रहने वाला है.
कन्या भ्रूण हत्या के लिए मैं खुद इसका विरोध करती हूँ. और कहती हूँ कि लड़कियाँ अगर न हों तो ये संसार स्नेह, प्यार और ममता से विहीन हो जाएगा. ये सृष्टि ख़त्म हो जाएगी सो सृष्टि को चलने दीजिये.
वे अब किसी रिजर्वेशन की मुहताज नहीं है, अपनी काबिलियत और आत्मविश्वास के बल पर सब कुछ हासिल कर सकती हैं और पुरुष की तरह से मेहनत बल्कि उससे अधिक मेहनत कर रही हैं क्योंकि वे नौकरी, घर और बच्चे सब कुछ देखने की हिम्मत रखती हैं.
--
... खुद को जागरूक करिए और अपनी महिमा को पहचानिए। नारी की कोमलता ही उसको विजय दिलाती है। उसका भावुक , संवेदनशील आचरण ही उसको घर और समाज दोनों जगह इज्ज़त दिलाता है।
...behatreen abhivyakti ... shaandaar post !!!
sorry everyone...i was wrong.....
happy ? ? ?
i m deleting all my comments, and request divya ji plz plz delete all comments related to me...
ab arth desai ji ki bhasha kharab hoti ja rahi hai, isse pehle ke woh gaaliyaan dene par utaroo ho jaayein.....
दिव्याजी आपने जो भी लिखा उससे एक बात स्पष्ट है कि आप नारीवाद या नारी स्वतंत्रता के उस रुप की पक्षधर बिल्कुल नहीं जो कि बंधन रहित होना चाहता है और सिर्फ नारेबाजी तक ही सीमित है। बंधन रहित जीवन को मानना स्वछंन्दता है जबकि स्वतंत्रता अपने साथ कुछ बंधन भी लाती है। स्वतंत्रता हमेशा समाज, व्यक्ति के विकास में सहायक होती जबकि स्वछंदता हमेशा विनाश की ओर ले जाती है। मेरी नजर में प्रकृति ने जिसके जैसा बनाया है उसके उसी रुप में अग्रसर होना चाहिये न बराबरी के नाम पर दूसरे के कार्यक्षेत्र में प्रवेश के चेष्टा करना क्योंकि जैसे आपके चिकित्सीय कार्यक्षेत्र यदि कोई इंजीनियर सिर्फ इसलिये प्रवेश करना चाहे कि सब बराबर है तो क्या परिणाम होगा अनुमान लगाया जाता है। पुरुष के बिन नारी पूरा जीवन काट सकती है। पर बिन नारी कोई पुरुष सामान्य रुप से जीवन नही काट सकता है। इसीसे नारी के महिमा स्पष्ट होती है।
समझ नहीं आता जाने क्यों लोग फ़ालतू की टिप्पणियाँ आप के ब्लॉग पर करते हैं.maodrate करें तो आफत नहीं करें तो फ़ालतू की बहस. क्या है ये सब?क्या इस तरह से हम बुद्धिजीवी कहला सकते हैं?
लेखक की भावना को समझे बिना हम कैसे उसकी लेखनी का कत्ल कर सकते हैं?
विजय जी की बात से मैं सहमत हू .ये एक एतिहासिक सत्य है की तुलसीदास जी का बहुत विरोध तत्कालीन विद्वानों ने किया .यह भी संभव है की उन को बदनाम करने के लिए राम चरित्र मानस में छेपक हो .क्यों की हमारी संस्कृति में मात्र शक्ति की पूजा होती है .और लोग जहा अपने देश से प्यार करते है तो हम उस माँ मान कर उस की पूजा करते है .इस से ही हमारी संस्कृति की एक झलक प्रस्तुत हो जाती है .
तुलसीदास जी पर की गयी टिप्पड़ी खेद सहित वापस ,छमा कीजियेगा
दिव्या मै तो शत प्रतिशत नारी की अस्तित्व और गौरव को एक विशुद्ध भारतीय नारी के रूप मे देखती हूँ। लेकिन साथ ही सामाजिक विशमताओं को जो नारी के साथ अन्याय करती हैं उनका भी विरोध करती हूँ। हमे ये बात नही भूलनी चाहिये कि यदि हम अपनी जडें छोड कर पानी के बहाव के साथ बहने लगेंगे तो हमारा अस्तित्व ही नष्ट हो जायेगा पुरुष और नारी को भगवान ने इस सृष्टी की रचना के लिये विशेश गुण दे कर भेजा है उसमे एक बात ये जरूरी है कि नारी को अपना ममतामयी स्वरूप नही छोडना चाहिये। अपनी संवेदनायें नही छोदनी चाहिये कोमलता नही छोदनी चाहिये। लेकिन अपने सम्मान के लिये जरूर कोशिश करनी चाहिये उसके लिये केवल विद्रोही भावना नही होनी चाहिये। कई बार आँवला खाने मे कडवा लगता है लेकिन उसका स्वाद तो बाद मे पता चलता है। घर मे जो पुरुष सख्ती करता है वो हमेशा ही नही कि हमे प्रताडित करने के लिये हो। नारी मन से भावुक होने स्3ए कई निर्णय सही नही भी ले पाती उस समय समझदार पुरुष ही स्थिती को सम्भालता है। ये मेरा अपना तज़रुबा है। मगर फिर भी एक बात तो है कि नारी का शोष्ग्ण और अत्याचार भी कम नही हो रहे उन्हें रोकने का प्रयास करना चाहिये न कि वगावत। बहुत अच्छी सोच है तुमहारी । हम अपने बच्चों को वो संस्कार नही दे सके जो हमे मिले थे तभी आज ऐसे हालात हैं
नारी को ही समाज बनाना है ये उस पर निर्भर है कि वि कैसा समाज चाहती है। अज़ादी की लडाई तो वो लडने लगी है मगर दशा और दिशा दोनो से भटक गयी है।
इस पर बहुत कुछ कहना चाहती हूँ मगर बहुत लम्बा कमेन्ट हो गया । बहुत बहुत मुबारक कि कम से कम किसी युवा लडकी ने इतना साहस तो किया कि औरत को सही बताया कि वो कौन है क्यों है। बस जरूरत बुराईय्यों को समाप्त करने की है। धन्यवाद।
@ अभिषेक जी,
आप की विचार अभिव्यक्ति के लिए बहुत बहुत धन्यवाद.आपको ये भी याद दिला देना चाहता हूँ की ३-४ वर्ष पूर्व गोरखपुर के एक वकील साहब ने वहां की अदालत में गीता प्रेस गोरखपुर पर ढोल गंवार आदि आदि और भी छेपकों को हटाने के लिए केस कर रखा है.
@ all
नारी=न+अरि
अथार्त जिस का कोई शत्रु न हो वो नारी है.''बड़ भाग मानुष तन पावा'', ''नर हो न निराश करो मन को'' क्रमशः तुलसी दास जी व मैथिलि शरण जी पूरी नर या मनुष्य जाति के लिए कह रहे हैं पुरुष या महिला का भेद नहीं है.सह्रदयता और कोमलता के कारण ही कवि सुमित्रा नंदन पन्त को नारी सुलभ ह्रदय वाला कवि कहा गया है.
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मैं रेखा जी की बात से सहमत हूँ। स्त्री और पुरुष दो अलग अलग धुरी हैं इसलिए उनका प्रकृति में स्थान ही अलग है कोई तुलना करना उचित नहीं है ।
तुलसीदास जी की बात पर कुछ लोग इस प्रकार भी व्याख्या करते हैं की ये सब लोग मुक्ति(तारन) के अधिकारी हैं क्योंकि इन सब को प्रताडना झेलनी पड़ती है ।
kuchh nahin samjho to fir meri nazar se dekhnaa...
कुल मिला कर महिला पुरुष के द्वन्द्व की बात नहीं थी इस पोस्ट में साफ़ तौर पर नारी के सशक्तिकरण की बात हुई रखी गई. मुझे दिव्या के चिंतन में पाज़िटिविटी नज़र आती है. न कि अतिरंजित-उद्वेग . एक सबसे अच्छी बात ये कि आरक्षण न हो ?
ये बात सब पर लागू होती है.
मैं आलेख से सहमत हूं दिव्या
डाक्टर दयाल से भी पर कुछ कुंठित टिप्पणियों से असहमत जिनका ज़िक्र न करने में ही बुद्धिमानी है.
आपके विचार सहमति योग्य क्यों न हों सकारात्मक जो हैं बधाईयां...!
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विजय जी,
आपसे बहुत बातें जानने को मिलती हैं। ख़ुशी हुई यह जानकार की गोरखपुर के एक वकील साहब ने वहां की अदालत में गीता प्रेस गोरखपुर पर ढोल गंवार आदि आदि और भी छेपकों को हटाने के लिए केस कर रखा है।
बिलकुल हटा देना चाहिए।
जब सभी मनुष्य हैं , तो कुछ समुदाय को ताड़ना का अधिकारी क्यूँ समझा जाए।
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"यत्र पूज्यन्ते नारी तत्र रम्यते देवता !"
केवल घर की ही स्त्रियों का सम्मान नहीं, अपितु सभी जगह, बस, ट्रेन, दफ्तर, , ब्लॉग-जगत, और हर मोड़ पर स्त्री का सम्मान करना चाहिए। शुरुआत कहीं तो होती है , इसलिए वेदों में कहा गया है , जिस घर में स्त्री.... क्यूंकि जो व्यक्ति अपने घर की स्त्री का सम्मान नहीं कर सकता वो समाज में दुसरे पुरुषों की बहन , बेटी और पत्नी का क्या सम्मान करेगा ?
एक और बात -- केवल पुरुषों को स्त्रियों का सम्मान नहीं करना है, अपितु स्त्री भी यदि स्त्री का सम्मान करना सीख जाए तो सभी विवाद स्वतः शांत हो जायेंगे और किसी को किसी अधिकार मांगने की ज़रुरत नहीं पड़ेगी। यदि दहेज़ लोभी ससुर और पति , बहु को प्रताड़ित कर रहे हैं तो एक सास , अपने ममतामयी आँचल का प्यार देकर तथा अपने पति और पुत्र को उनकी भूल का एहसास दिला अपनी बेटी सामान बहु की रक्षा कर सकती है। मैं फिर कहूँगी स्त्री अपनी शक्ति को पहचाने और सही दिशा में लगाए।
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मुझे तो सबसे ज्यादा आपत्ति इस पंक्ति से है--
" आँचल में है दूध और आँखों में पानी
नारी अबला तेरी यही कहानी "
* आँखों में आंसू तो सभी के आते हैं चाहे वो स्त्री हो अथवा पुरुष ।
* और आँचल में दूध तो मातृत्व की निशानी है। इसमें स्त्री को इतना निरीह दिखाने की क्या आवश्यकता है भला।
* नारी को अपनी कविता में ' अबला' कहकर नारी का सर्वथा अपमान किया है । और आने वाली सदियों तक नारी पर 'अबला' का ठप्पा लगा दिया।
कवी ने स्त्रियों से सहानुभूति क्या जताई , अभिशाप बन गयी उनकी सहानुभूति । एक स्त्री होने के नाते कवी की उपरोक्त पंक्ति पर घोर विरोध दर्ज करती हूँ।
क्यूंकि कवियों द्वारा रचित ऐसे पंक्तियाँ , लोगों की मानसिकता को प्रभावित करती हैं। कुछ पुरुष वास्तव में इस बदगुमानी में रहने लगते हैं की स्त्री 'अबला' है और ताड़ना की अधिकारी है। और स्त्रियों का तो क्या कहें , अपने ऊपर 'अबला' का लेबल चिपका , आंसू बहाने से परहेज नहीं करेंगी, ताउम्र अपने ऊपर हुई ज्यादतियों का रोना लेकर कवियों को प्रेरित करती रहेंगी ऐसे बे-सर पैर की कविताओं को लिखने के लिए।
अरे अगर महिलाएं अपनी शक्ति को पहचाने , और अपने पिता, पति, पुत्र, भाई और देशवासियों को खुद पर गर्व करने का मौका दें तो भला, किसकी मजाल है जो लिखे --> अबला !
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१]--रचना जी लिखती हैं-- दिव्या तुम पोस्ट इसलिए लिखती हो क्यूंकि --
* -Two third has been written to please the society
-One third is written to appease the conscience
[२]--शेखर जी लिखते हैं की , शिक्षा प्राप्ति के बाद भी दिव्या की मानसिकता संकुचित है।
आप दोनों विद्वान् , हैं । ठन्डे दिमाग से सोचियेगा की इस तरह की टिप्पणियां कितनी शोभनीय हैं।
@ अर्थ देसाई, डॉ रुपेश, यशवंत जी, विजय जी --
आप लोगों ने मुझ पर हो रहे व्यक्तिगत आक्षेपों को समझा और गलत बात के खिलाफ आवाज़ उठाई, इसके लिए आपकी आभारी हूँ।
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verry verry good post......
unki yahan koi jaroorat nahi......
jinnhe bhasa aur maryada ka sima pata na ho....
pranam.
ओह !! बहुत देर हो गयी आने में लगता है, काफी ढेर सारी टिप्पणियाँ हो गयी हैं... सारी पढनी संभव भी नहीं है..
कुछ टिप्पणियाँ पढ़ीं तो लगा यहाँ बहस नहीं जंग छिड़ी हुई है, खैर अच्छा है ऐसे मुद्दों पर बहस भी ज़रूरी है |
और यह शेखर जी कौन है??? उन्होंने तो अपनी सारी टिप्पणियाँ हटा दी... खैर हटाईये इन बातों को ...
लिखती तो आप बहुत ही अच्छा हैं लेकिन अगर स्त्रियों का भला सोचने के बजाय मानव जाति का भला सोचें तो ज्यादा अच्छा होगा..और मानव जाति तो स्त्री और पुरुष दोनों से बनते हैं... मानसिक रूप से कोई श्रेष्ठ नहीं कोई निर्बल नहीं, हाँ शारीरिक रूप से थोडा मामला अलग है... दोनों को प्रकृति ने अलग अलग काम सौपे हैं अगर कोई एक दूसरे की जगह आना चाहे तो disbalance तो होगा ही ना... अब देखिये ना दुनिया के लगभग हरेक होटल में पुरुष खाना बनाते हैं.... है ना अजीब बात.....
बहुत ही सुन्दर लेखन, यह प्रयास यूं ही अनवरत चलता रहे, शुभकामनायें ।
hmm my comments i thought i posted....lost in space...
Do we ever differentiate when we are in a happy mood? If we are sad about something, there is a reason, whatever it may be. Likewise, when people talk about so called equality in gender, the underlying reason is un-happiness. Therefore, how can one achieve ever-lasting happiness to overcome these mundane sense of comparisons? Only way is to learn the art of self realization, if not mastering it. Love to my dear friend.
Hi Ganesh,
Glad to see you here after ages.
It's not at all comparison. How can two entirely different species be compared ?
Male and females are different anatomically, mentally, spiritually and Ethically.
They both are blessed with different virtues and weaknesses.
The author here is asking women to realize their worth and potential and feel privileged for what they are blessed with.
regards,
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When the almighty has already created women as superior , then what's the need of fighting for equality ??
Just prove it !
< Smiles >
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sundar Sandesh ka wahan karta lekh hai.
Khed sirf itna hai ki Stri ke guno ka bhan karane ke liye purush ke durguno ke sahare hi jarurat nahi honi chahiye.
Hi Zeal, It's nice to see you replyng my comment. The human being, as conceived by nature (God), is of the highest virtue one can imagine. Do we question that? While the author is suggesting ways to overcome one's self confidence, which is, a limitation in terms of the true self, what I intended to convey was on a broader perspective, by realizing the nature of the true self, so that anyone and everyone can be a winner. Thanks Zeal, it's nice to be part of this discussion.
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संत शर्मा जी,
सहमत हूँ आपकी बात से। एक दिन ज़रूर आएगा जब किसी सहारे की ज़रुरत नहीं पड़ेगी , लेकिन अभी तो बैसाखियाँ ज़रूरी है। आपके सुन्दर विचारों के लिए आभार।
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Dear Ganesh.
You are always welcome to be a part of all discussions going on here.
I am feeling honoured to have serious readers like you here.
Thanks.
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हार्दिक शुभकामनाएं!
दिव्या मैम,
देर से पढ़ा ये लेख परन्तु मुझे आशा है की आप अब भी मेरे प्रश्न का उत्तर देंगी
आपके लेखों से हमेशा लगता है की आप पूर्णसमानता की पक्षधर है न की केवल क्रम बदलने की
तो फिर दहेज़ का इतना तीखा विरोध क्यूँ ?क्या खराबी है दहेज़ में ? चलिए ये बता दीजिये की क्या खराबी है उस दहेज़ में जो दोनों पक्षों की सहमति से लिया और दिया जाये ?आखिर यह अर्थप्रधान युग है और एक बड़ी धनराशी पाने का अवसर क्यूँ छोड़ना चाहिए ?
चलिए एक उदहारण अपने ऊपर ही बनाकर बात अपना प्रश्न स्पस्ट करता हूँ | मान लीजिये मेरी शादी तय हो जाये अभी जबकी मैं एक अच्छी(मतलब अच्छे वेतनवाली)नौकरी करता हूँ और इसके बाद शादी होने से पहले ही मेरी नौकरी चली जाये तो क्या होगा ?बिलकुल शादी नहीं होगी और मुझे यह सही भी लगता है |तो अगर लड़कियां एक पैसों वाला लड़का खोझ सकती हैं तो हमे ऐसी लडकी क्यूँ नहीं खोजनी चाहिए जो खूब सारा दहेज़ ला सके ?
अब शादी की ही बात है तो किसी भी लड़के को सुयोग्य वर मानने का सबसे पहला मानक उसकी आय ही होता है |"The boy is really good.He is financially stable " यह बहुश्रुत वाक्य है| दूसरा पैमाना उसके माता- पिता की आर्थिक स्थिति ,तीसरा पैमान उनके परिवार की आर्थिक स्थिति .........
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उस लड़के का खुद का चरित्र ,आचरण ,वव्हार तो कहीं आठवें या नौवें स्थान प् आता है और लडकी के सीक्षा दीक्षा तो कहीं आती ही नहीं है|तो लड्कूं को दहेज़ के बदले अनुत्पादक गुणों(भले ही वो कथित रूप से कितने ही महँ क्यों न हों)को महत्त्व क्यों देना चाहिए? क्या आप लड़कियों को सुझाव देंगी की वो लड़कों के आर्थिक स्थिति को देखना बंद करें और (कथित)मानवीय मूल्यों को महत्त्व दें|
यह प्रश्न आक्रोश में नहीं अपितु वास्तविक समानता की पक्षधरता के लिए लिखा गया है और मेरा मन्ना है की इस अर्थ युग में दोनों जीजों को स्वीकार करना चाहिए दहेज़ और FINENCIAL STABILITY
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अंकित जी,
दहेज़ माँगना , मुझे भीख मांगने के सामान लगता है । और जो माँ बाप अपनी बेटी के विवाह में दहेज़ देते हैं , वो अपनी बेटी को दरिंदों के हाथ बेच रहे होते हैं।
पढ़े लिखे नवयुवक , जिन्हें अपने ऊपर गर्व है और भरोसा है , वो अपने लिए पढ़ी-लिखी और सुसंस्कारित पत्नी का चुनाव करते हैं। उन्हें लड़की के पिता की दौलत से कोई सरोकार नहीं होता।
ऐसे पुरुष अपनी योग्यता से पैसा कमाते हैं और अपनी ससुराल में भरपूर इज्ज़त।
आभार
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:(
mere prashno ke uttar to gayab hain
any ways leave this
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