यहाँ पर विभिन्न विषयों पर , अनेकानेक विद्वान् मित्रों के लेख पढ़कर तथा विचार जानकार , मन के बहुत से अनुत्तरित प्रश्नों का उत्तर मिला है। ऐसे ही एक अनुत्तरित प्रश्न को आप सबके सामने रख रही हूँ , शायद इसका भी कोई बेहतर उत्तर आज मुझे मिल जाए।
प्रश्न है -
- टिप्पणियां कैसी होनी चाहिए ?
- क्या टिपण्णी लिखते वक़्त किसी प्रकार के पूर्वाग्रह होने चाहिए ?
- क्या टिपण्णी में व्यक्तिगत आक्षेप होना चाहिए ?
- क्या लेखक ने जिस भावना को लेकर लेख लिखा है , पाठक को उसकी मूल भावना को समझना चाहिए ?
- क्या लेख को पूरी तरह खारिज कर देना ही पाठक का उद्देश्य होना चाहिए ?
- क्या अपनी टिपण्णी में लेखक को थोडा सा प्रोत्साहन नहीं देना चाहिए।
- क्या हतोत्साहित करना आवश्यक है ?
- क्या अपमानित करना जरूरी है ?
- यदि किसी गलती की तरफ ध्यान दिला रहे हैं , तो क्या सम्मानित भाषा नहीं प्रयोग कर सकते । क्या नीचा दिखाना जरूरी है ?
- चर्चा और विमर्श में तरह-तरह के विचार आते हैं, जो हमारे विचारों से सर्वथा भिन्न भी हो सकते हैं, तो क्या हमें बुरा मानकर उसके ब्लॉग पर जाना छोड़ देना चाहिए ?
- यदि पाठक के विचार लेखक से न मिलें तो क्या लेखक को कन्फ्यूज्ड कहना उचित है ?
- पाठक को अपने विचार शालीनता से रखना चाहिए अथवा थोपना चाहिए ?
- क्या मत-वैभिन्न होने से हमें एक दुसरे से नाराज होना शोभा देता है ?
- एक विषय पर विचार नहीं मिलते तो किसी न विषय पर तो विचार मिलेंगे ही । तो दूर जाने की आवश्यकता है क्या ? क्या थोड़ी दूर साथ नहीं चल सकते ?
- क्या दिये और बाती की तरह , पाठक और लेखक सदा -सर्वदा साथ नहीं रह सकते ?
मेरे कुछ पाठक जो मेल ते टिपण्णी भेजते हैं और अक्सर ये लिखते हैं की पब्लिश नहीं करियेगा । उनसे ये पूछना है की ऐसा क्यूँ है आखिर ? उनकी टिप्पणियां तो इतनी खूबसूरत होती हैं की लिखने वाले की उँगलियों को चूम लेने का दिल करता है।
आभार।
63 comments:
टिप्पणियाँ कैसी हों?
बौद्धिक पोस्टों पर :
@ कोशिश होती है कि वे ताश के खेल की तरह नहले पर दहला हो.
भावुक पोस्टों पर :
बिना प्रयास भावों की अभिव्यक्ति हो.
प्रश्नात्मक पोस्टों पर :
@ उत्तर देने की कोशिश करती हों.
बेतुकी/ वाहियात पोस्टों पर :
@ बिना गाली-गलौज के मर्यादा का बोध कराती हों.
5.5/10
सुन्दर विचार मंथन
लौट कर फिर आते हैं !
बहुत विचारपूर्वक लिखी गयी सुन्दर पोस्ट !
टिप्पणिया लेख से सम्बंधित ही होनी चाहिए ! बिना लेखक की मूल भावना में जाए, पूर्वाग्रह और अपनी विचारधारा के आधार पर, अमर्यादित भाषा का प्रयोग करती टिप्पणियों को मैं कदापि सही नहीं मानता !
अफ़सोस है कि ब्लाग जगत में अधिकतर टिप्पणियों का कोई स्तर नहीं होता और तो और कुछ विद्वान् लोग तो लेख को ठीक से पढना भी समय बर्बाद करना मानते हैं , ऐसी स्थिति में टिप्पणियां केवल इस लिए ही दी जाती है कि मेज़बान भी मेरे ब्लाग पर आकर भी टिप्पणिया देती रहें !
कुछ लोग जानबूझ कर अच्छे ब्लाग पर उन्हें हतोत्साहित करते हैं ताकि लोगों का ध्यान बँटा कर वे अपनी प्रतिभा सिद्ध कर सकें !
कुछ आकर अनावश्यक बहस छेड़ने का प्रयत्न करते हैं और अक्सर ब्लाग स्वामी भी लोगों को आकर्षित करने हेतु प्रोत्साहित करता है ! ऐसे मामलों में दोनों ही दोषी होते हैं !
मेरे विचार में विरोध करने के लिए, मर्यादित भाषा में अपनी बात कही जा सकती है और अगर इससे बात न बने तो बिना अपनी बात कहे वहां से विदा हुआ जा सकता है !
यह आवश्यक नहीं कि इतने जोरदार तर्कों से खंडन किया जाए कि मूल लेख का महत्व ही समाप्त हो जाए !
बेहतर है कि हम ध्यान रखें कि हम एक मेहमान हैं और मेजबान के साथ उचित व्यवहार करना ही मर्यादा है !
अपनी सीमा को भूलने वाले, अक्सर अपनी असलियत प्रकट कर जाते हैं !
बाप रे बाप! एक और आचार संहिता ??!!
पहले ही से इतने सारे नियम कायदों के बीच, जीवन वैसे ही दुष्वार हुआ जाता है। अब टिप्पणी देने के सुख पर भी बन्दिशे न बैठाइये दिव्या जी!!
यह बुद्धिजीवीयों का कैथार्टिक प्रोसेज़ है!!
मेरे ख्याल से सतीश सक्सेना जी ने सब कुछ कह दिया और उसके बाद कुछ भी कहने की जरूरत नही होती सिर्फ़ इतना ही कि जिसका भी लेख या कविता पढें उसकी मूल भावनाओ को समझें और अनावश्यक वाद -विवाद की स्थिति ना फ़ैलायें……………टिप्पणी ऐसी होनी चाहिये जिससे उसका आशय प्रगट हो और ये भी ध्यान रखा जाये कि सिर्फ़ अपने चाहने वालो के ब्लोग पर ही बडी और बेवजह की टिप्पणी ना करें बल्कि जहाँ सच मे जरूरत है और लगता है कि यहाँ अपनी बात कहने का अवसर मिला है तो उसे पूरी तरह रखें तभी इनकी सार्थकता है वरना तो महज औपचारिकता बन कर रह जाती हैं टिप्पणियां………अगर हर कोई थोडे धैर्य और सब्र से काम ले तो यहाँ भी सार्थकता आ सकती है और गंभीर सृजन हो सकता है।
आप का यह लेख मनन करने योग्य है जो भी टिप्पड़ी दे उसे इन सारे बिन्दुओ पर गहन विचार के बाद ही कुछ भी लिखना चाहिए .
हमें अपने अन्दर झाकने के लिए इतने सारे बिंदु उपलब्ध करने के लिए आप का बहुत आभार ,
# टिप्पणियां कैसी होनी चाहिए ?
@ सिर्फ पोस्ट के विषय से जुड़ा हुआ |
# क्या टिपण्णी लिखते वक़्त किसी प्रकार के पूर्वाग्रह होने चाहिए ?
@ असल में ये कई बार पूर्वाग्रह नहीं अपने निजी विचारो का असर होता है पर हा पूर्वाग्रहों से इंकार नहीं है |
# क्या टिपण्णी में व्यक्तिगत आक्षेप होना चाहिए ?
@ नहीं , पर हम और आप इसे नहीं रोक सकते |
# क्या लेखक ने जिस भावना को लेकर लेख लिखा है , पाठक को उसकी मूल भावना को समझना चाहिए ?
@ कई बार लेख पढ़ते समय उस विषय पर हमारे निजी विचार इतने हावी हो जाते है की हम लेखक की मूल भावना साँझा ही नहीं पाते पर हा कई बार लेखक भी अपनी मूल भावना सही तरीके से नहीं बता पता है |
# क्या लेख को पूरी तरह खारिज कर देना ही पाठक का उद्देश्य होना चाहिए ?
@ नहीं
# क्या अपनी टिपण्णी में लेखक को थोडा सा प्रोत्साहन नहीं देना चाहिए।
@ एक सकारात्मक आलोचना भी प्रोत्साहन होता है |
# क्या हतोत्साहित करना आवश्यक है ?
@ हमें हतोत्साहित होना ही नहीं चाहिए |
# क्या अपमानित करना जरूरी है ?
@ मुश्किल तब नहीं होती जब हमारी ही पोस्ट पर हमें अपमानित किया जाता है तब ज्यादा होती है जब दूसरो के पोस्टो पर भी अपमानित किया जाता है या कटाक्ष किया जाता है |
# यदि किसी गलती की तरफ ध्यान दिला रहे हैं , तो क्या सम्मानित भाषा नहीं प्रयोग कर सकते । क्या नीचा दिखाना जरूरी है ?
@ नहीं , यदि निचा नहीं दिखायेंगे तो उनकी महानता का पता कैसे चलेगा ?
# चर्चा और विमर्श में तरह-तरह के विचार आते हैं, जो हमारे विचारों से सर्वथा भिन्न भी हो सकते हैं, तो क्या हमें बुरा मानकर उसके ब्लॉग पर जाना छोड़ देना चाहिए ?
@ मेरी निजी राय है मुझे लगता है की किसी से मेरी हार बात पर निरर्थक बहस हो रही है या वो कर रहा है या मेरी हार बातो का गलत मतलब निकला जा रहा है तो मै वहा दुबारा नहीं जाना चाहूंगी मतलब की मै वहा टिप्पणिया नहीं दूंगी |
# यदि पाठक के विचार लेखक से न मिलें तो क्या लेखक को कन्फ्यूज्ड कहना उचित है ?
@ लोग इस बात को नहीं समझते है की कोई एक विचार जो किसी एक परिस्थिति या समय के लिए सही है वही विचार दूसरी जगह या समय पर गलत हो सकती है ,और वो आप को कन्फ्यूज्ड या दो तरह की राय रखने वाला या किछ भी कह सकते है |
# पाठक को अपने विचार शालीनता से रखना चाहिए अथवा थोपना चाहिए ?
@ जाने अनजाने हम सब कई बार ये करते है कभी लेखक और कभी पाठक बन कर और हमें इसका पता ही नहीं चलाता है |
# क्या मत-वैभिन्न होने से हमें एक दुसरे से नाराज होना शोभा देता है ?
@ किसी किसी से तो नाराज हो कर दूर चले जाना ही दोनों के लिए ठीक होता है |
# एक विषय पर विचार नहीं मिलते तो किसी न विषय पर तो विचार मिलेंगे ही । तो दूर जाने की आवश्यकता है क्या ? क्या थोड़ी दूर साथ नहीं चल सकते ?
@ ये बात तो समझदारो पर लागु होती है |
# क्या दिये और बाती की तरह , पाठक और लेखक सदा -सर्वदा साथ नहीं रह सकते ?
@ साथ तो रहेंगे ही पर सबके विचार एक जैसे हो जाये ये संभव नहीं है |
इसके अलावा सतीश जी की बातो से भी सहमत हु |
सम्मानित पाठकगण ! दागिए ! दागिए ! आप भी दागिए कमेंट्स के गोले, किन्तु शालीनता की तोप से , क्योंकि आप के द्वारा दागा गया कमेंट्स का गोला महज एक कमेंट्स नहीं अपितु आइना है आप के व्यक्तित्व का ..........
21 jan2010 ko prakashit ek post ki kuch panktiyan chaspa raha hun, shayad kuch kahin pr fit baith jay.....
सुन्दर विचार मंथन hetu abhaar
सतीश जी की बातों से सहमत हूँ ....
• टिप्पणियां कैसी होनी चाहिए ?
-पोस्ट और उसमें उठाए मुद्दों पर केन्द्रित। पर मेरा मत है कि सुंदर,खूबसूरत,मार्मिक,सशक्त अभिव्यक्ति जैसी तो नहीं होनी चाहिए। क्यों कि उनसे कोई मदद नहीं मिलती।
• क्या टिप्पणी लिखते वक़्त किसी प्रकार के पूर्वाग्रह होने चाहिए ?
-कम से कम लेखक के प्रति तो नहीं होना चाहिए। हां पोस्ट में जो व्यक्त किया गया है, उन विचारों के प्रति पूर्वाग्रही होने से बचना तो चाहिए पर मुश्किल काम है।
• क्या टिप्पणी में व्यक्तिगत आक्षेप होना चाहिए ?
-मैं पोस्ट लिखने वाले के विचारों और उसके व्यक्तित्व को जोड़कर देखता हूं,इसलिए आक्षेप नहीं कहूंगा पर ऐसी बात आना संभव है, जो किसी को लगे कि आप उस पर उंगली उठा रहे हैं। पर कोशिश तो यही होनी चाहिए कि आक्षेप करने से बचा जाए।
• क्या लेखक ने जिस भावना को लेकर लेख लिखा है ,पाठक को उसकी मूल भावना को समझना चाहिए ?
-पहली बात तो यह है कि यहां ज्यादातर साथी केवल पाठक नहीं हैं, वे लेखक भी हैं। यानी उनका भी ब्लाग है। इसलिए कई बार हम उस पोस्ट को उस नजरिए से भी देखते हैं। वास्तव में बिना मूल भावना समझे टिप्पणी कैसे की जा सकती है। और कई बार मूल भावना समझने के लिए भी टिप्पणी की जाती है।
• क्या लेख को पूरी तरह खारिज कर देना ही पाठक का उद्देश्य होना चाहिए ?
-कतई नहीं। पर अगर पोस्ट सचमुच ऐसी है तो यह कहना तो पड़ेगा और कहना चाहिए।
• क्या अपनी टिप्पणी में लेखक को थोडा सा प्रोत्साहन नहीं देना चाहिए।
-थोड़ा नहीं जितना ज्यादा से ज्यादा संभव हो देना चाहिए। पर यहां एक और बात निकलती है कि ब्ला़ग लेखक उन टिप्पिणियों से कुछ ग्रहण भी कर रहा है या नहीं। या बस अपनी ढपली ही बजाए जा रहा है।
• क्या हतोत्साहित करना आवश्यक है ?
-अगर वह टिप्पणियों से कुछ ग्रहण नहीं कर रहा है तो हतोत्साहित करना संभव हो जाता है। उसका एक प्रकार यह है कि आप ऐसे ब्लाग पर जाना ही छोड़ देते हैं।
• क्या अपमानित करना जरूरी है ?
-यह तो कतई नहीं होना चाहिए। पर जब कोई एक बार शुरू करता है तो दूसरा चुप नहीं रह सकता। कम से कम मैं तो नहीं।
• यदि किसी गलती की तरफ ध्यान दिला रहे हैं , तो क्या सम्मानित भाषा नहीं प्रयोग कर सकते । क्या नीचा दिखाना जरूरी है ?
-गलती की तरफ ध्यान दिलाते वक्त तो इस बात का खास ख्याल रखा जाना चाहिए कि लेखक को हम कोई ठेस तो नहीं पहुंचा रहे हैं। मैं तो ऐसी स्थिति में कई बार व्यक्तिगत मेल से ध्यान दिलाना उपयुक्त समझता हूं।
• चर्चा और विमर्श में तरह-तरह के विचार आते हैं, जो हमारे विचारों से सर्वथा भिन्न भी हो सकते हैं, तो क्या हमें बुरा मानकर उसके ब्लॉग पर जाना छोड़ देना चाहिए ?
-अगर विचारों में लगातार मतभेद हैं तो फिर उस ब्लापग पर जाकर हम क्या करेंगे। चलिए यह मान भी लिया कि जाना नहीं छोड़ना चाहिए। लेखक ने अपनी बात कही और आपने टिप्पणी में अपनी बात कही। लेकिन जब पोस्ट लेखक आपको नाम लेकर कहे कि आप इस बारे में ऐसी बात न कहें ,तो फिर टिप्पणीकर्ता क्या करेगा। या तो वह जाना छोड़ देगा या वैसी टिप्पणी करना।
• यदि पाठक के विचार लेखक से न मिलें तो क्या लेखक को कन्फ्यूज्ड कहना उचित है ?
-लेकिन जब लेखक सचमुच में कन्फ्यूजड नजर आए तो यह कहना ही पड़ता है।
• पाठक को अपने विचार शालीनता से रखना चाहिए अथवा थोपना चाहिए ?
-यह नजरिए का सवाल है। कोई बात आपको थोपी हुई लग सकती है। हां हमारा टोन ऐसा होना चाहिए जिसमें आदेश नहीं एक सुझाव हो।
टिप्पणियों की दुनिया ही निराली है..तभी तो उस पर पूरी पोस्ट ही लिखी जा रही हैं...दिलचस्प विमर्श.
__________________
'शब्द-सृजन की ओर' पर आज निराला जी की पुण्यतिथि पर स्मरण.
• क्या मत-वैभिन्न होने से हमें एक दुसरे से नाराज होना शोभा देता है ?
-यह स्वाभाविक ही है। पर समझने की बात भी है कि आखिर हम एक सार्वजनिक मंच पर हैं और विमर्श के लिए आए हैं तो मत-विभिन्नता तो होगी ही।
• एक विषय पर विचार नहीं मिलते तो किसी न विषय पर तो विचार मिलेंगे ही। तो दूर जाने की आवश्यकता है क्या? क्या थोड़ी दूर साथ नहीं चल सकते ?
-उम्मीद तो यही करते हैं कि कभी तो सहमति बनेगी। पर इस धैर्य की भी एक सीमा होती है।
• क्या दिये और बाती की तरह , पाठक और लेखक सदा -सर्वदा साथ नहीं रह सकते ?
-मैंने पहले भी कहा कि यहां अधिकतर स्वयं भी दिये हैं इसलिए रिश्ता कुछ ऐसा है कि मेरा प्रकाश तेरे प्रकाश से कम कैसा।
अंत में मैं यह भी कहूंगा कि हम सबको यह आत्मावलोकन भी करना चाहिए कि हम टिप्प्णियों से क्या सीखते हैं या सीख रहे हैं।
ब्लोगिंग में ही टिप्पणीकार का अस्तित्व है, या यूं कहिए ब्लोगिंग का यह मुख्य गुण है। जहां लेखक टिप्पणी के रूप में शिघ्र प्रतिक्रिया पा सकता है,और पाठक को भी लाभ है कि वह सीधे लेखक से मुखातिब हो सकता है।
ब्लोगिंग में सामान्यतः एक लेखक ही दूसरी जगह पाठक बनता है।
वह अपनी विचारधाराओं से ही दूसरे लेखन का मूल्यांकन करता है,और प्रतिक्रिया स्वरूप टिप्पणी करता है। यहां पूर्वाग्रह अवश्यंभावी है।
एक लेखक अपने पूर्वाग्रहों सहित पोस्ट लिख सकता है तो एक पाठक क्यों न अपने पूर्वाग्रह(विचारधारा) सहित टिप्पणी करे?
अरे वाह! राजेश जी ने सब कुछ कह दिया, पूर्ण सहमत!!
कुछ उत्तर उद्धत कर देता हूं…………
• क्या टिप्पणी में व्यक्तिगत आक्षेप होना चाहिए ?
-मैं पोस्ट लिखने वाले के विचारों और उसके व्यक्तित्व को जोड़कर देखता हूं,इसलिए आक्षेप नहीं कहूंगा पर ऐसी बात आना संभव है, जो किसी को लगे कि आप उस पर उंगली उठा रहे हैं। पर कोशिश तो यही होनी चाहिए कि आक्षेप करने से बचा जाए।
• क्या लेखक ने जिस भावना को लेकर लेख लिखा है ,पाठक को उसकी मूल भावना को समझना चाहिए ?
-पहली बात तो यह है कि यहां ज्यादातर साथी केवल पाठक नहीं हैं, वे लेखक भी हैं। यानी उनका भी ब्लाग है। इसलिए कई बार हम उस पोस्ट को उस नजरिए से भी देखते हैं। वास्तव में बिना मूल भावना समझे टिप्पणी कैसे की जा सकती है। और कई बार मूल भावना समझने के लिए भी टिप्पणी की जाती है।
-थोड़ा नहीं जितना ज्यादा से ज्यादा संभव हो देना चाहिए। पर यहां एक और बात निकलती है कि ब्ला़ग लेखक उन टिप्पिणियों से कुछ ग्रहण भी कर रहा है या नहीं। या बस अपनी ढपली ही बजाए जा रहा है।
टिप्पणी मर्यादित हों। असहमति भी मर्यादित भाषा में व्यक्त की जा सकती है। अन्यथा शब्दों का प्रयोग कुछ भी निष्कर्ष नहीं निकालेगा, हानि करेगा सो अलग।
टिप्पणी करना मेरी समझ में किसी पुस्तक की समीक्षा करने जैसा है। बस अन्तर इतना है कि यहाँ केवल एक आलेख या पोस्ट है। मैं इतना जानती हूँ कि मैं कभी भी पोस्ट पढ़ते समय व्यक्ति को नहीं देखती। अभी भी विषय देखकर ही यहाँ आयी हूँ और आने के बाद ही पता लगा कि दिव्या की पोस्ट है। पोस्ट में सामाजिक सरोकार कितना है, बस इसी बात का ध्यान रखना चाहिए। व्यक्तिगत उहापोह यदि हो तो भी वह समाजहित में ही होनी चाहिए। समीक्षा में आलोचना होती है, उसके अच्छे और बुरे पक्ष की तरफ हम ध्यान केन्द्रित करते हैं। लेकिन यहाँ पोस्ट अन्य विचारों के लिए भी आमन्त्रित की जाती है। इसलिए विभिन्न विचारों में अनावश्यक बहस नहीं होनी चाहिए। क्योंकि सभी के अपने विचार है। आपको सभी को स्वीकार करना चाहिए। यहाँ हम कुछ सीखने आए हैं, मैं तो बस इतना ही ध्यान रखती हूँ, देने का भाव तो बिल्कुल ही नहीं है।
` बहुत कुछ सीखा है यहाँ '
सब कुछ सीखा हमने, ना सीखी होशियारी :)
कुछ टिप्पणियाँ कैसे होती है ज़रा देखें :
एक बढ़िया पोस्ट के लिए बधाई - (लिखना बेमानी है)
सारगर्भित पोस्ट (लिखकर क्या होगा)
भावपूर्ण अभिव्यक्ति (ब्लॉग जगत में लगभग हर कविता तथा गज़ल आदि के लिए स्टेंडर्ड टिप्पणी)
ऐसे ही कई जुमले देखने को मिलते हैं ..
सतीश जी, राकेश जी तथा अजीत मैडम ने बहुत सही कहा है टिप्पणी तथा टिप्पणीकारों के बारे में. असल में नए लेखकों के लिए तो टिप्पणी लाइफ सेविंग दवा की तरह होता है. जिस दौर से मैं गुजार रहा हूँ और सभी ब्लॉगर कभी गुज़रे थे उनके लिए टिप्पणी कॉन्फिडेंस बढाने का काम करती है.. अक्सर नए लेखकों (या कहें ब्लोग्स) पर टिप्पणी सिर्फ इसलिए दी जाती है ताकि नया ब्लॉगर उनके ब्लॉग पर आकर टिप्पणी दे दे. खैर हर जगह अच्छे लोग भी होते हैं.
Like likes like. जल्दी ही सारे भेद खुल जाते हैं..
टिप्पड़ी में शालीनता आवस्यक है अपनी बात को बिनाम्रता पुर्बक लिखना ,यह तो पुस्तक समीक्षा जैसा ही होता है .लेख पूरा पढने क़े पश्चात् ही टिप्पड़ी करना चाहिए.वैसे मै भी पोस्ट लिखने में नया हू.
ऐसे पोस्ट क़े लिए बहुत- बहुत धन्यवाद
मै समझता हूँ लेख पर टिप्पणिया देने से पहले हमे अपने पूर्वाग्रह को बाहर निकला लेना चाहिए . किसी पर व्यक्तिगत आक्षेप वाली बात पोस्ट कि आत्मा के साथ खिलवाड़ है . टिप्पणिया विषयगत ही होनी चाहिए भले ही वो आलोचनात्मक क्यू ना हो ., बाकी सारे बाते मेरे पूर्ववर्ती टिप्पनिकारो ने कह दी है . अच्छी चर्चा.
मैंने अपने लिए आचार संहिता बना रखी है। दूसरों का हमें मालूम नहीं, क्यों कि दिव्या जी जब मैं भी नया आया था तो मुझे बड़ा अजीब लगता था लोगों का आपस में सिर फुटौअल। तब मैंने एक सिलसिला लेखन शुरु किया था,चिठियाना-टिपियाना संवाद के नाम से। शायद उसका अगला अंक कल के फ़ुरसत में आए। पर जो मूल में है कि कुछ भी कह लीजिए हर तीसरे दिन कोई नया शगूफ़ा खड़ा होगा। और तब यह कहना पड़ा मुझे कि
है पता हमको वहां पर कुछ नया होगा नहीं
हाथ में हर चीज़ होगी आइना होगा नहीं।
टिप्पणी की भाषा निश्चित रूप से मयार्दित होनी चाहिए, इसमें दो राय नहीं। लेखक को प्रोत्साहित करना भी आवश्यक है। पाठक को चाहिए कि लेखक या कवि के मन में लिखते समय जो मनोभाव थे, वही मनोभाव वह अपने मन में पढ़ते समय उत्पन्न करने का प्रयास करे। लेकिन यही सबसे कठिन काम है। प्रसिद्ध दार्शनिक रैने डेकार्टे का कहना है-‘हमारे मतभेद का कारण यह नहीं है कि हममें से कुछ व्यक्तियों के पास अधिक तर्कबुद्धि या विवेक का अंश है, बल्कि इसलिए कि हम विभिन्न प्रकार से सोचते हैं और एक ही से लक्ष्यों पर ध्यान केन्द्रित नहीं करते।‘...किसी पर आक्षेप लगाना नितांत अनुचित है। मतवैभिन्य होने पर नाराज नहीं होना चाहिए। वास्तव में सारे फसाद की जड़ विचार प्रकटन में भाषा की अक्षमता ही है। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने लिखा है-‘शब्द सदा सामान्य अर्थ प्रकट करते हैं, कवि या लेखक विशिष्ट अर्थ देना चाहते हैं। लेकिन क्या सब उस विशिष्ट अर्थ को समझ पाते हैं? बिल्कुल नहीं, कोई बड़भागी होता है जिसके दिल की धड़कन कवि या लेखक के दिल की धड़कन के साथ ताल मिला पाती है।‘ इसलिए टिप्पणी देते समय थोड़ा सजग रहें।
हां तो पिछली टिप्पणी से बात को आगे बढाता हूं। मैंने अपने लिए आचार संहिता बनाई है। पालन भी करते हैं। हम तो यह मानते हैं कि
जोदि तोर डाक शुने केऊ न आसे तबे एकला चलो रे।
१. कोई अशिष्ट शब्द का प्रयोग नहीं करना।
२. किसी को बुरा नहीं करना
३. अपनी आइडेंटिटी हमेशा डिस्क्लोज़ करना
४. टिप्पणी में पोस्ट नहीं लिखना
५. जो आपके ब्लॉग पर आए-न आए, उसे ज़रूर प्रोत्साहित करना, "बहुत अच्छी प्रस्तुति" लिख कर ही सही, चाहे अगला इसका जो भी माने लगाए।
एक अनुभव शेयर करूंगा, जब डेढ दो महीने की ब्लॉगिंग हो गई थी तो पहली बार हमारे ब्लॉग पर उड़न तश्तरी का पदार्पण हुआ और उनके दो शब्द "उम्दा रचना" ने जितना मेरा मनोबल बढाया उतना आज तक किसी टिप्पणी ने नहीं बढाया है। वो तब के टॉप के ब्लोगर थे, और हम नौसिखुआ। उनके दो शब्द ने मुझे निरंतर ऊर्जा प्रदान की और अच्छा से अच्छा लिखते रहने को प्रेरित किया। तो पता नहीं आपके कौन से शब्द किसी रत्नाकर को वाल्मीकि बना दे। इसलिए सबको प्रेरित और प्रोत्साहित करने के संकल्प के साथ ये नौ अक्षरी मंत्र जपते रहता हूं "बहुत अच्छी प्रस्तुति।"
टिप्पणियों के बारे में सबने अपने-अपने विचार रखे हैं, सतीश जी, अजित गुप्ता जी, उत्साही जी, सही कहा है आप सब ने इन्हें पढ़कर मेरी भी सहमति कुछ इसी तरह की ही जाहिर होती है, आपका हमेशा की तरह फिर एक बार फिर सुन्दर प्रयास है यह, बस यही शुभकामनायें हैं लेखनी यूं ही चलती रहे प्रगति पथ पर .....।
आज आपने मुझसे मेरी आचार संहिता के विरुद्ध अपने पोस्ट के टिप्पणी बक्से में एक पोस्ट लिखवा ही डाली।
अब आता हूं अपनी ओरिजिनल टिप्पणी इस्टाइल में
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
सर्वमंगलमंगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोsस्तु ते॥
महाअष्टमी के पावन अवसर पर आपको और आपके परिवार के सभी सदस्यों को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई!
स्वरोदय महिमा, “मनोज” पर!
टिप्पणी लेख की अनुपूरक हो/समीक्षा हो तो क्या बात है
दिव्या जी ...क्या बताऊँ कैसी टिप्पड़ी होनी चाहिए ?...
मुझे तो खुद ही नहीं पता........दसरों की टिप्पड़ी पढ़कर
कुछ जानने की कोशिश करता हूँ कि कैसी टिप्पड़ी होनी चाहिए.
आपकी ये पोस्ट शानदार लगी.
अच्छे सवाल लगाए हैं!
--
यह एक उपयोगी पोस्ट प्रकाशित की है आपने!
अभी अभी पढा।
व्य्स्त हूँ। कल त्योहार है।
कुछ देर के लिए कम्प्यूटर से अलग रहूंगा।
अवश्य आपके सवालों का जवाब देने की कोशिश करूँगा।
बस थोडा इन्तजार कीजिए।
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
सभी ब्लोगर्स अपनी पसंद और सामर्थ्य अनुसार लिखते हैं । ज़ाहिर है हर लेख या रचना में कुछ न कुछ तो अच्छा होता ही है । टिप्पणी में हमें उन अच्छाइयों का ज़िक्र अवश्य करना चाहिए । यदि कोई गलती है तो विनम्रता पूर्वक उसे इंगित करना चाहिए ।
डा० अमर कुमार जी ने प्रभावशाली मंथन कर डाला।
उनके प्रस्तूत सार को हमारी भी सहमति।
॰॰"टिप्पणीकर्ता को यह आँक लेना चाहिये कि पोस्ट लेखक के आलेख की मँशा क्या है, और..
उसकी अगँभीर दिखने वाली भाषा में निहित गँभीर सँदेश को पकड़ पाने की वह कितनी क्षमता रखता / रखती है ।"॰॰
अधिकतर लोग तो यहाँ ऎसे हैं जो पोस्ट पढे बिना ही वाह वाह, बहुत सुन्दर टीप जाते हैं
The word Tippani in Hindi has many equivalent meanings in English, It could mean :
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Given the nature of the mind behind the scenes,it is all but easy to "let go" making it appear like a comment which in fact could be more than that. While for some, tippani is all but a vague second guess. As has been evident in few of the tippanis on this site....Thanks Zeal, another very nice topic up for grabs.
wow what a post.....
ha ha ha.....
jokes apart..
i thing every topic has been discussed here in detail...
so nothing new to say...
waiting for your next post...
सतीश जी और राजेश जी ने लगभग सभी प्रश्नों के उत्तर दे दिए।
मर्यादा में रहकर ही अपनी बात कहना उचित है। व्यक्ति नहीं, लेख महत्वपूर्ण होना चाहिए लेकिन कमेंट करने वाले के चेहरे के साथ-साथ दूसरे पोस्ट में अभिव्यक्त उनके विचार भी जेहन में आ ही जाते हैं अतः पूर्णतया पुर्वाग्रह मुक्त होना भी कठिन है.
सुंदर, वाह, बहुत खूब जैसी टिप्पणियों का भी महत्व है..कई बार तो ऐसा भी होता है कि पढ़कर सुंदर के अलावा कुछ लिखने की क्षमता ही नहीं रहती..तो क्या उस पर जबरदस्ती ज्ञान प्रदर्शित करके मूर्ख बनना है ?
@सुज्ञ जी ,
आप की बात से पुनः पूर्णतया सहमत
पर मैं एक विचार जरुर रखना चाहूँगा .
लेखक अपने विचार और लेख का मूल भाव शब्दों से व्यक्त करता है .हिंदी में हर भाव के लिए अलग शब्द है और हर भाव अपना स्वतंत्र अर्थ प्रकट करता है .
पाठक लेख का अर्थ उन शब्दों के माध्यम से ही समझेगा जो लेखक ने अपना भाव प्रदर्शित करने के लिए प्रयुक्त किये है .
अतः शब्दों का चयन बड़ी ही सावधानी से करना चाहिए .
जैसे मर्यादा शब्द नैतिकता का का प्रतीक है . तो इस का अर्थ नैतिकता से ही लिया जायेगा .पर बंधन शब्द के साथ ऐसा नही है .
मैं छमा चाहूँगा अगर मेरी बात किसी को गलत लगे पर मुझे जो लगा वो मैंने कह दिया .
टिप्पणियों की टिप्पणी पर टिप्पणी करना सचमुच बहुत जोखिम का काम है। सबके विचार मिल जाना बहुत बुरी स्थिति है। कोई दूसरा विचार ही नहीं होगा तो समाज का विकास रुक जाएगा। अलग-अलग विचार होंगे तभी विचारों की दुनिया फले-फूलेगी। इसमें बुरा मानने वाली भावना नहीं होनी चाहिए। आपकी यह पोस्ट काफी अच्छे सवाल उठाती है और उनका जवाब भी खुद ही देती है। आभार
हम तो महज इतना समझते हैं कि जो लेखक की मूल भावना को समझे बगैर कुछ भी टिप्पिया जाते हैं,वे चाहे निन्दा करें या प्रशंसा. सहमति जताएं या असहमति. मेरी नजर में उसका कोई मूल्य नहीं. लेकिन ब्लागिंग में अधिकतर लोग ऎसे ही मिलेंगें, जिनकी नजर में टिप्पणियों की गुणवत्ता की अपेक्षा उनकी संख्या अधिक महत्व रखती हैं.....
लेखक/लेखिका अपने विचार देने के लिये स्वतन्त्र हैं और टिप्पणीकार अपने विचार देने के लिये।जिसका जितना ज्ञान और अध्ययन होगा और जैसे उसके संस्कार होगे वो वैसी ही टिप्पणी कर पायेगा।किसी की सहमति/असहमति से लेखक/लेखिका को विचलित न होना चाहिये बल्कि पूरी मजबूती से अपने विचारों पे डटे रहना चाहिए फिर मर्यादा/अमर्यादा से फर्क क्या पड़ता है?
जीवन में भूल-चूक कर भी अपनी इन्द्रियों के बहाव में मत बहो
ब्लॉगजगत में टिप्पणी की बात चले और मेरा नाम न आये तो बड़ा खाली खाली से लगता है...डॉ अमर ने मान रखा. :)
बाकी तो टिप्पणी अपनी अपनी समझ सबकी.
उडन तश्तरी जी का विचार उचित है... उनका नाम आना ही चाहिये, जहां न पहुंचे कवि, वहां पहुंचे उड़न तश्तरी... डाक्साब की टिप्पणी तो लुहार वाली होती है. बाकी गाली गलौज न हो तो कैसी भी हो चलेगी.. :)
टिप्पणियां कैसी होनी चाहिए ?
प्रासंगिक, शालीन भाषा में और विषय से न हटकर।
क्या टिपण्णी लिखते वक़्त किसी प्रकार के पूर्वाग्रह होने चाहिए ?
हो सकता है, क्यों नहीं। लेखक का पूर्वाग्रह जब हो सकता है तो टिप्पणी करने वाला का क्यों नहीं।
क्या टिपण्णी में व्यक्तिगत आक्षेप होना चाहिए ?
नहीं। ब्लॉग लेखन में भी किसी अन्य ब्लॉग्गर पर या पाठक पर व्यक्तिगत आक्षेप न हो।
क्या लेखक ने जिस भावना को लेकर लेख लिखा है , पाठक को उसकी मूल भावना को समझना चाहिए ?
यदि वह समझा जा सकता है तो अवश्य समझना चाहिए। लेकिन जब लेख का स्तर उत्तम न हो या लेखक की अभिव्यक्ति ठीक न हो तो उनको समझना कठिन हो जाता है या समझना गैर जरूरी हो जाता है। हर ब्लॉग पठनीय नहीं होता। कई लोगों के लेखों को मैं साइबर कूडा ही कहूँगा। निकृष्ठ लेख टिप्पणीकारों की मोनोपोली नहीं होती।
क्या लेख को पूरी तरह खारिज कर देना ही पाठक का उद्देश्य होना चाहिए ?
यदि लेख पूरा का पूरा गलत लिखा हो तो क्यों नहीं?
क्या अपनी टिपण्णी में लेखक को थोडा सा प्रोत्साहन नहीं देना चाहिए।
यदि प्रोत्साहन देता है तो ठीक। पर ब्लॉग लेखक को चाहिए कि किसी टिप्पणीकार का प्रोत्साहन पर निर्भर न हो।
उसकी यह अपेक्षा की हर पाठक को टिप्पणी छोडकर जाना चाहिए, यह गलत है।
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क्या हतोत्साहित करना आवश्यक है ?
नहीं। पर यदि किसी ने हतोत्साहित करने की कोशिश की, तो लेखक को हतोत्साहित नहीं होना चाहिए।
ब्लॉग्गर को न केवल निडर होना चाहिए बल्कि बलवान होना चाहिए। शब्दों के तीरों से प्रभावित नहीं होना चाहिए। खाल मोटी होनी चाहिए।
क्या अपमानित करना जरूरी है ?
नहीं। पर ब्लोग्गर को भी टिप्पणीकार का अपमान नहीं करना चाहिए। यदि टिप्पणीकार ने कुछ बक दिया तो उस टिप्पणी को मिटा देना चाहिए। उत्तर देने की कोई आवश्यकता नहीं।
यदि किसी गलती की तरफ ध्यान दिला रहे हैं , तो क्या सम्मानित भाषा नहीं प्रयोग कर सकते । क्या नीचा दिखाना जरूरी है ?
सम्मानित भाषा का प्रयोग अच्छे टिप्पणीकार करते हैं। अभद्र भाषा को नजरंदाज़ करके टिप्पणी मिटाने में ही समझदारी है।
चर्चा और विमर्श में तरह-तरह के विचार आते हैं, जो हमारे विचारों से सर्वथा भिन्न भी हो सकते हैं, तो क्या हमें बुरा मानकर उसके ब्लॉग पर जाना छोड़ देना चाहिए ?
यदि विचार बिल्कुल नहीं मिलते तो क्या हर्ज है। ब्लॉग मत पढो। या टिप्पणी मत करो। या टिप्पणी को नजरंदाज कर दो या मिटा दो। दोनों (ब्लॉग्गर और पाठक) को यह छूट होनी चाहिए।
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यदि पाठक के विचार लेखक से न मिलें तो क्या लेखक को कन्फ्यूज्ड कहना उचित है ?
उचित तो नहीं है। पर यदि पाठक ने ऐसा कह भी दिया तो उसे भूल जाओ। उत्तर देने की आवश्यकता नहीं है।
बद्ले में पाठक को कन्फ़्यूज़्ड न कहें। पब्लिक मूर्ख नहीं। सब जानती है और खुद निश्चय करेंगे कि कौन "कनफ़ूज़्ड" है, ब्लॉग्गर या पाठक।
पाठक को अपने विचार शालीनता से रखना चाहिए अथवा थोपना चाहिए ?
यदि शालीनता से रखता है तो बहुत अच्छा। नहीं रखा तो टिप्पणी मिटा दो।
टिप्प्णी मिटाना moderation से भिन्न है।
क्या मत-वैभिन्न होने से हमें एक दुसरे से नाराज होना शोभा देता है ?
नाराज नहीं होना चाहिए, टिप्पणीकार को और ब्लॉग्गर को भी। बस अपने अपने रास्ते नांपो।
ब्लॉग्गरों की कोई कमी नहीं हैं टिप्पणीकार के लिए। वह कहीं और चला जाएगा
टिप्प्णीकारों की भी कोई कमी नहीं है, ब्लॉग्गर के लिए। और लोग आ जाएंगे कहीं से, टिप्प्णी करने के लिए।
और वैसे भी एक निष्ठावान ब्लॉग्गर को टिप्पणी की गिनती में अपना समय और उर्जा नहीं गंवाना चाहिए। उसे केवल श्रेष्ठ लेखों से मतलब होना चाहिए। श्रेष्ठ लेखों के लिए कहीं न कहीं से अपने आप पाठक मिल जाएंगे चाहे इसमे थोडा समय लगे।
यदि मैं ब्लॉग्गर होता तो मेरे लिए एक एक दर्जन दमदार टिप्प्णी काफ़ी हैं। सौ दो सौ साधारण टिप्पणी की मुझे इच्छा नहीं।
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एक विषय पर विचार नहीं मिलते तो किसी न विषय पर तो विचार मिलेंगे ही । तो दूर जाने की आवश्यकता है क्या ? क्या थोड़ी दूर साथ नहीं चल सकते ?
अवश्य चल सकते हैं। सभी ब्लोग्गर हर समय श्रेष्ठ लेख तो नहीं पेश करते। यदि पाठक को लेख पसन्द नहीं आया और उसने टिप्प्णी नहीं की तो ब्लॉग्गर को इसमे कोई प्रोब्लेम नहीं होना चाहिए। यह टिप्पणी की भूख और लालच, कई ब्लॉग्गरों का जीवन हराम कर देता है। एक अच्छे ब्लॉग्गर को चाहिए कि टिप्पणी गिनना छोड दें, विशेषकर अन्य ब्लॉग्गरों के लेखों पर। आजकल टिप्प्णी की गिनती ब्लॉग के लिए एक तरह का TRP rating बन रहा है। ऐसा नहीं होना चाहिए।
क्या दिये और बाती की तरह , पाठक और लेखक सदा -सर्वदा साथ नहीं रह सकते ?
यह तो ब्लॉग्गर और टिप्पणीकार पर निर्भर है। यदि wave length match होता है तो अपने आप साथ चलेंगे और यह संपर्क मित्रता में बदल जाएगा। यदि नहीं होता तो कौनसी आफ़त आ गई ? अपने अलग रास्ते पर चल सकते हैं । मित्रता न होने का मतलब यह नहीं के शत्रु बन जाएं।
मेरे कुछ पाठक जो मेल ते टिपण्णी भेजते हैं और अक्सर ये लिखते हैं की पब्लिश नहीं करियेगा । उनसे ये पूछना है की ऐसा क्यूँ है आखिर ? उनकी टिप्पणियां तो इतनी खूबसूरत होती हैं की लिखने वाले की उँगलियों को चूम लेने का दिल करता है।
यदि कोई पाठक ब्लॉग्गर को प्राइवेट मेल भेजकर पब्लिश न करने को कहता है तो ब्लॉग्गर को उसकी बात माननी चाहिए चाहे उस पाठक की उंगली चूमने लायक हो या न हो। कई टिप्पणीकार अपने विचार केवल लेखक तक पहुंचाना चाह्ते हैं। कभी कभी तो ब्लॉग साइट संग्राम क्षेत्र बन जाता है और यह लोग इस जंग में यदि भाग नहीं लेना चाहते तो यह उनकी मर्जी है।
वैसे यह चूमने वाली बात हमें अच्छी लगी। ब्लॉग्गरों का भी लक्ष्य यही होना चाहिए कि वे इतना बढिया लिखें की पाठकों को ब्लॉग्गर के कलम चूमने का मन करें।
लो, मेरी टिप्प्णी तो आपकी पोस्ट से लंबी हो गई।
क्या पता अब आपका अगला सवाल शायद यह होगा के एक टिप्पणी की लंबाइ कितनी होनी चाहिए?
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
टिप्पणी विषय के अनुसार होती है । व्यक्ति के विचार अलग-अलग होने के कारण वह किसी के लिए बहुत अच्छी हो सकती है तो किसी के लिए निर्थक । फिर पोस्ट पढ़ते समय टिप्पणीकार की जो मनोदशा बनती है ...वह भी टिप्पणी में झलकती है । पर ज्यादातर टिप्पणीकार टिप्पणी को रस्म अदायगी भर मानते हैं और रचना पर सार्थक टिप्पणी देने से बचते हैं । कुछ टिप्पणीकार केवल इसलिए टिप्पियाते हैं ताकि उनके ब्लॉग तक दूसरे लोग पहुँचे ...लेकिन ऐसे टिप्पणीकारों को यह समझ नहीं होती कि जब तक आप में दूसरों को पढ़ने का धैर्य और समय नहीं है तो दूसरा क्यों उसकी पोस्ट में रुचि लेगा । फिर, हिंदी ब्लॉग जगत में गंभीर लेखन की ओर झुकाव अभी बहुत कम दिखाई पड़ता है । गंभीर या विवादास्पद विषयों पर लोग टिप्पणी देने से बचते दिखाई देते हैं । महिला ब्लॉगरों को, किसी भी विषय पर लिखने पर, प्राय: टिप्पणियाँ अधिक मिलती हैं । कहीं न कहीं यह महिला ब्लॉगरों के प्रति आकर्षण को भी सूचित करता है ।
ब्लॉग जगत में गंभीर विषयों पर लेखन और उन टिप्पणियाँ दोनों का अभाव खटकता है ।
टिप्पणी लेख से संबधित हो, विश्लेष्णात्मक हो, जिस पर बहस की जा सके ! ऐसे चाह है , अब ये नहीं पता कि आचार संहिता कैसे बने इसकी ?
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पाठकों की गंभीर टिप्पणियों से मेरा मार्ग दर्शन हुआ है। सभी के पृथक-पृथक , तथा इमानदार विचार एवं सुझाव बेहद सराहनीय लगे । मेरे बहुत से अनुत्तरित प्रश्नों का उत्तर भी मिला। एक सही दिशा भी मिली।
आप सभी के सहयोग की ह्रदय से आभारी हूँ।
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विश्वनाथ जी,
इतनी गंभीर टिप्पणियों के मध्य आपकी टिपण्णी की अंतिम पंक्तियों ने एक मुस्कराहट ला दी। कमेन्ट की लम्बाई के विषय में किसी ने प्रश्न नहीं करुँगी , बल्कि यही कहूँगी की कमेन्ट यदि सचमुच पोस्ट से लम्बा हो तो ये लेखक के लिए उपलब्धि ही होगी।
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एक बार पुनः अपने विद्वान् साथी ब्लोगर तथा टिप्पणीकर्ताओं का ह्रदय से आभार।
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देर हो गई,फिर भी कुछ कहुंगा ----
टिप्पणी संक्षिप्त हो ,विषय पर हो ,मर्यादित भाषा में हो ।
अच्छा विमर्श .
सतीश सक्सेना जी व डा. अमर कुमार जी की टिप्पणियां मेरी भी मान लें .
हमें एक दूसरे के विचारों की इज्ज़त करनी चहिये. विचार ना भी मिलते हो तो भी मुहब्बत काएम रखी जा सकती है. वैसे ब्लॉग पे ८०% कमेन्ट तो एक तरह से इन बात का न्योता हुआ करता है, की आप भी हमारे ब्लॉग पे आयें और कमेन्ट करने वालों की गिनती बढाएं.
लेख़ पढ़ के इमानदारी से कमेन्ट किये जाएं, फिर वोह चाहे तारीफ के हों, आभार के हों या नसीहत के सब ठीक है.
Part 03 of 03
Sending comments on mail is the particular reader’s strategy to get ‘private attention’ of the writer and that is only possible when the writer allows it. If the writer is not fine with it, the only [short and not necessarily sweet] reply to such a request should be – “Do not write a mail to me. This is not a public domain arena like the blog.” But then, if the writer chooses to publish personal email id, then people will tend to misuse it. The writer has to take his/her call on that.
I began with a couplet by Faraz [who is considered to be a modern-day Ghalib] and conclude I shall with a couplet by Ghalib:
Ishrat-e-qatl_gaah ahal-e-tamannaa mat puchh
Idd-e-nazzaaraa hain shamsheer kaa uriyaa honaa
[Ishrat = Delight, Qatl_gaah = Abattoir,
Ahal-E-Tamannaa = People’s Wish,
Idd-E-Nazzaaraa = Joyous Festivity Of Idd,
Shamsheer = Sword, Uriyaa = Unsheathed]
Arth Desai
ओह! क्या लिखूं ...पहले से ही परिपूर्ण है ......फिर वही बात ......पोस्ट्स से ज्यादा टिप्पणिओं में सार !
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