Wednesday, October 27, 2010
एक खूबसूरत महिला का आतंक -- भारतीय संस्कृति की चिता मत जलाइए -- Hiss
निर्देशक जेनिफ़र लिंच द्वारा निर्देशित फिल्म -'हिस' में अभिनेत्री मल्लिका ने भारतीय संस्कारों को तिलांजलि दे दी है। पैसे और शोहरत के लिए पहले अपनी आत्मा को बेचा, फिर तन के कपड़ों को । और अब भारतीय संस्कृति की चिता जला दी।
फिल्म हिस्स हमारी सभ्यता एवं संस्कृति के अनुकूल नहीं है। सर्प बनी ये विष कन्या हमारी संस्कृति एवं स्त्री की अस्मिता पर ही विष-वमन कर रही है। लाखों नवयुवकों एवं नवयुवतियों को सही पथ से भ्रमित करती हैं ऐसी अश्लील फिल्में ।
आज मिसाल देने वाली फिल्में तो जैसे बनना ही बंद हो चुकी हैं । परिवार के साथ बैठकर पहले फिल्मों को देखा जा सकता था , लेकिन आज कल बेशर्मी की हद से गुजर जाने वाली फिल्मों को आप साथ बैठकर नहीं देख सकते। बच्चों की मानसिकता को बुरी तरह विकृत करने वाली ऐसी फिल्मों का पुरजोर बहिष्कार होना चाहिए।
इस फिल्म की निर्देशिका जेनिफर इसकी जिम्मेदार है या फिर अन्य लोग जिन्होंने इस फिल्म को अंजाम दिया वो ? या फिर मल्लिका का भाई विक्रम ? चाहे जो भी हो , लेकिन एक अकेली स्त्री मल्लिका इस घिनौने शारिक-मानसिक आतंकवाद को रोक सकती थी । लेकिन नहीं , निज स्वार्थ ने सभी को अँधा कर दिया है।
क्या हम अपनी भारतीय संस्कृति बचा सकेंगे ?
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105 comments:
आपसे सहमत. निर्माता और निर्देशक का भी हमारी संस्कृति को कलंकित करने का उतना ही योगदान है
पैसे के लिये कोई कुछ भी कर सकता है, मल्लिका जैसा..
bilkul sahi kaha aapane.....
इन बढती हुयी विष कन्याओं की तादाद को देख कर तो नही लगता कि हम अपनी संस्कृ्ति को बचा पायेंगे। मैने तो फिल्मे देखना ही छोड दिया है। शुभकामनायें।
१००% सहमत आपकी बात से.
मुझे लगता है आज कल की फिल्मों में नग्नता एक अनिवार्य तत्व हो गया है.फिर भी गनीमत इस बात की है की यदा कदा भूले भटके चक दे इण्डिया जैसी फ़िल्में शायद गलती से बन जाती हैं और हिट भी हो जाती हैं.
हिस्स जैसी फिल्मों को बैन करने का सुझाव भी नहीं दिया जा सकता क्योंकि ऐसा करने से बिना खर्च मार्केटिंग भी हो जाती है.
जहाँ तक बात भारतीय संस्कृति को बचाने की बात है तो यहाँ उल्टा हो रहा है.ओबामा और शकीरा हाथ जोड़ कर नमस्ते करते हैं और हम भारतीय हाय और हेलो से दोस्ती किये हैं.अमरीका में वैदिक संस्कृति पर शोध हो रहे हैं और यहाँ हम खुद के इतिहास को भूलते जा रहे हैं.पश्चिमी देशों में भ्रष्टाचार करने वाला राष्ट्रपति ही क्यों न हो कड़ी सजा भुगतता है और हमारे यहाँ भ्रष्ट लोग किस मौज में जीते हैं इसकी मिसाल कहीं और नहीं मिलेगी.
भारतीय संस्कृति आज अगर बची ना होती तो करवाचौथ का व्रत स्त्रियाँ नहीं पुरुष रख रहे होते. अभिनेत्री मल्लिका जैसी बहुत सी हैं, और इनका क्या दोष, इनको पैसा कमाना है, जो बिकता है, बेचा जा रहा है. बदलना तो खरीददार हो होगा, जब कहीं जा के यह अश्लीलता कम होगी. अधिक पढ़ें. वे सिमिलैरिटी यानी समानता की बात करते हैं और हम इक्वैलिटी यानी बराबरी की बात करते हैं स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पे व्यभिचार
सी ग्रेड फिल्मों की बात ही क्यों?
"ज़ी क्लासिक" पर बहुत अच्छी फिल्में अक्सर मिल जातीं हैं वो देखा कीजिये!
शर्मनाक परन्तु सत्य
इस में क्या किया जा सकता है अधिकतर हिन्दुओ का धर्म अब पैसा है सनातन संसकृति नही
hisssss ka dank bahut gehra hai ... zara bach ke ... :))... waqt badal raha hai .. dekhte hai aage kya kya hota hai ...
इस फ़िल्म को न देखा है न ऐसी फ़िल्में देखने का इरादा रखते हैं।
कहीं न कहीं हम भी तो ज़िम्मेदार हैं, ऐसी फ़िल्में देख कर! बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई!
राजभाषा हिन्दी पर - कविताओं में प्रतीक शब्दों में नए सूक्ष्म अर्थ भरता है!
मनोज पर देसिल बयना - जाके बलम विदेसी वाके सिंगार कैसी ?
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@- संवेदना के स्वर--
लेखिका को ये पोस्ट लिखने के लिए इस फिल्म को देखने की जरूरत नहीं है। फिल्म का जिक्र तो हर न्यूज़ चैनल पर छाया है।
अश्लीलता से भरे सीन्स के खिलाफ लिखना उचित समझा , इसलिए लिखा। इसे , फिल्म देखने के बाद की समीक्षा मत समझिये ।
मुझे ये भी पता है की जो यहाँ टिपण्णी कर रहे हैं, उनमे से ज्यादातर ऐसी फिल्में नहीं देखते।
आभार।
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Mam!! misal ke kabil bhi bahut movies ban rahi hai, haan, wo alag hai ki aisee movies apni gandagi jayda dikha jati hai..........:)
par koi nahi aisa to chaltra rahega, bhartiya sabhyata ko aise bahut saare mallika se waasta padta raha hai.......:)
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होने दो
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जो रहे गुप्त ना स्वयं कभी
उसका उदघाटन होने दो.
क्या कर लेगा ईश्वर देखें
हाँ पतन और कुछ होने दो.
मरने दो नारी की लज्जा
होने दो ह्री को वसनहीन
कब तलक रहेंगे बंद नयन
मम के, संयम होता विलीन.
सभ्यता मरेगी जब कल को
होवेगी वसुधा रोने को.
इससे तो अच्छा आज सही
भ्रूणों की ह्त्या होने दो.
कन्या कलंक होने का डर
है तो फिर उसको होने दो.
जब जीना उसको दिखा गात
तो अंग नंग सब करने दो.
कन्या वध करना बुरी बात
जो कहे उसे फिर कहने दो.
वे वीर बहुत जो गर्भपात
करवा देते खुश रहने को.
जब भोग भला ही है इनको
दस बीस शादियाँ करवा दो.
सभ्यता मरे चाहे जीवे
नंगा ही इनको मड़वा दो.
सीता सावित्री दक्षसुता
जलने मरने दो, रोने दो
द्रोपदी पाँच पति की रखेल
अब छोड़, सभी की होने को.
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कविता में विपरीत लक्षणा है,
मुझे क्रोध में केवल क्राइम सूझता है. तब चलती क्रोध की चक्की में घुन नहीं दिखाई देते.
क्या इसे ही शिव का तीसरा नेत्र खुलना कहते हैं?
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शब्दार्थ :
ह्री — लज्जा का पर्याय
दक्षसुता — पार्वती.
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क्या हम अपनी भारतीय संस्कृति बचा सकेंगे ?
@ हम एक तरफ बात करते हैं नारी शिक्षा, अधिकार और स्वतंत्रता की.
दूसरी तरफ बात करते हैं भ्रूण-ह्त्या, कन्या-वध, और सती-प्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियों को जड़ से समाप्त करने की.
यदि शिक्षा और अधिकार देने से नारी इतनी स्वतंत्र हो जायेगी कि उसे शालीनता का विवेक न रहे तो क्योंकर भारतीय संस्कृति के पहरेदार अपढ़ समाज में व्याप्त कुरीतियों को समाप्त करने की सोचेंगे.
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पैसा भगवान है ऐसे लोगों के लिये वहाँ देश और संस्कृति को कौन देखता है।
मल्लिका का क्लास ही ऐसा है, यह बी ग्रेड सिनेमा में चलेगी और जैसा की मल्लिका ने सोचा है वह इसका पैसा निकाल लेगी.. फ़िलहाल विक्रम या जो भी इस फिल्म का निर्माता है सिर्फ नाम के लिए.. असल में यह फिल्म तो मल्लिका की ही है.
आप से सहमत हूं!....सेंसर बोर्ड किसलिए गठित किया गया है?....फिल्म की कहानी, कलाकारों का पहनावा, डायलॉग्स, सीन...इत्यादि पर ध्यान देने की बजाए...जाति, धर्म और समाज को ले कर उठ्ने वाले विवादों पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है!
@ Zeal:
सी ग्रेड फिल्मों की बात ही क्यों?
लेखिका को ये पोस्ट लिखने के लिए इस फिल्म को देखने की जरूरत नहीं है। फिल्म का जिक्र तो हर न्यूज़ चैनल पर छाया है।
हमारी टिप्पणी में “ऐसी अश्लील फ़िल्मों की बात ही क्यों” कहा गया है, आपको क्यों लगा कि हमने यह कहा कि फ़िल्म आपने देखी है.
इसे, फिल्म देखने के बाद की समीक्षा मत समझिये।
आपने लिखा है कि आज मिसाल देने वाली फिल्में तो जैसे बनना ही बंद हो चुकी हैं । परिवार के साथ बैठकर पहले फिल्मों को देखा जा सकता था.
उसके जवाब में हमने कहा कि "ज़ी क्लासिक" पर बहुत अच्छी फिल्में अक्सर मिल जातीं हैं वो देखा कीजिये!
बस इतना ही!
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प्रतुल जी,
क्या आपको लगता है की नारी शिक्षित होने के कारण शालीनता भूल रही है ?
क्या मल्लिका की बेशर्मी का कारण उसका शिक्षित होना है ?
क्या जो अभिनेत्रियाँ ऐसा नहीं करती हैं वो अशिक्षित हैं ?
क्या शिक्षा , स्त्रियों की लज्जा एवं शालीनता उनसे छीन रही है ?
कृपया स्पष्ट करें ।
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हम ने तो भारतीया फ़िल्मो को ही देखना बंद कर दिया हे, वेसे एक बात यह भी हे कि विदेशी फ़िल्मो से ज्यादा गंदगी भारतिया फ़िल्मो मे हे, ओर आज कल की हिट होने वाली फ़िल्मो से बच्चे क्या सीखेगे? दबंग जेसी फ़िल्मे केसे नागरिक देगी.... आज की फ़िल्मो की नचनिया पेसो के लिये सब कुछ बेचने दिखाने को तेयार हे.
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@ संवेदना के स्वर --
आपने अपनी बात को स्पष्ट किया, इसके लिए बहुत-बहुत आभार। कभी-कभी misunderstanding हो जाती है , जिसे clear कर लेना बेहतर होता है ।
सहमत हूँ आपकी बात से।
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aapse sahamat...bahut hi vaajib kahi hai aapne.
amryadit pr uttejit hone ka arth hota hai amryadit ko jane anjane our mndit kr dena .aap btaye kya mllika ya dairecter aapki post pe nigah mar rhe hai ? nhi na lekin jinhe nhi bhi pta ho vo is smbndh me jankari lene ko utsuk ho jayenge .
dekhiye divya ji koi to aisa vrg hai na smaj me jo aisi ya esse bhi bhddi , nikrist filme hall me jakr dekhta hai .
ek bdi lkeer ko bina chhuye chhota krna ho to chak uthaiye our theek uske samne us lkeer se bh bdi lkeer kheech dijiye. phle wali lkeet apne aap chhoti ho jayegi our hath bhi gnda nhi hoga . hmare film udyog me bhut se mjhe nirdeshk hai jo isi vishy pr clasic film bna kr eska muhtod jwab de skte hai lekin vo bhi ye jante hai ki ek vrg hai aisa jo sirf mnornjn ke liye aisi filme dekhne hall me jata hai .
mujhe bhut khushi ho rhi hai ki aap jaise log smaj ke prti etna smvedasheel our jagrook vichar rkhte hai . bdhai .
aapne sahi subject chuna hai very nice post
निज स्वार्थ ने सभी को अँधा कर दिया है।
आभार।
"हिस" शीर्षक का नाम सुनते ही हम घबरा जाते हैं।
फ़िल्में तो हम अकेले कभी नहीं देखते। श्रीमतीजी साथ होती है।
मल्लिका की अर्ध नंगी तसवीरे देखते ही उनकी भौंहे तन जाएंगी।
न वह देखेगी ऐसी फ़िल्में और न हमें देखने देगी!
वैसे भी हम फ़िल्में बहुत कम देखते हैं
पिछले साल, ३ idiots, Paa, My name is Khan, और अंग्रेज़ी फ़िल्म Avataar देखी थी।
इस साल पीपली लाइव देखने का प्रोग्राम है पर समय नहीं मिल रहा।
फ़िल्मों को भारतीय संस्कृति का रखवाला समझना तर्कहीन है।
फ़िल्म तो एक धन्धा है। पैसा फ़ेंको, तमाशा देखो।
हम ने पैसा फ़ेंकेंगे, न कोई ऐसी तमाशा देखेंगे।
दिव्या जी,
शिक्षा और संस्कार साथ ही होते है, पर क्या किजे जब लोग शिक्षित होकर संकर संस्कारी (सभी संस्कृतियों का घालमेल)बन जाते है, तभी ये नतिजे आते है। पात्रता का भी असर होता है, चांदी के पात्र में दूध सुरक्षित रहता है वहीं तांबे के पात्र में बिगड जाता है। इसमें दूध(शिक्षा)का क्या दोष।
मै तो मल्लिका की फिल्मे देखता ही नहीं , उनके लिए देह प्रदर्शन एक कला है . जो भारतीय जनमानस को सहज स्वीकार्य नहीं होगी .
बहुत ही सटीक- परिवार के साथ फिल्म देखना मुस्किल हो गया है नग्नता सुन्दरता नहीं हो सकती ----- रहा भारतीय संस्कृति क़ा विषय वह तो सत्य -सनातन है चिरंतन प्रवाह चलता ही रहेगा मल्लिका जैसे लोग हमारे आदर्श नहीं लेकिन चिंतन जरुरी अपने बहुत अच्छा मुद्दा उठाया बहुत-बहुत धन्यवाद .
पैसे के सामने तो लोग अपने मा बाप का पता भूल जाते है फिर देशभक्ति क्या बला है .... और रही बात मल्लिका कि वो नहीं करती तो और कोई करता .... और सब से पहले मर्द ही जाकर उसे देखेंगे फिर देशभक्ति कि बाते करेंगे :)
फिल्मे तो बनाती रहेंगी बस आपको तय करना है क्या देखन है क्या नहीं ...
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फिर से हरियाली की ओर........support Nuclear Power
आपकी पिछली पोस्ट पढ़ी ...
मिहिरजी के बारे में कुछ नहीं कहूँगी .....क्यू कि ये अपनी अपनी बात है और उनकी इस बात से मै सहमत नहीं हू ..क्यू कि उनकी पत्नी का भी कोई पक्ष होगा
पर डाक्टर कि मौत पर बुरा लगा ... मानती हू अभी आप dependent Visa पे है पर रचना जी कि सलाह मुझे काफी हद तक सही लगती है .....
फिल्म जगत में अब धन कमाना ही एकमात्र संस्कृति है,चाहे वे निर्माता-निर्देशक हों या अभिनय करने वाले, भारतीय संस्कृति से उन्हें कोई मतलब नहीं। पश्चिमी फिल्मों का अंधानुकरण् कर रहे हैं -सब के सब।
लोग कहते हैं फिल्में समाज का आईना होती हैं, पता नहीं किस समाज का आईना लेकर मल्लिका जी उपस्थित हुई हैं...भारतीय समाज का तो बिल्कुल नहीं है ...ऐसी फिल्मो का बहिष्कार होना चाहिए ताकि दुबारा कोई और ऐसी फिल्म बनाने की हिम्मत ना कर सके....
पिछले साल एक फिल्म आयी थी कमीने...हालाँकि फिल्म में ऐसा कुछ बुरा नहीं था लेकिन आप ही बताईये क्या ऐसे नामों को सेंसर बोर्ड पास करके सही करता है... घर में हम छोटे छोटे बच्चों को गाली ना देने सिखाते हैं और ये लोग गालियों को ही नाम बना देते हैं...
अजीब लोग हैं....
इसका ट्रेलर आजकल खूब आ रहा है. बड़े वीभत्स दृश्य हैं. हीरोइन मल्लिका शेरावत है तो फिल्म कैसी होगी यह ज़ाहिर है. नाग-नागिन के किस्से अब कौन देखना चाहता है?
सादर नमस्कार एवं आभार,
ऐसे संवेदनशील विषय पर आपने जो कुछ भी कहा वह शत प्रतिशत सच है, निश्चित रूप से ऐसी फिल्मों का निर्माण भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के खिलाफ एवं दुर्भाग्यजनक है....
मल्लिका जैसी अधिकाँश अभिनेत्रियों के लिए पैसा ही सब कुछ है और इस के लिए वे कुछ भी कर सकती हैं...
संस्कृति बचाने की किसे पड़ी है जेब भरो खुश रहो
ek sher men apni bat kahta hun
duppta sir se utra to ,
samjho ki tahjeev nangi ho gayi aur ab.....
जब तक अश्लीलता बिकती रहेगी, ऐसी फिल्में बनती रहेंगी ।
पहले देख ले फिर फैसला करेंगे की दुबारा भी देखे की नहीं .....
सत्यम शिवम सुन्दरम आने पर भी ऐसा ही बवाल मचा था
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# क्या आपको लगता है की नारी शिक्षित होने के कारण शालीनता भूल रही है?
@ नहीं, मुझे लगता है कि नारी शिक्षित होकर शालीनता का घेरा बड़ा करने की कोशिश में है.
# क्या मल्लिका की बेशर्मी का कारण उसका शिक्षित होना है?
@ मेरी जानकारी उनके विषय में न के बराबर है. पत्नी ने जरूर उनके चेहरे से परिचित करा दिया है. अधिक कहूँगा तो मुझको ही लगने लगेगा कि मैं झूठ बोल रहा हूँ.
हम शिक्षित होने से कुंठाओं के पर्दों से तो बाहर आते ही हैं, लेकिन कुछ अधिक शिक्षित [?] होने से सभी पर्दों से बाहर आ जाते हैं.
# क्या जो अभिनेत्रियाँ ऐसा नहीं करती हैं वो अशिक्षित हैं?
@ नहीं, अशिक्षित तो नहीं हैं.
साक्षर होकर और किसी कला में दक्ष होकर अर्थोपार्जन करना शिक्षित होने से थोड़ा भिन्न है. वे उतनी ही शिक्षित हैं कि वे समाज में सम्प्रेषण कर सकें. कम्युनिकेशन तो एक अपढ़ गँवार भी कर लेता है. बस उसकी डिक्शनरी थोड़ी भिन्न और छोटी होती है.
# क्या शिक्षा, स्त्रियों की लज्जा एवं शालीनता उनसे छीन रही है?
@ संस्कृति के पहरेदार शिक्षित और अपढ़ दोनों ही हो सकते हैं. शहरी और ग्रामीण दोनों ही हो सकते हैं. लेकिन अपढ़ और कम-शिक्षित क्षेत्रों में जागरूक परिवारों के मुखिया अपने परिवारों की स्त्रियों की भावी सुरक्षा और शालीनता के प्रति अत्यधिक सचेत रहते हैं. उनके भजन-गीतों तक में स्त्री-सम्बन्धी कई वर्जनाएँ पहचानी जा सकती हैं.
एक भजन का अंश
"पत्नी कितनी प्यारी हो, उसे राज बताना ना चहिये.
बेटी कितनी प्यारी हो, उसे घर-घर घुमाना ना चहिये.
........... ऐसा ही कुछ आगे है. शायद .......... ऐसे कई गीत हैं जिनमे ग्रामीण भारतीय संस्कृति के पहरेदार अपने-अपने तौर-तरीकों से स्त्री-सम्बन्धी वर्जनाएँ तय किये हुए हैं.
शहरी भारतीय संस्कृति के पहरेदार ............ उन सभी बातों को पिछडापन और संकुचित मानसिकता सिद्ध करने में तुले हुए हैं जो नैतिकता के नाम पर या चरित्र के नाम पर सनातन धर्म, अध्यात्म और परम्परावादी समाज स्वीकारे बैठा है.
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आपके प्रश्न का सीधा सा उत्तर है .......... 'शिक्षा' स्त्रियों की लज्जा एवं शालीनता को उनसे छीन नहीं रही बल्कि आधुनिक शिक्षा उन समस्त मूल्यों को अपने भीतर सोख रही है जो स्त्री की भावी जीवन में क्षमता, शक्ति और सुरक्षा का आवरण बन सकती थी.
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फिल्मों से अच्छे संस्कारों की अपेक्षा बहुत कम हो गई है. मेरी देखी पुरानी फिल्मों के विज़ुअल्स कई बार haunt करते हैं खास कर अंग्रेज़ी फिल्मों के. इस आयु में कई बार दुखदायी हो जाते हैं. पर संस्कार तो संस्कार हैं. इनसे बचने के तरीके भी खोज लिए हैं.
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भूषण जी,
आपसे सहमत हूँ।
हिंदी फिल्मों की रूप रेखा आज इसीलिए बिगड़ रही है क्यूंकि हॉलीवुड और बौलीवुड को एक किया जा रहा है। चूँकि इस फिल्म की निर्देशिका भारतीय नहीं है , इसीलिए इतनी गन्दगी आ गयी इस फिल्म में। लेकिन अभिनेत्री तो भारतीय है, उसे तो समझना चाहिए था की क्या करना चाहिए और क्या नहीं।
जब लोग आदिमानव की तरह रहते थे , तब उन्होंने तन को ढकने के लिए पेड़ -पौधे की पत्तियां इस्तेमाल कर लीं, लेकिन आज जब एक से एक खूबसूरत परिधान मुहैय्या हैं तो ये अभिनेत्रियाँ सब कुछ उतारने को आतुर हैं।
मुझे लगता है की इस फिल्म का हर जगह विरोध होना चाहिए। ब्लोग्स में , समाचार पत्रों में,। दूरदर्शन और चैनलों पर , तथा कोई भी ऐसी फिल्मों को देखने न जाए, जिससे इसका भरपूर बहिष्कार हो तथा फिल्म फ्लॉप हो जाए।
ऐसा होने पर निर्माता निर्देशक , ऐसी घिनौनी फिल्में बनाने से पहले सौ बार सोचेंगे।
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प्रतुल जी,
शिक्षा कभी किसी को भ्रमित नहीं करती । शिक्षा तो मनुष्य के विचारों को आयाम देती है। एक नयी दिशा और बेहतर सोच देती है। शिक्षा कभी किसी के पतन का कारण नहीं बन सकती ।
आधुनिक शिक्षा जैसी कोई चीज़ तो कभी सुनी नहीं। हाँ पश्चिम का अन्धानुकरण जरूर हमारे संस्कारों को क्षति पहुंचा रहा है।
लज्जाहीन होने के लिए शिक्षा कैसे जिम्मेदार हो सकती है ?
जो गलत परिवेश में पलते हैं, जिनको सही गलत समझाने वाला कोई नहीं होता है परिवार में वो ही ऐसी अज्ञानता दिखाते हैं। मल्लिका और उसका भाई विक्रम दिग्भ्रमित हैं । दोनों ही अपने संसार भूल चुके हैं या फिर उनमें थे ही नहीं शायद ।
जो अपनी आत्मा को ही बेच चुके हों , उनको शायद ही कोई समझा सके।
केवल हामारी शिक्षा और संस्कार की हमें सही गलत का बोध कराते हैं।
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क्यों न इन्हें भी आतंकवादी घोषित कर दिया जाये।
मैं विश्वनाथ जी से सहमत हूँ !
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प्रवीण जी,
निश्चय ही ये आतंकवादी हैं। स्थापित आतंकवादी इंसानों का क़त्ल कर रहे हैं और खून बहा रहे हैं। लेकिन ये वाले आतंकवादी तो संस्कृति का क़त्ल करके खून के आंसू रुला रहे हैं।
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आप भारतीय सोंच,सभ्यता और संस्कृति में विश्वास रखती है. आपने moderation भी लगा रक्खा है.भारतीय सोंच,सभ्यता और संस्कृति को तार-तार करने वाला प्रतुल जी का गीत comments में नज़र आ रहा है. ये गीत कह रहा है कि:-
मरने दो नारी की लज्जा
होने दो ह्री को वसनहीन
भ्रूणों की ह्त्या होने दो.
कन्या कलंक होने का डर
है तो फिर उसको होने दो.
द्रोपदी पाँच पति की रखेल
अब छोड़, सभी की होने को.
उन्होंने ये भी लिखा कि:-
मुझे क्रोध में केवल क्राइम सूझता है.
आपने इसे प्रकाशित भी कर दिया .
कल से इसे पढ़ कर मैं दुखी हूँ और आपसे गुस्सा भी,
कुँवर कुसुमेश
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कुसुमेश जी,
आपकी नाराज़गी जायज है।
मुझे लगता है प्रतुल जी की कविता में एक आक्रोश है जो समाज में फैली गंदगियों से उत्पन्न है तथा वो ही व्यंग के रूप में उभरा है।
हाँ मुझे इनकी शिक्षा वाली बात से असहमति है , इसलिए उसपर प्रश्न भी किया है। मेरे विचार से शिक्षा ही संस्कारों को जीवित रखती है।
आभार॥
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आधुनिक शिक्षा से तात्पर्य
जो केवल तर्क को ही प्रधानता दे.
आस्था, विश्वास और मान्यताओं को नहीं.
'तर्क' कभी-कभी बनी-बनायी परिपाटी को बिखेरने का कार्य भी करते हैं.
'तर्क' नियमावली की चूलें ढीली कर देते हैं जिस कारण नई पीढी आधुनिकता के व्यामोह में पुरातन संस्कारों की महत्ता भुला बैठती है.
जब अधिक कहना होता है तब कविता ही सहारा होती है. एक कविता 'भारत-भारती वैभवं' ब्लॉग पर आपकी प्रतीक्षा करेगी.
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दिव्या जी,
शायद आदरणीय कुसुमेश जी से मेरे भावों को नहीं समझ पाए और आपने समझा. फिर भी मैं स्पष्ट कर दूँ की मैं केवल अपने माध्यम से समाज की बात कहता हूँ.
और उस कविता में विपरीत लक्षणा है. जिसका अर्थ होता है कि उलटी बात कहकर सीधे अर्थ देना.
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मैंने बचपन में अपनी मौसी जी की पीठ में एक घूँसा मारा और उन्होंने कहा कि "हाँ हाँ और मारो."
मैंने पूछा "क्या ओर मारूं" तब दूसरी मौसी जी ने कहा "इनका मतलब है कि मारने से उन्हें दर्द होता है" इस विपरीत लक्षणा वाली शैली के दर्शन मैंने सबसे पहले उम्र के पाँचवे वर्ष में किये थे.
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व्यंग में व्यंग/कटाक्ष होता है,सपाट बयानी में लेखक के सीधी-सीधी मंशा पता चलती है.
बहरहाल मैं argument नहीं करूंगा.
कुँवर कुसुमेश
मलिल्का तो शुरू से ही गिरी हुई हिरोइन है उसने कभी भारतीय संस्कृति के अनुरूप रोल नही किया, अदाकारी तो आती नही है बस शरीर दिखा कर पैसा कमाना चाहती है।
हिस्स जैसी फिल्म का विरोध न किया गया तो ये हमारी संस्कृति के लिए नुकसान दायक होगा क्योकि खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है
*इस बात से सहमति है कि ऐसी फिल्म बच्चों की मानसिकता को विकृत करती है।
*अच्छा हुआ,यह गलतफहमी दूर हुई कि मल्लिका बॉलीवुड में भारतीय संस्कृति की हिफाजत के लिए है।
*आज की तारीख में,मल्लिका को बतौर नायिका कोई फिल्म मिल रही है,यही कम नहीं है। शायद,यही सोचकर मल्लिका ने भी फिल्म साईन की होगी।
*मल्लिका के हाथ में कुछ नहीं था। वह नहीं तो कोई और होती। अपने करियर के चरम पर श्रीदेवी तक को नागिन बनने से हिचक नहीं थी।
*सारी फिल्में परिवार के साथ देखने लायक ही हों,ज़रूरी नहीं। वैयक्तिकता का सम्मान करना परिवार को भी सीखना चाहिए। अब यह बात और है कि यह फिल्म किसी के लायक नहीं है।
आपके इस लेख का विषय बहुत अच्छा है. आपकी शिकायत भी जायज है.आपको अपनी संस्कृति की बहुत चिंता है .ये जानकार अच्छा लगा.
मल्लिका शेरावत को अभिनेत्री मत कहिये, यह अभिनय कला का अपमान है ...
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Sapaat bayaanii kii ek kavitaa Apekshit pratikriyaa dene waale shrimaan kusumesh jii ko samarpit :
है आर्य सभ्यता अपनी बहुत सनातन
वैदिक संस्कृति की बनी हुई वह साथन
जिसमें नारी को पूरा मान मिला है
जननी देवी माता स्थान मिला है
पर वही आज माता बन गयी कुमाता
कामुकता से भर गयी काम से नाता।
है अंगों की अब सेल लगाया करती
फिल्मों में जाकर अंग दिखाया करती
ईश्वर प्रदत्त सुन्दर राशी का अपने
वह भोग लगाकर, खाना खाया करती।
क्या लज्जा की परिभाषा बदल गयी है?
क्या अवगुंठन की भाषा बदल गयी है?
या बदल गयी है इस भारत की नारी?
या सबने ही लज्जा शरीर से तारी?
अब सार्वजनिक हो रही काम की ज्वाला
हैं झुलस रही जिसमें कलियों सी बाला
अब बचपन में ही निर्लज्ज हो जाती है।
अपने अंगों के गीत स्वयं गाती है।
हे परशुराम! कब तलक चलेगा ऐसा?
क्या आयेगा अब नहीं तुम्हारे जैसा?
जिसमें निर्लज्ज नारी वध की क्षमता हो
हो बहन किवा बेटी पत्नी माता हो।
मैं बहुत समय पहले जब था शरमाता
जब साड़ी पहना करती भारत माता
माँ की गोदी में जाकर ममता पाता
पर आज उसी से मैं बचता कतराता
क्योंकि माँ ने परिधान बदल लिया है
साड़ी के बदले स्कर्ट पहन लिया है
है भूल गयी मेरी माता मर्यादा
भारत में पच्छिम का प्रभाव है ज्य़ादा।
है परशुराम से पायी मैंने शिक्षा।
इसलिए मात्र-वध की होती है इच्छा।
जब-जब माता जमदग्नी-पूत छ्लेगी
मेरी जिव्हा परशु का काम करेगी।
ये चकाचौंध चलचित्रों की सब सज्जा
देखी, नारी खुद लुटा रही है लज्जा
क्या पतन देख यह, मुक्ख फेर लूँ अपना
या मानूँ इसको बस मैं मिथ्या सपना।
सभ्यता सनातन मरे किवा जीवे वे
गांजा अफीम मदिरा चाहे पीवे वे
या पड़ी रहे 'चंचल' के छल गानों में
वैष्णों देवी भैरव के मयखानों में?
या ओशो के कामुक-दर्शन में छिपकर
कोठों पर जाने दूँ पाने को ईश्वर?
या करने दूँ पूजा केवल पत्थर की?
छोटी होने दूँ सत्ता मैं ईश्वर की?
क्या मापदंड नारी को उसका मानूँ
सभ्यता सनातन यानी नंगी जानूँ
चुपचाप देखता रहूँ किवा परिवर्तन
आँखों पर पर्दा डाल नग्नता नर्तन।
...
Khulkar baaten 'KARYAALAY' se Jaane ke baad raatri 12:00 baje.
Mujhe kabhii taaliyaan pasand nahin rahin mujhe apshabd milne waalii kavitaa par shaabaasii mile to kavitaa prabhaavii nahin hui.. yahii lagega. ..
..
Zeal@ आप से अनुरोध है की इस पोस्ट पे आके अपने विचार प्रकट करें. बस एक निवेदन हैं अगर दिल ना चाहे तो कोई शिकायत भी नहीं
Zeal की जिज्ञासा कि 'क्या हम अपनी भारतीय संस्कृति को बचा सकेंगे ?' पर डाo हजारी प्रसाद द्विवेदी का दृष्टिकोण याद आया, प्रस्तुत है :
'मैं स्पष्ट देख रहा हूँ आर्यावर्त्त नाश के कगार पर खड़ा है |'
'इस देश को वही बचा पायेगा, जिसके पास सहज जीवन का कवच होगा | सत्य की तलवार होगी | धैर्य का रथ होगा | और, साहस की ढाल ! मैत्री का पाश होगा | धर्म का नेतृत्व होगा |'
'गुरुवर द्विवेदी'
(नव भारत टाइम्स,नई दिल्ली,'शिवानी'8/9-7-1993)
संस्कृति को इतना कमजोर मत समझो कि सिर्फ एक मल्लिका उसे बिगाड़ सके।
कुछ राज है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दोर-ए-जहां हमारा।
सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा। -मोहम्मद इक़बाल (शायर का जन्म नौ नवंबर को है, उम्मीद है साथी लोगों के ब्लॉग पर कुछ पढ़ने को मिलेगा)
Zeal@धन्यवाद् ब्लॉग पे आने का और इमानदारी से बेहतरीन कमेन्ट करने का.
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हज़ारों मल्लिकाएं और विक्रम हैं हमारे देश में।
आज सुबह की न्यूज़ में देखा की रूरकी प्रौद्योगिकी संस्थान में एक पार्टी के दौरान इन्जिनीरिंग के छात्र एवं छात्राएं आपस में लिपस्टिक लगायी और लगवाई।
बौल -डांस के दौरान नवयुवकों के अपने होटों में लिपस्टिक पकड़कर , साथ वाली नवयुवती के होटों पर लिपस्टिक लगाई। यदि टी वि पर न्यूज़ न देखि हो तो भी इस दृश्य की कल्पना आप कर सकते हैं।
ये हमारे आज के इंजिनीरिंग के विद्यार्थियों का हाल है। जब विद्या के मंदिर का ये हाल है तो बाकी जगहों की क्या बात करें। क्या हमारे बच्चे जहाँ पढ़ रहे हैं वहां सुरक्षित हैं ?
गन्दगी की जडें बहुत गहरी फ़ैल चुकी हैं। हम फिल्मों का तो बहिष्कार कर देंगे लेकिन उच्च शिक्षा के विद्यालयों में फैली इस गन्दगी का क्या हल है ?
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दिव्या जी,
बच्चे ही नहीं, बड़े होते बच्चे भी शरारतें करते हैं। इसके लिए दंडित भी होते हैं। सदियों से उनकी शरारतें चलती आई हैं और ज्यादातर ठोकर खाकर सीख जाते हैं। संस्कृति में समाज की बेहतरी निहित है, इसलिए वह जरूरत भर के बदलाव के साथ अक्षुण रहती है। कट्टरता संस्कृति को ज्यादा नुकसान पहुंचाती है। इसका उदाहरण हरियाणा की खाप पंचायतें हैं। वे संस्कृति बचाने की अपनी मुहिम में बदनाम ज्यादा हो रही हैं। वहां जिस तरह से युवा प्रेमी मारे जा रहे हैं, उतनी ही उनकी संख्या भी बढ़ रही है। आए दिन ऐसे मामले आ रहे हैं। आने वाली पीढ़ी को अपनी सहूलीयत के लिए जितनी जरूरत है, वे उतने बदलाव कर ही लेगी। जो संस्कृतियां कट्टर होती हैं, वे इस पीढ़ी को नष्ट करती हैं और खुद भी नष्ट हो जाती हैं। फिर वही इकबाल की बात-
यूनान, मिस्र, रोमां सब मिट गए जहां से,
बाकी मगर अभी है, नामों निशां हमारा।।
ये संस्कृतियां अपनी कट्टरता की वजह से नष्ट हुईं। भारतीय संस्कृति अपनी उदारता की वजह से ही बची। कुछ लोग अश्लीलता कर रहे हैं तो ज्यादातर लोग योग भी कर रहे हैं। धार्मिक आयोजनों में अब भी खूब भीड़ होती है। इस बार जब भारत आओ तो सुबह-शाम किसी मंदिर में जाना, जुम्मे को किसी मस्जिद जाना और रविवार को किसी गुरुद्वारे और चर्च जाना। वहां कि उपस्थिति भर से यह आभास हो जाएगा कि हमारी संस्कृति कितनी दृढ़ है। इंजीनियरिंग कालेज के ये बच्चे अभी उम्र के संक्रमण काल से गुजर रहे हैं, देखना दो चार साल बाद ये भी किसी मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे या चर्च में अपनी सच्ची श्रद्धा से माथा टेक रहे होंगे। यही हमारी संस्कृति की मजबूती है।
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सुधीर जी,
अच्छाइयों पर ही ये दुनिया कायम है। दो राय नहीं इसमें।
लेकिन अगर हम समाज में हो रही गन्दगी की तरफ ध्यान नहीं देंगे तो समाज की तरफ हमारा कर्तव्य क्या रह जाएगा ? अपनी संस्कृति पर तो हम नाज करते ही हैं, इसलिए तो उसकी हिफाज़त भी जरूरी है। समय रहते हर नादानी पर रोक होनी ही चाहिए।
रही बात भारत आकर मंदिर जाने की तो ये बता दूँ। यहाँ भी मंदिर बहुत से हैं।
अष्टमी को बैंगकॉक में नवरात्री दुर्गा पूजा आयोजन और गरबा में तकरीबन १०, हजार भारतीय थे। लगता ही नहीं की हम विदेशी धरती पर हैं।
लोगों की ये गलत धारणा है की, विदेश जाने पर लोग बदल जाते हैं।
धरती बदलने से देश प्रेम और स्वजनों का मोह कम नहीं होता।
मेरा मंदिर तो मेरे ह्रदय में हैं।
"मन चंगा तो कठौती में गंगा " -- इस में विश्वास करती
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दिव्या जी !
तमाम वाद-प्रतिवाद के मध्य मुझे कविता सुनाने से पहले मंचस्थ कुसुमेश जी का स्मरण आ रहा है. आशा है दस चरणों की इस कविता को वे तो अवश्य ही सुनेंगे :
१)
हो जाती जब कोई उलझन
होने लगती जब है अनबन
पड़ जाती रस्ते में अड़चन
आती संबंधों में जकड़न
खोता समाज में जब बचपन
होने लगता युग परिवर्तन
आदर्शों का उत्थान पतन
देखा करते निर्लज्ज नयन
शिक्षित होकर होते निर्धन
हो रही व्यर्थ एजुकेशन
-- ऐसे में जलता है तनमन
व्याकुलता से झन झन झननन।
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(२)
खुद को पावरफुल कहता मन
मानता नहीं किंचित वर्जन
मैं उल्लंघन बो लता जिसे
मन करे उसी का आलिंगन
कल्पनाशील कितना हैं मन
हर दम करता रहता चिंतन
बाहों में भरके नंग बदन
शय्या पर करता रहे शयन
संबंधों में होती जकड़न
भागा-भागा फिरता है मन
-- तब नहीं मानता कोई बहन
कामुकता में, झन झन झननन।
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(३)
कर सको आप तो करो श्रवन
सभ्यता सनातन का कृन्दन
चिंता चिंतन सत सोच मनन
मर गया हमारा संवेदन
कर रही विदेशी कल्चर
घर की परम्पराओं का मर्दन
अब नहीं रहे सत भाव
ना माटी ही माथे का चन्दन
देहात शहर बन रहे और
बन रहे शहर नेकिड लन्दन
-- होता मर्यादा-उल्लंघन
पीड़ा होती झन झन झननन।
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(४)
जब समाचार पत्रों को भी
घर में छिपकर पड़ता यौवन
छापते अवैध संबंधों पर
झूठे सच्चे जब अंतरमन
जब करे दूसरे मज़हब का
कोई हुसैन नंगा सर्जन
गीतों की धुन पर जब बच्ची
करती है कोई फूहड़पन
एडल्ट फिल्म को देख करे
बच्चा जब बहना को चुम्बन
-- हो जाते खुद ही बंद नयन
पीड़ा होती झन झन झननन।
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(५)
विलुप्त हुआ परिवार विज़न
कमरे-कमरे में टेलिविज़न
जो भी चाहे जैसे कर ले
चौबीस घंटे मन का रंजन
सबकी अपनी हैं एम्बीशन
अनलिमिटेशन, नो-बाउंडएशन
फादर-इन-ला कंसल्टेशन
इंटरफेयर, नो परमीशन
बिजली पानी चूल्हा ईंधन
न्यू कपल सेपरेट कनेक्शन
--पर्सनल लाइफ पर्सनल किचन
पीड़ा होती झन झन झननन।
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(६)
बच्चे बूढ़े इक्वल फैशन
इक्वल मेंटल लेवल नैशन
बच्चे तो जीते ही बचपन
बूढों में भी बचकानापन
डेली रूटीन सीनियर सिटिजन
वाकिंग, लाफिंग, वाचिंग चिल्ड्रन
वृद्धावस्था पाते पेंशन
फिर भी रहती मन में टेंशन
एँ! ये कैसी एजुकेशन
आंसर देंगे जब हो ऑप्शन
-- है रेपर नोलिज नंबर वन
पीड़ा होती झन झन झननन।
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(७) विषयांतर भाग .....
सत्ता पाने को नेतागन
जनता में करते ज़हर वमन
चाहे समाज टूटे-बिखरे
करने को रहते परिवर्तन
जब सत्ता में उत्थान पतन
होता रहता पिस्ता निर्धन
जब देश चुनावों में रहता
कितना व्यर्थ होता है धन
हा! राजनीति में घटियापन
बन रहे 'दलित', फिर से हरिजन
-- गांधी पर जब सुनता अवचन
पीड़ा होती झन झन झननन।
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(८) विषयांतर भाग
जब होता हो सब कोनो से
विकृत कल्चर का अतिक्रमण
बंदी हो जाए समाज
कुछ भ्रष्ट चिंतकों के बंधन
करने लागे कोई विरोध
जब सरस्वती तेरा वंदन
उदघोष मातरम् वन्दे का
जब बोले नहीं यहाँ रहिमन
हम करें संधि लेकिन दुश्मन
सीमा पर करता हो 'दन-दन'
-- तब क्रोध किया करता क्रंदन
पीड़ा होती झन झन झननन।
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(९)
स्कूलों के एन्युल फंक्शन
नैतिकता का कर रहे वमन
टैलेंट नाम पर विक्साते
मो... डलिंग केटवोक फैशन
जब भक्ति नाम पर हो प्रेयर
और देशभक्ति को जन-गन-मन
शिष्टता नाम पर जब टीचर
बनने को कहता हो मॉडर्न
गुरु करे नहीं जब शिष्यों का
जीवन उपयोगी निर्देशन
-- अंतर्मन करता रहे रुदन
पीड़ा होती झन झन झननन ।
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(१०) और अंत में है
फायर जैसी फिल्मों में जब
खोखला दिखाते हैं रिलिजन
कर देते भ्रष्ट तरीके से
वर्जित दृश्यों का उदघाटन
जब जन की गुप्त समस्या पर
मोटे चश्मे से हो दर्शन
मिल जाए कथित विद्वानों का
सहयोग समर्थन अपनापन
होती है मन में तभी चुभन
क्यों सही नहीं होता चिंतन
-- आँखों में ध्वंसक उठे जलन
पीड़ा होती झन झन झननन॥
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दिव्या जी, मैं जानता हूँ कि मैंने अनुचित किया कि आपमें ब्लॉग पर एकाधिक टिप्पणियाँ कीं. लेकिन जब मुझे कोई सुनने वाला ही नहीं तो मैं दूसरों के घरों पर ही जाकर चिल्लाऊँगा या फिर बीच चौराहे शीर्षासन लगाऊँगा. मुझे आपका ब्लॉग एक ऎसी सभा लगने लगा है जहाँ मूल्यांकन करने वाले केवल प्रशंसा ही नहीं करते आड़े हाथों भी लेते हैं. इस चर्चा मंथन से विष (भड़ास) और अमृत (विचार) दोनों निकल जाते हैं. आभार .
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प्रतुल जी,
समाज में फैली गन्दगी ने एक कोढ़ का रूप ले लिया है, जिसमें से मवाद रिस-रिस कर बह रहा है। विरलें ही ऐसे होते हैं जो विचलित हो जाते हैं आस पास की गन्दगी को देखकर।
आपकी कविता के माध्यम से आपके मन की पीड़ा और व्यथा जाहिर हो रही है। यदी समाज का हर व्यक्ति इतनी ही शिद्दत से इस पीड़ा को महसूस करे तो निःसंदेह इस समस्या को समूल नष्ट किया जा सकता है।
आज हर घर में कम से कम डॉ टी वि तो आसानी से दिख जाता` है -- बचे अपने कमरे में क्या देख रहे हैं माँ बाप को खबर ही नहीं होती , फिर सुधारेंगे क्या किसी को।
बच्चे के पास अपना खुद का लैपटॉप है, पता नहीं क्या-क्या सर्फिंग करता है , लेकिन माँ बाप तकनिकी रूप से कमज़ोर हैं, जानते ही नहीं की पोर्न-साइट्स कैसे लॉक की जाती हैं।
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थ्री इडियट्स जैसी फिल्में छोटे बच्चे बड़े चाव से देखते हैं। क्या नग्न होकर कामोड पर बैठा देखना उन्हें भाता है या चिकित्सा विज्ञान का मखौल उड़ाती डिलीवरी का अंतिम दृश्य, जिसमे इन्जिनीरिंग के छात्र प्रसव करा रहा हैं।
भद्दगी के दृश्यों से भरपूर '--' जैसी फिल्में हिट होती हैं। क्यूंकि वो बनी ही इडियट्स के लिए होती हैं।
इस फिल्म पर मैंने तकरीबन १०० विशिष्ट लोगों से बात की और राय जानी। उच्च पदासीन पुरुष जो व्यस्त होने के कारण ये नहीं जानते की उनके बच्चे किस तरह की फिल्मों से अपना मनोरंजन कर रहे हैं, ने कहा की उन्हें तो फिल्म बहुत अच्छी लगी।
अपनी महिला मित्रों से चर्चा की सबने एक सुर में कहा की बहुत शिक्षाप्रद लगी । जब पूछा की शिक्षा क्या मिली तो सभी चुप थे । क्या अब बच्चों को शिक्षा देने के लिए थ्री -इडियट्स जैसी फिल्मों की आवश्यकता हगी ?
ये एक ऐसी फिल्म है जिससे किसी ने शिक्षा ली हो या न ली हो, लेकिन इसके लेखक, निर्देशक , म्यूजिक कम्पोसर, तथा एक्टर ने तो बिलकुल नहीं ली। चेतन भगत, जावेद अख्तर, , प्रोडूसर, और आमिर खान तो आपस में ही लड़ गए ! सबको पैसा चाहिए। श्रेय चाहिए। शिक्षा नहीं चाहिए किसी को
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एक नवयुवक का एक जगह विचार पढ़ा नेट पर , जो कहते हैं -- " मुझे अगर मल्लिका मिल जाए तो मैं उसे जी भर के प्यार करूँ उसे , वो हैं प्यार करने की चीज़"
फिल्मों का बहिष्कार तो सभ्य समाज कर रहा है , लेकिन क्या अपने बच्चों पर निगाह रख रहा है जो डाउनलोड करके अश्लील फिल्में देखते हैं और चोरी से सी डी प्राप्त करके सब कुछ देख रहे है। और अपने को धोखा दे रहे हैं तथा माँ बाप की आँखों में धूल भी झोंक रहे हैं।
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मुझे वयस्कों की चिंता नहीं है, वो यदी ऐसी फिल्में देखेंगे भी तो उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा । वो परिपक्व हो चुके हैं। लेकिन कच्ची / गीली मिटटी की तरह कोमल , मासूम और अपरिपक्व मन और मस्तिष्क वाले बच्चे / नवयुवक और नवयुवतियां , जिनके लिए vidyaarthi जीवन एक तपस्या का जीवन है वो भ्रमित होकर गलत दिशा में जा रहे हैं। उनकी खातिर ऐसी गन्दगी पर रोक लगनी ही चाहिए।
आखिर सेंसर बोर्ड वाले सेंसर क्या करते हैं ? क्या वहाँ भी रिश्वतखोरी का बोल बाला है ?
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ZEAL@ मुझे वयस्कों की चिंता नहीं है. मुझे तो लगता है वयस्कों की भी चिंता करनी ही चहिये. मीठा अधिक देखने से या तो उसके प्रति अरुचि पैदा हो जाया करती है या फिर उसे चुराने के खाने की आदत पड़ने लगती है.
यह सत्य है की युवाओं , के लिए यह अधिक खतरनाक है .
दिव्या जी,
समाज में वर्जनाएं अपनी चर्चा से ही प्रचार पाती हैं। किशोर वर्ग सबसे ज्यादा जिग्यासु होता है और वह सब चीजें जो उसकी जानकारी में आती हैं करके देखना चाहता है। हमें इन पर (समाज के रिसते मवाद पर) चिंता जाहिर करनी चाहिए, चिंता जाहिर करना जनप्रिय भी बनाता है। आपने भी बताया कि मलेशिया और दुनिया में भारतीय अपनी संस्कृति से मजबूती से जु़ड़े हुए हैं तो ऐसी संस्कृति को कुछ हजार मल्लिकाओं और विक्रम से कोई खतरा नहीं क्योंकि हम सौ करोड़ से ज्यादा हैं, ये तो दशमलव एक फीसदी भी नहीं बैठते। तो इन पर इतनी चर्चा क्यों, इन्हें इतना प्रचार क्यों? अपनी उदारता की वजह से भारतीय संस्कृति दुनिया में सबसे मजबूत एंटीबॉडी वाली है। मल्लिका की एक फुफकार (हिस्स) कुछ नहीं कर सकती।
जहां तक किशोरों की पहुंच पोर्न साहित्य तक हो रही है तो वह सिर्फ चर्चा की वजह से ही है। बच्चों को इनके खतरों के प्रति हम ठीक तरह से बता नहीं पाते हैं, गुपचुप टाइप की चर्चा उनकी जिग्यासा और बढा़ती है, इसलिए वयस्कों को इस दिशा में खुद को अच्छा अभिभावक बनने के कुछ गुण सीखने ही होंगे। चुनौतियों से वयस्कों को पहले निपटना होता है, सिर्फ चिंता और चर्चा से यह संभव नहीं है। वयस्कों को इसलिए भी छूट नहीं दी जा सकती कि उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा। अगर वह चर्चा करते हैं तो यह बच्चों के कान में जाएगी ही।
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मासूम जी ,
आपकी बात से सहमत हूँ। शत प्रतिशत।
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सुधीर जी,
समझ नहीं पा रही हूँ की आप कहना क्या चाहते हैं ?
-क्या एक फुफकार कुछ बिगड़ नहीं सकती इसलिए फुफकारने दें ?
- क्या चिंता करना व्यर्थ है ?
-क्या सारी चर्चाएँ और विमर्श भी व्यर्थ हैं ?
- फिर उपयोगी क्या है और हमें क्या करना चाहिए?
यदि मेरी चिंता का / समस्या का हल बताएं तो बेहतर होगा।
चिंता करना तो मेरे खून में शामिल है। कभी परिवार की तो कभी समाज की । कभी खुद की तो कभी मित्रों की, कभी घर की तो कभी देश की। कभी धर्म की तो कभी भ्रष्टाचार की। कभी मानवीय गुणों , अवगुणों की। और इसी चिंता से खुद को भी परिष्कृत करती रहती हूँ। इन्हीं विमर्श के सहारे बहुत कुछ सीख रही हूँ आप लोगों से।
जब तक दिमाग चलता रहेगा , मेरी चिंतन-मनन भी जारी रहेगा। चिंताओं से मुक्ति तो मृयुपरांत ही मिल सकेगी।
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दिव्या जी
आपके विचार पढ़े जिसमें आपने थ्री-ईडियट्स पर बुद्धिजीवियों के कमेन्ट जानने की कोशिश की थी जो अभी तक कोशिश ही बनी हुई है. .......
अपने कार्यालय में उन्हीं दिनों काम कुछ कम था और हम खाली थे उसी दौरान मैंने ये कविता लिखी थी, जिसमें अनायास थ्री-ईडियट्स पर कमेन्ट हो गया है और अब आपको भी सुनाना चाहता हूँ.
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उन्होंने काम किया
बड़ी तेज़ी से किया
दस दिन का काम दो दिन में ख़त्म किया
आज वो सुखी हैं – हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं ।
काम करते हुए लोगों को देख मन ही मन दुखी हैं
कि – "इनका काम कब ख़त्म होगा"
मेहनतकश गधे पर यदि एक दिन
बोझा न रखा जाए तो बिदक जाता है
इधर-उधर चरता घूमता है,
अपने से दूसरे गधे भाइयों से मिलता है,
हाल-चाल पूछता है,
उसे बातचीत के दौरान दुलत्तियों का इस्तेमाल सूझता है ।
काम का निरंतर बने रहना कितना ज़रूरी है
नहीं तो कोई भी मेहनतकश
काम की ग़ैर-मौजूदगी में पगला जाएगा
ईडियट होकर घूमेगा
ईडियट्स के बीच बैठेगा
ईडियटटी करेगा
और अच्छे-बुरे की पहचान खोकर
कथित बुद्धिजीविता के मोटे-चश्मे से
थ्री-ईडियट्स देखने का दंभ भरेगा
देखकर सराहेगा
वाहियात चीज़ों पर मुस्कराएगा
फिल्म का बेसिक मैसेज भूल जाएगा
फिल्म में परोसे फूहडपने को दिल खोलकर अपनाएगा
अमर्यादित होती जा रही भारतीय संस्कृति के कलेजे पर
हाथ रखकर चिल्लाएगा – "ऑल इज़ वेल "
(सभी नयी सोच अपनाने वालों को समर्पित)
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मैडम जी आप चिंता न करो
कोई देखने ही नही गया
पर सच्चाई ये भी है हर आदमी cd ला के देख लेगा
सेंसर बोर्ड जो बैठे है उनको भी तो कुछ कमाना है
"सब सीन on demand थे "
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Hmm...That's the Irony !
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I feel jab tak log dekhenge to dikhaya jayega.
Agar koi dekhne hi naa jayega aur agar koi CD lekar nhi dekhe to koi ye kaam nhi karega
But Ek Bebas Kothe par baithi ladki ko sabhi bura bolte hain par ye koi nhi sochta ke galt wo nhi galt jane wala hai.
Gandhi Jii ne kahaa tha naa PAAP SE GHRINA KARO PAAPI SE NAHI.
Mera manna hai ke agar koi aise movies ko nhi dekhne jayega to nirdeshak movie banana chhod denge
बहुत अच्छी पोस्ट
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Shivalika ,
you really made a brilliant point.
Well said !
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नज़रअंदाज करना होगा हमें ऐसी फिल्मों को और लोगों को भी आगाह करना होगा जितना हमारे हाथ में हैं.. क्योंकि हम भी इसी समाज का हिस्सा हैं..आपने बेहद सटीक बात कही है...बढ़िया लेखन के लिए बधाई
दिव्या जी आपकी लिखी बातो और आपके द्वारा दिए कमेंट्स के जवाब में जो बाते आपने लिखी है उसे पड़कर मुझे तो ये लगता है की बे फिजूल की प्यार मोहब्बत की कविताओ और रचनाओ को छोड़कर यदि ज्यादातर ब्लॉग में यदि देश व राष्ट्र चिंतन का विषय हो तो धीरे धीरे बहुत ज्यादा तो नहीं परन्तु कुछ लोगो में राष्ट्र चिंतन को जगाने में सहायक होंगी कृपया इसी तरह गंभीर विषयों को ब्लॉग के माध्यम से उठाते रहे मै तो आपके लेखो से बहुत ज्यादा प्रभावित हु और आपके लेख के सम्बन्ध में कमेंट्स देने से बचता हु क्योकि मुझे लगता है की आपकी सोच तक मै नहीं पहुच सकता !
आज के करीब ४० साल पहले एक फिल्म में शर्मिला टैगोर ने उस जमाने के हिसाब से आपत्तिजनक ड्रेस पहनी थी और पत्र पत्रिकाओ में खासी चर्चा हुई थी तब से अब तक फिल्मो की अभिनेत्रियों ने अपनी वेशभूषा की एक लम्बी यात्रा तय की है और साथ ही साथ अपनी भूमिका के साथ ही ड्रेस का तालमेल बिठाया है कभी किसी ने कोई मजबूरी में अपने परिवार के भरन पोषण के लिए ऐसी भूमिकाये की है किन्तु आज की ये अभिनेत्री ?इनकी पैसे की हवस ने ,और तो और इनके माता पिता भी भी इन पर गर्व करते है जिस तरह मिलावटी दूध ,मिठाई ,अन्य खाद्य सामग्री बेचकर ,धनवान होने का गर्व करते है ऐसे लोगो का सामाजिक बहिष्कार होना चाहिए |
जिस माध्यम से ऐसे लोगो का प्रचार होता है वहां भी ऐसे ही संदेस होने चाहिए |हम ऐसी फिल्मे नहीं देखते ?सिर्फ ये कहने से की ये पाश्चात्य संस्कति का असर है यह कहकर हम अपने आप को सिर्फ चलवा ही दे रहे है और अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन |
आज के करीब ४० साल पहले एक फिल्म में शर्मिला टैगोर ने उस जमाने के हिसाब से आपत्तिजनक ड्रेस पहनी थी और पत्र पत्रिकाओ में खासी चर्चा हुई थी तब से अब तक फिल्मो की अभिनेत्रियों ने अपनी वेशभूषा की एक लम्बी यात्रा तय की है और साथ ही साथ अपनी भूमिका के साथ ही ड्रेस का तालमेल बिठाया है कभी किसी ने कोई मजबूरी में अपने परिवार के भरन पोषण के लिए ऐसी भूमिकाये की है किन्तु आज की ये अभिनेत्री ?इनकी पैसे की हवस ने ,और तो और इनके माता पिता भी भी इन पर गर्व करते है जिस तरह मिलावटी दूध ,मिठाई ,अन्य खाद्य सामग्री बेचकर ,धनवान होने का गर्व करते है ऐसे लोगो का सामाजिक बहिष्कार होना चाहिए |
जिस माध्यम से ऐसे लोगो का प्रचार होता है वहां भी ऐसे ही संदेस होने चाहिए |हम ऐसी फिल्मे नहीं देखते ?सिर्फ ये कहने से की ये पाश्चात्य संस्कति का असर है यह कहकर हम अपने आप को सिर्फ चलवा ही दे रहे है और अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन |
शिवालिका जी की टिप्पणी मैंने अभी पढ़ी है टिप्पणी देने के बाद |मै भी कुछ हद तक सहमत हूँ |
maine ye film nahi dekhi ..na hi dekhunga...aapne dekha aapko chinta hui bahut sare log sirf isi utsukta me dekhne gaye honge...is utsukta ko khatm karna hoga......do dooni chaar jaisi film kee satharkta par koi blog nahi likha gaya...hiss ki nirarthakta par vyarth chintan... hume isi se bachne kee zaoorat hai...
दिव्याजी आपने ३ idiots फिल्म को आड़े हाथों लिया है | जो कहीं ना कहीं अपने आपमें अजीब है | अगर हम इस तरह के दृश्यों की बात करें १००% फिल्में इस कटघरे मं आएँगी | चाहे वो आज ४०-५० साल पहले आयी जोकर, राम तेरी गंगा मैली, आदि फिल्में हो या फिर फिर सबसे ज्यादा चर्चित फिल्म चक दे इंडिया | अगर आपने वो फिल्म देखी हो तो उसमे भी एक नायिका शाहरुख़ खान के पास जाती कुछ वैसी ही बात करने के लिए..
वैसे भी आज कल जितनी भी फिल्में बनायीं जाती हैं मनोरंजन के लिए बनायीं जाती हैं, अब अश्लील क्या है क्या नहीं वो माता-पिता को तय करना है |
और मेरे मानना है की समय के साथ अश्लीलता के मायने बदलते रहते हैं |
मसलन आज से ५०-६० साल पहले घर की औरतें अगर बिना परदे के निकलें तो वो हमारे समाज में गलत था. फिर धीरे धीरे चीजें बदलती गयीं...उसी तरह मनोरंजन और उससे जुडी चीजें भी बदल रही हैं | आप कब तक और कहाँ तक चीजों को रोक सकती हैं...
आप तो डॉक्टर हैं आप तो ये भी जानती ही होंगी आज कल शारीरिक विकास भी समय से पहले शुरू हो जाते हैं..ये बस एक उदाहरण है चीजें बदलने का...
और जहाँ तक रही पैसे कमाने की बात तो इसमें कौन सी बड़ी बात है सभी उसी के लिए मेहनत करते हैं | माफ़ कीजियेगा दिव्या जी लेकिन थोडा सा असहमत जरूर हूँ आपके इस बात से....अगर ३ idiots भद्दी फिल्म है तो फिल्म industry को ही बंद कर देना चाहिए.....
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@ स्वप्निल।
लेख लिखने के लिए फिल्म देखने की आवश्यकता नहीं है। न्यूज़ के जरिये ही देश विदेश का हाल पता चलता है। रूरकी प्रोद्योगिकी संस्थान में लिपस्टिक काण्ड का अश्लील प्रकरण भी न्यूज़ से ही ज्ञात हुआ । मुझे ख़ुशी है लोग सही समय पर आवाज़ बुलंद करते हैं। सब नहीं , तो कुछ लोग तो चेतेंगे ही । धीरे धीरे ही सही , कुछ लोग तो इन सार्थक प्रयासों से लाभान्वित होंगे ही।
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अमरजीत जी,
आपकी टिपण्णी तो हमेशा लेख को सार्थकता प्रदान करती है । और मुझे इंतज़ार भी रहता है आपके वक्तव्यों का। इसलिए टिपण्णी देने से बिलकुल मत कतराया कीजिये। आपकी टिप्पणियां लेखक को बेहतर लिखने और सही दिशा में लिखने को प्रेरित करती हैं।
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शोभना जी,
आपको बहुत दिनों बाद वापस अपने ब्लॉग पर देखकर अच्छा लगा। आपकी सार्थक टिपण्णी के लिए आभार।
ज्यादातर लोग ये कहकर की हम पश्चिम का अन्धानुकरण कर रहे हैं , किनारा कर लेते हैं। लेकिन उस दिशा में सोचना भी आवश्यक है की क्या प्रयास होने चाहिए , जिससे युवाओं को को सही दिशा मिल सके। जहां भी कुछ गलत दिखे , हमें आवाज़ उठानी होगी , इससे पहले की ज्यादा देर हो जाए।
हेमा मालिनी , जाया भादुड़ी , वहीदा रहमान आदि शीर्ष अभिनेत्रियाँ , भी तो इसी फिल्म इंडस्ट्री की हैं। इन्होनेतो कभी मर्यादाओं का उल्लंघन किया । इनके fans भी ज्यादा है। ये अभिनेत्रियाँ आज भी लोकप्रिय हैं।
फिल्म जैसे उद्द्योग में रहकर भी स्त्री की अस्मिता का पूरा ध्यान रखा।
निर्देशक अपनी फिल्म बेचना चाहता है , तो उसके लिए एक स्त्री को बिना कमज़ोर पड़े , बिना धन का लोभ किये, इनकार कर देना चाहिए , किसी भी प्रकार के अश्लील दृश्य देने से।
स्त्रियों को उपभोग की वस्तु , बना रहे हैं निर्देशक। कमज़ोर स्त्रियाँ इसका शिकार भी हो रही हैं। सबसे पहले तो अभिनेत्रियों को ही ऐसे दृश्यों का बहिष्कार करना चाहिए।
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शेखर सुमन जी,
आपकी असहमतियों का भी स्वागत है । आपने कहा इस तरह तो फिल्म इंडस्ट्री बंद कर देनी चाहिए । अरे भाई क्यूँ बंद कर देनी चाहिए? क्या स्वास्थ्य मनोरंजन पर फिल्में नहीं बन सकतीं ? क्या अभिनेत्री को मर्यादित नहीं दिखाया जा सकता फिल्मों में ? क्या निर्देशक की जिम्मेदारी नहीं की वो एक स्त्री की मर्यादा की रक्षा करे ?
क्या कौटिल्य नी निति पर फिल्म नहीं बन सकती ? क्या आर्य भट्ट पर फिल्म नहीं बन सकती ? क्या किरण बेदी और स्space में जाने वाली सुनीता पर फिल्म नहीं बन सकती ? क्या विषयों की कमी हो गयी है ? क्या स्त्रियों का सिर्फ एक ही वीभत्स स्वरुप बचा रह गया है जिस, पर फिल्में बनायीं जाएँ ?
आज हमारे माध्यम वर्गीय समाज में जो स्त्रियाँ व्रत, पूजा, समर्पण, बलिदान, तथा मेहनतकश होकर जो योगदान कर रहीं उनकी उपेक्षा क्यूँ ? क्यूँ नहीं नारी के उसी रूप को फिल्मों में जगह मिल रही ?
हमारी नेता सुषमा स्वराज , ममता बनर्जी, प्रतिभा पाटिल , किरण बेदी आदि भी तो हैं समाज में जो समाज में इतने शीर्ष स्थान पर हैं और मर्यादाओं का पालन भी कर रही हैं । क्या इनसे हम प्रेरणा नहीं ले सकते ?
क्यों सर्प-कथाओं के द्वारा अश्लीलता परोसी जा रही है ?
फिल इंडस्ट्री को बंद करने की नहीं , सही दिशा में जाने की जरूरत है।
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# हिंसा न दिखाई जाए।
# स्त्रियों के वस्त्रों को मर्यादित रखा जाए।
# चुम्बन के दृश्यों का बहिष्कार होना चाहिए।
# विषय सामाजिक सरोकार से जुड़े होने चाहिए
# स्वास्थ्य मनोरंजन होना चाहिए।
# जो फिल्में युवाओं की मानसिकता विकृत करें उनका बहिष्कार होना चाहिए।
# ऐसी फिल्में यदि से सेंसर पास हो जाएँ सेंसर बोर्ड वालों को निलंबित कर देना चाहिए।
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दिव्या जी शायद आपने मेरी असहमति को गलत रूप में ले लिया.. अगर आप अश्लीलता का स्तर ३ idiots तक ले जाती हैं उसपर मेरी असहमति थी...मैं मानता हूँ हिस्स जैसी फिल्में भद्दी और घटिया हैं | लेकिन कुछ अच्छी फिल्में भी हैं जिनमे इन दृश्यों को नेगलेक्ट करके चलना होगा....हाँ हम इतना जरूर कर सकते हैं कि १४ साल से छोटे बच्चों को फिल्मों से दूर रखा जाए..लेकिन क्या हम ऐसा कर पाएंगे???????
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शेखर जी,
मैंने आपकी असहमति को कतई गलत नहीं लिया है। आपके विचारों का स्वागत है । मैं तो केवल अपने विचार रख रही हूँ यहाँ।
रही बात थ्री इडियट फिल्म की तो, उसमें भी आपतिजनक दृश्य हैं। ख़ास कर पुरुषों की भीड़ में प्रसव का दृश्य दिखाना । वो दिन कभी नहीं आ सकता जब इन्जिनीर्स प्रसव करा सकें। सिर्फ फिल्म को अच्छी मार्केटिंग के लिए मसालेदार दृश्यों को जोड़ा गया।
स्टेज पर पढ़े जाने वाले भाषण का स्वरुप बदलकर एक बेहद ही फूहड़ भाषा का प्रयोग किया गया है। शिक्षकों का अपमान कैसे किया जाता है, ये भी इसी फिल्म से सीखा जा सकता है।
मैंने एक छेह साल के बच्चे से बात की - कैसी लगी फिल्म?--उसने कहा - " मज़ा आ गया, अब ये तो पता चल गया की बच्चा कैसे पैदा होता है " ।
गनीमत है उस बच्चे में इतनी शर्म-हया थी की उसने ये नहीं कहा की - " पता चल गया कहाँ से पैदा होता है "
आपने कहा १४ साल के नीचे के बच्चों को नहीं देखने देना चाहिए। लेकिन मेरा ये कहना है की फिल्में इतनी साफ़-सुथरी हों जिस निर्भर होकर सभी उसे देख सकें।
एक महिला मित्र ने चिंता जाहिर की उसका बेटा बार-बार उनसे स्तन और बलात्कार जैसे शब्दों का अर्थ जानना चाहता है। किन शब्दों में मासूमों को इनके अर्थ समझाए जाएँ।
बस धडाधड बिजनेस कर रही हो फिल्म, निर्माताओं को सिर्फ इतने से ही मतलब होता है।
शेखर जी, १४ ही क्यूँ, तकरीबन २५ साल तक नवयुवक और युतियों के भ्रमित होने खता बना रहता है।
आज जिस तरह से रूरकी इन्जिनीरिंग संस्थान के छात्र, छात्राओं ने अभद्रता का प्रदशन किया है , ये इसी तरह की फिल्मों का परिणाम है।
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दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें
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