बात ३-४ वर्ष पूर्व की है । मैं रेल से सफ़र कर रही थी । लखनऊ से ग्वालियर छपरा एक्सप्रेस में । मेरे साथ मेरा १२ वर्ष का भतीजा भी था । छुट्टियों में कुछ दिन मौसी के घर रहना चाहता था। सामने वाली बर्थ पर खिड़की के पास चुप चाप बैठा कॉमिक्स पढने में व्यस्त था।
एक सज्जन RAC वाली बर्थ पर पूरे लेटे हुए थे , किसी कों स्थान नहीं देना चाहते थे । देखने में वो सेव की तरह लाल तथा भयानक रूप से मोटे थे । किसी अमीर व्यापारी की तरह लग रहे थे । उनके साथ करीब दस साल की एक दीन हीन , अकिंचन सी बच्ची साथ थी , जो शकल सूरत से शायद उनकी नौकरानी लग रही रही थी । सच नहीं जानती पर संदिग्ध लग रहे थे फिरहाल वो ।
वो बच्ची बैठे रहकर खिड़की से बाहर देखना चाहती थी लेकिन वो सज्जन बार बार उसे लेटने का आदेश दे रहे थे । सहमी सी लड़की आदेश का पालन करते हुए थोड़ी देर पैर सिकोड़कर लेट जाती , लेकिन फिर उठकर चुप-चाप खिड़की से बाहर देखने लगती । उसी बर्थ पर मेरा भांजा बैठा था । लड़की इस बात का पूरा ध्यान रख रही थी की लेटने पर उसका पाँव , भांजे कों स्पर्श न करे ।
यही क्रम चलता रहा , उन सज्जन कों किसी हालत में चैन नहीं पड़ रहा था , वो चाहते थे , वो भी लेटे रहे और वो लड़की भी लेटकर ही सफ़र तय करे , ताकि उनका पैसा वसूल हो जाए , चाहे उसके लिए सहयात्रियों कों कष्ट हो , अथवा विवाद हो , अथवा मासूम बच्चे अपने तरीके से यात्रा का आनंद ना ले सकें ।
सभी लोग उन सज्जन का तमाशा देख रहे थे , लेकिन कोई कुछ नहीं बोल रहा था । उनकी ढीठता और लड़की की मजबूरी सबको दिख रही थी , लेकिन शिष्टता किसी कों भी बोलने से रोक रही थी ।
जब उन सज्जन कों खुजली ज्यादा होने लगी तो उन्होंने उस लड़की के लिए जबरदस्ती बीच वाली बर्थ खोल दी और उससे उस पर लेट जाने कों कहा । लड़की बेचारी मन मारकर ऊपर चढ़ गयी । अब लेटे रहना उसकी मजबूरी थी और खिड़की से दिखते दृश्यों से भी वो वंचित हो गयी थी।
और उन सज्जन का जो उद्देश्य था की वो मेरे भांजे कों उस बर्थ पर बैठे नहीं देखना चाहते थे वो भी पूरा हो गया। बीच की बर्थ खुलने के कारण निचली बर्थ पर कोई भी व्यक्ति नोर्मल तरीके से नहीं बैठ सकता था । भांजा अपना सर झुकाकर तकलीफ से बैठ गया और उसने कॉमिक की किताब भी बंद कर दी । हर किसी कों तकलीफ देकर वो सज्जन बहुत विजयी महसूस कर रहे थे । सभी सहयात्री ख़ामोशी से ये नज़ारा देख रहे थे । भांजे ने मेरी तरफ मजबूरी वाली निगाहों से देखा फिर चुप चाप खिड़की के बाहर देखने लगा , वो झुककर बैठ नहीं पा रहा था ।
मुझसे ये नहीं देखा गया , मैंने धीरे से उन सज्जन से कहा , आपने बिना वजह यह बीच की बर्थ खोल दी , नीच कोई बैठ नहीं सकता है अब । बच्चे कों भी तकलीफ हो रही है ।
इतना सुनना था की वो सज्जन जो अब तक भड़ास में भरे बैठे थे , बिदक कर मुझे खरी खोटी सुनाने लगे । कहने लगे ये हमारी बर्थ है , और आपका भांजा जबरदस्ती इस पर बैठा है । एक स्त्री कों अकेली सफ़र करते देख उन्होंने सोचा इसको कुछ भी बोल दो , क्या कर लेगी । उनका लहजा बहुत अपमानजनक था। काफी झगडालू लग रहे थे और ऊंची स्वर में उनके बोलने से मैं डर गयी और बेईज्ज़ती ज्यादा न हो जाए , उनका कोई जवाब नहीं दिया और चुप चाप बैठी रही ।
जिंदगी में ऐसा पहला अनुभव था । पांच मिनट गुज़र गए । मन में बेचैनी थी , गुस्सा था , अपनी लाचारी पर तरस भी था और कायरों की तरह बैठे तमाशबीन सह-यात्रियों पर खेद भी । एक स्त्री होने का अब समाज में कोई स्थान तो है नहीं , लोग rival समझते हैं और जहाँ मौक़ा पाया , वहीँ कर दो इसका अपमान , क्या कर लेगी ? ऐसा सोचते हैं।
मैं दस मिनट तक अपने मन में घुटती रही , फिर अचानक एक विचार आया , इस गुंडे कों ऐसा सबक सिखाउंगी की जिंदगी भर किसी का अपमान नहीं करेगा ।
अचनाक मैं उससे मुखातिब हुई , कड़क आवाज़ में कहा - " उठ कर बैठिये " । वो आज्ञाकारी बालक की तरह बैठ गया । मैंने कहा - " टिकट निकालिए " । वो तीखी आवाज़ में बोला - " पहले आप दिखाइये"
मेरे अन्दर उस समय जाने कहाँ का साहस आ गया था ।-- " मैंने कहा , टिकट निकालिए , ज़रा देखूं किस बात पर आप इतना अकड़ रहे है । " उसने अपना टिकट दिखाया , उसके पास केवल एक सीट थी जिस प़र वो पूरा विराजमान था । फिर मैंने अपना टिकट निकालकर बगल बैठे सहयात्री कों दिखाया जिस पर दो सीटों का आरक्षण था । एक मेरा और एक मेरे १२ वर्षीय भांजे का । " ३४ नंबर" की बर्थ जिस पर वो उस लड़की कों जबरदस्ती लिटाना चाहता था वो सीट भांजे की ही थी , जिस पर उन सज्जन ने उसे सर झुकाकर बैठने कों मजबूर कर दिया था ।
अब चुप बैठी जनता भी मेरे साथ थी । उन सज्जन की अकड़ ढीली पड़ चुकी थी । ऊंट पहाड़ के नीचे आ चुका था ।
मैंने कहा - " एक स्त्री कों अकेली देखकर उसका अपमान मत कीजियेगा अब कभी । यदि कोई शराफत से चुप बैठा आपको बर्दाश्त कर रहा है तो उसे मूर्ख भी मत समझिएगा । रेल यातायात के नियमों कों समझिये और प्रातः आठ से लेकर रात्री आठ तक बैठने की व्यवस्था और उसके बाद सोने का नियम , इसलिए गुंडई दिखाकर जबरदस्ती सहयात्रियों कों कष्ट मत दीजियेगा। और ये जो छोटी बच्ची कों आप एक नौकरानी की तरह ले जा रहे हैं और जबरदस्ती लेटने कों कह रहे हैं वो भी अनुचित है " । मेरा भांजा आपका तो कुछ नहीं लगता , इसलिए आप इतनी निर्दयता से पेश आये उसके साथ। वो चुप चाप कॉमिक पढ़ रहा था तो आपसे उसकी ख़ुशी भी बर्दाश्त नहीं हुई । और मैं , जो आपकी सहयात्री हूँ, उससे आपने तमीज के साथ बात करना भी उचित नहीं समझा , क्यूंकि मैं स्त्री हूँ , आपकी गुंडागर्दी से डर जाउंगी ? "
इसके बाद तो उन सज्जन कों अन्य यात्रियों के भी ढेरों प्रवचन सुनने पड़े , और झांसी आते ही वो झोला लेकर उस बच्ची के साथ भाग खड़े हुए । झाँसी से ग्वालियर २ घंटे का सफ़र हमारा सुखमय रहा ।
मैं भांजे के बगल में बैठ गयी , वो डरा हुआ था , मुझे देखकर पहली बार मुस्कुराया , बोला -- " मौसी मज़ा आ गया , आज इनको अच्छा lesson मिला होगा "
मैंने कहा - " बेटा मज़ा तो आज पहली बार मुझे आया है , एक स्त्री लाचार नहीं है , इस बात का सुखद अनुभव किया है मैंने "
डरने वाले कों लोग और डराते हैं , दबाते हैं और धमकाते हैं । गलत प्रवित्ति बढती जाती है और सीधे सच्चे लोगों के बीच खामोशी बढती जाती है । सत्य में जो ताकत है वो किसी और चीज़ में नहीं। जब हम सही होते हैं तो ये सच ही हमारी ताकत बनता है और हर परिस्थिति में हमें हिम्मत देता है । हमारे पास टिकट था ( जो हमारा सच था ) , और इसी सच ने हमें आवाज़ उठाने की शक्ति दी । इसी सच ने वहां उपस्थित समाज कों हमारे समर्थन में भी खड़ा कर दिया ।
"God helps those who help themselves "
आभार ।
एक सज्जन RAC वाली बर्थ पर पूरे लेटे हुए थे , किसी कों स्थान नहीं देना चाहते थे । देखने में वो सेव की तरह लाल तथा भयानक रूप से मोटे थे । किसी अमीर व्यापारी की तरह लग रहे थे । उनके साथ करीब दस साल की एक दीन हीन , अकिंचन सी बच्ची साथ थी , जो शकल सूरत से शायद उनकी नौकरानी लग रही रही थी । सच नहीं जानती पर संदिग्ध लग रहे थे फिरहाल वो ।
वो बच्ची बैठे रहकर खिड़की से बाहर देखना चाहती थी लेकिन वो सज्जन बार बार उसे लेटने का आदेश दे रहे थे । सहमी सी लड़की आदेश का पालन करते हुए थोड़ी देर पैर सिकोड़कर लेट जाती , लेकिन फिर उठकर चुप-चाप खिड़की से बाहर देखने लगती । उसी बर्थ पर मेरा भांजा बैठा था । लड़की इस बात का पूरा ध्यान रख रही थी की लेटने पर उसका पाँव , भांजे कों स्पर्श न करे ।
यही क्रम चलता रहा , उन सज्जन कों किसी हालत में चैन नहीं पड़ रहा था , वो चाहते थे , वो भी लेटे रहे और वो लड़की भी लेटकर ही सफ़र तय करे , ताकि उनका पैसा वसूल हो जाए , चाहे उसके लिए सहयात्रियों कों कष्ट हो , अथवा विवाद हो , अथवा मासूम बच्चे अपने तरीके से यात्रा का आनंद ना ले सकें ।
सभी लोग उन सज्जन का तमाशा देख रहे थे , लेकिन कोई कुछ नहीं बोल रहा था । उनकी ढीठता और लड़की की मजबूरी सबको दिख रही थी , लेकिन शिष्टता किसी कों भी बोलने से रोक रही थी ।
जब उन सज्जन कों खुजली ज्यादा होने लगी तो उन्होंने उस लड़की के लिए जबरदस्ती बीच वाली बर्थ खोल दी और उससे उस पर लेट जाने कों कहा । लड़की बेचारी मन मारकर ऊपर चढ़ गयी । अब लेटे रहना उसकी मजबूरी थी और खिड़की से दिखते दृश्यों से भी वो वंचित हो गयी थी।
और उन सज्जन का जो उद्देश्य था की वो मेरे भांजे कों उस बर्थ पर बैठे नहीं देखना चाहते थे वो भी पूरा हो गया। बीच की बर्थ खुलने के कारण निचली बर्थ पर कोई भी व्यक्ति नोर्मल तरीके से नहीं बैठ सकता था । भांजा अपना सर झुकाकर तकलीफ से बैठ गया और उसने कॉमिक की किताब भी बंद कर दी । हर किसी कों तकलीफ देकर वो सज्जन बहुत विजयी महसूस कर रहे थे । सभी सहयात्री ख़ामोशी से ये नज़ारा देख रहे थे । भांजे ने मेरी तरफ मजबूरी वाली निगाहों से देखा फिर चुप चाप खिड़की के बाहर देखने लगा , वो झुककर बैठ नहीं पा रहा था ।
मुझसे ये नहीं देखा गया , मैंने धीरे से उन सज्जन से कहा , आपने बिना वजह यह बीच की बर्थ खोल दी , नीच कोई बैठ नहीं सकता है अब । बच्चे कों भी तकलीफ हो रही है ।
इतना सुनना था की वो सज्जन जो अब तक भड़ास में भरे बैठे थे , बिदक कर मुझे खरी खोटी सुनाने लगे । कहने लगे ये हमारी बर्थ है , और आपका भांजा जबरदस्ती इस पर बैठा है । एक स्त्री कों अकेली सफ़र करते देख उन्होंने सोचा इसको कुछ भी बोल दो , क्या कर लेगी । उनका लहजा बहुत अपमानजनक था। काफी झगडालू लग रहे थे और ऊंची स्वर में उनके बोलने से मैं डर गयी और बेईज्ज़ती ज्यादा न हो जाए , उनका कोई जवाब नहीं दिया और चुप चाप बैठी रही ।
जिंदगी में ऐसा पहला अनुभव था । पांच मिनट गुज़र गए । मन में बेचैनी थी , गुस्सा था , अपनी लाचारी पर तरस भी था और कायरों की तरह बैठे तमाशबीन सह-यात्रियों पर खेद भी । एक स्त्री होने का अब समाज में कोई स्थान तो है नहीं , लोग rival समझते हैं और जहाँ मौक़ा पाया , वहीँ कर दो इसका अपमान , क्या कर लेगी ? ऐसा सोचते हैं।
मैं दस मिनट तक अपने मन में घुटती रही , फिर अचानक एक विचार आया , इस गुंडे कों ऐसा सबक सिखाउंगी की जिंदगी भर किसी का अपमान नहीं करेगा ।
अचनाक मैं उससे मुखातिब हुई , कड़क आवाज़ में कहा - " उठ कर बैठिये " । वो आज्ञाकारी बालक की तरह बैठ गया । मैंने कहा - " टिकट निकालिए " । वो तीखी आवाज़ में बोला - " पहले आप दिखाइये"
मेरे अन्दर उस समय जाने कहाँ का साहस आ गया था ।-- " मैंने कहा , टिकट निकालिए , ज़रा देखूं किस बात पर आप इतना अकड़ रहे है । " उसने अपना टिकट दिखाया , उसके पास केवल एक सीट थी जिस प़र वो पूरा विराजमान था । फिर मैंने अपना टिकट निकालकर बगल बैठे सहयात्री कों दिखाया जिस पर दो सीटों का आरक्षण था । एक मेरा और एक मेरे १२ वर्षीय भांजे का । " ३४ नंबर" की बर्थ जिस पर वो उस लड़की कों जबरदस्ती लिटाना चाहता था वो सीट भांजे की ही थी , जिस पर उन सज्जन ने उसे सर झुकाकर बैठने कों मजबूर कर दिया था ।
अब चुप बैठी जनता भी मेरे साथ थी । उन सज्जन की अकड़ ढीली पड़ चुकी थी । ऊंट पहाड़ के नीचे आ चुका था ।
मैंने कहा - " एक स्त्री कों अकेली देखकर उसका अपमान मत कीजियेगा अब कभी । यदि कोई शराफत से चुप बैठा आपको बर्दाश्त कर रहा है तो उसे मूर्ख भी मत समझिएगा । रेल यातायात के नियमों कों समझिये और प्रातः आठ से लेकर रात्री आठ तक बैठने की व्यवस्था और उसके बाद सोने का नियम , इसलिए गुंडई दिखाकर जबरदस्ती सहयात्रियों कों कष्ट मत दीजियेगा। और ये जो छोटी बच्ची कों आप एक नौकरानी की तरह ले जा रहे हैं और जबरदस्ती लेटने कों कह रहे हैं वो भी अनुचित है " । मेरा भांजा आपका तो कुछ नहीं लगता , इसलिए आप इतनी निर्दयता से पेश आये उसके साथ। वो चुप चाप कॉमिक पढ़ रहा था तो आपसे उसकी ख़ुशी भी बर्दाश्त नहीं हुई । और मैं , जो आपकी सहयात्री हूँ, उससे आपने तमीज के साथ बात करना भी उचित नहीं समझा , क्यूंकि मैं स्त्री हूँ , आपकी गुंडागर्दी से डर जाउंगी ? "
इसके बाद तो उन सज्जन कों अन्य यात्रियों के भी ढेरों प्रवचन सुनने पड़े , और झांसी आते ही वो झोला लेकर उस बच्ची के साथ भाग खड़े हुए । झाँसी से ग्वालियर २ घंटे का सफ़र हमारा सुखमय रहा ।
मैं भांजे के बगल में बैठ गयी , वो डरा हुआ था , मुझे देखकर पहली बार मुस्कुराया , बोला -- " मौसी मज़ा आ गया , आज इनको अच्छा lesson मिला होगा "
मैंने कहा - " बेटा मज़ा तो आज पहली बार मुझे आया है , एक स्त्री लाचार नहीं है , इस बात का सुखद अनुभव किया है मैंने "
डरने वाले कों लोग और डराते हैं , दबाते हैं और धमकाते हैं । गलत प्रवित्ति बढती जाती है और सीधे सच्चे लोगों के बीच खामोशी बढती जाती है । सत्य में जो ताकत है वो किसी और चीज़ में नहीं। जब हम सही होते हैं तो ये सच ही हमारी ताकत बनता है और हर परिस्थिति में हमें हिम्मत देता है । हमारे पास टिकट था ( जो हमारा सच था ) , और इसी सच ने हमें आवाज़ उठाने की शक्ति दी । इसी सच ने वहां उपस्थित समाज कों हमारे समर्थन में भी खड़ा कर दिया ।
"God helps those who help themselves "
आभार ।
72 comments:
:)
एक स्त्री लाचार नहीं है ,
bahut hi himmat dene wali yatra
"God helps those who help themselves "
yahi sahi hai comment ke liye...:)
bahut achchha kiya..
प्रेरक संस्मरण।
नदी बड़ी खामोश शांत-सी थी
डर उसके दर की हर खिड़की से झांकता था ...
बड़ा डराता था ...
एक दिन जड़ दिए उसने उस पर ताले
और फेंक दी सारी चाबियाँ समंदर में !
अधूरी नज़्म लिख दी यही!
डरने वाले कों लोग और डराते हैं , दबाते हैं और धमकाते हैं । गलत प्रवित्ति बढती जाती है और सीधे सच्चे लोगों के बीच खामोशी बढती जाती है । सत्य में जो ताकत है वो किसी और चीज़ में नहीं। जब हम सही होते हैं तो ये सच ही हमारी ताकत बनता है और हर परिस्थिति में हमें हिम्मत देता है । हमारे पास टिकट था ( जो हमारा सच था ) , और इसी सच ने हमें आवाज़ उठाने की शक्ति दी । इसी सच ने वहां उपस्थित समाज कों हमारे समर्थन में भी खड़ा कर दिया .
bilkul sahi kaha------
jai baba banaras-----
डरने वाले कों लोग और डराते हैं , दबाते हैं और धमकाते हैं । गलत प्रवित्ति बढती जाती है और सीधे सच्चे लोगों के बीच खामोशी बढती जाती है । सत्य में जो ताकत है वो किसी और चीज़ में नहीं। जब हम सही होते हैं तो ये सच ही हमारी ताकत बनता है और हर परिस्थिति में हमें हिम्मत देता है । हमारे पास टिकट था ( जो हमारा सच था ) , और इसी सच ने हमें आवाज़ उठाने की शक्ति दी । इसी सच ने वहां उपस्थित समाज कों हमारे समर्थन में भी खड़ा कर दिया
अच्छा संस्मरण। अन्याय करने वाला गलत होता है और सहने वाला उससे भी गलत। आपने अन्याय का प्रतिरोध कर अच्छा किया।
दिव्या जी, भारतीय रेल में अक्सर ऐसा होता है। जो दबंग किस्म के होते हैं वो सीधे साधे यात्रियों को डराकर धमकाकर बेवजह सीटों पर कब्जा कर लेते हैं। कई मामलों में टीटीई भी बेबस नजर आते हैं।
मुझे याद आ रहा है, हम पिछले जून में जयपुर गए थे। वापसी में सडक मार्ग से मथुरा पहंचे। इसके बार मथुरा दर्शन कर आगरा आए और आगरा से हमारी वापसी की ट्रेन थी। रात आठ बजे आने वाली ट्रेन छह घंटे देर से करीब दो बजे रात को आई। मैं और मेरे एक दोस्त का परिवार दोनों थे। टिकट थी। बर्थडे भी था लेकिन जब हम ट्रेन में चढे तो एक महिला हमारे बर्थ में सोई थी। उससे उठने कहा तो उसने उठने से मना कर दिया। अब महिला थी तो उससे जोर जबरदस्ती तो नहीं कर सकते थे। टीटीई को बुलाया। टीटीई ने भी उन्हें कहा कि यह बर्थ इनकी है, आप उठ जाएं पर वह नहीं उठीं। आखिर में टीटीई ने हमसे माफी मांग ली और चले गए। इसके बाद आगरा से राजनांदगांव तक का सफर हमने बचे बर्थ में एडजस्ट कर पूरी की।
होता है अक्सर ऐसा।
आपने अच्छा किया। ऐसे लोगों को सबक सिखाना जरूरी होता है।
सही है लोग उसी को दबाते है जो दबता है
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प्रेरक प्रसंग
.
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... मन को प्रफुल्लित कर दिया आपके संतुलित और शालीन हौसले ने.
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bahut prerna denewali baat hai....
वृक्षारोपण नहीं पौधरोपण। हा-हा। अख़बारी इंसान हूं, इसलिए यह फर्क करता हूं। वृक्ष बड़ा होता है और पौधा छोटा। खैर, आपको और आपके पति श्री समीर श्रीवास्तव जी को शुभकामनाएं। ब्लॉग जगत में आप हमेशा चमकते रहें और अपने अमूल्य विचारों से दूसरों के दिमाग रौशन करते रहें।
मैं तोपची नहीं हूं पर दुनाली का मालिक जरूर हूं। ब्लॉग ‘‘दुनाली’’ की ओर से ही सलामी कबूल करें।
धन्यवाद
indeed an IRON LADY.... keep going
Best Wishes,
irfan
साहस ही सफलता की कुंजी है
दिव्या जी यही हौसला बनाये रखना चाहिये महिलाओं को तभी अपने हक के लिये लड सकती हैं।
समाज को अगर सच मै हम बदला हुआ देखना चाहते हैं तो इस तरह का कदम हमे हर उस वक़्त उठाना ही होगा जब हमे लोगों द्वारा की गई इस तरह की हरकतों का सामना करना पड़ता है | क्युकी जब हम लोग हरकत मै आयेंगे तभी हम एक सुन्दर समाज का गठन कर सकते हैं | मै भी कुछ इसी तरह की हूँ इसलिए आपकी बात से सहमत हूँ |
हम आपकी इस हिम्मत की सराहना करते हैं दोस्त |
शाबाश ....
शुभकामनायें डॉ दिव्या !
अपने मन के इस अज्ञात डर से ही स्त्री को पहले लडना है।
सही कहा,आपने! जो डर गया वो मर गया!
बिल्कुल ठीक, जो डर सो मर गया.. जब कुछ गलत किया ही नहीं तो डरना क्यों. आपने ठीक ही किया.
वाकई... जो डर गया समझो मर गया.
कड़क आवाज़ में कहा - " उठ कर बैठिये " ।
सच मानिए पढ़ते-पढ़ते मैं चौंक गया। अब समझ सकता हूं उस ढीठ सहयात्री की क्या दशा रही होगी। लौह महिला का एक यतार्थ चित्रण रोचक लगा। आप इतना तेज़ डॉट भी सकती हैं?
BAHUT KHUB
बहुत अच्छा किया।
सच (टिकट) की ताकत को भी (आपके) सहारे की जरूरत हुई.
Is story ko ap stri se mat jodiye...
Varan Koi bhi chahe kisi bhi ling ka ho himmat hi use dabang bana sakti hai. Dabne vale ko sab dabate hai....
Par pa le dar pe gar,
Fir to aasaa safar hain |
Indian Sushant
आप ने लड़ाई लड़ी | सबक सिखा दिया | हर कोई आप के जैसा नहीं है और न ही हो सकता है | विडम्बना है , आज हमारा समाज इस हालत में है कि लोगो में व्यवस्था के प्रति आदर ही नहीं है | लोगो को गुंडागर्दी में अधिक आनंद आता है , आपने सहयात्री को कष्ट देना में हर्ष होता है, गौरव भी | उस व्यक्ति ने ऐसा इस लिए किया कि आप महिला है ? मेरी सोच कहेती है नहीं , वो हर किसी के साथ ऐसा ही करता | बस सोच में पड़ गया , कारण क्या है .....
आदरणीय डॉ.दिव्याजी,
डरने वाले कों लोग और डराते हैं,दबाते हैं और धमकाते हैं । गलत प्रवित्ति बढती जाती है और सीधे सच्चे लोगों के बीच खामोशी बढती जाती है । सत्य में जो ताकत है वो किसी और चीज़ में नहीं। जब हम सही होते हैं तो ये सच ही हमारी ताकत बनता है और हर परिस्थिति में हमें हिम्मत देता है!
बहुत सुन्दर आज की परिस्थितियों से रूबरू कराती है!
आपने सही कहा "सत्य में जो ताकत है वो किसी और चीज़ में नहीं।" लेकिन वह अपनी ताकत का परियोग नहीं करती है !
"अब आईने को देख कर मैं सोचता हूँ बस यही की
अब कौन हैे जिंदा और कौन है जो मर गया"
किसी भी बुराई का अस्तित्व तब तक ही है, जब तक अच्छाई चुप है. नेकी चुप रहती है किसी डर के कारण नहीं, स्वंय की मर्यादा के लिए. सार्थक सन्देश देती रचना. आभार.
Bhanje ko to maza aaya hi,hum sub ko bhi maza aaya aapki sachchai,saahas, dheeraj aur chaturai dekhkar.Schchai bhi bina saahas,dhiraj,aur vivek / chaturai ke asamarth si ho jati hai kai baar.
अच्छा संस्मरण।
चलो आज ये भी मालूम पङ गया कि आप " ब्लागपुर " की
गब्बर सिंह हैं ।
" अरे ओ ब्लागरों..कितनी गोली हैं इसके अंदर ??
" दिव्या जी इसके अन्दर गोली नहीं..पूरी गोलियों की लङी
है..क्योंकि आपके हाथ में रिवाल्वर नहीं A K 47 है भाई..।
वाह...बहुत खूब ।
आपके साहस को सलाम ....
sundar sansmaran..
saanch ko aanch kahan divya ji !
ऐसे स्वार्थी लोगों का यही इलाज है .दुबारा कभी ऐसी जुर्रत नहीं की होगी .
सच में ऐसा बहुत बार होता है, विरोध ज़रूरी है, लेकिन सब लोग एक जैसे भी नहीं होते!
सच में ऐसा बहुत बार होता है, विरोध ज़रूरी है, लेकिन सब लोग एक जैसे भी नहीं होते!
good job. u did right , but tell me hw r u associated with Gwalior.
बहुत ही अनुकरणीय और प्रशंसनीय कार्य किय आपने . सठे साठ्यम समाचरेत तो होना ही चाहिए .
अच्छा सबक सिखाया !
किसी न किसी को कभी न कभी शुरुआत तो करनी ही पड़ती है !
नारी अब अबला नहीं रही !
आभार !!
अच्छा संस्मरण। आभार !!
आदरणीय डॉ.दिव्याजी,
आपकी इस बात से मुझे एक चुटकुला याद आगया.
दो दोस्त थे `राम`और`राहुल`अचानक राम को सांप दिखा और राहुल डर गया!
और वो मर गया!
पता है क्यों?
क्योंकि जो डर गया वो मर गया!
सही सबक सिखाया।
ऐसी नसीहत मिलने ही चाहिए ऐसे लोगों को।
प्रेरणादायक घटना . इसे पढ़कर सभी का ,खास तौर पर स्त्रियों का, मनोबल वाक़ई बढेगा. आप तो iron lady हैं ही दिव्या जी.
सही किया जी ...
वाह, यह तो गब्बर सिंह का डॉयलाग बन गया था.
अपने सही साहस का परिचय दिया ।
स्त्री कमजोर नहीं होती..सच कहा है जो डर गया वो मर गया..बहुत प्रेरक प्रस्तुति
इसी शीर्षक से सम्बंधित एक संस्मरण डॊ. अजित गुप्ता जी के ब्लाग पर भी पढ़ने को मिला था॥
sochaniya vichar
बल्ले बल्ले
मजा आपको ही नहीं हमें भी आया ..सच ही है अन्याय सहना अन्याय करने से कम नहीं ...डर कर नहीं साहस से काम लेना ही चाहिए.
आपके नाम को सार्थक करता संस्मरण.
प्रेरक.
सलाम.
सहमत हे जी आप से,डरने वाले को सभी डराते हे,
रेलयत्राओं में तो अक्सर ही ऐसा होता है. बढिया पोस्ट.
bahoot achchi lagi aapki post......lekin bar bar apka ye kahna ki naari hone ki vajah se aapko daraya gaya....kuch galat laga mujhe.....ye kis ipurush ke saath bhi ho sakta tha.....fir bhi seat number to aapke paas the hi fir kyun itna darin aap?????
अच्छी लगी आपकी पोस्ट ...लेकिन बार बार ये कहना की नारी होने की वजह से आपको ये सब झेलना पड़ा मुझे कुछ अखरा...ये किसी भी पुरुष के साथ भी हो सकता था जिसने अपनी टिकेट के नंबर ठीक से नही पढ़े हों
दिव्या जी आपमें साहस है, हौंसला है, जूनून है...इसीलिए तो आप हमारे लिये सम्माननीय हैं|
अच्छा किया आपने देर से ही सही पर ठीक ही किया , किसी को भी लाचार नहीं होना चाहिए , स्त्री को शक्ति स्वरूपा है ।
सच की जीत की सार्थक अभिव्यक्ति आपने बहुत ही सुन्दर तरीक़े से की है, जो हम सब के लिये एक पाठ भी है।, धन्यवाद व आभार।
थोडा ध्यान रहे , आजकल कुछ सिरफिरे भी सफ़र करते हैं ट्रेन में, कब किसको धक्का दे दें ट्रेन के बाहर , कुछ कह नहीं सकते।
इस प्रसंग से केवल महिलाओं को ही नहीं बल्कि पुरुषों को भी प्रेरणा मिलेगी कि अन्याय का मुकाबला दबंगता के साथ करना चाहिए।
नमस्ते दिव्या जी आज बहुत दिनों के बाद शुद्ध हिंदी में पड़ने को मिला. बहुत अच्छा लगा आज इन्टरनेट पर कुछ हिंदी में पद कर. बहुत अच्छा लिखती है आप. समा बंद के रख दिया मेने एक ही दिन में आपके सारे ब्लोग्स पड़ लिए मज़ा आ गया....
सहमत हूँ। सारी बाते आपने लिख ही दी हैं ..फिर भी दोहराना चाहूँगा कि अनावश्यक कभी भी किसी से नहीं दबना चाहिए..जैसा कि आपके साथ हुआ था। लोगबागों को जहां भी ताक़त दिखाने का मौक़ा मिलता है वो दिखाते ही हैं इसीलिए उन्हें मौका ही ना दें।
अपनी ताकत का सही अंदाजा किसी परिस्थिति विशेष में ही हो पाता है. ऐसी घटनाएँ याद करके आत्मविश्वास और बढ़ता है.
आपने साहस से काम लिया .. अन्याय का विरोध होना ही चाहिए ... फिर वो अन्याय किसी के प्रति भी हो ...
अछा संस्मरण है .....
नमस्ते दिव्या जी! बहुत अच्छा लिखती है आप."सत्य में जो ताकत है वो किसी और चीज़ में नहीं।" अन्याय का मुकाबला आत्मविश्वास और साहस के साथ करना चाहिए।
सच की जीत की सार्थक अभिव्यक्ति!!
mazedaar kissa..par aisi himmat jutaana aksar hi mushkil pad jata hai...saath waale log kabhi saath nahi dete so kud apne bal aur himmat par hi ye pange lena sahi hoga...aapne jo kiya sahi thaa
I entered quit late in blogging,and so many thing on the top of the list your free,fare and fearless comments on different situations and issues which makes you AN IRON LADY in real sense
.
Rajesh ji ,
Thanks for the kind words !
.
दीदी आप शेरनी है, कितने तो आपके पोस्ट पर कमेन्ट करने से भी डरते होगे, जय माँ भारती ..
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