आजकल समाचारों में पढने कों मिलता है कि अमुक स्त्री ने न्याय ना मिलने पर अदालत में निर्वस्त्र होकर विरोध जताया । कहीं कोई स्त्री ससुराल में प्रताड़ित होती है तो दिल्ली , मुंबई की सड़कों पर निर्वस्त्र दौड़ पड़ती है । कहीं पर समाज के ठेकेदार ( राम सेना के चीफ ) जैसे लोग मॉरल-पुलिसिंग करते हैं तो महिलाओं द्वारा 'pink chaddi campaign' चलाया जाता है । कहीं सूखा पड़ा है तो स्त्रियों के निर्वस्त्र होकर खेतों में हल चलाने से , इंद्र देव प्रसन्न होकर बारिश करायेंगे आदि।
इस तरह से न्याय नहीं मिलता । ना ही कोई क्रांति लायी जा सकती है । ये स्त्री की एक अत्यंत ही लाचार और हताश अवस्था कों इंगित करती है । इस तरह के आचरण से लाभ नहीं होगा अपितु स्त्री की गरिमा कों क्षति पहुंचेगी । इसलिए यदि अपने अधिकारों के लिए लड़ना है , तो अपनी गरिमा और मर्यादा कों कदापि नहीं भूलना है । जिस सभ्यता को पाने में युगों लग गए , उसे त्यागकर आदि-मानवों की तरह आचरण करने से क्या हासिल होगा । यह तो खुद के ऊपर अत्याचार करने जैसा हुआ ।
ऐसे आचरण जिससे, स्त्री और पुरुष सभी असहज हो जाएँ , उसे न्याय पाने का हथियार क्यों बनाना ? न्याय तो मिलेगा नहीं , मानसिक अस्पताल में भर्ती होने का आदेश ज़रूर मिल जाएगा ।
आज भी समाज में स्त्री एवं पुरुष के बीच दोहरा मापदंड है । स्त्री चाहे गरीब हो अथवा अमीर , गावं की हो अथवा शहर की , पढ़ी-लिखी हो अथवा अनपढ़ , सभी कों पुरुष से कमतर समझने की ही मानसिकता है । इसी मानसिकता का परिणाम है - कन्या भ्रूण हत्या , दहेज़ , सती प्रथा आदि ।
ऐसी मानसिकता वाले समाज से कुछ मांगो नहीं , क्यूंकि मांगने वाला सिर्फ 'भिक्षु' होता है । वो कभी भी स्वयं पर गर्व नहीं कर सकता । अपना हक माँगा नहीं जाता । साम , दाम , दंड , भेद से लड़कर हासिल किया जाता है ।
पोंछ कर अश्क अपनी आँखों से , मुस्कुराओ तो कोई बात बने
सर झुकाने से कुछ नहीं होता , सर उठाओ तो कोई बात बने
अपना हक संगदिल ज़माने से , छीन पाओ तो कोई बात बने ।
आप बताइए कैसे लड़ी जाए ये लड़ाई ?
इस तरह से न्याय नहीं मिलता । ना ही कोई क्रांति लायी जा सकती है । ये स्त्री की एक अत्यंत ही लाचार और हताश अवस्था कों इंगित करती है । इस तरह के आचरण से लाभ नहीं होगा अपितु स्त्री की गरिमा कों क्षति पहुंचेगी । इसलिए यदि अपने अधिकारों के लिए लड़ना है , तो अपनी गरिमा और मर्यादा कों कदापि नहीं भूलना है । जिस सभ्यता को पाने में युगों लग गए , उसे त्यागकर आदि-मानवों की तरह आचरण करने से क्या हासिल होगा । यह तो खुद के ऊपर अत्याचार करने जैसा हुआ ।
ऐसे आचरण जिससे, स्त्री और पुरुष सभी असहज हो जाएँ , उसे न्याय पाने का हथियार क्यों बनाना ? न्याय तो मिलेगा नहीं , मानसिक अस्पताल में भर्ती होने का आदेश ज़रूर मिल जाएगा ।
आज भी समाज में स्त्री एवं पुरुष के बीच दोहरा मापदंड है । स्त्री चाहे गरीब हो अथवा अमीर , गावं की हो अथवा शहर की , पढ़ी-लिखी हो अथवा अनपढ़ , सभी कों पुरुष से कमतर समझने की ही मानसिकता है । इसी मानसिकता का परिणाम है - कन्या भ्रूण हत्या , दहेज़ , सती प्रथा आदि ।
ऐसी मानसिकता वाले समाज से कुछ मांगो नहीं , क्यूंकि मांगने वाला सिर्फ 'भिक्षु' होता है । वो कभी भी स्वयं पर गर्व नहीं कर सकता । अपना हक माँगा नहीं जाता । साम , दाम , दंड , भेद से लड़कर हासिल किया जाता है ।
पोंछ कर अश्क अपनी आँखों से , मुस्कुराओ तो कोई बात बने
सर झुकाने से कुछ नहीं होता , सर उठाओ तो कोई बात बने
अपना हक संगदिल ज़माने से , छीन पाओ तो कोई बात बने ।
आप बताइए कैसे लड़ी जाए ये लड़ाई ?
- सबसे पहले तो अपने तन पर वस्त्रों की गरिमा कों समझिये । किसी भी हालत में स्त्री की अस्मिता की रक्षा करने वाले इन वस्त्रों का अपमान मत कीजिये । लाचारी एवं हताशा की अवस्था में भी मर्यादित रहिये । ये वस्त्र इतने गरिमामयी होने चाहियें की देखने वालों की नज़र भी श्रद्धा एवं सम्मान से भर जाए । ( अन्यथा स्त्री कों निर्वस्त्र देखने वाले उन्मादी असंख्य हैं )
- पिंक चड्ढी की जगह , मॉरल पुलिसिंग करने वालों कों ' चप्पलें ' भेजनी चाहियें।
- एकता में बल है , इसलिए किसी भी अभियान कों एकजुट होकर सफल बनाया जा सकता है ।
यदि व्यक्ति सही है तो उसे समर्थन करने वाले भी मिल जायेंगे । इसलिए खुद कों लाचार समझने की ज़रुरत नहीं है । संवेदनशील लोगों से सहयोग की अपेक्षा की जा सकती है । - खुद को इतना मज़बूत बनाइये की अन्याय करने वाला अपने ही बाल नोंच डाले ।
ग्रंथों , पुराणों और उपनिषदों में नारी को 'देवी' कह दिया गया लेकिन विरला ही कोई होगा जो स्त्री को देवी समझता होगा । इसलिए गलती से भी स्वयं को देवी की भूल-भुलैय्या में ना रखिये ।
मनुष्य बने रहकर , निर्भय होकर सबसे पहले खुद में आत्मविश्वास लाइए । जब आप स्वयं का सम्मान करना सीख जायेंगी तो जमाना आपके साथ-साथ चलेगा ।
आभार
85 comments:
bilkul sahi.........khud ki ijjat apne haath hi hoti hai
ekdam sahii.
bilkul sahi kaha aapne. yadi yesa hotaa to sabse pragti shil jangli janver hi hote!
It is great post.
इससे अच्छा तरीका और क्या हो सकता है कि सब से पहले अपने व्यक्तित्व की गरिमा को बचाया जाए. नारी को देवी कहना पुरुष की धूर्तता है. स्त्री अपने मानवत्व में कायम रहे इसी में बेहतरी है.
सही कहा आपने, नग्नता से कुछ नही होना वाला
निर्भय होकर सबसे पहले खुद में आत्मविश्वास लाइए.
.
सहमत
बहुत सही कहा आप ने|
पोस्ट में स्त्री-पुरुष सामंजस्य का विरोध दिखता है, जो शायद इसका आशय नहीं है.
भारत के कुछ गरीब ग्रामों में मेरा समय बीता है.
गाइड फिल्म में अकाल के हालत चित्रित हैं.
अकाल से मुकाबला करने में लोग मिटटी
के बांध बनाते हैं नदियों पर.मजदूर बिना
मजदूरी के सिर्फ भर पेट भोजन पर काम करते हैं.
बड़े किसान अनाज उपलब्ध करते हैं क्यों कि
खेत प्यासे रह गए तो इन्सान भूखे रह जायेंगे.
भूख से मर भी जायेंगे.
मरने का यह डर शायद शायद महिलाओं से हल चलवाता है.
शायद संकेत है कि अगर फसल नहीं हो पाई तो जीवन आदिम युग में लौट जाये जब कपडे नहीं थे.
मैं ऐसे लोगों से मिला हूँ जो अकाल के दौरान पेड़ के पत्ते चबा कर जीवित रहे थे.
चोरभट्टी ग्राम के रहने वाले हैं.बाद के दिनों अमेरिका से गेहूं और दूध पौडर आया था .
तब भी हल चलने वाली घटना नहीं हुई थी.
मालवा तरफ हल चलने की घटना हुई थी.
aap shi hen lekin yeh bhi sch he ke aek bebs aek hara huaa khiladi isse zyaada kya kr sktaa he vese osho nnge hokr hi mhana bne the . agr sistm sudhr jaaye to fir koi kyun nngaa hogaa aajkl to sb aek dusre ko nngaa kr khush ho rhe hen or aek netaa beshrm hen ke pure zmir ke kpde utrne ke baad bhi khud ko nngaa nhin smjh rhe hen . akhtar khan akela kota rajsthan
लिखा तो आपने सही है पर यह बेबसी की इन्तहा ही है कि कोई ऐसा कर गुजरता है
सच कहा है ... विरोध का ये तरीका बस तमाशा ही बना सकता है ....
पोंछ कर अश्क अपनी आँखों से , मुस्कुराओ तो कोई बात बने
सर झुकाने से कुछ नहीं होता , सर उठाओ तो कोई बात बने
अपना हक संगदिल ज़माने से , छीन पाओ तो कोई बात बने ।
aapki rachna padhkar kai ghatnaaye mere aas-paas ke bhi jeevant ho uthe ,marayada banaye rahe ye behad jaroori hai .
सही कहा आपने निर्वस्त्र होने से कोई क्रांति नहीं आती अब जरुरत है उस समाज को नंगा करने की जो इनका उपयोग करता है अपने स्वार्थ के लिए बहुत अच्छी और सार्थक पोस्ट , आभार
# सबसे पहले तो अपने तन पर वस्त्रों की गरिमा कों समझिये । किसी भी हालत में स्त्री की अस्मिता की रक्षा करने वाले इन वस्त्रों का अपमान मत कीजिये । लाचारी एवं हताशा की अवस्था में भी मर्यादित रहिये । ये वस्त्र इतने गरिमामयी होने चाहियें की देखने वालों की नज़र भी श्रद्धा एवं सम्मान से भर जाए । ( अन्यथा स्त्री कों निर्वस्त्र देखने वाले उन्मादी असंख्य हैं ) agar sabhi stri...in wakyo ka aanusar kare, to anarth karane wala ,sau bar sonchega. mere khayal se ye point hi 100 % correct hai......phir bhi ladayi...lad kar nahi sambhal kar jiti jati hai.bahut sundar aalekh.
महत्वपूर्ण पोस्ट और मुद्दा!
अच्छा आलेख है...
--कन्या भ्रूण हत्या , दहेज़ , सती प्रथा---ये नारी के विरुद्ध मानसिकता के परिणाम नहीं अपितु --लालच, लोभ,अनाचरण की मानसिकता के हैं क्योंकि अधिकान्श मामलों में इनमे नारियां ही संलिप्त पाई जाती हैं....
----""ग्रंथों , पुराणों और उपनिषदों में नारी को 'देवी' कह दिया गया लेकिन विरला ही कोई होगा जो स्त्री को देवी समझता होगा ""....सही कथन है यही तो समस्या है कि लोग --स्त्री-पुरुष दोनों ही...इन ग्रन्थों की बातों को भूले हुए हैं..और अनाचरण में लिप्त हैं......इससे ग्रन्थ व उनमें लिखी बातें थोडे ही झूठी हो जाती हैं...उन्हें अपनाया जाना ही एकमात्र उपाय है....
बिलकुल सही कहा आपने यदि अपने अधिकारों के लिए लड़ना है , तो अपनी गरिमा और मर्यादा कों कदापि नहीं भूलना है आज अधिकतर महिलायें जरुरी कामों को छोड़ कर फ़ालतू के अंधविश्वासों में फंसी हैं
बिलकुल सही कहा आपने . यदि ऐसा होता तो सबसे अधिक प्रगतिशील जंगली जानवर ही होते !
आपका कहना सही है ..ऐसा करना विवेक को खोने जैसा है .और जिसने विवेक को खो दिया उसने सब कुछ खो दिया ...विचारणीय पोस्ट
सत्य वचन . खुदी को कर बुलंद वाली बात आएगी तब ऐसे लज्जा का आवरण हटाने की कोई जरुरत नहीं पड़ेगी .
Very right U are. Self recognition, education and protest against unreasonable pressures and injustice can do much. But one point always irritates me -- why do women always justify that it adds to their modernity if they wear less and shorter clothes.
बहुत नहीं पढ़ पाई , जितना पढ़ा अच्छा लगा , ab समझी thilaind se मेरे ब्लॉग पर कौन aa रहा है ...आप www.shardaa.blogspot.com पर पढ़ें तो शायद एक और drishtikon आपको अच्छा लगे . बहुत बहुत धन्यवाद ...
पोंछ कर अश्क अपनी आँखों से , मुस्कुराओ तो कोई बात बने
सर झुकाने से कुछ नहीं होता , सर उठाओ तो कोई बात बने
अपना हक संगदिल ज़माने से , छीन पाओ तो कोई बात बने ।
bilkul shi kha aapne
aapne ladai ladne ke jo tarike btaae vo bhi shat-prtishat shi hain
बिल्कुल सही कहा आपने। समाज में स्त्री को देवी के तुल्य माना गया है लेकिन सिर्फ माना गया है, इसका पालन कहीं से नहीं होता। लोग स्त्री को हमेशा से ही उपभोग की वस्तु समझते हैं, बस।
आपके पोस्ट से पूरी तरह सहमत।
अच्छे और गंभीर विषयों पर ध्यान आकर्षित करने और मनन करने का अवसर देने के लिए आपका आभार।
खुदी को कर बुलन्द इतना...
i think who ever is protesting nude is mentally sick !!!!
आज न्याय मिलता है बसें जलाने से, रास्ता रोकने से, शोरोम बनने से :(
अपनी बातें मनवाने के लिए इस तरह का अमर्यादित प्रदर्शन बेअसर होता है। उपहास का पात्र बनना पड़ता है, सो अलग।
आपका यह सुझाव महत्वपूर्ण है कि खुद को इतना मजबूत बनाइए कि अन्याय करने वाला अपने ही बाल नोच डाले।
बिल्कुल सही कहा आपने।
आत्मविश्वास में वह बल है, जो हज़ारों आपदाओं का सामना कर उन पर विजय प्राप्त कर सकता है।
सच ही कहा है आपने । तन के वस्त्र और मन के स्वाभिमान को अगर बचा सके तो स्त्री अपनी अस्मिता को बनाये रख सकेगी ।
इस तरह के प्रदर्शनों से अन्ततः शर्म स्वयं बेशरम हो जाती है।
और जगुप्सा का प्रभाव खत्म हो जाता है।
यह जंगली कबीलाई कुसंस्कृतियों का असर है।
आपका उठाया विषय प्रभावशाली है।
ग्रंथों , पुराणों और उपनिषदों में नारी को 'देवी' कह दिया गया लेकिन विरला ही कोई होगा जो स्त्री को देवी समझता होगा । इसलिए गलती से भी स्वयं को देवी की भूल-भुलैय्या में ना रखिये । और देवताओं ( पुरुषों) से किसी प्रकार की अपेक्षा मत रखिये ।
प्रिय दिव्या जी ,
एक तरफ तो आप कहती हैं की स्त्री पुरुष एक दुसरे के पूरक है और दूसरी तरफ कहती है की उनसे अपेक्षा करना बेमानी है ,क्या स्त्री या पुरुष एक दुसरे के बिना अपनी लड़ाई सफलता पूर्वक लड़ सकते है ? मैं आपके इस बात से सहमत नहीं हूँ की स्त्री ,पुरुष से कोई अपेक्षा न करें ।
और आप ने कुछ अन्धविश्वाश के बारे में बताया की महिलओं को निर्वस्त्र कर खेतो में हल चलाया जाता है की इंद्र देव प्रसन्न होकर बारिश करायेगें जो बिलकुल गलत है ,ऐसा नहीं होना चाहिए ।
लेकिन उन्हें आप क्या कहेगी जो शहरों में महिलाये ऐसा वस्त्र पहनती है जो सामने वाले देवताओ (पुरुष ) आप के शब्दों में भी शरमा जाते है । इन्हे
निर्वस्त्र करने में देवताओं की कितने %प्रतिशत गलतिया है . देवताओं (पुरुष) से ज्यादा घबराने की जरूरत नहीं है ,देविया कुछ अपने अंदर परिवर्तन कर ले तो कुछ अपनी परेशानिया खुद कम कर लेंगी
धन्यवाद ।
नग्नता या गाधी वाद से कुछ नही होता, जब तक हम अपने हक के लिये ना लडे.... लेकिन मैरे कहने का मतलब गुंडा गर्दी भी नही हे, जब हमे पता हो कि हम सही हे तो हमे आत्म विश्वास से आगे बढना चाहिये, हक के लिये, क्योकि अन्याय को सहना भी अन्याय हे,
बहुत सही कहा है पर कई बार हालत से मज़बूर हो जाने पर व्यक्ति इन सब बातों पर विचार नहीं कर पाता ...उसकी मानसिक स्तिथि को भी नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता. आपकी सलाह अपनी जगह सही है
aapne bilkul sahi kaha
jabardast sujhav
बहुत बढिया दिव्या जी. अमर्यादित विरोध कभी सफ़ल नहीं हो सकता.
निःसँदेह.. अनछुये विषय पर यह एक उम्दा पोस्ट है !
फौजिया जी आलेख" निर्वस्त्र होता न्याय" पढ़ा था.
आपका विश्लेषण बहुत ही बढिया है.
बेबसी जब जुनूं की हद पार कर ले तो आदमी क्या करे ?
मनुष्य बने रहकर , निर्भय होकर सबसे पहले खुद में आत्मविश्वास लाइए । जब आप स्वयं का सम्मान करना सीख जायेंगी तो जमाना आपके साथ-साथ चलेगा.........
आशा का संचार करती है आपकी पोस्ट ...
आपको दिल से बहुत बहुत आभार !
जी सहमत सौ टका
.
प्रिय शिवशंकर जी ,
शायद आपने ध्यान नहीं दिया लेख में लिखा हुआ है की --
एकता में बल है , इसलिए किसी भी अभियान कों एकजुट होकर सफल बनाया जा सकताहै ।
यदि व्यक्ति सही है तो उसे समर्थन करने वाले भी मिल जायेंगे । इसलिए खुद कों लाचार समझने की ज़रुरत नहीं है । संवेदनशील लोगों से सहयोग की अपेक्षा की जा सकती है ।
संवेदनशील पुरुष भी होते हैं और स्त्रियाँ भी ।
अगर आप विषय पर ध्यान न देकर मेरे शब्दों कों पकड़कर बैठ जायेंगे तो हर बात का, जवाब होते हुए भी , जवाब देना मुश्किल होगा ।
--------
@--देविया कुछ अपने अंदर परिवर्तन कर ले तो कुछ अपनी परेशानिया खुद कम कर लेंगी...
ये एक पृथक विषय है , जिस पर पांच माह पूर्व ये लेख लिखा था , समय निकालकर दृष्टि डालियेगा , आपको तसल्ली हो जायेगी । एक विषय पर लिखते समय उसी पर focus रहता है । अनावश्यक विस्तार से बचने की कोशिश करती हूँ।
-------
एक खूबसूरत महिला का आतंक -- भारतीय संस्कृति की चिता मत जलाइए -- Hiss
http://zealzen.blogspot.com/2010/10/hiss.html
--------
आभार आपका ।
.
.
एक दो महापुरुषों के अभद्र एवं अनर्गल प्रलाप प्रकाशित नहीं किये गए हैं । आशा है ये सज्जन स्वयं में सुधार लाने की कोशिश करेंगे एवं भविष्य में शिष्ट भाषा में टिपण्णी लिखेंगे ।
.
aapke viswas bhare , prakhar ,sammananiya ,utprerak vicharon se bal milata hai . kuchh to sochana hi hoga ,atishaya vinmrata bhi pida ka
karan banati hai .
आपकी बात से में पूरी तरह सहमत हूँ की जब तक हम अपना सम्मान करना नहीं सीखेंगे तब तक कोई हमे सम्मान नहीं देगा पर एक बात और है की हमे अपने अन्दर संयम भी लाना होगा अगर हर बात से हताश होकर यहाँ - वहां दोड़ने लगे तो सफलता की जगह विफलता ही हाथ आएगी |
एक बीज बड़ते हुए कभी आवाज़ नहीं करता ,
मगर एक पेड़ जब गिरता है तो .............
जबरदस्त शोर और प्रचार के साथ ..........!
इसलिए विनाश मै शोर है परन्तु ,
सृजन हमेशा मोन रहकर समृद्धि पाता है !
बहुत सुन्दर विषय बधाई दोस्त |
आज आपकी आलोचना का बिंदु मिल ही गया । इंटरनेट की 70% क्रांति ही स्त्री के
निर्वस्त्र होने के कारण है । महाभारत युद्ध की क्रान्ति ही द्रोपदी के नग्न होने से अधिक
हुयी । फ़ैशन की अधिकतम क्रांति भी इसी बात पर है । मान्यता है । सूखा पङने पर नग्न
स्त्रियाँ खेत में हल चलायें तो बरसात होती है । आदि अनेकों उदाहरण हैं । मुझे दोनों
प्रेसीडेंट के नाम तो ध्यान नहीं । पर अमेरिका और रूस के प्रेसीडेंट किसी गंभीर मुद्दे पर
इकठ्ठे हुये । और तब रूस के प्रेसीडेंट बाथरूम से एकदम नग्न अवस्था में अमेरिकन राष्ट्रपति
के सामने निकल आये । और कारण पूछने पर बताया कि हमारे देश की स्थिति आपके सामने
ऐसी ही है । और उनके पक्ष में क्रांति हो गयी । अब ये टिप्पणी है । वरना उदाहरणों की
बौछार है मेरे पास ।
आप का लेख बहुत सुंदर लगा, धन्यवाद
बिलकुल सही लिखा आपने, आखिर मे जिस गीत की पंक्तियाँ लिखी हैं उसको भी यहीं embed कर देतीं तो सुनने के लिये किसी और साइट पर न जाना पड़ता।
ग्रंथों, पुराणों और उपनिषदों में नारी को 'देवी' कह दिया गया लेकिन विरला ही कोई होगा जो स्त्री को देवी समझता होगा ।...................
सही कहा आपने ! क्योंकि सिर्फ ग्रंथों, पुराणों और उपनिषदों के कह देने मात्र से कोई महिला "देवी" या कोई पुरुष देवता नहीं हो जाता, स्त्री हो या पुरुष उसका आचरण उसका व्यवहार और उसके कर्म ही उसे "देवी" या देवत्व की पदवी प्रदान करते हैं,
.......... अपना हक माँगा नहीं जाता । साम , दाम , दंड , भेद से लड़कर हासिल किया जाता है ।
उपरोक्त फार्मूला भी देश,काल एवं परिस्तिथियों को ध्यान में रखते हुए अपनाना होता है, स्त्री हो या पुरुष आम जिन्दगी में कोई भी सहानुभूति का पात्र हो सकता है, बहरहाल .......................................
ग्रंथों , पुराणों और उपनिषदों में नारी को 'देवी' कह दिया गया लेकिन विरला ही कोई होगा जो स्त्री को देवी समझता होगा । इसलिए गलती से भी स्वयं को देवी की भूल-भुलैय्या में ना रखिये ।
जागरूकता लाने वाला लेख ..ऐसे कृत्य से कुछ हासिल नहीं होने वाला ...एकता में ही बल है ..अच्छी पोस्ट
मुझे तो आज तक समझ नहीं आया कि महिलाएं स्वयं को कमजोर क्यों मानती हैं? क्यों हमेशा पुरुषों की बराबरी का सपना देखती हैं? ऐसा कौन सा समाज है जहाँ अन्याय नहीं होता? क्या अन्याय केवल महिला पर ही होता है? पुरुष भी तो शोषण का शिकार बनते हैं। महिलाओं ने पता नहीं क्यों स्वयं को कमजोर मान लिया है। मेरे साथ तो कोई अन्याय होता है तो मैं कभी भी यह नहीं मानती कि मैं महिला हूँ इसलिए ऐसा हुआ है।
निशाप्रिया भाटिया को ये बात समझ में आए तो बात बने कि क्रान्ति कैसे आएगी। अन्याय और अत्याचार करने वाले ही जब न्यायप्रक्रिया का हिस्सा बन जाएं तो इनके नंगेपन को आइना दिखाने का ये तरीका भी कुछ अर्थों में स्वीकार्य है कि शायद स्त्री का निर्वस्त्र हुआ वक्ष देख कर अपनी मां याद आ जाए जिसने पैदा होते ही इनका गला नहीं घोंट दिया। यदि नंगों से खुदा भी हार जाता है तो अन्यायी तो खुदा से बड़े नहीं हैं इस हथियार को भी आजमाने में क्या परेशानी है लज्जित तो उन षंढों और कापुरुषों को होना चाहिए जो कि भाई,पति या बाप होने का दम भरते हैं इस हद तक विरोध पहुंचे उससे पहले अन्यायी का वध क्यों नहीं कर दिया जाए। कोई भी स्त्री सहज भाव से तो इस स्थिति में नहीं आना चाहेगी उस मां, बहन या बेटी की नग्नता असल में समाज के षंढों को उनका अक्स दिखा रही है। जिनका खून ऐसे हालात में भी नहीं उबलता उनसे क्रान्ति वगैरह की बात महज प्रलाप ही सिद्ध होगी।
सादर
भइया
विवशता व्यक्ति से कुछ भी करवा सकती है परन्तु मर्यादित रहने में ही सुखकर है . भारत में निसंकोच कह सकता हूँ कि नारियों कि पूजा होती है १.५ अरब कि जन संख्या पर यदि १०० अमर्यादित उदाहरण , जो सुर्खियाँ बन जाती है , के कारण अन्य को नाकारा नहीं जा सकता . ये कुछ घटनाये राक्षसी जीन के कारण होती है ये पिछले .तीन युगों में भी थे और आगे भी रहने कि प्रबल संभवना है . स्वयं का आत्म दर्शन ही सुधारना. सवारना ही हितकर है अजित गुप्ता जी कि बात से बिलकुल सहमत हूँ .
स्त्रियों का निर्वस्त्र होना वाक़ई चिंताजनक है.आपने अपनी पोस्ट में सही बातें उठाई हैं .आपसे इस मामले में सहमत हूँ.
divya ji bahut achha likha aapne ........ nari kamjor hai tab tak jab tak apni shakti se anjaan hai .. par maryada ko apni shakti na bana kar pardarshan kar apne ko kamjor shabit karnewali baat aa jati hai ... maryadit nari apni bhi bhi nazro me sammnait hoti hai .
Aapne ek baar phir sunder prastooti karke sabhi ko saarthak charcha ka mauka diya hai.Aadarniya
Ajit Gupta ji ke vicharo ko jaan kar achcha laga.Apni ijjat apne haath hi hoti hai,phir chahe veh stree ho ya purush.Aapse ek vinarm nivedan hai.Aapne jo "Radhika" naam se ek paatra
sarjit kiya hai uska naam Radhika se badalkar
'baadhika' (jo baadha utpann kare)ya isi prakar se koi aur naam rakh lijiyega,jo sva-naam dhanya ho.Radhika to ati pavitra naam hai.
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@ राकेश कुमार ,
समझ नहीं आया आपको ऐसा क्यूँ लगता है की राधिका नाम का किसी प्रकार से अपमान हो रहा है । मुझे तो राधिका का चरित्र अपने लेखों में बहुत पसंद है जो मुझे motivate करती है बेहतर लेखन के लिए । वो किसी भी प्रकार से मुझे 'बाधिका' नहीं लगती । राधिका का चरित्र रचकर मैंने उसे अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है । इसमें भला किसी कों क्या आपत्ति हो सकती है ।
.
but sometimes extremeties do wonders,nevertheless nudity is no solution.
अगर कोई महिला ऐसा कदम उठती है तो यह दुखद है| लेकिन इसके लिए उन्हें दोष देना कतई सही नहीं है| माफ करेंगे मैं आपके विचारों से सहमत नही हूँ|यह स्थापित सत्य है कि कोई भी व्यक्ति जानबूझकर ऐसा करना नहीं चाहेगा, निश्चित ही उसके धैर्य की सीमा पार कर गयी होगी| निर्वस्त्र होने से न्याय मिले न मिले समाज में रहने वालों को झकझोरती ज़रूर है, उनके लिए यह एक सबक है जो न्याय के लिए, जाने जाने का दंभ भरते है| भले ही हम इसे हल्के में लेकर टाल दें और दोष उस महिला पर मढ़ दें|
सर झुकाने से कुछ नहीं होता सर उठाओ तो कोई बात बने जैसे प्रेरक वाक्य सांत्वना देने के लिए उपयुक्त हैं|व्यावहार में लाने से पहले हमें उस महिला की मनःस्थिति की तरफ ध्यान देना होगा|
अगर कुछ करना ही है तो एक ऐसा सिस्टम विकसित कीजिये जिससे कोई महिला ऐसा करने को मजबूर न हो| बेवजह किसी को दोष देकर उसकी तौहीन न करें तो बेहतर|
Behad sashakt aalekh hai!Ye bhee sach hai,ki,ek hatash wyakti kee maansikta usse kya karva jaye,kah nahee sakte!
खुद को इतना मज़बूत बनाइये की अन्याय करने वाला अपने ही बाल नोंच डाले । बहुत ही अच्छी बात कही है आपने ...बधाई इस बेहतरीन लेखन के लिये ।
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@ Voice of youths-
पहली बात तो यह कि कोई भी लेख किसी एक व्यक्ति के लिए नहीं लिखा होता है । इसलिए आपका ये कहना गलत है कि मैं किसी पर दोष दे रही हूँ अथवा तौहीन कर रही हूँ। लेख कों एक वृहत परिपेक्ष्य में देखने कि कोशिश कीजिये.
आपने लिखा कि -"अगर कुछ करना ही है तो एक ऐसा सिस्टम विकसित कीजिये जिससे कोई महिला ऐसा करने को मजबूर न हो|"---- उसी कोशिश में ये लेख लिखा है । लेखक का उद्देश्य ही यही होता है कि सकारात्मक विचारों कों जन-जन तक पहुंचाए । यदि मशीन द्वारा सिस्टम विकसित करना मेरे हाथ में होता तो ज़रूर करती ।
रही बात लोगों कि आत्मा झकझोरने कि तो क्या वस्त्र उतारकर प्रदर्शन करना जरूरी है ? इस तरह कि हरकतों से समाज कों एक गलत सन्देश जाता है । ऐसे आचरण से उस युवती ने --
* अपने माता-पिता कों शर्मसार किया ।
* अपने परिवार और मित्रों कों शर्मिंदा किया ।
* अपने लिए तो उसने एक गहरा गड्ढा ही खोद लिया ।
* अपना केस लड़ रहे वकील कों शर्मसार किया ।
* लज्जा का आवरण हटा समस्त स्त्री जाती कों और भी दयनीय बनाया ।
* वेह्शी दरिंदों कों आयी -टोनिक दी और अपना मखौल बनाया।
क्या हासिल हुआ इससे ?
* क्या उसे न्याय अब जल्दी मिलेगा ?
* क्या लोगों कि सहानुभूति दोगुनी हो गयी निर्वस्त्र होने पर ?
* क्या न्याय मिलने के बाद उसे शर्म नहीं आएगी अपने आचरण पर ?
* सहानुभूति के विपरीत उसे उसे अब ताने मिलेंगे कि - " बदचलन औरत है , ऐसी औरतों का यही हाल होता है "
एक स्त्री कों किसी भी हाल में अपने आपको लाचार होकर मानसिक संतुलन नहीं खोना है । बल्कि बेशर्मी करने वालों कों इतना त्रस्त करे कि वो स्वयं ही अपने बाल नोचकर और कपडे उतारकर स्त्री के पैरों में गिरकर माफ़ी मांगे।
स्त्री कि हताशा अन्याय करने वालों के हौसले और भी बुलंद करती है। स्त्रियाँ एक से एक भीषण कष्ट और दारुण दुःख से गुज़रती हैं , लेकिन लज्जा कों त्यागकर अमर्यादित नहीं होती ।
.
दिव्या जी ,
बहुत सच्ची नसीहत दी है आपने , अपने लेख में | कुंठाग्रस्त होकर ऐसे ऊटपटांग कदम उठाना किसी भी तरह से ठीक नहीं कहा जा सकता | अपने अधिकारों के लिए हिम्मत के साथ आगे बढ़कर लड़ना ही मात्र एक विकल्प है यदि हमें प्रेरणा लेनी है तो दुर्गा ,काली, वीरमाता जीजाबाई(छत्रपति शिवाजी की माँ), रानी झाँसी , किरण वेदी जैसी शक्ति स्वरूपा नारी शक्तियों से लेनी चाहिए | हार मानकर नियति के भरोसे स्वयं को छोड़ देना या निर्वस्त्र होकर कोई आन्दोलन खड़ा कर सकने का मिथ्याभ्रम पाल लेना सरासर गलत है |
पहली बात तो यह कि मैंने किसी एक महिला के बारे में ऐसी बातें नहीं की थी| टिपण्णी मैंने आपके विषय पर नहीं की हैं प्रस्तुत करने के ढंग पर की है| वस्त्र उतारकर प्रदर्शन करना ज़रुरी नहीं है,मैं मानता हूँ इससे हानि होगी लाभ नहीं होगा लेकिन क्या हमें इसे उस महिला के नजरिये से भी नहीं देखना चाहिए?
मर्यादा, लज्जा और ऐसे न जाने कितने शब्द सिर्फ़ महिलाओं के लिए ही क्यों उपयोग किये जाते हैं? एक बात मुझे आज तक समझ में नहीं आई कि जब किसी महिला या पुरुष की बर्दाश्त करने की क्षमता खत्म हो जाए तो ऐसी परिस्थितियों में वह क्या करे? हमारे यहां(बिहार में)एक महिला ने कथित यौन शोषण के आरोपी एक विधायक की हत्या कर दी| विधायक सत्ता पार्टी से सम्बन्ध रखते थे एफ आई आर दर्ज होने के बाद उसपर कोई कार्रवाई नहीं हुई उलटे पॉवर का धौंस दिखाकर धारा १६४ के तहत बयान ले लिया गया और केस खत्म कर दिया गया|
इसके बाद उस विधायक ने अपने पी ए और दूसरे सहयोगियों के साथ ब्लेकमेल किया और उसका पुनः यौन शोषण करना शुरू कर दिया| मजबूर होकर उसने उस विधायक की उसके घर पर हत्या कर दी| इस घटना के बाद भी कई महिला संगठनों के उच्च पदों पर आसीन महिलाओं ने यह बयान दिया कि उसे कानून हाथ में नहीं लेना चाहिए| ऐसे में जब सारे रास्ते इस तथाकथित सभ्य समाज में बंद कर दिए जाये तो कौन सा रास्ता अपनाना चाहिए? और फिर क्या हमें सिर्फ़ उन्हें दोष देना चाहिए? या नैतिक समर्थन करना चाहिए?
पोंछ कर अश्क अपनी आँखों से , मुस्कुराओ तो कोई बात बने
सर झुकाने से कुछ नहीं होता , सर उठाओ तो कोई बात बने
अपना हक संगदिल ज़माने से , छीन पाओ तो कोई बात बने ।
ये पंक्तिया लाजबाव हैं। कभी-2 घोर निराशा के समय व्यक्ति कुछ इस तरह के क़दम उठा लेता है। लेकिन इस तरह के क़दमों का समर्थन नहीं किया जा सकता है। इसीलिए आपका कहना सही है। सहमत हूँ।
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@ Voice of youths ,
मेरे विचार से यहाँ आये सभी लोगों कि सहानुभूति उस महिला के साथ है । लेकिन सहानुभूति का मतलब ये नहीं है कि उसके अमर्यादित आचरण कों उचित ठहराया जाए ।
यदि आपको मेरे लिखने के ढंग पर आपत्ति है , तो कोशिश करुँगी बेहतर लिखने की ।
आभार ।
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विचारोत्प्रेरक पोस्ट और उसके बाद शुरू हुई स्वस्थ चर्चा ने मुझे बौद्धिक आनंद दिया.
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आपने दूसरा पक्ष शानदार ढंग से प्रस्तुत किया है। Voice of youth के तर्कों में भी दम है।...आप दोनो का आभार।
समाधान दिया आपने इस समस्या का .
अन्याय, स्त्री या पुरुष पर नहीं होता .. यह किया जाता है कमजोर पर..कमजोर पुरुष-मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी नहीं मिलती.,यहाँ उनका पुरुष होना उन्हें मदद नहीं करता..सोनिया गांधी स्त्री हैं..कोई उन्हें अन्याय का शिकार बनाए ज़रा..
कहते है- शील (लज्जा) ही सभ्य का आभूषण है | विकृत मानसिक अवस्था में हम यह भूल जाते है, तब दोनों ही (स्त्री एवं पुरुष) अपने- अपने तरीके से अपनी मर्यादाओं एवं सीमाओं का उलंघन कर बैठते है | और ऐसा करना किसी भी परिपेक्ष में सही नहीं होता, निर्वस्त्र होना विरोध-प्रतिरोध का कोई सही तरीका नहीं है|
यह मात्र अनियंत्रित- उन्मादी लोग ही कर सकते है | किसी का भी निर्वस्त्र होना, या परंपरा-इतिहास के नाम पर किसी को निर्वस्त्र करना सरासर ग़लत है |
और ऐसे अनियंत्रित लोग ही डार्विन के जीवन के नियमो की पुष्टि करते है - 'मनुष्य असल में वनरो का वंशज है..मनुष्य बस प्रकृति के बेहतर चुनाव का परिणाम मात्र है' ऐसी हरकते ये सिद्ध करती है की आज भी हममे एक जंगली मानसिकता कार्य करती है|
वैसे विरोध का ये अमानुषिक तरीका महिलाओं के प्रचलन में अधिक है.. मेरे जहेन में कुछ दूसरी घटनाएं भी है जहा महिलाओं ने पहले भी निर्वस्त्र होकर अपना रोष जताया है.. सोचने वाली बात है पुरुषो को प्रतिरोध का ये तरीका क्यूँ एक विकल्प नहीं लगता ?
आपके विचारों से पूर्णतः मै सहमत हूँ |
सबसे पहले गीत की बात ...
पोंछ कर अश्क अपनी आँखों से , मुस्कुराओ तो कोई बात बने
बहुत ही प्रेरणास्पद गीत है ...जाने कितने लोगों को कितनी बार सहारा दिया होगा इसने ..
अन्याय के विरुद्ध प्रदर्शन करते समय अपनी मर्यादा नहीं भूलनी चाहिए ..बहुत सही !
satya wachan!!
vyavashta se birodh ka 'ye tarika' kahin khud se
birodh na paida kar de................apke saath
lage rahne me pathak hi kai baar haanf jata hai...
'dhakar likkhar' hoti ja rahi hain....aap....
pranam.
बहुत ही सटीक, सुन्दर, सारगर्भित तथा उस प्रश्न पर तार्किक चर्चा. यह दिमाग की उपज है या दिल की? कहना पडेगा यह भावनामयी दिल के आग्रह पर तार्किक मष्तिष्क की उपज है जिसपर कला ने अपनी ऐसी प्रतिभा का प्रकाश प्रदीप्त किया है कि उसके आलोक में प्रत्येक व्यक्ति चाहे नर यो या नारी, प्रौढ़ हो या युवा, अपना रंग-रूप. एक बार तो देखेगा ही. काश! यह आत्मा निरीख्सन और आत्मालोचन स्थाई हो पाए. बहुत बहुत बढ़ाई आपकी सोच और लेखन कला दोनों का सस्नेह सादर अभिवादन, साधुवाद...साथ ही निरंतर प्रगति हेतु यथायोग्य आशीर्वाद भी...
आप सही मुद्दे ले कर आतीं हैं, काफी अच्छा,
अपना ब्लॉग मासिक रिपोर्ट
बहुत ही सुन्दर लेख, मैंने तो पहले किन्ही मिथलेश जी की टिप्पणी न छपने से उपजी खीज पढ़ी तो उत्सुकता हुई, दरशल दिव्या जी ब्लॉग से ४ दिन की दूरी के कारण आपकी नयी पोस्ट नहीं पढ़ सका ना ही चर्च मंच पर जा सका. आज पोस्ट पढ़ी बिलकुल ठीक बात कही आपने. पुरुषो ने अपनी चाटुकारिता से एक नारी को देवी बनाया और देवी बनाकर अपना उल्लू सीधा करता रहा, कभी चूल्हे में बैठा कर कभी, चुनरी उढ़ाकर कर चढ़ावा बटोरकर. अगर नहीं तो क्यों आज मुन्नी बदनाम और शीला की जवानी जैसे गीत रचते है लोग और बच्चो-बच्चो को रटा देते है विडंबना देखिये की सूरज निकला.. कलिया बोली... छोड़कर मेरा ३ साल का भतीजा शीला की जवानी की फरमाइश करता है.. क्या दे रही है हम समाज को.बिलकुल ठीक कहा आपने दिव्या जी .. सोच बदलने की बात करनी चाहिए और ऐसे लोगो को सबक सिखाने की भी.
ऐसा पढ़े-लिखे, सुसंस्कृत और नगरों में रहने वाले लोग कर रहे हैं यह पढ़ कर तो और भी हैरानगी होती है.
बेहतरीन लेख इस लिए भी क्योंकि अक्सर लोग अपनी जमात की कमियों को नहीं देखना चाहते हें क्योंकि अपनी बात या न्याय मांगे जाने के कई और भी तरीके होते हे . जेसा अपने लिखा हे की इस तरह से नारी शक्ति के अन्दर कोई क्रांति नहीं आनेवाली उल्टा नारी गरिमा और मर्यादा पर कई प्रशन चिह्न खड़े हो जायेंगे ! मुझे पूरी उम्मीद हे की यह लेख पड़ने के बाद सभी पर बहुत गहरा असर छोड़ेगा !
स्त्रियोचित आग्रहों और पुरुषोचित दुराग्रहों से निरपेक्ष आपका विश्लेषण काफी हद तक उपयुक्त है। परिस्थितिवश स्थितियाँ जो भी बनी हों हमें वर्तमान से भविष्य की ओर देखना चाहिए न कि अतीत के संक्रमण को थामे रखना चाहिए।
विरोध जताने के लिए नग्न प्रदर्शन या ध्यान आकर्षित करने के लिए अन्य ओछे हावभाव प्रकट करना अभिव्यक्ति का भौंडा स्वरूप है जो पश्चिमी देशों में आम हो चुका है। नग्नता प्रदर्शित करना या इसे देखने के लिए अवश होना मानसिक कुण्ठा को उजागर करता है और इसे कुतर्कों के माध्यम से सही ठहराना विचारहीनता को।
अपने विचार दूसरों के सम्मुख रखना और यह अपेक्षा रखना कि लोग उनके विचारों को सुनें, महत्व दें, इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण है दूसरों के विचारों का सम्मान करना। विचारों में भिन्नता स्वाभाविक है। तर्क का अपना स्थान है और मर्यादा का अपना। आपसी विमर्श में भी भाषिक मर्यादा तो रहनी ही चाहिए।
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हरीश प्रकाश गुप्त जी की बात से पूरी तरह सहमत हूँ.
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//////समाज के ठेकेदार ( राम सेना के चीफ ) जैसे लोग मॉरल-पुलिसिंग करते हैं//////// आप को ये शब्द हटाने चाहिए अगर आप ने LOVE जेहाद के बारे में नहीं पढ़ा है तो पढ़ लीजिये और सुके बाद हटा दीजियेगा | मैं साधारन्तायाह आप की हर बात से पूरी तरह सहमत रहता हूँ इसी लिए कोई टिप्पड़ी नहीं करता हूँ पर इस वाक्य को यहाँ नहीं होना चाहिए था |
//////////पिंक चड्ढी की जगह , मॉरल पुलिसिंग करने वालों कों ' चप्पलें ' भेजनी चाहियें।//////////और ये भी
लव जेहाद के शिकार लड़कियों की अगर जरा सी भी चिंता है आप को तो
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@ अंकित ,
यह लेख लव-जेहाद पर नहीं लिखा गया है । जब उस पर लिखूंगी आपको उस दिशा में गहन विश्लेषण मिलेगा ।
लेख में जेहाद के लिए इस्तेमाल किये गए अनुचित हथियारों की बात की गयी है । पश्चिम देशों की तर्ज पर , निर्वस्त्र होना या फिर पैंटी -ब्रा कों हथियार बनाकर लड़ना बहुत ही अशोभनीय है ।
हर व्यक्ति यदि एक लाइन हटाने की गुजारिश करेगा तो मेरे विचार कहाँ बचेंगे ? मुझसे सहमत होने की विवशता नहीं है किसी के साथ । आप सभी के अपने original विचारों का स्वागत है ।
आभार ।
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hame prateeksha hai aapke lek kee love jehaad par
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