Saturday, June 2, 2012

सम्मान-पुरस्कार-चुनाव

सम्मान और पुरस्कार के मिलने और देने पर विचार किया तो लगा की यह भी अंग्रेजों के द्वारा अपनाई गयी 'डिवाइड एंड रूल पॉलिसी' की ही तरह है। जिसको समाज से तोडना हो , उसका नाम आगे कर दो । उसके दुश्मन नहीं भी होंगे तो दर्जन भर बन जायेंगे। उसकी प्रतिभा का लोहा अगर मानते भी होंगे लोग , तो उसका नाम ऊपर आने पर उसमें ७० कमियां दिखने लगेंगी सबको।

कौन देगा पुरस्कार उन शहीदों को जिन्होंने होटल ताज में अनेकों की प्राण रक्षा की आतंकवादियों से , उन इमानदार ऑफिसरों को जिनकी इमानदारी की सजा उन्हें गोलियों से भून कर दी गयी , स्वामी निगमानंद, अरुण दस और बहन राजबाला को , जिसने राष्ट्र की धरोहर बचाने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी । क्या मिलेगा उन्हें पुरस्कार जो, तन,मन और धन से निस्वार्थ सेवा कर रहे हैं ?

सचिन तेंदुलकर का नाम 'भारत-रत्न' के लिए उठने पर बेचारा मुफ्त में बदनाम हो गया। गलती से एक विज्ञापन यदि 'पेप्सी' का किया होगा , तो लाखों ताने आने लगे की पैसे के लिए विदेशी-जहर का विज्ञापन कर रहा है। गलती से राज्य-सभा का सदस्य मनोनीत हो गया तो और भी कहर बरपने लगा। जिसे देखने के लिए खेल-प्रेमी रातों की नीद खराब करके भी मैच देखते थे और एक-एक शॉट पर ख़ुशी से झूम उठते थे , वही तिलमिला उठे ये जानकार की इसे पुरस्कार मिल रहा है। पुरस्कार तो मिला नहीं, अलबत्ता वो ज़रूर दूर हो गया अपने बहुत से चाहने वालों से।

लेकिन यदि गंभीरता पूर्वक विचार किया जाए, तो वह "क्रिकेट-रत्न" तो हो सकता है लेकिन "भारत-रत्न" नहीं। क्योंकि भारत-भूमि एक से बढ़कर एक रत्नों से भरी हुयी है। एक को पुरस्कार देकर अन्यों के साथ अन्याय ही किया जाता है।

महादेवी वर्मा जी को उनके अभूतपूर्व योगदान के लिए जब ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला तब उनके समकालीन बहुत से कवि उनकी तरह ही प्रतिभान थे लेकिन वे उस सम्मान से वंचित रहे।

रामधारी सिंह दिनकर को पद्म-भूषण मिला तो बहुत से कवि इस पुरस्कार से वंचित रहे। अब सभी को तो सम्मान से नवाज़ा नहीं जा सकता , लेकिन सम्मानित होने के कारण अन्य लोग की प्रतिभा कम नहीं हो जाती।


फिर पुरस्कारों से लाभ क्या ? एक प्रोत्साहित हुआ तो दूसरा हतोत्साहित हो गया। एक से एक रियलिटी शोज़ हो रहे हैं , जिसमें एक से एक प्रतिभावान प्रतिभागी भाग लेते हैं , लेकिन अंत में एक का पावँ तो सातवें आसमान पर होता है, जबकि शेष प्रतिभागियों की निराशा अपने चरम पर होती है।

सम्मान अक्सर पाने वाले में अहंकार पैदा करता है , जबकि पाने वालों में निराशा और लघुता को पैदा करता है। सम्मान सिर्फ प्रत्साहन के निमित्त ही देना चाहिए। श्रेष्ठता का प्रमाण पत्र नहीं होना चाहिए। अब प्रश्न यह उठता है जो स्वयं सिद्ध श्रेष्ठ है, क्या वे वाकई पुरस्कार के मोहताज हैं ? क्या पुरस्कार उनके कार्य क्षेत्र में किसी प्रकार का योगदान करते हैं?

बुकर पुरस्कार विजेता 'अरूंधती राय' आज अपने देश द्रोही बयानों से जनता की नफरत का पात्र बनी हुयी है । क्या किसी एक पुस्तक से वह इतने बड़े पुरस्कार की अधिकारी हो गयी ? और हज़ारों लाजवाब पुस्तकें अपनी पहचान तो बना चुकीं लेकिन पुरस्कृत नहीं हुयीं। तो क्या फरक पड़ा पुरस्कृत होने और अपुरस्कृत रह जाने से।

पुरस्कार का एक लाभ ज़रूर नज़र आता है की घर-परिवार और इष्ट-मित्रों पर रौब झाड़ने के भरपूर काम आता है। पर कितने दिन ? एक छोटे अंतराल के बाद उसी मंच पर कोई और खड़ा नज़र आता है।

नाम और शोहरत बहुत दिनों तक नहीं रहती। वक़्त करवटें लेता रहता है। हाँ जो चिरकाल तक रहती है वो है व्यक्ति की प्रतिभा , जो किसी पुरस्कार के मिलने से बढती नहीं , और मिलने से घटती नहीं।

प्रतिभा तो स्वयं में ही सबसे बड़ा सम्मान है जो सदा-सर्वदा आपको औरों से अलग रखता है और यह वो सम्मान है जिससे नवाजकर ईश्वर आपको इस धरती पर भेजता है।

शेर कभी चुनाव से जीतकर जंगल का राजा नहीं बनता। वह अपने पराक्रम से ही सर्व-सम्मति द्वारा राजा स्वीकार कर लिया गया है। युगों बीत गए लेकिन शेर के सर पर से ताज आज तक नहीं उतार सका कोई।

शेर बनो...दहाडो....आपकी दहाड़ ही आपकी पहचान है....

Zeal

23 comments:

vineet kumar singh said...

आपका ब्लॉग पढ़ कर ३ इदिअट्स फिल्म की याद आ गई...वैसे आज की सरकार और अंगरेजों में क्या फर्क है ये तो मुझे कहीं से दिखाई नहीं दे रहा है...आज भी वही बातें हैं फुट डालो और राज करो की निति...पुलिस कानून...जमीन अधिग्रहण इत्यादि इत्यादि...बाकि इनाम देने की बात जहाँ तक है वो तो केवल चापलूसी पर चलती है बहुत से लोगों के साथ...जैसे आप तहलका और कुछ जर्नलिस्ट्स को देखें...जहाँ तक सचिन या इन जैसे लोगों की बात हैं वो लोग किसी इनाम के हक़दार नहीं हैं...नाम के लिए जो करे उसका करना बेकार होता है और जो देश के लिए करता है उसका नाम खुद बा खुद हो जाता है

प्रवीण पाण्डेय said...

हानि लाभ, जीवन मरण, यश अपयश विधि हाथ।

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

सचिन को भारत रत्न मिले या नही ये सरकार का काम है,

RECENT POST .... काव्यान्जलि ...: अकेलापन,,,,,

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

एक चुटकुला है:-

पंजाबी यजमान के यहां कढ़ी बनी. उसने आगंतुक का बताया -''कढ़ी बणी ऐ.''
आगंतुक-''सानूं की ? (हमें क्‍या)''
यजमान -''तुहाड्डे लई बणी ऐ (आपके लि‍ए बनी है)''
आगंतुक-''ते तुहान्‍नू की ? (तो आपको क्‍या)''

बस यही सच्‍चाई है सम्‍मान-पुरूस्‍कारों की भी.

Maheshwari kaneri said...

दिव्या जी आप की कुछ बातो में मैं सहमत हूँ..लेकिन निस्वार्थ भाव से किया जाने वाली कोई भी सेवा पर पुरुस्कार तो मिलना ही चाहिए...

Gyan Darpan said...

यदि अरुंधती को ये बुकर पुरस्कार नहीं मिलता तो न तो उसको लोकप्रियता मिलती न उसका दिमाग खराब होता न वह देशद्रोही बयान देती|
इन सबके पीछे वो बुकर पुरस्कार और उससे मिली शोहरत का ही साइड इफेक्ट है!!

amit kumar srivastava said...

वर्तमान व्यवस्था में तो पात्र तिरस्कृत होता है और अपात्र पुरस्कृत |

Anjani Kumar said...

समीचीन प्रश्न उठायें हैं आपने इस लेख के माध्यम से... और ये कथन बिल्कुल उचित है कि पुरस्कार प्रोत्साहन के लिये होना चाहिये न कि श्रेष्ठता का प्रमाणपत्र देने के लिये

महेन्‍द्र वर्मा said...

अच्छा विश्लेषण।
पुरस्कारों पर हमेशा पात्रता और अपात्रता के सवाल उठाए जाते रहे हैं।
आजकल तो तिकड़म से भी पुरस्कार लिया और दिया जाने लगा है।
जो व्यक्ति अपने कृतित्व से संतुष्ट है और स्वाभिमानी है वह पुरस्कार की चाह नहीं रखता। आत्मसंतोष और जन सामान्य से प्राप्त प्रशंसा ही उसके लिए सबसे बड़ा पुरस्कार है।

G.N.SHAW said...

नर हो न निराश करो मन को ! स्वाभिमानी और शेर बनना जरुरी है !अच्छे व्यक्तित्व की माप इन पुरस्कारों से नहीं की जा सकती ! विचारणीय

mridula pradhan said...

bahut achcha likhi hain......

ashish said...

अब तो रंगुआ सियारों का जमाना है .

शिवम् मिश्रा said...

इस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - कहीं छुट्टियाँ ... छुट्टी न कर दें ... ज़रा गौर करें - ब्लॉग बुलेटिन

विरेन्द्र सिंह शेखावत said...

प्रतिभा के धनि लोगो को नाम और सोहरत बिना किसी सम्मान और पुरस्कार के ही मिलजाती है !

दिगम्बर नासवा said...

साएर्थक प्रश्न है ... पर अगर सम्मान देने की प्रक्रिया पारदर्शी है तो सामान में कोई गुरेज़ भी नहीं होना चाहिए ...

surenderpal vaidya said...

बिल्कुल सही कहा आपने ....।
शेर बनो , दहाड़ो ...। आपकी दहाड़ ही आपकी पहचान है ।
स्वयमेव मृगेन्द्रता ।

Asha Joglekar said...

शेर बन कर दहाडो यह तो ठीक है पर पुरस्कार तो दये जाते ही रहेंगे । सही व्यक्ति को मिले बस पर यह तो सरकारी अमले के हाथ में है ।

virendra sharma said...

बुनियादी मुद्दे उठाए हैं आपने .जिन्हें हम आसानी से दरकिनार नहीं कर सकते .रही बात बुकर जैसे इनामातों की देश द्रोही और भी हैं जिन्हें भारत विरोधी शह देतें हैं .आतंकवादियों की गोद में खेलने वाली मह्बूबायें भी हैं .बधाई इस आलेख के लिए आपको .कृपया 'इमानदार' की जगह ईमानदार कर लें .राष्ट्रव ध्राहोहर बचाने कर लें 'बचाचाने 'की जगह .शुक्रिया .

DR. ANWER JAMAL said...

Nice post.

Kavita Rawat said...

bahut badiya samyik prastuti...

Anupama Tripathi said...

प्रतिभा तो स्वयं में ही सबसे बड़ा सम्मान है जो सदा-सर्वदा आपको औरों से अलग रखता है और यह वो सम्मान है जिससे नवाजकर ईश्वर आपको इस धरती पर भेजता है।
sarthak lekh ...!!

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना said...

पुरस्कार से मूल्यांकन और उत्साहवर्धन दोनो ही होते हैं पर पुरस्कारों की प्रक्रिया दोषपूर्ण हो गयी है, इसलिये अपनी तो इनमें कोई श्रद्धा नहीं। एक हैं ..राष्ट्रपति पुरस्कार मिल चुका है। कैसे मिला, बताने में शर्म आयेगी और आपको सुनने में भी। कलियुग में मान-सम्मान क्या? बस कर्म किये जा ......किये जा ...किये जा....

Chand K Sharma said...

सरकारी पुरस्कारों पर बहुत अच्छा लेख लिखा है। देश में चाटूकारों की सरकारी फैज तैय्यार हो जाती है।

सरकार ने कई तरह की रिसर्च फाऊँडेशन्स भी बना रखी हैं जहाँ पर वजीफे के लालच में आ कर बुद्धिजीवी सरकारी योजनाओं के प्रचार में आँकडों भरे लेख लिखते हैं और फिर धन राशि का निकास शुरू हो जाता है। जनता समझती है बडी तरक्की हो रही है।

आप के प्रयास सराहनीय हैं आप को शुभकामनायें-
चाँद शर्मा
www.hindumahasagar.worldpress.com