हर चीज़ में अव्वल रहने वाली दीपा अपने आप में सिमटी रहने वाली एक लड़की थी । उसकी दुनिया घर और बाहर मिलाकर भी ज्यादा बड़ी नहीं थी । साथ नौकरी करने वाली राशि और वीणा उसकी दो सहेलियां थीं । बहन से बढ़कर दोनों सहेलियां उससे जी जान से चाहती थीं । उनका साथ पाकर दीपा बहुत खुश रहती थी ।
साथ काम करने वाले अरुण , गिरीश और आभास दीपा को बहुत पसंद करते थे । तीनो ही चाहते थे की दीपा उसे मिल जाये । लेकिन अपने आप से खुश रहने वाली दीपा ने कभी इनको अपने करीब नहीं आने दिया । दोस्ती की मर्यादाओं को भली भांति जानती थी वो । लेकिन अरुण , गिरीश और आभास तो जैसे उससे पा ही जाना चाहते थे । तीनो ही उसपर अधिकार जमाना चाहते थे । छीन लेना चाहते थे उसे समाज से । मिटा देना चाहते थे उसके अस्तित्व को । उसका समर्पण उनका ध्येय बन चुका था ।
जितना वो उसको तोड़ने की कोशिश करते , वो खुद में सिमटती जा रही थी । जब उन तीनो को लगा वो उसे नहीं मिल पायेगी तो उन्होंने अपने साथियों का सहारा लिया । वो पहले ही ताकतवर थे और भी ज्यादा हो गए । दीपा खुद को बचाने के जो भी प्रयास करती , लोग उसे ही गलत समझते । राशी और वीणा से कहते हुए भी डरने लगी थी की कहीं वो दोनों भी उसे ही गलत न समझ लें ।
काफी अकेली थी , कोई नहीं था जो उसका साथ देता । प्रणव, हिमेश , और अमन सब समझते थे , दीपा को प्यार भी करते थे और उसकी इज्ज़त भी करते थे , लेकिन वो कमज़ोर थे । चाहते हुए भी दीपा की साथ देने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे । दीपा भी उनकी मजबूरी समझती थी ।
दीपा जानती थी अच्छे लोग कम होते हैं । फिर भी इतना कम था क्या कि वीणा, राशि , अमन , हिमेश और प्रणव उसे अपना समझते थे । उनका सिर्फ इतना पूछ लेना कि कैसी हो दीपा, उसके लिए काफी था।
दीपा ने खुद को एक अभेद्य कवच में बंद कर लिया , जहाँ अरुण , गिरीश और आभास जैसा ताकतवर लोग नहीं पहुँच सकते थे । दीपा जानती थी कि ये जंग उसे अकेले ही लड़नी होगी और उसके दुःख ही उसकी ताकत हैं।
दीपा खुद में सिमट गयी लेकिन टूटी नहीं ।
29 comments:
इस तरह की घटनाएँ समाज के चेहरे पर बदनुमा दाग हैं ...व्यथित करती हैं मन को ..!
मगर दिव्या (zeal)की कलम से इतनी निराशा हताश करती है ...!
एक संस्मरनात्मक सुन्दर लिखी लघु कथा किन्तु दुखांत -भारतीय मनीषा हमेशा सुखान्त कहानियों की पक्षधर रही है !
आपका हिन्दी लेखन का प्रयास सराहंनीय ही नहीं स्तुत्य और अनुकरणीय भी है !
दीपा जानती थी कि ये जंग उसे अकेले ही लड़नी होगी और उसके दुःख ही उसकी ताकत हैं।
यह बात हम सबको भी समझ लेनी चहिये
दीपा बहुत आत्ममंथन के बाद इस निष्कर्ष पर पहुची होगी की एकला चलो रे. दीपा के इस जज्बे को हमारा नमन और उसकी सफलता के लिए शुभकामनाये.
उम्दा !
बेहद स्पर्शी रही कथा........... आशा है की दीपा के जीतने की कथा अगली पोस्ट में पढने को मिलेगी>>>>>> आपकी कलम से दीपा की जंग और उसकी ताकत का अहसास प्रचंडतम रूप से महसूस करने की आकांक्षा है
गहरी है। काल्पनिक मान नहीं सकता हूँ। सत्य ढूढ़ने का प्रयास भी नहीं करूँगा क्योंकि दीपा ठीक थी, उसे कवच की ज़रूरत थी। समेटने के क्रम में बहुधा हम बहुत कुछ खो देते हैं पर जब आत्म की बोली लगी हो तो यही करना चाहिये।
समाज ऐसा ही होता है... फिर भी बुरे लोगों से अपने आप को बचाकर रखना संभव है!...सार्थक कहानी, बधाई!
कहानी बहुत सुन्दर लगी ... खास कर भारतीय समाज में लड़कियों की परेशानी पर प्रकाश डाला गया है इसलिए और भी अच्छी लगी ..
पर अंत में ऐसा लगा जैसे कि कुछ अधूरा छुट गया है ... माफ कीजियेगा जैसा लगा वैसा लिख रहा हूँ ... यदि आपको बुरा लगे तो टिप्पणी डिलीट कर दीजियेगा ...
कई बार,तकलीफें ही आपको मज़बूत बना पाती हैं।
you're right. actually this is the story of many girls in India.
कोई कहानी इस तरह ख़त्म नहीं होती। हो सकती भी नहीं।
ये सिमट जाना, घुट जाना, सहन करना - सब सामयिक हैं। वक़्त गुज़र जाता है तो कहानी आगे चल पड़ती है। हर जीवन की कथा एक उपन्यास नहीं - सम्पूर्ण आख्यान है जिसमें एकाधिक उपन्यास एक ही जिल्द में बँधे होते हैं।
पात्रों के नाम बदल जाने से कथानक नहीं बदलता, सीक्वेल में नए कलाकार ले लिए जाने से कथाक्रम में व्यवधान नहीं आता।
और लघुकथाएँ तो एक-एक आख्यान में सैकड़ों भरी पड़ी होती हैं।
दीपा की कथा के अगले अंक का इंतज़ार रहेगा।
yaha every gal have a story like deepa.
Dearest ZEAL:
Strange.
Will look forward to the next blog.
Arth kaa
Natmastak charansparsh
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दीपा की कहानी से मेरे बहुत से पाठक निराश हुए हैं , इसका मुझे खेद है। लेकिन दीपा ने हार नहीं मानी है । बस थोडा सा ठहर गयी है । शायद अग्नि- परीक्षा से गुजरने के लिए तैयार हो रही है।
दीपा का ठहरना कहानी का अंत नहीं बल्कि शुरुआत है।
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दीपा ने खुद को एक अभेद्य कवच में बंद कर लिया , जहाँ अरुण , गिरीश और आभास जैसा ताकतवर लोग नहीं पहुँच सकते थे । दीपा जानती थी कि ये जंग उसे अकेले ही लड़नी होगी और उसके दुःख ही उसकी ताकत हैं।
दीपा खुद में सिमट गयी लेकिन टूटी नहीं ।
इसमें हार तो नज़र नहीं आ रही , हार तो तब होती जब दीपा फालतू लोगों की बातों में आ जाती
जीत दो तरह की हो सकती है.... सात्विक और तामसिक ..... ये सात्विक जीत है
सात्विक जीत के परिणाम दूरगामी और शुभ होते है तामसिक जीत कहीं ना कहीं गहरी खाई में धकेल सकती है
वैसे ये भी (अध्यात्मिक तौर पर ) सच है की हम सब अकेले ही अपनी लड़ाई लड़ते हैं , पर अक्सर इसे मानने से हमारा दिल घबराता है .. शायद इसीलिए मानते नहीं या याद नहीं रखना चाहते .. क्यों ठीक कहा न मैंने ??
दीपा का ठहरना कहानी का अंत नहीं बल्कि शुरुआत है।
Divya ji,
This is what I found in the last statement...and then saw that you had to explain it all over again.
Will wait for the next part...though it is absolutely complete in itself.
Good work, yet again.
ऐसी एक दीपा को मैं बड़े करीब से जानता हूँ.
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@ Avinash Chandra-
It is a reality based story. You won't get to read this story in fragments but yes , you will get to see Deepa in my posts quite often in the form of story. She is a very balanced character who crawls at times and takes giant leaps when required. A careful and cautious crab !
I do not know about other story writers, but i try to live my characters and they live in me.
Deepa will live up to everyone's expectations. My request to all the readers is to expect very high from her and give her a chance to meet your expectations.
Deepa will appear again in between my posts on different issues.
Agreed, I meant it that way only.
abhi aapke comment se pata chala ki this is not a story but a reality...:)
kya kahen ab ?
deepa se mulakat fir hogi, :)
@-सात्विक जीत के परिणाम दूरगामी और शुभ होते है ..
Gaurav ji,
Bahut sakaratmak soch !
दीपा खुद में सिमट गयी लेकिन टूटी नहीं ।
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आज दीपा आजाद है । जिन्हें वो दोस्त समझती थी , उन्होंने बता दिया था की अब वो भी उसके साथ नहीं हैं।
आप लोग भी मेरे साथ दीपा की आजादी का जश्न मनाइए।
१५ जुलाई से ४ सितम्बर.....मात्र ५० दिनों में मिली आज़ादी ।
दीपा , अपने मित्रों वीणा, राशि, प्रणव , हिमेश सभी का धन्यवाद कहती है।
पटाक्षेप ।
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