आज भी हमारे समाज में अनेक तरक्की हो जाने के बावजूद भी 'स्त्री' की स्थिति सुदृढ़ नहीं है ! भले ही मनुष्य आज चाँद पर पहुँच गया हो लेकिन उसकी सोच उतनी परिष्कृत और परिपक्व नहीं हुयी है ! विज्ञान और संसाधनों में तो अभूतपूर्व तरक्की हुयी है , लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर समाज छोटी से छोटी इकाईयों में बंटता चला जा रहा है ! कारण है सहिष्णुता का विलुप्त होते जाना !
जैसे मशीनों के कल-पुर्जों की निर्बाध गति को बनाए रखने के लिए ग्रीज़ का इस्तेमाल करते हैं , उसी तरह रिश्तों को बनाये रखने के लिए भी सहिष्णुता नामक चिकनाई अथवा स्नेहक (lubricant ) की आवश्यकता होती है ! ये सहिष्णुता किसी एक व्यक्ति या समुदाय के पास से विलुप्त नहीं हो रही अपितु देश-विदेश में , हर बोली, भाषा और धर्म में 'बर्दाश्त' करने की क्षमता कम होती जा रही है ! हर व्यक्ति स्वयं में सिमटा हुआ , अपने ही बारे में सोचने में व्यस्त है! अपनी-अपनी एक छोटी सी दुनिया बना रखी है! उस छोटी सी दुनिया में थोडा सा भी विचलन व्यक्ति के जीवन में भूचाल सा ला देता है ! फिर वो स्वयं को असमर्थ और असहाय पाता है ,इससे निपट पाने में !
धीरे-धीरे व्यक्ति खुद को जागरूक, निडर और सक्षम बना रहा है ताकि ऐसी परिस्थियों से सफलतापूर्वक निपटा जा सके ! समाज में बढती विषमताओं और असंतोष को देखते हुए बहुत से युवक और युवतियां आजीवन अविवाहित रहने का निर्णय ले रहे हैं !कुछ लोग स्वयं को किसी भी प्रकार के बन्धनों से मुक्त रखकर देश और समाज की सेवा अपने स्तर पर करना चाहते हैं और अपना जीवन अपने तरीके से , अपने बनाए हुए आदर्शों पर चलकर जीना चाहते हैं ! हमारा कर्तव्य है की हम उनके निर्णयों का सम्मान करें और उन्हें भी सुख से जीवन जीने का अवसर प्रदान करें!
स्त्री हो अथवा पुरुष, दोनों को ही अनेक प्रकार की बाधाओं और दुश्वारियों को झेलना पड़ता है ! इष्ट-मित्र , समाज और रिश्तेदार भी बहुत सी बाधाएं उपस्थित करते हैं ! ऐसी परिस्थितियों में पुरुष तो संघर्ष करता हुआ येन-केन प्रकारेण, किसी प्रकार उस भंवर से बाहर भी आ जाता है, लेकिन एक अकेली-स्त्री को बहुत सी विषम परिस्थितियों से गुज़ारना पड़ता है ! समाज का हर तबका उसके लिए चरित्र प्रमाण-पत्र लिए खड़ा रहता है ! ज़रा सी भूल हुयी नहीं की थमा दिया हाथ में !
पुरुषों के अनुचित कृत्य, अनर्गल प्रलाप भी सर आँखों पर रखे जाते हैं , जबकि इसके विपरीत एक स्त्री को उसके सहज और ममतामयी, स्नेहिल व्यवहार के लिए भी सूली पर आसानी से चढ़ा दिया जाता है ! ऐसी स्थिति से बचने के लिए, स्त्रियों को स्वयं ही अपनी सुरक्षा करनी पड़ेगी ! सबसे पहले वो इंसान परखना सीख लें ! दुष्ट हमेशा घात ही करेगा, अतः सावधान रहे ! जो पुरुष पूर्व में किसी स्त्री के साथ घात कर चुका है वो मौक़ा मिलते ही आपके साथ भी घात अवश्य करेगा, अतः आवश्यक दूरी बनाकर रखें, अन्यथा शेर की मांद में घुसने का नतीजा तो सभी को पता है !
स्त्री हो अथवा पुरुष दोनों को ही अकेले पाकर , असहाय समझ , बहुतेरे मौकापरस्त लोग अपना उल्लू सीधा करने चले आते हैं ! आवश्यकता है सावधान रहने की ! अन्यथा सावधानी हटी तो दुर्घटना घटी !
Zeal
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Zeal
24 comments:
सच कहा आपने एक स्त्री की सामाजिक तस्वीर बहुत कुछ नहीं बदली है.. ..सबकुछ हमारी सोच पर निर्भर है ....स्त्री हो या पुरुष दोनों की सोच में समानता का भाव निहित हो तो फिर तस्वीर बदलती देर नहीं लगेगी.. स्त्री-पुरुष सिक्के का दो पहलु हैं .एक दुसरे के बिना जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है ..बस यही सोच होनी चाहिए ...
बहुत बढ़िया जागरूकता भरा आलेख
सच कहा आपने एक स्त्री की सामाजिक तस्वीर बहुत कुछ नहीं बदली है.. ..सबकुछ हमारी सोच पर निर्भर है ....स्त्री हो या पुरुष दोनों की सोच में समानता का भाव निहित हो तो फिर तस्वीर बदलती देर नहीं लगेगी.. स्त्री-पुरुष सिक्के का दो पहलु हैं .एक दुसरे के बिना जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है ..बस यही सोच होनी चाहिए ...
बहुत बढ़िया जागरूकता भरा आलेख
सुन्दर बात कही आपने ........
समाज ही दोगला है !
दुर्घटना के गर्भ में, गफलत के ही बीज |
कठिनाई में व्यर्थ ही, रहे स्वयं पर खीज |
रहे स्वयं पर खीज, कठिन नारी का जीवन |
मौका लेते ताड़, दोस्ती करते दुर्जन |
कर रविकर नुक्सान, क्लेश देकर के हटना |
इनसे रहो सचेत, टाल कर रख दुर्घटना ||
कोई ब्रह्मचारी गृहस्थ आश्रम में स्वेच्छा से जा सकता है. गौतम की तरह 'जनसेवा भावनावश' गृहस्थ से विरक्ति भी ले सकता है.
किन्तु एक स्थिति में माइग्रेशन बिलकुल भी स्वीकार्य नहीं है.... समाज उसे 'महापाप' की संज्ञा देता है.
कोई विरक्त साधु/संन्यासी आसक्तिवश गृहस्थ में प्रवेश लेता है तब उसके प्रति समाज में भारी जुगुप्सा के भाव प्रदर्शित होते हैं.
कहते हैं.... 'कबीर' के माता पिता भी इसी श्रेणी के थे...
एक विरक्त साधु ने समाज में विधवा जीवन जी रही ब्राह्मणी से मोहवश गुपचुप विवाह कर लिया...रूढ़ीग्रस्त समाज ने ऐसों को असामाजिक कहा, उन्हें समाज से बहिष्कृत किया.
लोकलाज के कारण सधवा हुई स्त्री ने और/या मान-सम्मान घट जाने के कारण साधु महाराज ने अपने परिवार को खंडित कर दिया. वे दोनों अपने-अपने पुराने रास्ते पर फिर से आ गये.
लेकिन 'समाज' अपनी बिना स्वीकृति के और बिना उचित संस्कार के उत्पन्न की गयी संतानों को अवैध मानता रहा है.
समाज का एक बड़ा वर्ग कुछ बातों में बड़ा कट्टरपंथी है. यथा :
१. संकर/ मिश्रित नस्ल को वह सहज रूप से नहीं लेता.
२. कन्वर्ट रिलीजन वाली संतानों पर सरलता से विश्वास नहीं करता.
३. विधवा के पुनःविवाह को वह पचा नहीं पाता. उसको संतान सुख मिले यह उसे गंवारा नहीं.
४. संन्यासी को जितना सम्मान उसके संन्यास में रहने पर मिलता है. उतना ही अपमान और तिरिस्कार उसके गृहस्थ में प्रवेश लेने पर होता है. इसके पीछे मोटा लोजिक है : कोई भी पीएचडी (आचार्य) करने के बाद दोबारा १०वीं/१२ वीं नहीं करता.
समाज में असहिष्णुता किसी कारण-विशेष से देखने को मिल रही है :
— यदि किसी असहाय बच्ची को अकेला पाकर कोई सक्षम उसकी असहाय अवस्था दूर करना चाहता है तो बुरे मंसूबे वाले सह नहीं पाते. रोड़ा अटकाते हैं.
— यदि किसी संशय के कारण कोई विवाहित स्त्री परित्यक्त कर दी जाती है तब भी समाज उसे तमाम तोहमतों से नवाजकर अपनी असहिष्णुता का परिचय देता है. उसे कुलक्षनी, चरित्रहीना आदि संबोधन देता है.
— यदि कोई स्त्री असमय दैवप्रकोप के कारण अकेली रह जाये तो उसकी संग्रहित संपदाओं पर नियत बिगाड़े लोग उसका दोबारा परिवार बसते देखना पसंद नहीं करेंगे. लांक्षण ऎसी स्त्रियों पर बहुत लगा करते हैं.
— यदि कोई स्त्री स्वयं ब्रह्मचर्य का निर्णय कर लोकसेवा का बीड़ा उठाती है, तब भी समाज का एक बड़ा बुद्धीजीवी वर्ग उसे अपना प्रतिस्पर्धी मान बैठता है... और तब चलता है साहित्य-विमर्शों में उसे नंगा करने का घिनौना खेल.
कुल-मिलाकर स्त्री समूह में रहे तब भी सहन नहीं और एकाकी रहे तब भी बर्दाश्त नहीं.
parvartan satat ho raha hai..haalat pahle se kafi badle bhee hain..mujhe lagta hai dheere dheere he sahi stri ke pryas uski akhand satta ko punah sthapit karenge...atyant bicharneey lekh..sadar badhayee ke sath
जागृत रहने की जरूरत तो हर किसी कों होती है पर स्त्री के लिए अधिक ... वातावरण कों देख बहाल के निर्णय सतर्कता से लाना चाहिए ...
स्त्री को दबाने में एक पुरुष का बहुत बड़ा हाथ रहा है पर एक स्त्री के स्त्रीत्व खोने में स्त्री का भी बहुत बड़ा हाथ रहा है...फिर चाहे वो दहेज़ की बात हो या फिर नए ज़माने में कई पुरुषो का साथ (अपने को मॉडर्न दिखने की ललक), या फिर अर्धनग्नता....ये सब परेशानियाँ आ रही हैं हमारे सनातन धर्म को या तो गलत नजरिये से देखने से या सनातन धर्म से पूरी तरह विमुख होना....जहाँ आज पूरा विश्व सनातन धर्म को मान चूका है पालन करने के पीछे पड़ा हुआ है वही हम अपने को मॉडर्न दिखाने में क्या क्या नहीं किये जा रहे हैं
आपका विचार सही है। समाज के पतन का एक मुख्या कारण "मैं" की भावना का उजागर होना है। जब व्यक्ति स्वयं मशीन हो रहा है तो संबंधों में अलिप्तता तो आएगी ही। समय कहाँ है उसके पास? ऐसे में ह्रास हो रहा है जीवन मूल्यों का और व्यक्ति केवल एक नोट छापने की मशीन तक सिमटता जा रहा है।
जब स्नेह रहा ही नहीं, या कहें स्नेह के लिए टाइम ही नहीं तो रिश्तों की गाडी कैसे चले?
इसी दुश्चक्र को मिटाने के लिए कुछ युवक-युवतियां आजीवन अविवाहित रह कुछ ऐसा करना चाहते हैं ताकि आने वाली पीड़ियाँ परिवार, प्रेम व संबंधों का आनंद था सकें। कहीं आने वाली नस्लों के लिए अकेलापन जहर न बन जाए इसलिए इन नौजवानों ने इसी अकेलेपन को हथियार के रूप में चुना है।
बात यहाँ एक और समस्या लाती है। पुरुषों के लिए तो यह राह फिर भी सरल है, किन्तु स्त्रियों के लिए तो पग-पग पर व्यवधान ही हैं यहाँ भी। अकेले पुरुष को क्या खतरा? कुछ भी खा लिया, कुछ भी पहन लिया, यहाँ तक कि रहने को घर नहीं तो सड़क पर भी रात बिता लेगा किन्तु एक स्त्री कहाँ जाए? जिन विकट व्यवस्था से लड़ने के लिए उसने यह मार्ग चुना है, उसी विकटता से जन्मे समाज के भूखे भेड़िये उस पर नजर गडाए बैठे हैं। ऐसे में वह समाज को बचाए अथवा खुद की आबरू?
पुरुषों के लिते समाज के नियम इतने कठोर नहीं हैं। भले ही वह कितना ही लम्पट क्यों न हो, उसकी हर गलती माफ़ है। वहीं स्त्री कितनी भी सद्चरित्र क्यों न हो, किसी अन्य व्यक्त के साथ उसे हँसते हुए भी पाया जाए तो कलह मच सकती है।
बेहतर विकल्प यही है कि ऐसे लोगों को ही एक दुसरे का सहारा बनना चाहिए। किन्ही कारणों से अविवाहित रहने का निर्णय लेने वाले इन युवक-युवतियों को ही एक दुसरे से विवाह कर अपना राष्ट्र धर्म साथ-साथ निभाना होगा। ऐसे में इनका अकेलापन भी दूर और एक दुसरे की देखभाल भी। परिस्थितियाँ तब तक विकट नहीं आएंगी जब तक ये खुद के बारे में सोचना शुरू न कर दें।
अपनी निजी जिंदगी को प्राथमिकता देने की चलन बढ़ रही है , इसीलिए कुछ लोग अब अकेले रहना पसंद करने लगे हैं।लेकिन स्त्री हो या पुरुष, समाज उसे संदेह की दृष्टि से देखने लगता है।
दिवस जी के विचार के साथ.....
बहुत बेहतरीन व प्रभावपूर्ण रचना....
मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।
बहुत अच्छा सार्थक आलेख सब अपने अपने वजूद को बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं
सबकी निजता का समुचित सम्मान हो, वह आवश्यक आधार है समाज के लिये।
ज्वलंत समस्या को उठाता बहुत सारगर्भित आलेख...
sach h!!!
aaj to main aapse ittefaaq rakhta hoon!
कल 19/05/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी http://nayi-purani-halchal.blogspot.in (यशोदा अग्रवाल जी की प्रस्तुति में) पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
अच्छा विश्लेषण किया है डॉ. दिव्या आपने. अब कई बच्चे शादी के नाम से परे हटने लगे हैं.
बेहतरीन प्रस्तुति।
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