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Monday, May 28, 2012

माही

एक पति की व्यथा। बहुत कुछ करना चाहता है वो अपनी पत्नी के लिए। लेकिन खुद को असमर्थ पा रहा है। पत्नी से दूर परदेस में नौकरी कर रहा 'मानव' , अपनी पत्नी के सभी स्वप्न पूरे करना चाहता है। वो अपनी पत्नी 'माही' के दुखों को समझता है। वो जानता है माही बेसब्री से उसकी प्रतीक्षा कर रही है। साथ मिलकर जीने- मरने की कसमें खाने वाले इस दम्पति ने साथ-साथ बहुत कुछ करने की भी कसमें खायी हैं।

गावं में रह रही 'माही' के पास यूँ तो बहुत काम था , लेकिन वो कुछ सकारात्मक करके अपने पति की सही अर्थों में सहचरी बनना चाहती थी। वो जो भी नया सोचती , उसे अपने पति के सहयोग की आवश्यकता पड़ती। वो मानव से इस विषय पर बात करती, उससे पूछती, कब आओगे? लेकिन मानव का यही जवाब होता -- " जल्दी आऊंगा, तुम्हारे पलकों में पल रहे हर स्वप्न को पूरा करूंगा "

माही फिर इंतज़ार और आशा में अपने घर के काम में व्यस्त हो जाती। मुंह झलफले गायों को चारा डालती , झाडू- बुहारू करके , घर के लोगों के उठने से पहले ही रसोयीं संभाल लेती। हांडी में दाल पकती रहती और उससे उठ रही सोंधी खुशबू के साथ ही परवान चढ़ते माही की आँखों के सपने।

हांडी रोज चढ़ती रही और उतरती रही , लेकिन उसका इंतज़ार ख़तम नहीं हो रहा था। उधर मानव भी बहुत बेबस था। अपनी माही से मिलने के लिए जार-बेजार होकर तड़पता था। डरता था कहीं माही उसे गलत न समझ ले। हर ख़त में उसे धीरज बंधाता , हौसला और विश्वास बनाये रखने को कहता। कभी-कभी माही के आसुओं से भीगे पत्र उसे बहुत विचलित कर देते तो कभी असहज।

माहि भी अपने पूरे संयम के साथ पति का इंतज़ार कर रही थी। कोशिश करती थी उसकी चिट्ठियों में उसकी बेचैनी न झलके। क्यूंकि जब वो कमज़ोर पड़ती थी, तो मानव के मन में अपराध-बोध बढ़ जाता था और यदि वह मज़बूत बनती थी तो मानव को लगता था वो दूर जा रही थी। लेकिन सच तो ये था की माही अपने पति को इतना विवश नहीं देखना चाहती थी। वो चाहती थी की मानव उसके लिए ज्यादा परेशान न रहा करे। वो उसकी बेबसी को समझती थी। परदेस में पड़े पति की चिंता उसे सताती थी, वो उसपर और बोझ नहीं डालना चाहती थी।

इसलिए अक्सर चुप ही रह जाती थी। पर माही की चुप्पी से मानव घबरा जाता था। उसे लगता था की उसकी पत्नी उसकी विवशता को नहीं समझ रही है, उस पर अविश्वास कर रही है। उससे अपने मन की बातें नहीं कहती है, शायद दूर जा रही है...

लेकिन माही सब जानती थी। अपने पति के 'प्रेम' पर उसे अटल विश्वास है। वो जानती है उसका पति आएगा, जल्दी ही आएगा , उसके सपनों को पूरा करने।

उसके मन का इंतज़ार बरबस ही बढ़ता जा रहा था। दाल की हांडी में उफान आने से चूल्हे की लकड़ियों में आंच कुछ धीमी हो गयी। माही नें फूंक मारकर उसे पुनः सुलगाने की कोशिश की । इस प्रयास में आग की लपटें प्रचंड हो गयीं और चूल्हे से उठते धुएं ने उसकी आँखों को गीला कर दिया।

दाल में उफान जारी था , लेकिन माही तो अपने मानव के साथ उस पवित्र अग्नि की लपटों के गिर्द अपने पवित्र प्रेम के फेरे ले रही थी.......आखें बंद थीं और इंतज़ार की मिठास उसके होठों पर त़िर आई थी...

Zeal

Thursday, September 29, 2011

नन्ही पुजारन 'तिया' - कहानी

मंदिर का पुजारी प्रातः की पूजा अर्चना की तैयारी में व्यस्त था। तभी ताजे गेंदे के फूलों से मंदिर महकने लगा। पुजारी ने समझ लिया की उनकी 'तिया' बिटिया गयी है। चहकती हुयी नन्ही 'तिया' पुजारी बाबा की गोद में आकर बैठ गयी। पूजा के फूल और माला बाबा को थमा दिए। बिना उन फूलों के मंदिर की पूजा अधूरी सी लगती थी बाबा को।

आठ साल की अनाथ 'तिया' के पास पुजारी बाबा के सिवा कोई था। वही उसके माता पिता और वही उसके भगवान् थे। नियम से वह मंदिर की पूजा के लिए फूल चुनती , मंदिर की सफाई करती और पुजारी बाबा का ख़याल रखती। बस इतनी सी ही थी तिया की दुनिया। बेहद खुश थी वह अपने इस छोटे से संसार में।

अपनी गरीबी और फटी फ्राक का गम नहीं था उसे। एक मटमैली गुडिया , मंदिर और बाबा , बस इसी में खुश रहती थी वो। गाँव में उस गरीब की कोई पूछ परख नहीं थी लेकिन फिर भी उसका संसार सुखी था क्यूंकि बाबा उसे प्यार करते थे। भगवान् को अर्पित कर उसके लाये फूलों का मान रखते थे। और क्या चाहिए था भला ? सब कुछ तो था।

उस दिन दोपहर के भोजन के बाद पुजारी बाबा विश्राम कर रहे थे। अचानक तिया दौड़ती हुयी आई और बाबा से फ़रियाद करने लगी की वे उसकी 'गुडिया' बचा लें। गाँव के चंद बदमाश लड़कों ने उसका एकमात्र खिलौना छीन लिया था। वो जानती थी कि कोई भी बाबा की बात नहीं टालेगा और उसे उसकी गुडिया वापस मिल जायेगी। बाबा ने लड़कों से गुडिया वापस देने को कहा तो उन्होंने कहा ये उनकी गुडिया है इसलिए वापस नहीं देंगे। बाबा ने गुस्से से 'तिया' को डांट दिया -- "ये उनकी गुडिया है, तुम्हें इनसे माफ़ी मांगनी चाहिए"

तिया स्तब्ध थी। बाबा ने ऐसा क्यूँ किया। बाबा तो रोज़ मेरे पास इस गुडिया को देखते थे , फिर क्यूँ उन्होंने उन लड़कों कि बात पर यकीन कर उलटे उसका ही अपमान कर दिया। तिया समझ नहीं पायी। अपमान और निराशा के आँसू उसके कंठ में आकर घुटने लगे। किसी और ने ऐसा किया होता तो उसे कोई दुःख नहीं होता लेकिन पुजारी बाबा ऐसा करेंगे उसे विश्वास नहीं हो रहा था। उसकी एक मात्र पूँजी छिन चुकी थी।

दिन गुजरने लगे तिया अब भी फूल चुनकर लाती थी , लेकिन कब वो मंदिर में रखकर चली जाती थी , बाबा को पता ही नहीं चलता था। मंदिर में पूजा-अर्चना में अब बाबा का मन नहीं लगता था। तिया कि मासूम खिलखिलाहट से मंदिर का प्रांगण अब नहीं गूंजता था।

कुछ महीने और गुज़र गए। ताज़े गेंदे कि खुशबू अब नहीं आती थी। बाबा बहुत व्यथित थे। ढूँढने निकले 'तिया' को पास के गाँव में खबर मिली कि एक छोटी लड़की कुछ समय से यहाँ रहने आई है। बहुत ढूँढा पर तिया नहीं मिली। बाबा निराश हो लौटने लगे तभी उनकी निगाह सड़क पार पेड़ के नीचे बैठी 'तिया' पर पड़ी। बहुत बीमार लग रही थी। आँखों के नीचे स्याह काले धब्बे गए थे। ऐसा लग रहा था अब कुछ ही दिन कि मेहमान है वो। बाबा ने उससे वापस मंदिर चलने को कहा। तिया चुप रही। बाबा ने कहा अब तक नाराज़ है मेरी बिटिया माफ़ नहीं करेगी अपने बाबा को?

तिया ने मन में सोचा -- "मेरा मंदिर तो आप थे बाबा मेरे ईश्वर भी मेरी गुडिया आप दिला सकते थे मुझे 'चोर' कहलाने से भी आप बचा सकते थे आप मेरी मदद कर सकते थे। मेरी उम्मीद टूटने से पहले आप मेरे स्वाभिमान कि रक्षा कर सकते थे। लेकिन मैं तो गरीब और अनाथ हूँ बाबा , इसलिए इन बातों कि एहमियत ही कहाँ थी किसी के लिए और आपके लिए भी बाबा "

तिया को चुप देखकर बाबा ने उसे गोद में उठा लिया सीने से लगा जोर से भींच लिया और कहा - "चल मंदिर चल , तेरा बाबा तुझे नयी गुडिया दिलाएगा" ....

लेकिन यह क्या ! तिया तो बाबा कि गोद में ढेर हो चुकी थी। उसकी निस्तेज और निष्प्राण आँखें अपने बाबा कि आँखों में एकटक देख रही थीं।

Zeal

Tuesday, September 27, 2011

हरसिंगार के फूल - कहानी

आज बहुत देर हो जाने पर भी देव अपने कमरे से बाहर नहीं निकला था। एक लम्बे समय से उसके मन में एक तूफ़ान उठ रहा था। वो क्यूँ खुद को इतना लाचार समझ रहा था। क्या है इस दुनिया में जो इंसान को कमज़ोर बना देता है वो कौन सी चीज़ है जो इंसान को इंसान बने रहने से रोक देती है ? क्यूँ इंसानियत शर्म के पर्दों में रहती है? क्यूँ 'अपनापन' तरसता है किसी को अपना कहने में। क्यूँ अच्छाईयाँ नज़रंदाज़ कर दी जाती हैं। क्यूँ सारा श्रेय सिर्फ गुलाब के फूलों को ही मिलता है। वो हरसिंगार के छोटे-छोटे फूल क्यूँ अपनी पहचान नहीं बना पाते क्यूँ नहीं कोई आगे आता इन्हें भी इनकी पहचान दिलाने में। संसार में ढोंग इनता ज्यादा क्यूँ है। किसने बनाए हैं ये पाखण्ड, जो किसी से जीने का अधिकार ही छीन ले। जो किसी को घुट-घुट कर मरने के लिए मजबूर कर दे। जिससे डरकर कोई अपना पौरुष ही त्याग दे। समाज के बनाए जिन नियमों से सबको जीने का बराबर हक मिल सके क्यूँ नहीं 'देव' वो सब कुछ कर पाता जो उसका मन करता है। वो 'अनन्या' की मदद करना चाहता है वो अनन्या का दर्द समझता है। वो अनन्या की आँखों में 'मौत' की सी उदासी देखता है। उसकी ख़ामोशी में उसे तिल-तिल मरते हुए देखता है।

देव चाहता है की वो अनन्या को , संसार की वो सभी खुशियाँ दे सके जिस पर हर स्त्री और पुरुष का हक है वो उसे मुस्कुराने के कुछ पल देना चाहता है। वो उसकी आँखों में पसरे मौत के सन्नाटे को पी जाना चाहता है। वो उसे आत्म-विश्वास से भर देना चाहता है। वो उसके अकेलेपन को मिटा देना चाहता है। वो हरसिंगार के धवल पुष्प में बसी केसरिया चकाचौंध को पूरे विश्व को दिखाना चाहता है। वो अनन्या को जीवन जीने का अभय दान दे देना चाहता है .....

तो फिर रोका किसने है ? ...क्यूँ इतना द्वन्द ? किसलिए इतनी उहापोह ? कौन है जो देव को रोकता है , उसे उसकी मर्ज़ी के खिलाफ जीने पर मजबूर करता है....

फिर वही चिर परिचित आवाज़ आई - " आज खाना खाने नहीं जाओगे ? दुकानें बंद हो जायेंगी भूखे सोना है क्या ? "

मर्यादा की बात सुन देव का मन गुस्से से बोला- " तुम चुप रहो , तुम ही मुझे रोकती हो हर बात से जिसे करने का मेरा मन करता है तुम मुझे भूखा नहीं देखना चाहती लेकिन मुझे 'लाचार' देखना तुम्हें अच्छा लगता है ?

मन-मर्यादा संवाद जारी था---

तुम मुझे रोकती हो जब मैं अनन्या को अपनापन देना चाहता हूँ। तुम कहती हो क्या लगती है वो मेरी? क्या 'इंसानियत' का रिश्ता नहीं हो सकता किसी से यदि मैं अपना प्यार दूंगा उसे यदि वह भी कभी मुस्कुरा सकेगी तो क्या मैं पतित हो जाऊँगा?

मर्यादा, तुमने अपने तर्कों से "अनन्या' को तो हमेशा के लिए खामोश कर ही दिया है। वो तो ये भी भूल चुकी है की वो अभी भी जीवित है और संसार में बिखरी खुशियों पर उसका भी उतना ही हक है जितना अन्यों का।

तुम भूल गयीं जब मैं बीमार था और एक माँ की तरह उसने मेरी सेवा की थी मैं उसकी गोद में सर रखकर सोना चाहता था , तुमने रोक दिया था।

जब मेरी परीक्षाएं थीं , मुझे सहारे की ज़रुरत थी तो अनन्या ने बहन बनकर हर संभव मदद की थी उन एहसानों से मेरा मन अभिभूत था मैं चाहता था उसकी चुटिया खींच लूं और वो चिढ़कर भागे , मुझसे झगड़ा करे ,लेकिन तुमने मुझे रोक दिया था।

उस दिन गुलाबी साड़ी में जब उसे चूड़ियाँ खरीदते देखा था तो मेरा मन था उसकी नाज़ुक कलाई में धीरे धीरे चूड़ियाँ मैं पहनाऊँ लेकिन तुमने उस दिन भी मुझे रोक दिया था। मैं उसके गालों पर भी लाज की उस लाली को देखना चाहता था जो हर स्त्री का गहना है

और आज जब मैंने उसे आफिस से आते देखा तो वह टूटी और बिखरी हुयी थी। पिछले छः महीनों से वह जिस प्रोजेक्ट पर कार्य कर रही थी उसका श्रेय किसी और को देकर सम्मानित कर दिया गया था। वह पराजित और हताश अपने आँसुओं से अकेले ही लड़ रही थी मैं चाहता था उसके आँसूं जो उसके दामन को भिगो रहे थे उसे मैं अपनी शर्ट में सुखा लूँ। और तुमने मुझे उसका दोस्त बनने से भी रोक दिया ? मुझसे कहा था क्या लगती है वो मेरी जो मैं उसकी इतनी चिंता करता हूँ?

मर्यादा क्यूँ तुमने मुझे इतना कायर बना दिया है ? क्यूँ तुमने मुझसे मेरा पौरुष छीन लिया है। मुझे उहापोह देकर क्यूँ मुझे इतना कमज़ोर कर दिया है ? क्यूँ मुझे मन मारना सिखाती हो। क्यूँ मुझे इंसानियत और ईश्वरत्व से दूर ले जाती हो। 'अनन्या ' की हस्ती मिटने नहीं दूंगा उसको जीवन दूंगा, उसको खुशियाँ दूंगा। मैं अब और कायर नहीं बना रह सकता। तुम मुझे रोक नहीं सकतीं अब , बाँध नहीं सकतीं, मजबूर नहीं कर सकतीं...

देव उठा , बत्ती जलाई , रात के ग्यारह बजने वाले थे उसने अपनी बाईक स्टार्ट की और तेजी से भागा कहीं देर हो जाए...

फिर वही चिर-परिचित आवाज़ आई -- "रुको , मत जाओ! ...क्या लगती है वो तुम्हारी " ....

नहीं मर्यादा , अब तुम मुझे और भयभीत नहीं कर सकतीं , अब मैं अपनी आत्मा की ही आवाज़ सुनूंगा मैं कमज़ोर नहीं हूँ। इसके पहले की मेरा पौरुष समाप्त हो जाए , मैं जियूँगा और उसे भी जीने का अवसर दूंगा...

दूर अन्धकार को चीरती सीटी की आवाज़ सुनाई दी। देव को लगा बहुत देर हो गयी , उसने बाईक की गति बढ़ा दी ...

स्टेशन पर गाडी चलने को आतुर थी देव हर खिड़की पर उसे बेसाख्ता तलाश रहा था ....गाडी धीरे-धीरे खिसकने लगी थी....

क्या देर हो गयी ? उसका मन छटपटा उठा तभी अंतिम खिड़की पर पर वही उदास चेहरा उसे दिखाई पड़ा। गाडी ने गति पकड़ ली थी। विजय के पल दूर हो रहे थे। देव ने अपने अपने इष्टदेव "हनुमान" का स्मरण किया , अगली छलांग में उसने दरवाजे की हैंडिल पकड़ ली

अन्दर गया। अनन्या खिड़की के बाहर पीछे छूटते दृश्य निर्विकार होकर देख रही थी। देव उसके बगल में बैठ गया अपना दाहिना हाथ पीछे से ले जाकर उसके कन्धों पर रख दिया और बायें हाथ में उसके हाथों को थाम लिया। उस स्पर्श से मुड़कर अनन्या ने उसे देखा। अपना सर धीरे से 'देव' के कन्धों पर टिका दिया और आँखें बंद कर लीं।

धवल हरसिंगार की केसरिया आभा मुस्कुराने लगी थी...

Zeal

Thursday, September 8, 2011

मैं जब भी अकेली होती हूँ....

चंचल की दुनिया उसकी सहेली देवयानी में ही बसती थी। हर दुःख सुख की संगिनी देवयानी उसके लिए सब कुछ थी। जीवन का हर सुख-दुःख , उपलब्धियां , अटखेलियाँ और मन की उलझनें दोनों एक दुसरे से साझा करती थीं। जीवन इतना खुशहाल था की एक दुसरे के सिवा उन्हें कुछ और चाहिए ही था।

गाँव में एक नयी लड़की आई 'मेधा' अत्यंत मेधावी थी वो, लेकिन चंचल को पसंद नहीं करती थी। खुद में सिमटी रहने वाली चंचल ने शिकायत नहीं की और चुपचाप उसके आगमन पर उसके लिए अपना स्थान छोड़ दिया। अब पूरे गाँव में मेधा का ही राज प्रसार था। सभी मेधा को ही चाहने लगे चंचल अकेली थी पर उदास नहीं क्यूंकि उसके पास उसकी सबसे बड़ी दौलत उसकी सहेली 'देवयानी' थी।

एक दिन बातों ही बातों में देवयानी ने चंचल को बताया की मेधा ,देवयानी की दोस्ती चाहती है , उससे अति स्नेह से बातें करती है , उसका सम्मान करती है और उसकी मित्रता चाहती है। चंचल सहम गयी सारे गाँव से मिलने वाला स्नेह तो अब मेधा को ही मिलता था , क्या देवयानी को भी वह उससे छीन लेगी।

धीमी आवाज़ में उसने देवयानी से पूछा - "तुम्हें कैसी लगती है मेधा?

देवयानी ने कहा- वह बुद्धिमान है, विदुषी है , मेरा सम्मान करती है , मुझसे स्नेह और निकटता की अपेक्षा करती है , सदैव प्रेम से ही मिलती है फिर भला मैं कैसे उसका स्नेह ठुकरा सकती हूँ।

चंचल के मन का भय आकार लेने लगा , अन्धकार सा छाने लगा। वह जानती थी की मेधा की निकटता का लोभ संवरण देवयानी नहीं कर सकेगी। विद्वानों की मित्रता किसे नहीं चाहिए होती।

उस दिन उसका उसका मन अकेले में रोने का था किससे करेगी संवाद अब। कौन उसे हंसायेगा। कौन उसकी उलझनें सुलझाएगा। अब तो सारे संवाद सिर्फ मन में ही होने थे।

दिन गुजरने लगे। वह नित्य प्रति देवयानी से मन ही मन संवाद करती सैकड़ों ख़त लिखती , जो मन में ही उपजते और मन ही में रह जाते ....

प्रिय देवयानी,
मैं अपने प्रेम में इतनी स्वार्थी नहीं हो सकती की तुम्हें सिर्फ अपने पास ही रखूँ...

प्रिय देवयानी,
नवागंतुक के स्वागत में स्थान तो छोड़ना ही होता है...

प्रिय देवयानी,
तुम्हें मुझसे कोई जुदा नहीं कर सकता , तुम्हें अब वहाँ बसा के रखा है , जहाँ सिर्फ तुम और मैं हूँ...

प्रिय देवयानी,
मैं स्वार्थी हूँ, अपना प्यार सांझा होते हुए नहीं देख सकती इसीलिए.....

प्रिय देवयानी,
जब आंसुओं से मेरा कंठ अवरुद्ध होता है और आवाज़ लडखडाती है तो तुम कैसे जान लेती हो ....

प्रिय देवयानी,
मैं जब भी अकेली होती हूँ , तुम चुपके से जाती हो...
और झाँक के मेरी आँखों में , बीते दिन याद दिलाती हो......

प्रिय देवयानी....

प्रिय ......

थक कर उसने आँखें बंद कर लीं , कोरों से आँसू की बूँदें टपक कर बालों को भिगोती हुयी तकिया में जा सूखने लगीं...

Zeal


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कहानी में किसी प्रिय के छिन जाने की असह्य पीड़ा को दर्शाने का उद्देश्य था , लेकिन कुछ पाठकों की मेल पर शिकायत मिली की कहानी में चंचल की मनोदशा का तो वर्णन है लेकिन देवयानी के मन में क्या है यह नहीं बताया गया है अतः चंचल-देवयानी संवाद नीचे जोड़ रही हूँ

देवयानी ने चंचल को अति-व्यथित देखकर कहा -- किसी के चले जाने से किसी का जीवन रुकता नहीं है, और सदमा कभी इतना बड़ा नहीं होता की किसी की मृत्यु हो जाए

यहाँ देवयानी , कृष्ण की भूमिका में है जो मोह में फंसी चंचल को दुखों में सहज रहने का मार्ग बता रही है

लेकिन चंचल के लिए प्रेम समर्पण हैवह सोलह कलाओं से संपन्न नहीं हैअपना दायरा बढाने से बेहतर वह किसी एक के लिए ही समर्पित हो ,जीना और मरना चाहती है

प्रेम में शिकायत नहीं होतीकिसी और की ज़रुरत भी नहीं होतीप्रेम की एक आयु जी लेने के बाद अश्क ही हर गम के साथी बन जाते हैं

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Tuesday, July 26, 2011

असमर्थ बेटी -- कहानी !

असह्य कष्ट से छटपटाती माँ , जनरल वार्ड में भर्ती थी ! स्थिति बिगडती चली जा रही थी ! दुसरे शहरों में रह रही दोनों बेटियों का परिवार वहां पहुँच चुका था ! चंचल ने जल्दी-जल्दी अपनी जमा पूँजी समेटी और अगली ही गाडी से माँ से मिलने निकल पड़ी ! मन अनेक आशंकाओं से घिरा हुआ था ! पूरा दिन सफ़र के बाद रात दस बजे जब चंचल अस्पताल पहुंची तो माँ की हालत बहुत बिगड़ चुकी थी ! डाक्टरों का कहना था की इन्हें तुरंत ICU में भर्ती करना होगा ! ICU में भर्ती करने के लिए सबसे पहले दस हज़ार की फीस भरनी थी ! उस समय किसी के पास इतना पैसा नहीं था ! चंचल ने तत्परता से दस हज़ार रूपए जमा करके माँ को फ़ौरन ICU में भर्ती करवाया ! जीवन में पहली बार उसे मुट्ठी भर संतोष मिला था ! वो खुश थी की उसकी छोटी सी जमा-पूँजी , माँ की तकलीफ में काम सकी !


फिर सिलसिला शुरू हुआ ICU में होने वाले डाक्टरी इलाज का ! प्रतिदिन का खर्च तकरीबन २०-३० हज़ार ! डाक्टर के प्रत्येक राउंड के बाद नर्स , जांचों , दवाइयों और इंजेक्शंस का परचा थमा जाती थी और चंचल की दोनों बहनें लग जाती थीं माँ की हर आवश्यकता पूरी करने में ! दोनों ही आत्म निर्भर थीं और तन-मन-धन से माँ की सेवा कर रही थीं ! चंचल को गर्व हो रहा था अपनी बहनों पर ! ईश्वर उसकी बहनों जैसी बेटियां, हर माँ को दें !

चंचल असहाय थी ! वो कोई आर्थिक मदद नहीं कर पा रही थी ! सारा भार उसकी बहनों पर ही था ! उसे अफ़सोस था की माँ ने तो अपनी तीनों बेटियों को पढ़ा-लिखाकर सामान रूप से लायक बनाया था लेकिन चंचल आज आर्थिक रूप से इतनी अशक्त थी की वह अपनी बीमार माँ के लिए कुछ नहीं कर सकती थी ! चाहती थी पति उसके मन की उलझन समझ ले लेकिन पति ने अपनी तरफ से कोई तत्परता नहीं दिखाई तो सकोचवश वह अपनी माँ के इलाज के लिए पैसे नहीं मांग सकी उनसे !


रात्री के दुसरे पहर में जब ICU के बाहर जब मरीजों के परिजन फर्श पर चादर बिछाए बेखबर सो रहे थे तब अपनी असमर्थता और लाचारी पर बिना आहट किये वह सिसक रही थी ! बगल में सो रही छोटी बहन की अचानक नींद खुली ! चंचल को सुबकते देख उससे कारण पूछा ! लाख पूछने पर भी चंचल ने अपनी मन की व्यथा छोटी बहन को नहीं बताई ! लेकिन बहन ने चंचल के आंसुओं को पढ़ लिया ! सुबह होते ही उसने दस हज़ार रूपए ATM से निकाले और चंचल के हाथ पर रख दिए ! चंचल आँख मिला सकी !

उसी दिन दोपहर दो बजे माँ इस संसार को छोड़कर विदा हो गयी ! उसी के साथ ख़तम हो गयी सब उधेड़बुन और ज़रूरतें !


मृत्यु के छः महीने बाद जब वृद्ध पिता ने कुछ पैसों का इन्तेजाम किया तो लाख मना करने के बावजूद , सबसे पहले उसी असमर्थ बेटी का पैसा चुका दिया गया ! चंचल को उस छोटे से योगदान से जो मुट्ठी भर संतोष मिला था , वो भी जाता रहा .......

Zeal

Thursday, July 21, 2011

सिमटते पन्ने - कहानी

आई ए एस की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद चंचल ने सात वर्ष तक नौकरी की , फिर कुछ परिस्थितियां ऐसी बनीं की नौकरी करना संभव नहीं हो सका ! चंचल ने अपनी अन्य जिम्मेदारियों के साथ लेखन में ही मन की शान्ति ढूंढ ली थी . लेखन के माध्यम से वह समस्त चराचर जगत से जुड़ गयी थी ! नाते रिश्ते , प्यार , जीवन मूल्य , संवेदनाएं और भावनाएं क्या होती हैं ये उसने लेखन के जुड़ने के बाद ही जाना था! लोगों को करीब से जानने और समझने लगी थी ! लेखन ही मानों उसका संसार हो गया था ! खुश थी वो ! समस्त सृष्टि भी उसके साथ उसकी खुशियों में शामिल थी ! उसे अपने जीवन का लक्ष्य मिल चुका था !

लेकिन मित्र विराग को ये अच्छा नहीं लगता था. वो उसकी खुशियों में शामिल नहीं हो पाता था ! उसे चंचल का लेखन फूटी आँखों नहीं सुहाता था ! हमेशा उससे यही कहता रहता था की उसका लेखन व्यर्थ है , वह अपनी शिक्षा और योग्यता का दुरुपयोग कर रही है ! वह चंचल से नौकरी करने के लिए कहता था ! वो कहता था की यदि चंचल पैसे कमाएगी तो उसे सबसे ज्यादा ख़ुशी होगी !

चंचल जानती थी की जो उसकी ख़ुशी में आज नहीं शामिल है वो उसको मिलने वाली कल किसी दूसरी उपलब्धि पर भला कैसे खुश हो सकता है ! लेकिन समय बलवान होता है ! विराग के बार बार कहने पर उसने नौकरी कर ली ! सफलता की अनेक ऊँचाइयाँ चढ़ती चली गयी ! धन के मार्ग पर एक बार आने के बाद कोई वापस मुड कर नहीं देखता ! चंचल बहुत आगे निकल चुकी थी ! वो पहले भी खुश थी ! और आज भी ! लेकिन विराग अब अकेला था ! चंचल को ढूंढता था उसके लिखे हुए पन्नों में !

Monday, June 20, 2011

चंचल -- कहानी

एक लड़की थी। नाम था 'चंचल' सीधी -साधी लड़की थी , किसी का दिल नहीं दुखाती थी। जहाँ तक बन पड़ता था गैरों के दुःख सुख में शामिल होती थी। बच्चे , बूढ़े , स्त्री-पुरुष सभी की अपनी थी वो कभी बुरा नहीं मानती थी किसी बात का। कोई बात हो भी जाए तो समझने प्रयास करती थी , लेकिन अपने मन में द्वेष नहीं रखती थी , कोशिश करती थी अपनापन बना रहे। धीरज और साहस ही उसकी ताकत थी

उसका एक मित्र था मिहिर मिहिर बुद्धिमान था, विद्वान् था और अन्य भी बहुत से गुणों की खान था। लेकिन अकसर अपने व्यवहार से चंचल को दुःख देता रहता था। चंचल उन बातों का बुरा ना मानकर अपने कामों में व्यस्त रहती थी। वो उसके अवगुणों पर ध्यान देने के बजाये उसके गुणों को ज्यादा सम्मान देती थी। लेकिन मिहिर इस बात से बहुत परेशान रहता था की चंचल को गुस्सा क्यूँ नहीं आता ? इतना शांत कैसे रख पाती है स्वयं को ?

चंचल जितना ही शांत रहती थी , मिहिर उससे नाराज़ करने के प्रपंच रचता रहता था। बार-बार उसके दिल को चोट पहुंचाता था। सफल भी रहता था, लेकिन चंचल हर बार उसे माफ़ कर देती थी। चंचल का माफ़ कर देना ही मिहिर को अपनी पराजय लगता था। वो चाहता था की चंचल उससे झगडा करे। क्यूंकि वो जानता था की जिस दिन वो उससे नाराज़ होकर झगडा करेगी उसी दिन उसकी विजय होगी।

चंचल बखूबी समझती थी उसके अहम् को उसका चुप रहना भी मिहिर के अहंकार को पोषित करता था। मिहिर का तिलमिलाया अहम् चंचल को हर हाल में पराजित देखना चाहता था वो उसके शांत स्वभाव को तोड़ देना चाहता था। ऐसी बातें करता था जिससे उत्तेजित होकर वो अपना धैर्य खो दे और गुस्से में कुछ अनुचित कहे अथवा करे। लेकिन वो हमेशा असफल रहता था।

एक दिन मिहिर ने चंचल का इतना अपमान किया की वो रो दी। चंचल को रोते देखकर मिहिर को अपने विजयी होने का एहसास हुआ। फिर एक बार चंचल ने उसे माफ़ कर दिया।

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मेरा आपसे दो प्रश्न है --

- क्या चंचल को अपमान से तिलमिलाकर मिहिर से नाराज़ हो जाना चाहिए था अथवा रोने के बाद पुनः अपने शांत स्वभाव के कारण मिहिर को माफ़ करके उसने उचित किया ?
Link
- मिहिर जैसे लोग , जो एक अति शांत से व्यक्तित्व को भी दुखी कर देते हैं , जो की किसी भी प्रकार से उसका नुकसान नहीं कर रहे , दुःख नहीं दे रहे , मित्र-धर्म भी निभा रहे हैं , क्यूँ ऐसा करते हैं ? इसके पीछे मिहिर की मानसिकता क्या है ? क्या मिहिर कमज़ोर है जो किसी को रोता देखकर विजयी महसूस करता है? किसी को तोड़ देना ही क्यूँ ध्येय होता है किसी का ?

लोग किसी के शांत स्वाभाव से भी द्वेष क्यूँ रखते हैं। मधुर संबंधों को मधुरता के साथ क्यूँ नहीं जीते ?

Zeal

Tuesday, June 7, 2011

२०० वां -आलेख -- उधेड़बुन.

मासूम सपना जीवन से निराश होकर आत्महत्या करने जा रही थी। इससे पहले की नदी की उफनती लहरों में वो छलांग लगाती , दो मज़बूत बाँहों ने उसे थाम लिया। मुड़कर देखा तो विराट ने उसके गाल पर एक ज़ोरदार चांटा मारा और कहा-- "निराशा कभी इतनी गहरी मत होने दो की आत्महत्या करनी पड़े"

सपना ने कहा --"इतनी विशाल दुनिया में एक अकेली लड़की , कहाँ तक लड़ सकती है? , निराश तो होना ही था एक दिन और फिर मृत्यु तो अंतिम परिणति है ही जीवन की , तो थोडा पहले ही मर जाने में बुराई क्या है , सब दुखों का अंत तो हो जाएगा। "

विराट ने कहा- तुम अकेली नहीं हो , मुझे अपना भाई समझना आज से। तुम्हारे जीवन में खुशहाली आये , ये मेरी जिम्मेदारी होगी अब से।

फिर सपना और विराट साथ साथ रहने लगे सब तरफ खुशहाली छा गयी ऐसा लगता था मनो सारी प्रकृति ही उनके साथ हो चली हो। एक छोटा सा सुखी परिवार बन गया था। बहन सुरुचिपूर्ण भोजन बनाती थी और अपने भैया की हर छोटी बड़ी हर ज़रुरत का ध्यान रखती थी। बहन होने का पूरा फ़र्ज़ निभाती रही।

वो अपने भैया की विद्वता और गुणों का बहुत आदर करती थी। लेकिन उनके गुस्से से बहुत डरने लगी थी। क्यूंकि विराट सभी के साथ नरमी से पेश आता था , लेकिन सपना के साथ बहुत सख्त ही रहता था।

एक लम्बी अवधि तक सपना ने इस गुत्थी को सुलझाने की बहुत कोशिश की , लेकिन वो समझ नहीं पायी भैया की इस सख्ती को। उसको यही अफ़सोस सालने लगा की वो इतना मान करती है भैया का फिर भी वे उसके साथ रुखाई बरतते हैं , जबकि औरों के साथ इतनी नरमी।

जब सपना के बर्दाश्त की हदों के बाहर हो गया तो वो चुपचाप एक दिन घर छोड़कर चली गयी। उसे अपने भैया के स्नेह का पूरा भान था , लेकिन उनकी कडवी ज़बान इस दूरी का कारण बन गयी सपना ने सोचा की वो खुद को इतना मज़बूत करेगी की प्यार करने वाले भैया की कडवी ज़बान भी उसे मीठी लग सके, और तब तक वो उनसे दूर ही रहेगी।

अब उधेड़बुन की बारी थी विराट की बहन से जुदाई , सब दुखों पर भारी थी। सोचता रहता , ऐसा क्या गुनाह किया जो बहन नाराज़ हो गयी बहुत दुखी था वो , उदास भी लेकिन क्या वो कभी समझ पायेगा की क्या गलती कर रहा था वो ?