चंचल की दुनिया उसकी सहेली देवयानी में ही बसती थी। हर दुःख सुख की संगिनी देवयानी उसके लिए सब कुछ थी। जीवन का हर सुख-दुःख , उपलब्धियां , अटखेलियाँ और मन की उलझनें दोनों एक दुसरे से साझा करती थीं। जीवन इतना खुशहाल था की एक दुसरे के सिवा उन्हें कुछ और चाहिए ही न था।
गाँव में एक नयी लड़की आई 'मेधा'। अत्यंत मेधावी थी वो, लेकिन चंचल को पसंद नहीं करती थी। खुद में सिमटी रहने वाली चंचल ने शिकायत नहीं की और चुपचाप उसके आगमन पर उसके लिए अपना स्थान छोड़ दिया। अब पूरे गाँव में मेधा का ही राज प्रसार था। सभी मेधा को ही चाहने लगे । चंचल अकेली थी पर उदास नहीं क्यूंकि उसके पास उसकी सबसे बड़ी दौलत उसकी सहेली 'देवयानी' थी।
एक दिन बातों ही बातों में देवयानी ने चंचल को बताया की मेधा ,देवयानी की दोस्ती चाहती है , उससे अति स्नेह से बातें करती है , उसका सम्मान करती है और उसकी मित्रता चाहती है। चंचल सहम गयी । सारे गाँव से मिलने वाला स्नेह तो अब मेधा को ही मिलता था , क्या देवयानी को भी वह उससे छीन लेगी।
धीमी आवाज़ में उसने देवयानी से पूछा - "तुम्हें कैसी लगती है मेधा?
देवयानी ने कहा- वह बुद्धिमान है, विदुषी है , मेरा सम्मान करती है , मुझसे स्नेह और निकटता की अपेक्षा करती है , सदैव प्रेम से ही मिलती है फिर भला मैं कैसे उसका स्नेह ठुकरा सकती हूँ।
चंचल के मन का भय आकार लेने लगा , अन्धकार सा छाने लगा। वह जानती थी की मेधा की निकटता का लोभ संवरण देवयानी नहीं कर सकेगी। विद्वानों की मित्रता किसे नहीं चाहिए होती।
उस दिन उसका उसका मन अकेले में रोने का था । किससे करेगी संवाद अब। कौन उसे हंसायेगा। कौन उसकी उलझनें सुलझाएगा। अब तो सारे संवाद सिर्फ मन में ही होने थे।
दिन गुजरने लगे। वह नित्य प्रति देवयानी से मन ही मन संवाद करती । सैकड़ों ख़त लिखती , जो मन में ही उपजते और मन ही में रह जाते ....
प्रिय देवयानी,
मैं अपने प्रेम में इतनी स्वार्थी नहीं हो सकती की तुम्हें सिर्फ अपने पास ही रखूँ...
प्रिय देवयानी,
नवागंतुक के स्वागत में स्थान तो छोड़ना ही होता है...
प्रिय देवयानी,
तुम्हें मुझसे कोई जुदा नहीं कर सकता , तुम्हें अब वहाँ बसा के रखा है , जहाँ सिर्फ तुम और मैं हूँ...
प्रिय देवयानी,
मैं स्वार्थी हूँ, अपना प्यार सांझा होते हुए नहीं देख सकती इसीलिए.....
प्रिय देवयानी,
जब आंसुओं से मेरा कंठ अवरुद्ध होता है और आवाज़ लडखडाती है तो तुम कैसे जान लेती हो ....
प्रिय देवयानी,
मैं जब भी अकेली होती हूँ , तुम चुपके से आ जाती हो...
और झाँक के मेरी आँखों में , बीते दिन याद दिलाती हो......
प्रिय देवयानी....
प्रिय ......
थक कर उसने आँखें बंद कर लीं , कोरों से आँसू की बूँदें टपक कर बालों को भिगोती हुयी तकिया में जा सूखने लगीं...
Zeal
--------------------------------------------------------------------------
कहानी में किसी प्रिय के छिन जाने की असह्य पीड़ा को दर्शाने का उद्देश्य था , लेकिन कुछ पाठकों की मेल पर शिकायत मिली की कहानी में चंचल की मनोदशा का तो वर्णन है लेकिन देवयानी के मन में क्या है यह नहीं बताया गया है अतः चंचल-देवयानी संवाद नीचे जोड़ रही हूँ।
देवयानी ने चंचल को अति-व्यथित देखकर कहा -- किसी के चले जाने से किसी का जीवन रुकता नहीं है, और सदमा कभी इतना बड़ा नहीं होता की किसी की मृत्यु हो जाए ।
यहाँ देवयानी , कृष्ण की भूमिका में है जो मोह में फंसी चंचल को दुखों में सहज रहने का मार्ग बता रही है।
लेकिन चंचल के लिए प्रेम समर्पण है। वह सोलह कलाओं से संपन्न नहीं है। अपना दायरा बढाने से बेहतर वह किसी एक के लिए ही समर्पित हो ,जीना और मरना चाहती है।
प्रेम में शिकायत नहीं होती। किसी और की ज़रुरत भी नहीं होती। प्रेम की एक आयु जी लेने के बाद अश्क ही हर गम के साथी बन जाते हैं।
.
गाँव में एक नयी लड़की आई 'मेधा'। अत्यंत मेधावी थी वो, लेकिन चंचल को पसंद नहीं करती थी। खुद में सिमटी रहने वाली चंचल ने शिकायत नहीं की और चुपचाप उसके आगमन पर उसके लिए अपना स्थान छोड़ दिया। अब पूरे गाँव में मेधा का ही राज प्रसार था। सभी मेधा को ही चाहने लगे । चंचल अकेली थी पर उदास नहीं क्यूंकि उसके पास उसकी सबसे बड़ी दौलत उसकी सहेली 'देवयानी' थी।
एक दिन बातों ही बातों में देवयानी ने चंचल को बताया की मेधा ,देवयानी की दोस्ती चाहती है , उससे अति स्नेह से बातें करती है , उसका सम्मान करती है और उसकी मित्रता चाहती है। चंचल सहम गयी । सारे गाँव से मिलने वाला स्नेह तो अब मेधा को ही मिलता था , क्या देवयानी को भी वह उससे छीन लेगी।
धीमी आवाज़ में उसने देवयानी से पूछा - "तुम्हें कैसी लगती है मेधा?
देवयानी ने कहा- वह बुद्धिमान है, विदुषी है , मेरा सम्मान करती है , मुझसे स्नेह और निकटता की अपेक्षा करती है , सदैव प्रेम से ही मिलती है फिर भला मैं कैसे उसका स्नेह ठुकरा सकती हूँ।
चंचल के मन का भय आकार लेने लगा , अन्धकार सा छाने लगा। वह जानती थी की मेधा की निकटता का लोभ संवरण देवयानी नहीं कर सकेगी। विद्वानों की मित्रता किसे नहीं चाहिए होती।
उस दिन उसका उसका मन अकेले में रोने का था । किससे करेगी संवाद अब। कौन उसे हंसायेगा। कौन उसकी उलझनें सुलझाएगा। अब तो सारे संवाद सिर्फ मन में ही होने थे।
दिन गुजरने लगे। वह नित्य प्रति देवयानी से मन ही मन संवाद करती । सैकड़ों ख़त लिखती , जो मन में ही उपजते और मन ही में रह जाते ....
प्रिय देवयानी,
मैं अपने प्रेम में इतनी स्वार्थी नहीं हो सकती की तुम्हें सिर्फ अपने पास ही रखूँ...
प्रिय देवयानी,
नवागंतुक के स्वागत में स्थान तो छोड़ना ही होता है...
प्रिय देवयानी,
तुम्हें मुझसे कोई जुदा नहीं कर सकता , तुम्हें अब वहाँ बसा के रखा है , जहाँ सिर्फ तुम और मैं हूँ...
प्रिय देवयानी,
मैं स्वार्थी हूँ, अपना प्यार सांझा होते हुए नहीं देख सकती इसीलिए.....
प्रिय देवयानी,
जब आंसुओं से मेरा कंठ अवरुद्ध होता है और आवाज़ लडखडाती है तो तुम कैसे जान लेती हो ....
प्रिय देवयानी,
मैं जब भी अकेली होती हूँ , तुम चुपके से आ जाती हो...
और झाँक के मेरी आँखों में , बीते दिन याद दिलाती हो......
प्रिय देवयानी....
प्रिय ......
थक कर उसने आँखें बंद कर लीं , कोरों से आँसू की बूँदें टपक कर बालों को भिगोती हुयी तकिया में जा सूखने लगीं...
Zeal
--------------------------------------------------------------------------
कहानी में किसी प्रिय के छिन जाने की असह्य पीड़ा को दर्शाने का उद्देश्य था , लेकिन कुछ पाठकों की मेल पर शिकायत मिली की कहानी में चंचल की मनोदशा का तो वर्णन है लेकिन देवयानी के मन में क्या है यह नहीं बताया गया है अतः चंचल-देवयानी संवाद नीचे जोड़ रही हूँ।
देवयानी ने चंचल को अति-व्यथित देखकर कहा -- किसी के चले जाने से किसी का जीवन रुकता नहीं है, और सदमा कभी इतना बड़ा नहीं होता की किसी की मृत्यु हो जाए ।
यहाँ देवयानी , कृष्ण की भूमिका में है जो मोह में फंसी चंचल को दुखों में सहज रहने का मार्ग बता रही है।
लेकिन चंचल के लिए प्रेम समर्पण है। वह सोलह कलाओं से संपन्न नहीं है। अपना दायरा बढाने से बेहतर वह किसी एक के लिए ही समर्पित हो ,जीना और मरना चाहती है।
प्रेम में शिकायत नहीं होती। किसी और की ज़रुरत भी नहीं होती। प्रेम की एक आयु जी लेने के बाद अश्क ही हर गम के साथी बन जाते हैं।
.
60 comments:
अति मार्मिक सार्थक कहानी...
भावमय करती शब्द रचना ।
किसी को देवयानी भाती है और किसी को बिरयानी ,
मन चंचल है बिल्कुल ऐसे जैसे प्रपात का पानी
आज बिना लिंक के ही
सादर !
फिर भी जिसे देखना हो तो नव भारत टाइम्स की साइट देख ले , एक लेख अभी आया है और दूसरा 4:30 PM पर आ जाएगा और
ब्लॉग की ख़बरें तो देख मत लेना वहाँ कुछ ऐसी सामग्री पड़ी है जो पुस्तक के चीर हरण के ख़िलाफ़ है ?
सार्थक कहानी, प्रिये मित्र के प्रेम को बाँटना आसान नहीं होता। इस अनुभव से मैं भली भांति परिचित हूँ।
समय मिले तो आयेगा मेरे नई पोस्ट पर आपका स्वागत है
http://mhare-anubhav.blogspot.com/
चंचल सिर्फ देवयानी के लिए पूरे गाँव को अनदेखा कर सकती थी किन्तु जब अपने एकमात्र प्रिय को अपने से दूर होते देखा तो व्यथा से व्याकुल हो उठी | अपनी इस पीर को देवयानी के सामने प्रकट भी नहीं किया , यही तो प्रेम या मित्रता की पराकाष्ठा है |
बहुत ही सुन्दर और संवेदना से परिपूर्ण लघुकथा ...
मर्म यही है...........इस संसार में सदा के लिए कुछ नहीं होता.............कुछ भी कायम नहीं है.........सुन्दर पोस्ट|
यदि कोई आपका है तो वह आपसे दूर कभी नहीं जायेगा और यदि गया तो वह आपका कभी था ही नहीं.
उपदेश जैसा लगता है ये कथन पर बहुत सटीक है.
भावपूर्ण कहानी के लिए बधाई.
ye jalan har koi jheltaa hai
चंचल मन के भाव-चित्रों को चुपचाप चुरा लिया करता था संकलन करन को...
लेकिन अब चंचल ने भी जड़ लिया द्वार पर ताला....
ठीक ही है! ... 'संकलन' आज से मन में ही करना होगा...
क्या संभव है कि चंचल मन का हर चित्र मेरे संकलन में स्वतः जुड़ जाए?
chanchal ke khaton me ..
मन के कोमल भावों का शाब्दिक चित्रण ... जिस विधा में आपने किया है ... इसे ही कहते हैं ... कोमल भाव संवाद सांचे में.
आप अपनी बहुमुखी प्रतिभा से ब्लॉग-लेखन विधा को इतना बहुआयामी और उन्नत बनाए दे रहे हैं कि वर्तमान ब्लॉग साहित्य की शुष्कता समाप्त होने लगी है, लेखन में किया जाने वाला श्रम मुग्ध करता है, विषयवस्तु रसमय लगती है और पाठकों की पठन-रुचि न केवल निःसंकोच प्रतिक्रिया देने लग पड़ी है अपितु आगामी लेखों की प्रतीक्षा में आतुर रहा करती है........... आपका ब्लॉग-लेखन अनूठा है.
lovely story :)
Bikram's
वाह! बहुत सुन्दर
प्रायः यही होता है.देवयानी चंचल को भी साथ लेले तो कितना अच्छा रहे !
बड़ी सम्वेदनशील है चंचल!!!
हर बार पहेली बनकर खड़ी हो जाती है।
चंचल की भावुकता अति लगती है.
क्या उसे देवयानी पर विश्वास नहीं ?
एक कृष्ण,प्रीत करने वाली गोपियाँ अनेक.
प्रेम कभी भी संकुचित नहीं होता.
.
कहानी में किसी प्रिय के छिन जाने की असह्य पीड़ा को दर्शाने का उद्देश्य था , लेकिन कुछ पाठकों की मेल पर शिकायत मिली की कहानी में चंचल की मनोदशा का तो वर्णन है लेकिन देवयानी के मन में क्या है यह नहीं बताया गया है अतः चंचल-देवयानी संवाद नीचे जोड़ रही हूँ।
देवयानी ने चंचल को अति-व्यथित देखकर कहा -- किसी के चले जाने से किसी का जीवन रुकता नहीं है, और सदमा कभी इतना बड़ा नहीं होता की किसी की मृत्यु हो जाए ।
यहाँ देवयानी , कृष्ण की भूमिका में है जो मोह में फंसी चंचल को दुखों में सहज रहने का मार्ग बता रही है।
लेकिन चंचल के लिए प्रेम समर्पण है। वह सोलह कलाओं से संपन्न नहीं है। अपना दायरा बढाने से बेहतर वह किसी एक के लिए ही समर्पित हो ,जीना और मरना चाहती है।
प्रेम में शिकायत नहीं होती। किसी और की ज़रुरत भी नहीं होती। प्रेम की एक आयु जी लेने के बाद अश्क ही हर गम के साथी बन जाते हैं।
.
@-राकेश जी -
कहानी की नायिका एक सामान्य भावुक स्त्री है। वह देवयानी जैसी समय के साथ चलने वाली, स्मार्ट , विवेकी और दूरदर्शी नहीं है। शायद किसी अति प्रिय को खो देने की व्यथा कुछ ऐसी ही होती है। ऐसे समय में व्यथित मन , विवेक की भूमिका को नकार देता है।
प्रेम की जकड़न को दर्शाती कहानी, बहुत ही अच्छी।
Marmik, bhavpurn , khoobsoorat prastuti
bahut hi achhi mann ko chhuti kahani ....
दिव्या जी कृष्ण की चर्चा कहीं होती है तो निम्नलिखित विचार मन में स्वतः आ जाता है...
"एक नूर ते सब जग उपजेया / कौन भले कौन मंदे"...
"हरी ॐ तत सत"...
सांकेतिक भाषा में जिस शब्द से सृष्टि की रचना मानी जाती है वो हैं संख्या '३', जिसमें ऊपर चंद्रमा है और मध्य में पूँछ... यानि ॐ अर्थात चंद्रमा का सार सतयुगी त्रेयम्बकेश्वर ब्रह्मा-विष्णु-महेश के अंश, महेश अर्थात अमृत शिव (विषधर / नीलकंठ महादेव) के मस्तक पर,,, और माँ पार्वती की कृपा से धरा के राजा, पार्वती-पुत्र गणेश अर्थात शिव के मूलाधार में मंगल ग्रह का सार जाना जा सकता है!
परम ज्ञान इस प्रकार तीन भागों में विभाजित किया गया - भक्ति, ज्ञान (साधारण भौतिक) , और विज्ञान (गूढ़ भौतिक ज्ञान) ...
जो 'बहिर्मुखी' होने के कारण किसी को दुःख मिल रहा है, उस का कारण वर्तमान काल का 'कलियुग' का होना है (जब मानव क्षमता सैट युग में १००% से आरम्भ कर, केवल २५ से ० % के भीतर रह जाती है),,, और हिन्दू मान्यतानुसार काल का नियंत्रण महाकाल / भूतनाथ शिव के हाथ में है... जिसे ब्रह्माण्ड रुपी अनंत शून्य में व्याप्त शक्ति के प्रतिबिम्ब, अथवा मॉडल के रूप में, साकार पृथ्वी को अनंत शून्य के केंद्र में तुलना में बिंदु समान जान शिवलिंग-पार्वती योनी (शरीर-शक्ति के योग) द्वारा दर्शाया जाता आ रहा है - वैसे ही कैसे कृष्ण / कृष्णा अथवा काली के माध्यम से शक्ति के रौद्र रूप को दर्शाया गया है, क्यूंकि काली शिव के ह्रदय में दर्शाई जाती है, अर्थात वो द्योतक है ज्वालामुखी की, जिसके मुंह से अग्नि लाल जीभ समान दिखाती है...
(अनंत शून्य के मध्य में एक बिंदु समान पृथ्वी / नादबिन्दू विष्णु को गणितज्ञं शून्य के ३६० डिग्री में 'टेनजेंट कर्व' के माध्यम से देख सकते है (शून्य से + अनत, (-) अनंत से शून्य होते हुए (+) अनंत और (-) अनंत से फिर शून्य... और उनके अष्टम अवतार, (अर्थात कृष्ण, शेषनाग पर लेटे विष्णु समान), को संख्या '8' को लिटा अनंत तो दर्शाया जाता आ ही रहा है :)
इसी कारण गीता में 'बहुरूपिया कृष्ण', अर्थात परमात्मा, जो सब जीव-निर्जीव, प्राणी आदि में स्वयं आत्मा के रूप में विराजमान है कहते हैं, मेरी शरण में आओ तो में आपको परम सत्य तक ले जाऊँगा :)
जीवत चलने का नाम, रुकना नहीं तेरा काम ॥
प्रिय के छिन जाने के भय से उत्पन्न चंचल की व्यथित मनोदशा का जीवंत वर्णन।
चंचल के काल्पनिक पत्रों के माध्यम से उसके मन की दुविधा और द्वंद्व को उभारने में आप की लेखनी सफल हुई है।
दिव्या जी ...क्या भावुक और निर्मल "चंचल", सर्वथा सर्व तत्व प्राप्य "देवयानी" और मेधावी "मेधा" एक साथ नहीं हो सकती, क्या चंचल का भय दूर नहीं किया जा सकता ? क्या चंचल को ये विस्वास नहीं कराया जा सकता की किसी को किसी के लिए जगह नहीं छोडनी . शायद ये संभव है .. आभार
कहानी सत्य के बहुत करीब है। ऐसा होता है।
बहुत ही मार्मिक और दिल को छु लेने वाली कहानी /बहुत अच्छा लिखा आपने /बहुत बहुत बधाई आपको /
लाख टके की बात कह दी है शिखा वार्ष्णेय जी ने. अब और क्या कहा जाय ?
पर दिव्या की दृष्टि से भी देखें तो एक भोला पात्र, जो निश्छल हो किसी अपात्र पर अपना विश्वास गिरवीं रखकर ठगाया जाता है..... उसकी पीड़ा का अंत कौन पा सकेगा ? होता है दिव्या ! ऐसा भी होता है .....निश्छल प्रेम को कितने लोग समझ पाते हैं ? आज तो संबंधों की बुनियाद ही "इसमें मेरा कितना लाभ ?" से शुरू होती है.
प्रेम शब्द को कॄष्ण के नाम का स्पर्ष मिलते ही उसका वास्तविक स्वरूप सामने आ जाता है. फ़िर उस कहानी को किसी बिंब की आवश्यकता नही होती, बहुत सुंदर.
रामराम.
emotional creation
चंचल के हक में भी ये अच्छा ही है....किसी पर भी अति-निर्भरता सही नहीं....उसे भी नए दोस्त बनाने का मौका मिलेगा.
कहानी में भाव काफी गहरे हैं।
टिप्पणियों में मैं शिखा जी की बातों से सहमत हूं कि जो आपका है वो आपसे दूर नही जाएगा और जो दूर गया वो कभी आपका था ही नहीं....
भावपूर्ण...सुन्दर!!
चंचल की मनोदशा समझ सकती हूँ , मगर जानती हूँ , यह दर्द उसे देवयानी- सा संतुलित ही बना देगा, समय जरुर लगेगा!
दिव्या जी,
आप ठीक कह रहीं हैं व्यथित मन विवेक की भूमिका को नकार देता है.ऐसा ही शायद अर्जुन को भी 'अर्जुन विषाद' के दौरान हुआ होगा,जब महारथी अर्जुन सिर से पावं तक विषादग्रस्त हो काँपने लगा था,आसूओं से नहा गया था.दयनीय अवस्था हो गई थी उसकी.
ऐसे में ही 'विषाद योग' की आवश्यकता होती है.कुश्वंश जी की टिपण्णी इसी विषाद योग की तरफ इंगित कर रही है.'विषाद योग' के लिए आपसी 'संवाद' अति आवश्यक है.आप यदि कहानी को इस ओर मोड दे दें तो 'सुखान्त'हो जायेगा.
आभार.
हर व्यक्ति अज्ञानी होता है, और प्रकृति में काल के साथ निरंतर चलते परिवर्तन के कारण मानसिक और शारीरिक उत्पत्ति होती रहती है जब तक व्यक्ति परिपक्व नहीं हो जाता... शरीर तो किसी एक आयु में परिपक्व हो ही जाता है... किन्तु मन अनंत और अकेले परम जीव के साथ सम्बंधित होने के कारण, शरीर पर निर्भर न कर, अंत तक उसकी उत्पत्ति संभव है, यदि उसे निराकार परम जीव के साथ जोड़ दिया जाए...जो हरेक के भाग्यवश उसके भीतर ही विराजमान भी है, और व्यक्ति विशेष से केवल संकेत चाहता है वो शिव अर्थात अमृत परम जीव...
कृष्ण कहते हैं हर गलती का कारण अज्ञान है... और हिन्दू अथवा भारतवाशी भाग्यशाली है... उसको जानना चाहिए कि वर्तमान घोर कलियुग न भी हो तो कलियुग तो है ही...और इस कारण कोई भी व्यक्ति अपनी सतयुगी आत्मा समान १००% ज्ञानी नहीं हो सकता... कितना भी मेधावी हो उसकी कार्य क्षमता २५% से अधिक कदापि नहीं हो सकती वर्तमान में...
उसे 'चंचल' कहो अथवा 'दिव्या', हर व्यक्ति जन्म से अंतर्मुखी होता है, या बहिर्मुखी (जो 'माया' के कारण अधिक सफल प्रतीत होते हैं) ...
अज्ञानतावश, जो अंतर्मुखी होते हैं उनमें हीन भावना पैदा हो जाती है... किन्तु वो भाग्यशाली कहे जा सकते हैं यदि वो बाहरी संसार से विचलित हुए बिना अपनी आत्मा से जुड़ जाएँ और विश्वास करें अपने सत युगी पूर्वजों का, जिन्होंने कहा "शिवोहम / तत त्वं असी"! अर्थात हम सभी अनंत आत्माएं हैं, शरीर नहीं...
"हम को मन की शक्ति देना / मन विजय करें..."!
'हम को मन की शक्ति देना..मन विजय करें...
जे.सी. जी वाह!
भारतीय साहित्य और फिल्मों ने विरह को बहुत महिमा मंडित किया गया है. मेरे जैसे कई उससे अछूते नहीं रहे. एक दिन मैं घर में यूँ ही एक पुराना गीत गुनगुना रहा था-
ये हसरत थी कि इस दुनिया में बस दो काम कर जाते,
तुम्हारी याद में जीते तुम्हारे ग़म में मर जाते
इसे सुन कर छोटी बिटिया की तुरत प्रतिक्रिया हुई- 'That's all? उस टाइम के लोगों कोई और काम नहीं था क्या?'
इस दृष्टि से वह बिल्कुल सही है जो- देवयानी का कहना है.
.
कुश्वंश जी ,
काश तीनों एक साथ हो सकते तो उससे बड़ा सुख कोई और नहीं हो सकता है, लेकिन कुछ लोगों का आगमन ही इस उद्देश्य से होता है की किसी के सुखमय संसार में आंधी लाकर सब कुछ उजाड़ दो। शायद ऐसा विधि का विधान है। कहानी की प्रारम्भ ही मेधा के आगमन से होता है , जो अपनी मेधा शक्ति को जोड़ने में नहीं बल्कि तोड़ने में लगाती है। यदि उसका चरित्र दृढ होता तो वह सिर्फ देवयानी की नहीं बल्कि देवयानी और चंचल दोनों की ही मित्रता पाने का प्रयास करती।
देवयानी का प्रेम यदि समर्पण से ओत-प्रोत होता तो दोनों के मध्य कोई तीसरा नहीं आ पाता। वह चंचल की खातिर थोडा सा त्याग कर सकती थी लेकिन यही थोडा सा त्याग संभव नहीं है मनुष्य स्वभाव में यह दर्शाने की कोशिश की है। देवयानी को दोनों चाहिए - चंचल भी और मेधा भी। शायद वो ज्यादा व्यवहारिक है।
चंचल इतनी मेधावी और मुखर नहीं है किन्तु अपनी प्रिय सखी की इच्छा का मान रखने के लिए अपने स्थान का त्याग करती है। उसके लिए सबसे अहम् देवयानी की ख़ुशी है। अपनी व्यथा से तो वह किसी प्रकार लड़ भी लेगी।
.
.
राकेश जी ,
हर कहानी का अंत सुखान्त ही होता है। सुख केवल देवयानी के सानिध्य में नहीं छुपा है। सुख उससे इतर भी कहीं है जो मोहग्रस्त होकर चंचल देख नहीं पा रही थी। लेकिन दैवीय संयोग से चंचल; की जिंदगी में यह घटना घटती है जो उसे एक नयी दिशा देती है। मित्रों की परख भी तो ऐसी ही परिस्थिति में होती है।
जब परख हो जाती है तो व्यक्ति स्वयं को पहले से दृढ करने की कोशिश करता है। और स्वयं को पहले से बेहतर करना , दृढ़ता लाना, मन पर संयम रखना , किसी और की ख़ुशी के लिए त्याग की भावना को महत्त्व देना , आत्म-निर्भर होना आदि ही इस कहानी का सुखान्त है।
.
.
@-चंचल की मनोदशा समझ सकती हूँ , मगर जानती हूँ , यह दर्द उसे देवयानी- सा संतुलित ही बना देगा, समय जरुर लगेगा!
@-"हम को मन की शक्ति देना / मन विजय करें..."!
----------------------------
वाणी जी ,
आपने तो कहानी का अंत , जो एक शास्वत सत्य भी है , उसे ही लिख दिया।
JC जी ,
आपकी टिप्पणी और वाणी जी की टिप्पणी ही तो इस कहानी का सार है।
लड़ना तो सिर्फ अपने मन से ही है। जिंदगी में आने-जाने वाले तो एक माध्यम मात्र हैं।
.
दिव्या जी , विषय पर बेहतरीन और तार्किक पकड़ के लिए बधाई .लेखनी शशक्त हो, ऐसे ही विश्लेषक हो शुभकामनाये
वाह! वाह! दिव्या जी.
आपके विचार और स्पष्टीकरण पढकर अच्छा लगा.
जे.सी. जी को सादर नमन.
.
भूषण जी ,
यह सच है की प्यार से सिवा भी बहुत कुछ है करने को , लेकिन मन में यदि कोमल भाव ही नहीं होंगे तो व्यक्ति का जीवन अति शुष्क होगा। वह किसी भी प्रकार का सकारात्मक योगदान नहीं कर सकेगा।
मन सदैव इतना कोमल होना चाहिए की किसी की भी व्यथा से आर्द्र हो जाए, चाहे वो देश की व्यथा हो , दलित की हो अथवा किसी भी प्राणिमात्र की।
जिस ह्रदय में प्रेम नहीं , वह शुष्क है, बंजर है, अनुपयोगी है।
.
देर से आने का फायदा की बहुत सारे तर्क और विश्लेषण पढने को मिले . बीती ताहि बिसार दे ,आगे की सुधि लेही .
आदरणीय प्रतुल भैया ,
मेरे लिखे हर आलेख पर आपका पूर्ण अधिकार है। आप उसे जहाँ इच्छा हो वहां संकलित कर सकते हैं। आपकी मीठी प्रशंसा से बहन का मन अति हर्षित है । गर्व करती हूँ अपने भैया पर।
भावुक करती हुई प्रस्तुति .....कभी -कभी प्रेम को बांटना मुश्किल लगता है
क्षमा प्रार्थी हूँ, (आपने अब ताला लगा दिया तो में कोपी पेस्ट नहीं कर पा रहा हूँ, अपनी टिप्पणी भी जिसकी में कोपी नहीं रखता और सीधा टॉगल और कोपी कर पेस्ट कर देता हूँ), जो आपने अंत में दर्शाई ऐसी मनोभावना कभी कभी समाचार पत्रों, टीवी, आदि में कभी कभी देखने में आती है दुखदायी अंत में परिवर्तित होते...
छोड दे सारी दुनिया किसी के लिये ये मुनासिब नही आदमी के लिये…………और प्रेम तो वैसे भी विशाल होता है उसमे सब समा जाते हैं वहाँ डर का क्या काम्।
मन ही देवता ,मन ही ईश्वर, मन से बड़ा न कोय
मन उजियारा जग में फैले, मन उजियारा होय
तन से चाहे भाग ले कोई ,मन से भाग न पाए
तोरा मन दर्पण कहलाये
और तो इतना सब कुछ सार्थक कह दिया सभीने |बहुत अच्छी पोस्ट और उतनी सी सुन्दर टिप्पणियाँ |
बस सदैव एक प्रश्न सा उठता है मन में कि हमारी कथनी और करनी में कितने प्रतिशत समानता है |
कथनी और करनी में अंतर का कारण मन रुपी चंचल लक्ष्मी का विष्णु को न पा सकना है - वर्तमान काल कलियुग होने के कारण... ...
यदि आप अपने पूर्वजों की 'सागर मंथन' की कथा पर ध्यान दें, तो गुरु बृहस्पति की देख रेख में देवताओं और दानवों (राक्षसों) की मिले जुले प्रयास से अमृत प्राप्त करने हेतु मेरु / मंदार पर्वत की मथनी बना और वासुकी नाग को रस्सी समान उपयोग कर, मंथन आरम्भ किया गया तो हलाहल आदि विष उत्पन्न हो गए :(
और सभी विष्णु के पास जा त्राहि माम करते पहुँच गए तो विष्णु, त्रेयम्बकेश्वर, ने उन्हें शिव जी के पास जाने की सलाह दी...
अमृत योगेश्वर शिव हलाहल / कालकूट, अमृत दायिनी अर्धांगिनी पार्वती की कृपा से पी गए, और उसे अपने गले में धारण कर लिया,,, और इस कारण नीलकंठ महादेव कहलाये...
हमारी कथनी के माध्यम मुंह में जिव्हा, और ध्वनी के स्रोत कंठ को मानव शरीर में शुक्र ग्रह के सार का निवास स्थान बता गए ज्ञानी-ध्यानी योगी, सिद्ध पुरुष, और मानव को अपस्मरा पुरुष, अर्थात भुलक्कड़ आदमी, और उसे 'एकपदा' नटराज शिव के दांये चरण की धूल समान उसके नीचे पड़े दर्शाया आ रहा है सांकेतिक भाषा में!
अर्थात मानव - भगवान् का प्रतिरूप होते हुए भी - सत्य को नहीं जानता, भूल गया है कि ब्रह्मा का दिन आरम्भ हुए साढ़े चार अरब वर्ष हो चुके हैं... आदि आदि...
कथनी और करनी के बीच का अंतर किसी कवि ने बताया कि जो आँख देखती हैं और कान सुनते हैं वो स्वयं बोल नहीं सकते, जिस कारण जो औरों ने देखा अथवा सुना उसका वर्णन जिव्हा को करना पड़ता है जो स्वयं न तो देख सकती न सुन सकती :)
देवयानी के नाम पत्र चंचल के असीम प्रेम को दर्शाते हैं ... देवयानी यदि कृष्ण रूप में है तो चंचल का उद्धार ही होगा ... इसमें कोई शंका नहीं .. अति निर्भरता इंसान को कमज़ोर बना देती है ... बहुत सुन्दर पोस्ट ..
बहुरुपिया कृष्ण किन्तु नटखट है, ब्रज में गोपियों के मटके तोड़ उन्हें भीगा देता था...
गीली साडी लिए, खाली हाथ घर जा सास से भी गाली पड़ती होगी!
"लागा चुनरी में दाग / छुपाऊँ कैसे / घर जाऊं कैसे / ... जाके बाबुल से नजरें मिलाऊं कैसे" ?
कृष्ण कह गए 'हम' सभी आत्माएं हैं, शरीर नहीं, जो वस्त्र है आत्मा का - फट गया तो बदल लिया!...
मनोदशा को समझने और समझाने का सुन्दर प्रयास ,विशिष्ट है , शुक्रिया जी /
पता नहीं, मैं तो इन मामलों में हमेशा उलझ जाता हूं.
बहुत सुदर
कम ही ऐसी कहानियां पढने को मिलती है।
वाह! दिव्या जी
नमस्कार !
.....भावुक करती हुई प्रस्तुति
चंचल की मनोदशा का आपने बहुत सुन्दर ढंग से वर्णन किया है दिव्या ...कहानी दिल को छू लेती है....धन्यवाद!
अति मार्मिक सार्थक कहानी...
आपकी पोस्ट आज "ब्लोगर्स मीट वीकली" के मंच पर प्रस्तुत की गई है /आप आयें और अपने विचारों से हमें अवगत कराएँ /आप हमेशा ऐसे ही अच्छी और ज्ञान से भरपूर रचनाएँ लिखते रहें यही कामना है /आप ब्लोगर्स मीट वीकली (८)के मंच पर सादर आमंत्रित हैं /जरुर पधारें /
मैंने चंचल को अतिभावुक चरित्र के रूप में देखा और लगा कि देवयानी ने उसे इस स्थिति से निकालने के लिए नेक सलाह दी. कुछ भावुक होना ठीक है लेकिन अतिभावुकता तो समस्या है. इसलिए देवयानी को मैं सही मानता हूँ.
man ke bhaavnaaon me toofan darshaati kahani.bahut achchi.
Post a Comment