नोबेल पुरस्कार विजेता 'अमर्त्य सेन ' ने एक पुस्तक लिखी जिसका शीर्षक है - " The argumentative Indian "। इस पुस्तक में लेखक ने भारत के इतिहास का विस्तार से उल्लेख किया है । अपने निबंधों में उन्होंने भारत में लोकतंत्र , धर्मनिरपेक्षता की वकालत की है । उन्होंने धर्म , जाति , लिंग तथा समुदाय के आधार पर भेद-भाव का विरोध किया है । तथा उपमहाद्वीपीय शान्ति का आह्वान किया है ।
इस पुस्तक में श्री सेन ने भारत के बेहतरीन पहलुओं कों उजाकर किया है । अपने तर्कों द्वारा इन पक्षों कों पूरे विश्व के सामने सही परिपेक्ष्य में रखा । James Mills जैसे लेखकों , जिन्होंने " History of British India " लिखा तथा उसमें भारत के उजले पक्षों कों तोड़-मरोड़कर विकृत करके प्रस्तुत किया , उनके द्वारा प्रस्तुत पक्षों का भी श्री अमर्त्य सेन ने अपने तर्कों द्वारा ख़ूबसूरती से खंडन किया । अपनी इसी तार्किक शक्ति के लिए ही वो देश विदेश में एक बुद्धिजीवी की तरह जाने गए ।
मुझे आपत्ति है , पुस्तक के टैग " argumentative Indian " से । क्यूंकि देश विदेश में चर्चित ये पुस्तक एक आम भारतीय की पहचान बन गयी । एक छोटे वर्ग कों यदि छोड़ दिया जाये जो किसी के तर्क एवं बुद्धि का सम्मान करते हैं , तो शेष बड़ा समुदाय तार्किक , rational और logical लोगों कों बहसी ( argumentative ) कह देता है ।और यह एक नकारात्मक कमेन्ट है किसी के लिए भी । इसलिए इस पुस्तक का शीर्षक यदि " argumentative Indian की जगह " Logical Indian " होता , तो हम भारतीयों पर बहसी होने का टैग नहीं लगता ।
आजकल जिसने ये पुस्तक पढ़ी भी नहीं है और जो अमर्त्य सेन जैसे तार्किक एवं logical बुद्धिजीवी कों भली प्रकार जानता भी नहीं है , वो भी किसी के तर्कों के आगे जब हारने लगता है तो उसे " argumentative Indian " की उपाधि देकर अपनी भड़ास निकालता है । पुस्तक के इस शीर्षक के कारण आज एक आम भारतीय की पहचान " argumentative Indian " की हो गयी है ।
मेरे विचार से लोगों कों इस शीर्षक कों एक सही परिपेक्ष्य में लेने की ज़रुरत है । बहस करने के लिए तर्कों की ज़रुरत होती है और तर्कों कों सामने रखने के लिए वृहत ज्ञान की ज़रुरत होती है। विभिन्न भाषाओं , संस्कृतियों एवं विषयों की जानकारी रखने वाला ही अपनी बात कों तर्क-सम्मत तरीके से प्रस्तुत कर सकता है । इसलिए किसी logical व्यक्ति के तर्कों से विचलित होकर उसे 'argumentative' की उपाधि दे देना अनुचित प्रतीत होता है ।कोशिश करनी चाहिए की हम तार्किक लोगों के सानिध्य से ज्यादा से ज्यादा लाभान्वित हो सके ।
आज कितने ही देश हैं , जहाँ के निवासियों में न धैर्य है , न ही धीरज । वो तो बन्दूक की गोलियों से बात करना पसंद करते हैं । वो न तो समझते हैं , न ही समझा सकने की काबिलियत रखते हैं। लेकिन भारतीय संवेदनशील हैं , धैर्यवान हैं , अपनी बात कों तर्कों द्वारा तथा संवाद द्वारा कहते और प्रस्तुत करते हैं। आज हमारे समाज में भ्रष्टाचार , बलात्कार , आतंकवाद , गरीबी , असंवेदनशीलता जैसे मुद्दों पर एक भारतीय व्यथित होता है , इस पर चर्चा करना चाहता है , इपने वक्तव्यों कों कहकर और लिखकर तर्कों द्वारा प्रस्तुत करता है . क्या इसे बहसी होना कहा जाएगा या फिर समाज और परिवेश से सरोकार रखने वाला एक संवेदनशील भारतीय ?
भारतीय तार्किक है , क्यूंकि उनके पास ज्ञान है और ज्ञान ही तर्कों का सहयोगी है । भारतीयों का व्यक्तित्व अनुकरणीय है । अपने इसी व्यक्तित्व के कारण ही भारतीय देश-विदेश में अपना परचम लहरा रहे हैं। इसलिए गर्व के साथ कहिये की आप ' logical Indian ' हैं , 'argumentative Indian ' नहीं ।
आभार ।
इस पुस्तक में श्री सेन ने भारत के बेहतरीन पहलुओं कों उजाकर किया है । अपने तर्कों द्वारा इन पक्षों कों पूरे विश्व के सामने सही परिपेक्ष्य में रखा । James Mills जैसे लेखकों , जिन्होंने " History of British India " लिखा तथा उसमें भारत के उजले पक्षों कों तोड़-मरोड़कर विकृत करके प्रस्तुत किया , उनके द्वारा प्रस्तुत पक्षों का भी श्री अमर्त्य सेन ने अपने तर्कों द्वारा ख़ूबसूरती से खंडन किया । अपनी इसी तार्किक शक्ति के लिए ही वो देश विदेश में एक बुद्धिजीवी की तरह जाने गए ।
मुझे आपत्ति है , पुस्तक के टैग " argumentative Indian " से । क्यूंकि देश विदेश में चर्चित ये पुस्तक एक आम भारतीय की पहचान बन गयी । एक छोटे वर्ग कों यदि छोड़ दिया जाये जो किसी के तर्क एवं बुद्धि का सम्मान करते हैं , तो शेष बड़ा समुदाय तार्किक , rational और logical लोगों कों बहसी ( argumentative ) कह देता है ।और यह एक नकारात्मक कमेन्ट है किसी के लिए भी । इसलिए इस पुस्तक का शीर्षक यदि " argumentative Indian की जगह " Logical Indian " होता , तो हम भारतीयों पर बहसी होने का टैग नहीं लगता ।
आजकल जिसने ये पुस्तक पढ़ी भी नहीं है और जो अमर्त्य सेन जैसे तार्किक एवं logical बुद्धिजीवी कों भली प्रकार जानता भी नहीं है , वो भी किसी के तर्कों के आगे जब हारने लगता है तो उसे " argumentative Indian " की उपाधि देकर अपनी भड़ास निकालता है । पुस्तक के इस शीर्षक के कारण आज एक आम भारतीय की पहचान " argumentative Indian " की हो गयी है ।
मेरे विचार से लोगों कों इस शीर्षक कों एक सही परिपेक्ष्य में लेने की ज़रुरत है । बहस करने के लिए तर्कों की ज़रुरत होती है और तर्कों कों सामने रखने के लिए वृहत ज्ञान की ज़रुरत होती है। विभिन्न भाषाओं , संस्कृतियों एवं विषयों की जानकारी रखने वाला ही अपनी बात कों तर्क-सम्मत तरीके से प्रस्तुत कर सकता है । इसलिए किसी logical व्यक्ति के तर्कों से विचलित होकर उसे 'argumentative' की उपाधि दे देना अनुचित प्रतीत होता है ।कोशिश करनी चाहिए की हम तार्किक लोगों के सानिध्य से ज्यादा से ज्यादा लाभान्वित हो सके ।
आज कितने ही देश हैं , जहाँ के निवासियों में न धैर्य है , न ही धीरज । वो तो बन्दूक की गोलियों से बात करना पसंद करते हैं । वो न तो समझते हैं , न ही समझा सकने की काबिलियत रखते हैं। लेकिन भारतीय संवेदनशील हैं , धैर्यवान हैं , अपनी बात कों तर्कों द्वारा तथा संवाद द्वारा कहते और प्रस्तुत करते हैं। आज हमारे समाज में भ्रष्टाचार , बलात्कार , आतंकवाद , गरीबी , असंवेदनशीलता जैसे मुद्दों पर एक भारतीय व्यथित होता है , इस पर चर्चा करना चाहता है , इपने वक्तव्यों कों कहकर और लिखकर तर्कों द्वारा प्रस्तुत करता है . क्या इसे बहसी होना कहा जाएगा या फिर समाज और परिवेश से सरोकार रखने वाला एक संवेदनशील भारतीय ?
भारतीय तार्किक है , क्यूंकि उनके पास ज्ञान है और ज्ञान ही तर्कों का सहयोगी है । भारतीयों का व्यक्तित्व अनुकरणीय है । अपने इसी व्यक्तित्व के कारण ही भारतीय देश-विदेश में अपना परचम लहरा रहे हैं। इसलिए गर्व के साथ कहिये की आप ' logical Indian ' हैं , 'argumentative Indian ' नहीं ।
आभार ।
95 comments:
100 fisadi sahmat hun aapse,
achhi post,
abhaar.................
दिव्या जी,
आप विराम और punctuation के अन्य चिन्ह जगह छोड़ कर क्यों लगाती हैं। मेरे विचार से यह सारे चिन्ह बिना छोड़े लगाने चाहिये। अन्यथा वे दूसरी पंक्ति में आ जाते हैं जो अटपटा सा लगता है। जैसा कि, इस चिट्ठी के पांचवें पैराग्राफ की दूसरी पंक्ति में हो रहा है।
किसी भी विषय पर बहस को मैं उचित मानता हूं। बहस से ही कई मसलों का हल निकाला जा सकता है। हां इतना जरूर है कि बहस तर्कों पर आधारित होना चाहिए, कुतर्क नहीं होना चाहिए। आपकी बातों से सहमत हूं कि तर्क करने के लिए ज्ञान की जरूरत होती है।
अच्छा लेख।
आपकी बात से पूरी तरह सहमत हैं, विचारणीय बातों को सामने रखा है आपने खासतौर पर पुस्तक के नाम को लेकर के ...।
दिक्कत यह भी है कि "बहस" ही करते रह जाते हैं, "कर्म" नहीं करते, या जब कर्म करने की बारी आती है तब दुबक जाते हैं…
सिर्फ़ बहस करना भी एक तरह का निकम्मापन ही है…
दिव्या जी मै आपकी बात से पूरी तरह सहमत हु |बधाई
Naah!
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आपका लेख राष्ट्रीय-गौरव को बढावा देता है. यही बात मुझे पसंद आयी.
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दिव्या जी आप की बात से हम पूरी तरह सहमत हैं |बधाई
divya ji ,
apki kalam har us jagah prahar karti hai jahan hona chahiye.vastav me mere drishtikon se yahi sarthak lekhan hai.is lekh me aapke vicharon se sahmat na hone ka koi auchity nahi dikhta.
भारतीय तार्किक है , क्यूंकि उनके पास ज्ञान है और ज्ञान ही तर्कों का सहयोगी है । भारतीयों का व्यक्तित्व अनुकरणीय है । अपने इसी व्यक्तित्व के कारण ही भारतीय देश-विदेश में अपना परचम लहरा रहे हैं। इसलिए गर्व के साथ कहिये की आप ' logical Indian ' हैं , 'argumentative Indian ' नहीं ।
बहुत सही सन्देश दिया है इस पोस्ट में ...जागरूकता की मिसाल है यह पोस्ट ..आभार
मेरे विचार से लोगों कों इस शीर्षक कों एक सही परिपेक्ष्य में लेने की ज़रुरत है xxxगर्व के साथ कहिये की आप ' logical Indian ' हैं,'argumentative Indian ' नहीं।
----आपकी चिंता और सुझाव दोनों ही विचारणीय हैं.
'बहसी' शब्द पढ़ते ही झटका लगा किन्तु आगे पढने पर ही समझ आया आप क्या कहना चाहती हैं . किन्तु पुस्तक शीर्षक पर बिना किताब पढ़े कुछ लिखना अनावश्यक सा लगता है क्योंकि लेखक का अपना एकाधिकार होता है . अर्थ , आलोचना , और समालोचना करना पाठक का अधिकार है
आदरणीय दिव्या जी
नमस्कार !
बहुत सही सन्देश दिया है
मै आपकी बात से पूरी तरह सहमत हु
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@ गिरधारी लाल खंकरियाल ,
जब भी किसी विषय पर लिखती हूँ , तो उसे पूरी तरह समझने के बाद ही लिखती हूँ। किताब कों पढ़कर , पाठकों की सुविधा के लिए संक्षेप में उसका कंटेंट भी दिया है ।
अमर्त्य सेन एक बेहतरीन लेखक हैं जिन्होंने एक उम्दा पुस्तक की रचना की है जो हमारे लिए धरोहर है । लेकिन लेखक से भूल हुई है पुस्तक का नामकरण करने में । आज एक अरब भारतीयों तथा आने वाली भावी पीढ़ियों पर " argumentative Indian " होने का टैग लग गया। इस लेबल कों हम आसानी से हटा नहीं पायेंगे । देश विदेश का हर दुसरा व्यक्ति बिना विचारे हमें 'बहसी' की उपाधि से नवाज़ देता है ।
विदेशों में रहने के कारण बहुत से nationality वालों से वास्ता पड़ता है । भारतीयों की तुलना में कई गुना बहसी होते हैं ये लोग , काफी arrogant भी । लेकिन अफ़सोस , 'बहसी' होने का तमगा सिर्फ हम भारतीयों कों ही मिला है ।
'argumentative' अपने आप में एक नकारात्मक शब्द अथवा अलंकरण है । इसलिए विश्व-स्तर पर प्रयोग करने से पहले इसके दूरगामी परिणामों पर अवश्य चिंतन करना चाहिए था।
किताब तो शायद एक फीसदी जनता ही पढ़ती होगी , लेकिन ये 'बहसी' नामक अलंकरण हर दुसरे व्यक्ति की जबान पर चढ़ा रहता है ।
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Argumentative Indian शायद इसलिये है क्योकि आम भारतीय अपने कर्मों में बहुत Compromising है।
हजारॉं साल तक कोई कौम गुलाम इसी लिये रह सकती है क्योकि वह इतने सारे सिद्धांतों और फलसफों को सर पर ढोती तो रहती है पर उनसे कोई ठोस नतीजा नहीं निकाल पाती।
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@--दिक्कत यह भी है कि "बहस" ही करते रह जाते हैं, "कर्म" नहीं करते, या जब कर्म करने की बारी आती है तब दुबक जाते हैं…
सिर्फ़ बहस करना भी एक तरह का निकम्मापन ही है…
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सुरेश जी ,
बहस करना अर्थात चर्चा करना अथवा किसी भी विषय के पक्ष एवं विपक्ष , दोनों पहलुओं पर विचार करके सही समाधान निकालना तथा उसको इम्प्लीमेंट करना । बिना चर्चाओं के तो किसी भी कार्य कों सकारात्मक अंजाम दिया ही नहीं जा सकता।
चर्चाओं , सेमिनार्स, मीटिंग्स , सम्भाष परिषद् , कांफ्रेंसेज़ आदि कों निकम्मापन कहना कुछ उचित नहीं लगता ।
बहुत से बड़े-बड़े मसलों का हल इन्हीं चर्चाओं द्वारा ही निकलता है । बहसें और चर्चाएँ तो बड़े-बड़े संस्थानों में
planning के तहत आती हैं।
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चैतन्य जी ,
इन्हीं सिद्धांतों और फलसफों पर चलकर ही तो लोगों ने अनेक ठोस परिणाम भी निकाले हैं , देश कों विकास के लिए दिशा भी दी है । इन्हीं सिद्धांतों ने देश कों बार बार गुलाम होने से बचाया भी है । शहीदों , स्वतंत्रता सेनानियों और समाज सुधारकों ने इन्हीं सिद्धांतों और संस्कारों कों अपनी कार्य-शैली की नीव बनायीं और सफलता पायी । अब दो-चार भ्रष्ट , गद्दार और traitors के चलते हम अपने सिद्धांतों और बहुमूल्य सिद्धांतों की तलांजलि तो नहीं दे सकते । इसको हम ढो नहीं रहे हैं। इसे हम गर्व के साथ carry कर रहे हैं, पीढ़ी दर पीढ़ी ।
एक आम नागरिक बेचारा विवाद ही कहाँ करता है , तो हर मासूम कों 'बहसी' होने का अलंकरण क्यूँ ?
एक छोटा समुदाय ही 'तार्किक' होता है । गहन विश्लेषण के बाद ही वो समुदाय अपना पक्ष रखता है , इसलिए पूरी एक अरब जनता कों 'argumentative' कहना थोडा अनुचित लगता है ।
वैसे 'argumentative ' , एक विवादी और झगड़ालू व्यक्तित्व वालों कों कहते हैं , जो की एक आम भारतीय की पहचान नहीं है ।
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भारतीय तार्किक है , क्यूंकि उनके पास ज्ञान है और ज्ञान ही तर्कों का सहयोगी है ।
behtreen post k liye badhai
दिव्या जी!
आपने विमर्श के लिये सार्थक बात कही है।
चिन्तनशील व्यक्ति तर्क करेगा ह। किसी व्यक्ति की सार्थक तर्क करने की क्षमत उसके चिन्तन की गहनता को प्रकट करती है। साहित्य, समाज, विज्ञान एवं दर्शन की कोई भी विधा तर्क के अभाव में विकास नहीं कर सकती। यह तो भारतीय ज्ञान परम्परा की विशेषता है कि यहाँ सभी को चिन्तन एवं तर्क का अधिकार है। पराधीनता का सबसे बड़ा दुष्प्रभाव भारतीय मानस पर यही हुआ, कि उसने स्वतन्त्र चिन्तन छोड़ दिया, इसीलिये उसकी तार्किक क्षमता का कुछ संकुचन अवश्य हुआ है,,,,,,परन्तु विस्तार की सम्भावनायें कम नहीं हुई हैं। हमें हमारी, परम्परा, हमारी बौद्धिक सम्पदा एवम् हमारा धर्म चिन्तन एवं तर्क की स्वतन्त्रता देता है, हमऋग्वेद से लेकर वर्तमान की किसी रचना में कही गयी बात को तर्क के निकष पर परीक्षित कर सकते हैं। यह हमारे लिये गौरव एवं स्वाभिमान की बात है। यही कारण है कि हमारी दार्शनिक परम्परा में चार्वाक से लेकर अद्वैत वेदान्त तक समाहित है। यही नहीं चार्वाक को दर्शनधाराओं के क्रम में प्रथम स्थान पर रखा जाता है एवम् अद्वैत वेदान्त को अन्तिम। भारतीय ज्ञान परम्परा में दर्शन धाराओं का क्रम समानान्तर है न कि पाश्चात्य की भाँति एक के बद दूसरा। जिस प्रकार वटवृक्ष की सभी शाखायें समानान्तर भूमि तक पहुँचकर उसको सहारा देती हैं, रवृक्श्ढ हरा-भरा रहता है, उसी प्रकार ये दार्शनिक सम्प्रदाय भारतीय संस्कृति को सहारा देते हैं एवम् उसके निरन्तरता मेम् सहायक है।
तर्क हमारी परम्परा में अनुस्यूत है। हमारे ज्ञान-विज्ञान का उत्स तर्क ही है। यही नहीं ग्रीक दार्शनिक परम्परायें भी तर्क को मह्त्त्व देती हैं। तर्क के अभाव में मानव मस्तिष्क निष्क्रिय हो जायेगा। निष्क्रियताअ सृजन नहीं करती, यह एक शाश्वत सत्य है।
एक महत्त्वपूर्ण बात और....................हमारी परम्परा श्रुति परम्परा है, जिसको चिन्तन, मनन, निदिध्यासन का उर्वर आधार प्राप्त है।
पाश्चात्य सभ्यता के अन्धानुगामी इस बात को कभी जान भी कैसे सकते हैं। वहाँ तो लिखित परम्परा है.................बाइबिल लिखित रूप में इसका सबसे बड़ा प्रमाण है................LITERATURE शब्द LETTER से बना हुआ है। इसके मूल में ही लिखना है.............तो भला ऐसे लोग तर्क की भाषा कैसे समझेंगे?
हमें गर्व है कि हमारा मस्तिष्क तर्कशील है.......हम तर्क कर सकते हैं।
इस तर्कशीलता को जो ‘नकारात्मक’ अर्थ में लेते हैं.........................हमें उनको उसी तरह कुतर्की मानकर नज़रान्दाज कर देना चाहिये.............जिस तरह महात्मा गौतम बुद्ध अतिप्रश्न पर मूक रहते थे,,,,,,,,,,,,,,,,,,,यद्यपि अतिप्रश्न कुतर्क नहीं थे...............वे ऐसे प्रश्न हैं जो उत्तर पाकर भी अनुत्तरित रहते है एवम् जिसके उत्तर के लिये ही दार्शनिक धाराओं का विकास हुआ है।
दिव्या जी आप का यह लेख बहुत से लोगों के मस्तिष्क का भ्रम दूर करने एवं तर्क की महत्ता को बताने के लिये उपादेय है।
इस किताब पर एक article पढ़ा था...कि इसका नाम The argumentative Indian क्यूँ है???
शायद ये पंक्तियाँ....इस पर कुछ प्रकाश डालती हैं
The book takes its name from the first essay, where the author closely examines India’s rich heritage of heterodoxy and argumentative traditions of public discourse. Sen’s book is also an argumentative book. He considers conflicting views with patience, and presents his perspective with a carefully woven network of cross references and supporting material. The Argumentative Indian, though a sufficiently provocative title, in a way narrows perceptions of the book (for those who will only hear its name). The book delves deeper and wider beyond the argumentative traits of the Indian.
आपका कथन पूर्णतः सही है...
'argumentative Indian' कहने में मुझे कुछ अनुचित नहीं लगा.
ममता जी ,
आपके गहन विश्लेषण ने विषय कों सार्थकता प्रदान की है । बहुत ही बेहतरीन और तार्किक तरीके से अपनी बात कहकर आपने विषय के साथ न्याय किया है ।
आभार।
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@--The book delves deeper and wider beyond the argumentative traits of the Indian.
शीर्षक , पुस्तक की महिमा कों कम कर रहा है । और भारतीयों के विशिष्ट गुणों कों ' argumentative ' पर ही सीमित कर दे रहा है ।
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Completely agree with you...
Indian Sushant
दिव्या जी आप की बात से हम पूरी तरह सहमत हैं .
भारत के अतिरिक्त शेष विश्व में विचारों के प्रति अंधानुकरण है। हमारे यहाँ ज्ञान का आधिक्य है इसलिए हर बात में अनेक बातें हैं। आप सही लिख रही हैं कि ज्ञान होगा तो बहस तो होगी ही। हम एक मत में यकीन नहीं रखते।
bahut hi sarthak chintan 'ek mahan lekhak ke mahan kriti par'.... dhanyawad apka...(arjun ki nazar)
@m.tripathi.....is sone jaisi post par aapki tippani suhaga ban ke khil gaee hai..dhanyawad..
pranam.
aap theek kah rhin hain . lekin jyada chinta nhin karni chahie . kahne vale kuch-n-kuchh kahte hi rahte hain . hme INDIAN hone par garv hai . kisi ke kahne mater se yh mhan desh aur iske nagrik bure nhin ho jate . main to bas yhi khoonga
" BE PROUD TO BE AN INDIAN "
आदरणीय दिव्या जी,
आपकी इस बात से मैं पूरी तरह सहमत हैं!
सहमत.
भारतीय तार्किक है , क्यूंकि उनके पास ज्ञान है और ज्ञान ही तर्कों का सहयोगी है ।
आपसे सहमत । भारतीय बुद्धिमान भी होते हैं ।
हालाँकि कुछ लोग अब वहशी भी होने लगे हैं ।
आपकी बातों से मैं बिल्कुल सहमत हूं।
पुस्तक का शीर्षक Logical Indian होना चाहिए, न कि Argumentative Indian.
अमर्त्य सेन चूंकि नोबल पुरस्कार विजेता हैं इसलिए उनकी लिखी बातों को विश्व समुदाय सही मानेगा ही। इस पुस्तक का नकारात्मक शीर्षक हम भारतीयों की छवि को धूमिल करता प्रतीत होता है।
भारत सदा से ही ज्ञान-विज्ञान का केन्द्र रहा है। जहां ज्ञान है वहां तर्क का होना आवश्यक है। बहस शब्द में कुतर्क की झलक मिलती है। एक ज्ञानी तर्क करता है, बहस नहीं। भारतीय तार्किक हैं, बहसी नहीं।
दिव्या जी संभतः आपको में टिप्पणी अपरिहार्य लगी हो , मेरा आशय पुस्तक पढने का स्वयं से था , आपने तो बिना पढ़े लिखा नहीं और आपकी बात से पूर्ण रूप से सहमत भी हूँ किन्तु मैं जब तक स्वयं पुस्तक को न पढ़ लूँ तब तक मैं शीर्षक के ऊपर कुछ कहना अनुचित मानता हूँ क्योंकि कभी कभी पढने वालों का चश्मा बदल भी जाता है जिसे आप निरपेक्ष रूप से लेती हों संभव है मैं सापेक्ष रूप से ले सकूँ . यह भिन्नता प्रकट होती है आप अन्यथा ना ले
Hi...
Main aapki baat se akshrakshah sahmat hun..
Deepak...
दिव्या जी क्या हाल ही में आपने अपने ब्लाग की सैटिंग में
कुछ बदलाव किया है । यहाँ आपकी ओल्ड पोस्ट शो हो रही
है । और वो भी विदाउट टाइटिल । क्योंकि मेरे यहाँ से कोई गङबङ
होने पर वो बात सभी ब्लागों पर लागू होगी । मीन आपके
वाले सेक्सन में 130 ब्लाग है । उन सभी पर ।..जबकि कल तक
सही था । और मैं ब्लाग व. का. से ही आपके ब्लाग पर गया था ।
जो भी हो । एक बार देख लें ।
वाकई भारतीयों को "बहसी" कहना भारत के प्रत्येक नागरिक का अपमान करना है | भारतीय बहसी नहीं हैं और अगर हैं भी तो बहस करने के लिए भी तर्कों की ज़रुरत होती है और तर्कों को प्रस्तुत करने के लिए वृहत ज्ञान की आवश्कता होती है इस आधार पर हम गर्व से कह सकते हैं की भारतीय ज्ञानी होते हैं। स्वामी विवेकानंद ने वृहत ज्ञान को तर्क के आधार पर प्रस्तुत करके ही भारतीय संस्कृति को विश्व की सर्वश्रेष्ठ संस्कृति सिद्ध किया था अतः यह कहना की भारतीय बहसी हैं कतई उचित नहीं है |
आपने इस संवेदनशील विषय पर विचार करने का अवसर प्रदान किया...सादर आभार !!!
इस लेख को लिखने के पीछे आपकी भावना काबिलेतारीफ है।
सार्थक लेख के लिए आपका आभार।
actually we relish self-abuse....i fully agree with you..
@-दिव्या जी,
मै आपकी इस बात से शत-प्रतिशत सहमत हूँ कि ’argumentative’ शब्द पुस्तक महत्त्व को कम कर रहा है। इस पुस्तक में कई महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं पर प्रकाश डाला गया है, कई भ्रमित करने वाली बातों का विद्वत्तापूर्ण खण्डन किया गया है। वास्तव में जो मूल्य इस पुस्तक में भरा है......उसकी जानकारी शीर्षक से नहीं हो पाती, जबकि शीर्षक से यह आशा की जाती है कि उससे विषयवस्तु तथा महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं का सहज ही ज्ञान हो जायेगा।
दूसरी बात यह है कि हमारे यहाँ जिसे तर्क कहा जाता है, उसका उपयुक्त अनुवाद अंग्रेजी में नहीं है..............यद्यपि हम उसे LOGIC कहते हैं, परन्तु यह शब्द भी निकष पर खरा नहीं उतरता। शब्दों के कई विभाग होते हैं, आप तो भलीभाँति परिचित ही होगी, फिर भी हम बता देते हैं.........शब्द-विभाग जैसे रूढ़, यौगिक, योगरूढ़, तन्मिश्र आदि। बहुत से शब्द ऐसे होते हैं जो अपने मूल अर्थ को त्यागकर किसी विशेष अर्थ, अथवा मूल अर्थ के किसी विशेष पक्ष तक ही सीमित हो जाते है, रूढ़ हो जाते हैं.............जैसे जो जाती, चलती है, उसे ‘गौ’ कहते हैं, परन्तु यह शब्द ‘गाय’ के अर्थ में रूढ़ है एवं आज किसी विषय पर जब विद्वत् जन विचारविमर्श करते है उसे ‘गोष्ठी’ कहते हैं, परन्तु मूल में गोष्ठी वह स्थान होता है, जहाँ गायें बाँधी जाती हैं, रहती है, अर्थात् गोशाला।
विषयान्तर हो रहा है अतः विषय पर आते हैं। जहाँ तक ‘argumentative’ शब्द की बात है, यह सच में उपयुक्त नहीं है। यह शीर्षक पुस्तक की महत्ता को उसी प्रकार कम कर रहा है, जैसे मेघाच्छादन ज्योत्स्ना को क्षीण करता है।
इसके शीर्षक को लेकर प्रारम्भ से ही विद्वत् समाज में असंतुष्टि है।
इससे वैश्विक समुदाय में भारतीयों के प्रति गलत संदेश भी जाता है, क्योंकि सभी तो पुस्तक पढ़ते नहीं...कुछ लोग प्रीफ़ेस पढ़ते हैं.................कुछ वह भी नहीं पढ़ते मात्र शीर्षक से काम चला लेते हैं।
आप द्वारा इस विषय पर प्रकाश डालने से ही इसकी महत्त्वपूर्ण बातें सामने आने लगी हैं.........इससे उन लोगों को भी लाभ होगा, जो किसी कारणवश अभी तक यह पुस्तक नहीं पढ़ पाये हैं।
आपका यह कार्य बहुत महत्त्व रखता है।
एक साहित्कार को सदा अपने आँख, कान खुले रखने चाहिये तथा लेखनी सजग रखनी चाहिये.......एक-एक शब्द अपना विशिष्ट अर्थ रखता है। लम्बोदर एवं गजानन यद्यपि पर्यायवाची हैं.........परन्तु एक साहित्यकार के लिये यह जानना अपरिहार्य होता है कि लम्बोदर गणेश जी के बड़े पेट को व्यक्त करता है एवं गजानन हाथी जैसे मुख को।
धन्यवाद इतना अच्छा लिखने के लिये।
बहस-मुबासा किसी देश की पहचान के तौर पर उभरे यह अच्छा नहीं है. आपसे पूरी तरह सहमत हूँ. मुझे मेरा ब्लॉग सही दिख रहा है. आपके पहले कमेंट में और दूसरे कमेंट में कुछ ही दिनों का अंतर है जो ठीक लग रहा है क्योंकि इस बीच मैंने पोस्ट नहीं बदली है.
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बहसी = बहसबाज़
मेरे ख़्याल से बहसी कोई शब्द नहीं है !
बहसी = बहसबाज़
पुस्तक पढ़ी है, तर्क प्रधान देश रहा है पर अब नहीं। अब सहनशीलता हद से अधिक बढ़ गयी है।
‘भारतीय तार्किक है , क्यूंकि उनके पास ज्ञान है’
पर हर जगह ज्ञान उंडॆलना भी विद्वत्ता नहीं है ना दिव्या जी :)
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@ cmprasad -
आज तक तो मैंने किसी ज्ञानी कों हर जगह ज्ञान उंडेलते नहीं देखा । क्या आप करते हैं ऐसा ?
वैसे एक बात आपके बारे में नोटिस की है , स्वयं तो गंभीर लेख लिखते हैं लेकिन अपनी टिप्पणियों में गंभीर से गंभीर विषय का भी मखौल बनाते हैं।
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आपका कथन पूर्णतः सही है
पुस्तक नहीं पढी है।
पर आपके तर्क से सहमत हूं।
आपने एक सच्चे भारतीय कीभावनाओं को समझते हुई जो प्रसंग इस बार ब्लाग पर उठाया है,उस पर हर भारतीय सहमत होगा क्योंकि भारत ने हमेशा शांति और सद्भाव का संदेश दिया है।
Extended arguments are supposed to be logical only, speaking of illogical arguments is just futile...this is how I think.
(Sorry. Hindi facility is not available..)
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I wonder why some commentators are escaping from commenting on the issue . They are either scared of talking on the subject , or may be they are here just to subscribe the post to read everyone's comment .
Anyways , it is your choice! But don't forget , your comment is your identity. So try to speak your mind fearlessly but stay focused on the subject .
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आपके लेख और ममता जी के कमेंट के बाद कुछ भी शेष नहीं रह जाता लिखने के लिए। जिस विषय में दो विद्वान अच्छी चर्चा कर रहे हों, जहाँ उस विषय में अपना ज्ञान कम हो, वहाँ अच्छे श्रोता की तरह उनकी बातों को सुनना चाहिए।
आम आदमी बहस भी कहां कर पाता है.... उसे तो इस काबिल बनाया ही नहीं सत्ताधारियों ने..
भारतीय अगर बहस में विश्वास करते है तो उसमे बुरा क्या है . स्वस्थ लोकतंत्रीय बहस किसी भी देश के विकास के लिए जरुरी होता है . वैसे भी आदिकाल से हमारे देश में इसकी परंपरा रही है .
मैने भी पुस्तक नही पढी मगर आपकी बात मे दम है। शुभकामनायें।
आपकी बातों से सहमत हूं कि तर्क करने के लिए ज्ञान की जरूरत होती है।
logical Indian and 'argumentative Indian ka achchha antar prastut kiya....vadhayi!!!!
जब लोग तर्कों को पचा नहीं पाते ,तो उसे टालने के लिए दूसरे पर ही इस प्रकार रद्दा जमाने लगते हैं .शान्त मन से और तथ्यों के आधार पर विश्लेषण करने का प्रयास करनेवाले बिरले ही होते हैं
एक बात और भारतीय लोग बहस तो खूब करने पर उतारू हो जाते हैं पर व्यवहार में उनका सारे आदर्श धरे रह जाते हैं -हमारे यहाँ कहने की बातें और और ,करने की और अलग रहतीं.सब जानते हैं इसलिए कोई कुछ कह जाए तो सुनना भी पड़ता है. राष्ट्रीयजीवन में समाज में और रोज़मर्रा मेरा आक्षेप किसी विशेष पर नहीं ,सामान्य रूप में लें.
विचारणीय बातों को सामने रखा है .
तार्किक को बहसी कहना मुझे तर्कसंगत नही प्रतीत होता है!
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http://blogsinmedia.com/2011/02/%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE-%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%AF-%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A4%B8%E0%A5%80-%E0%A4%B9%E0%A5%8B%E0%A4%A4%E0%A5%87-%E0%A4%B9%E0%A5%88%E0%A4%82/
यह लेख १६ फरवरी -दैनिक जागरण में है , सूचना देने के लिए श्री पाबला जी का बहुत बहुत आभार ।
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सच है -यह हमारी कमजोरी नहीं शक्ति है ....
यहीं का यह आदर्श वाक्य है -वादे वादे जायते तत्वबोधः -मतलब विवाद से ही (ज्ञान की) समझ विकसित होती है !
अनुरोध :अगर उचित समझें तो शीर्षक में विवादप्रिय या विवादी कर दें
बहसी देखकर मेरी ऑंखें सहसा झपक गयीं -वहशी तो नहीं लिख दिया? :)
ज्ञान होना अच्छी बात है पर कई बार हम बिना तर्क के भी तर्क रखते हैं बस अपनी बात को सच करने के लिए .... जो गलत है ....
अछा लगा आपका लेख
बहुत सुंदर चर्चा. धन्यवाद
divya ji apka artical to parh liya par book abhi nahi parhi. parhne k baad hi kush bolunga. shukriya
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@ विवादी -
'बहसी' शब्द आम बोल-चाल की भाषा में ज्यादा चलन में है , इसलिए शीर्षक में प्रयोग करना उपयुक्त लगा ।
आभार ।
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दिव्या जी ! बहुत ही सधी हुई भाषा में बहुत ही प्रभावी ढंग से आपने अपनी बात कही है.जिससे काफी हद तक मैं भी सहमत हूँ .
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argumentative शब्द का प्रयोग उपयुक्त नहीं है, क्योंकि प्रथम दृष्टया इसका सकारात्मक अर्थ नहीं निकलता। लोक जिस रूप में किसी शब्द का ग्रहण करता है, वही उसका अर्थ बन जाता है। शाब्दिक अर्थ पर लोक-प्रचलित अर्थ भारी पड़ता है। पुस्तक का शीर्षक रखते समय शास्त्र एवं लोक दोनों का ध्यान रखा जाना चाहिए।
दिव्या जी ..Argumentative शब्द के स्थान पर यदि कोई दूसरा शब्द, जैसा कि आपने बताया "Logical" ज़्यादा सही रहता- आपकी इस बात से सहमत हूँ। तर्क भी दमदार हैं। वैसे बहस( हालंकि ये नकारात्मक शब्द है) और तर्क, दोनो के लिए ही हमे ज्ञान की आवशयकता पड़ती है। दुनिया के लगभग हर देश में तर्क व बहस करने वाले लोग मिल ही जाएँगे। ये तथ्य वो लोग भी अच्छी तरह जानते हैं।
दिव्या जी
भारत तार्किक है मगर कुछ जगहों पर ये तर्क अपनी पराकाष्ठा और मर्यादा लाँघ जाता है..फिर ऐसी पुस्त्कूं के शीर्षक संज्ञान में आते है..
हमें भारतीय होने के गर्व के साथ कई मुद्दों पर सोच को नयी परिभाषा देनी होगी.
Ashu
http://ashu2aug.blogspot.com/
मैं आप की बात से पूरी तरह सहमत हूं | तार्किक बहस logical हो सकती है argumentative नहीं। विचारणीय मुद्दा उठाने के लिए बधाई।
एक नज़र से जब मैंने आपकी बात को देखा तो वो उचित जान पड़ी....मगर उसका उचित लगना उपरोक्त पुस्तक के सन्दर्भ तक ही उचित है.....वरना बाकी के सन्दर्भों की जहां तक बात है...और भारत को जैसा....जितना...और इसके भिन्न आयामों में समझा और जाना है....उसके लिए यह विवादास्पद शब्द ही ज्यादा समीचीन जान पड़ता है.....हा...हा...हा..हा....बहसी.....जैसा कि इस वक्त मैं भी कर रहा हूँ....खैर आपकी बात उस ख़ास सन्दर्भ तक बिलकुल सटीक है....और मैं इसका कायल भी....सच...!!
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@--भारत तार्किक है मगर कुछ जगहों पर ये तर्क अपनी पराकाष्ठा और मर्यादा लाँघ जाता है॥फिर ऐसी पुस्त्कूं के शीर्षक संज्ञान में आते है....
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आशुतोष जी ,
ज़रा तर्कों के साथ अपनी बात रखते तो आनंद आ जाता । पाठकों कों भी तो पता चले की तर्कों द्वारा कैसे मर्यादा का उल्लंघन होता है ?
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आज अनेक घोटालों पर मनमोहन सिंह जी की चुप्पी भी बहुत कुछ कह रही है । अपने बचाव के लिए उनके पास कोई तर्क नहीं है । लेकिन एक आम नागरिक भी उनके सामने हज़ारों तर्क उपस्थित कर रहा है । क्या घपलों और घोटालों पर आम जनता के तार्किक प्रश्न भी पराकाष्ठा और मर्यादा का उल्लंघन कर रहे हैं ? क्या अंतर्राष्ट्रीय बैठकों में भारत ने किसी विवाद कों जन्म दिया ? कोई मर्यादा लांघी ?
या फिर आप उन गावों और कस्बों के उन जगहों की बात कर रहे हैं , जहान नलों में पानी नहीं है और प्यास से तड़पते दो लोग आपस में विवाद कर लेते हैं । उनकी मजबूरी में उपजा वो विवाद भी मन कों आर्द्र कर देता है , और सरकार के निकम्मेपन पर , आम जनता तो तार्किक प्रश्न कर देने पर मजबूर ।
आज लाखों भारतीय विदेशों में रह रहे हैं । एक भी घटना ऐसी सुनने में नहीं आई जहाँ किसी ने विवाद किया हो । मेरी निगाह में भारतीय शान्ति पसंद हैं । जो निज पर अभिमान करते हैं तथा जियो और जीने दो में विश्वास करते हैं ।
पिछले दस हज़ार वर्षों में भारत ने किसी भी देश में अतिक्रमण नहीं किया । जबकि भारत पर अतिक्रमण करने वालों का तांता लगा रहता है । आखिर क्यूँ ? क्यूंकि भारतीय शान्ति-पसंद हैं , उनके मन में लालच नहीं है । स्वयं के पास जो है उसमें संतोष है । दुसरे के लॉन की घास ज्यादा हरी है , ये सोचकर कभी उसे हड़पने की कोशिश नहीं की भारत ने । क्यूंकि भारतीय लालची नहीं हैं। विवादी नहीं हैं , झगडालू नहीं हैं । हाँ , जो निज पर अभिमान करता है वो देश के लिए समर्पित है और उसके देश या नागरिकों पर कोई आंच आएगी तो वो अपने तर्कों के साथ उसके सन्मुख अवश्य उपस्थित होगा ।
ऐसी अवस्था में भारतीयों कों 'विवादी' कहना सर्वथा अनुचित है , जो देश की गरिमा कों कम कर रहा है और प्रत्येक भारतीय के स्वाभिमान का हनन ।
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आपके तर्कों का स्वागत है ।
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pushtak to padhi nahi hai lekin aapki baat mein bahut dam hai akhir koi pustak agar charcha mein hai aur wah bhi desh-videsh tak to uska shirshak yadi sakaratmakta liye hota to behtar tha.. lekin ab to aage ki sochni hogi... kash sen ji bhi is charcha ko dekh paate!
saarthak prastuti ke liye aabhar
आपकी बात से सहमत .
आपको मेरा सादर नमस्ते...
मैं आप की बात से पूरी तरह सहमत हूं कि तर्क करने के लिए ज्ञान की जरूरत होती है।|
मेरे ब्लॉग पर आने और टिप्पणी के लिए
आपका तहे दिल से शुक्रिया !
आशा है आपका मार्गदर्शन यूँ ही निरंतर प्राप्त
होता रहेगा ..............
ye kitaab mane nahi padhi par itna to tay hai ki image bahut aasaani se banayi aur bigaadi jaati hai...
सहमत हैं हम ...विचार करने योग्य तथ्य ...
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सभी ब्लॉगर मित्रों कों उनके द्वारा दिए गए अमूल्य समय , सहयोग एवं विचारों के लिए ह्रदय से आभार प्रेषित करती हूँ।
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Jab Bhagwan Krisn Geeta(Ch.10 shloka32) me yeh kehte hai ki "vaadha pravadataamaham".Yani tark
karne vaalo me mai nirnay ke liye kiye jaane vaala vaad hun,To saarthak tark karna, jisse tatva roopi maakhan nikle hum Bharatiyon ki pehchan hona hi chahiye .Kyonki Geeta-Upnishado ka gyan hamaare desh ki amulya dharohar hai.Khule dimaag se shastraarth karna hum Bharatiyon ki hi to den hai.
बहु बढ़िया बात कही आपने दिव्या जी... तर्क करने वाला व्यक्ति विषय जानकार तो होता ही है ..हां कुतर्क से भी बचना चाहिए ... आपका ये सुन्दर लेख आज चर्चामंच पर है... आपका धन्यवाद इस सार्थक लेख के लिए
स्वयं भारतीय होते हुए भी भारतीयों को विदेशी चश्मे से देखना नयी बात नहीं है. अमर्त्य सेन से पूर्व भी नीरद चौधरी जैसे लेखकों ने india baitor या india basher की भूमिका निभाई है. आप का यह कहना बिलकुल तर्क -संगत और उचित है कि विश्व भर में पढ़ी जाने वाली इस पुस्तक में शब्दों का प्रयोग सोच समझ कर किया जाना ही अपेक्षित था. एक आम भारतीय अपने आप को इस प्रकार से परिभाषित किये जाने से आहत हुआ है.
इस सुंदर , सार गर्भित एवं कुछ सोचने को विवश कर देने वाले लेख के लिए बधाई !
इसलिए इस पुस्तक का शीर्षक यदि " argumentative Indian की जगह " Logical Indian " होता , तो हम भारतीयों पर बहसी होने का टैग नहीं लगता ।
100 percent agreed with you. A very nice and logical post. many-many thanks.
I can respond to that in several wats. Are Indians argumentative in general?
No, Indians are expressive. We speak out LOUD and clear, when we want to express any dissent. In Western culture dissent is more or less in eye talk or body language, hand movements etc. Now even Indians are aping it.
Another version would be "It takes an Intelligent person to even argue" That means the average IQ level in India is very high, just that we don't have the right measuring rod.
Are Westerners Not argumentative? Yes they can be very argumentative and they can be extremely repetitive too. Example: to say "I really like this" sometimes westerners end up saying it like this: "I like this, right? I really, really do like it. Damn it! I simply love it and you feel, I don't? You must be kidding me" See what I mean?
yes,sometimes arguments result in a good solution...
but Indian believe in simple living...high thinking as a whole....
when one thinks with an opened mind he says god is one.
and when when he remembers what has been taught to him or her -Their god is some one else by name.
same as u call insaan ,aadmee or man
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