Friday, February 18, 2011

महिला स्वाभिमान !

स्त्री एवं पुरुष जीवन में एक दुसरे के पूरक हैं रथ के दोनों पहियों के परस्पर समन्वय से ही जीवन रुपी रथ मंथर गति से , अनेक विघ्न बाधाओं कों पार करते हुए आगे बढ़ता रहता है। एक समझदार स्त्री एवं पुरुष एक दुसरे कों अच्छी प्रकार समझते हैं और एक दुसरे के प्रति सहयोग कि भावना रखते हैं।

बचपन से बड़े होने तक हम अपनी माँ और पिता कि छत्रछाया में बढ़ते हैं। वो भी तो एक स्त्री और एक पुरुष हैं उन दोनों कों परस्पर एक दुसरे का सहयोग और सम्मान करते हुए देखते हैं तभी अपने छोटे से परिवार कि पूर्णता दिखती है माता और पिता कों हम बराबर प्यार और सम्मान देते हैं। दोनों में से कोई भी हमें किसी से कमतर नहीं लगता लेकिन अफ़सोस जब हम बड़े होते हैं तो क्यूँ हम स्त्री और पुरुष एक दुसरे से अलग देखते हैं क्यूँ हम स्त्रियों की समाज में कमज़ोर स्थिति के लिए पुरुषों कों जिम्मेदार ठहराने लगते हैं।

मुझे लगता है स्त्रियाँ अपनी स्थिति के लिए स्वयं ही जिम्मेदार हैं माना कि समाज का ढांचा सदियों से कुछ इस प्रकार का रहा है कि स्त्री के हिस्से में घरेलू काम और पुरुष के हिस्से में धनोपार्जन आता है लेकिन यदि कोई महिला कार्यों के इस आबंटन से संतुष्ट नहीं है तो उसे बिना अपने पति कों दोष दिए ही अपनी रूचि के अनुसार नौकरी करनी चाहिए अच्छी नौकरी , जिसमें पैसा और इज्ज़त दोनों ज्यादा हो , उसके लिए स्वयं कों बेहतर शिक्षित भी करना होगा

इसके लिए स्त्री कों स्वयं ही सोचना होगा स्कूलों और विद्यालयों में लड़का लड़की का कोई भेद नहीं है माता पिता भी बेटे और बेटी कों समान शिक्षा का अवसर देते है विवाह के बाद पति भी अपनी पत्नी कों बढ़ते हुए देखना चाहता है अपनी पत्नी कि तरक्की और ख़ुशी में पति भी गौरवान्वित महसूस करता है वो पत्नी के ऊपर घरेलू कार्यों के बोझ कों कम करने के लिए उसका हाथ बंटाने में सहयोग करता है और पत्नी भी पति के जिम्मे कुछ कार्यों कों अपने ऊपर ले लेती है इस प्रकार काम के बोझ और काम कि प्रकृति दोनों कों समान रूप से मिलती जाती है दोनों कों एक दूसरे से कोई शिकायत नहीं रहती मन में कोई अवसाद और क्लेश नहीं रहता और जीवन मधुर और सुखमय होता है

जो महिलाएं आज उच्च पदस्थ हैं , देश का नाम रौशन कर रही हैं , वो भी हमारी तरह स्त्रियाँ हैं। वे तो पुरुष प्रधान सत्ता कों दोष नहीं देतीं क्यूंकि उन्होंने शिकायत करने जैसी महामारी से स्वयं कों बचा कर रखा में और अपनी सकारात्मक ऊर्जा कों अपने ही विकास में लगाया और सक्षम होने के बाद अपना योगदान समाजोपयोगी रूप में कर रहीं हैं। वो कुंठित नहीं हैं। कुंठा मन में तब आती है जब हम स्वयं कों असक्षम पाते हैं तब। हमारी कमतरी के लिए पुरुष जिम्मेदार नहीं हैं। हमें प्रेरणा लेनी चाहिए समाज में जिन स्त्रियों ने अपना स्थान बनाया है , अपनी पहचान बनायी है

जो स्त्रियाँ कुछ करना चाहती हैं , समाज में स्थान चाहती हैं वो स्वयं ही विकट से विकट परिस्थिति में भी बेहतर विकल्प ढूंढ लेती हैं। सर्वप्रथम तो स्वयं कों शिक्षित करती हैं फिर नौकरी करके या फिर बच्चों कों पढ़ाकर या फिर पत्र पत्रिकाओं में लेख लिखकर समाज में एक जागरूकता लाने का सार्थक कार्य कर सकती हैं। सकारात्मक कार्य करने वाली एक स्त्री अनावश्यक रूप से शिकायती नहीं होती प्रसन्नचित्त रहती है

लेकिन कुछ स्त्रियाँ के पास समय प्रचुर मात्रा में होता है पति अच्छा कमा रहा है तो उनके पास नौकर होने कि अवस्था में कुछ ख़ास कार्य शेष नहीं रह जाता खाली दिमाग शैतान का घर दिन भर समय नष्ट करना फालतू टीवी सेरियाल्स देखना , जिसमें कुछ भी सकारात्मक देखने कों नहीं मिलता फिर बचे हुए समय में अनावश्यक करना और समय नहीं कटता इसलिए किटी-पार्टीज़ जैसे विकल्प कों अपनाती हैं। रोजाना कि इसी दिनचर्या से उनके दिमाग कों घुन लग जाता है थोड़ा ऊपर उठकर सोचने कि शक्ति का उनका ह्रास हो जाता है यही बहुमूल्य समय वो अपनी मानसिक गुणवत्ता बढ़ाने में कर सकती हैं शिक्षा के प्रचार प्रसार में सहयोग कर सकती है पत्र -पत्रिकाओं , जर्नल्स , periodicals तथा समाचारों द्वारा खुद कों अपडेट रख सकती है जितनी ज्यादा ज्ञान होगा उतना ज्यादा योगदान होगा उसका समाज और परिवार के लिए , खासकर उसके अपने बच्चों की बेहतर परवरिश में।

यदि हम समाज के गरीब वर्ग कि बात करें तो वो एक मेहनतकश जीवन गुजारती हैं , घर के काम के साथ साथ वो मेहनत मजदूरी कर आर्थिक रूप से अपने पति का सहयोग करती हैं।

मिडिल क्लास कि बात करें तो वो भी यथासंभव अपनी योग्यतानुसार नौकरी करती हैं पति का सहयोग करती हैं और कुंठित नहीं रहतीं

एक वर्ग ऐसा है जहाँ पति ज़रुरत से ज्यादा कमा रहा है पत्नी के पास हर सुविधा और ऐशो आराम है घरेलू कामों के लिए नौकर भी हैं। ये ही महिलाएं अक्सर आराम तलब बन जाती हैं अपनी शैक्षणिक योग्यता कों ताख पर रख , अनावश्यक gossip , आदि में बहुमूल्य समय नष्ट करते हुए अपना जीवन व्यर्थ गुज़ार देती हैं।

स्त्रियों कों प्रेरणा लेने चाहिए समाज कि उन महिलाओं से जो समाज में विभिन्न संस्थानों में कार्यरत हो, पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं हमें प्रेरणा लेनी चाहिए मध्यम वर्ग कि मेहनतकश महिलाओं से जो बिना किसी कुंठा के , सकारात्मक सृजन में अनवरत लगी हुई हैं। प्रेरणा उन मजदूर वर्ग कि महिलाओं से , जिनकी लगन ये सन्देश देती है कि - जीवन एक संघर्ष है , मुस्कुरा कर जियो , शिकायतों का कोई स्थान नहीं है

अधिकाँश पुरुष अपने समय कों व्यर्थ नहीं करते हमें पुरुषों से भी प्रेरणा लेनी चाहिए कि कैसे वो अपने जीवन कों नियंत्रित करते हैं , और प्रसन्नचित्त रहते हैं यदि समाज में उनकी स्थिति ज्यादा सुदृढ़ है तो हम महिलाओं कों उनसे सीखना होगा कि वे हमसे ज्यादा सशक्त क्यूँ और कैसे हैं एक बार यदि हम कोशिश करेंगे तो खुद कों बेहतर बनाकर समाज में अपना स्थान बनाकर कुंठा से दूर रह सकेंगे।

यहाँ मेरे आस पास के परिवेश में जितनी भी महिलाएं हैं वो सभी उच्च शिक्षित हैं समय इफरात है , इसलिए किटी पार्टीज़ जैसे विकल्प से स्वयं कों व्यस्त रखती हैं। मुझसे कहा शामिल होने के लिए , और जब मैंने इनकार किया तो मुझ पर बहुत ही unsocial , असामाजिक होने का टैग लगा दिया मैं खुश हूँ इस टैग से , कम से कम मैं जो करना चाहती हूँ वो कर तो पा रही हूँ।

जब मैं भारत वापस आउंगी तो मेडिकल प्रैक्टिस करुँगी लेकिन जब तक यहाँ हूँ , तब तक ब्लोग्स के माध्यम से स्वास्थ्य एवं सामाजिक विषयों पर लिखकर समाज के लिए योगदान जारी रहेगा हम अपने बच्चों के सामने भगत सिंह , डॉ कलाम , कल्पना चावला और किरण बेदी जैसे व्यक्तित्वों कि मिसाल रखते हैं ताकि वो प्रेरणा ले सकें , इसलिए मुझे लगता है कि अपनी कमतरी पर रोने के बजाय और शिकायत करने से बेहतर है खुद का मानसिक विकास करना और एक मिसाल कायम करना स्त्री हो या पुरुष , स्वाभिमान के साथ जीना उसके अपने हाथ में है

मेरी दिनचर्या -
  • परिवार के लिए पौष्टिक भोजन पकाती हूँ।
  • विभिन्न विषयों पर ब्लॉग लेखन एवं पठन , जिससे मेरे दिमाग कों जंग लगे और अपनों के बीच हूँ , इस बात का भी एहसास होता है
  • IBM के चार बच्चों कों सप्ताह में तीन दिन पढाती हूँ (इससे मेरे मस्तिष्क का अच्छा व्यायाम होता है और धनोपार्जन भी)
आभार

60 comments:

प्रतुल वशिष्ठ said...

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अपनी कमतरी पर रोने के बजाय और शिकायत करने से बेहतर है खुद का मानसिक विकास करना और एक मिसाल कायम करना । स्त्री हो या पुरुष, स्वाभिमान के साथ जीना उसके अपने हाथ में है ।

@ काफी देर से इन दो वाक्यों पर दृष्टि टिकी हुई है. लगता है जैसे ये वाक्य मुझसे ही मुखातिब हैं.

आपकी व्यस्त दिनचर्या से... मेरी अव्यस्त चर्या लज्जित होकर खुद में ही सिमट रही है.

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Amrita Tanmay said...

सिक्के का दूसरा पहलु भी होता है ..असमानताएं देखने के लिए भारत के तथाकथित उच्च मध्यमवर्ग के अन्दर झांक कर देखिये तो स्याह सच दिख जायेगा ..स्त्री किस मुखौटे के पीछे रहती है और सामान होने का दिखावा करती हैं ... तब विमर्श केवल ...करने के लिए रह जाता है

सहज समाधि आश्रम said...

आपके लेखन में । रूखेपन से स्निग्धता । भावहीन फ़ीकेपन से जीवन की मिठास । अकङूपन से चुलबुलापन ।
कुछ कुछ उदासी ( संसारिक व्यवहार से ) के बजाय । जीवन की उमंग लहराती नजर आ रही है । मुझे तो ऐसा ही अहसास हो रहा है कि आपके स्वभाव रूपी कैक्टस की बगिया । चम्पा चमेली मोगरा गुलाब बेला की खुशबू से महकने लगी । मगर यह एक " आयरन लेडी " में कैसे संभव हुआ ? मैं अचम्भित ही हूँ ।

Irfanuddin said...

one has to be creative whether Male or Female.... its always easy to blame some one for our own fault.....

BTW sounds good to hear from a Lady that we men are not responsible for all that.....:D

Kunwar Kusumesh said...

जिसमें तरक्की करने की लगन वो तरक्की कर ही लेगा ,चाहे वो स्त्री हो या पुरुष.

राज भाटिय़ा said...

सहमत हे जी आप ने विचारो से, यह बहस मैने पहली बार ब्लाग जगत मे ही देखी हे, हर घर मे स्त्री होती हे पुरुष होता हे, ओर घर भी तभी बनता हे जब दोनो समझ दार हो, तभी बच्चो का भाविष्या भी सुरक्षित रहता हे, अगर दोनो अपना अपना अधिकार मांगे गे तो फ़िर घर केसा? घरो मे *मै* नही हम शव्द चलता हे, मेरी चीज नही हमारी चीज कहने वाले घर ही आबाद रहते हे, जिस घर मे तेरी मेरी चलती हे वो जल्द ही उजड जाते हे, स्त्री ओर पुरुष एक दुसरे के लिये बने हे, दोनो ही अलग अलग अधुरे हे, धन्य्वाद

ashish said...

आपकी एक एक बात से सहमत , अगर समय का सदुपयोग करने का तरीका आ जाय तो किसी पर दोषारोपण करने का कोई मतलब नहीं होता . अगर पढने लिखने में समय का उपयोग हो तो समाज का हित भी होगा .वैसे मै घर पर कुछ बच्चो को मुफ्त में पढ़ता हूँ .

दिलबागसिंह विर्क said...

मुझे तो लगता है दोष देना मानवीय प्रवृति है . हम अक्सर अपनी नाकामियों का कारण दूसरों को मानते हैं . औरतों की स्थिति भी इससे जुदा नहीं है . हम सबको वो औरत हो या पुरुष दोषारोपण करने की बजाए खुद को आइना दिखाना चाहिए .

गौरव शर्मा "भारतीय" said...

हम अपने बच्चों के सामने भगत सिंह , डॉ कलाम , कविता चावला और किरण बेदी जैसे व्यक्तित्वों कि मिसाल रखते हैं ताकि वो प्रेरणा ले सकें , इसलिए मुझे लगता है कि अपनी कमतरी पर रोने के बजाय और शिकायत करने से बेहतर है खुद का मानसिक विकास करना और एक मिसाल कायम करना । स्त्री हो या पुरुष , स्वाभिमान के साथ जीना उसके अपने हाथ में है ।

आपने इन पंक्तियों के माध्यम से साड़ी बतें कह दी हैं अब कुछ कहने की आवश्कता ही नहीं है वैसे महिलाएं पुरुषों की बुराइयों के आलावा भी आजकल बहुत सी रचनात्मक गतिविधियों में संलग्न रहती हैं |

Bharat Bhushan said...

यह आलेख रचनात्मक सोच का बहुत अच्छा नमूना है. आपके द्वारा दिए गए टिप्स कई महिलाओं को सक्रिय और सकारात्मक जीवन जीने का रास्ता बताते हैं. आभार.

सुधीर राघव said...

बहुत ही अच्छा लेख। दूसरे को दोष देना सिर्फ स्त्रियों का ही नहीं सबका ही प्रिय शगल होता है।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

गोसिप हर किसी का शगल है - वह स्त्री हो य पुरुष :)

महेन्‍द्र वर्मा said...

जो रचनात्मक होते हैं वे किसी पर दोषारोपण नहीं करते, चाहे वो स्त्री हो या पुरुष।

आपका यह आलेख सभी को सक्रिय और रचनात्मक बनने तथा समय का सदुपयोग करने के लिए अवश्य प्रेरित करेगा।

ѕнαιя ∂я. ѕαηנαу ∂αηι said...

बहु्त ही सटीक अभिव्यक्ति, सब कुछ अपनी सोच की ग़ुलाम है।

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

हर किसी को अपने वक्त का सदुपयोग करना चाहिये.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

आपकी बातें सही हैं ....लेकिन भारतीय परिवेश में आज भी नारी इतनी आज़ाद नहीं है की वो अपने अनुसार दिनचर्या बना सके ...कुछ प्रतिशत छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर महिलायें एक उबाऊ ज़िंदगी जीती हैं ...जिनमें कुछ करने का हौसला होता है उन्हें भी दबा दिया जाता है ...परिवार के नाम पर नारी अपनी इच्छाओं को बलिदान करती रहती है ...
यह लेख जागरूक करने वाला है ...इस दिशा में भी सोचना और कुछ करना चाहिए ...

Atul Shrivastava said...

महिलाओं का ही क्‍यों दोष देने का शगल ऐसा शगल है कि यह हर मनुष्‍य में पाया जाता है, चाहे वह स्‍त्री हो या पुरूष। यह मानवीय स्‍वभाव है। सिर्फ स्‍त्री को ही इसका अपराधी मानना उचित नहीं मानता मैं।

S.M.Masoom said...

अपना अपना समझने का ढंग है .
कुछ इधर की कुछ उधर की
शारीरिक संबंधों को सहमती देनी
जौनपुर शिराज़ ए हिंद भाग १

प्रतिभा सक्सेना said...

सार्थक चिंतन है आपका .जो लोग व्यर्थ में समय गँवाते हैं उन्हीं के मन में फ़ालतू बातें आती हैं- स्त्री हो चाहे पुरुष .

ZEAL said...

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कुछ लोग केवल शीर्षक देखकर ही टिपण्णी लिख दे रहे थे इसलिए शीर्षक बदल दिया है ताकि विषय के साथ न्याय हो सके ।

मुझे लगता है जो स्त्रियाँ समाज और व्यवस्था कों दोष देती हैं याँ फिर ये कहती हैं की कुछ करना चाहती थी करने नहीं दिया गया , ये गलत है । आप पहले अपनी योग्यता कों परखिये , फिर देखिये की आपके करने योग्य क्या क्या है । फिर बाहर निकालिए । संघर्षों की तेज़ आंधियां झेलिये फिर पता चलेगा की कुछ कर पाने के लिए कितनी जद्दोजहद है । जो महिलाएं हिम्मत से आगे आती हैं , सफलता भी उन्हीं कों मिलती है । घर के अन्दर बैठकर घरवालों कों ही अपनी परिस्थिति का जिम्मेदार करार कर देना सबसे आसान काम है ।

अब प्लेट में सजाकर तो कोई आपके लिए नौकरी लाएगा नहीं । अपनी जिंदगी संवारनी है तो खुद कों ही प्रयत्न करने होंगे । सच तो ये है की कुछ स्त्रियाँ , घर के कार्य करने के बाद ये समझती हैं की उनका दायित्व इसके आगे नहीं है । अपने कीमती समय मोल स्वयं ही नहीं जानती । व्यर्थ के मनोरजन द्वारा स्वयं कों व्यस्त रखती हैं। सार्थक कार्यों के बारे में सोचना भी उन्हें गुनाह लगता है ।

सच तो ये है की कभी वो कोशिश ही नहीं करतीं ये सोचने की , की वो कुछ सार्थक और सकारात्मक कर भी सकती हैं। पति जो कमा कर ला रहा है उसी पर निर्भर रहकर अपना कोजी (आरामतलब) जीवन गुजारती हैं और जहाँ मौक़ा मिला वहीँ शगूफा छोड़ दिया की मुझे कुछ करने का मौका नहीं दिया गया।

अपनी इज्ज़त , अपना स्वाभिमान , समाज के लिए कुछ कर सकने का जज्बा , सभी कुछ अपने हाथ ही में है । कुछ न कर सकें तो कम से कम अपनी असफलताओं के लिए दूसरों कों जिम्मेदार ठहराने की आदत छोड़ देनी चाहिए ।जिस`दिन ये आदत छूटेगी , उसी दिन से उनका मस्तिष्क कुछ बेहतर करने के लिए प्रेरित करेगा उन्हें।

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Unknown said...

good take on women!!!! atleast u didnt follow tht path of blaming the road if someone doesnt know his/her manzil!!!

गणेश जोशी said...

ाह, बहुत अच्छी अभिव्यक्ति..................

पी.एस .भाकुनी said...

बहुत सोच विचार के बाद भी जब कोई टिपण्णी नहीं सूझी तो श्री राज भाटिया जी की टिपण्णी को over write करना पड़ रहा है,
बेहद निष्पक्ष एवं संतुलित पोस्ट हेतु आभार ................

गणेश जोशी said...

वाह, बहुत अच्छी अभिव्यक्ति..................

शिव शंकर said...

स्त्रियों कों प्रेरणा लेने चाहिए समाज कि उन महिलाओं से जो समाज में विभिन्न संस्थानों में कार्यरत हो, पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं । हमें प्रेरणा लेनी चाहिए मध्यम वर्ग कि मेहनतकश महिलाओं से जो बिना किसी कुंठा के , सकारात्मक सृजन में अनवरत लगी हुई हैं। प्रेरणा उन मजदूर वर्ग कि महिलाओं से , जिनकी लगन ये सन्देश देती है कि - जीवन एक संघर्ष है , मुस्कुरा कर जियो , शिकायतों का कोई स्थान नहीं है ।

बहुत ही अच्छा लेख।

VICHAAR SHOONYA said...

कुछ लोगों की टिपण्णी होती है बहुत सुन्दर, बहुत बढ़िया या सुन्दर आलेख. इसे टिप्पणीकारों के लिए क्या बदला जायेगा? शायद पूरी पोस्ट ही बदलनी पड़ेगी . खैर मैं कहूँगा की महिला स्वाभिमान शीर्षक से अपने अच्छी पोस्ट लिखी है. ( ऐसी टिपण्णी भी पोस्ट पढ़े बिना ही की जा सकती है)

G Vishwanath said...

Good!
Will resume commenting in detail later.
Busy Till Feb 28
Be back soon

Best wishes
Regards
GV

गिरधारी खंकरियाल said...

जब पेड़ पर फल लगते है तो झुक जाती है, नम्र हो जाती है, संस्कार शिक्षा से प्राप्त होते है, परिवार से मिलते है, सब कुछ आपके परिवेश से निर्भर करता है, तथाकथित उच्च आय वर्ग तो संस्कार विहीन उन्माद ग्रस्त से रहते हैं. इसीलिए वे इस तरह का समय नष्ट करते हैं . किन्तु यह सब कुछ व्यक्ति के स्वयं के इच्छा शक्ति पर भी निर्भर करता है आपका विश्लेषण सही दिशा में किया गया एक सार्थक प्रयास है स्त्री पुरुष दोनों एक दूसरे के पूरक हैं

ZEAL said...

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@- विचार शून्य -

आपने सही कहा , लेख बिना पढ़े भी टिप्पणियाँ की जा सकती हैं। लेकिन ताड़ने वाले भी क़यामत की नज़र रखते हैं । उनको मालूम होता है , किसने पढ़ा और किसने मात्र खानापूर्ति की है । उस व्यक्ति की वैसी ही image भी बनती है मेरे दिमाग में। व्यक्ति के शब्द उसकी पहचान होते हैं । जैसे लेखक की पहचान उसके लेख हैं , वैसे ही टिप्पणीकार की पहचान उसकी टिप्पणियां हैं।

आपके द्वारा करी गयी टिपण्णी से मुझे ये तुरंत समझ आ गया की आपने महीनों बाद कोई नई पोस्ट लगाई है , इसीलिए लिए आज आप मेरी पोस्ट पर नज़र आये हैं। आपको लेख से कोई सरोकार नहीं है ।

ब्लॉगजगत में ज्यादातर लोग उसी दिन निकलते हैं टिपण्णी करने के सफ़र पर जिस दिन वो अपने ब्लॉग पर नयी पोस्ट लगाते । क्यूंकि उन्हें सबकी टिपण्णी चाहिए होती है । ऐसे ही लोग बिना पढ़े टिपण्णी करते हैं।

बहुत कम ब्लोगर हैं जो सीरियस ब्लोगिंग करते हैं , और विरले ही हैं जो सीरियस टिपण्णी करते हैं।

और मैं सीरियस लोगों कों बेहद पसंद करती हूँ।
आभार ।

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धीरेन्द्र सिंह said...

काश यह सोच और ऐसी जागरूकता उन लोगों तक पहुँच पाए जो ना तो ब्लॉग पढ़ पाते हैं और ना ही उन्हें स्वतंत्र चिंतन के लिए एक आधार और प्रेरणा ही मिल पाती है. एक अत्यधिक महत्वपूर्ण विषय जिसे गांव-गांव तक ले जाना ज़रुरी है. ऐसे ही आवाज़ उठती रहेगी तो एक दिन बात बन जायेगी. प्रेरक प्रस्तुति.

Asha Joglekar said...

आपकी बात सही है पर ये एक आदर्श स्थिति है । भारत नें ५० प्रतिशत महिलाएँ अपने निर्णय स्वयं लेने के लिये स्वतंत्र नही हैं । उनके हौसले को परिवार की जरूरतों के नाम पर दबा दिया जाता है । फिर भी एैसी स्थितियों से जूझ कर आगे आने वाली महिलाओं की कमी नही है । समाज में यदा कदा हम ऐसे उदाहरणों से परिचित होते रहते हैं । माँ और पिता में भी आपने पाया होगा कि माँ ही हमेशा दौड दौड कर बच्चों तथा पति की सेवा में लगी रहती है । समय के साथ मान्यताएँ बदल रही हैं ।

Suman said...

mai aapki batonse bilkul sahanat huon.....
jab bhi hum dusronko blame karte hai hum apne aapko kranti karne se bacha lete hai....

Suman said...

bahut achha laga apke blog par aakar........
kuchh to sarthk mila padhneko....

Rahul Singh said...

सहज और पठनीय पोस्‍ट.
यह पंक्ति हटा कर भी पब्लिश कर सकती हैं-
''दुसरे कों'' के बजाय ''दूसरे को'' संशोधन पर विचार करना चाहेंगी.

मुकेश कुमार सिन्हा said...

"ब्लॉगजगत में ज्यादातर लोग उसी दिन निकलते हैं टिपण्णी करने के सफ़र पर जिस दिन वो अपने ब्लॉग पर नयी पोस्ट लगाते । क्यूंकि उन्हें सबकी टिपण्णी चाहिए होती है । ऐसे ही लोग बिना पढ़े टिपण्णी करते हैं" - dr. divya aisa hota hai kya...sahi margdarshan kiya aapne..:)

waise sach me sarthak post hai..aapki
ek aur bat...apke jaydatar post samaj ke behtari ke liye hote hain..:)
regards

सदा said...

दिव्‍या जी, सहज एवं सरल शब्‍दों में लिखा गया यह आलेख आपकी स्‍वच्‍छ मानसिकता का दर्शाता है जो कि आपकी हर प्रस्‍तुति में होता है बधाई एक बार फिर से इस बेहतरीन लेख के लिये आपकी कलम यूं ही सच्‍चाई के शब्‍दों पर अडिग रहे ....।

कविता रावत said...

bahut badiya aalekh aur subvicharon kee prasuti ke liye aapka aabhar

दिनेश शर्मा said...

हमेशा की तरह सारगर्भित आलेख। साधुवाद!

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

आदरणीय दिव्या जी ,
बहुत ही प्रेरणाप्रद और खरा -खरा लेख है आपका | यहाँ मैं आपकी बातों से सहमत होते हुए कुछ जोड़ रहा हूँ वह यह कि आज भी बहुत सी लड़कियों को लड़कों जैसा अवसर नहीं दिया जा रहा है , वह चाहे रुढ़िवादी सोच के कारण या विकृत मानसिकता के कारण | हमें महिलाओं को जागरूक करने के साथ-साथ पुरुष समाज कोभी बराबर झकझोरते रहना होगा |

Dr. Braj Kishor said...

बड़ा ही भयानक किस्म का सच लिखा है आप ने,
मैं अपने परीवश में देख कर भी नहीं बोल पाता.
पढ़ कर लगा कि और जगह भी यही जीवन
शैली चल रही है.अपने पर चिढ़ता हूँ कि
' क्यों नहीं बोल पाता.'
आप के लिखने से अच्छा लगा. शुक्रिया.

ममता त्रिपाठी said...

दिव्या जी!
मैं आपकी बात से शत-प्रतिशत सहमत हूँ।

Arvind Mishra said...

लक्षित वर्ग के लिए एक अनुकरणीय दिनचर्या

वीरेंद्र सिंह said...

बिल्कुल सही बात है। वैसे आपका ये लेख सभी पर बराबर सही बैठता है।
दुनिया में वो ही लोग ज़्यादा व जल्दी सफ़ल होते हैं जो अपने रास्ते ख़ुद बनाते हैं बनिस्तपत उनके जो हमेशा शिकायत करते रहते हैं।

JAGDISH BALI said...

Simply Great thinking.

Patali-The-Village said...

हम सबको वो औरत हो या पुरुष दोषारोपण करने की बजाए खुद को आइना दिखाना चाहिए|

Dr Varsha Singh said...

आपने सही कहा....स्त्री को स्वयं ही सोचना होगा ।.....और ......स्त्री हो या पुरुष , स्वाभिमान के साथ जीना उसके अपने हाथ में है ।
जीवन में उत्साह का संचार करने वाला लेख... बहुत अच्छा है। विचारणीय है।

Sushil Bakliwal said...

किसी भी रचनात्मक गतिविधी में व्यस्त रहने वाले को दूसरों के दोष देखने का समय ही नहीं मिलता ।

Pahal a milestone said...

Salute you for choosing this topic..Nothing surprising as you just bring flashback of reality infront of all of us...keep on sharing your views plz...besteez divya

Rakesh Kumar said...

ye aapka badappan hai ki aap din pe din apni niji jindagi ke pehalu ko bhi bloggers jan ke saath share karti ja rahi hai.Ek jagah padha ki aap subhe 4 baje uth kar taazi hava me ghumne bhi jaati hai.Aapki soch hamesa positive hi dikhlayi padti hai.Prabhu me aap poorn viswas rakhti hain.Mai prarthana karta hun ki aapka
man roopi pusp har din aur bhi khile aur samast
jagat ko aur jyada mehakata jaye.

amit kumar srivastava said...

इसे कहते हैं "बेबाक बयानी" सोलह आने सच ।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

मेरी दिनचर्या -
परिवार के लिए पौष्टिक भोजन पकाती हूँ।
विभिन्न विषयों पर ब्लॉग लेखन एवं पठन , जिससे मेरे दिमाग कों जंग न लगे और अपनों के बीच हूँ , इस बात का भी एहसास होता है ।
IBM के चार बच्चों कों सप्ताह में तीन दिन पढाती हूँ (इससे मेरे मस्तिष्क का अच्छा व्यायाम होता है और धनोपार्जन भी)
--
उपयोगी औप शिक्षाप्रद पोस्ट!
आप समय का सदुपयोग कर रहीं हैं!

Rajesh Kumar 'Nachiketa' said...

स्त्रियों पे आप लगातार लिखती रहती हैं अच्छा लगता है. मध्य वर्ग की स्त्रियाँ अपने निर्णय लेने की बात समझ रही हैं ये अच्छा है....
प्रणाम

आचार्य परशुराम राय said...

आपकी स्पष्टवादिता काफी सशक्त है। पर मुझे लगता है कि लड़कियों या महिलाओं के प्रति विकसित इस मानसिकता के पीछे कुछ ऐसे ऐतिहासिक परिस्थितियाँ थीं, जिनके कारण इन्हें (महिलाओं को) हर तरह से सुरक्षित रखने के प्रयास किए गए। कालान्तर में ये रूढ़िगत परम्पराओं मे परिवर्तित हो गए और उन्हीं को महिलाओं के लिए code of conduct मान लिया गया। आज जिसका विरोध हम एक भिन्न प्रतिक्रियात्मक मानसिकता के साथ कर रहे हैं।
आपका सकारात्मक विचार सराहनीय है।

निवेदिता श्रीवास्तव said...

दिव्या जी ,आपने काफ़ी हद तक सही कहा है परन्तु अभी भी हमारे
भारतीय परिवेश मे अधिकतर स्त्रियां निर्णय लेने के लिये जितनी स्वतन्त्र दिखाई देती है वस्तुत: होती नही है ।

aarkay said...

आपका लेख सभी के लिए प्रेरणादायक है , विशेषकर समय का सदुपयोग कर अपने आप को समाज की उन्नति में भागीदार बनाना .घरेलु कार्य करने के स्थान पर नौकरों पर निर्भर रहना तथा फिटनेस के लिए जिम या वर्क आउट जैसी चीज़ों का सहारा लेना वास्तव में ही अटपटा लगता है.कार्य में व्यस्तता स्वास्थ्य के लिए भी आवश्यक है.

दिगम्बर नासवा said...

आपकी बात से सहमत .... समय का सदुपयोग करने का तरीका आ जाय तो किसी पर दोष का कोई मतलब नहीं ....

Anonymous said...

दिव्या जी,नमस्ते!मैं आपकी बात से शत-प्रतिशत सहमत हूँ। स्त्रियाँ अपनी स्थिति के लिए स्वयं ही जिम्मेदार हैं। जो स्त्रियाँ कुछ करना चाहती हैं , समाज में स्थान चाहती हैं वो स्वयं ही विकट से विकट परिस्थिति में भी बेहतर विकल्प ढूंढ लेती हैं।अपनी कमतरी पर रोने के बजाय और शिकायत करने से बेहतर है खुद का मानसिक विकास करना और एक मिसाल कायम करना ।
आपका सत्य के प्रति समर्पण बहुत अच्छा लगा कृपया ऐसे ही लिखते रहे ....।

डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) said...

divya ji mera net slow chal raha hindi me nahi likh pa rahi isi vajah se .....mai aapke baaton se puri tarah sahmat hun ,, apni kamiyon ko aaj bhi mahilayen chhipati hai dosh sara pariwaar par dekar ki hame kuchh karne ki chahat thi karne nahi diya gaya..........kyonki aisa vakya mai apne aas paas dekh chuki hun mujhse hi kuchh padosane kahti hai aap na jane kaise waqt nikal leti hai ye sare ghar bahar ki jimmevariyan lekar chahlti hai hamlogo se to samay hi nahi nikal pata bit jata hai sara din ghar ke hi kamo me..........to ab kya kaha jaye
jaha khud unhe apni pahchan nahi dusra koi kitna gyan pilayega.........

Anonymous said...

अन्धकार में जो प्रकाश की बात किया करता है.
वही सदा जीवन-रस को भरपूर पिया करता है.
अनुकरणीय विचार एवं व्यवहार..

Unknown said...

दिव्या जी, हमेशा की तरह पोस्ट अच्छी लगी , बस आपकी बात आगे बढ़ाना चाहता हूँ .....

"अपनी धड़कन को श्वासों से मिलाये रखिये,
होश को जोश से सम्हाले रहिये ,
आपको पास ही मिल जाएगी पुरवा हवा,
बस एक हाँथ को हांथों में थामे रखिये"