बूढा शेर,
शेरखोर लोमड़ी,
असुर लोमड़ी,
मृत शेरनी की खाल में लोमड़ी,
जंगली कुत्ते,
दीवाने लकड़बग्घे ,
बोटी पर लपकने वाला चम्चौड़ कुत्ता,
बहादुर बाघ।
खच्चर-प्रेस
गर्दभ
खिसियानी लोमड़ी।
ऊदबिलाव
आदि आदि...
------------------------------
जी हाँ ये है भाषा आजकल के प्रबुद्ध लेखकों की। जब कोई स्त्री अपने दम पर आगे बढती है, सामाजिक सरोकार से जुड़े विषयों पर लिखती है और अनायास किसी की जी-हुजूरी नहीं करती तो कुछ लोगों की आँख की किरकिरी बन जाती है। वे उस स्त्री को शेरनी की खाल में लोमड़ी कहते हैं। और जो उस स्त्री का साथ देगा उसे "चम्चौड़ कुत्ता" कहा जाएगा।
गालियाँ देने के लिए सदियों से मूक और निर्दोष जानवरों के नामों का इस्तेमाल किया गया है। इन प्रबुद्ध लेखकों द्वारा एक स्त्री को अपमानित करने के लिए जंगल के जानवरों की सारी उपमाएं इस्तेमाल कर ली गयीं। बेहतर होता यदि स्त्री को जानवर न कहकर उसके वास्तविक नाम से संबोधित किया होता तो शेर , बाघ, लोमड़ी और कुत्ते , मनुष्य की इस वाचिक हिंसा का शिकार नहीं होते।
स्त्री और पुरुष को मनुष्य ही रहने दो, पशुओं के नामों से अलंकृत न करो। जिस भी स्त्री को "लोमड़ी" कहा है। वह स्त्री किसी की पत्नी, बहन , बेटी और माँ है।
जानवरों पर लिखी गयी बोध कथाएँ , मासूम बच्चों के पढने के लिए होती हैं। लेकिन अफ़सोस की , नफरत से भरी इनकी कहानी बच्चों को पढ़ाने लायक ही नहीं।
इस लेखक ने एक मृत-ब्लॉगर के चरित्र पर भी उँगलियाँ उठायीं और उस स्त्री की अस्वस्थता का भी मखौल बनाया।
कुछ सम्मानित स्त्रियों ने, बुद्धिजीवियों ने , बुजुर्गों ने इस कहानी में शिरकत की और टिप्पणी के माध्यम से उस लोमड़ी को खूब कोसा। कुछ ने उस स्त्री को शेरों द्वारा गर्भिणी कहा, कुछ ने उसकी नाजायज संतानों का भी उल्लेख कर डाला। कुछ तो अति-आतुर दिखे उस स्त्री को का नाम जानने के लिए , जिसे लोमड़ी कहकर अपमानित किया जा रहा था, ताकि वे भरपूर आनंद ले सकें भरी सभा में अपमानित होती स्त्री का।
विद्वानों द्वारा रचित और पठित उस आधुनिक बोध कथा में शिरकत करने वाले प्रबुद्ध जनों ने "स्त्री" को अपमानित होते देखा। किसी ने भी उस भाषा शैली और लेखक के नापाक मंतव्यों पर प्रश्न नहीं उपस्थित किया।
इस तरह का साहित्य रचकर हमारे ब्लॉगर क्या साबित करना चाहते हैं ? हिंदी साहित्य को पतन की और क्यों ले जाना चाहते हैं लोग ? और ऐसी रचनाओं पर ताली पीट-पीट कर क्या प्रमाणित करना चाहते हैं प्रसंशक ?
यदि आपस में एक- दुसरे का अपमान करना और कुत्ता , लोमड़ी कहकर अपमानित करना ही करना तो निसंदेह यह हिंदी ब्लॉगिंग का पतन है।
कहानी अच्छे शब्दों और भाषा के चयन के साथ , समाजोपयोगी होनी चाहिए। ऐसी "सार-रहित" कहानी जिसे पढने के बाद मुंह का स्वाद कसैला हो जाए उसे नहीं लिखना चाहिए।
अंत में उस उस --मातृ-शक्ति-- "लोमड़ी" --के लिए मेरी तरफ से दो-शब्द समर्पित हैं....
आभार।
Zeal
शेरखोर लोमड़ी,
असुर लोमड़ी,
मृत शेरनी की खाल में लोमड़ी,
जंगली कुत्ते,
दीवाने लकड़बग्घे ,
बोटी पर लपकने वाला चम्चौड़ कुत्ता,
बहादुर बाघ।
खच्चर-प्रेस
गर्दभ
खिसियानी लोमड़ी।
ऊदबिलाव
आदि आदि...
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जी हाँ ये है भाषा आजकल के प्रबुद्ध लेखकों की। जब कोई स्त्री अपने दम पर आगे बढती है, सामाजिक सरोकार से जुड़े विषयों पर लिखती है और अनायास किसी की जी-हुजूरी नहीं करती तो कुछ लोगों की आँख की किरकिरी बन जाती है। वे उस स्त्री को शेरनी की खाल में लोमड़ी कहते हैं। और जो उस स्त्री का साथ देगा उसे "चम्चौड़ कुत्ता" कहा जाएगा।
गालियाँ देने के लिए सदियों से मूक और निर्दोष जानवरों के नामों का इस्तेमाल किया गया है। इन प्रबुद्ध लेखकों द्वारा एक स्त्री को अपमानित करने के लिए जंगल के जानवरों की सारी उपमाएं इस्तेमाल कर ली गयीं। बेहतर होता यदि स्त्री को जानवर न कहकर उसके वास्तविक नाम से संबोधित किया होता तो शेर , बाघ, लोमड़ी और कुत्ते , मनुष्य की इस वाचिक हिंसा का शिकार नहीं होते।
स्त्री और पुरुष को मनुष्य ही रहने दो, पशुओं के नामों से अलंकृत न करो। जिस भी स्त्री को "लोमड़ी" कहा है। वह स्त्री किसी की पत्नी, बहन , बेटी और माँ है।
जानवरों पर लिखी गयी बोध कथाएँ , मासूम बच्चों के पढने के लिए होती हैं। लेकिन अफ़सोस की , नफरत से भरी इनकी कहानी बच्चों को पढ़ाने लायक ही नहीं।
इस लेखक ने एक मृत-ब्लॉगर के चरित्र पर भी उँगलियाँ उठायीं और उस स्त्री की अस्वस्थता का भी मखौल बनाया।
कुछ सम्मानित स्त्रियों ने, बुद्धिजीवियों ने , बुजुर्गों ने इस कहानी में शिरकत की और टिप्पणी के माध्यम से उस लोमड़ी को खूब कोसा। कुछ ने उस स्त्री को शेरों द्वारा गर्भिणी कहा, कुछ ने उसकी नाजायज संतानों का भी उल्लेख कर डाला। कुछ तो अति-आतुर दिखे उस स्त्री को का नाम जानने के लिए , जिसे लोमड़ी कहकर अपमानित किया जा रहा था, ताकि वे भरपूर आनंद ले सकें भरी सभा में अपमानित होती स्त्री का।
विद्वानों द्वारा रचित और पठित उस आधुनिक बोध कथा में शिरकत करने वाले प्रबुद्ध जनों ने "स्त्री" को अपमानित होते देखा। किसी ने भी उस भाषा शैली और लेखक के नापाक मंतव्यों पर प्रश्न नहीं उपस्थित किया।
इस तरह का साहित्य रचकर हमारे ब्लॉगर क्या साबित करना चाहते हैं ? हिंदी साहित्य को पतन की और क्यों ले जाना चाहते हैं लोग ? और ऐसी रचनाओं पर ताली पीट-पीट कर क्या प्रमाणित करना चाहते हैं प्रसंशक ?
यदि आपस में एक- दुसरे का अपमान करना और कुत्ता , लोमड़ी कहकर अपमानित करना ही करना तो निसंदेह यह हिंदी ब्लॉगिंग का पतन है।
कहानी अच्छे शब्दों और भाषा के चयन के साथ , समाजोपयोगी होनी चाहिए। ऐसी "सार-रहित" कहानी जिसे पढने के बाद मुंह का स्वाद कसैला हो जाए उसे नहीं लिखना चाहिए।
अंत में उस उस --मातृ-शक्ति-- "लोमड़ी" --के लिए मेरी तरफ से दो-शब्द समर्पित हैं....
आभार।
Zeal
22 comments:
आहत मन से निकले ये शब्द कहीं सीधे पाठकों को भी आहत करते हैं. किसी ब्लोगर्स के प्रति यदि कोई इस तरह की अपमानजनक शब्दावली प्रयोग करता है तो उसकी भर्त्सना की ही जानी चाहिए।
चिठ्ठागिरी विमर्श का एक मंच है प्रपंच नहीं यहाँ संवाद एक मान्य स्वीकृत शैली में ही अच्छा लगता है .निस्संदेह जीव जगत को इस बौद्धिक चिठ्ठा प्रदूषण की गिरिफ्त में नहीं लेना चाहिए .पशुओं की अपनी गरिमा है .
हमारे इस महान देश में बहूत सी गलत धारणाएं भी खूब हें खास तोर से नारियों के बारे में नारियों को यंहा निम्न दर्जे का ही समझा जाता हे पुरुष के अंदर अहंकार कूट कूट कर भरा हुआ हे जब कोई नारी आगे निकलती हे तो उसके इस अहंकार को चोट लगती हे और इन कुरीतियों के जनम दाता हमारे देश के पंडित ही रहे हें क्योंकि जिन्होंने ज्ञान प्राप्त कर लिया हे वो ऐसी सोच नही रखते
कृपया यहाँ भी पधारें -http://veerubhai1947.blogspot.in/
मंगलवार, 8 मई 2012
गोली को मार गोली पियो अनार का रोजाना जूस
गोली को मार गोली पियो अनार का रोजाना जूस
चिठ्ठागिरी विमर्श का एक मंच है प्रपंच नहीं यहाँ संवाद एक मान्य स्वीकृत शैली में ही अच्छा लगता है .निस्संदेह जीव जगत को इस बौद्धिक चिठ्ठा प्रदूषण की गिरिफ्त में नहीं लेना चाहिए .पशुओं की अपनी गरिमा है .
कृपया यहाँ भी पधारें -http://veerubhai1947.blogspot.in/
मंगलवार, 8 मई 2012
गोली को मार गोली पियो अनार का रोजाना जूस
गोली को मार गोली पियो अनार का रोजाना जूस
चिठ्ठागिरी विमर्श का एक मंच है प्रपंच नहीं यहाँ संवाद एक मान्य स्वीकृत शैली में ही अच्छा लगता है .निस्संदेह जीव जगत को इस बौद्धिक चिठ्ठा प्रदूषण की गिरिफ्त में नहीं लेना चाहिए .पशुओं की अपनी गरिमा है .
सच कहा आपने ..भाषा का संयमित होना अत्यंत आवश्यक है ..अच्छा लिखते हैं आप लिखते रहें
गीता पंडित
भाषा में संयम होना बहुत ही जरूरी है.ओछा लेखन लेखक के मानसिक स्तर और उसके सोच को दर्शाता है.आपका यह लेख पीड़ा का सही रूप है.आभार
can i get the link plz
जो लोग इस तरह की भाषा का प्रयोग कर रहे हैं वे न तो ब्लागर कहे जा सकते हैं न साहित्यकार, वे मात्र तमाशबीन हैं। लेकिन उनका यह कृत्य घोर निंदनीय है।
जी आपने बिल्कुल ठीक कहा । मैं भी देख रहा हूं कि इन दिनों जो नई शैली और शब्द चयन हमारे मित्र ब्लॉगर प्रयोग में ला रहे हैं , हैरान हैं कि इत्ती बडी प्रतिभा को अब तक जबरन कैसे रोका जा रहा था । अप डाऊन दोनों तरफ़ की गाडियां इतनी तेज़ रफ़्तार से चल रही हैं कि सवारियां गर्दन राईट से लेफ़्ट और लेफ़्ट से राईट ही कर रही हैं । चलिए अब गली मोहल्ले की बतकुच्चन और लिखने छपने का फ़र्क तो बस मिटा समझिए । आपने मुझे एक पोस्ट की ओर ठेल दिया ...अब शेष बातें अपनी पोस्ट पर
नारी की ख़ुशी उसकी तरक्की बर्दाश्त नहीं होती दम्भी पुरुषों से उनके अहम् को ठेस पहुँचती है इसलिए अपनी भड़ांस इस तरह निकलते हैं जो भर्त्सना करने योग्य है
bhasha sanyamit hone ki jarurat ...
सहमत !
दिव्या जी यदि वो ऐसा नही करेंगे तो उनका अहम कैसे संतुष्ट होगा? खुद को साहित्यकार आदि घोषित करने वाले इन लोगों की मानसिकता दोगली है जो स्त्री को सम्मान देना जानती हीनही और अपने घर मे भी ये लोग स्त्री को अपमानित करते होंगे तभी यहाँ भी वो ही प्रदर्शन करते हैं क्योंकि जैसी आदतें होती हैं वो कभी नही बदलतीं………जो अच्छा होगा हर जगह अच्छाई ही फ़ैलायेगा और जो बुरा होगा वो बुराई ही फ़ैलायेगा………और अच्छे बुरे लोग हर जगह होते हैं फिर चाहे स्त्रियाँ हों या पुरुष ………आजकल तो कुछ स्त्रियाँ भी सिर्फ़ सबकी चहेती बनने के लिये दूसरी स्त्री की दुश्मन बन जाती हैं तो पुरुष तो हमेशा से ही यही चाहता रहा है और उसका मकसद आसानी से पूरा होता जाता है………कौन पूछता है या समझना चाहता है दूसरे की समस्या जैसा आपने कहा यहाँ तो एक दूसरे के कहने पर भी भर्तसना शुरु कर देते हैं बिना दूसरे के चरित्र को जाने उसके चरित्र पर आक्षेप लगाने लगते हैं ……जब ऐसी मानसिकता होगी तो कैसा साहित्य और कैसे साहित्यकार और कैसा ब्लोग और कैसी ब्लोगिंग ………यहाँ तो ये हाल है कि आँख कान नाक सब बंद करो तो लिखो कुछ नही तो आपको ही अपमानित करने की कोई कसर नही छोडेंगे फिर चाहे खुद वैसा की कुकृत्य क्यों ना करें मगर दूसरे मे कमियाँ जरूर निकालेंगे मगर अपनी कमियाँ यहाँ कोई नही देखना चाहता।ऐसे मे किससे शब्दो की मर्यादा की उम्मीद करें जब इंसान ही अमर्यादित हों।
सच कह दिव्या जी आप ने शब्दो की अपनी गरिमा होती है..भाषा का संयमित होना अत्यंत आवश्यक है..सार्थक लेख..
सस्नेह..
गिरी हुई मानसिकता के शिकार ऐसे लोगों ने ब्लोगिंग को मनोहर कहानियां बना दिया है। तेल-मसाले का तडका लगाकर परोसने वाला यह ब्लॉगर अपनी नीचता का ही परिचय दे रहा है। इसमें यदि दम होता तो नाम के साथ लिखता। लोमड़ी, कुत्ता जैसे शब्दों का उपयोग ही यह बता रहा है की यह ब्लॉगर कितना भयभीत है जो सीधे-सीधे अपनी बात भी नहीं कह सकता।
देखा मैंने भी वहाँ। किस प्रकार लोग वहाँ चटखारे ले लेकर रसास्वादन कर रहे थे। पूछिए उनसे कि इतना क्या खौफ? जिस दिन उस ब्लॉगर द्वारा इन लोगों के घरों की स्त्रियों का अपमान किया जाएगा, उस दिन भी क्या वे ऐसे हे चटखारे लेंगे?
पंचतन्त्र की कहानियां बच्चों को सन्देश देती हैं, ज्ञान देती हैं, प्रेरणा देती हैं। किन्तु इस निकृष्ट कहानी से केवल नीचता ही झलती है। ऐसे लोग भला क्या भला करेंगे देश का? क्या नाम रोशन करेंगे शहीदों व नायकों का?
भाषा में संयम होना जरूरी है ...
पर मेरा मानना ये भी है की ऐसे लोगों की परवाह नहीं करनी चाहिए ... अपना काम करते जाना चाहिए ...
सटीक प्रश्न दागे हैं आपने .लगता है ये तमाम लोग तुलसी दास के अनुयाई हैं जिन्होनें पता नहीं किस झोंक में लिख मारा -
शूद्र गंवार ढोल पशु नारी ,सकल ताड़ना के अधिकारी .
इन्हें कोई ये भी पढवाए -
ढोल गंवार और घोडा ,इन्हें जितना मारो थोड़ा .
Thanks for sharing the link . Vandana has said all that I wanted say .
You keep writing
nice
जायज और सार्थक चिंता और चिंतन
सोचना भी कठिन है कि कोई विद्वान किसी महिला की अस्वस्थता का मज़ाक उड़ा सकता है. हाँ कुछ लोगों को लफ़्फ़ाज़ी से इतना आनंद आता है कि वे इंसानियत से गिर जाते हैं.
आपसे सहमत हूँ.
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