ऋषियों , मुनियों और विद्वानों की धरती से उसकी पहचान ही विलुप्त होती जा रही है। क्यों हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी पश्चिम की भाषा, संस्कृति और चिकित्सा पद्धति को अपना रहे हैं। निज पर गर्व नहीं करते , ना ही उसके महत्त्व को समझते हैं।
आयुर्वेद न सिर्फ रोगी की चिकित्सा करता है अपितु स्वस्थ के स्वास्थ्य की रक्षा भी करता है।
स्वस्थस्य स्वास्थ रक्षणं, आतुरस्य विकार प्रशमनं च।
स्वस्थस्य स्वास्थ रक्षणं, आतुरस्य विकार प्रशमनं च।
एलोपैथिक पद्धति तो मात्र २०० वर्ष पुरानी है , जबकि हमारा आयुर्वेद , ब्रम्हा जी के मुख से निकला है और हमारे वेदों में वर्णित है। आयुर्वेद , अथर्वेद का ही एक उपवेद है, जिसमें कायिक और मानसिक सभी व्याधियों का उल्लेख एवं निदान है। आज के समय के एड्स (AIDS), और सार्स (SARS) जैसी व्याधियों का भी सम्पूर्ण उल्लेख है हमारी वैदिक चिकित्सा पद्धति में।
आयुर्वेद द्वारा आतुर (रोगी) की चिकित्सा की जाती है और स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा का प्राविधान है। इसके उहाहरण हमारे दीर्घायु ऋषि-मनीषी हैं। कंद मूल फल पर जीवित रहने वाले हमारे तत्कालीन विद्वानोंऔर बुद्धिजीवियों ने मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए एक चमत्कारिक , चिकित्सा पद्धति की रचना कर डाली थी। मुह में छाले हो अथवा पीलिया जैसा घटक रोग हो अथवा अस्थिभंग हो या फिर मधुमेह जैसा सुख्रोग हो, या पथरी हो, सभी का आशुकारी इलाज , बिना हानिकर प्रभावों वाली प्राकृतिक दवाईयों क्रमशः नकछीवक , अस्थि श्रंखला, स्ट्रिविया, गोक्षुरु आदि से अपने प्राकृतिक रूप चूर्ण, क्वाथ, आसव अथवा अरिष्ट के रूप में किया जाता है जो सर्वथा हानिकर प्रभावों से मुक्त है।
देव व्यपाश्रय और युक्ति व्यपाश्रय चिकित्सा द्वारा , इलाज करने वाले देवताओं के चिकित्सक 'अश्विनी कुमारों' की वैदिक चिकित्सा पद्धति है ये, जिसमें किस व्याधि का इलाज नहीं है भला ? दमा, राजयक्ष्मा, अतिसार , आमवात और प्रमेह से लेकर उन्माद आदि सभी व्याधियों की सम्पूर्ण चिकित्सा का वर्णन है , सुश्रुत, अष्टांग संग्रह आदि वृहदत्रायी और लघुत्रयी में।
दीपावली से दो दिन पूर्व हम धनतेरस मनाते हैं। जिसमें हम भगवान् धन्वन्तरी की पूजा करते हैं। कौन हैं ये धन्वन्तरी ? समुद्र मंथन से अमृत कलश लेकर अवतरित हुए धन्वन्तरी को ही 'Father of medicine' कहा गया है। और सुश्रुत को 'Father of Surgery' कहा गया है।
हमारी वैदिक चिकित्सा पद्धति में , उस समय भी शल्य क्रिया आज से कहीं ज्यादा उन्नत अवस्था में थी। आज का 'Organ Transplant' और Plastic surgery जिसमें सफलता का प्रतिशत संशयात्मक ही बना रहता है , वही वैदिक काल में १०० प्रतिशत सफलता के साथ किया जाता था।
सुशुत के काल में त्वचा की सात परतों के अध्ययन के लिए लाश को नदी में बाँध दिया जाता था। और गलन प्रक्रिया के बाद बहुत सफाई के साथ त्वचा की सातों परतों का अध्ययन सुलभ होता था। आज के दौर की 'Blood letting' , उस समय सफलतापूर्वक 'जोंक और 'श्रृंग' के माध्यम से होती थी। उस समय भी शल्य क्रिया के बाद stitching होती थी , बस अंतर केवल इतना था की Catgut की जगह काले चींटों का सफलतापूर्वक इस्तेमाल होता था।
समय के साथ विज्ञान ने जो तरक्की की इस पद्धति ने , उस तरक्की को पश्चिम ने एलोपैथ का नाम देकर उस पर अपनी मुहर लगा दी। और भेंड-चाल जनता ने उसका अंधानुसरण करके अपनी वैदिक चिकित्सा पद्धति 'आयुर्वेद' को उपेक्षित कर दिया । आज बड़े-बड़े चिकित्सा उपकरण विज्ञान की उप्लाधियाँ हैं , एलोपैथ की नहीं । इसको प्रत्येक चिकित्सा पद्धति के साथ जोड़ा जाना चाहिए, किसी एक के साथ नहीं। ताकि विज्ञान के अविष्कारों का लाभ लेते हुए आतुर ( रोगी ) की चिकित्सा की जा सके।
हमारे वैदिक ग्रंथों में वर्णित 'नीम', 'हल्दी', 'ब्राम्ही' जैसे द्रव्यों को भी ये अपने नाम से पेटेंट करा कर सब पर कब्जा कर लेना चाहते हैं। ज़रुरत है हमें अपनी धरोहर की रक्षा करने की और अपनी चमत्कारिक वैदिक पद्धति में विश्वास करने की।
चीनी, ग्रीक, रोमन, पर्सियन, इजिप्शियन , अफगानिस्तानी और यूरोपियन भी हमारे देश भारत आये और इस वैदिक पद्धति को सीखा इन्होने। लेकिन अफ़सोस की इन्होने हमारे वैदिक ग्रंथों का अनुवादन करके और थोड़ी हेर-फेर करके इसे आधुनिक पद्धति का नाम दे दिया, और विज्ञान के विकास के साथ जोड़कर खुद को ज्यादा उन्नत बता दिया। भारत में अंग्रेजी शासन ने हमें गुलामी में जकड लिया और हमारे ग्रथों को नष्ट किया गया। उस समय उन्होंने इस चिकित्सा पद्धति की बहुत उपेक्षा की । मुगलों ने इसे अरबी भाषा में अनुवादित करके इसी की सहायता से यूनानी पद्धति को जन्म दिया।
अतः सभी चिकित्सा पद्धतियों के मूल में हमारी वैदिक चिकित्सा पद्धति 'आयुर्वेद' ही है, लेकिन इसे उपेक्षित और तिरस्कृत किया गया। आजादी के बाद आयुर्वेद ने पुनः अपनी प्रतिष्ठा को वापस प्राप्त किया है , और देश भर में १०० से ज्यादा आयुर्वेदिक विद्यायालाओं में विद्यार्थी उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं।
७० के दशक के बाद से आयुर्वेद की लोकप्रियता विदेशों में बहुत बढ़ी है, वहां से विद्यार्थी इस पद्धति को सीखने निरंतर यहाँ आ रहे हैं, और अपने देश को समृद्ध कर रहे हैं , लेकिन अफ़सोस की हमारे अपने देश में इस वैदिक चिकित्सा पद्धति के प्रति जागरूकता बहुत कम है।
काहे री नलिनी तू कुम्हलानी, तेरे ही नाल सरोवर पानी...
हमारे पास तो चमत्कारिक धन-सम्पदा है, लेकिन अफ़सोस की हमारे पास 'पारखी नज़रें' नहीं हैं। पश्चिम की अंधी दौड़ ने हमें इस चमत्कारी चिकित्सा-पद्धति (आयुर्वेद) से होने वाले लाभों से वंचित कर रखा है, और मूढ़ जनता अनेक हानिकर प्रभावों वाली पश्चिमी चिकित्सा पद्धति से अपना इलाज करके स्वयं को क्षति पहुंचा रही है।
Zeal
45 comments:
घर की मुर्गी दाल बराबर हो गयी है..
विदेशों में भी इस पद्धति ने अलग ही पहचान बना ली है। क्योंकि यूरोपियन देश हमारी जनता से ज्यादा जागरूक है। वे सर्वोत्कृष्ट को चुरा लेते हैं और अपना भी लेते हैं।
हमारी सरकार तो है ही लुटेरी । जब देश कि संस्कृति ही मिटाने पर तुली है तो वह हमारी इस धरोहर कि तरफ क्यों ध्यान देगी भला ? हम स्वयं ही जागरूक होकर इस पद्धति को अपना सकते हैं। आज बुद्धिजीवी वर्ग , जो ऐलोपथी के हानिकर प्रभावों को समझता और अपने स्व्वास्थ के प्रति सचेत है वो एलोपैथ से यथा संभव दूर ही रहता है।
एलोपैथ स्वयं में कोई पद्धति ही नहीं है। वैदिक चिकित्सा पद्धति को पढ़कर, उससे सीखकर और उसके शोध किये गए रूप को अपना कहकर , आधुनिक चिकित्सा पद्धति बन बैठा है। पहले चरक संहिता को स्वयं में शामिल कर लिया, पिछले हफ्ते पूरा का पूरा योग ही शामिल कर लिया अपनी पद्धति में। इस तरह तो यह आयुर्वेद को समाप्त ही कर देगा एक दिन। दूसरी पद्धतियों से चोरी करके स्वयं को उन्नत दिखाना कहाँ कि इमानदारी है। आयुर्वेद में सदियों पूर्व जो वर्णन कर दिया गया, प्रत्येक बिमारी के इलाज का उल्लेख किया गया है , उसे ये आज 'खोज' रहे हैं। और वो खोज भी वैदिक ग्रंथों में घुसकर की जा रही है। यही खोज तो आयुर्वेदिक चिकिसा पद्धति का शोध कार्य है , जिसे एलोपैथ अपनी कलगी में लगा लेता है हर बार।
आज विज्ञान की तरक्की को एलोपैथ अपनी झोली में डालकर स्वयं को ज्यादा उन्नत घोषित करता है। अरे चिकित्सा उपकरण किसी एक पद्धति का हिस्सा नहीं , सभी पद्धतियों का सामान अधिकार है विज्ञान के विकास पर।
आयुर्वेद में वर्णित 'अष्ट विध ' जांच ( नाडी, मूत्रं, मलं जिह्वा, शब्द , स्पर्शं द्रिगाकृति" ) पर आपका संशय करना उचित नहीं है। एलोपैथ में नाड़ी नहीं जांचते ? कि मल और मूत्र की परीक्षा नहीं होती ? या फिर आँखों को नहीं जांचते ?
ऐसा नहीं है की इसमें शोध नहीं हुए हैं। आयुर्वेद की अनेक फार्मेसियों से निरंतर उपयोगी दवाईयों का निर्माण जारी है। इन सभी फार्मेसियों में आयुर्वेद की 'रस शास्त्र' और 'द्रव्य-गुण' शाखा के विद्वान् निरंतर उसे परख कर शोध के बाद उन्नत अवस्था में ला रहे हैं। पातंजलि संस्थान की लाभकारी दवाईयां इसका प्रमाण हैं और अनेक विद्यालयों से आयुर्वेद में उच्च शिक्षा प्राप्त आयुर्वेदिक चिकित्सक निकल रहे हैं जो इस दिशा में अपना योगदान कर रहे हैं। हाँ सरकार इस दिशा में कुछ निष्क्रिय है और जनता में पूरी जागरूकता नहीं है। लोग पढना नहीं चाहते, सच को जानना नहीं चाहते , केवल सुनी-सुनाई बातों द्वारा आयुर्वेद के खिलाफ टीका-टिप्पणी करके इस पद्धति के साथ अन्याय करते हैं।
आज व्यवस्था यही है की अगर खासी भी हुई तो चलो डाक्टर के पास...डाक्टर ने कुछ लाल-पिली दावा दे दी और बोल दिया काढ़ा पियो तथा गर्म पानी से गर्गला करो...काढ़ा में अब होता क्या है? तुलसी पत्ता (जो खुद में रोग नाशक है), काली मिर्च इत्यादि जो हर रोग से लड़ने की क्षमता रखते हैं...और इन रोग प्रतिरोधियों को आज दादी के नुक्शे के नाम से जाना जाता है...आज पश्चिमी देश हमारे आयुर्वेद की चीजों पर ही पेटेंट करने जा रहे हैं जो चीजें वो हमारे यहाँ से खरीदते हैं पर इसके दूरगामी परिणाम के बारे में ना तो हम सोचते हैं और ना ही हमारी सरकार...आज पाश्चात्य देश यहाँ आ कर हमारी सबसे प्राचीन चिकित्सा पद्धति को सिखाते हैं और उसमे पारंगत हो अपने देश के लोगो की भरपूर सेवा करते हैं अपने नाम पर....पर हमारे लोगों को केवल एम०बि०बि०एस० ही दीखता है...भला हो उन चंद मुट्ठीभर लोगों का जिन्होंने हमारे इस विश्व के अति-प्राचीनतम चिकित्सा पद्धति को संजो कर जिन्दा रखा है...जिसमे प्रमुखतः हैं दक्षिणी भारत के लोग.
सभी पद्धतियों का सामान अधिकार है विज्ञान के विकास पर... सही कहा दिव्या जी . ये कौन समझ सका.. प्रवीण जी की बात से सहमत हूँ...सच है.घर की मुर्गी दाल बराबर हो गयी है..
जागरूकता भरी पोस्ट भारत भक्तो को जगाने के प्रयास के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद.
रोगी की सम्पूर्ण चिकित्सा, रक्षित होय निरोगी ।
आयुर्वेद पूर्ण सक्षम है, निन्दा करते ढोंगी ।
सुश्रुत शल्य-क्रिया धन्वंतरि, औषधि के विज्ञाता
वैदिक ज्ञान प्रतिष्ठित होगा, फिर से जय जय होगी ।।
बहुत उत्कृष्ट ज्ञान वर्धक लेख है आज भी कहते हैं न हमारी बीमारी की सारी दवाई हमारी किचेन में है किन्तु लोगों के पास संयम नहीं है चुटकियों में इलाज चाहते हैं आयुर्वेद का विश्वास टूटता जा रहा है समय चक्र है सब बदलता जा रहा है आने वाले युग में एलोपैथिक की जगह कुछ और नई पद्दति इजाद कर लेंगे ....बहुत अच्छा आलेख ..बधाई आपको
जागरूक करती है आपकी पोस्ट ... आज की जरूरत है आयुर्वेद कों पुन्ह स्थापित करने की ... पुन्ह उन नियमों कों खोजने की ...
मैं यह जान कर आश्चर्य चकित रह गया था कि होमियोपैथी वास्तव में उसी सिद्धांत पर आधारित है जिस पर हमारी आयुर्वेद प्रणाली. लेकिन बहुर्राष्ट्रीय दवा कंपनियों ने हमारी देशी चिकित्सा पद्धतियों को बहुत नुकसान पहुँचाया है. मेरा विचार है कि हमारी स्थानीय चिकित्सा पद्धति और होमियोपैथी का कंबीनेशन बहुत कारगर होगा. एलोपैथी को आल्टरनेटिव सिस्टम के तौर पर रखा जा सकता है. वैसे भी भारत के ग़रीब के लिए कई बार एलोपैथिक उपचार के मुकाबले बेहतर विकल्प मौत होती है. अच्छा होगा यदि हम अपनी चिकित्सा पद्धतियों को विकसित करें और इस प्रकार करें कि वे ग़रीब आदमी की पहुँच में हों.
आयुर्वेद के महत्व के संबंध में विस्तृत और उपयोगी जानकारी।
केवल जनता ही दोषी नहीं है, बल्कि सरकार भी दोषी है जो आयुर्वेद को महत्व नहीं दे रही है।
1794 में एक मराठा वैद्य ने एक व्यापारी की प्लास्टिक सर्जरी की थी। इस सर्जरी का विवरण मद्रास गजेटियर में प्रकाशित हुआ। फिर लंदन की पत्रिका जंटलमैन्स मैगजीन में यही समाचार पुनर्मुद्रित हुआ। उस वैद्य से सीखकर एक अंग्रेज चिकित्सक जोसेफ कार्पुए ने 23 अक्टूबर 1814 को लंदन में नासिकासंधान की वैसी ही 2 शल्यक्रियाएं की। तब तक यूरोप में प्लास्टिक सर्जरी शुरू नहीं हुई थी।
आयुर्वेद की दुनिया के विविध आयामों से परिचय कराती इस पोस्ट के लिए आभार !
> त्रेता युग में लक्ष्मण को मूर्छा से बाहर लाने के लिए संजीवनी बूटी भी आयुर्वेद ही तो है.
> त्रेता में भगवान राम, लक्ष्मण और सीता तथा द्वापर में पांडव इतने वर्षों तक वनों में रहे और स्वस्थ रहे.
> पहाड़ों में कई तरह के फल फूल होते हैं जो साधारणतः न ज्यादा उपयोगी है और न जिनकी Market value हैं परन्तु हम लोग खाते थे क्योंकि गाँव से स्कूल कालेज पांच मील दूरी पर था. टिफिन के बारे में हम जानते भी नहीं थे. स्कूल कालेज जाना होता या छुटि में खेतों जंगलों में. सुबह खाते थे, दौड़ते भागते और ऊधम मचाते तो कुछ ही देर में पेट की अंतड़ियाँ ऐंठने लगती थी. फिर जो मिलता सब खाते और आश्चर्य कि सब पचता.
शायद यही वजह रही होगी कि पहली बार मैंने दवाई अठारह उन्नीस साल की उम्र में खाई. जबकि गाँव में कई बार हाथ पांव कटे, पेड़ों व पहाड़ों से गिरे भी, पेट दर्द हुआ या ज्वर बुखार भी आया, एक बार जहरीले बिच्छू ने भी काटा पर सारा उपचार घर पर ही माँ व दादी कर लेती थी.
क्या नाम दूं ? आयुर्वेद ही तो न ?
भारत भूषण सर...होमिओपैथी में भी विदेशी ताकतें ही छाई हुई हैं...इसमें भी डाक्टर ज्यादा तौर पर जर्मन दवाओं को लेने के लिए कहते हैं...कारण देते हैं डाक्टर की वो ज्यादा सही और असरदार होती हैं...इसका मतलब की हमारे देश की दवाएं किसी काम की नहीं हैं...गलती कहाँ है ये जानने और सोचने की बात है.
नमस्कार,
आयुर्वेद के विषय मेँ बहुत ही सारगर्भित व विचारोत्तेजक लेख लिखा है आपने ।
आज देश मे भ्रष्टतम व्यवस्था के अन्तर्गत जो लोग सत्ता पर काबिज है उन्हेँ देश की कोई चिन्ता नहीँ है । ये अंग्रेजी मानसिकता के गुलाभ देश को लूट कर अपने घर भर रहे है ।
देश मे स्वदेशी तन्त्र स्थापित होने पर ही अपनी सांस्कृतिक विरासत की रक्षा संभव है ।
क्या बात है!!
आपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 02-07-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-928 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
.. .बहुत सुन्दर है . बहुत बढ़िया प्रस्तुति .. .कृपया यहाँ भी पधारें -
ram ram bhai
रविवार, 1 जुलाई 2012
कैसे होय भीति में प्रसव गोसाईं ?
डरा सो मरा
http://veerubhai1947.blogspot.com/
बहुत बढ़िया लेख दिव्या बहन , शानदार ..
ऋषि मुनि अरु विद्वान का लुप्त हो रहा स्वेद
धनवंतरि की देन ज्यों , अपना आयुर्वेद
अपना आयुर्वेद , उपेक्षित मातृभूमि पर
दुनियाँ वाले आये , लौटे ज्ञान सीख कर
दूजों को पूजा अपनों को किया तिरस्कृत
भूल सुधारें आयुर्वेद को करें प्रतिष्ठित |
प्रवीण जी से सहमत. हमारे क्षेत्र में यह भी कहा जाता है :-
घर का जोगी जोगड़ा, आन गाँव का सिद्ध.
आन (दूसरे)
always the case, our literature is so huge and so much yet we spend so much time trying to understand English literature ..
same is the case with all that you have mentioned
Bikram's
आयुवैदिक पद्धति की सबसे बड़ी विशेषता यह कि वह जड़ से इलाज करती है ,दवा के ऐसे रिएक्शन नहीं होते जौसे एलोपैथी में. प्राकृतिक होने के कारण शरीर सहजता से ग्रहण करता है .
जिसे 'देसी इलाज' कहते हैं वह भी इन टीम-टाम वाली दवाओं से अधिक प्रभावी ,सुलभ और सस्ता है.
पर ऊंचे लोग समझें तब न !
कुछ लोगों को ये संशय है की आयुर्वेद में 'आपातकालीन चिकित्सा' नहीं है। लेकिन इमरजेंसी सेवा के दौरान किसी पैथी के चिकित्सक का रोल नहीं है, अपितु अस्पताल में उपलब्ध चिकित्सा उपकरणों का अधिक रोल है। यदि आयुर्वेदिक चिकित्सालयों को भी विज्ञान के उन्नत उपकरणों द्वारा सुसज्जित रखा जाये तो वहां भी मरीज को तत्काल आपात चिकित्सा सेवा मिल सकती है. लेकिन सरकार और आम जनता का सौतेला रवैया या फिर अज्ञानता ऐसा होने नहीं दे रही. अतः ये कहना एकदम निराधार है की आयुर्वेद में आपात सुविधा नहीं है।
डॉ दिव्या जी जय श्री राधे सच में बहुत लोगों के मन में ये है की इससे आराम बहुत समय बाद मिलेगा और इतना वक्त इन्तजार कौन कैसे करे लेकिन इस में बहुत कुछ दम है सच में पारखी नजरें चाहिए और धैर्य ..सुन्दर जानकारी
आभार
भ्रमर ५
Arun Nigam ji, You expressed the fact beautifully in those lines.
वह दिन दूर नहीं जब आधुनिक एलोपैथिक चिकित्सक अपनी दवाइयाँ छोड़कर आयुर्वेदिक औषधियों का प्रयोग करने लगेंगे। इंडियन मेथड ऑफ़ रिनोप्लास्टी आज पूरी दुनिया में प्रचलित है। आयुर्वेदिक औषधियों में ड्रग रजिस्टेंस जैसी बात नहीं हुआ करती।
विनीत कुमार जी, मैनें भारत में बनी होमियोपैथिक दवाओं का प्रयोग किया है और चमत्कारिक परिणाम मिले हैं. एक मरीज ने एक बीमारी के लिए लगभग 50-60 हजार रुपये खर्च करने के बाद भी उस बीमारी से मुक्त नहीं हो सका और भारत में बनी Lycopodium 200 मात्र एक खुराक से ठीक हो गया। आज सात-आठ साल हो रहे हैं। पुनः वह रोग वापस नहीं आया. होमियोपैथ का केवल यह भ्रम है कि जर्मन दवाएँ अच्छा काम करती हैं।
सिकन्दर जब भारत से वापस गया तो सपेरे, toxicologist, वैद्य और अन्य कई विद्वानों को अपने साथ वापस ले गया था। बाद में अलेक्ज़ेन्द्रिया में चरक संहिता आदि ग्रंथों का अरबी ( फ़ारसी मे नहीं) में अनुवाद किया गया। यह चिकित्सा पद्यति अलेक्ज़ेंड्रिया से ग्रीस आदि योरोपीय देश पहुँची। इसमें कुछ स्थानीय अरबी जड़ी-बूटियों का भी समावेश किया गया, अब तक अरबी में अनूदित हुये आयुर्वेद का रूपांतरण यूनानी चिकित्सा के रूप में सुस्थापित kar liya.
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बाद में योरोपीय लोगों ने इसी यूनानी का रूपांतरण तत्कालीन चर्च में होने वाली देशी चिकित्सा के साथ मिलाकर आयुर्वेद के दो महत्वपूर्ण सिद्धांतों को अपनाकर एलोपैथी के रूप में किया।
अगले चरण में इसी एलोपैथी से होमियोपैथी का जन्म हुआ। अर्थात् होमियोपैथी सबसे नवीन पध्यति है।
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आयुर्वेदिक चिकित्सा में औषधि प्रदान करने के मूल 6 सिद्धांत हैं। जिनका उपयोग अन्य चिकित्सा पद्यतियों में किया गया है।
1- व्याधि के विपरीत चिकित्सा। Treatment against to the disease ( we usually called it symptomatic treatment)
2- व्याधि के कारण के विपरीत। …against to the cause of the disease
3- व्याधि और कारण दोनो के विपरीत चिकित्सा। ..against to both the cause and disease.
4- व्याधि के समान चिकित्सा। …similar to the disease
5- व्याधि के कारण के समान चिकित्सा। …similar to the cause of the disease
6- व्याधि और कारण दोनो के समान चिकित्सा। similar to both the cause and the disease.
आयुर्वेद आवश्यकता के अनुसार इन सभी का प्रयोग करता है। क्रम संख्या 1&2 का सिद्धांत एलोपैथी को पसन्द आया और उसे अपना लिया। क्रम संख्या 5 का सिद्धांत ( treatment similar to the cause of the disease) होमियोपैथी को पसन्द आया और उसे अपना लिया। यूनानी ने आयुर्वेद के सभी सिद्धांतों को अपनाया। इसीलिये यूनानी में भाषा को छोड़कर आयुर्वेद से बड़ी समानता है।
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राजा जनक ऑफ़्थैल्मोलॉजिस्ट थे जिन्होंने सबसे पहले कैटारेक्ट का ऑप्रेशन किया था। रावण पीडियाट्रिशियन, गायनेकोलॉजिस्ट और ऑब्स्टेट्रिशियन के साथ-साथ अलकेमिस्ट और नाड़ीविद्या का भी विशेषज्ञ था। वैद्य जीवक ने महात्मा बुद्ध के एनो-रेक्टल फ़िस्चुला का ऑप्रेशन तक्षशिला विश्वविद्यालय में किया था। शल्य चिकित्सा में हुयी पीड़ा के कारण बुद्ध ने शल्य को आसुरी चिकित्सा घोषित कर दिया। तब से आयुर्वेदिक शल्य चिकित्सा का पतन शुरू हो गया।
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जलौका( लीच) का प्रयोग आज भी कई व्याधियों में किया जाता है। इन्दौर में तो इसे कॉस्मेटिक ट्रीटमेंट का रूप दे दिया गया है। मुहासों की चिकित्सा में आज इसका भूरिशः प्रयोग हो रहा है। इसके अतिरिक्त एक्ज़ीमा, सोरियासिस, सप्यूरेटेड वूण्ड्स, गैंग्रीन, R.A., O.A., GOUT आदि में भी इसका प्रयोग जयपुर के आयुर्वेदिक संस्थान में हो रहा है। स्टिचिंग के लिये चींटी के अतिरिक्त धागे का भी प्रयोग किया जाता था। सुश्रुत संहिता में स्टिचिंग के कई प्रकार बताये गये हैं।
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आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति का एक बहुत ही छोटा भाग हैं "अम्ल,क्षार और लवण" एलोपैथी चिकित्सा केवल "लवण" आधारित अर्थात "साल्ट" बेस्ड है तभी उसमें प्रत्येक औषधि के "साइड इफ़ेक्ट्स" हैं अर्थात एक दवा के काट के लिये दूसरी व दूसरी के काट के लिये तीसरी दवा दी जाती है मरीज की जेब भी कटतीं और अन्त में उसका गला भी यह गोरखधंधा भारत में आजकल खूब फल फूल रहा है.ब्लॉग पर समीचीन मुद्दा उठाने के लिये मेरा साधुवाद....
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उम्दा प्रस्तुति के लिए आभार
प्रवरसेन की नगरी प्रवरपुर की कथा
♥ आपके ब्लॉग़ की चर्चा ब्लॉग4वार्ता पर ! ♥
♥ पहली फ़ूहार और रुकी हुई जिंदगी" ♥
♥शुभकामनाएं♥
ब्लॉ.ललित शर्मा
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आत्म-गौरव करने वाला आलेख ... बहुत उपयोगी भी.
टिप्पणियों में भी उपयोगी जानकारी कूट-कूटकर भरी है.
सुबीर रावत की टिप्पणी ने प्रभावित किया.... अरुण कुमार निगम जी की कविताई भी बहुत अच्छी लगी.
एक बात नहीं समझ पाया... स्टिचिंग में धागे के बजाय काले चींटे/चींटी का प्रयोग कैसे लिया जाता है?
Pratul ji, The answer of your question is a detailed one. Will try to explain soon.
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The comment i did on lalit ji's post is useful here also...
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ललित जी , आपकी पोस्ट में दो पृथक विषयों पर चर्चा है। एक 'पैथी' और दूसरा है 'नीम-हकीम-डाक्टर' ।
पोस्ट को पढ़कर प्रथम दृष्टया ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो 'पैथी' पर चर्चा हो रही हो और एलोपैथी के सिवा अन्य सभी चिकित्सा पद्धतियाँ 'नीम हकीम' की श्रेणी में आती हों।
यदि नीम-हकीम ( तथाकथित डाक्टरों ), की बात कर रहे हैं आप , तो वे फर्जी लोग किसी भी पद्धति को अपनाकर , उसके साथ उस पद्धति को ही बदनाम कर देते हैं।
अतः पढ़े लिखे लोगों को चाहिए, की वे अनपढ़ों को पहचाने , तथा किसी पैथी के प्रति द्वेष न रखें। वैसे पढ़े-लिखे लोग इतने जागरूक हैं की वे गवारों की तरह झाड-फूंक वालों के पास नहीं जाते । विज्ञान के विस्तार के साथ चिकित्सा बहुत सुलभ हो गयी है आजकल ।
मुझे तो होमियोपैथिक , आयुर्वेद और एलोपैथी , तीनों में ही बराबर विश्वास है। लेकिन एलोपैथिक दवाईयों के साईड-इफेक्ट्स देखते हुए, उसका उपयोग बहुत ज़रूरी होने पर ही करती हूँ , अन्यथा नहीं।
आपने कडवी-मीठी आयुर्वेदिक दवाईयों का जिक्र कुछ derogatory अंदाज़ में किया है। जबकि यथार्थ तो ये है की आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में "षड रसों ' का वर्णन है। मधुर, तिक्त, कषाय आदि आदि...। नीम हकीम इसे खट्टा-मीठा कहकर दुष्प्रचारित करता है जबकि डिग्रीधारी आयुर्वेदिक फिजिशियन , उस द्रव्य में उपस्थित रसायनों के आधार पर , उसके गुण-धर्म को समझकर ही उसे prescribe करता है। करेला हो अथवा लशुन, दालें हों अथवा शाक-भाजी, सभी के अन्दर उनके रसायन और उपयोगी तत्व मौजूद होते हैं। जिनकी जानकारी उसके सही प्रारूप में उस पद्धति के चिकित्सक के पास होती है। और वही उसका सही उपयोग जानता है।
अतः पढ़े-लिखे, नॉन-मेडिकल लोगों को अन्य चिकित्सा पद्धतियों का सम्मान करते हुए , उसके जानकार/विशेषज्ञ चिकित्सक के पास ही जाना चाहिए। दादी-नानी के नुस्खों से काम नहीं चलेगा।
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By Dr Kaushalendr--
स्टिचिंग के लिये चीटों का प्रयोग -
स्टिचिंग के लिये सामान्यतः सूत्र का प्रयोग ही किया जाता था किंतु जहाँ स्टिचिंग पीड़ादाई हो वहाँ इंसीजन वाले स्थान पर काले चीटों से कटवाया जाता था बाद में चीटों के सिर को बाकी शरीर से पृथक कर दिया जाता था। ऐसा उन रोगियों में भी किया जाता था जो नीडिल देख कर ही डर जाते थे अर्थात हीनसत्व वाले या सुकुमार प्रवृत्ति के लोग थे, साथ ही जहाँ इंसीजन बहुत गहरा नहीं किया जाता था। चीटों से कटवाने से पूर्व चीटों को हरिद्रा के जल में शोधित किया जाता था। लीच को भी प्रयोग से पूर्व हरिद्रा के जल में कुछ समय रखकर शुद्ध किया जाता है।
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आयुश नमक एक विभाग मात्र बन देने से कुछ् नहि होने वाला किन्तु वर्तमान सेकुलर सरकार तो इसे भी साम्प्रदायिक्ता का नाम देगी.
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Today, Ayurveda is one of the six medical systems that are officially recognized by the Indian Government, the others being allopathy (modern medicine), homeopathy, naturopathy, unani, siddha and yoga therapy. The practitioners of the six systems must compete for patients with each other and with a profusion of practitioners of other medical skills, including itenerant tonic sellers, pharmaceutical representatives, village curers, bone setters, midwives, exorcists, sorcerers, psychics, divines, priests, astrologers, grandmothers, wandering religious mendicants and experts in such maladies as snakebite, hepatitis, infertility and ‘sexual weakness’. Indian people talk knowingly or not in the Ayurvedic idiom. Even the illiterate peasant of a remote village knows that yoghurt causes phlegm to accumulate in the chest, and everyone uses simple herbs like vetiver (cus cus) which remove ‘heat’ from the body and makes life during the hot summers a little more bearable. Ayurvedic thought is part of the conceptual universe of every Indian and has been a part of its collective consciousness since very early times.
“The difficulty lies not in the new ideas, but in escaping the old ones, which ramify into every corner of our minds.”
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Very energetic post, I loved that a lot. Will there be a part 2?
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