कभी सोचा है की इन नाज़ुक धागों पर क्या क्या लिखा होता है। समय की परतों के नीचे दबे , ढेरों खट्टे-मीठे शब्द , जिसको सींचते हुए हम सब काफी दूर निकल आते हैं। कभी भाई-बहन , कभी दो बहनों के बीच की डोर , कभी दो दोस्त । कितनी बातें । कितने लम्हे साथ गुज़ारे हुए । दुनिया जहां की बातें करते हैं हम दोस्त। दुःख और सुख में अनेकों बार शरीक होते हैं एक दुसरे के। जरूरत के वक़्त आंसू भी पोंछे होते हैं एक दुसरे के। बहुत बार सहारा बनते हैं हम एक दुसरे का ।
हज़ारो मुश्किलें आयें , लेकिन एक दोस्त की मीठी सी सांतवना सारे गम भुला देती है। ये होती है दोस्ती की महिमा। हर क्षण हम अपने दोस्तों के एहसानों से उपकृत होते रहते हैं। जो अपने प्यार से हमें गहरा बाँध लेता है और कठिन क्षणों में हमें हर तरह के दुखों से उबार लेता है, एक नया जीवन देता है। उससे हम कैसे मुह मोड़ सकते हैं ? क्यूँ हम कभी कभी छोटी -छोटी बातों को सीने से लगाकर अपने दोस्त से दूर हो जाते हैं। क्या ये एहसान फरामोशी नहीं ?
सुख के बिताये हुए सौ पलों को , एक पल में ही, एक झटके में तोड़कर हम अलग हो जाते हैं? क्या यही संस्कार है ? यही शिक्षा है ? यही दोस्ती और प्रेम है ? जो अपने होते हैं , वो कभी दूर नहीं होते चाहे जितने झगडे होआपस में। लेकिन जब अजनबियों के साथ एक दोस्ती का , विश्वास का, सौहार्द्य का और अपनेपन का रिश्ता कायम होता है , तो क्यूँ उसकी अवधि अल्पकालिक होती है । क्या सब दिखावा होता है । क्या मौकापरस्ती होती है । या रिश्तों के साथ खिलवाड़ होता है ।
हमारी भारतीय संस्कृति में ही सबसे ज्यादा महत्त्व रिश्तों और संबंधों का है । ऐसा विश्व के दुसरे हिस्सों में कम ही देखने को मिलता है। तो क्या हमें रिश्तों को सहेज के रखने की कोशिश नहीं करनी चाहिए ? बहुत मुश्किल से मिलते हैं दोस्त । बहुत मुश्किल से मिलते हैं भाई-बहन। बहुत मुश्किल से मिलते हैं साथी जिनके साथ लगता है -- कुछ अपना-अपना सा।
अक्सर हम अपने अभिमान, स्वाभिमान और अहंकार को संभाल नहीं पाते और जल्दबाजी में किसी की बात बुरी लगने पर उसके खिलाफ कठोर कदम उठा लेते हैं फिर पछताते हैं। सदा के लिए दूर हो जाने की मुनादी कर देते हैं। क्या जरूरी है रिश्तों को चिंदियों में बिखेरना।
दुश्मन बनाना बहुत आसान है , लेकिन क्या हम कोशिश करते हैं अपनों को अपने साथ बनाए रखने की । दूर जाकर तो दोनों ही दुखी रहते हैं । फिर जीत किसकी ? जहाँ अपनापन होता है, जहाँ मर्यादाएं हैं, जहाँ रिश्ते संस्कारों और प्रेम में पगे होते हैं , वहाँ नफरत का क्या काम । प्रेम की आंधी जब हिलोरें लेती है तो समेट लाती है , बिखरे हुए पलों को और वापस बाँध देती है एक सूत्र में। उसी प्रेम के धागे में , जिस पर समय ने बहुत से सुनहले मोती टांक रखे हैं।
संतुलित आहार की तरह हमारा व्यवहार भी संतुलित होना चाहिए। न तो हमें इतना मीठा होना चाहिए की कोई हमें निगल ले, न ही इतना कड़वा की लोग थूक दें। रिश्तों में दरार न आये इसकी कोशिश करनी चाहिए लेकिन यदि दो-तरफ़ा सहारा न हो तो रिश्ते को एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ देना चाहिए , बिना किसी को लज्जित किये।
ताकि , कभी आमने-सामने हों तो मुस्कुरा सकें। और आँख न चुरानी पड़े।
ब्लॉग-जगत , ये स्नेह का धागा और हम -
ब्लॉग जगत में अक्सर ये देखा है, लोग छोटी-छोटी बातों पर खफा होकर , अपने साथी ब्लोगर्स को नीचा दिखाने के लिए उसके खिलाफ गोल-मोल लेख लिखते हैं , अपनी भड़ास निकालते हैं और आमंत्रित करते हैं अन्य लोगों को भी इस हवन में नफरत की आहुति देने को। इस तरह के कृत्य निंदनीय हैं और हमारी छोटी मानसिकता को इंगित करते हैं। ऐसे कृत्य गुटबाजी को भी जन्म देते हैं। हमें बचना चाहिए इसे ईर्ष्यायुक्त कृत्यों से।
कुछ उम्रदराज लेखक/लेखिकाओं को भी इस तरह की भावना से ग्रस्त देखा है । जो मन में क्षोभ उत्पन्न करता है। जब बड़े ही ऐसा लिखेंगे तो युवा क्या सीख लेंगे ? जो ब्लोगर्स ऐसे लेख लिखते हैं, वो ये दिखाना चाहते हैं की वो एकदम सही हैं और जिनके बारे में लिखा है वो गलत हैं। लेकिन वो ये भूल जाते हैं की सही-गलत का निर्णय हर व्यक्ति अपनी बुद्धि और अनुभवों के आधार पर करता है, ऐसे लेखों के आधार पर नहीं। इसलिए हमें ऐसे लेखों से बचना चाहिए। विषय पर लिखिए। किसी व्यक्ति की निंदा करने में अपना समय मत गवाइये । समय मूल्यवान है।
-------------------------------
कभी-कभी जब विचार न मिलें तो सीखना चाहिए एक दुसरे के विचारों का सम्मान करना । कभी कभी चुप होकर भी अपनी असहमति जताई जा सकती है। लेकिन दूरी बना लेना तो कोई उपचार नहीं। घृणा को पालना तो कोई हल नहीं। और गुटबाजी तो राजनीतिज्ञों की बपौती है, इसे अपनी अमानत मत बनाइये।
दूर ही जाना था , तो पास मेरे तुम आये क्यूँ ।
नहीं निभाना था, तो ये रिश्ते तुमने बनाए क्यूँ ॥
प्रेम के धागे , बहुत नाज़ुक होते हैं, इन्हें जतन से संभालिये । आप चले जाते हैं , लेकिन आप नहीं जानते की आपके साथ बहुत सी सकारात्मक ऊर्जा भी चली जाती है। इसलिए बने रहिये और बनाये रखिये इस अपनेपन के एहसास को ।
मेरे मन का धागा प्रेम का, इसे मत तोड्यो चटकाय....
62 comments:
आपकी पोस्ट ने रहीम दास जी का दोहा याद दिला दिया. दोहा है:-
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय.
टूटे से फिर न मिले, मिले गाँठ पड़ जाय .
संबंधों में टूटन वर्तमान कि आम समस्या है. कारण भी साफ़ है. प्रेम चाहे बेटे का माँ के प्रति हो,भक्त का ईश्वर के प्रति हो,पति-पत्नी का एक दूसरे के प्रति हो ,चाहे दोस्तों का एक दूसरों के प्रति हो, प्रेम सदैव समर्पण चाहता है. बड़े बड़े आलेख प्रेम को परिभाषित नहीं कर पाते हैं क्योंकि प्रेम तो समर्पण में है.
दीवाली आपको बहुत बहुत मुबारक.
कुँवर कुसुमेश
प्रेम.... मेरे लिए ये बड़ा उलझा हुआ विषय रहा है.
वैसे तो मैं तो आज तक सही ढंग से ये समझ ही नहीं पाया हूँ की सच्चा प्रेम है किस चिड़िया का नाम. मेरे लिए तो सच्चा प्रेम वो है जिसमे मैं जिससे प्रेम करता हूँ उससे किसी भी प्रकार की कोई अपेक्षा ना रखूं. वो चाहे तो मुझे प्यार करे और ना चाहे तो ना करें. मेरा प्रयास तो बस इतना सा रहता है की जिसे मैं जिसे प्रेम करता हूँ उसके लिए मेरा प्रेम कहीं बोझ या परेशानी ना बन जाय. मेरी इस मानसिकता की वजह से मुझे प्रेम का धागा चटकने का कोई भय नहीं सताता.
दूर ही जाना था , तो पास मेरे तुम आये क्यूँ ।
नहीं निभाना था, तो ये रिश्ते तुमने बनाए क्यूँ ॥
....................................
मुझे समझ में नही आ रहा है कि तरिफ के किन शब्दों क इस्तेमाल करुँ. बहोत ही अच्छा लिखा है आपने.................शुभकामनाएँ
संतुलित आहार की तरह हमारा व्यवहार भी संतुलित होना चाहिए। .........sarthak post hetu abhaarrrrrrrr
..
पोस्ट पढ़कर एक चित्र मन में घर कर गया.
"क्रिकेट मैच में जब कोई ओपनर शानदार बेटिंग कर रहा होता है तो कुछ सीनियर साथी प्लेयर सोचते हैं कि ये जल्दी आउट हो और मेरी बारी आये.
तो कुछ सोचते हैं कि कम-से-कम कोई तो टीम में है जो रन बनाने का हमारा बोझ कम कर रहा है.
कुछ उम्रदराज़ प्लेयरों को कम उम्र वाले प्लेयर को खेलता देख खुशी होती है तो कुछ उसके खिलाफ साजिश में जुट जाते हैं.
'कैसे न कैसे उसे टीम से मुक्ति दिलायी जाए' यही उद्देश्य उनके जीवन का लक्ष्य बन जाता है तब वे प्लेयर अपने खेल पर कम दूसरे के खेल पर ज़्यादा ध्यान देने लगते हैं.
अच्छी भावना से दूसरे की सराहना या आलोचना करना सुखद होता है और तार्किक समीक्षा से जितना आनंद मिलता है उतना आनंद तो अपने मौलिक लेख से भी नहीं मिलता.
आपके लेख इस दृष्टि से बेहद उम्दा होते हैं कि वे हमारी सोयी हुई प्रतिक्रियाओं को जगा देते हैं. जो तटस्थ रहना भी चाहे रह नहीं पाता. जिसे आपके टिप्पणी बॉक्स में आकर शर्म आने लगे वे द्वेष रखने वाले अपने-अपने ब्लोगों पर उछल-कूद करते दिखायी देने लगते हैं.
..
मुझे तो कहीं कोई गुटबाजी नहीं दिखी... आपकी इस बात से सहमत कि "रहिमन धागा प्रेम का"..
वाकई अच्छा लेख लिखा डॉ दिव्या श्रीवास्तव खास तौर पर ब्लाग्स के बारे में ! ! दीवाली की शुभकामनायें !
आज आपने एक अति विचारणीय बात कही है। हम रिस्ता ही सिर्फ प्रेम और दोस्ती का है यदि इसमे भी गुट बाजी होने लगी तो हमारा रिस्ता ही कहँा रह जायेगा।
हमारे बडे ब्लागरो को ये बात समझनी चाहिए और मुझ जैसे नये बच्चे के लिए एक मिशाल छोडनी चाहिए। अगर आप को किसी की कोई बात अच्छी नही लगती तो चुप रहिये क्योकि क्षमा भी एक बहुत बडा बडप्पन है।
sarthak lekh.......
ek gujarish hai likh kar pad liya karo taaki tankan kee galtiya swayam hee theek kar sako.......".that "kee jagah jub likhana ho to ki theek rahta hai varna badee kee ban jata hai .blog par ye kafee dekhne ko milta hai par aap mujhe deedee kahtee hai isee se bata rahee hoo ....anytha nahee lena.
टूट चेके होते हैं chuke
ati sunder vichar.....anukarniya....prasansniya.
pranam.
आप भी कैसी कैसी बातों को दिल से लगाकर बैठ गयीं हैं...त्यौहार का मौका है, जल्दी से जाईये और मेरी तरफ से मिठाई खरीद कर खा लीजिये...:) अरे शुक्रिया की कोई बात नहीं है..इतना तो फ़र्ज़ बनता है मेरा...
मीठी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय
औरों को शीतल करे आपहूं शीतल होय...
और हाँ आपसे भी अनुरोध है आप भी ऐसे वैसे ब्लोग्स पर जाकर टिपण्णी न ही किया करें ...उनका तो मकसद ही है गन्दगी फैलाना..अब कीचड में पत्थर फेकियेगा तो छीटें तो पड़ेंगे ही...
और हाँ कुछ रिश्ते टूट जाएँ , शायद इसी में भलाई होती है...इसलिए जो जा रहे हैं उन्हें जाने दें जो आपके साथ खड़े हैं वही आपके अपने हैं...
हमारी भारतीय संस्कृति में ही सबसे ज्यादा महत्त्व रिश्तों और संबंधों का है । ऐसा विश्व के दुसरे हिस्सों में कम ही देखने को मिलता है। तो क्या हमें रिश्तों को सहेज के रखने की कोशिश नहीं करनी चाहिए ? बहुत मुश्किल से मिलते हैं दोस्त । बहुत मुश्किल से मिलते हैं भाई-बहन। बहुत मिश्किल से मिलते हैं साथी जिनके साथ लगता है -- कुछ अपना-अपना सा।
डॉ दिव्या,यही सच है बाकी मिथ्या
बढ़िया लिखा है , प्रेम के धागे तो रोज तोड़े जाते है . किसी ना किसी बहाने , कही आवाज़ होती है कही निःशब्द . कुछ लोग अपनी ऐठ में तोड़ते है कुछ आक्रांता के तौर पर . कुछ लोग कभी किसी को के खिलाफ अपमान जनक भाषा का प्रयोग करते है तो कभी उनके धागे भी जुड़ जाते है . श्रेष्ठ आलेख .
यह क्या हुआ एक ही टिपण्णी प्रकाशित हुयी..उसमे ऐसा क्या गलत लिख दिया था मैंने ????
इतना लिखना व्यर्थ हो गया....
अपने पाठकों के साथ ऐसा न किया करें...
दिव्या जी आपका कहना सोलह आने सच है रिश्तो में मिठास तब तक बनी रहती जब तक उसमे किसी तरह की गांठ न पड़ी हो ! रिश्ते इतने नाजुक होते है की एक छोटी सी बात अच्छे अच्छे रिश्तो में खटास पैदा कर देती है रिश्तो में मधुरता बनाये रखने के लिए संतुलन का होना अति आवयशक है!आपने इस लेख के माध्यम से ब्लॉग जगत में इन दिनों जो हो रहा है उस पर जो कटाक्छ किया है अच्छा लगा !मुझे तो ये समझ नहीं आता की लोग जब ब्लॉग में किसी विषय पर कोई लेख लिखते है और उस पर यदि टिपण्णी उनके समर्थन में नहीं होती तो वे बेवजह का तर्क या उदहारण क्यों देने लग जाते है या फिर टिपण्णी ही हटा दी जाती है !कहते है न की मीठा मीठा गप गप कडुआ कडुआ थू थू ............................
एकदम ठीक बात!
प्यार बांटते चलो..प्यार बांटते चलो...
"डंकाधिपति ओरामा की अवध यात्रा और दीवाली" में आप सादर आमंत्रित हैं!
दिव्या जी मेरे मन की पोस्ट लिखी आपने। १००% सहमत। लगता है इस पोस्ट पर बहुत कुछ लिखना पड़ेगा! शुरुआत करते हैं एक शे’र से
नफ़रत की तो गिन लेते हैं, रुपया आना पाई लोग,
ढ़ाई आखर कहने वाले, मिले न हमको ढ़ाई लोग।
जोड़े से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ जाये।
बहुत सुन्दर।
दिव्या जी नमस्ते
बहुत अच्छी पोस्ट लिखा है आपने ---रहिमन धागा प्रेम क़ा मत तोड़ो चटके ,---बहुत अच्छी कोशिस भारतीय संस्कृति तो प्रेम, दया, छमा,सहिसुनता ही सिखाती है सर्वेभवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया,क़ा सन्देश देने वाली परंपरा हमें इससे से नहीं डिगना ---आज यही बिडम्बना है की इसी को लोग हमारी कमजोरी समझते है और भारत ,भारतीयता को समाप्त करना चाहते है जहा-जहा हिन्दू नहीं रहा भारत नहीं रहा वहा यह संस्कृति नहीं बची -मालद्वी- एक छोटा सा देश है पर्यटक बड़ी संख्या में जाते है एयरपोर्ट ही किसी भी देवता क़ा लाकेट उतरना पड़ता है ,हिन्दू कम है तो कश्मीर अलग करने की बात होती है.
एक और बात मैंने पिछले पोस्ट पर टिप्पड़ी करते समय अरुंधती राय के बारे में अच्छी टिप्पड़ी नहीं की है आपसे निवेदन है की उसे निकल दे तो बड़ी ही कृपा होगी ,भावना में आकर मैंने वह टिप्पड़ी की थी. बहुत-बहुत धन्यवाद यह पोस्ट पढ़कर बहुत अच्छा लगा.
.
सरिता दीदी, [अपनत्व]
भूल की तरफ ध्यान दिलाने के लिए आभार। पुनः पढ़ा और दो-तीन गलतियाँ दिखीं , जो सुधार लिया है ।
.
दिव्या जी..
आपके इस लेख में भी हमेशा की तरह जवाब कम और सवाल ज्यादा थे.. मैं जब आपके लेखो को पढता हूँ
कुछ देर के लिए उदास हो जाता हूँ.. मैं नहीं जनता ऐसा क्यूँ होता है.. पर ये सच है..
वही जो आपने लिखा - वो अफसाना जिसे अंजाम तक पहुचना ना हो मुमकिन...
उसे एक खुबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा..
जब आपकी दोस्ती किसी के लिए एक उपहार ना होकर एक बोझ बन जाये... आप अपने रिश्तो में किसी
वजह से ईमानदार ना रह पायें..जब आपकी मान्यताएं, आपके संस्कार आपको उस रिश्ते में असहज करने लगे...
तो क्या करना चाहिए ??
क्या ये ठीक नहीं है की अपनी मर्यादाओं का और उन्ही से निभाए अपने रिश्ते का मान रखते हुए हमें अलग हो जाना चाहिए !!
कभी-कभी प्रेम भी एक मुसीबत हो जाता है... जो एक दुसरे पर अधिकार नहीं.. कब्ज़ा करना चाहता है...
और बस वही से बात बिगड़ने लगती है...
मेरा अपना ख्याल है की किसी के नजदीक आना हो... तो उससे जरा दूर ही रहो... और आखिर में अगर दो लोगो में प्यार मौजूद है... तो क्या वो कभी एक दुसरे से दूर रह सकते है ?
सामयिक और एकदम सटीक आलेख, आपकी बातों से पूर्णतया सहमत।...रिश्तों या संबंधों की दुनिया ही निराली है। सच्चे प्रेम का रिश्ता उन दोनों के बीच होता है, जिनके विचारों में साम्यता होती है। यह रिश्ता परस्पर विश्वास की डोर से बंधी होती है। इस तरह बंधे रिश्ते में यदि अविश्वास की बू आने लगे तो रिश्तों की डोर चटकने लगती है। लेकिन यह भी सही है कि प्रेम के सच्चे रिश्ते में अविश्वास के लिए कोई स्थान नहीं है। ऐसे प्रेम में श्रद्धा और स्नेह, दोनों का सम्मिश्रण होता है। यदि प्रेम के पात्र के प्रति, चाहे वह परिवार का सदस्य हो या फिर कोई मित्र, श्रद्धा और स्नेह दोनों एक साथ नहीं है तो ऐसे रिश्ते की डोर मजबूत नहीं होती। सच्चा प्रेम किसी प्रकार के छोटे-बड़े में भेद नहीं करता। रिश्तों की डोर में एक बार यदि अविश्वास, संदेह या शक की घुन लग गई तो उसे टूटने में देर नहीं लगती। यह टूटा हुआ धागा फिर से जुड़ तो सकता है किंतु उसमें हमेशा के लिए गांठ पड़ जाती है।
ब्लॉगिंग को परस्पर प्रेम और सद्भाना का संदेश प्रसारित करने का माध्यम मानना चाहिए, यहां नफ़रत और द्वेष का कोई स्थान नहीं होना चाहिए।
.
काफिर जी,
आप क्यूँ उदास हो जाते हैं मेरे लेखों को पढ़कर ? यदि कहीं कोई कमी अथवा त्रुटी है तो कृपया ध्यान दिलाएं । बेहतर लिखने की कोशिश जारी है।
.
एक सार्गर्भित लेख्…………………बस ऐसे रिश्ते एक तरफ़ से भी तो नही निभते ना …………दोनो तरफ़ समझदारी की जरूरत होती है……………सभी को रिश्तों की बराबर की जरूरत होती है……………बहुत सुन्दर आलेख्।
बहुत सुन्दर ....
ज्योत से ज्योत जगाते चलो ....
दूर ही जाना था , तो पास मेरे तुम आये क्यूँ ।
नहीं निभाना था, तो ये रिश्ते तुमने बनाए क्यूँ ॥ ...
आपसी संबंधों और रिश्तों का हमेशा की तरह बहुत विशद और गंभीर विश्लेषण...आपसी सहनशीलता रिश्तों और संबंधों को प्रगाढ़ करने में सीमेंट का काम करती है..आभार
काफी अच्छी सोच है...अगर बिखराव को समेत लिया जाए तो सुन्दर रचना हो सकती है...
दिव्या जी,
विलक्षण लेखनी, विचक्षण विचार!!
मानवीय कमजोरियों की परतें उघाडता संदेश।
मानवीय रिश्तों की प्रगाढता को प्रेरित करता आलेख।
मानवीय मूल्यों की स्थापना हेतू धरातल ढूढती अभिव्यक्ति॥
बिलकुल सच कहा है .दिवाली की शुभकामनायें.
दिव्याजी,
इस विषय पर चर्चा आरंभ करने के लिए आभार। इस मौके पर हम भी कुछ कहें?
यह अपेक्षा रखना के हर कोई जो हमारा ब्लॉग पढता है, वह मित्र बन गया है या मित्र बनने जा रहा है, गलत सोच है।
पुराने जमाने में हम रेल यात्रा करते समय अपने सह प्रवासियों से खूब बातें करते थे।
यात्रा समाप्त होने पर हम राम राम / नमस्ते करके अपने अपने रास्ते पर चलते थे
शुरू शुरू में ब्लॉग जगत में भ्रमण कुछ ऐसा ही है। यात्रा रेल की पटरी पर नहीं पर अन्तरजाल में होता है।
यदा कदा मतभेद होना स्वाभाविक है।
पर ताली एक हाथ से नहीं बजती।
जब ब्लॉग में मतभेद हो जाता है तो बेहतर है कि अलग अलग रास्ते से चलें।
अपशब्दों की गुंजाईश नहीं होनी चाहिए।
पर कभी कभी एक तरफ़ से गलती हो जाती है।
संयम खोकर एक पार्टी (ब्लॉग्गर या टिप्पणीकार) कुछ अनाप शनाप लिख देता है।
तब दूसरी पार्टी का इम्तेहान होता है।
परिपक्व लेखक/टिप्पणीकार जानता है कि इसका सामना शिष्टता से कैसे किया जाना चाहिए।
कभी कभी उसे नजरंदाज़ करना, और कुछ न कहने में ही समझदारी है।
पर कुछ लोग तो इसे कायरता समझते हैं और चुप नहीं रह सकते।
चुनौती समझकर, उलटे वे भी कुछ लिख देते हैं और मामला फ़िर बिगड जाता है।
तू तू मैं मै से शूरू होकर तू तू तू मैं मैं मै बनकर और आगे बढ जाता है।
continued
एक और बात हमने नोट की है।
ब्लॉग्गर लोग एक दूसरे के बारे में अपने अपने ब्लॉगों में लिखने लगे हैं।
कभी कभी बिना नाम लिए लिखते हैं पर इससे कोई फ़र्क नहीं पढता।
पढने वाले आसानी से समझ जाते हैं किसकी चर्चा हो रही है।
यदि हर ब्लॉग्गर और टिप्पणीकार केवल विषय पर ही लिखता है, और यदि गंभीर मतभेद होने पर अपने अपने रासते नापते हैं और एक दूसरे पर आरोप/प्रय्तारोप नहीं करते तो समस्या खडी ही नहीं होगी।
मेरा सुझाव है कि आजसे ही, हर ब्लॉग्गर किसी अन्य ब्लॉग्गर पर व्यक्तिगत कमेंट न करें।
ब्लॉग्गर किसी टिप्पणीकार को न फ़टकारें भले ही उसने कुछ बेतुकी बात लिख दी हो
टिप्पणीकार को एक मेहमान का दर्जा दिया जाए ।से अपनी बात कहने दीजिए और यदि उसने बहुत ही भद्दी टिप्पणी की है, तो उसे मिटा दें।
यदि व्यत्किगत विषयों पर केसीसे विवाद जारी रखना चाहते हैं तो प्राइवेट ई मेल से अपनी बात कहें। उसे सार्वजनिक तमाशा न बनाएं।
और यदि सुलह न होती है, तो एक दूसरे के ब्लॉग पढना और टिप्प्णी करना बन्द कर दें। उनके ब्लोग पर आना/जाना भी बन्द कर दें
पर आमतौर पर देखा गया है कि कुतूहलवश कभी वे एक दूसरे के ब्लॉग पर झाँकने से अपने आप को रोक नहीं सकते।
ब्लॉग जगत के रिश्ते शुरू में और काफ़ी कुछ समय तक मैत्रीपूर्ण पर औपचारिक ही रहें। उसे पक्की दोस्ती में बदलने के लिए समय देना चाहिए।
ब्लॉग्गर / टिप्पणीकार का चरित्र आरंभ में पता नहीं चलता। उसके लेखों से, धीरे धीरे पता चल जाता है कि किस किस्म का आदमी/महिला है।
उसके बाद ही रिश्ते को आगे ले जाने में समझदारी है।
ब्लॉग जगत में मेरी कई लोगों से अच्छी दोस्ती है।
मेरा दुर्भाग्य है के एक या दो लोग ऐसे मिले जिन्हें किसी कारण मेरे नाम से ही allergy है।
मेरा मानना है कि मैंने अब तक ऐसा कुछ नहीं किया जिससे वे लोग कह सकें कि नाराजगी जायज है।
कभी कभी सोचता हूँ कि क्या बिना किसी के खिलाफ़ कुछ कहे, किसी एक ब्लॉग्गर का समर्थन करना और उसे प्रोत्साहित करना कोई पाप है?
क्या इसके कारण उस ब्लॉग्गर से मतभेद रखने वाले मुझसे भी नाराज हो रहे हैं?
हम उनसे बहस ही नहीं करते। इसे मेरा दुर्भाग्य समझकर बात को वहीं रहने देता हूँ
उनके खिलाफ़ मैं कभी कुछ भी नहीं लिखता। इस आशा में रहता हूँ कि समय आने पर वे अपनी नाराजगी भूल जाएंगे।
हम उनसे बिलकुल नाराज नहीं हैं, केवल हालत पर दुखी हैं।
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
दूर ही जाना था , तो पास मेरे तुम आये क्यूँ ।
नहीं निभाना था, तो ये रिश्ते तुमने बनाए क्यूँ ॥
...sach mein blog ke madhayam se hi sahi ek aatmik lagav sabse bana rahe isse achhi aur kya baat ho sakti hai... rishte yun hi to vishwas se bante jaate hai..
..bahut achha laga aapsi rishton kee pragaadta bhara aalekh... aabhar
रहीम सर्वकालिक हैं और चटकाने वाले भी राहु जैसे अमरत्व पाए है जी
_________________________________
एक नज़र : ताज़ा-पोस्ट पर
मानो या न मानो
पंकज जी को सुरीली शुभ कामनाएं : अर्चना जी के सहयोग से
पा.ना. सुब्रमणियन के मल्हार पर प्रकृति प्रेम की झलक
______________________________
दिव्या जी , इस आभासी दुनिया के रिश्ते भी आभासी ही होते हैं ।
ज्यादा तूल मत दीजिये ।
बस अच्छा लिखते रहिये ।
लोग खुद ही चुप हो जायेंगे ।
वाकई बहुत बार इच्छा नहीं होती, असहमति होती है, फिर भी इंसानियत कुछ और ही चीज है जो जारी रहनी चाहिये। क्योंकि इंसानियत की उष्मा में ही बदलावों की संभावना बनती है।
कोई हमको अपना माने , माना मुश्किल होता है,
दो पल कोई साथ चले , माना मुश्किल होता है,
गम हाथ बढा कर कोई बाँटे, माना मुश्किल होता है
कोई मुश्किलों में साथ निभाये , माना मुश्किल होता है
मगर
हम गैरों को अपनाये , ये तो आसां होता है
दुश्मन को भी गले लगाये , ये तो आसां होता है
रिश्तों को दिल से निभाये ,ये तो आसां होता है
बुरी कही ना दिल से लगाये ,ये तो आसां होता है
यकी मानिये जो आज हमारी बुराई कर रहे है , वही हमारी अच्छाइयां देख कर ,एक दिन हमको अपना मित्र मानने को मजबूर हो जायेंगें ।
दिव्या जी आपको दीवाली की ढेर सारी शुभकामनायें
.
अर्थ देसाई जी की मेल से प्राप्त से प्राप्त टिपण्णी --
-------------------
@ ZEAL -
1- your post is completely trash .
2- In this post of yours you are begging with people to stay with you.
3- Your posts are worthless and you do not have a better topic to write.
5- You are looking for TRP.
6-I know you will publish the comments of big shots only.
7- If possible , try to write better and meaningful.
8- Your post is not worth commenting even .
9- A third grade post.
10- Reading your post is a waste of time.
Arth Desai
.
.
प्रेम मधुर लेकिन क्लिष्ट भाव है. आज़ादी चाहता है लेकिन दूसरे की आज़ादी से सशंकित होता है. ब्लॉगर्स की दुनिया में भी यह सच है. अपना चिट्ठा छापने के बाद उसके प्रति थोड़ा सा वैराग्य हो तो बेहतर है. अन्य की सोच का भी सम्मान करना होता है.
.
@ अर्थ देसाई-
आपके विचारों के लिए आभार। बहुत से लोग ऐसा ही सोचते होंगे , लेकिन खुलकर लिख नहीं पाते होंगे। आपने उनके विचारों को भी शब्द दे दिया।
मेरा लेखन निम्न-स्तरीय है , ये बताकर आपने उपकार किया है।
आपसे झूठ भी नहीं कह सकती की बेहतर लिखने की कोशिश करुँगी , क्यूंकि मुझे पता है, की मैं इससे बेहतर नहीं लिख सकती हूँ।
मुझे आइना दिखाने के लिए आभार आपका।
.
इस पोस्ट पर गी विश्वनाथ जी की टिप्पणी से सहमत हूँ ..उन्होंने पूर्ण विवेचना कर दी है ....
बाकी रही दोस्ती या और रिश्तों की बात तो ज़िंदगी में घर परिवार के रिश्ते हर तरह से निबाहने होते हैं ...यदि दोस्ती या ब्लॉग जगत में कोई रिश्ता ऐसे आरोपित कर दिया जाए की आपका दम ही घुटने लगे तो उससे किनारा कर लेना बेहतर है ....ब्लोग्स पर व्यक्तिगत टिप्पणियाँ नहीं होनी चाहिए ..
dear divya ji there is a request to you please ask to Mr. Daisai ji on my behalf that how one can improve the writing as well as reading skill .
and the second request is that please don't put such comment on your blog, because reading such things hearst me , and i am sure i also hears your other blog reader.
प्रेम का बंधन, जनम का बंधन, जनम का बंधन टूटॆ ना :)
बहुत सुन्दर पोस्ट है!
--
ज्योति-पर्व दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ!
प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा परजा जेहि रुचे सीस देई ले जाय।।
सनझदारी पूर्ण बातें ...
दिव्याजी... बहुत सुंदर प्रकाश पर्व पर रिश्तों से जुडी इस सुंदर
बानगी के लिए आभार..... सच संबंधों को को संभाल की ज़रुरत होती
है.... वरना गांठ पड़ते देर नहीं लगती ..... सार्थक प्रस्तुति
माता जी पार्थिव देह को छोड़ कर चली गयीं बस दैहिक यात्रा इतनी ही थी हमारे साथ, आपको भी टूटी-फूटी जुबान में याद कर लेती थीं।
nice post
दीपावली की हार्दिक शुभ कामनाये
इतनी अच्छी पोस्ट का ''अर्थ '' भी न समझने का दिखावा कर रहे लोग अर्थ का अनर्थ निकाल कर अपनी ही नफरत की आग में जलते रहेंगे , हम तो बस उन के लिए प्रार्थना कर सकते है .
.
भाई रुपेश ,
बहुत दुखद समाचार मिला आज। एक बार फिर माँ हमें छोड़ कर चली गयीं । माँ मुझे याद करतीं थीं, यह जानकार संतोष हुआ। कुछ दिनों से मन में आशंका लगी हुई थी। नकारात्मक ख़याल आ रहे थे। आपने उसकी पुष्टि कर दी। माँ के चले जाने का बेहद अफ़सोस है। माँ की आत्मा को शान्ति मिले, यही प्रार्थना है। आपने अपनी तरफ से पूरी सेवा की है। दुःख की इस घडी में हिम्मत रखियेगा।
आपकी दिव्या।
.
@ दुश्मन बनाना बहुत आसान है , लेकिन क्या हम कोशिश करते हैं अपनों को अपने साथ बनाए रखने की । दूर जाकर तो दोनों ही दुखी रहते हैं । फिर जीत किसकी ?
सही प्रश्न है। बस इतना कहना है कि
दुश्मनी का सफ़र बस क़दम दो क़दम
तुम भी थक जाओगे, हम भी थक जाएंगे।
बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
मनोज पर देसिल बयना –बाघ के घर की बिल्ली भी तेज़.
विश्वनाथ जी की टिप्पणियाँ बहुत उपयोगी हैं. मन कभी एक जैसा नहीं रहता, यह बात समझ लेना अच्छा रहता है. संतई अच्छी भी होती है.
arey rishte hi to asal dhan hote hain ...
jo rishta nibhana nahi janta hai ... wo kya janta hai ...
... shubh diwaali !!!
shradhey g.vishwnathji ki tippani ko is post ka
atma manta hoon..........
pranam.
माता जी चली गयी ये दुःख तो आजीवन ही रहेगा . जरुरत है उनके सपनो को साकार करने की . मेरी हार्दिक संवेदना है रुपेश जी को .
.
आशीष जी,
यह देखकर ख़ुशी हुई की आपके अन्दर संवेदनाएं हैं। बहुत लोग ने पढ़ा होगा लेकिन साथी ब्लोगर के दुःख को महसूस करे बगैर आगे बढ़ गए। माँ के देहांत का दुःख समझना क्या इतना मुश्किल है ? संवेदन शुन्यता की मिसाल है ऐसे प्रकरण । ब्लॉग जगत भी इससे अछूता नहीं है। दो शब्द भी नहीं हैं किसी के पास सांत्वना के।
जब पूर्व की पोस्ट पर एक व्यक्ति ने भद्दी गालियाँ दी , मोडरेशन न होने से कर्रीब ५० कमेन्ट उसके पब्लिश हो गए। शर्मसार करने वाली उन भद्दी टिप्पणियों को हमारे सभी समाज के बहुतेरे विद्वानों ने पढ़ा , लेकिन पढ़कर , निर्विकार भाव से आगे बढ़ गए। क्यूँकी अपमान उनके घर की स्त्री का नहीं हो रहा था।
असंवेदनशील समाज से क्या अपेक्षा रखें हम ।
.
RUPESH JIरुपेश जी को मेरी तरफ से सांत्वना भेज दीजियेगा... सुबह सुबह जब टिपण्णी पढ़ी मन बोझिल हो गया...
माँ ही तो धरती पर वो रूप है जिसे हम असल मायनो में भगवान् कह सकते हैं....उनकी कमी हमेशा खलती रहती है....
भगवान् उनकी आत्मा को शान्ति दे....
माँ के जाने कि खबर सुनकर मन उदास है, किसी साथी ब्लॉगर के साथ यह घटना हुई है तो मन में उदासी छा गयी. प्रभु उन्हें शक्ति दें और पुण्य आत्मा को शान्ति प्रदान करे.
फ़िलहाल आपकी इस पोस्ट से आपका साफ़ मन का होना झलकता है. जहाँ तक मेरी बुद्धि जाती है, में सिर्फ़ इतना जानता हूँ, इस संसार में सब तरह के लोग होते हैं. ज्ञानी, मूर्ख, गुस्सेल, सदाशय, ईर्ष्यालु इतियादी. शायद इसी तरह के लोग ब्लॉग संसार में भी उपस्थित हैं. जब हम संसार में रहते हुए इन लोगों के बीच में जीवन निर्वाह कर रहें हैं तो फिर ब्लॉग जगत में भी हमें निर्विकार भाव से अपना कर्म करते रहना उचित रहेगा.
शेष सभी सीनिअर ब्लॉगर्स ने इस बात पर और प्रकाश डाला है.
आपको दीपोत्सव कि हार्दिक शुभकामनाएँ.
आपकी ये पोस्ट मैंने आज पढ़ी.
बहुत उम्दा लिखा है आपने .
मैं आपसे सहमत हूँ
डाक्टर दिव्या !
इस पूरी चर्चा से मन दुखी हो गया
आदरणीय जी .विश्वनाथ जी की टिप्पणी अत्यंत सुलझी हुई है , उनकी पूरी बात से लगा कि उन्हें हम सबका (blogers) संरक्षक होना चाहिए . ...बड़प्पन की अनुभूति ...जैसे कि हमारे सर पर अभय हो .... एक मार्गदर्शक का वरद हस्त हो ....उन्हें सादर नमन .....पाय लागूँ महाराज जी ! हम सबको आपकी आवश्यकता है .......हम भटकें तो मार्ग दर्शन करते रहिएगा .
दिव्या जी ! आप लौह नारी हैं ....मुझे लगता है कि अपने विश्वनाथ दद्दा जी नें जो कह दिया है उसके आगे अब कुछ कहने की नहीं बल्कि अनुकरण करने की आवश्यकता है ....
आप तेज़ ज़रूर हैं पर भावुक हैं .....इसीलिये इतना कष्ट पाती हैं .......
छोडिये न ! ई सब त चलते रोहता है दुनिया में ..का कीजिएगा ......हर किसी की बतिया पर ध्यान देने का ज़रुरत नहीं नू है ....
Post a Comment