अब मैं अर्जुन कि तरह सौभाग्यशाली तो नहीं कि स्वयं श्रीकृष्ण मेरे सारथी बनें। लेकिन इश्वर ने हम इंसानों को विवेक [ सदबुद्धि] के रूप में एक सारथी दिया है। जो हर समय हमारे साथ रहता है , तथा अति विकट परिस्थियों में भी हमें एक उचित विकल्प प्रदान करता है। ये विवेक ही हमारा कान्हा है और कलियुग का सारथी है , जो नीर-क्षीर विभाजन कि क्षमता प्रदान करता है।
हमारा यही सारथी , थोडा सा वैरागी होने को कहता है। स्वजनों के मोह में मत पडो बल्कि अपने कर्तव्यों को प्राथमिकता दो। न तो कोई अपना है , न ही पराया। जो आज साथ है , वो कल आपका साथ छोड़ ही देगा। चाहे वो माता पिता ही क्यूँ न हों। काल के गाल में तो समाना ही है एक दिन। इसलिए बिना मोह-माया में लिप्त हुए निर्विकार भाव से अपने कर्तव्यों में संलग्न रहना चाहिए।
समाज तथा देश के लिए कर्तव्यों के पालन में अनेकानेक मुश्किलें भी सामने आती रहेंगी , लेकिन विचलित होने कि जरूरत नहीं है। हमारा सारथी , हामारा विवेक है ना हमारे साथ ।
कुछ लोगों ने , पूर्वाग्रहों के चलते मेरे ब्लॉग को भड़ास निकालने का स्थान बना लिया लिया है। अशिष्ट भाषा में गाली गलौज करते हैं तथा नीचा दिखाने का कुप्रयत्न करते हैं। विषय पर ना लिखकर व्यक्तिगत मुझ पर ही आक्षेप करते हैं। इसलिए मोडरेशन आवश्यक समझा। न चाहते हुए भी मोडरेशन लगाना पड़ा जिसका खेद है।
समाज कि भलाई सोचने के लिए खुद को भी तो जिन्दा रखना जरूरी है न ? जब मुझे गन्दी गालियाँ दे रहे थे ईर्ष्यालू लोग, तब तो किसी ने सहानुभूति नहीं जताई। इसलिए अपनी इज्ज़त अपने हाथ। मोडरेशन का कोई तो लाभ होना चाहिए । अरे भाई , भड़ास ही निकालनी है तो जाइए अपने ब्लॉग पर मेरे खिलाफ एक लेख लिखिए , जो ज्यादातर हस्तियाँ कर रही हैं। चाहे नाम लिखकर कीजिये, चाहे गोल मोल लिखिए। चाटुकार आपकी पोस्ट सूंघकर वहाँ आ ही जायेंगे।
अशिष्ट, अभद्र तथा अनावश्यक आक्षेपों वाली टिप्पणियां मोडरेट कर दी जायेंगी।
जो पाठक व्यक्तिगत होकर तथा अनर्गल प्रलापों द्वारा , लेखिका का मनोबल तोड़ने कि कोशिश करेगा , उसकी टिपण्णी भी मोडरेशन द्वारा हलाल कर दी जायेंगी। पाठकों और लेखक/लेखिका कि अपनी-स्वतंत्रता है। जिसका सम्मान किया जाना चाहिए। ना पाठकों पर टिपण्णी लिखने कि विवशता , न ही लेखक को उसे छापने कि विवशता होनी चाहिए। बस दोनों को ही अपनी अपनी कलम चलाते समय अपने शब्दों के प्रति जिम्मेदार होना चाहिए।
मन से, वचन से, और कर्म से किसी को दुःख नहीं देना चाहिए , ऐसा कहा है मुझसे मेरे सारथी ने।
एक चित्रकार ने एक एक बेहद खूबसूरत चित्र बनाया , और चित्र कैसा बना है यह जानने के लिए उसने उसे चौराहे पर लगा दिया और नीचे लिख दिया - " कृपया गलती पर निशान लगा दें "। शाम को जब वह वापस आया तो देखा, सैकड़ों निशान लगे थे उसकी गलतियाँ बताने के लिए।
चित्रकार बेहद निराश हुआ , उसकी आँख में आंसू आ गए । वो उदास होकर अपने गुरु के पास गया और पूरी बात बतायी । गुरु ने कहा, पुनः वैसा ही चित्र बनाओ और वहीँ पर लगा दो, इस बार तुम लिखना -- " यदि कोई भूल दिखाई दे तो कृपया सुधार दें " । चित्रकार ने वैसा ही किया । शाम को वहां पहुंचा तो चित्र पर एक भी निशान नहीं था। क्यूँकि गलतियां बताना बहुत आसान काम है , लेकिन कष्ट उठाकर सुधार करना सबके बस का नहीं।
सही ही तो है -- " पर उपदेश कुशल बहुतेरे "
हे विवेक ! तुम ही मेरे गुरु हो , तुम ही मेरे सारथी हो ! इस जीवन पथ पर सदैव मेरे सारथी बनकर मेरे साथ ही रहना। मुझे सही-गलत का मार्ग-दर्शन करना और मुझे किसी प्रकार के मोह में मत पड़ने देना और मुझे निर्भय रहकर सन्मार्ग पर चलने कि बुद्धि देना।
38 comments:
आपका सारथी परिपक्व है. आपमें संतई आ रही है. अच्छा लगा.
अपना स्थान को गंदगी से बचाने के लिये ताला लगाना जरुरी हो जाता है ।
विवेक सबसे बड़ा सारथी, सही दिशा वही दिखायेगा।
क्या कहूं ???
आपने कुछ कहने लायक छोड़ा ही नहीं है | सब कुछ ही बड़े सरल शब्दों में कह दिया |
ये खूबसूरत कहानी या प्रसंग आप जो कहें मैंने बचपन में पढ़ा था काफी कम शब्दों में बहुत ही ज्ञान की बातें सिखाता है |
आपको बस शुभकामनाएं देता हूँ की आपका सारथी, आपका विवेक सदैव मार्गदर्शन करे | और आपका ही क्यूँ हम सभी मनुष्यों का खासकर वैसे लोग जो अपनी राह से भटक गए हैं उनको सही रास्ता दिखाए |
विषयांतर :-
आपने पिछली चर्चा का पटाक्षेप कर दिया मेरे कुछ सवाल अधूरे ही रह गए, खैर उम्मीद है फिर कभी मौका मिले तो अपने प्यारे मित्रों से ये सवाल दुबारा पूछ लूँगा....
अच्छा ही किया moderation लगा के. अभी अभी टिप्पणिया पढी. खेद है. आपने लिखना जारी रख ...प्रसन्नता हुई. चर्चा ने नया ही मोड़ ले लिया था. समझने वाले तो समझ जाते हैं लेकिन आप बीती या फिर जब खुद में समझ में आ जाये तो. आपका कान्हा आपको सही रास्ता दिखता है...ईश्वर करे सबको ऐसा कान्हा मिले.
राजेश
विवेक बड़ी चीज है... बुद्धि से ऊपर...
Dearest ZEAL:
You alluded to Parthsaarthi and the gist of your wonderful post can be promptly aligned to -
Rok lo gar galat chale koi
Baksh do gar khataa kare koi
Naa suno gar buraa kahe koi
'Naa' kaho gar buraa kare koi
Jab tavaqqo hi uth gayi 'Ghalib'
Kyon kisi kaa gilaa kare koi
It is rightful to stop one when one errs and the insolent may be pardoned.
If someone tries to slander, ignore the person. If someone acts wrongfully, say an emphatic 'no'.
Eventually, if expectations are pointless of the person, let the person go his roadless way.
We should be guided by our inner voice as it seldom errs. The voice may ask us to voice our concerns on things around us which are not correct and when we walk that bold path, there will always be people who would try to dissuade the esteemed doer and disrupt the noble deed.
But, God gives strength to the one who has faith in what he/she has undertaken.
About moderation, sadly, you are forced to use it despite your unwillingness. We all are aware of the malevolent beings who are faceless idiots who think abusing a lady is a matter of pride. Guess, it is their upbringing where they have seen their mothers, sisters, daughthers and wives being treated so. Can't help such lot.
People abuse with prejudice and you are doing your best by using Prudence. That is the only way to deal with such moronic vermins. They have no shame or moral inhibition about their dastardly acts and we can not stoop low to their level of gutter fight. The best is to block them out, which moderation essentially empowers you to do.
Prudence shall never lead you astray and while it may hold your hand at times when you want to assault the wrong-doer but do pay heed to the voice. Therein lies your victory.
Sarvdaa, Sarvthaa Vijay Bhavo!
Semper Fidelis
Arth Desai
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शेखर जी ,
किसी भी पोस्ट पर पटाक्षेप नहीं है। आपके प्रश्नों का उत्तर जमाल साब यदि देना चाहेंगे , तो ज़रूर देंगे। अक्सर पुराने लेखों पर लोग अपने विचार अवश्य रखते हैं। जब लेख विषय पर लिखा जाता है तो वो कभी पुराना नहीं होता। जब लोग किसी ब्लोगर के खिलाफ उसे नीचा दिखने के उद्देश्य से लिखते हैं तो वो लेख निश्चय ही अपनी महिमा खो देता है।
आज चिट्ठाजगत पर , मेरे पिछले लेख के खिलाफ बहुत सी हस्तियों ने अपनी कलम चलाई है और मुझसे द्वेष रखने वालों से उनकी हाँ में हाँ भी मिलाई है ।
ऐसे लेखों को पढ़कर लबों पर मुस्कराहट आ जाती है , और मेरा सारथि मुझसे कहता है -- " जाने दो दिव्या , ये अभी नादान हैं । माफ़ कर दो इन्हें। "
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संयम और विवेक साथ रहें तो रथ को फिर कौन रोकेगा ?
मन के ऊपर बुद्धि, बुद्धि के ऊपर विवेक,
उस की सुन, फिर दुनिया को देख,
माडरेशन लगा कर अच्छा किया।
Zeal bahut sunder aalekh hai . such men wiwek he hamara sarathi ha,basharte ki hum is wiwek ko sada jagrut rakhen. Aapne moderation laga kar achcha hee kiya. kyun hum logon kee anargal bate sune aur padhen.
aap bahut achha likhti hain. चित्रकार ki kahani bahut sundar lagi aur ekdam sahi bhi.
aapki isse pahle ki dono post bhi bahut hi achi hain.
very nice
very nice
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अच्छा ... 'वि . वे . क ' !
आज़ पता चला.. मेरा यह सारथी कभी-कभी कहाँ चला जाता है !!
यही सारथी मेरा भी तो है, कभी-कभी जब यह मेरे पास नहीं होता तब कहाँ होता है? आपने बताकर अच्छा किया.
आज के समय में दो जगह काम करना विवशता भी है.
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संयम हमेशा ऐसे में साथ देता है ... पर फिर भी आपने अच्छा किया ....
आपकी कल की पोस्ट के कुछ अनुपूरक कमेंट मेरे यहाँ आए हैं. कभी देख लीजिएगा. आपने मन पर क्या झेला यह समझना आसान नहीं. धन्यवाद है कि यह ब्लॉग की दुनिया है. यहाँ पथराव तो नहीं होगा फिर भी शब्दों की चोट कम गहरी नहीं होती.
विवेक, स्वविवेक हमेशा सारथी बनता है, अच्छे विचार प्रसार करने वालो का।
आपकी विवेकशील प्रतिक्रिया को साधुवाद!!
अबोध भोगलिप्त नहिं जानते विवेक क्या होता है, वे अज्ञानी मात्र इसे ही सज्जनता मानते है कि वे जो भी करे, या कहे उसका समर्थन करना ही मनुष्यता है।
किसी भी टिप्पणी को भाषा के संदर्भ में,लेख के संदर्भ में व संदेश के संदर्भ में विवेक से प्रतिलेखना कर प्रकाशन करना अथवा न करना आपका पूर्ण अधिकार होना चाहिए।
सारथि भी हम , धनुर्धर भी हम . हमारा विवेक हमारा रथ . वीरभोग्या वसुंधरा की तर्ज़ पर विवेक भोगी ब्लॉग धरा . इन बातो को उपदेश की श्रेणी में ना रखा जाय .
अच्छा साथी चुना है आपने। कभी साथ नहीं छोड़ने वाला। यूं तो यह सबके पास है, पर पहचानने की शक्ति कुछ आप जैसे लोगों में ही है। जिसने इसे अपना मित्र बना लिया फिर जीवन की आधी दिक्कतें तो यूं ही समाप्त हो गयी समझो। आपने अपनी विवेकपूर्ण सोचों से विवेक को भी विषय बना डाला... बहुत खूब।
@ दिव्य बहन दिव्या जी !आपने बहुत अच्छा किया . आप अपना नजरिया रखने के लिए आज़ाद हैं . मैं आपका साथ दूंगा हालाँकि मैं आपसे जुदा नजरिया रखता हूँ .
गलियां देने वाले कभी अपना भी भला नहीं कर सकते , दूसरों की बात तो बहुत दूर है .
शुभकामनायें .
मतभेद का मतलब मन में बुराई रखना नहीं होता . जिससे मतभेद है उसके सामने अपनी बात रखिये और उसके लिए मालिक से दुआ कीजिये .
मालिक ने चाह तो एक वक़्त आयेगा जब आदमी सच को समझ जायेगा .
स्वविवेक व्यक्ति का आभूषण है ... स्वविवेक व्यक्ति का मार्ग दर्शित करता है .... बढ़िया आलेख प्रस्तुति..आभार
ओशो सिद्धार्थ कहते हैं-
"प्रतिक्रिया कभी हो,तो समझो,तुमने घटना को मूल्य दिया
थी लहर ज़रा सी,लेकिन तुमने,सागर-सा बहुमूल्य किया"
शुभकामनाएँ।
आपने सही लिखा गलतियाँ निकालने का कार्य आजकल ब्लॉग जगत में खूब किया जा रहा है.इसीलिए पहले जहाँ पोस्ट लिखने और फिर टिप्पणियाँ पढने में जो मज़ा था वो अब कहाँ...आदत है सो लिखते जा रहे है ,आप भी लिखिए...शुभकामनाएँ।
मन से, वचन से, और कर्म से किसी को दुःख नहीं देना चाहिए. बहुत सही कहा है आप के Charioteer-सारथी ने. गालीओं से अधिकतर ब्लोगेर परेशान हैं. मोडरेशन मैंने भी इसी करणवश लगा दिया है. अब शांति है. आप से सहमत हैं , इस बात पे.
हद है !!!!!!! या तो मैं बिलकुल मुर्ख या यूँ कह लीजिये की परम मुर्ख हूँ जो अपने मन की सीधी सी बात भी ढंग से नहीं कह पाता हूँ......... या कुछ समझदार व्यक्तियों ने अपनी समझदारी सिर्फ बात को कहीं दूसरी तरफ ले जा कर पटकने के लिए ही बुक कर रखी है..........
इस ब्लॉग की एक पोस्ट वेदों में मांसाहार की बात पर आई ................ भाई लोग आ पधारे की नहीं गधे तू कल का छोरा क्या जाने वेद-फेद ..................देख माता जी के बलि चढ़ती है तू क्यों टांड रहा है.................... अरे भाई बात यहाँ सिर्फ इतनी हो रही थी की हर चीज का अपना एक निचित विधान होता है उसी के हिसाब से सारा काम होता है अब वेद का भी अपना एक निश्चित विधान है उसी पे चलकर उसके अर्थ को जाना जा सकता है , पर नहीं वेद के हिसाब से नहीं वेवेकानंदजी की जीवनी जो पता नहीं किस ने लिखी होगी उसमें से उद्हरण देने लगे हमारे परम धार्मिक सात्विक बंधु .
बस हो गया ना मेरी पोस्ट का तो सत्यानाश!!!!!!!!!!! अरे भाई जिस प्रकार वेद में से ही वेद के ऊपर लगे आक्षेपों का निराकरण था, तो उसी तरह वेद में से ही सिद्ध करते की वेद में मांसाहार है ...बस फिर कौन किसको रोक सकता है हो गयी शुरू धींगा-मस्ती ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
अगली पोस्ट थी की सिर्फ अपने जीभ के स्वाद के लिए उपरवाले के नाम ले ले कर क्यों किसी को बलि का बकरा बना कर कुर्बान कर दिया जाये ??????????
अरे भाई खाना ही है तो खाओ उपरले की आड़ क्यों ?????????
पर नहीं यहाँ भी पोस्ट से उल्टी बात किसी की ईद खराब हो गयी अपने धर्म का मजाक लगा क्यों लगा भाई ?? समझ में नहीं आया कम से कम मुझे तो ........... परम समझदार जी प्रकटे पोस्ट से कोई लेना देना नहीं और हवन को घुसेड दिया बीच में "लाहोल-विला-कुवत" यार कभी तो समझदारी का परिचय दो, किसी पोस्ट पर पोस्ट से सम्बंधित कमेन्ट करो .................. मेरे दो मित्र शाकाहार-मांसाहार पर चर्चा कर रहे थी अपनी बात रख रहे थे उसमें भी टांग अडाई से बाज नहीं आये पर क्या करें समझदार ज्यादा ठहरे ना.
................... फिर दो वीडियो लगा दिए की देखो ऐसे निर्ममता से बलि / कुर्बानी होती है जिसको सिर्फ अपनी जीभ के चटखारे के लिए उपरवाले की आड़ में किया जाता है, और अगर ऊपर वाले की भी इसमें सहमति है तो धिक्कार है मेरी तरफ से तो !!!!!!!!! बस क्या था शुरुवात हो गयी धडाधड पोस्टों की कोई नाम लेकर कोई संकेत मात्र कर कर समर्थन-विरोध में लगें है पुराणों से रामायण से निकाल निकाल कर ला रहे है .
अब कोई पूछे तो क्या मतलब इस बे मतलब की बात का. जब की मुद्दा तो यह था की मांसाहार में उपरवाले की घाल-घुसेड क्यों, आप को खाना है तो खाओ.
इसमें ऐसा क्या कहर बरपा है कोई समझाए तो सही मुझ पागल अमित शर्मा को, क्योंकि मुझे कुछ समझ में नहीं आया की वेदों में मांसाहार का खंडन करना कैसे ब्लोगिंग का माहोल खराब करना हो गया,,,,,,,,,,,,,, मांसाहार के लिए अल्लाहजी/माताजी का नाम की आड़ लेने का विरोध करना कैसे ब्लॉगजगत की हवा दूषित करना हो गया ???????????
बहुत सुन्दर. हमारा सारथी , हामारा विवेक है परन्तु हममे से बहुत सारे समय समय पर विवेक होते हुए भी विवेक हीन हो जाते है.
ईश्वर ने हम इंसानों को विवेक , सदबुद्धि के रूप में एक सारथी दिया है जो हर समय हमारे साथ रहता है, तथा अति विकट परिस्थियों में भी हमें एक उचित विकल्प प्रदान करता है। ये विवेक ही हमारा कान्हा है और कलियुग का सारथी है, जो नीर-क्षीर विभाजन की क्षमता प्रदान करता है।
अपका उपरोक्त विचार बहुत अच्छा लगा। आपने विवेक को सारथी की संज्ञा दी है जो बिल्कुल सही और सटीक है।
विवेक ही सच्चा साथी, सखा, स्वजन , स्नेही और सुहृद भी है
इस सुंदर चिंतन के लिए आभार।
स्वविवेक व्यक्ति का आभूषण है ... स्वविवेक व्यक्ति का मार्ग दर्शित करता है
judicilly main judje ko swavivak par justice ka adhikar hota hai.
विवेक को अपना सारथी मानने वाली बात अच्छी लगी।
साथ साथ गेंडे जैसा खाल होना उपयोगी होता है।
सारथी साथ हो और कवच भी हो!
शुभकामनाएं
दिव्या जी
असमंजस में हूं , आज नमस्कार कहूं , सस्नेह अभिवादन कहूं या सादर प्रणाम !!
उत्तरोतर आपकी पोस्ट्स में आपकी विद्वता के हो रहे दिग्दर्शन से अभिभूत हो रहा हूं ।
आपके स्वर में स्वर मिला कर आत्मा उद्घोष कर रही है -
हे विवेक !
तुम ही मेरे गुरु हो , तुम ही मेरे सारथी हो !
इस जीवन पथ पर सदैव मेरे सारथी बनकर मेरे साथ ही रहना।
मुझे सही-गलत का मार्ग-दर्शन कराना
…और मुझे किसी प्रकार के मोह में मत पड़ने देना
…और मुझे निर्भय रहकर सन्मार्ग पर चलने कि बुद्धि देना !
तथास्तु !
शिवाकांक्षी
- राजेन्द्र स्वर्णकार
vivek sarthee hai to fir kya bhay.........
ha sayyam bhee aavshyak hai...........
विवेक तो जीवन के हर क्षेत्र में सही राह पर ही ले जाता है....
दिव्याजी
आपकी पिछली पोस्ट और इस पोस्ट के सन्दर्भ में मै एक उदाहरण देना चाहूंगी |मेरे बड़े बेटे के यहाँ शादी के ११ साल बाद भी कोई कोई संतान नहीं हुई है aneko इलाज के बावजूद |हमारे घर के पडोस में काम करने वाली महिला के घर भी यही हाल था कुछ सालो पहले वह गर्भवती हुई |स्वाभाविक है सबको ख़ुशी हुई और सबने उपाय पूछा क्योकि हमारी ही तरह और भी लोग संतान सुख से वंचित थे उसने उपाय बताया कि एक माताजी है जो गोद भर्ती है पहले वह देख लेती है फिर कुछ सामान बताती है उसे महिला पर से वर कर चोरास्ते पर डाल देना |हमने सामान पूछा ?
क्या क्या होता है ?
उसने बहुत ही धीमी आवाज में बताया भूरा कद्दू .बकरी कि कलेजी ,अंडे के मेरी ने कह किसी को मरकर अपने लिए ख़ुशी होने कैसे |
meri बहू ne कहा -किसी को मारकर अपने लिए कैसे ख़ुशी पा सकती हूँ ?
यहाँ स्पष्ट कर दू न तो मै या मेरा परिवार अन्धविश्वासी है न ही लकीर के फकीर बन्ने में विश्वास रखते है कितु हमारी पारिवारिक परम्पराओ को उनके सिद्धांतो को समझकर आस्था के साथ निबाहते है |
मेरी बहू ने अपने विवेक से निर्णय देकर साथ ही आपकी "बलि के बकरे "वाली पोस्ट को को भी एक विचार दिया ऐसा मै मानती हूँ |यहाँ न कोई समुदाय से न ही किसी धर्म से कोई सम्बन्ध है |
जब हम एक व्यक्ति से प्रेम करते है तो वह प्यार है और अनेक व्यक्तियों अनेक लोगो या फिर कोई भी प्राणी से प्रेम करते है तो वह" धर्म "बन जाता है |
आपकी दोनों परिचर्चा अच्छी रही बहुत से परिपक्व विचार सामने आये |आने वाली पीढियां जरुर विचार करेंगी किसे आस्था के साथ जोड़ा जाये और किसे छोड़ा जाय |
सही कहा जी विवेक ही हमारा सारथी है। लेकिन कभी-कभी हम सारथी की सुने बिना और उसे आदेश दिये चले जाते हैं।
आप अपने सारथी की बात मानती हैं। तो सारथी आपको चक्रव्यूह को तोडने में सदैव सफल होगा।
बेहतरीन पोस्ट के लिये आभार
प्रेरक पोस्ट और कहानी के लिये भी धन्यवाद
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जब हम एक व्यक्ति से प्रेम करते है तो वह प्यार है और अनेक व्यक्तियों अनेक लोगो या फिर कोई भी प्राणी से प्रेम करते है तो वह" धर्म "बन जाता है |
@ मुझे शोभना जी के विचार अति उत्तम लगे.
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शोभना जी,
आपकी टिपण्णी बेहद प्रेरणादायी है।
आभार
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आत्मा-परमात्मा पर बहस करते एक निकट सम्बन्धी से मैंने पूछ लिया ," जब आत्मा परमात्मा का अंश है तो हम किसी कि भी गलतियों के लिए उस व्यक्ति को दोष क्यूँ देते हैं "
" क्यूंकि आत्मा के साथ परमात्मा ने हमें विवेक और बुद्धि भी दी है "...उनका उत्तर था ..
अच्छी पोस्ट !
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