Saturday, November 6, 2010

यम-द्वितीया -- कलम पूजा -- श्री चित्रगुप्ताय नमः

सभी जीवों के पाप-पुण्य का लेखा जोखा रखने के लिए , ब्रम्हा जी की काया से भगवान् चित्रगुप्त उत्पन्न हुए । उत्पत्ति के समय इनके हाथ में कलम-दवात थी । ब्रम्हा जी की काया से उत्पन्न होने के कारण चित्रगुप्त जी की सभी संतानें कायस्थ कहलाई ।

श्री चित्रगुप्त जी की जयंती , यम-द्वितीया के दिन मनाते हैं , तथा इसी दिन चित्रगुप्त पूजा या कलम-पूजा करते हैं।

दिवाली के अगले दिन कलम नहीं उठाते हैं , जिसे कलम-शयन कहते हैं। इसलिए दिवाली के अगले दिन सभी शैक्षणिक तथा अन्य संस्थानों में भी अवकाश रहता है । यम द्वितीया के दिन कलम-पूजा के बाद ही कलम का उपयोग करते हैं।

Chitragupt Puja is performed by Kayastha Parivar that believes in world peace, justice, knowledge and literacy, the four primary virtues depicted by the form of Shree Chitraguptjee। The puja is also known as Dawat (Inkpot) Puja, in which the books and pen are worshipped, symbolizing the importance of study in the life of a Kayastha. During the Chitragupt Puja, earning members of the also give account of their earning, writing to Chitragupt Maharaj the additional amount of money that is required to run the household, next year.


चित्रगुप्त जी का भव्य -मंदिर -- कांचीपुरम, तमिलनाडु, खजुराहो तथा उदयपुर राजस्थान में है।

इस विषय पर पाठकों द्वारा जोड़ी जाने वाली नयी जानकारी का स्वागत है।

आभार।

89 comments:

Kunwar Kusumesh said...

सामयिक तथा informative है
good.

देवेन्द्र पाण्डेय said...

..दिवाली के अगले दिन कलम नहीं उठाते हैं..
..दीवाली के अगले दिन नहीं, एक दिना बाद। द्वितिया तिथि।
..इस त्योहार को भाई द्विज के रूप में भी मनाते हैं। बहने प्रतीक रूप में अखरोट या सुपाड़ी फोड़कर, यमराज की खोपड़ी उड़ाती हैं और भाई को टीका लगाती हैं। इसीलिए इस त्योहार को भाई टीका भी कहते हैं। नेपाल में तो यह त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। शायद ही कोई भाई हो जो बहन से टीका लगाने उसके घर न जाय।

Bharat Bhushan said...

कलम को विराम कैसा. श्री चित्रगुप्ताय नमः - श्री ब्लॉगराय नमः

ZEAL said...

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भूषण जी,

जो अविराम है, वो सिर्फ 'काल' है। काल के अतिरिक्त सभी को विराम की आवश्यकता होती है, जिससे वो एक नयी उर्जा और स्फूर्ति से वापस अपने कार्य में संलग्न हो सके।

आपने 'श्री ब्लोगराय नमः ' लिखा, जिसका औचित्य समझ नहीं आया। कृपया इस पर प्रकाश डालें।

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आशीष मिश्रा said...

अच्छी जानकारी दी आपने

मनोज कुमार said...

मसिभाजनसंयुक्तं ध्यायेत्तं च महाबलम्‌।
लेखनीपट्टिकाहस्तं चित्रगुप्तं नमाम्यहम्‌॥
इस दिन तो मसिपात्र, लेखनी की पूजा होती है।
इसीलिए भूषण जी कलम नहीं उठाते .. बल्कि हम निवेदन करते हैं कि
मसि त्वं लेखनीयुक्तचित्रगुप्तशयस्थिता।
सद्क्षराणां पत्रे च लेख्यं कुरु सदा मम्‌॥
मसिपात्राय नमः।
लेखन्यै नमः।

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

अपनी मान्यताएं, अपनी रवायतें.. जिसे जो अच्छा लगे वैसा करे.. कलम उठाये, न उठाये..

ZEAL said...

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@ भारतीय नागरिक -

सही कहा आपने, कुछ लोग इश्वर को मानते हैं, कुछ नकारते हैं। कुछ लोग दिवाली में लक्ष्मी पूजन करते हैं तो कुछ जुए में सब हार आते हैं। इसी प्रकार अपनी अपनी आस्था है सब ।

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ZEAL said...

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मनोज जी,

बहुत सुन्दर जानकारी दी ।

आभार।

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निर्मला कपिला said...

bahut acchee jaanakaaree| dhanyavaad|

प्रवीण त्रिवेदी said...

इसीलिए तो आज हम माउस और की-पैड उठाये हैं :-)

प्रवीण त्रिवेदी said...

........दीपोत्सव पर हमारी ओर से भी बधाइयों का गुलदस्ता स्वीकार करें !

मनोज कुमार said...

हा-हा-ह्ह
"कुछ लोग दिवाली में लक्ष्मी पूजन करते हैं तो कुछ जुए में सब हार आते हैं।"

ABHISHEK MISHRA said...

श्री चित्रगुप्ताय नमः
अगर यहाँ की तरह यमपुरी में भी घूस चलती तो चित्गुप्त जी सबसे महगे और पूज्य भगवान होते

डॉ टी एस दराल said...

दिव्या जी , आप भी इन बातों में विश्वास रखती हैं ?

ZEAL said...

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डॉ दाराल ,

सामाजिक ताना-बाना भी कोई चीज़ है।

इसमें अविश्वास करने जैसी क्या बात है ? । सारे तीज त्यौहार हमारे संस्कृति का हिस्सा है। और वैज्ञानिक दृष्टि से बने हुए हैं। कुछ रीती रिवाज इसलिए बने हैं की लोग इसी बहाने कुछ सफाई करेंगे। कुछ पकवान बनायेंगे। कुछ सामाजिक शिष्टाचार निभायेंगे। लोगों से मिले जुलेंगे, आपसी प्रेम बढेगा। इत्यादि।

जब हम दिवाली मनाते हैं , होली मनाते हैं, करवाचौथ मनाते हैं, स्वतंत्रता दिवस मनाते है । तो कलम पूजा मनाने में अविश्वास का क्या काम ? कम से हम अपनी 'कलम' की तो इज्ज़त करना सीखते हैं इसी बहाने , जिससे हम अपनी जीविका अर्जन करते हैं , जैसे व्यापारी लोग तराजू की पूजा करते हैं और सोनार सोने की पूजा करता है इस दिन।

इसलिए हम तो भाई-दूज और कलम पूजा दोनों ही श्रद्धा और विश्वास के साथ मनाते हैं।

जब तक हमारे मन में विश्वास रहेगा तभी तक हमारी संस्कृति जीवित है। वरना आधुनिकता तो यूँ ही हमें विनाश की तरफ ले जा रही है।

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ashish said...

ये तो ज्ञात था की दिवाली के दुसरे दिन चित्रगुप्त की पूजा होती है . यही तो है हमारे देश की रंग बिरंगी प्रकृति . लेकिन हर त्यौहार के पीछे कुछ कुछ ना व्याहारिक कारण जरुर होते है जो समाज को एकजुट रखने के काम आते है . आपको बधाई .

P.N. Subramanian said...

सर्प दोष से मुक्ति के लिए लोग कालहस्ती जाते हैं जहाँ राहू की आराधा की जाती है. साथ ही कांचीपुरम के चित्रगुप्त मंदिर भी जाना होता है. क्योंकि उन्हें केतु के देवता के रूप में माना गया है.

ZEAL said...

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Subramanian ji,

You are right.

Lord Chitragupta is the Athi Devathai for Kethu, one of the Navagrahas, and those who worship Chitragupta, would be bestowed with prosperity. Also the evil effects of Kethu during its transit period would be mitigated.

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डॉ टी एस दराल said...

दिव्या जी , आपकी सारी बातें सही हैं । लेकिन मैंने एक डॉक्टर की दृष्टि से सवाल पूछा था । डॉक्टर्स को तो दीवाली के दिनों में एक्स्ट्रा काम करना पड़ता है । अब अगर कलम नहीं उठाएंगे तो मरीज़ ऊपर उठ जायेंगे । क्या ख़याल है ?

प्रवीण पाण्डेय said...

दीवाली की शुभकामनायें। सबको आदर पर साधना में विराम कैसा?

ZEAL said...

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डॉ दराल ,

संसार में कुछ भी ऐसा नहीं , जो एक डाक्टर के कर्तव्यों के आड़े आये ।

कलम पूजा का अपना एक विशेष महत्त्व है और डॉक्टर के कर्तव्य अपनी जगह पर हैं। कर्त्तव्य का स्थान सदा सर्वदा ऊपर ही रहेगा। इसमें कोई संशय नहीं है।

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ZEAL said...

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@- प्रवीण पाण्डेय -

आपके प्रश्न का , बहुत उचित उत्तर मनोज जी ने पहले ही दे दिया है।

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मसिभाजनसंयुक्तं ध्यायेत्तं च महाबलम्‌।
लेखनीपट्टिकाहस्तं चित्रगुप्तं नमाम्यहम्‌॥
इस दिन तो मसिपात्र, लेखनी की पूजा होती है।
इसीलिए भूषण जी कलम नहीं उठाते .. बल्कि हम निवेदन करते हैं कि
मसि त्वं लेखनीयुक्तचित्रगुप्तशयस्थिता।
सद्क्षराणां पत्रे च लेख्यं कुरु सदा मम्‌॥
मसिपात्राय नमः।
लेखन्यै नमः।

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बड़ी बड़ी फैकट्री को भी मेंटेनन्स के लिए शट-डाउन करना पड़ता है। इस तरह के त्योहार सिम्बोलिक हैं जो वस्तु की महिमा की तरफ इशारा करते हैं। आम व्यक्ति जो कलम की महिमा भूल रहा है, ये सब उसके लिए है.

बाकि आप स्वयं बुद्धिमान हैं।

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राज भाटिय़ा said...

मेरेलिये तो हर जानकारी नयी हे जी, क्योकि मै तो भारत मे बहुत कम रहा हुं, जिस उमर मे यह सब सीखना होता हे उस उम्र मे, लेकिन अब ब्लांग से बहुत अच्छी अच्छी जानकारियां मिल रही हे, धन्यवाद

ZEAL said...

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@- Abhishek-


In the Garud Puran, Chitragupta is hailed as the first man to give the script.

"Chitragupta namastubhyam vedaksaradatre"
(Obeisance to Chitragupta, the giver of letters)

In the legends of Chitragupta as well as in the Vedas, he is referred to as the greatest king, while the rest are "Rajakas," or little kings.

चित्र इद राजा राजका इदन्यके यके सरस्वतीमनु । पर्जन्य इव ततनद धि वर्ष्ट्या सहस्रमयुता ददत ॥ RIG VEDA Book 8/ Hymn 21/ Stanza 18

The Rig Veda mentions an invocation to be made to Chitragupta before offering sacrifice. There is also a special invocation to Chitragupta as Dharmraj (Lord of Justice) to be made at the performance of shradh or other rituals. "Om tat purushaya vidmahe Chitragupta dhimahi tena lekha prachodayata."

The priests also pay reverence to Shri Chitragupta:

"Yamam Dharmarajya Chitraguptaya vain namah."'

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Kailash Sharma said...

दिवाली के एक दिन बाद यम द्वितीया का त्यौहार मनाया जाता है. मथुरा(उत्तर प्रदेश) में यमुना के किनारे विश्राम घाट पर यमुना और यमराज का मंदिर है.यमुना यमराज की बहन मानी जाती है. ऐसी मान्यता है की इस दिन उस घाट पर भाई बहेन एक दुसरे का हाथ पकड़ कर नहाते हैं और बाद में बहेन से टीका करवाते हैं तो उन्हें म्रत्यु के पश्चात यमलोक में नहीं जाना पड़ता, क्यों की यमुना ने तिलक करने के बाद यमराज से यह भेंट मांगी थी. अभी भी वहाँ यम द्वितीया को बड़े धूम धाम से मनाया जाता है.

सदा said...

हमेशा की तरह एक बार फिर सुन्‍दर लेखन से आपने अपने ब्‍लाग में एक नया सितारा लगा दिया है ...कहने को कई बार बात बहुत छोटी होती है और उसके मायने बहुत ज्‍यादा ...इसी तरह इस पूजा का भी विधान है जिन्‍हे आस्‍था है अपने संस्‍कारों पे वह इसमें शामिल होते हैं जैसा की मनोज जी ने कहा .....दीपावली की शुभकामनायें ।

Dorothy said...

बढ़ि्या ज्ञानवर्धक आलेख, आभार
सादर
डोरोथी.

Urmi said...

आपको एवं आपके परिवार को दिवाली की हार्दिक शुभकामनायें!

G Vishwanath said...

आजकल कोई कलम का प्रयोग ही नहीं करता!
सब कीबोर्ड पर टाईप करते हैं।
तो क्या इस प्रथा को कायम रखने के लिए दिवाली के दो दिन बात कंप्यूटर से अलग होना चाहिए?

केवल राम said...

आपके लेख पर लगभग मिली जुली प्रतिक्रिया आई है ,आपका अपना मत है , पर मैं इन चीजों पर विश्वास नहीं करता , सिवाए परमात्मा के , जिस ईश्वर की संतान हम हैं उसने पूरी सृष्टि को अपने अनुसार चलाना है हमारे हाथ मैं कुछ नहीं , फिर क्यों हम भ्रमों में पड़े ,
धन्यवाद

abhi said...

अच्छी जानकारी दी आपने...
कल चित्रगुप्त पूजा है और हमने भी आज सारा पूजा का समान खरीद लिया...कल अकेले ही पूजा करना है..
घर पे तो कितनी अच्छी पूजा होती थी,

खैर, अच्छा लगा पोस्ट पढ़ कर..

महेन्‍द्र वर्मा said...

चित्रगुप्त जी एवं कलम पूजा संबंधी विशेष जानकारी उपलब्ध कराने के लिए धन्यवाद। जानकारी अच्छी लगी...आभार।

Manoj K said...

अच्छी जानकारी दी है आपने. धन्यवाद.

Girish Kumar Billore said...

शुक्रिया जानकारी के लिये
चित्रगुप्त पूजन पर शुभ कामनाएं
महाजन की भारत-यात्रा

विनोद कुमार पांडेय said...

जानकारी के लिए आभार..आपके पोस्ट और टिप्पणी चर्चा से बहुत कुछ जानकारी मिली..धन्यवाद

ZEAL said...

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विश्वनाथ जी,

यह पूजा कलम की होती है। की-बोर्ड से इसका कोई ताल्लुक नहीं है।

हमारी संस्कृति विलुप्त हो रही है। धीरे धीरे ये सब कुछ ख़तम ही हो जाएगा।

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डा० अमर कुमार said...
This comment has been removed by the author.
Deepak chaubey said...

सामयिक बढ़ि्या ज्ञानवर्धक लेख
जानकारी के लिए आभार

ABHISHEK MISHRA said...

@ डा . दिव्या जी ,
लेखनी शब्द का का तात्पर्य उस वस्तु से है जो लिखने में प्रयोग हो . पहले कलम और दवात से लिखते थे फिर फाउन्टेन पेन आया फिर बॉल पेन आया तो क्या उन की पूजा नही होती . अगर उस ज़माने में 'की बोर्ड ' होता तो उस की भी पूजा होती .
धैर्य रखिये ये संस्कृति नही लुप्त होगी बस थोड़ी आधुनिक हो जाएगी

ZEAL said...

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डॉ अमर,

ये एक पर्व है। एक रिवाज है। पुरखों द्वारा बनायीं एक सामाजिक व्यस्था है। जैसे दिवाली लोग मनाते हैं, और बैक-गियर में नहीं जाते , वैसे ही कलम पूजा करके को पिछड़ नहीं जाएगा। बैक-गियर में ले जाती हैं हमारे समाज में जो रिज़र्वेशन है, अशिक्षा, कुशिक्षा, भ्रष्टाचार, स्वार्थ, मौकापरस्ती इत्यादि । या सब ले जाती है बैक-गियर में।
संस्कारों, रीती रिवाजों का सम्मान हमें किसी ओर से पिछड़ा नहीं बनाता।

यदि क्रिकेट के खिलाडी पिच को माथा लगायें, संगीतकार , अपने वाद्य को प्रणाम करें, दुकानदार सांझ होते ही अपनी दूकान में अगरबत्ती लगा दें। तो क्या कलम को पूजना पिछड़ापन है ?

जो फख्र के साथ अपने अपने रीती रिवाज ओर संस्कारों का सम्मान नहीं करते , वो ही जिम्मेदार होंगे इस विलुप्त होती संस्कृति के लिए।

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ZEAL said...

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मैं हर त्यौहार पर यह नोटिस किया है की परम्पराएं ओर संस्कृति अक्सर माध्यम वर्गीय लोगों से ही जीवित रहती हैं। सामाज का वो तबका जो थोडा पढ़-लिख जाता है , वो अपनी संस्कृति का सम्मान नहीं कर पता तथा उन्हें निभाने में या स्वीकार करने में जरूर पिछड़ेपन का अनुभव करता है। वो आधुनिकता की बात करना ज्यादा पसंद करता है।

लेकिन आधुनिकता है क्या ? केवल यह कहना की मैं 'कलम-पूजा' जैसी दकियानूसी बातों को नहीं मानता ?
क्या यही आधुनिकता है ? क्या इसी तरह अपने संस्कारों को नकारने से हम तार्राकी-पसंद कहलायेंगे ? ओर हम देश बहुत उन्नत कहलायेगा ?

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ZEAL said...

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भिन्न-भिन्न पोशाकें, रीती-रिवाज , बोली --यही सब तो है हमारे देश की विविधता। क्यूँ सामाज तुला है सब ख़त्म कर देने पर ?

मैंने पोस्ट पढ़ी सुब्रमनियन जी द्वारा विश्नोई सामाज पर पढ़ा , भूषण जी द्वारा मेघ्वंशियों के बारे में पढ़ा। मुझे बहुत फख्र हुआ ये सब पढ़ कर । लेकिन अफ़सोस हुआ ये देखकर की 'कलम- पूजा ' का जिक्र लोगों को बैक गियर में ले जाता है।

दिवाली , करवाचौथ , बकरीद, ईद , क्रिसमस लोग धूमधाम से मनाते हैं , ओर पिछड़ापन नहीं महसूस करते , लेकिन 'कलम-पूजा' के महत्त्व को नकार कर हम आधुनिक कहलाना चाहते हैं।

फिर भारतीय संस्कृति का वो कौन सा हिस्सा है जिसपर हम गर्व करते हैं ?

पर्व, त्यौहार, रीती रिवाजों की तिलांजलि देकर हम आधुनिक कहलायेंगे , या फिर देश तरक्की कर लेगा ?

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ZEAL said...

पहले लोग अपने बच्चों को अपने रीती रिवाजों के बारे में बताते थे । बच्चे भी सबसे ज्यादा कुश इन्ही रीती रिवाजों और त्योहारों के अवसर पर गोते हैं। लेकिन आज हम क्या सिखाएं उन्हें। पैदा होते ही बच्चे तकनीक में प्रकांड विद्वान् हो जाते हैं। डी वी डी प्ले करना, हन्दिकैम इस्तेमाल करना , नेट-सर्फिंग करना , मोविएस डाउनलोड करना आदि सब आता है उन्हें।

जो नहीं आता आज कल की युवा पीढ़ी को , वो है अपने परम्पराओं का सम्मान करना। लेकिन करेंगे भी कैसे ? जब घर के बड़े बुजुर्ग ही उसमें विश्वास नहीं रखेंगे तो हम लाख कोशिश कर लें , बच्चे कुछ नहीं सीखेंगे, और अफ़सोस तो ये है की वो अपनी परम्पराओं को जानते ही नहीं।

सब कुछ विलुप्त-प्राय है। यही परम्पराओं की बात करो तो लोगों को लगता है ये पिछड़ापन है। इसीलिए ये कलियुग है भैया । परम्पराओं को निभायेंगे तो सतयुग वापस न आ जाये कहीं। बचो अपनी संस्कृति से , ये हमें पिछड़ा बना रही है।

आजकल आधुनिकता का ज़माना है।
-विडिओ-गेम्स खेलो
-थ्री इडियट्स देखो
-हिस्स देखो
-फैशन शोज़ देखो
-सब करो
-लेकिन परम्पराओं को भूल जाओ, तिलांजलि दे दो।

आज कलम पूजा को नकारो, कल दिवाली का नंबर आएगा। वैसे भी आजकल का पढ़ा-लिखा समाज खुद को नास्तिक कहने में गर्व महसूस करता है।

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ZEAL said...

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अभिषेक जी ,

@--धैर्य रखिये ये संस्कृति नही लुप्त होगी बस थोड़ी आधुनिक हो जाएगी

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आपके शब्दों से तसल्ली मिली की संस्कृति लुप्त नहीं होगी बस आधुनिक हो जायेगी । लेकिन ये आधुनिकता किस काम की जो हमें हमारी परम्पराओं से दूर कर दे , उसका स्वरुप बदल कर विकृत कर , तथा उन्हें याद करने में पिछड़ापन महसूस करे।

आज आधुनिकता की अंधी दौड़ भी एक समस्या है। बहुत तेजी से समाज का एक विशिष्ट हिस्सा आधुनिक होता जा रहा है। इसीलिए , दूसरा हिस्सा गरीब होता जा रहा है, भूख से तड़पकर किसान आत्महत्या कर रहे हैं। ऐसी आधुनिकता का हम क्या करेंगे जो हमें हमारी आम जनता से दूर कर दे।

संस्कार और परम्पराएं ही हमें एक सूत्र में बांधती हैं, वर्ना आधुनिकता तो हमें रैट -रेस [rat-race] में खींच ही रही है।

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ZEAL said...

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एक छोटा सा दुःख है मुझे की जो लोग इन परम्पराओं को मानते हैं और निभाते हैं , वो सहमत होने में शर्म महसूस करते हैं। उन्हें डर है , कहीं पारंपरिक होने के कारण उन्हें 'पिछड़ा' न कह दिया जाए।

Smiles.

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DR. ANWER JAMAL said...

यह सचमुच विचारणीय है कि जो हिन्दू भाई बहन परंपराओं को निभाते हैं वे भी उन्हें स्वीकार करते हुए डरते हैं ।
क्योँ डरते हैं ?
बहन दिव्या जी का सवाल बिल्कुल वाजिब है ।

Rahul Singh said...

अभिषेक जी ने जिसे आधुनिक कहा है, उसे परिवर्तन भी कहा जा सकता है, वह तो होगा ही यानि एक तरह से refresh. ''आधुनिकता तो यूँ ही हमें विनाश की तरफ ले जा रही है'' आप जिसे आधुनिकता कह रही हैं, उसमें नदी-तालाब स्‍नान के बजाय बाथरूम (अब वाशरूम) का प्रयोग या लकड़ी-कोयले के चूल्‍हे के बजाय एलपीजी गैस का प्रयोग भी शामिल तो नहीं शामिल. ज्‍यादा पीछे न लौटें चिट्ठी के बजाय ई-मेल और लैण्‍डलाइन के बदले आधुनिक मोबाइल का उपयोग भी शामिल है क्‍या. वैसे भी कहा जाता है- परम्‍परा रूढि़ नहीं, वह परिवर्तनशील होती है और प्रकृति के raw का refine होना ही संस्‍कृति माना जाता है, इसलिए संस्‍कृति के साथ 'मौलिक' विशेषण को कई बार उपयुक्‍त नहीं माना जाता. तात्‍पर्य कि हमारे दैनंदिन जीवन में कलम नदारद हो और साल में एक दिन उसकी खोज पूजा के लिए की जाए, तो यह स्थिति विचारणीय अवश्‍य है.'ब्रम्हा' को 'ब्रह्मा' इस तरह लिखा जाए तो बेहतर, उचित लगे तो दुरुस्‍त कर लें. (यह टिप्‍पणी मेरे अपने विचार, मेरा नजरिया मात्र है, नसीहत या सुझाव नहीं इसलिए इससे किसीके सहमत या असहमत होने की अपेक्षा कतई नहीं है.)

संगीता पुरी said...

दीपावली के घर की सफाई के बाद आसपास का वातावरण साफ करना आवश्‍यक होता है .. हमारे यहां आज के दिन गौशाले की साफ सफाई और गायों बछडों की पूजा भी की जाती है .. उसी दिन भाई दूज भी होता है .. और तीसरे दिन से फिर छठ की तैयारी के क्रम में कुएं , नदी तालाब जाने वाले और अन्‍य रास्‍ते को साफ कर दिया जाता है .. इस तरह दो चार त्‍यौहारों के कारण पूरे गांव की सफाई पंद्रह दिनों के अंदर हो जाती है .. परंपराओं को हेय दृष्टि से देखने वालों से पूछा जाए कि आज किसी भी तरह से सामूहिक तौर पर बडे काम किए जा सकते हैं ??

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

अच्छी जानकारी है ...

ZEAL said...

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राहुल सिंह जी,

आपके विचार जानकार प्रसन्नता हुई।

निस्संदेह समय के साथ बदलाव आता है और उस बदलाव का स्वागत भी है। लेकिन संस्कृति और परम्पराओं से जुड़कर जिसे पिछड़ेपन का एकसास हो , वो निश्चय ही दुखद है। हम सबने दिवाली मनाई , और इस अवसर पर एक दुसरे के ब्लॉग पर दिवाली की शुभकामनाएं भी लिखीं । बहुत सी पोस्टें दीपावली पर ही थीं। जब इसमें लोगों को पिछड़ापन नहीं महसूस हुआ तो एक दुसरे पर्व 'कलम-पूजा' को आधुनिकता से क्यूँ जोड़ा गया ?

सभी पर्व का एक विशेष महत्त्व है । यदि उस महत्त्व को समझे बगैर हम नकार देंगे तो जीवन में शेष क्या है ?

आतंकवाद और भ्रष्टाचार , पर चर्चाएं , राजनीतिज्ञों की बुराई करना, भड़ास निकालना , सरकार को दोष देना, इस सबमें कब तक फसे रहेंगे।

कभी-कभी मुड कर अपनी परम्पराओं की तरफ भी गर्व से देखना चाहिए। कभी-कभी इन छोटी-छोटी परम्पराओं में ही संसार के समस्त सुख छुपे होते हैं।

जीवन में 'पुनरुत्पत्ति ' का भी एक सिद्धांत है । चलते चलते चीजें रुक जाती हैं, थक जाती हैं। एक विराम की आवश्यकता होती है। एक जगह ठहरकर पुनरावलोकन की आवश्यकता होती है।

पाश्चात्य और आधुनिकता का परस्पर सामंजस्य ही हमारा ध्येय होना चाहिए।

इस तरह पुराने रिवाज बिना काम के लगेंगे तो आने वाले समय में लोग पुराने, जीर्ण और बेकार माँ बाप को भी उठा कर फेंकने लगेंगे। शादी जैसी व्यवस्था को नकार ही रहे हैं। नास्तिकों की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है।

ये सब सामाजिक असंतुलन की तरफ इशारा कर रहा है।

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G Vishwanath said...

Divya,

That was a brilliant response to Dr Amar's comment.

No, I am not ashamed of supporting your view point.

Let any body consider me backward in my thinking. I am not concerned.

Backward and forward are merely directions. Backward is forward and vice versa depending on the direction in which you are looking.

Regards
G Vishwanath

ZEAL said...

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@--
इस तरह दो चार त्‍यौहारों के कारण पूरे गांव की सफाई पंद्रह दिनों के अंदर हो जाती है ॥ परंपराओं को हेय दृष्टि से देखने वालों से पूछा जाए कि आज किसी भी तरह से सामूहिक तौर पर बडे काम किए जा सकते हैं ??

संगीता जी,

एक बार सत्यनारायण कथा में एक विद्वान् पंडित के मुख से सुना था। स्त्रियों को ये वरदान है और इसीलिए स्त्रियाँ ही ज्यादा व्रत और पर्व , कीर्तन करती हैं। स्त्रियों की इश्वर में श्रद्धा ही आज धर्म, पर्व और संस्कारों को जीवित रखे हुए है ।

इन्हीं पूजा पाठ से तो व्यक्ति का मन सात्विक होता है। ये भक्ति भी एक जरिया है स्थूल [ वाह्य सफाई ]तथा सूक्ष्म [अंतर्मन] की सफाई का।

अक्सर पुरुषों को यही कहते पाया गया है---बीबी नें लिस्ट पकड़ा दी है । सामग्री खरीदने जाना है। खुद भी जाने किन किन फालतू चीजों में फंसी रहती है , और हमें भी कुछ सार्थक नहीं करने देतीं। बेचारे बड़े भरी मन से पूजा में शामिल होते हैं। उनके अनुसार सार्थक और समाजोपयोगी क्या है , यही नहीं समझ आता।

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ZEAL said...

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भाई डॉ अनवर जमाल ,

एक बात के लिए मुस्लिम समुदाय की मुक्त कंठ से प्रशंसा करती हूँ, की वे अपने धर्म और परम्पराओं की इज्ज़त करते हैं। अपने धर्म और परम्पराओं में आस्था ही हमें बेहतर सोच प्रदान करती है।

मुस्लिम समुदाय अपनी परम्पाओं की इज्ज़त करता है , इसीलिए आज इस्लाम तेजी से फ़ैल रहा है। और इनमें एकता भी बहुत है।

जब तक हम अपने धर्म और संस्कृति के लिए गर्व नहीं महसूस करेंगे , तब तक दुसरे के धर्म की भी इज्ज़त नहीं कर सकेंगे।

धर्म में आस्था ही हमारी सोच को परिष्कृत करती है और मानवता के करीब लाती है।

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ZEAL said...

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विश्वनाथ जी,

अच्छा लगा आपका निर्भय होकर अपनी बात रखना ।

आभार !

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डा० अमर कुमार said...
This comment has been removed by the author.
rajesh singh kshatri said...

दीप पर्व की हार्दिक शुभकामनायें ...

डा० अमर कुमार said...


Oh, just saw the Kudos Komment by Mr.G.Vishwanath,
Let me be clear that my above comment is not directed to any body,
I have just put the facts vs. reality. It is not that I am born to be differ but..
I have always been honest to topic & mood of the post, rather than being loyal to author.
माता-पिता की देख-रेख, सुश्रूषा उनके द्वारा पोषित मनुष्य का नैतिक दायित्व है, न कि रीति-रिवाज़ निभाने की मज़बूरी... फिर पुराने माँ-बाप को फेंकनें के सँदर्भहीन कुतर्क का यहाँ अनौचित्य ज़ाहिर हो रहा है ।
चलते चलते... अब अपनी अगली पोस्ट आप समुद्र-लँघन के प्रायश्चित पूजा पर लिख ही डालें डॉक्टर दिव्या ! मलयदेश सिंगापुर से जम्बूद्वीपे भारतखण्डे लौटने पर, सँभवतः हर बार आपको इसका विधान करना ही पड़ता होगा ।
कसम कलम-दवात की, मैं कोई प्रतिकूल टिप्पणी न करूँगा ।

Patali-The-Village said...

अच्छी जानकारी दी आपने धन्यवाद|

sandhyagupta said...

यदि क्रिकेट के खिलाडी पिच को माथा लगायें, संगीतकार , अपने वाद्य को प्रणाम करें, दुकानदार सांझ होते ही अपनी दूकान में अगरबत्ती लगा दें। तो क्या कलम को पूजना पिछड़ापन है ? आधुनिकता है क्या ? केवल यह कहना की मैं 'कलम-पूजा' जैसी दकियानूसी बातों को नहीं मानता ?
क्या यही आधुनिकता है ? क्या इसी तरह अपने संस्कारों को नकारने से हम तार्राकी-पसंद कहलायेंगे ? ओर हम देश बहुत उन्नत कहलायेगा ?

sau take ki baat ki hai aapne.shubhkamnayen.

ZEAL said...

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डॉ अमर,

अभी-अभी लंच के बाद ऑनलाइन हुई तो आपका कमेन्ट देखा, सचमुच मुस्कराहट आ गयी ।

तैश में कभी नहीं रहती, बस अपने मन में आये विचारों को यहाँ रखती हूँ। आप बेकार में डर रहे थे की आपकी टिपण्णी मोडरेट होगी। अरे भाई जब ऑनलाइन आउंगी तभी तो पब्लिश कर सकुंगी ।

और हाँ , मुझे येस-मैन रोबोट पसंद भी नहीं आते। जब तक दिल से सहमती न हो, तब तक जबरदस्ती सहमती जतानी भी नहीं चाहिए। ये तो आपने खुद ही देखा होगा, की मैं भी जब तक सहमत नहीं होती , तब तक अपने मस्तिष्क में आये विचारों को यहाँ रखती रहती हूँ।

मुझे चर्चाएँ और विमर्श बहुत पसंद हैं , उसमें काफी इमानदारी होती है। रही बात हाँ में हाँ मिलाने की तो उसके लिए और भी बहुत से ब्लोग्स हैं, जहाँ यस-मैन रोबोट नमूदार होते रहते हैं।

अक्सर मैंने नोटिस किया है की लोग भाग खड़े होते हैं जब मैं अपनी प्रतिक्रिया देती हूँ। आपको मुझसे भी 'यस-वूमन ' रोबोट होने की अपेक्षा नहीं होनी चाहिए।

मेरे ब्लॉग से विदा लेने वालों की लम्बी फेहरिश्त है डॉ अमर। हो सके तो आप दो कदम साथ चलिए। बहुत विरले ही हैं जो यहाँ टिकते हैं, वर्ना बुरा मानकर मुझसे दूर ही हो जाते हैं। अब हम मान-मनव्वल तो कर नहीं सकते , बस उनकी आजादी का सम्मान करते हुए उनका दूर जाना स्वीकार कर लेते हैं।

जब तक हम स्वयं से थक नहीं जायेंगे और दिमाग में विचारों की आंधियां चलती रहेंगी, हम लिखते रहेंगे। कमेन्ट करने वाले चले जायेंगे, लेकिन पढने वाले कभी कम नहीं होंगे।

ब्लॉग जगत यही ख़ूबसूरती तो मेरा मन मोहती है। नाराज़ होने के बाद भी लोग पढना नहीं छोड़ते।

आभार आपका।

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DR. ANWER JAMAL said...

@ मेरी अज़ीज़ा और आलिमा बहन दिव्या जी,
मैं बिना किसी ऐतराज़ के मात्र यह जानना चाहता हूं कि क्या यह संभव है कि पूरे देश के लोग एक दिन क़लम दवात को टच न करें ?

ZEAL said...

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Dr Anwar Jamal,

Nothing is impossible on this earth . It's a matter of faith. Where there is will , there is a way.

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दिगम्बर नासवा said...

अच्छी जानकारी दी आपने ... शुक्रिया जानकारी के लिये ....
चित्रगुप्त पूजन पर शुभ कामनाएं ....

PARAM ARYA said...

अच्छी जानकारी ?

BrijmohanShrivastava said...

टिप्पणियां देखी आपके उत्तर देखे,आलेख भी पढा । ’कायस्थ’ शव्द पर क्लिक कर और जानकारी प्राप्त की । यमुना नदी,े यम की बहिन है उस दिन यम ने यमुना से तिलक करवाया था ’’यमुनाया गृहे यस्मात यमेन भेाजनं कृतम’’। शैक्षणिक संस्थानों में होली की दौज और दीवाली की दौज को अवकाश हुआ करता था ,क्या अब भी अवकाश होसकता है ?और सरकार कर भी देगी तो विरोध शुरु हो जायेगा। असल में एक जमाना हुआ करता था जब कहा जाता था कि ’’कायस्थ बेटा पढौं भलो कै मरौ भलो ’’ राजदरवार में आम तौर पर कायस्थ ही लिखापढी वाले पद पर पदस्थ हुआ करते थे । अकवर के दरवारी बीरबल को भी कायस्थ माना जाता है। महान हस्तियों में मुशी प्रेमचंद, महर्षि महेश योगी, सहजयोग की प्रवर्तक श्रीमती निर्मला श्रीवास्तव का नाम भी है।

Jyoti Prakash said...

उत्सव , उत्सव है |
Logic limited है |
Beyond logic , includes logic aswell , फिर भी unlimited है |
उत्सव मनाएं, बस चले हर वक़्त मनाएं |

Shaivalika Joshi said...

Thanks for such information.
Mujhe aisa nhi maloom tha

G Vishwanath said...

Dr Amar,

Please be assured that I am one of those who actually enjoy reading and look forward to your comments.
They are always interesting!

I have noted that you are not a yes man.
Neither am I.

For your information, I too have occasionally disagreed with Diyva and other bloggers I follow.
In this case, I see no reason to consider observing rituals as an act of reversing gears.

When rituals are performed willingly and with faith and after understanding and appreciating the meaning behind the ritual, they can enrich the lives of the followers.

I will agree that some rituals have outlived their usefulness and are no longer relevant today, even though they may have had their relevance once upon a time.
Not having lived during those times, we should not be too harsh on our ancestors for having observed those rituals. I am sure many of our present day rituals will be rejected by succeeding generations.

Looking forward to more dissenting comments from you whenever you disagree and with regards and best wishes
G Vishswanath

ZEAL said...

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बृजमोहन जी,

आपके द्वारा जोड़ी गयी जानकारी मेरे लिए सर्वथा नयी है। बहुत अच्छा लगा नया कुछ जानकर ।

आभार।

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ZEAL said...

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ज्योति प्रकाश जी,

मेरा भी बस चले तो हर वक़्त उत्सव मनाऊं । हिन्दुओं के इतने पर्व हैं की हर दिन त्यौहार मना सकें। फिर भी दिल तो चाहता है , हर पल फेस्टिव हो, हल पल खुशियों से भरा हो ।

हर दिन होली हो और हर शाम दिवाली हो।

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प्रतुल वशिष्ठ said...

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दिव्या जी,
मेरा मानना कुछ अलग है
मैंने सदैव पूजा का अर्थ विश्राम नहीं लिया
बल्कि पूजा का अर्थ अतिशय कर्म से लिया है.
पेट-पूजा में पेट की क्षुधा शांत करते हैं. न कि उपवास रखते हैं.
गुरु-पूजा में गुरुजनों का सामीप्य लेकर उनसे अपने अनसुलझे प्रश्नों का उत्तर माँगता आया हूँ.
देव-पूजा मैं निरंतर करता हूँ स्मरण, जाप, भजन, कीर्तन आदि सभी में यही चाहता हूँ कि वे अपने आशीर्वाद में कभी विश्राम न लें.
मैंने कलम-पूजा निरंतर सृजन में मानी है. हाँ जब स्वाध्याय करता हूँ तब वे सभी लेख्नियाँ विश्राम कर रही होती हैं. जिनसे मैं लिखता रहा हूँ.
मैंने बीस वर्ष पहले जिस शून्यालय में काव्य साधना शुरू की थी मेरी लेखनियों में सर्व-प्रथम लेखनी का नाम था >>>>>>>> दिव्या
मेरे परिचितों और भाइयों ने समझा था कि मैं फिल्म ऐक्ट्रेस 'दिव्या भारती' से प्रभावित हूँ. लेकिन मेरी दूसरी लेखनी का नाम था ...... सुवासिका.
यदि मैं समय अवधि को न बताऊँ तो अर्थ .......... ना जाने क्या लगाया जाने लगे.

इसी तरह मेरे पास पाँच-छः लकड़ी की कलमें थीं. लेकिन मेरी पूजा उनसे निरंतर लिखते रहना था.
इससे मैं नहीं मान पाता कि उनकी मैंने अवहेलना की.

कलम पूजा का एक अर्थ यह भी ले सकते हैं कि लिखने वाली समस्त वस्तुओं का भली-भाँति रखरखाव करना.

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Satish Saxena said...

" एक छोटा सा दुःख है मुझे की जो लोग इन परम्पराओं को मानते हैं और निभाते हैं , वो सहमत होने में शर्म महसूस करते हैं। उन्हें डर है , कहीं पारंपरिक होने के कारण उन्हें 'पिछड़ा' न कह दिया जाए। "

यह एक अच्छा लेख है दिव्या ! मैं इस लेख और टिप्पणियों से सहमत हूँ !

कुमार राधारमण said...

मैंने भी आज कलम-दवात को विश्राम दिया और कम्प्यूटर पर ही सक्रिय रहा।

ZEAL said...

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प्रतुल जी,

आपकी लिखी बातों से पूर्णतया सहमत हूँ। लेकिन कलम पूजा कायस्थों के सन्दर्भ में है, जिन्हें कलम में निहित शक्ति का वरदान मिला है। लेकिन अफ़सोस तो ये है की आज कायस्थ समाज इस वरदान की अवहेलना कर रहा है , और इसके महत्त्व को नकार रहा है। शर्म महसूस करता है खुद को कायस्थ कहने में और कलम-पूजा करने में।

पहले पढ़ाई-लिखी में अग्रणी रहने वाला कायस्थ समाज आज बहुत पिछड़ गया है। ब्राम्हण और अग्रवाल अपना परचम लहरा रहे हैं प्रतियोगी परीक्षाओं में।

कारण ?

जैसे भारत अपनी संस्कृति को तवज्जो नहीं देता और पश्चिम के देश हमारी संस्कृति से सीख लेकर अपने देश को समृद्ध कर रहे हैं। उसी प्रकार कायस्थों द्वारा तो कलम की उपेक्षा हुई है , लेकिन जागरूक अन्य समुदायों ने कलम की महिमा को बखूबी समझा और पूजा है। इसीलिए तरक्की कर रहे हैं।

जैसे विश्नोई समाज और मेघ्वंशियों के बारे में पढ़ कर मुझे अच्छा लगा और नयी जानकारी मिली, वैसे ही कलम पूजा के बारे में लिखकर मुझे एक आत्मिक संतोष है।

वैसे कायस्थ प्रजाति भी डायनोसौर की तरह ही लुप्तप्राय है। जब तक जड़ों को खाद पानी नहीं मिलेगा , तब तो वृक्ष का सूखना तयशुदा है।

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ZEAL said...

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कोस-कोस पर पानी बदले ,
चार कोस पर बानी ॥

भारत की ख़ूबसूरती इसी वैभिन्न में है । भांति-भांति रस्में , संस्कार , भाषाएँ, रीति-रिवाज ही तो हमारी भारतीय संस्कृति का हिस्सा हैं।

मानवता में विश्वास करती हूँ , लेकिन देश की बात आएगी तो भारतीय होने पर गर्व करती हूँ।
पुरुषों का सम्मान करती हूँ लेकिन , स्त्री होने होने पर गर्व करती हूँ।
सभी भाषाओं से प्रेम है, लेकिन हिंदी लिखने और बोलने में गर्व महसूस करती हूँ।
सभी प्रोफेशन सम्मानित हैं लेकिन डाक्टर होने में गर्व महसूस करती हूँ।
सभी धर्मों का सामान आदर एवं सम्मान करती हूँ, लेकिन हिन्दू होने पर गर्व करती हूँ।

विश्नोई, मेघवंशी, गुजराती, बंगाली, राजस्थानी परम्पराओं को पढना अच्छा लगता है , लेकिन कायस्थ समाज के बारे में लिखना अच्छा लगता है।

भारत के हर प्रांत अच्छे लगते हैं , लेकिन मेरा दिल तो सिर्फ लखनऊ के लिए धड़कता है . क्यूंकि....कुछ अपना..अपना ..सा ..

हर वैभिन्न्य का सम्मान करती हूँ, लेकिन निज पर गर्व भी करती हूँ। --आभार।

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ZEAL said...

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कुमार राधारमण जी, सतीश सक्सेना जी,

आभार आपका।

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Sunil Kumar said...

कायस्थ समाज के बारे में लिखना अच्छा लगता है।गर्व भी करती हूँ।
बढ़ि्या ज्ञानवर्धक आलेख, आभार

Satish Saxena said...

कुछ विरोधाभासों के बावजूद तुम ( व्यक्तित्व और विचार ) मुझे अच्छी लगती हो डॉ दिव्या श्रीवास्तव ! मैं जातिवाद को बढ़ावा देने वाले लेख पसंद नहीं करता हूँ मगर उनका विरोध बिलकुल नहीं करता क्योंकि उनका अपना महत्व है ! अपने कुल परिवार पर गर्व और विश्वास होना ही चाहिए ! यह गर्व हमारी अगली पीढ़ी के आत्मविश्वास के आधार का एक पत्थर बनेगा !
मुझे यह पोस्ट बहुत अच्छी लगी तुम्हारे गज़ब के आत्मविश्वास के लिए बधाई और शुभकामनायें !

महेन्‍द्र वर्मा said...

आज गांव से लौटकर कुछ अध्ययन-अन्वेषण किया तो इस पोस्ट से संबंधित जो अन्य जानकारी प्राप्त हुई, वह इस प्रकार है-
पौराणिक कोश के अनुसार चित्रगुप्त जी चौदह यमराजों में से एक हैं जो प्राणियों के पाप पुण्य का हिसाब लिखते हैं। धर्मशास्त्र संग्रह के अनुसार चौदह यमराजों के नाम ये हैं- यम, धर्मराज, मृत्यु, अन्तक, वैवस्वत, काल, सर्वभूतक्षय, औदुम्बर, दध्न, नील, परमेष्ठी, वृकोदर, चित्र और चित्रगुप्त। पितृपक्ष में प्रत्येक के नाम से 3-3 अंजलि जल का तर्पण देते हैं। चित्रगुप्त जी के संबंध में पद्म, गरुड़, भविष्य आदि पुराणों में अनेक कथाएं हैं। स्कंदपुराणानुसार चित्रगुप्त नाम के एक राजा थे जो लेखाकार्य में बड़े प्रवीण थे। यमराज ने इन्हें बुलवा कर लेखा कार्य सौंप दिया था। भविष्य पुराण के अनुसार ये ब्रह्मा जी के शरीर से उत्पन्न हुए थे। काया से उत्पन्न होने के कारण ये कायस्थ कहलाए। उत्पत्ति के समय इनके हाथ में कलम-दवात थी इसलिए ब्रह्मा ने इन्हें प्राणियों के पाप-पुण्य का लेखा रखने को कहा। गरुड़ पुराण के अनुसार यमपुर के पास ही चित्रगुप्तपुर है। कायस्थ समुदाय के ये आदिपुरुष हैं। चित्रगुप्त जी के बहीखाते का नाम ‘अग्रसन्धानी‘ है।

ZEAL said...

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महेंद्र वर्मा जी,

आपने जो जानकारी जोड़ी है इस विषय पर, वो तो शायद बहुत से लोगों को नहीं मालूम होगी। मेरे लिए तो सर्वथा नयी जानकारी है। मनोज जी, बृजमोहन जी और आपके द्वारा दी गयी जानकारियों से मेरा इस विषय पर बहुत ज्ञानवर्धन हुआ है। इसके लिए आप सभी की ह्रदय से आभारी हूँ।

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जयकृष्ण राय तुषार said...

very nice with regards

Jyoti Prakash said...

उपरोक्त लेखों में कि
' पहले पढ़ाई-लिखी में अग्रणी रहने वाला कायस्थ समाज आज बहुत पिछड़ गया है। ब्राम्हण और अग्रवाल अपना परचम लहरा रहे हैं प्रतियोगी परीक्षाओं में। '
पर, लिखने-पढने पर जो याद आया, प्रस्तुत है -
http://en.wikipedia.org/wiki/Mahabharata :
Textual history and structure
The epic is traditionally ascribed to Vyasa, who is also a major character in the epic. The first section of the Mahabharata states that it was Ganesha who, at the request of Vyasa, wrote down the text to Vyasa's dictation. Ganesha is said to have agreed to write it only on condition that Vyasa never pause in his recitation. Vyasa agreed, provided Ganesha took the time to understand what was said before writing it down.

http://www.vinayakagod.com/story-of-ganeshe-mahabharata/ :
Sage Vyasa need somebody who can take down the story and accordingly Brahama arranged Lord Ganesha. Ganesha was a boy then. Lord Ganesha put forth a condition “My Lord, you should not stop the narration at any point, the story must flow without pause. I shall write it down as Smoothly as one gulps down a cup of water. If you stop at any point, I will give up my job and go away” – Lord Ganesha spoke quietly.
Vyasa nodded his head in admiration. He said “Yes, I accept your conditions. But you should understand every word before you set it down.” Lord Vinayaka cheerfully accepted the challenge. Thus began the composition of the story of Mahabharata.

अतः साथ-साथ ----
श्री गणेशाय नमः |

ZEAL said...

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ज्योति प्रकाश जी,

सर्वप्रथम , साथ-साथ और सदा सर्वदा---

श्री गणेशाय नमः ।

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