निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाए ,
बिन पानी साबुन बिना , निर्मल करे सुभाय ।
अरे भाई हम क्या ख़ाक कुटी छावायेंगे, ये तो स्वयं ही यत्र-तत्र अपनी कुटिया डाले कालोनी बसाये मिल जायेंगे। एक ढूंढो चार मिलेंगे। पिछली पोस्ट पर पाठक बंधुओं ने कहा की निंदक ही सच्चे अर्थों में हमारे मित्र हैं। अरे अगर ये हमारे मित्र हैं और हमारा भला कर रहे हैं तो फिर हमारे गुरु , माता पिता और शुभ-चिंतकों का क्या होगा जो बिना निंदा रुपी हथियार का इस्तेमाल किये ही हमारे आत्मिक विकास का कारण होते हैं।
अब कबीरदास जी को कौन समझाए की दो विरोधाभासी दोहा लिखने की क्या आवश्यकता थी । कबीरदास जी ने ये नहीं सोचा की वे स्वयं तो संत हैं , लेकिन मनुष्य जाति तो पैदायशी निंदक है , खुद ही तत्पर रहती है हर दुसरे की निंदा करने के लिए , एक निंदक दुसरे कों भला क्यूँ बर्दाश्त करेगा । वैसे भी वामपंथी ज्यादा हैं। खैर हम तो कबीरदास जी के भक्त हैं और विश्वास करते हैं उनके दक्षिणपंथी दोहे में -
ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोये,
औरों को सीतल करे, आपहुं सीतल होए।
निंदकों की विशेषताएं-
निंदक से होने वाले सामाजिक लाभ-
यदि ये Constructive criticism करें , तथा सही व्यक्ति की निंदा करें [जहाँ वास्तव में जरूरत है] तो समाज में सुधार ला सकते हैं ये लोग। लेकिन अफ़सोस ये लोग सुधरे हुए लोगों को सुधारने में अपनी ऊर्जा व्यय करते हैं।
निदा करने से होने वाली हानियाँ -
एक निंदक को सदैव निम्न रोगों के होने का खतरा बना रहता है -
बिन पानी साबुन बिना , निर्मल करे सुभाय ।
अरे भाई हम क्या ख़ाक कुटी छावायेंगे, ये तो स्वयं ही यत्र-तत्र अपनी कुटिया डाले कालोनी बसाये मिल जायेंगे। एक ढूंढो चार मिलेंगे। पिछली पोस्ट पर पाठक बंधुओं ने कहा की निंदक ही सच्चे अर्थों में हमारे मित्र हैं। अरे अगर ये हमारे मित्र हैं और हमारा भला कर रहे हैं तो फिर हमारे गुरु , माता पिता और शुभ-चिंतकों का क्या होगा जो बिना निंदा रुपी हथियार का इस्तेमाल किये ही हमारे आत्मिक विकास का कारण होते हैं।
अब कबीरदास जी को कौन समझाए की दो विरोधाभासी दोहा लिखने की क्या आवश्यकता थी । कबीरदास जी ने ये नहीं सोचा की वे स्वयं तो संत हैं , लेकिन मनुष्य जाति तो पैदायशी निंदक है , खुद ही तत्पर रहती है हर दुसरे की निंदा करने के लिए , एक निंदक दुसरे कों भला क्यूँ बर्दाश्त करेगा । वैसे भी वामपंथी ज्यादा हैं। खैर हम तो कबीरदास जी के भक्त हैं और विश्वास करते हैं उनके दक्षिणपंथी दोहे में -
ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोये,
औरों को सीतल करे, आपहुं सीतल होए।
निंदकों की विशेषताएं-
- निंदक जो रस निंदा करने में लेते हैं, वही रस उन्हें अपनी निंदा सुनने में नहीं आता।
- ये अच्छे -भले व्यक्ति का आत्म-विश्वास तोड़ने में सक्षम होते हैं
- ये अक्सर थोडा सा फ्रसटेटेड जंतु होते हैं।
- इनके अन्दर गुस्सा या आक्रोश काफी मात्रा में भरा होता है
- ईर्ष्या भी इनके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग होती है
- ये थोड़े possessive या obsessed भी होते हैं।
- किसी भी क्षेत्र में असफलताओं के चलते निंदकों का जन्म होता है [कोई भी जन्म-जात निंदक नहीं होता]
- प्रायः निंदक स्वयं को Mr Perfect या फिर Ms Perfect समझते हैं।
- इन्हें लगता हैं की बुद्धि का अक्षय पात्र इन्हीं के पास है। और समाज में यदि क्रांति आ सकती है तो सिर्फ इनके कारण ।
- कुछ अपवाद को छोड़कर , ज्यादातर निंदक Destructive criticism में लिप्त पाए जाते हैं।
- आजकल के निंदक , ईर्ष्या से युक्त होकर दूसरों में कमियां ढूंढते हैं और अपने प्रतिद्वंदी को नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं ।
- अगर कोई ज्ञानी व्यक्ति निंदा करे तब तो बात समझ आती है , लेकिन आजकल तो जिसे देखो वही मुह उठाये निंदा करने चला आता है ।
निंदक से होने वाले सामाजिक लाभ-
यदि ये Constructive criticism करें , तथा सही व्यक्ति की निंदा करें [जहाँ वास्तव में जरूरत है] तो समाज में सुधार ला सकते हैं ये लोग। लेकिन अफ़सोस ये लोग सुधरे हुए लोगों को सुधारने में अपनी ऊर्जा व्यय करते हैं।
निदा करने से होने वाली हानियाँ -
एक निंदक को सदैव निम्न रोगों के होने का खतरा बना रहता है -
- Insomnia [अनिद्रा]
- Constipation [कब्ज़]
- Anxiety [व्यग्रता]
- Hypertension [उच्च रक्तचाप]
- निंदक और ऊर्जा संरक्षण -
- निदकों के पास इतनी ऊर्जा होती है की यदि इनकी ऊर्जा का उचित इस्तेमाल किया जाए तो कई विद्युत् ऊर्जा संयंत्र बनाए जा सकते हैं तथा पवन-चक्की को replace भी किया जा सकता है।
- एक दिन मैंने अपनी आभासी सखी -'सजनी' से पूछा निंदकों का निदान क्या है ? सजनी बोली - " अरी दिव्या , ये निंदक ही तो असली मैडल हैं सफलता के। जितना सफल व्यक्ति, उतने ही ज्यादा निंदक । ये निंदक ही तो व्यक्ति की सफलता के मापक हैं। आम आदमी की निंदा करने भला कौन जाएगा। "
मैंने सजनी को कौतुक से देखा फिर पूछा - " यदि निंदक ही सफलता की पहचान हैं , तो फिर कोई गांधी और विवेकानंद की निंदा क्यूँ नहीं करता ? "
सजनी बोली - " उनके बहुत से निंदक थे , जो समय के साथ पंचतत्व में विलीन हो गए , लेकिन चमकने वाले सितारे आज भी जगमगा रहे हैं "
खैर सजनी कुछ ज्यादा ही विद्वान् है, उसकी बातें वो ही जाने , मैं तो निंदकों के लिए चिंतित हूँ। इसलिए निंदकों के Rehabilitation का उपाय बता रही हूँ - - निंदकों को चाहिए की वो एक दिन में , दो से ज्यादा की निंदा ना करें
- क्रमशः टेपरिंग डोज़ में सप्ताह में दो बार , फिर मॉस में दो बार और फिर छोड़ दें इस लत को
- शनैः शनैः जब लत छूट जाए तो पुनः टेपरिंग डोज़ द्वारा प्रशंसा की आदत डालें
- किसी की प्रशंसा से मिलने वाला रस, निंदा के रस से कहीं अधिक मीठा और सुकूनदायी होता है। [ गंभीर पाठक कृपया , प्रशंशा को चाटुकारिता से Confuse न करें ]
हुज्जत मैंने बहुत सी की, उनको यहाँ बुलाने की
बार-बात सहमत भी हुई कोशिश में उन्हें रिझाने की
कुटिया भी मैंने बहुत छवाई , उन्हें यहाँ ठहराने की
लेकिन वो तो तेरे दीवाने, कदर नहीं आशियाने की
सजनी का दुःख देख पसीजा , भावुक दिल इस ज़ील का
निंदक को कुछ कम न समझो, पत्थर है वो मील का
हमें 'निंदक' नहीं रोल-मॉडल्स' चाहिए ! निंदा का काम तो सड़क किनारे बैठा एक निठल्ला भी कर लेगा, इसमें मज़ा जो आता है सबको। लेकिन रोल-मॉडल बनना किसी ऐरे गैरे के बस की बात नहीं है!
आभार।
64 comments:
जीवन में ढालने बाली बातें कही हैं आपने ...जिस दोहे को आपने आधार बनाया है उसी के अनुरूप पूरे विषय का विश्लेषण किया है ..और बहुत सारगर्भित तरीके से ...दिव्या जी ..विषय को प्रस्तुत करने का आपका तरीका बहुत लाजबाब है ..यूँ ही आगे बढ़ते रहिये ..हार्दिक शुभकामनायें
:) आपकी "सजनी" एकदम ठीक कहती है .
bahut hi badhiya dhang se nindak ko paribhashit kiya hai aapne.....nindak ko nikat rakkhaa jaa sakta hai lekin mitra nahi maanaa jaanaa chaahiye...bilkul sahi.
है तो धमाकेदार लेख, तारीफ करनी पड़ेगी। वैसे एक छोटी सी घटना बताऊं। जब कबीर जी ने निंदकों की तारीफ की तो सारे निंदक उन्हीं की कुटिया के गिर्द इकट्ठा होने लगे थे। कबीर जी की तपस्या में विघ्न पड़ने लगा। जब भी वे कहते कि साधो, मुझे तपस्या करने दो, भजन में बाधा मत डालो। जवाब में उन्हें निंदक नियरे कहने लगते कि हे महापुरुष आप ही तो हमारी महत्ता का वर्णन करते हैं, सो अब परेशान क्यों हो रहे हैं। कबीर चुप हो जाते। एक दिन-दो दिन...माह बीतते बीतते कबीर जी भी परेशान हो गए। उन्होंने पहले तो अपनी लुकाठी उठाई, जिसे लेकर प्रायः वे बाजार में खड़े हो जाया करते थे। जब निंदकों ने देखा तो भाग खड़े हुए। कुछ फिर भी रह गए, जो तर्क कुशल थे। उन्होंने कहा कि हे महाभाग, आपको गुस्सा क्यों आया। आपने ही तो कहा था-निंदक नियरे राखिए...। कबीर ने तुरंत वह पर्ची फाड़ डाली जिसपर यह दोहा लिखा था। उन्होंने फिर से लिखा-कबीर निंदक न मिलो, पापी मिलो हजार। एक निंदक के शीश पर कोटि पापिन को भार। ...वो दिन था और आज का दिन है, अपुन ने तो निंदकों से दूर रहना ही शुरू कर दिया है।
बहुत खूब , आपके लिखने के अंदाज से मज़ा आगया . व्यंग का पुट अपने चरम पर है . आलोचना अगर स्वस्थ हो तो निंदा रस के श्रेणी में नहीं आएगी . वैसे सबसे मस्त रस निंदा ही होता है. हा हा . एकदम मस्त विवेचन किया है अपने वामपंथी निंदक का .
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (2/12/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
यदि ये Constructive criticism करें , तथा सही व्यक्ति की निंदा करें [जहाँ वास्तव में जरूरत है] तो समाज में सुधार ला सकते हैं ये लोग। लेकिन अफ़सोस ये लोग सुधरे हुए लोगों को सुधारने में अपनी ऊर्जा व्यय करते हैं।
बढिया लिखा है !!
किसी बात को सीधा सीधा सपाट रख देना और उसी बात को सलीके से विश्लेषित करके ..पूरे तफ़सील से सबके सामने रखना तो कोई आपसे सीखे ..आपकी ये मास्टर स्ट्रोक शैली ..मुझे बहुत ही भाती है । बांकी पोस्ट तो मार्के की है ही
जगह तो प्रशंसकों को भी चाहिए होती है , आँगन में न सही , दिल के किसी कोने में ही सही .
अमित जी की तारीफ़ में कही गई कुछ पंक्तियां पेशे ख़िदमत हैं -
रहता है जिसके दिल में प्यार सदा
वह करता है जग पर उपकार सदा
हैवाँ भी करते हैं अपनों से प्यार
इंसाँ ही गिराता है भेद की दीवार सदा
मख़्लूक़ में सिफ़ाते ख़ालिक़ का परतौ
इश्क़े मजाज़ी से वा है हक़ीक़ी द्वार सदा
विराट में अर्श है जो, सूक्ष्म में क़ल्ब वही
यहीं होता है रब का दीदार सदा
किरदार आला, ज़ुबाँ शीरीं है अमित तेरी
ऐसे बंदों का होता जग में उद्धार सदा
............
मख़्लूक़ - सृष्टि , ख़ालिक़ - रचयिता , इश्क़े - मजाज़ी लाक्षणिक प्रेम जो किसी लौकिक वस्तु से किया जाए , हक़ीक़ी - सच्चा , हैवान पशु , शीरीं - मीठा
bahut khoob......
हुज्जत मैंने बहुत सी की, उनको यहाँ बुलाने की
बार-बात सहमत भी हुई कोशिश में उन्हें रिझाने की
कुटिया भी मैंने बहुत छवाई , उन्हें यहाँ ठहराने की
लेकिन वो तो तेरे दीवाने, कदर नहीं आशियाने की
सजनी का दुःख देख पसीजा , भावुक दिल इस ज़ील का
निंदक को कुछ कम न समझो, पत्थर है वो मील का
waakai nindak meel ke patthar hote hain..........sunder!!!
निंदा रस को साहित्य में दसवें रस के रूप में भी प्रतिस्थापित भी किया गया है कहते हैं जब कोई किसी की निंदा करता है तो निन्दित की आयु बदती है व्यंग्य की प्रखरता और उसके उपाय बड़े ही सफल तरीके से प्रस्तुत किये है आपने.
क्या कहूं,
मैं खुद एक निंदक हूँ... निंदक इस परिपेक्ष में कि कोई भी बात जो मुझे गलत लगती है मैं बोलने में नहीं हिचकता...ऐसा करने से मुझे सुकून मिलता है वरना वो बात हमेशा परेशान करती रहती है... मैंने कई बार सोचा कि ऐसी चीजों को नज़रंदाज़ कर दूं लेकिन नहीं कर पाया...बेचैनी होने लगती है...अब इसे मेरी मानसिक बीमारी समझें या कुछ और ...
और फिलहाल आपके दिए लक्षणों में कोई भी परेशानी नहीं है मुझे.... और मैं काफी संतुष्ट रहता हूँ...
और मेरा मानना है कि झूठी प्रशंसा करने वालों से अच्छे तो निंदक ही होते हैं...
यदि ये Constructive criticism करें , तथा सही व्यक्ति की निंदा करें [जहाँ वास्तव में जरूरत है] तो समाज में सुधार ला सकते हैं
सच है लेकिन ऐसा होता नहीं? नसीहत करने वाला भी अक्सर चूक जाता है...
आपने निंदा करने वालों की कुछ-कुछ निंदा करके अच्छा नहीं किया :)) आपकी पोस्ट में कुछ अच्छे सुझाव हैं.
ek samajik roop se pratisthit evem adhikrit vyakti
jab koi bhoolwash kshudra kritya kar jata hai to
sajjan mnushya uski 'ninda' karta hai...........
iske biprit ek samajik roop se apratisthit evem an-adhikrit vyakti jab koi janbooghkar kshudra kritya kar jata hai to durjan manusya use 'protsahan' detahai..........................
yahan 'ninda' karnewale sahi hai.............
wahan 'protsahan' karnewal galat hai ........
bakiya is tarah ke chintan 'manovygyanik' vishleshn mangte hain.........................
pranam.
सुगठित व्यंग, निंदा पर विषयगत हो, व्यक्तिगत नहीं।
आज तो आपने सारा का सारा दिल ही उडेल दिया है।
हमारे तो, यहां कुटिया बनाने के सारे प्रयास निष्फल होते रहे।
और आज तो कुटियाओं पर बुलडोज़र ही फेर दिया।
निंदक नियरे राखिये, आगन कुटी छवाए ,
बिन पानी साबुन बिना , निर्मल करे स्वभाव ।
पर क्या कबीर के ज़माने में साबुन था!!! और था तो कौनसा, क्योंकि तब हिंदुस्तान लिवर का जन्म नहीं हुआ था :) या यह क्षेपक है?
Divya ji..believe me I really like this post. Whatever you wrote about the So called 'NINDAK',
I fully agree with that. I can understand everybody can't think like you. There might be different points of view, depends on person to person. But I'm sure most of the blogger would appreciate this post. Really worth reading post. Thanks.
बहुत ही सशक्त व्यंग्य.अगर आलोचना constructive हो तो निंदक को पास रखने में कोई बुराई नहीं ,लेकिन ऐसे निंदक हैं कहाँ ? अगर ऐसे निंदक होते तो समाज की आज जो हालत है वह नहीं होती.इस लिए आज के हालात में निंदकों से दूर रहने में ही भलाई है.उनके सुधार के लिए आपने जो उपचार बताया है वह निश्चय ही प्रभावकारी साबित हो सकता है. आभार
आकर्षक लेखन ..
आपकी पोस्ट हमेशा शिक्षाप्रद होती है!
इस सार्थक पोस्ट के लिए साधुवाद!
पोस्ट ने तो काफी कुछ सिखा दिया
लेकिन आज पहली बार आपकी कविता पढी
से शैली भी अच्छी लगी
कटाक्ष के साथ ग्यान भी बाँट दिया। अच्छी पोस्ट के लिये बधाई।
सुचिंतनयुक्त सार्थक आलेख के लिए बधाई स्वीकार करें।
कबीर ने निंदक शब्द का प्रयोग दो विभिन्न अर्थों में किया है, एक- स्वस्थ समालोचना करने वाला। ऐसा करने वाले परम हितैषी होते हैं, जैसे, माता, पिता, गुरु और सच्चे मित्र। ये यदि समालोचना न करें तो संतान, शिष्य या मित्र प्रगति ही न कर पाएंगे। गुरु-शिष्य परंपरा से संगीत सीखने वालों को गुरु की तीखी समालोचना आज भी सुननी पड़ती है। ‘निंदक नियरे राखिए‘ में निंदक का अर्थ संभवतः इसी संदर्भ में है।
निंदक का दूसरा अर्थ कबीर के ही निम्नांकित दोहों में आसानी से खोजा जा सकता है। ये दोहे आलेख में व्यक्त विचारों का भरपूर समर्थन करते हैं-
निंदक तो है नाक बिन, सोहै नकटा माहिं।
साधू सिरजनहार का, तिनमें सोहै नाहिं।।
निंदक ते कुत्ता भला, हठ करि मांडै रारि।
कूकर तें क्रोधी बुरा, गुरू दिखावै गारि।।
निंदक एकहु मत मिलै, पापी मिलौ हजार।
एक निंदक के सीस पर, कोटि पाप को भार।।
कबिरा मेरे साधु की, निंदा करौ मति कोइ।
जो पै चंद कलंक है, तउ उजियारा होय।।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल (यदि मेरी स्मृति साथ है) का निन्दा रस पढ़कर बहुत आनन्द आया था. आज निन्दकों के बारे में पढ़ा तो उसकी याद आ गयी..
Humorous & True. Made Interesting by your unique style.
Thanks.
भारतीय नागरिक जी,
‘निंदा रस‘ आचार्य रामचंद्र शुक्ल का नहीं बल्कि हरिशंकर परसाईं का व्यंग्य आलेख है।
... nirantar gyaanvardhak post ... badhaai !!!
भई नए उर्जा स्त्रोत के बारे में खोज है..
कोई सुन रहा है ??
Medicography and management of critics अच्छा लगा. वाकई शानदार ........
समीक्षा रचनात्मक व सुधारात्मक होती है ......साहित्य में हमें निंदा से बचते हुए समीक्षा की ओर ध्यान देना चाहिए . यदि किसी को विचार अच्छे न लगें तो छोड़कर आगे बढ़ जाना चाहिए ........अपने अनुसार सुधार का ठेका नहीं ले लेना चाहिए . निंदा का उद्देश्य विरोध ही है .....कभी-कभी यह विरोध सही होता है और कभी गलत और दुर्भावनापूर्ण भी . कुख्यात चारा घोटाले की निंदा होनी ही चाहिए ........ऐसी निंदा स्वीकार्य है . धर्म के नाम पर योग की निंदा दुर्भावनापूर्ण है.....ऐसी निंदा की निंदा होनी चाहिए.
तो दिव्या जी ! समाज में निंदकों से तो राम और सीता भी नहीं बच पाए .......निंदा से घबराकर राम नें सीता जी को जंगल का रास्ता दिखा दिया ......कुछ निन्दायें ऐसी होती हैं जिनकी उपेक्षा कर देनी चाहिए ......राम नें अपनी मर्यादापुरुषोत्तम की छवि बचाने कि लिए हर निंदा को ज़रुरत से ज्य़ादा तवज्जो दे दी .....परिणाम भुगतना पड़ा सीता जी को....तो हमें अपनी ऊर्जा को निंदा से निपटने में खर्च नहीं करना है ........वरना विकास हमारा ही अवरुद्ध होगा.
aetiology से लेकर signs , symptoms ...and management ..... सब तो लिख दिया ....prognosis और लिख देना था ......किसी को P .G . के लिए कुछ मसाला मिल जाता. सच्ची ....कसम लालू की .....परिहास बिलकुल नहीं कर रहा हूँ .
....निंदक के विरूद्ध शब्दों की अच्छी मार।
....कहीं यह पिछली पोस्ट के निंदकों की निंदा तो नहीं है?
इन निंदकों से भगवान् बचाए ...
बहुत सटीक व्याख्या की है निंदा रस की |
निंदको को समालोचना करना शोभा देता है |
बढ़िया सम्पूर्ण आलेख |
यह तो भली कही तैणें
ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोये,
औरों को सीतल करे, आपहुं सीतल होए ।
मतबल यो के..
इह तरियों बोलणा के सुणन वाले अपणा आपा खो देवैं, साथ में दो-तिन्न जने को ठँडा कर खुद को भी ठँडा कर लेवैं ।
जी इब मैं समज गया के जब ना रहवेगा बाँस तो ना बाजता बँसरी !
मन्नैं सजणी को मेल आई-ड्डी पठा दो,
हर गैल में खोट खोजण कै मन्नैं गँदी आदत सै,
कुझ हम भी सीख लेवैं, पण यो ठँडा-ठँडी हमसे ना होणे का !
Nicely targeted post.. well woven expressive reference !
I liked it !
बहुत तरीक़े और तार्किक ढंग से आपने अपनी बात रखी है। आभार इस पोस्ट के लिए।
शोध का विषय भी अच्छा और शोध पत्र भी ....विचारणीय पोस्ट
.
.
.
सुंदर लेख,
अब हर कोई 'कबीर' सा तो हो नहीं सकता... ;)
...
Dearest ZEAL:
Read.
Noted for future compliance.
Semper Fidelis
Arth Desai
बेहतरीन पोस्ट लेखन के बधाई !
आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है-पधारें
आप तो सद्विचारों की भी डॉक्टर हैं दिव्या जी
छिपी हुई कलियों यानी छिपकलियों का कहना है कि बिन बोले अब मुझे, नहीं कहना है
'रचना का अलबेला अरमान'
इस शीर्षक से ख़ादिम ने दूसरी बार कुछ लिखने की कोशिश की है ।
यह रचना अलबेला खतरीय जी की प्रतियोगिता में शामिल होने की ग़र्ज़ से लिखी गई है ।
जब यह आपके सामने आए तो मेहरबानी करके इसे निन्दा या आलोचना का नाम न दिया जाए ।
वर्ना मेरे शेख़चिल्ली को बहुत सदमा होगा ।
उस बेचारे को पहले ही अपने अंडे फूटने का गम है ।
मेरी कहानी में मेरा गधा भी है बिना गधी के । कहानी के अंत में गधा वह करने के लिए भागता है जो कि एक बिल्कुल अलबेला विचार है ।
रचना अनोखी और अछूती है । इसमें अलबेला जी को बिना नक़ाब के आप सभी देख सकते है । उनकी महानता को यह लेख उजागर करता है ।
रचना गर जवान है तो अलबेला महान है
कामेडी और संस्पेंस के साथ ब्लाग संसार की गुदगुदाती सच्चाईयां ,
बहुत जल्द होंगी आपके सामने .
@ ZEAL जी ! आप सफल है , क़ाबिलियत आपकी यहां सबको तसलीम है ।
निंदक के घर में तो कोई बहन बेटी नहीं होती इसलिए यहां टैम काटने चला आता है ।
जब उसकी बेटी कोई ब्लाग बनाएगी तब इसका किया धरा उसे झेलना पड़ेगा ।
आपके दुख को ये नापाक बदबख़्त तब समझेंगे ।
आप अटल हैं ये अब मैं भी जान गया हूं ।
ब्लाग भले ही अब लिखना शुरू किया है लेकिन पाठक पुराना हूं ।
शुभकामनाएं .
apke dawara likhi gaye sabhi baton koi na arth jarur hota he par bar to apne pure ke pura saghrah hi likh dala par apka kam bahut acha he mujhe mere jese sbhi sabhi doston ko pasand ayaga
एक रस, निन्दा-रस भी कहा है गुनी जनों नें।
व्यंग्य में आपकी पैनी नज़र का कमाल साफ़ साफ़ दिखता है! कहाँ से क्या उठा कर कहाँ जोड़ दिया,बेमिशाल है !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
निंदा भी वही कर पाता है,जो बहुत अनुभवी हो। यक़ीन जानिए,निंदा करना आसान नहीं है। निंदा पर कुंडली के परिप्रेक्ष्य में विचार करना चाहिए। कई लोग कहेंगे कि जो भविष्य में होना है और होना ही है,उसके विषय में कोई नकारात्मक बात जानकर वह तनाव आज ही क्यों मोल लें,जो कल घटित होना है। लेकिन,इसका एक दूसरा पहलू यह है कि अगर हमें आज यह पता चल जाए कि कल अमुक चीज़ होगी,तो जब वह होगी,हम पर उसका असर थोड़ा कम होगा। ऐसे ही,निंदकों का स्वागत करना चाहिए और नीर-क्षीर विवेक का इस्तेमाल कर, उनकी निंदा में जो तत्व विचारणीय है,उसे स्वीकार कर बाकी को अस्वीकार करना चाहिए। अफ़सोस,कि ब्लॉग जगत में लोग दो लाइन की टिप्पणी तक बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं(यह एक सामान्य टिप्पणी है और किसी व्यक्ति विशेष को लक्षित नहीं है)। मैं मानता हूँ कि प्रशंसकों में से अधिकतर चाटुकार-मक्खनबाज़ होते हैं जो भिन्न-भिन्न कारणों से आपकी कमियों से अवगत रहते हुए भी इसकी ओर ईशारा नहीं करते। उनसे भले ये निंदक ही हैं,जो पुनर्विचार का अवसर तो प्रदान करते हैं। तर्कशास्त्र के विकास में निंदकों का अप्रतिम योगदान रहा है।
divya ji
aap jo kuchh bhi likhati hai vah apna prabhau jaroor chhod jaati hai .harek vyakti itni kushlta kesaath aapne hi likhe ko sahi rpp nahi de pata par aap isme mahir hain.
poonam
chaar darjan tippaniyan mubarak hon .
हमें नेकी पर चलने के लिए एक आदर्श व्यक्ति और तमीज़ दरकार है
आपकी पंक्तियाँ लाजवाब हैं . निस्संदेह , यह हमारी विडंबना है लेकिन यह है क्यों ?
मैं जब इस पर लिखता हूँ तो हिमायत करने सामने कम ही आते हैं .
आज भारतीय समाज के पास एक भी ऐसी आइडियल पर्सनैल्टी नहीं है जिसके अनुकरण के लिए समाज का आह्वान किया जा सके .
है कोई ?
अगर हो तो आप बता दीजिये . यह महज़ एक बौद्धिक सलाह ले - दे रहा हूँ .
हमें नेकी पर चलने के लिए नेकी और बदी में बिलकुल साफ़ तमीज़ दरकार है और एक ऐसे आदर्श व्यक्ति की , जो न्याय , समानता और नैतिकता का ऐसा नमूना हो की जो उसने दूसरों से कहा हो , दूसरों से पहले खुद उसे दूसरों से बढ़कर किया हो.
http://ahsaskiparten.blogspot.com/2010/12/blog-post.html
very nice post
सारे निंदक यहाँ आ कर अपने लक्षण पहचान सकते है फिर वो चाहे चिकित्सक हो या कुछ भी . एक दम सटीक सलाह भी मुफ्त है.
बहुत ही सटीक विश्लेषण किया है आप ने .
अरे मुझे आजकल नींद नहीं आती। पर कब्ज भी नहीं है। गुस्सा भी है, आक्रोश भी है, पर इर्ष्शा नहीं है। तो क्या आधा निंदक हूं मैं.......तो क्या आधा ही ईलाज करुं अपना जो आपने बताया है दिव्या जी। बताइए भी...........
.
@-रोहित जी,
यदि आपको निंदक होने के side effects नहीं हैं तो आप निंदा जारी रखिये।
@- कुमार राधारमण-
जिन्हें आप स्वास्थ्य निंदक कह रहे हैं, वैसे निंदक तो आजकल दुर्लभ हो गए हैं। ब्लॉगजगत में मुझे निंदक कम भडासी ज्यादा दीखते हैं। जो एक जगह निंदा करते हैं और शेष जगह जाकर चाटुकारिता करते हैं । भिन्न भिन्न ब्लोग्स पर इनके गुण-धर्म ही बदल जाते हैं।
.
हिन्दी ब्लागजगत के आप जैसे चिर-परिचित व्यक्तित्व ने मेरे शिक्षणकाल के ब्लाग "नजरिया" पर आकर अपनी अमूल्य टिप्पणी से मेरा मार्गदर्शऩ व उत्साहवर्द्धऩ किया उसके लिये आपको विनम्र धन्यवाद...
अलग-अलग विषय से सम्बद्ध मेरे अन्य ब्लाग "जिन्दगी के रंग" व "स्वास्थ्य-सुख" भी आपके अवलोकन व आशीर्वचन के साथ ही आपके अमूल्य समर्थन के भी अभिलाषी हैं । कृपया ऐसे ही अपने बहुमूल्य सुझावों के साथ अपना स्नेह बनाए रखें । पुनः धन्यवाद सहित...
सुन्दर एवं प्रभावशाली लेखन ...बधाई ।
.
एक बात तो तय है की निंदक जो रस निंदा करने में लेते हैं, वही रस उन्हें अपनी निंदा सुनने में नहीं आता।
.
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पहली बात तो यह है कि कबीर जी के साथ अपने तुझ सोच विचार और ज्ञान की तुलना मत करो कबीर जी कोई साधारण संत नहीं है 7 वर्ष की आयु में ही कबीर जी ने बड़े बड़े संतो काशी के पंडितों के ज्ञान चर्चा में हरा दिया था।
दूसरी बात आप से निवेदन है कृपया हाथ जोड़कर आप कबीर जी को साधरण संत ना समझे वो तो संतो के संत है उनके चरण की धूल तो किसी पुण्य प्राणी को ही मिलती हैं कितने करोड़ों मनुष्य जन्मों के बाद 🙏🙏
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