बहुत मनन किया इस विषय पर की आखिर वजह क्या है लोग तेज़ी से एकल परिवार को प्राथमिकता दे रहे हैं , तो कुछ इस प्रकार से कारण सामने आये -
- पहले खेती बाड़ी होती थी , पिता और भाई सभी एक ही खेत में मिलकर काम करते थे , काम और मेहनत में कोई फर्क नहीं था । इसलिए मन में भेद-भाव भी नहीं आता था। आज एक परिवार के दो भाई भिन्न-भिन्न नौकरी कर रहे हैं , अलग-अलग मासिक आय और status आपस में कुंठा पैदा कर रही है । बढ़ते वैमनस्य से लोग अलगाव की तरफ अग्रसर हो रहे हैं।
- एक कारण नौकरी का अलग शहर में होना भी लोगों को परिवार से अलग कर रहा है। समय की बढती जरूरतों के साथ के साथ आज अपने बच्चे शादी से पूर्व ही शिक्षण संस्थाओं के दूसरे शहर अथवा विदेश में होने के कारण घर से दूर होस्टल आदि में रह रहे हैं। ऐसी स्थिति में भी माता-पिता अकेले हो रहे हैं।
- तीसरा कारण घर में इकलौती संतान का होना, जिससे एकल परिवार का होना सुनिश्चित है।
- यदि दो भाई हैं , तो अक्सर देखा गया है माएं दोनों को बराबर प्यार करती हैं , लेकिन सास बनने के बाद दोनों बहुओं पर सामान ममता नहीं लुटा पातीं , एक को बहुत मान मिलता है तो दूसरे को तिरस्कृत होना पड़ता है. जिसके कारण कुंठाग्रस्त आधा हिस्सा अलग होने के लिए मजबूर हो जाता है।
- आजकल कुछ महिलाएं जो नौकरी कर रहीं हैं , वो रिटायर होने के बाद अच्छी पेंशन पा रही हैं , तथा सास बनने की स्थिति में वो किसी प्रकार से दबना नहीं चाहती । खुद को सक्षम समझती हैं और खुद ही अपने बेटे बहु से अलग रहने का निर्णय ले रही हैं। उन्हें किसी की सत्ता स्वीकार नहीं, और इसका कारण है उनकी आर्थिक स्वतन्त्रता। वो शरीर और स्वास्थ्य से भी सक्षम हैं और आर्थिक रूप से भी । इसलिए वे अक्सर आजादी के साथ रहना पसंद करती हैं।
- अनिल और मुकेश अम्बानी को भी लगता रहा होगा की मैं ज्यादा सहयोग कर रहा हूँ व्यवसाय में। मुझे ज्यादा मान मिलना चाहिए । वैचारिक भिन्नता और कुंठा अलगाव का कारण बनती है।
- किसी को मांसाहार पसंद है किसी को शाकाहार , किसी को अकेले रहना पसंद है किसी के दोस्त और परिचित बहुत आते हैं घर पर । इस तरह विभिन्नता के चलते भी लोग अपने तरीके से अपना जीवन जीने के लिए अलग हो जाते हैं।
- आज मनोरंजन के साधन और विकल्प इतने ज्यादा हो गए हैं की लोगों की एक दुसरे पर निर्भरता भी कम हो गयी है , लोग किसी के साथ उठ बैठकर जो ख़ुशी हासिल करते थे , वो आज उन्होंने टीवी, कम्पूटर , विडिओ गमेस आदि में ढूंढ ली है। इसलिए मनुष्य के लिए मनुष्य की उपयोगिता कम और वैज्ञानिक तकनीकों पर निर्भरता बढ़ गयी है।
- माँ बाप से दो महीने भी दूर हैं तो चलेगा , लेकिन नेट कनेक्शन आधे घंटे भी नहीं मिला तो छटपटाने लगेंगे। शायद इंसानों का मशीनीकरण हो रहा है। वो इंसान कम रोबोट ज्यादा हो रहे हैं।
इस विषय पर आपके क्या विचार हैं , क्या सुझाव हैं और आप किसका समर्थन करते हैं - संयुक्त या फिर एकल परिवार ?
आभार।
54 comments:
दिव्या जी निसंदेह मै तो संयुक्त परिवार का ही समर्थन करूंगा| आज जब जनसँख्या की मार भारत झेल रहा है, मुंबई जैसे शहरों में रहने की जगह नहीं है, ऐसे में बढ़ते एकल परिवार समस्या खड़ी कर रहे हैं| सबसे बड़ी समस्या तो यह है कि स्त्रोत एक ही है और खर्चे दुगुने| जहाँ तक नौकरी या शिक्षा का सवाल है तो आज कल लोगों को अपना शहर छोड़ कर दूसरे शहर में बसना पड़ता है| ऐसे में अपने परिवार से अलग होना एक मजबूरी बन जाती है| एकल परिवार बढ़ने से लोगों में दूरियां भी बढ़ी हैं| पश्चिम के पीछे पागल भारतवासी श्रेष्ठ जीवन मूल्यों व पारम्पराओं को भूलते जा रहे हैं| किन्तु देख रहा हूँ कि कुछ लोग फिर से पहल कर रहे हैं| आशा है उनका प्रयास सफल हो|
संयुक्त से एकल हुए परिवार में अपने दो पुत्र व एक पुत्री को पाल-पोसकर बडा करके सबके शिक्षा-दिक्षा व शादी-ब्याह और काम धंधों में लगाने के बाद की स्थिति यह है कि बडी बहू जो संपन्न परिवार से आई है वह परिवार की आवश्यकता के अनुसार ज्यादा से ज्यादा पारिवारिक परिवेश से शुरु से सामंजस्य बैठाते हुए चल रही है जबकि छोटी बहू जो गरीब घर से आई है वह ग-गंवार जैसी योग्यता होने के बावजूद परिवार को अपने मुताबिक चलाने की कोशिश करते नजर आती है । परिवार के रिश्तों में कहीं कोई दिलचस्पी नहीं लेकिन खुद के पीहर के दूर-दराज के रिश्तों में भी पूरा समर्पण चाहिये होता है और उसी मुताबिक अपने पति याने छोटे पुत्र को ढाल भी चुकी है । आर्थिक रुप से वर्तमान में कोई किसी पर आश्रित नहीं है लेकिन सम्पत्तियां जो मैं मेरी व मेरी पत्नि के बाद छोडकर जाउंगा उस पर से दावा न हटे इसलिये अलग होने में भी कोई दिलचस्पी नहीं है । अब कौनसी प्रणाली के परिवार की मैं वकालत करुं ?
जब दो बड़े घराने अलग होते हैं तो उसमें कहीं न कहीं टैक्स की भारी बचत निहित होती है. मध्यम वर्ग में कहीं पैसे की मजबूरी होती.
मैने अपने परिवार को संयुक्त से एकल होते हुए देखा है। कारण भाभीयों मे आपस मे ताल मेल न होना रहा। कुछ दिन तो ठीक रहा, परन्तु जब एकल परिवार मे होने वाली समस्याओ से सामना करना पडा तो पता लगा कि हमारा संयुक्त परिवार ही ठीक था।
हम तो संयुक्त परिवार का समर्थन करते हैं. यह सच है की वे अब टूटते जा रहे हैं. सबसे बड़ा कारण हम सब खेती किसानी से विमुख हो गए. पापी पेट के चक्कर में घर छोड़ कर हर सदस्य को दूर जाना पड़ रहा है.
प्रश्न कठिन है, उत्तर परिस्थितियों पर भी निर्भर करेगा।
दिव्या जी टूटते परिवार इस विषय पर मैंने लिखने का सोचा था और बहुत कुछ लिख भी लिया था इस बिच स्वदेशी मेला का आयोजन और उससे सम्बन्धित विषय को मैंने ब्लॉग में डाल दिया !
इस विषय पर आपने पोस्ट लिखी पढ़कर लगा की मैंने जो भी लिखा था उसमे बहुत कुछ छुट गया था एक सार्थक रचना के लिए आपको बधाई हो
हम तो संयुक्त परिवार मे ही रहे हैं और जब किसी बच्चे को अकेले मुश्किलों का सामना करते देखते हैं तो उसे यही कहते हैं कि संयुक्त परिवार जैसा सुख कहीं नही\ क्क़ई बार कुछ मजबूरिओं के चलते भी संयुक्त परिवार मे रहना कठिन होता है लेकिन जहाँ सम्भव हो संयुक्त परिवार मे ही रहन सुखकर होगा। । संयुक्त परिवार सुरक्षा और सुख के लिहाज़ से अधिक महफूज़ हैं। अच्छे विषय पर लिखने के लिये बधाई।
संयुक्त परिवार के बिखराव और एकल परिवारों प्रचलन समाज का वर्तमान है . संयुक्त परिवार अपने हर सदस्य की महत्वाकांक्षा को शायद पाल पोश नहीं पाता है . अपने जितने भी कारण दिये है पारिवारिक विघटन के सारे सत्य है . पर पता नहीं क्यू मुझे अभी संयुक्त परिवार अच्छे लगते है . विचारोत्तेजक आलेख .
... critical situations in families ... but every member should try to manage each other !!
दोनो के ही अपने अपने गुण और दोष होते हैं इसलिये किसी एक को सही या दूसरे को गलत नही ठहरा सकते……………सबकी अपनी अपनी जगह खास उपयोगिता है। अपना एक मुकाम है।
समर्थन तो संयुक्त परिवार को पर एकल परिवार आज की मजबूरी है.
लगभग 50-60 साल में लोगों की ज़रूरतें,रहने-सहने के तौर तरीक़े,खान-पान,सोंच-समझ सभी कुछ बदलते समय के साथ बदल जाते हैं.एक युग बदलाव की संज्ञा इसे देना भी ग़लत नहीं लगता है.
संयुक्त परिवार का एकल परिवारों में तब्दील होना भी इसी का हिस्सा है. मेरा मानना है सब ख़ुश रहें, चाहे साथ साथ रहें या अलग अलग.
''किसी को मांसाहार पसंद है किसी को शाकाहार, किसी को अकेले रहना पसंद है किसी के दोस्त और परिचित बहुत आते हैं घर पर ।'' ऐसा तो पहले भी होता था.
दिव्या जी, सभी कारण आप ने सही गिनवाये, लेकिन अगर लोगो को आपस मे प्यार हो तो आज भी संयुक्त परिवार रह सकते हे,ओर जिस का लाभ ज्यादा हे,वैसे आज भी बहुत से परिवार संयुक्त परिवार हे. धन्यवाद
दिव्या जी , संयुक्त परिवार........... हमारे पाँच भाई पिता जी लोग अभी भी एक साथ ही रहते है करीब ४० लोंगों का परिवार , जो हमें आज भी एक रहने की प्रेरणा देते है. सब लोग अपने नौकरी , काम- धंधे में इधर उधर व्यस्त है मगर गाँव का पुस्तैनी घर अभी एक ही है और जब सभी किसी प्रयोजन या शादी विवाह में इकट्ठा होते है तो सबके लिये भी एक आदर्श होता है और हमें अच्छा भी लगता है.
संसार परिवर्तनशील है देश काल और परिस्थियों के अनुसार सब कुछ बदलता रहता है समय चक्र के साथ
निश्चित रूप से संयुक्त परिवार का समर्थन करूँगा, और हमारा भी संयुक्त परिवार ही है, आपकी ये बात कि शायद इंसानों का मशीनीकरण हो रहा है, सही है! और शायद संस्कारों का अभाव और पाश्चात्य जीवन शैली ये कारण हैं!
संयक्त और एकल परिवार दोनों की अलग अलग परेशानी और अलग अलग सुख है और ये अपने अपनी मर्जी पर ,परिस्थतियों पर निर्भर करता है आज जहाँ महिला अपनी वयक्तिगत स्वतन्त्रता की (जिसमे परम्परा गत कपड़े ,परम्पराव को न माननाअदि आता है )चाहत रखती है और जो भी कारण आपने गिनाये है उनको देखते अब सयुक्त परिवार सिर्फ इतिहास ही बन जायेगे |
वैसे यह विषय बहुत विस्तृत है पहले छोटे से घर में भी कई लोग साथ रह लेते थे चाहे मजबूरी हो या प्रेम किन्तु आज कितनी भी मजबूरी हो ?और प्रेम ?क्या होता है बहुत दूर की बात है |
इसीलिए तो शहर कांक्रिटके होते जा रहे है |
उपयोगिता और दोष तो दोनों तरह के परिवार की है . ऐसे में हमें एक तरीका ज्यादा उचित लगता है की हमें अपने मुख्य त्यौहार,उत्सव,समारोह(शादी वगैरह) संयुक्तरूप से ही मानना चाहिए (एक पैत्रिक घर पर)चाहे और दिनों एकल ही रहना पड़े (चुकी एकल परिवार होना परिस्थिति है)आजके समय में उसकी भी अपनी उपयोगिता भी है ही
दिव्या जी इसी फार्मूले पे मेरा परिवार चल रहा है जिसे आप कह सकती है "संयुक्त cum एकल "
मैंने भी एक ब्लाग लिखना शुरू किया है आप पधारे तो अच्छा रहेगा
लिंक है - http://anubhutiras.blogspot.com/
..आपसी तालमेल, बात व्यवहार और विपरीत स्वभाव और बहुत से कारण सयुंक्त परिवार के टूटने के कारण हैं ...आपका यह कथन मुझे सबसे अधिक सटीक लगा कि..... शायद एक परिवार में एक की ही सत्ता चल पाती है . कोई किसी के सामने झुकना नहीं चाहता । संयुक्त परिवार में अनेक लोगों के भिन्न मतों के साथ साम्यता बना पाना शायद मुश्किल हो रहा है और सुकून और शान्ति शायद ज्यादा है एकल परिवारों में
..आपसी तालमेल, बात व्यवहार और विपरीत स्वभाव और बहुत से कारण सयुंक्त परिवार के टूटने के कारण हैं ...आपका यह कथन मुझे सबसे अधिक सटीक लगा कि..... शायद एक परिवार में एक की ही सत्ता चल पाती है . कोई किसी के सामने झुकना नहीं चाहता । संयुक्त परिवार में अनेक लोगों के भिन्न मतों के साथ साम्यता बना पाना शायद मुश्किल हो रहा है और सुकून और शान्ति शायद ज्यादा है एकल परिवारों में
बहुत ही सेंसिटिव इशू पकड़ लिया आपने । संयुक्त परिवार निश्चित तौर पर एक अच्छी व्यवस्था है पर एकल परिवार में ग्रोथ ज्यादा होती है एवं दूर रहने से अपनों से प्यार भी अधिक होता है ।
इसलिए कि.......... आदमी के दिल छोटे और मकान बड़े होते जा रहे हैं :(
सुकून और शान्ति शायद ज्यादा है एकल परिवारों में
आपने जो कारण बताये वह बिलकुल सच है पर वाकई संयुक्त परिवार का मजा ही अलग है...
Comment by a friend AK Sinha through mail --
तुम्हारा लिखा सयुंक्त परिवार के बिखरने के कारणों के बारे में पढ़ा.
सुलेख , सुप्रेरित और सुगम
देखा जाये तो कारण
आर्थिक एवं संचार क्रांति जनित है
आर्थिक तो तुमने अपने लेख में लिखा ही है , पहले मूलत कृषि जानती आजीविका थी या फिर सरकारी नौकरी .
सबको नौकरी करने की या कमाने की जरूरत भी नहीं थी
एक कमाता था दस खाते थे . अब दो खाते हैं और दोनों ही कमाते हैं .
पहले गाँव में या कसबे में या शहर में लोग रहते थे.
अब ग्लोबल विलेज है. पूरी दुनिया में लोग रहते हैं.
पहले तुलना नहीं थी .
आप पैदल चलते थे तो मोहल्ले में सब लोग पैदल चलते थे
हाथ लगा के crank करने वाली मोटर कार भी शेहेर में एक दो ही होता था . और वही शान होता था , अब १ करोड़ की कार में भी शान नहीं है क्योंकि , कहीं दूर कोल्हापूर में किसी के पास ३० करोड़ की कार है .
अब आप गंजी नहीं खरीदते हैं , रूपा की गंजी खरीदते हैं
नमक नहीं खाते हैं टाटा की नमक खाते हैं
अपने घर की दीवार नहीं देखते हैं विश्व भर में आप की नज़र दौरती रहती है ...मृगमरीचिका सदृश्य
लिहाजा अपना घर छोटा लगने लगता है
माँ की कोंख से जन्मे पर वो भी छोटा लगने लगता है
और शुरू हो जाती है एक दौड़ , एक तलाश
पहले ये तलाश अंतर्मुखी होती थी - अर्थात अध्यात्म
अब ये तलाश बहिर्मुखी है - अर्थात तृष्णा
कोई आश्चर्य नहीं की ढेरों धन दौलत जुटा लेने के बाद
लोग अपने अन्दर फिर झाँकने की कोशिश करते हैं
सुबह का भुला .....
.
संयुक्त परिवार से एकल परिवार और एकल परिवार से विघटित समाज का सफर तय किया है परिवार ने । व्यक्ति की स्वतंत्रता ने जहां उसे अकेला रहना सीखा दिया है, वहीं मानवीय भावनाओं को गहरा आघात पहुँचा है । जिन मानवीय भावनाओं को संयुक्त परिवार में पल्वित पुष्पित होने का अवसर मिला था, वे टूट गई हैं । व्यक्ति स्वतंत्र तो जरुर है, अपना जीवन अपने अनुसार जीने के लिए, लेकिन उसमें एक भयंकर उलताहट भी है ...जिसे दूर करने के लिए वह भीतर की यात्रा पर कदम बढ़ाता है ...शायद वह स्वयं को पा ले और गहन शांति को पैदा करे ...यही भविष्य की एकमात्र शुभेच्छा है ।
आपसी समझदारी से भौतिक युग की इस समस्या का समाधान किया जा सकता है। परिवार के सभी सदस्यों को पहल करनी चाहिए।
..अच्छी पोस्ट।
कभी इस विशय पर नहीं सोचा था | जो देखता हू, उस से इस पीडी और इस से पूर्व पीडी में अंतर दीखता है | आज जिस किसी को सयुंक्त परिवार में रहना का अनुभव है, वो ही बता सकता है, की बाकि के पास क्या नहीं है | जब आज की पीडी को पता ही नहीं, ,देखा ही नहीं, तो वो एक विकल्प ही नहीं है | विकल्प के आभाव में, आज समाज एक अलग दिशा में अग्रसर है |
पैसा और आज समाज में एक स्थर पाने की लालसा, वो स्थर जिसका भौतिकिवाद पर ही जोर है ने सयुंक्त परिवार के सिद्धांत को एक झटका दे दिया है | इस स्पर्धा में, हम एक दूसरे को पीछे छोड़ने की कोशिश में लगे रहते है, और आपनो को भूल जाते है | माँ, बाप , बच्चे साब पीछे छुट जाते है | आज जब समाज में आपने आप को नापने के मापदंड अलग है, तो कुछ अच्छी सामाजिक परम्परो को अलविदा कहेने का समय आगया है |
लोगों का ’मैं ’ इतना प्रबल हो गया है कि बाकी सब पराये हो गये है ।
.
अगर ब्लॉग जगत को एक संयुक्त परिवार की तरह देखा जाए , तो यहाँ भी प्रतिदिन बिखराव ही देखने में आता है। लोग विभिन्न विचारों वाले ब्लोगर्स के साथ मिलजुल कर नहीं रह पा रहे। छोटी छोटी बातों पर नाराज़ होकर दूरी बना लेते हैं। एक परिवार टूटकर इकाइयों में बटता है। और फिर तलाशता है किसी नए को । लेकिन क्या वो मिठास मिल पाती है जिसे आपने पीछे छोड़ दिया।
यदि ब्लॉग जगत में हम अपने से भिन्न विचार रखने वाले का भी सम्मान कर सकें तो इस बिखराव को रोका जा सकता। विचारों में विभिन्नता ही तो जीवन में नए रंग और आयाम देती है। उपवन की सुन्दरता तो रंग बिरंगे फूलों से ही है। एकरसता में क्या आनद भला ?
इस लेख को लिखने की प्रेरणा ब्लॉगजगत में होते बिखराव और गुटबाजी से मिली है। प्रतिदिन कोई किसी से नाराज़ होकर दूर जा रहा है । कोई गलती का एहसास कर वापस आ रहा है। कोई अपनी कटुता कमेन्ट में जाहिर कर रहा है । कोई गुस्सा दिखाने के लिए दूरी बना रहा है।
कही-कभी बहुत बचकाना लगता है ये सब।
.
हमारे देश के संदर्भ में एकल परिवार की तुलना में संयुक्त परिवार अधिक उपयुक्त है।
संयुक्त परिवार सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा प्रदान करता है। परस्पर सौहार्द, मान-सम्मान, अनुशासन, मर्यादा, सुसंस्कार जैसे गुणों का विकास संयुक्त परिवार में ही हो सकता है।
एकल परिवार सामाजिक गतिविधियों से दूर हो जाता है। मानवीय संवेदनाओं में कमी आती है। व्यक्ति मशीन-सा बन जाता है।
हमारा परिवार संयुक्त परिवार है, मैं इस परम्परा का निर्वाह अपने जीते जी तो करता ही रहूंगा।
दोनों प्रथाओं का अपना अपना मज़ा और दुःख है ... बिखरने के कारण कुछ भी हो सकते हैं पर इस बिखराव से समाज में भी बहुत परिवर्तन हुवे हैं ... पोजिटिव और निगेटिव ... दोनों तरह के ..
आपने जितने भी कारण गिनाये हैं पूरी तरह सही हैं
इनमें से कुछ कारण हमारी ज़िन्दगी की ज़रूरत बन चुके हैं
जिनसे हम जुदा नहीं हो सकते , पर कुछ कारणों को हमने
अपने स्वार्थ के कारण ओढ लिया है, जो सबसे दुखदायी बात है
जिन्हें शायद हम ख़ुद से अलग करके सयुंक्त परिवार की तहज़ीब को
बचा सकते हैं, कम से कम कोशिश तो की ही जा सकती है।
problems are not in the structure of family but the mentality of person
मैं चाहता हूँ कि परिवार सुखी हो।
चाहे संयुक्त हो, चाहे एकल।
मुझे दोनों का अनुभव है ।
दोनों में लाभ हैं , दोनों में कुछ कमियाँ है।
यह परिवार के सदस्यों पर निर्भर होता है कि कौनसा system उस परिवार के लिए उपयुक्त है।
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
हम तो संयुक्त परिवार में आस्था रखते हैं, और आज की अनेक समस्याओं की जड़ इसका विघटन मानते हैं।
एकल परिवारों प्रचलन समाज का वर्तमान है
दिव्या जी आपके इस ब्लॉग को पड़कर बहुत अच्छा लगा . इसका कारण की अपने अपने इस लेख में जो बहुत बिनाश करी , बिस्फोथक होती जा रही भारत देश की जन संख्या के विषय पर आज अपने लिखा हे . जिस पर आज सही मायने में चिंता करने की जरूरत हे . कियों बिता साल इस जनसँख्या रूपी दानव का रूप दिखाई देना आरंभ हो गया हे . अब दिल्ली की ही बात करें तो जितना कराइम यहाँ हुआ हे वो पिछले साल की अपेक्षा ३५% ज्यादा हे . अगर इसी रफ़्तार से हम लोग अपनी आबादी को बढ़ाते गये तो दिन दूर नहीं जब केवल दिल्ली में ही नहीं ,पुरे देश में किसी को अपने परिवार के लिए ८/१० का रूम भी नसीब न होगा . में हमेशा से ही सयुक्त परिवार का पक्ष धर रहा हूँ . इस परिवार के होने के एक नहीं कई फायदे हे . आपको न केवल सभी लोंगो से मदत मिलती रहती हे . अपितु इससे परिवार के किसी एक सदस्य पर भी घर का पूरा भार नहीं आता . जिसके कारण परिवार एक जुट हो कर रहता हे . ऐसे ही कई उदाहरण हे . जो की हमारे शाश्त्रों में भी लिखी हुई है . आपका ब्लॉग बहु अच्छा हे .
Crores of Indians cannot be wrong...a Nuclear family in my opinion is a better option now...
यदि ब्लॉग जगत में हम अपने से भिन्न विचार रखने वाले का भी सम्मान कर सकें तो इस बिखराव को रोका जा सकता। विचारों में विभिन्नता ही तो जीवन में नए रंग और आयाम देती है। उपवन की सुन्दरता तो रंग बिरंगे फूलों से ही है। एकरसता में क्या आनद भला ?.......
ये बहुत सुन्दर बात है ......काश सब समझ जाये व एक दुसरे का आदर करे ....
.
आदरणीय पाबला जी ,
मेरा यह लेख दैनिक जागरण में प्रकाशित हुआ है , यह जानकार बहुत प्रसन्नता हुई है।
इसकी सूचना देने के लिए है आपका बहुत बहुत आभार।
http://blogsinmedia.com/2011/01/%E0%A4%A6%E0%A5%88%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%95-%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%B0%E0%A4%A3-%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82-zeal-2/
सादर,
दिव्या
.
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