प्रश्न यह है , की क्या हमारे पास मित्र हैं भी ? जिन्हें हम मित्र कहते हैं अथवा समझते हैं क्या वो वास्तव में हमारे मित्र हैं। 'मित्र' शब्द का व्यवहार बहुत ही व्यापक अर्थों में उपयोग होने के कारण ये शब्द अपनी महिमा खो चुका है। हम अपने परिचितों [acquaintances] को आवश्यकतानुसार 'मित्र' कहकर ही संबोधित करते हैं। लेकिन ये सिर्फ हमारे परिचित हैं , मित्र नहीं। संस्कार और शिष्टाचारवश हमारे आपसी सम्बन्ध मधुर होते हैं। ऑपचारिक अवसरों और विषयों पर हमारे बीच संवाद , एक मित्रता का एहसास कराता है । लेकिन 'मित्रवत' होने और 'मित्र' होने में बहुत अंतर है।
मित्रता की परख तो विषम परिस्थियों में ही होती है । लेकिन जिनके साथ हम रोज़ एक खुशगवार समय व्यतीत करते हैं, क्या वही हमारे साथ इन कठिन वक़्त में भी इतनी ही शिद्दत से हमारा दुःख महसूस करके हमारे साथ खड़े होते हैं ? शायद नहीं। मानव स्वभाव है खुद को प्रसन्न रखना । चार बार आप किसी से अपना दुखड़ा बतायेंगे, वो बोर हो जाएगा। दुसरे परिचित से यही कहता मिलेगा - " अरे फलाने तो जब-तब दुखी ही रहता है "।
वो इसलिए बोर हो जाता है , क्यूंकि वो आपका मित्र नहीं है। आपका दुःख महसूस नहीं पाता । आपकी पीड़ा आपकी निजी है , वो आपसे पृथक है , इसलिए न तो वो आपकी मनोदशा समझ रहा है , न ही समझना चाहता है।
जब हम इस ग़लतफहमी में रहते हैं की अमुक व्यक्ति हमारा अपना है तो हम भूल कर रहे होते हैं। क्यूंकि ज्यादातर लोग आपस में एक स्वार्थ के रिश्ते में बंधे होते हैं। थोडा समय साथ निभाकर कुछ मधुर , कुछ तिक्त स्मृतियों के साथ जुदा हो ही जाते हैं। कोई पांच माह साथ देता है तो कोई पांचवर्षीय योजना कीतरह समयावधि समाप्त होने के बाद पलायन कर जाता है । इसलिए 'मित्र' संज्ञा का अधिकारी वही है जो सदा सर्वदा हमारे साथ रहता है।
'मित्र कैसा होना चाहिए , इस सन्दर्भ में सोचने पर " श्रीकृष्ण" का ही नाम आया मस्तिष्क में। एक ऐसा मित्र जिसने अमीरी गरीबी के ऊपर उठकर अपने बाल सखा सुदामा को अत्यंत स्नेह दिया । जिसे देख उनका ह्रदय हर्ष से झूम उठा और उनके कष्ट देख , उनका आँखों से अश्रुधारा फूट पड़ी। जिसके बिना कहे , उसके ह्रदय की हर पीड़ा को पढ़ लिया और बिना मांगे निस्वार्थ भाव से दोनों लोक उनको दे दिया।
ऐसे बेहाल बेवाइन सौं पग , कंटक-जाल लगे पुनि जोए।
हाय माहादुख पायो सखा तुम , आये इतै ना कितै दिन खोये ।
देखि सुदामा की दीन दसा , करुना करिकै , करूणानिधि रोये ।
पानी परात की हाथ छुयो नहीं, नैनन के जल से पग धोये ॥
आजकल के मित्र क्या इतना प्रेम लुटा सकते हैं ? दो लोक तो क्या दो कौड़ी भी देने में सौ बार सोचेंगे । आजकल के मित्र सिर्फ एक ही चीज़ देते है दरियादिली से , वो है - " बिन मांगी राय " । [ पर उपदेश कुशल बहुतेरे]
इसलिए मेरी समझ से एक सच्चा मित्र वही है जो निम्न गुणों से युक्त हो -
- जो दूर रहने पर भी आपको याद करता हो
- जो आपसे मिलकर अथवा आपकी आवाज़ सुनकर चहक उठे
- जो आपकी व्यथा को बिना कहे समझ ले
- जो आपके दुःख में आपसे भी ज्यादा दुखी हो उठे
- जो सुख से ज्यादा , आपके दुखों में आपके साथ हो
- जो आपकी ख़ुशी के लिए अपने हितों की तिलांजलि देने में भी न हिचकिचाए
- जो निस्वार्थ प्रेम करता हो।
- जो आपको अनावश्यक प्रवचन ना देकर , सिर्फ आपको समझे
- जो आपके साथ कटु अथवा व्यंगात्मक अथवा ईर्ष्या से युक्त भाषा में न बात करता हो
- जिसके साथ दो पल बात करके आप दुनिया के सारे गम भूल जायें।
क्या आपके पास ऐसा मित्र है ? श्रीकृष्ण जैसा
" A single rose can be my garden, A single friend my world "
आभार
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