मरने के बाद ही चार कांधों की जरूरत होती है। फिर जीते जी क्यूँ तलाशते हो कांधा । जीते जी तो आंसू बहाने के लिए ही कन्धों की जरूरत पड़ती है। क्यूँ खुद को इतना कमज़ोर बनाना की हमेशा एक सहारे की तलाश में रहना। जब तक हम अपनी कमजोरियों पर विजय नहीं पाते , हम एक दोस्त को तलाशते हैं , जिसके समक्ष रोकर हम सहानुभूति जुटा सकें ।
जिस दिन हममें अपने दुखों और परेशानियों से लड़ने की क्षमता आ जाती है , उस दिन से काँधे की तलाश भी बंद हो जाती है। फिर व्यक्ति अपने ग़मों को celebrate करने लगता है और दुसरे के ग़मों को हल्का। एक हंसमुख और हिम्मती व्यक्ति ही समाज के लिए उपयोगी होता है और डिमांड में रहता है । इसलिए छोड़ो काँधे की तलाश । न ही ढूंढो और ना ही ऑफर करो किसी को। किसी को रोने के लिए कंधा देकर हम उसे कमजोर बनाते हैं। वो कभी अपनी परेशानियों से खुद लड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पता।
जब तक कंधे की जरूरत महसूस होती रहेगी तब तक सक्षम और सबल होना मुमकिन नहीं है। parasite बनकर जीना गवारा है क्या ? देश और समाज के काम आने वाली हस्तियाँ कभी मोहताज नहीं रहीं कन्धों की। आत्मनिर्भर रहकर लोगों को आत्मनिर्भरता के लिए प्रेरित करती रहीं सदा। लेकिन एक कमज़ोर आम इंसान , भावुक होकर एक दोस्त खोजता है सदा , जिसके कन्धों पर सर रखकर अपने गम भुला सके। कमजोरी की निशानी है ये। देखिए कन्धों का गलत इस्तेमाल न होने पाए। पहचानिए उन पवित्र ख़ुशी के आसुओं को जिनके बहने पर कन्धों की दरकार नहीं होती।
जीते जी जो आपको अपना कन्धा देते हैं, वो भारी कीमत वसूलते हैं अपनी सहानुभूति की। चार दिन, चार मॉस, चार बरस..बस इतनी ही तो है उम्र , काँधा देने वालों के धैर्य की । कब कौन सा झोंका आकर कांधा देने वालों का ईमान खरीद लेगा , पता ही नहीं चलेगा और कंधा पराया होकर किसी और के आंसुओं का आँगन बन उसके उजड़ने का सामान बन जाएगा।
न कंधा ढूंढो, न कंधा दो। गिरने दो उसको , गिर कर सँभालने दो उसको । जब बार-बार गिरकर, स्थिर खड़ा होने के बाद , विजयी मुस्कान से आपकी और देखे तो मुस्कुराकर उसका हौसला बढाइये।
केकिन कंधा ?.....उसे पीछे ही रखिये !!
खुदी को कर बुलंद इतना कि ,
बुझती हुई शमाँ भी आपके करीब से गुज़रे तो रौशन हो जाए।
आभार।
53 comments:
It bought smiles to my face. The truth, just the blunt truth told in a perfect way. But it is not easy what you have said, it takes time, years in every relationship. Every relationship starts from the beginning and will go through the stages. A person will have at the same time be in a different stage for each of them.
Can the compassion be so replaced by "cruelty" and "indifference" that you can get here in all relationships .. No never .. just pondering. You do not push the other to that place until you are sure of the break or make thing. Its a paradox, you do things for the betterment of the other. A judgement has to be made, when to free the relationship to that extent, that it does not need a shoulder.
Or is it a mask? The quest for what am i, in every sense, continues, the progression underway, what is the end?
दुखों को अपना मान लीजिये, जीवन हल्का हो जायेगा। आपका काँधा औरों को आश्रय दे सके, इतनी दृढ़ता दुख सह कर ही आयेगी। इस पर लिख रहा हूँ, आप तक पहले ही संचार हो गया।
संदर्भ और प्रसंग के साथ प्रेरक लगने वाला संदेश.
जीते जी जो आपको अपना कन्धा देते हैं, वो भारी कीमत वसूलते हैं अपनी सहानुभूति की।
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कम से कम आज के वातावरण में ऐसा ही होता है ....बहुत अर्थ पूर्ण पोस्ट सोचने पर विवश करती हुई ..शुक्रिया
वाह..वाह.. बहुत ही विवेकपूर्ण विचार देती पोस्ट. फिर भी दुनिया दारी है. सहारा लेना और देना पड़ता है.
आपकी पोस्ट पढ़ते पढ़ते एक कोटेशन याद आ गया जो मुझे बहुत पसंद है शायद इसीलिए याद है आज तक.
A real friend always gives his shoulder to lean upon in sorrow.
दिव्या जी बहुत सही कहा आपने....... स्वावलंबन अति आवश्यक है. मुसीबत के वक्त तो अपने भी पीछा छुड़ाने लगते है.. सुख के साथ ग़मों को भी हंस के जीना भी सीखना चाहिए.
फर्स्ट टेक ऑफ ओवर सुनामी : एक सच्चे हीरो की कहानी
आत्म बल जगाने वाला पाठ.
कन्धों की जरुरत नहीं पड़े पर
अपने आप को भी बचाना है उन
से जो दूसरों के कन्धों पर बन्दूक
रख कर चलाना चाहते हैं.
बेहद प्रेरणास्पद व अनुकरणिय चिन्तन.
बेहद प्रेरणास्पद व अनुकरणिय चिन्तन.
सटीक पर्यवेक्षण और अनुभवजन्य आलेख . कन्धा लेने देने का व्यापार , मनुष्य की व्यक्तिगत कमजोरियों (भावनात्मक ही सही) का प्रतीक मात्र है .
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@ AS-
[Compassion] दया किन लोगों पर की जाती है ?
जो दयनीय हैं। अंधे हैं । अपंग हैं। भूखे हैं। लाचार हैं । या फिर मूक निरीह जानवरों पर।
यहाँ बात उन मनुष्यों कि, की गयी है जो समर्थ हैं , जिनको इश्वर ने विवेक और सामर्थ्य से नवाज़ा है । फिर भी लोग छोटी-बड़ी बात से विचलित होकर किसी न किसी को ढूंढते हैं , जिससे अपना दुखड़ा रो सकें , सहानुभूति ले सकें और भड़ास निकाल सकें।
इस सन्दर्भ में कंधा शब्द [या दोस्त] का उल्लेख किया गया है।
समय और हिम्मत , अनुभव और श्रेष्ट व्यक्तियों का जीवन चरित्र हमें बड़ी बड़ी मुश्किलों से सार्थक रूप से निपटने का संबल दे ही देता है। आंसू अकेले में बहा कर भी मन हल्का किया जा सकता है , उसके लिए किसी के कन्धों का दुरुपयोग उचित नहीं लगता।
जब मन हल्का हो जाए तो हिम्मत के साथ , अपनी परेशानी का हल ढूंढना चाहिए। और सम्बंधित व्यक्तियों से आवश्यक राय लेनी चाहिए।
माँ बाप भी शिशु को ऐसे ही गिरकर , फिर संभलकर धीरे धीरे चलना सिखाते हैं। हमेशा गोद में लेकर रखेंगे तो बच्चा कुछ नहीं सीखेगा। शायद आपने over-protective परेंट्स के बारे में तो सुना होगा।
औषधियां कडवी ही होती हैं। सिर्फ बच्चों को बहलाने के लिए उनकी सिरप मीठी और रंगीन कर दी जाती हैं।
इसलिए कडवी औषधियों को 'cruelity' और 'indifference' का नाम मत दीजिये।
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@-AS-
दुनिया में हर मुश्किल के लिए कोई ना कोई विकल्प है। बस सही तरीके से उसे तलाशने कि जरूरत है।
हाँ उस विकल्प में जो बाधा है , वो है किसी के कंधे पर सर रखकर रोना और सहानुभूति को विकल्प समझना।
आपके लिए एक पोस्ट का लिंक दे रही हूँ, समय निकालकर नज़र दौड़ा लें।
"अपने मन की व्यथा किसी से मत कहो॥"
http://zealzen.blogspot.com/2010/11/blog-post_29.html
छोटे बचों पर शोभा देता है...
friend, my friend, my best friend, everlasting friend and so on...
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इस लेख को लिखने तक बहुत से अनुभवों से गुजरने बाद और मन में एक आत्म विश्वास के पैदा होने के बाद ही लिखा है । लेख को पढने वाला अपने अनुभवों, अपनी परिस्थिति और अपनी जरूरतों के अनुसार पढ़ेगा।
लेकिन पढ़ते समय यदि लेख में निर्दिष्ट सन्देश पर गौर किया जाये तभी लिखने कि सार्थकता है।
Thanks.
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कुसुमेश जी ,
हमने भी ऐसे quote बहुत पढ़े हैं बचपन में। इसीलिए थोड़ा हटकर लिखा। शायाद किसी को इसमें भी कुछ सार दिख जाए।
जहाँ तक 'sorrow' का सवाल है , दुनिया में किसी कि मृत्यु से बड़ा दुःख नहीं होता, और ऐसे में सिर्फ दोस्त ही नहीं , हर कोई दुःख को कम करने के लिए शोक संतप्त परिवार के साथ होता है।
मृत्यु के अतिरिक्त कोई दुःख नहीं होता , सिर्फ मुश्किलें होती हैं , जिनका हल ढूंढा जाता है। कंधा नहीं।
आभार।
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आत्मनिर्भर और स्वावलंबी होना तो अच्छी बात है । लेकिन मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । सुख हो या दुःख , अकेले नहीं काट सकता । कहते हैं , वह दोस्त ही क्या जो समय पर काम न आए , या मुसीबत में किनारा कर जाए ।
आत्मनिर्भर और स्वावलंबी होना तो अच्छी बात है । लेकिन मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । सुख हो या दुःख , अकेले नहीं काट सकता । कहते हैं , वह दोस्त ही क्या जो समय पर काम न आए , या मुसीबत में किनारा कर जाए ।
@Zeal
I read that post too. I agree with you. Again read my response. It was from the point of view when you lend a shoulder.
If you have the compassion to write this article, then... you are lending your shoulder to a millions .. and ..... the dots speak for themselves. A person is a mom, dad too :). Every relationship has a different evaluation criteria and a different response. Generalization cannot be applied to emotions. It depends to who is on the other end.
... sach hi hai ... anukarneeya abhivyakti !!!
shat pratishat sahi
बिल्कुल सही बात... अपने ग़मों की पब्लिसिटी करके क्या लाभ, कोई मार्केट नहीं इनका... ग़मों को ऐसे अपनाओ कि दुःख में भी क़हक़हे लगाने की तबियत हो..
आपकी प्रतिटिप्पणी (AS जी के लिये)में यह बात अच्छी नहीं लगी कि
Compassion] दया किन लोगों पर की जाती है ?
जो दयनीय हैं। अंधे हैं । अपंग हैं। भूखे हैं। लाचार हैं । या फिर मूक निरीह जानवरों पर।
दया दिखाके हम ऊपर बताये गये उन लोगों को और भी लाचार नहीं बनाते????? अंधे, अपंग,भूखे और निरीह पशु भी दया के पात्र नहीं..
अच्छी शिक्षा।
आपने एकदम सच्ची बात कही है.जीते जी जो कंधा तलाशते है वो सफलता से परे होते है.
Samyak Vishleshan, Prernadayi post.
Fantastic.....specially these lines:-
"parasite बनकर जीना गवारा है क्या ? देश और समाज के काम आने वाली हस्तियाँ कभी मोहताज नहीं रहीं कन्धों की। "
हमें अगर कमर मिलती रहे तो फिर किसी के कंधे की हरगिज़ ज़रूरत नहीं है ।
और कमर भी किसकी ?
बस अपने गधे की ।
काफ़ी प्रेरक प्रसंग्।
सार्थक चिंतन...
आपने तो दिल की बात ही कह दी..
कब तक इंसान अपना दुखड़ा रोएगा? कब तक?
सबको यह समझ जाना चाहिए कि वो दुनिया में अकेला आया है अकेला ही जाएगा इसलिए व्यर्थ किसी को अपना दुःख सुनाकर उसके ह्रदय को दुःख से न भरें..
बल्कि हमेशा खुश रहें और ख़ुशी फैलाएं!!
जो यह समझ गया, उसकी ज़िन्दगी सबसे बेहतर रही.. और जो नहीं.. वो शुरू से अंत तक कन्धा तलाशता रहा..
आभार
बहुत सटीक सलाह.दूसरों का कंधा ढूँढने की जगह अपने दुखों को अपने कन्धों पर ही उठाने की आदत डालने चाहिए,तभी जीवन में संघर्षों का सामना कर पायेंगे.और मरने पर भी कोई कंधा देगा या नहीं यह क्यों सोचें,क्यों की मरने के बाद इस सरीर का कोई क्या करता है उससे आत्मा को क्या फर्क पड़ता है,और जब हम नहीं तो इस सरीर को कोई कंधा दे या नहीं इसके बारे में हम क्यों सोचें. बहुत सुन्दर सोच..आभार
सही बात कही आपने.. पर मनुष्य का स्वभाव है दुःख में किसी कंधे को ढूंढना....
आज की पोस्ट पढ़ कर रहीम जी का एक दोहा याद आया
रहिमन निज मन की व्यथा , मन ही राखे गोय |
सुनि अठीलेहें लोग सब , बाँट न लेहें कोय ||
अठीलेहें--- ठ पर छोटी ई की मात्र आएगी ....टंकण में नहीं आ रही है ...
बहुत सार्थक पोस्ट
सार्थक प्रस्तुति...
हम यही मानते हैं कि अपने ग़म और ख़ुशी की चाबी कभी किसी दूसरे के हाथ में नहीं देनी चाहिए...
वाह यह हुयी ना बात, बिलकुल मेरे सोचने के समान, अपून भी ऎसे ही हे जी, कभी कंधा नही तलाशा...मै जिन्दगी का साथ निभाता चला गया.....................
धन्यवाद
बहुत ही विवेकपूर्ण विचार देती पोस्ट.
एक गीत याद आ गया=
मुझे तेरी मुहब्बत का सहारा मिल गया होता.....
हर व्यक्ति के जीवन में एक ऐसा समय आता है कि उसे सहारे की ज़रूरत पड सकती है... यह सहारा पति, पत्नी, दोस्त, पुत्र, पुत्री... किसी का भी हो सकता है॥
चलाते हैं आप जो चप्पु वो अकसर पार होते हैं ! बहुत प्रेरणा दायक !
सार्थक चिंतन..
प्रेरक आलेख।
कमजोर हृदय वालों और दुर्बल मनःस्थिति वालों के लिए यह आलेख एक अचूक औषधि है।
एक टिप्पणी के प्रत्युत्तर में आपका यह विचार एक जीवन सूत्र जैसा है-
‘मृत्यु के अतिरिक्त कोई दुःख नहीं होता, सिर्फ मुश्किलें होती हैं, जिनका हल ढूंढा जाता है, कंधा नहीं।‘
उच्च स्तरीय चिंतन से प्राप्त निष्कर्ष आपके इस आलेख में है।
आभार, दिव्या जी।
.
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सही है... क्यों स्वयं को लाचार व दूसरों के कंधे का जरूरतमंद होने दिया जाये ?
...
आपसे सहमत। बस मुझे तो यह कहना है,
न रास्ता न अब रहनुमा चाहता हूं
नई कोई बांगे-दिरा चाहता हूं
चिराग़ों का दुश्मन नहीं हूं मैं लेकिन
हवाओं का रुख़ मोड़ना चाहता हूं
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@ संवेदना के स्वर --
Compassion का अर्थ समझाने के लिए जो अर्थ लिखा गया उसको सही परिपेक्ष्य में लें तो बेहतर होगा। वैसे बाल की खाल निकालनी हो तो लाचार हूँ आपके आगे।
आभार।
.
साहस और अंतर्मन को मजबूत करने वाली प्रेरक रचना ...
सार्थक रचना, साधुवाद.
कंधे की जरुरत पड़ती है, दिए जाते हैं, जीते जी भी, ये तो कंधे कंधे में फर्क है, सच्चा है या फिर कुछ और.
बदलते समाज में आपकी सोच कतई सच्ची है, क्यों की जितने का कंधा लिया नहीं उससे ज्यादा तो मोल ही चुकाना पडता है, किसी की मदद लेना भी एक तरह से गुनाह बनता जा रहा है.
पुनः साधुवाद.
आपका कार्य प्रशंसनीय है, साधुवाद !
हमारे ब्लॉग पर आजकल दिया जा रहा है
बिन पेंदी का लोटा सम्मान ....आईयेगा जरूर
पता है -
http://mangalaayatan.blogspot.com/2010/12/blog-post_26.html
डा. दिव्या जी,
आपके लेख में हमेशा विचारों का नया उदघोष होता है !
प्रस्तुत लेख मैं व्यक्ति को कमज़ोर बनने और बनाने का पुरज़ोर विरोध और स्वयं को पहचानने का आग्रह समाहित है !
साभार,
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
सच मै आपकी इस उत्साह से भरी प्रस्तुति ये बयाँ करती है की ........u r really an iron lady .
मेरी सोच भी कुच्छ आपकी ही तरह से है !
बहुत बहुत बधाई दोस्त
यह ठीक है कि आत्मबल बढ़ाना जरूरी है आत्मनिर्भर बनने के लिए लेकिन जो दूसरों को सहारा देते हैं वे भी उस मक़ाम तक किसी के सहारे ही पहुँचते हैं।
बहुत ही सार्थक प्रस्तुति ...विलम्ब से आने के लिये खेद है ...।
Dearest ZEAL:
Read.
Semper Fidelis
Arth Desai
आपने तो हौसला भर दिया . केवल सार्थक प्रस्तुति नहीं कहुगी ...बल्कि कहना चाहूंगी कि बहुत अच्छा लाल रहा है आपको पढ़ना .... आपको बधाई .
दिनांक 17/03/2013 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है .
धन्यवाद!
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अनाम रिश्ता....हलचल का रविवारीय विशेषांक...रचनाकार-कैलाश शर्मा जी
प्रेरणा देती रचना
एक दम सच्ची बात लेकिन व्यवहार में उतनी ही मुश्किल भी
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