ईश्वर ने स्त्री और पुरुष , दो खूबसूरत रचना की। सोचने के लिए बुद्धि और कल्पनाओं की उड़ान के लिए मन तो एक सा दे दिया लेकिन स्त्री को शारीरिक रूप से कमज़ोर बना दिया। 'प्रेम' तो दोनों के ह्रदय में समान रूप से दिया लेकिन हवस पुरुषों को थोड़ी सी ज्यादा दे दी। शेष कार्य समाज ने पूरा कर दिखाया। स्त्री को उसकी मर्यादाएं समझायीं , उसकी सीमा रेखाएं बतायीं, उसी को उचित-अनुचित का ज्ञान दिया । परिणाम स्वरुप स्त्री दबती चली गयी, सहमा-सहमा सा व्यक्तित्व हो गया उसका और पुरुष निडर और शक्तिशाली होता गया।
दोहरा जीवन जीने लगी स्त्री ....
पिता, भाई , पति और समाज में अपनों की गलतियों पर पर्दा डालते-डालते वह स्वयं के अस्तित्व को भूलती चली गयी । वह अपने नैसर्गिक कर्तव्यों को भूलकर घर की झूठी प्रतिष्ठा को बचानेको ही अपना कर्तव्य समझने लगी। (उदाहरण के लिए शाईनी आहूजा और गोपाल कांडा जैसे पुरुषों की पत्नियों ने अपने पति के गुनाहों पर पर्दा डाला )।
कल अनुराधा और वसुधा को उदास देखा तो पूछने पर पता चला की अनुराधा का पति घर में अपने मित्रों और भाईयों के साथ बैठा शराब पी रहा था और अनुराधा उस गर्मी में अपनी रसोयीं में लगी उस शराबियों के लिए भोजन बना रही थी। पूरी और हलवा, शराब के ग्लास, बरफ के टुकड़े और काजू के प्लेटें। मदमस्त ठहाके और अस्फुट संवाद....क्या यही है अनुराधा की नियति ?
वसुधा की निराशा का कारण पूछा तो पता चला, कल ससुराल में बातों-बातों के दौरान उसके देवर ने कहा- "भाभी आपकी पहचान तो भैया हैं, क्योंकि स्त्री की पहचान उसका पति ही होता है" । वहां पर वसुधा के पति, उसकी देवरानी निशा और उसके सास-ससुर भी बैठे थे।
वसुधा ने कहा- "भैया आप की बात से सहमत नहीं हूँ, किसी की पहचान कोई दूसरा कैसे हो सकता है। हर व्यक्ति की पहचान उसका स्वयं का व्यक्तित्व होता है। मैं प्रोफ़ेसर हूँ, आप के भैया इंजिनियर हैं , हम दोनों का अपना-अपना एक व्यक्तित्व है और अपना एक अस्तित्व है फिर पति कैसे पहचान हो गया अपनी पत्नी का ? और पत्नी क्यों नहीं पहचान हो सकती अपने पति की ? या फिर उस स्त्री के माता-पिता क्यों नहीं पहचान हो सकते, जिन्होंने संस्कार दिए अपनी बेटी को और पढाया-लिखाया, काबिल बनाया।
विवाह करते समय तो लड़की की शकल-सूरत, उसकी शिक्षा , उसके संस्कार को परखकर , उसके अस्तित्व से प्रभावित होने के बाद ही विवाह किया, फिर विवाह होते ही पति कैसे पहचान बन गया उस स्त्री का ?
जब पुरुष अपनी स्त्री को धोखा देता है , किसी अन्य के साथ गुपचुप सम्बन्ध रखता है, शराब पीता है , हिंसा करता है और जब तलाक देता है , क्या तब भी वह अपनी पत्नी की पहचान होता है ?
Zeal
21 comments:
सही तो ये है की आज कल दोनों के चरित्र गिरते जा रहे है | किसी एक को दोषी ठहराना उचित नहीं | एक को खूबसूरती तो दुसरे को बूटी पसंद है
बहुत सही कहा आप ने ..स्त्रियो को अपनी पहचान ्स्वयं ही बनानी चाहिए..
Aapke aaj ke aalekh men ek achchhi kahani banne ke gun hain, ise ek kahani ke roop men likhiye.Vaise vichaar ke roop men to aapne prabhaavshali dhang se likha hi hai.
बहुत बढ़िया विषय ।
बधाई ।।
निजता सह पहचान की, सबमें अंतर्द्वंद ।
नई सदी इक्कीस में, तीव्र तीव्रतर मंद ।
तीव्र तीव्रतर मंद, सभी पहचान बनाते ।
क्या संयुक्त परिवार, अकेले भी रह जाते ।
हुआ बड़ा ही नाम, गर्व का मद भी भारी ।
लूट लिए क्या मौज, पुरुष जो अत्याचारी ।।
मुझे लगता है कि स्त्री के त्याग को गलत तरीके से देखा जाता रहा है!दो परिवारों के लिए वो अपना अस्तित्व तक भूल जाती है!पर इसका ये अर्थ कतई नहीं है कि उसकी स्वयं की कोई पहचान ही नहीं है!असल में एक परिवार की पहचान उसकी लड़की,पत्नी और माँ ही तो होती है!बच्चे सबसे अधिक माँ के सान्निध्य में रह कर ही उच्च संस्कार सीखते है!यदि कोई लड़का घर की या अपनी पत्नी की पहचान कहला रहा रहा है तो भी उसमे ये गुण उसकी माँ से ही तो मिले है!और क्या ये उसकी पत्नी की महानता नहीं है कि उसने ये स्वीकार कर लिया है!
इसमें पति की महानता कहा है...?
कोई मुझे समझाए!
मुझे ये कहते हुए बिलकुल भी हिचक नहीं महसूस हो रही है कि यदि पति और पत्नी एक-दुसरे की पहचान हो जाए तो ये एक दाम्पत्य जीवन की आदर्श स्थिति होगी!
कुँवर जी,
जो स्वयं को धोखा दे सकता है तो वो किसी को भी धोखा दे सकता है।
आपका लेख केवल एकतरफा है जो ऐब आपने पुरुषों के गिनाए है वो औरतों के भी हो सकते है और ऐसे कई उदाहरण आपको रोज देखने को मिल जायेंगे !!
स्त्री की पहचान उसका पति है, ऐसा सोचने वाले रूढ़िवादी विचारों के पोषक हैं।
समय परिवर्तित हो रहा है, दोनों एक-दूसरे की पहचान बनें, ऐसा समय आ चुका है।
स्त्री की पहचान उसका पति हो, आवश्यक नहीं किन्तु पति की प्रेरणा पत्नी होती है यह निश्चित है.
परस्पर स्नेह बना रहे, बच्चे माँ-बाप पर गर्व कर सके , बस इतना ही पर्याप्त है | निजता हो या न हो , समाज को एक दंपत्ति से उस समाज को परिष्कृत करने वाली पीढ़ी की आवश्यकता होती है बस | यही मापदंड है मनुष्य जीवन के सार्थकता का |
...but i wish to dare to disagree with you,may i,...?
...in the mean time have some fun,
https://www.facebook.com/Samajwadi?ref=stream#wall
...and this too,
https://www.facebook.com/permalink.php?story_fbid=10151102985967500&id=294267542499
बड़ी कोमल रिश्ता होता हैं ... जिसे अबिस्वास की एक मंद हवा भी उखाड़ देती हैं ... वैज्ञानिकों का मत हैं की सेक्स की कमी भी इस रिश्ते को हिला देती है
दोनो को एक दूसरे का सम्मान करना होगा
तभी तो गृहस्ती का झंडा फहरेगा
एक भी नासमझी कर जाता है जहाँ
झंडा अलग और कपड़ा अलग लहरेगा !
आपकी पोस्ट आज 23/8/2012 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
कृपया पधारें
चर्चा - 980 :चर्चाकार-दिलबाग विर्क
sharab ghar ko khokhla kar rahi hai aur nari ko bhi.
aise pati ko aurat chahe to bhi chhod nahi pati.
kaaran kai hain.
badi dukhad haalat hai.
स्त्री अगर शादी कर लेती है तो वह पूरे होशो हवास में इस बात को स्वीकार करती है कि अब वह एक संस्था के साथ जुड़ कर एक परिवार का गठन कर रही है, वह परिवार जो कि एक भरे-पूरे खानदान की एक इकाई है और उसके इस परिवार जिसका मुखिया उसका पति है और वो अपने पति के उस परिवार की एक प्रतिनिधि. यही विवाह की रीति है और यही विवाह के उदेश्य. इसके बाद उस स्त्री का कर्तव्य है कि वह अपने पत्नी होने के दायत्व ज़्यादा निभाए न कि स्त्री के और अपने परिवार के हितो का ज़्यादा ध्यान रखे न कि व्यक्तिगत हितो का. जब परिवारिक और व्यक्तिगत् हितो में टकराव हो तो अपने परिवारिक हितो को प्राथमिकता दे, यही पत्नी का दायत्व है और नैतिकता का भी. यह मेरा मानना है बाकी प्रभु इच्छा.
आपस में विश्वास नहीं तो कब कौन किसे खोखा दे दे ,इसका अंदेशा किसे हो पाता है ..
बहुत बढ़िया सार्थक चिंतन ..
पति पत्नी दोनों एक दूसरे के पूरक हैं दोनों का अपना अपना अलग व्यक्तित्व है जिस घर में दोनों इस बात को समझते हैं वहां शान्ति सुख निवास करता है
Infosimsim.com said...
स्त्री अगर शादी कर लेती है तो वह पूरे होशो हवास में इस बात को स्वीकार करती है कि अब वह एक संस्था के साथ जुड़ कर एक परिवार का गठन कर रही है, वह परिवार जो कि एक भरे-पूरे खानदान की एक इकाई है और उसके इस परिवार जिसका मुखिया उसका पति है और वो अपने पति के उस परिवार की एक प्रतिनिधि. यही विवाह की रीति है और यही विवाह के उदेश्य. इसके बाद उस स्त्री का कर्तव्य है कि वह अपने पत्नी होने के दायत्व ज़्यादा निभाए न कि स्त्री के और अपने परिवार के हितो का ज़्यादा ध्यान रखे न कि व्यक्तिगत हितो का. जब परिवारिक और व्यक्तिगत् हितो में टकराव हो तो अपने परिवारिक हितो को प्राथमिकता दे, यही पत्नी का दायत्व है और नैतिकता का भी. यह मेरा मानना है बाकी प्रभु इच्छा.
@ हमारे बीच अच्छे विचारक भी मौजूद हैं, जान कर अच्छा लगा.
वैसे भी औरत अपने घर परिवार के प्रति गंभीर होती ही है , मर्द को भी औरत से कुछ सीखना चाहिए.
आपसी समझ, सहयोग, त्याग और समर्पण से ही सुखमय जीवन जिया जा सकता है । झूठे अहँ से अनेक समस्याएं पैदा होती हैं ।
सार्थक लेख के लिए शुभकामनाएं ।
अर्धांगिनी और अर्धांगी के बीच जो भी है वह आधा-आधा है. महेंद्र वर्मा जी की टिप्पणी से सहमत हूँ.
Post a Comment