प्रश्न यह है , की क्या हमारे पास मित्र हैं भी ? जिन्हें हम मित्र कहते हैं अथवा समझते हैं क्या वो वास्तव में हमारे मित्र हैं। 'मित्र' शब्द का व्यवहार बहुत ही व्यापक अर्थों में उपयोग होने के कारण ये शब्द अपनी महिमा खो चुका है। हम अपने परिचितों [acquaintances] को आवश्यकतानुसार 'मित्र' कहकर ही संबोधित करते हैं। लेकिन ये सिर्फ हमारे परिचित हैं , मित्र नहीं। संस्कार और शिष्टाचारवश हमारे आपसी सम्बन्ध मधुर होते हैं। ऑपचारिक अवसरों और विषयों पर हमारे बीच संवाद , एक मित्रता का एहसास कराता है । लेकिन 'मित्रवत' होने और 'मित्र' होने में बहुत अंतर है।
मित्रता की परख तो विषम परिस्थियों में ही होती है । लेकिन जिनके साथ हम रोज़ एक खुशगवार समय व्यतीत करते हैं, क्या वही हमारे साथ इन कठिन वक़्त में भी इतनी ही शिद्दत से हमारा दुःख महसूस करके हमारे साथ खड़े होते हैं ? शायद नहीं। मानव स्वभाव है खुद को प्रसन्न रखना । चार बार आप किसी से अपना दुखड़ा बतायेंगे, वो बोर हो जाएगा। दुसरे परिचित से यही कहता मिलेगा - " अरे फलाने तो जब-तब दुखी ही रहता है "।
वो इसलिए बोर हो जाता है , क्यूंकि वो आपका मित्र नहीं है। आपका दुःख महसूस नहीं पाता । आपकी पीड़ा आपकी निजी है , वो आपसे पृथक है , इसलिए न तो वो आपकी मनोदशा समझ रहा है , न ही समझना चाहता है।
जब हम इस ग़लतफहमी में रहते हैं की अमुक व्यक्ति हमारा अपना है तो हम भूल कर रहे होते हैं। क्यूंकि ज्यादातर लोग आपस में एक स्वार्थ के रिश्ते में बंधे होते हैं। थोडा समय साथ निभाकर कुछ मधुर , कुछ तिक्त स्मृतियों के साथ जुदा हो ही जाते हैं। कोई पांच माह साथ देता है तो कोई पांचवर्षीय योजना कीतरह समयावधि समाप्त होने के बाद पलायन कर जाता है । इसलिए 'मित्र' संज्ञा का अधिकारी वही है जो सदा सर्वदा हमारे साथ रहता है।
'मित्र कैसा होना चाहिए , इस सन्दर्भ में सोचने पर " श्रीकृष्ण" का ही नाम आया मस्तिष्क में। एक ऐसा मित्र जिसने अमीरी गरीबी के ऊपर उठकर अपने बाल सखा सुदामा को अत्यंत स्नेह दिया । जिसे देख उनका ह्रदय हर्ष से झूम उठा और उनके कष्ट देख , उनका आँखों से अश्रुधारा फूट पड़ी। जिसके बिना कहे , उसके ह्रदय की हर पीड़ा को पढ़ लिया और बिना मांगे निस्वार्थ भाव से दोनों लोक उनको दे दिया।
ऐसे बेहाल बेवाइन सौं पग , कंटक-जाल लगे पुनि जोए।
हाय माहादुख पायो सखा तुम , आये इतै ना कितै दिन खोये ।
देखि सुदामा की दीन दसा , करुना करिकै , करूणानिधि रोये ।
पानी परात की हाथ छुयो नहीं, नैनन के जल से पग धोये ॥
आजकल के मित्र क्या इतना प्रेम लुटा सकते हैं ? दो लोक तो क्या दो कौड़ी भी देने में सौ बार सोचेंगे । आजकल के मित्र सिर्फ एक ही चीज़ देते है दरियादिली से , वो है - " बिन मांगी राय " । [ पर उपदेश कुशल बहुतेरे]
इसलिए मेरी समझ से एक सच्चा मित्र वही है जो निम्न गुणों से युक्त हो -
- जो दूर रहने पर भी आपको याद करता हो
- जो आपसे मिलकर अथवा आपकी आवाज़ सुनकर चहक उठे
- जो आपकी व्यथा को बिना कहे समझ ले
- जो आपके दुःख में आपसे भी ज्यादा दुखी हो उठे
- जो सुख से ज्यादा , आपके दुखों में आपके साथ हो
- जो आपकी ख़ुशी के लिए अपने हितों की तिलांजलि देने में भी न हिचकिचाए
- जो निस्वार्थ प्रेम करता हो।
- जो आपको अनावश्यक प्रवचन ना देकर , सिर्फ आपको समझे
- जो आपके साथ कटु अथवा व्यंगात्मक अथवा ईर्ष्या से युक्त भाषा में न बात करता हो
- जिसके साथ दो पल बात करके आप दुनिया के सारे गम भूल जायें।
क्या आपके पास ऐसा मित्र है ? श्रीकृष्ण जैसा
" A single rose can be my garden, A single friend my world "
आभार
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88 comments:
Bilkul Hai ji, Aur ham bhi hain kisi ke mitra
खासकर उन व्यक्तियों से दूर रहना चाहिए जो "हबीब" लगते हैं, होते "रकीब" हैं.
सुन्दर विचारों कि श्रृंखला के लिए आभार.
mitrata ko sahi define kiyaa hai aapne...sachmuch pure life me ekadh mitra hi hote hai...parichit hona mitra hone se bahut hi kam hai...bahut achhe vichar.
नहीं जी!
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जिसको खोजा वो बे वफा निकला।
मीत कोई न बावफा निकला।।
... bahut badhiyaa ... behatreen ... aadhyaatmik post !!!
श्रीकृष्ण जैसा तो नहीं है।
श्रीकृष्ण जी जैसा कलयुग मे तो क्या द्वापर मे भी नही था
तो आज उनके जैसा मित्र की तो कल्पना ही व्यर्थ है
लेकिन सच्चे मित्र आज भी है जरूरत है सिर्फ उनको
समझने की। जैसी मित्रता निभाओगे वैसी पाओगे।
कृष्ण का सखा भाव ना केवल सुदामा के प्रति वरन सुदामा से लेकर चैतन्य तक बस देखते ही बनता है. भाव पूर्ण पोस्ट
yipeeee....
i have one..... :)
मित्र के ये गुण सापेक्षिक हैं। अगर स्वयं हममें ये गुण हों,तभी किसी मित्र से ऐसी अपेक्षा रखना उचित। और अगर हों,तो मित्र भी मिल ही जाते हैं। जिन खोजा तिन पाइयां!
मुझे तो बस एक लाइन याद है "विपत्ति कसौटी जो कसे ताहि सांचे मीत " . मै श्रीकृष्ण को तो सखा नहीं बना सकता लेकिन उनका आशीष मेरे साथ है .
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@-जैसी मित्रता निभाओगे वैसी पाओगे।
Give and take relationship is a formal one and quite business type. Friendship is a selfless relationship .
दो मुट्ठी चावल का उपहार स्वीकार करके , दो लोक दे देना .......इसमें एक हाथ से दे , एक हाथ से ले जैसा निभाना नहीं है। एक मित्र ही ऐसा कर सकता है , जो अपेक्षा और स्वार्थ से रहित हो।
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श्री कृष्ण जैसा मित्र पाने के लिए खुद भी तो सुदामा जैसा होना चाहिए न :)
वैसे मित्रता में शर्तें नहीं होतीं.मित्र तो बस मित्र होते हैं.और भगवान की दया से हमारे पास तो बहुत हैं.
श्रीकृष्ण जैसे मित्र की आज सम्भावनाये न्यून हैं कहीं n कहीं मित्रता लिप्सा का शिकार है
हम तो खाली हाथ हैं क्योंकि कृष्ण जैसा मिलता नही और स्वार्थी हमें भाता नहीं………………इससे बेहतरीन व्याख्या हो ही नही सकती ………………विचारणीय लेख्……………आभार्।
@ मेरी प्यारी उत्साही बहन ! यदि आज के दौर में गार्गी का होना संभव है तो श्रीकृष्ण जी का होना भी संभव है ।
और वह ख़ुशनसीब मैं हूँ जिसके पास आपके रूप में गार्गी जैसी विदुषी बहन है तो कृष्ण जैसा एक सारथि भी है ।
अगर वह सारथि न होता तो मेरा रथ भी आज आपके द्वार खड़ा न होता ।
सभी पुराने ब्लागर जानते हैं कि ब्लाग माया को जीतने वाला मेरा वह सारथि कौन है ?
मानव जाति का प्रारंभ भारत से हुआ है
क्योंकि स्वायमभू मनु का अवतरण भारत में हुआ था । यह अरबी इतिहास परंपरा से भी सिद्ध है । प्रमाण मेरे ब्लाग पर देखे जा सकते हैं ।
कुमार राधारमण की विचारों से सहमत।
कौन महान है? जिसके पास ऐसा मित्र है या जो ऐसा मित्र है?
मैं सोचता हूँ कि यदि किसी में वे सब गुण हैं जिसकी सूची आपने दी है, तो अच्छा होता यदि वह विपरीत लिंग का हो ताकी उससे शादी करके खुशी खुशी जिन्दगी कट सके!
आजकल एसा मित्र मिलना बहुत ही कठिन है और ऐसा मित्र बनना उससे भी ज्यादा कठिन।
कैसी लगी मेरी यह "बिन माँगी राय"?
शुभकामनाएं
आपका नया ब्लॉग मित्र
गोपाल "कृष्ण" विश्वनाथ
श्री कृष्ण समर्थ थे सो मित्रता का एक उदाहरण पेश कर गये।
पर सुदामा नें श्री कृष्ण को क्या दिया?
हमारे पास ऐसा आदर्श मित्र तो नहिं जो बस हमारी मित्रता ही निभाता चला जाय बिना कुछ कहे।
मित्र मिलते भी है, पर कभी हमारी अपेक्षाएं बढ जाती है तो कभी उनकी सीमाएं और अपनी स्वयं की जिन्दगी आडे आ जाती है।
कहते हैं ताली दो हाथ से बज़ती है, मुस्किल यह है कि ताली बजाने का अवसर आये तो कभी यह हाथ तो कभी वह हाथ व्यस्त हो जाता है।
बिलकुल है...
aaj ke sandarbh me .... yaksh prashn..........
koi birle hi uprokt kasuti pe khara utrega....
aapka prasn gambhir kism ka hota hai.....so pathak
sahaj hi ek sabd ya wakya me jawab dete farig ho
leta hai........
jaise lohe ko ret pe ragarne se usme tikhapan aata hai yse hi apke prasn alekh se pathak ke
soye hue sambedna hiloren marta hai..........
ab intzar karte hain guruji ka sayad kuch rahat
mile
pranam.
वाह वाह !
इस प्रेम से निर्मल कोई नहीं, एक लिंक दे रहा हूँ , समय मिले तो देखना ..शायद पसंद करेंगी !शुभकामनायें !
http://satish-saxena.blogspot.com/2009/02/blog-post.html
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संजय जी,
जो बात मेरे मन में थी , वही आपने लिख थी। 'फारिग' होने वाली। कोई ऊपर की, कोई मध्य की , कोई अंत की लाइन चुनता है और फारिग हो लेता है। पूरा लेख तो एक-दुक्का ही पढ़ते हैं। खैर, गिला किससे करें, न कोई दोस्त है न रकीब है , ये शहर ही काफी अजीब है।
आपका आभार।
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जी श्री कृष्ण जैसा दोस्त है,या शायद वो ही है पता नहीं!लेकिन जो चीज पक्का पता है वो ये कि मै आज तक किसी का एक बहुत अच्छा या केवल "मित्र" भी कहूँ तो काफी होगा,बनने की कोशिश करता रहता हूँ!पर नहीं बन पाता,कई बार परिस्थिति ऐसी बन जाती है की सब समझ कर,जान कर भी कुछ नहीं किया जाता!
बहुत रंज है इस बात के मन में,
के हम क्यों ना नादान हुए!
ना समझ होती के वो लाचार है,
ना रंज होता के हम मजबूर है!
कुंवर जी,
दुनिया के सबसे बेहतरीन रिश्तों में एक है दोस्ती का रिश्ता।
कृष्ण और सुदामा की मित्रता बेजोड़ है इसमें कोई शक नहीं किन्तु आज के संदर्भ में सामान्य व्यक्ति से उसकी तुलना नहीं की जा सकती |मित्रता आज भी है निसंदेह उनमे कोई शर्त नहीं होनी चाहिए लेकिन कुछ अनकही शर्ते आ ही जाती है |फिर जिस तरह प्यार किया नहीं जाता हो जाता है मित्र भी बनाये नहीं जाते अपने आप बन जाते है बोलचाल में उनसे शिकायतहोती रहती है किन्तु समय पड़ने पर शिद्दत से मित्रता निभाई जाती है |मै तो जहाँ भी रही हूँ मेरी पक्की सहेली बनी है एक नहीं कई | ४० साल बाद भी मिलो दूर रहने बाद भी हम लोग मित्र है क्योकि सभी में कृष्ण का अंश तो है ही न ....
इस मामले में मैं अभागा हूं। आलेख में दी गई शर्तों को पूरा करने वाला मेरा कोई मित्र नहीं। मित्रवत भी बहुत कम हैं। लेकिन मैंने अनुभव किया है कि मेरा मित्र मैं स्वयं हूं।
बस मैंने शीर्षक देख के सोच लिया था की लिख दूँ- हाँ बिलकुल है, इसमें कोई शक नहीं...
फिर बाद में आपका लिखा पढ़ा :)
मेरा एक दोस्त, समित हमेशा अपने जान पहचान वालों को मित्र समझता था..उसे लगता था जो उसे जानते हैं वो उसको हर तरह से मदद करेंगे क्यूंकि वो उसके मित्र हैं..खैर बाद में परेशानियों में पड़ जाने के बाद उसे अहसास हो गया की "मित्रता" बहुत अनमोल है और ऐसे ही नहीं मिल जाती...
मेरे दो दोस्त हैं, जिन्होंने अब तक मुझे संभाला है अच्छे से...और हाँ, मुझे गर्व इस बात पे है की वो मेरे मित्र हैं :)
श्री कृष्ण जैसा मित्र मिलना मुश्किल सा है.........
और इस जमाने में, बहोत मुश्किल
श्रीकृष्ण जैसा तो नहीं है।
हम सच्चे मित्र बनें किसी के तो फिर बात शुरु हो जायेगी।
और हाँ,अपने सबसे पहले मित्र तो हम स्वंम ही होते हैं? यह काम ठीक से हो गया तो फिर बाकी भी शुभ होगा।
मेरे विचार से तो, आम तौर पर हम अपने सबसे बड़े शत्रु होते हैं और फिर बाहर से आदर्श मित्रों की मांग करते हैं!
Nice and meaningful post. Your perception about a true friend is really very true.
अच्छा मित्र पाना तो सब चाहते हैं...लेकिन ख़ुद अच्छा मित्र बनना कितने लोग पसंद करते हैं...?
मित्रता यानि दोस्ती .....दोस्ती मतलब...दो सत्यों का मिलन ...जहाँ इरफ भावनाओं की कदर की जाती है ...हमेशा समर्पण का भाव बना रहता है ...शुक्रिया
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फिरदौस जी ,
अच्छा मित्र होना अति दुर्लभ है। शिक्षा और संस्कार हमें मित्रवत तो रखता है , लेकिन मित्र नहीं बना पाता , क्यूँ मित्र बनने के लिए उपरोक्त सभी गुण उस व्यक्ति में होना बहुत जरूरी है । और ये गुण उसी में होंगे जो निस्वार्थ होगा। और निस्वार्थ कोई होता नहीं।
इसलिए व्यक्ति स्वयं अपना ही मित्र हो सकता है । जब हम स्वयं से मित्रता कर लेते हैं तो कम से कम दूसरों के साथ मित्रवत रहना भी सीख जाते हैं।
परिस्थितिवश , स्वार्थवश , संस्कारवश या सेवा भाव के फलस्वरूप हम किसी के शुभचिंतक हो सकते हैं। मधुर संबंधों को बना कर भी रख सकते हैं, लेकिन श्रीकृष्ण जैसा प्रेम लुटाने वाला निस्वार्थ मित्र , नहीं होता ।
यह बात हर एक पर लागू होती है । क्यूंकि अगर यदि हम सही मायनों में किसी के मित्र हो ही जायेंगे तो उससे अपेक्षा नहीं रखेंगे , सिर्फ उसपर प्यार लुटायेंगे और उसका भला ही सोचेंगे । अपने से ज्यादा उसके लिए व्यथित होंगे। लेकिन ऐसा कोई विरला ही कर सकेगा।
हमें सज्जन और मृदुभाषी संगत मिल सकती है । मददगार और शुभचिंतक भी मिल सकते हैं , क्यूंकि अच्छे लोगों की कमी नहीं है दुनिया में। लेकिन किसी का मित्र बनकर रहना या सच्चा मित्र पाना एक बेहद अनमोल और दुर्लभ खजाना है।
मित्रता , दो आत्माओं का मिलन है जो दुर्लभ है।
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सुंदर सार्थक पोस्ट।
मुझे तो सुदामा कि मित्रता अधिक आकर्षित करती है। इतने कष्ट में होकर भी वे कृष्ण के पास इसलिए नहीं जाना चाहते कि मित्र को कष्ट होगा।
dewendra pandey ji ne bhi kya baat kahi hai....
सार्थक पोस्ट...
पर आजकल ऐसे दोस्त मिलते कहाँ हैं..
सौभाग्य से मै कह सकता हूँ की मेरे पास ऐसे दोस्त हैं जिनकी याद इस पोस्ट को पढने के बाद अनायास ही आ गयी.....
शुभकामनायें एवं आभार
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अभियान भारतीय जी ,
यदि इस पोस्ट को पढने के बाद आपको अपने कुछ मित्रों की याद आ गयी , तो निश्चय ही आपके पास सच्चे मित्र हैं। आप सौभाग्यशाली हैं।
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sabse pahle ham apne andar aise gun laayen ki koyi hamko sachcha dost mil sake.
अच्छे मित्र बनाने की विशेषताओं का पता चला ...कोशिश करेंगे कि ऐसे मित्र बन सकें ... ..अच्छी पोस्ट के लिए आभार
एक मित्र का होना परम आवश्यक है लेखिन बहुत मुश्किल से ही मिलते हैं. एक था खो दिया. उठा लिया भगवान् ने. अब एक दूसरा बनते जा रहा है. आभार. आपने सोचने पर मजबूर कर दिया.
दिव्या जी !
आदर्श और पूर्णता की तलाश में रहे .....तो खाली हाथ न रह जाएँ कहीं. जिन्दगी इंतज़ार नहीं करती .......
यद्यपि इसका अर्थ यह नहीं है कि हम अपनी तलाश बंद कर दें. हमारा लक्ष्य तो वही होना चाहिए........अच्छा वह गाना याद है न! " कोई मुझसे प्यार कर ले झूठा ही सही ......." ऐसी मनः स्थिति भी होती है कभी-कभी......fiction क्या है ? fallacy ही तो !मगर कभी-कभी इससे भी जिन्दगी को सहारा मिल ही जाता है.
चलिए दूसरे पक्ष पर भी विचार करते हैं. आप नें ये कलम क्यों उठायी ? हम व्यवस्था से असंतुष्ट हैं ..... बदल नहीं पा रहे .....इसलिए अपनी आकांक्षाएं .....भावनाएं......प्रस्ताव .........योजनायें दूसरों के सामने प्रकट करते हैं ......एक आशा के साथ .......लेखन इसका एक शालीन तरीका है........हमें इससे संतुष्टि मिलती है.......झूठी ही सही .......कुछ तो तनाव कम होता ही है ....जहां तक सच्चे मित्र की बात है तो मेरा मानना है कि पूरी ज़िंदगी की तलाश में एक भी मिल जाए तो सौभाग्य है.
और यह बात सिर्फ आपके लिए -
सच्चा मित्र मिलने तक लिखना बंद कर दीजिये ....पागल हो जायेंगी आप .......यह लेखन क्या हमारा मित्र नहीं ?
मित्रता विकसित होती है, रडीमेड नहीं और विकसित होती है, सुख-दुख बांटते रहने से.
....और हाँ ! हमें अपनी सोच सकारात्मक रखनी होगी ......फ़िर किसी पर संदेह करना भी तो ठीक नहीं . यह ज़रूर है कि हमें यह चयन करना होगा कि कौन सी बात ....दुःख ...दूसरों से कहने लायक है .......गोपनीयता और दुःख को व्यक्त करना ...दोनों में अंतर है.
आपकी बात दुःख, माता-पिता और गुरु से प्रारम्भ हुयी थी ..मित्र पर आकर अटक गयी....परन्तु विषयांतर नहीं हुआ है ......विमर्श में कुछ नया निकलने की संभावना होती ही है .......अच्छे मित्र की ....श्रीकृष्ण की .....तलाश ज़ारी रखें. मेरी शुभकामनाएं . मिल जाए तो बताना ज़रूर.आपकी खुशी में हम भी शरीक हो लेंगे.
उपरोक्त गुण वाला मित्र हो इससे पहले ये सारे गुण हममे भी होने चाहिए ऐसा मानता हूँ. और हाँ, कृष्ण और सुदामा का तो बा स उदाहरण था उसपर चर्चा जरूरी नहीं है. वैसे एक और उदाहरण है मेरे पास जो राम और सुग्रीव कि मित्रता का है. राम ने बिना कुछ (२ मुट्ठी चावल तो क्या) लिए ही सुग्रीव को उसका राज-पाट दिलाया. और बाद में उसकी सहायता ली.
वैसे भी गोस्वामीजी ने कहा है. "सुर नर मुनि सब कि यह रीती, स्वारथ लागि कराही सब प्रीती".
अच्छा दोस्त मिलना सौभाग्य की बात है..
जी हाँ ,है |बहुत दिनों से है |
श्रीमत्-भगवत्-गीता के श्रीभगवान,जिन्हें प्यार से हम शिव बाबा कहते हैं |
वे निराकार हैं|ब्रह्माकुमारिस उन्हें अच्छी तरह जानते/पहचानते हैं|वे मेरे साथ बचपन से हैं ,बस प्रगाढ़ मित्रता ब्रह्माकुमारिस की वजह से हुई |श्री नाथ जी ने भी भरपूर प्रेरित किया|
सभी हमारी इस मित्रता से आनंदित हैं |
ॐ शांति |
दिव्या जी!
सच्चा मित्र बडी मुश्किल से मिलता हॆ.यह मेरा सॊभाग्य हॆ कि आज के इस युग में भी,मेरा एक कृष्ण जॆसा मित्र हॆ.जीवन के हर सुख-दु:ख में उसने हमेशा मेरा साथ दिया हॆ.जब आर्थिक मदद की जरूरत पडी,तो रिश्तेदारों व तथाकथित मित्रों ने मुंह मोड लिया,लेकिन मेरे उस कृष्ण ने कभी मुझे मना नहीं किया.कभी मॆंने उससे कहा भी-यह पॆसा मॆं इस जन्म में नहीं लॊटा पाया तो?उसने मुस्कराकर कहा-क्या पता पिछले जन्म में,मॆंने ही तुझसे कर्जा ले रखा हो? शायद उसे ही इस जन्म में लॊटा रहा हूं. मुझे नहीं मालूम पिछ्ले जन्म का कोई संबंध होता या नहीं? बस इतना पता हॆ जब भी कोई खुशी या दुख की बात होती हॆ,तो सबसे पहले उसी के साथ बांटने का मन करता हॆ.
ऐसा मित्र मेरा न हो
पर मैं ऐसा मित्र बना रहूं
यही कामना है मन की
मन रूपी मेरे उपवन की
मन तो एक जंगल है
इस जंगल में से डॉ. दिव्या जी
बिल्कुल दिव्य विचारानुभूति लेकर
प्रकट हुई हैं
हिन्दी ब्लॉगिंग को सार्थकता प्रदान करती ऐसी पोस्ट, जिसे पढ़ना शुरू करने के बाद शायद ही कोई बीच में अधूरा छोड़ पाए। मन रूपी जंगल के पेड़ पौधों में से एक नायाब जड़ी बूटी औषधियुक्त पोस्ट मन को प्रसन्न कर गई है।
इस टिप्पणी में, मैं कोई लिंक नहीं छोड़ रहा हूं, इस विषय पर गंभीरता से इसकी संपूर्णता में विचार किया जाना चाहिए।
मित्र और मुलाकाती में अंतर होता है और प्रायः लोग यहीं चूक जाते हैं। मित्र तो दो चार ही होते हैं जी, बाकी जमावड़ा तो मुलाकातियों का है॥
आपका ई मेल पता तो नहीं है मेरे पास, परंतु मैं आपको नुक्कड़ और पिताजी ब्लॉग से जोड़ना चाहता हूं। 'नुक्कड़
आप इनका अवलोकन कर सकती हैं। अपने निर्णय से अवगत कराइयेगा। सादर/सस्नेह
मेरे साथ हैं और कम से कम चार हैं.. और सिद्ध भी कर चुके हैं..
इस कलियुग में सतयुग के श्रीकृष्ण जैसा मित्र. करीब-करीब असंभव । जो और जैसे मिल रहे हैं, काम तो उनसे ही चलाना है । ये बात जुदा है कि उनकी प्रवृत्ति के मुताबिक ही उनसे हमारा व्यवहार रहे ।
..
मित्र मेरा ..... एक ही वियोग है.
शेष .. स्वार्थ सिद्ध करते लोग हैं.
वियोग आ देता मुझे .... प्रेरणा
काव्य की .. व्यर्थ सारे भोग हैं.
____________
वियोग अर्थात विशिष्ट योग अर्थात विरक्तिमय योग.
..
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मित्रता क्या लाँड्री की रसीद है ?
शर्तें लागू करना कतई न्यायसँगत नहीं है ।
और...मित्रता में कोई शर्त नहीं होती,
ऎसे मित्र अनायास नहीं मिला करते
मित्रता की ऎसी असीमता अर्जित करने के लिये स्वयँ भी बहुत कुछ त्यागने को तत्पर रहना होता है ।
इस पोस्ट के सम्बन्ध में मेरा ऎसा ही मानना है । मेरा अपना सच तो यह है कि मुझे मेरे मुँह पर आलोचना करने वालों से बेहतर कोई मित्र ही नहीं लगता । इसके मानी यह नहीं कि, मैं लतखोरीलाल हूँ.. मैं उनका शुक्रगुज़ार हूँ कि उनमें सच कहने का साहस रहा और इन्हीं आलोचकों ने मुझे माँज माँज कर आज इस मुकाम पर पहुँचाया है ।
यह तो बाद में जाना कि कड़वी नीम और करेले की तासीर रक्तशोधक की होती है, जो आप्के स्व को निखार कर सामने लाती है ।
पर मैं यह सब कह-सुन-लिख ही क्यों रहा हूँ, यह तो जबरिया राय देने वाली बात हुई ।
जो आपके दुःख में आपसे भी ज्यादा दुखी हो उठे... ( क्यों ? फिर उसमें स्वार्थ की गँध लोग क्यों न ढूँढ़ें ? )
जो आपको अनावश्यक प्रवचन ना देकर , सिर्फ आपको समझे ( समझा-समझी के इस प्रयास में भले ही उसे चाटुकारिता के स्तर तक गिरना पड़े )
जो आपके साथ कटु अथवा व्यंगात्मक अथवा ईर्ष्या से युक्त भाषा में न बात करता हो ( मेरा ख़्याल है कि दो टूक बात करने वाला दिल से आपका हितैषी होता है )
जो निस्वार्थ प्रेम करता हो । ( बिनु स्वारथ न होंहि प्रीति... ई हम नही कहा, ई तुलसी बाबा कहूँ उचारिन रहा, वहि हमहूँ बोला )
" A single rose can be your garden "
Yes, its certainly true.. but a flower without thorn can never be a rose. How can I believe this flower being a rose, if its thorns are picked out ?
दिव्या जी
मित्र की परिभाषा सिर्फ एक ही है वो है मित्र। मित्र मित्र होता है। जरुरी नहीं कि आपमें वो गुण हों, तो आपको ऐसे गुणों वाले दोस्त मिलें। किसी की सहायता करने वाला सबका मित्र होगा। पर जरुरी नहीं उसका कोई मित्र हो। कान्हा तो पराकाष्ठा हैं। आम इंसान उसकी एक अंश ही हो जाए तो क्या कहने। कुछ लोग दिल के इतने अच्छे होते हैं कि हर किसी की मदद के लिए तत्पर रहते हैं, वो अपना ये स्वभाव किसी भी हालत में नहीं बदलते, पर मुसीबत में वो अकेले ही नजर आते हैं।
कभी कोई कहता है कि अपेक्षा अधिक होने से मित्रता मे दरार आ जाती है। ये मुझे ठीक नहीं लगता। अगर कोई आपका मित्र है तो वो मित्रता निभाएगा ही। अगर कुछ कारण से कोई काम नहीं कर पाता है तो आप एक मित्र होने के नाते उसकी स्थिती को भी समझंगे। कोई एक घटना मित्रता की कसौटी हमेशा नहीं होता।
आपने मित्र की भाषा की बात कही है। ये जान लीजिए कि दोस्त ही होता है जो कड़वा बोल कर कई बार आपको हकीकत की दुनिया में लाता है। उन हालात में आप मित्र को गलत मान कर उसका साथ छोड़ देते हैं, पर सालों बाद पता लगता है कि आप गलत थे। ऐसे में चंद शब्द जरुरी नहीं कि दोस्त की परिभाषा तय कर दें। मगर चंद शब्द ही होते हैं जो दोस्ती की परिभाषा को तय भी कर देते हैं। मित्र वही है जो आपके साथ है। आप जिसके साथ हैं हर घड़ी। हर पल।
Dearest ZEAL:
Along the same lines with which you ended, a couplet by Ahmed Faraz is what I commence with -
Humsafar chaahiye, hujoom nahi
Ek musaafir hi qaafilaa hain mujhe
The best friend will be hard pressed to deliver on all the demands stated by you because at times it is needed that he/she brings to you the facts that are and it is done purely with the best interests in the heart.
Choosing a friend is easy but to ensure that the relationship doesn't peter away into obscurity is a deliverable for both the persons.
Fate and Gods do Their act of getting the two to meet. Beyond that point, They let the two take it forward and see whether they Flourish or Flounder.
It is a validation of sorts.
I just know that is the bond is perfect, Togetherness is eternal. Else, the novelty will wear off and the next fork in the road of life will see them walking away into disparate directions.
I conclude with the opening lines of a beautiful song about friends -
Diye jalte hain
Phool khilte hain
Badi mushkil se magar
Duniyaa mein DOST milte hain
Semper Fidelis
Arth Desai
मैं सौभाग्यशाली रहा. मित्र मिलते रहे. सभी उपर्युक्त गुणों वाले रहे ऐसा भी नहीं परंतु कमी नहीं रही.
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@-शर्तें लागू करना कतई न्यायसँगत नहीं है ।
डॉ अमर ,
जिन्हें आप शर्तें समझ रहे हैं , वो एक मित्र के गुण हैं।
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@--सच्चा मित्र मिलने तक लिखना बंद कर दीजिये ....पागल हो जायेंगी आप .
कौशलेन्द्र जी ,
पहली बात मुझे किसी तलाश नहीं है। रही बात पागल होने की -- नहीं मालूम आपने ऐसा क्यूँ लिखा , लेकिन अच्छा नहीं लगा।
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अविनाश वाचस्पति जी ,
आप हमारे ब्लॉग पर आये , इतना स्नेह दिया, मन हर्षित है। आपके बताये गए दोनों ब्लॉग से जुड़कर मुझे प्रसन्नता होगी।
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विनोद पराशर जी ,
जैसा वर्णन आपने अपने मित्र का किया है , वही है सच्चा मित्र, वही है आदर्श मित्र। आपको तो साक्षात कृष्ण ही मिल गए । अपने मित्र को मेरा सादर अभिवादन प्रेषित करियेगा।
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हम अक्सर दुसरो में अच्छे मित्र की तलाश में भटकते है परन्तु क्या हम किसी के अच्छे मित्र बने है ,क्या जो गुण हम दुसरो में ढूढ़ने का प्रयाश कर रहे है ,वह हमारे मै है! क्या हम कभी किसी मित्र के दुःख में दुखी हुए है! उसके दुःख को दूर करने का प्रयाश किया है !
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सुब्रमनियन जी,
मेरे पास भी ऐसा ही एक मित्र है , जिसे भगवान् ने उठा लिया । लेकिन वो अभी भी मेरे साथ है, हर संकट में मेरा मार्दर्शक है । लेख में बताये गए सभी गुण भी हैं मेरे उस मित्र में । वो सदैव मेरे हित में सोचता है । , मुझसे भी ज्यादा व्यथित होता है मेरे दुखों में, मेरा मार्गदर्शक भी है वो । जिसने कभी मेरा अपमान नहीं किया। सदा अपना स्नेह भरा हाथ रखा मेरे सर पर।
जो मेरे दुःख में मुझसे ज्यादा रोया , और मेरे सुख में मुझसे ज्यादा हर्षित हुआ। जिसने मुझे ज्ञान, बुद्धि और संस्कार दिए। जिसने मुझे अपना सर्वस्व दे दिया , उस मित्र को इश्वर ने अपने पास बुला लिया [३ अप्रैल , २००७]
मेरी वो आदर्श मित्र मेरी "माँ " हैं । जो आज भी मेरे साथ हैं।
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बहुत हद तक मैं अमरकुमार जी से सहमत हूँ ...
सच्चा मित्र वही है जो आपके मुंह पर दो टूक बात कह सके ...
सच्चाई ये है कि आजकल लोंग सर्किट जैसा दोस्त चाहते हैं ....कृष्ण जैसा मित्र चाहते कहाँ हैं ...
जो भाई बोला वही सच ....
कृष्ण जैसा मित्र ना मिले ना सही , हम तो कृष्ण जैसी मित्रता निभा सकते हैं ....क्यूँ अपेक्षा दूसरों से ही की जाए ...!
मुझे आपकी पोस्ट पर लिखा हुआ निम्न कोटेशन प्यारा लगा:-
" A single rose can be my garden, A single friend my world "
इसका मतलब एक भी real friend हो तो भी काम चल जायेगा,और सही बात ये है की कम से कम एक या दो हर व्यक्ति के real friend होते है.यही तो मैंने कल अपनी टिप्पणी में कहा था की एक या दो व्यक्ति जो वाक़ई में आपके दोस्त हों उनसे अपनी व्यथा/कथा ज़रूर कहनी चाहिए.
krishan or sudama ka samy or tha, aaj samay kuch or hai , un dono ki tulna main yadi 30-40 fisadi bhi samnta ho jaay to samajh lo yahi hai krishan or sudama ki mitrta......... jahan tk mera anuibhv hai ......
abhaar .
" A single rose can be my garden, A single friend my world "
आप जितनी बातें अपने एक सबसे मित्र से बता सकते हैं शायद अपने बीवी से भी नहीं बता सकते हैं
बेहतरीन लेख
हर दुविधा में कोई न कोई आड़े आ ही जाता है...
अब पता नहीं.. कौन कितना बड़ा मित्र है..
शायद बहुत सारे कृष्ण हों या फिर कोई भी नहीं..
मैं इस पर ज्यादा सोच विचार नहीं करता... घुटने दर्द देते हैं :)
बहुत ही सुन्दर एवं सार्थक प्रस्तुति ।
मित्र की अच्छी व्याख्या की है आपने ... बहुत प्रभावी होता है आपका लेखन ..
आज के कलयुग मेँ किशन जैसा मित्र कहाँ ? कुछ देता कौन , जो है उसपर भी खतरा ।
आज के कलयुग मेँ किशन जैसा मित्र कहाँ ? कुछ देने को कौन कहे जो है उस पर भी छिन जाने का खतरा।
It has been rightly said"...to have a friend be one!!!"
सुदामा जैसा समर्पण होगा तभी तो श्री कृष्ण से मित्र होंगे!!!
सुन्दर पोस्ट!
सुन्दर विचार के साथ उम्दा प्रस्तुती! लाजवाब पोस्ट!
nahi, aaj tak yasa dost mila nahi.
nice post congrats with regards
मित्र तो शायद कृष्ण से मिले
पर हम ही सुदामा बन ना सके
दुश्मन तो राम से मिले मगर
हम रावण जैसे बन ना सके
मित्रता में स्वार्थ ना ही आये तो अच्छा. एक दूसरे की मदद ज़रूर हो.
मनोज खत्री
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यूनिवर्सिटी का टीचर'स हॉस्टल
बहुत सुन्दर प्रश्न जी समय और नजर का बदलाव जहाँ जहाँ होता है वहां हवा से लेकर मानसिकता तक बदल जाती है भला श्री कृष्णा जनस मित्र इस बदलाव में कहाँ मिल सकता है
bahut khubsurat baat kahi hai aapne, lekin aaj is selfish duniya me achchhe mitra durlabh ho gaye hain,jo aapko tawajju de!
जय श्री कृष्ण। भाई हा मेरे पास है श्रीकृष्ण जैसा मित्र। जिसकी अपार कृपा से मैं जीवन की हर विकट से विकट, असंभव से असंभव, सब बाधायें, समस्यायें, सब मंजिल, सहज ही प्राप्त हुई है मुझे।
वह कोई और नही मेरे भगवान श्रीकृष्ण ही है। वो मेरे मित्र भी हैं, गुरू भी है, भगवान भी है। मीरा के शब्दों में कहूॅ तो ‘पायो जी मेने राम रतन धन पायो...’। वासुदेवसर्वम ही मेरा जीवन संसार ही नहीं सकल सृष्टि है। प्रहलाद के शब्दों में कहूॅ तो ‘ जले विष्णु, थले विष्णु, विष्णु पर्वत मस्तके, ज्वाला माला कुले विष्णु, विष्णु सर्वम मयम् जगत। मै कहना नहीं चाहता परन्तु आपने यहां ऐसा ही प्रश्न किया तो मुझे नासते विद्यते भावो, ना भावो विधते सत् को जान कर आपको इस परम रहस्य से अवगत कराना ही पड़ा। अब ऐसा श्रीकृष्णमय हूॅ कि मुझे श्रीकृष्ण व खुद से भेद ही नजर नहीं आता है। इसीलिए न राज्य व नहीं श्रेय व नहीं धन-पद स्वर्गादि लोको की इच्छा से मैं सतत् कुरूक्षेत्र के मैदान में असत् के खिलाफ संघर्ष में ही रत हॅू। शेष श्रीकृष्ण। हरि ओम तत्सत्। श्रीकृष्णाय् नमो।
www.rawatdevsingh.blogspot.com
वो बहुत भाग्यशाली होगा जिसे एक सच्चा मित्र मिले ...शायद ही कोई सच्चा मित्र मिले किसी को जो जीवन भर मित्र बन दुःख सुख में साथ दे ..ऐसे में लगता है प्रभु ही सबसे बड़ा मित्र है जो हमें दीखता नहीं लेकिन उम्र भर हर दुःख में हमें ताकत देता है..... सुन्दर लेख
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