Tuesday, December 7, 2010

क्या हमारी शिक्षा पद्धति में सुधार की दरकार है ? - Indian Education System

आज जहाँ देश विदेश में भारतीय शिक्षा पद्धति की प्रशंसा की जाती है , वहीँ क्यूँ नहीं हमारे विद्यार्थी अपनी मिसाल कायम कर पाते हैं विभिन्न क्षत्रों में ? हमारे ज़हीन एन्जिनीर्स , वैज्ञानिक भी अगर कुछ कर पाते हैं तो वो है विदेशों में जाकर

क्यूँ नहीं अपने देश में रहकर ही कुछ नया और बेहतरीन करने के लिए सक्षम हैं ? क्या हम पंगु हैं ? या फिर यहाँ मिलने वाली सुविधायें उच्च स्तरीय नहीं हैंया फिर देश के पास पैसा कम है ? या फिर हमारा देश विकासशील की श्रेणी में ही रहना चाहता है? क्या २०२० में सुपरपावर कहलाने के आसार हैं ? क्या शोध नहीं हो रही या फिर शोध पत्रों में भी घोटाले हो रहे हैं और ईमान के साथ शोध कार्य भी बेच दिए जा रहे हैं ?

क्या वजह है , भारतीय वैज्ञानिक विदेशों में जाकर की कुछ बड़ा कर पाने में सक्षम होते हैं ? चाहे वो पर्यावरण की दिशा में, नोबेल शान्ति पुरस्कार विजेता ' राजेन्द्र पचौरी जी' हों अथवा , स्पेस में जाने वाली 'सुनीता विलियम्स ' होंहम तो प्रसन्न हो लेते हैं की भारतीय हैं , लेकिन क्या उनकी सफलताओं में भारत का योगदान है ?

शिक्षा का स्तर ऊँचा होते हुए भी क्या वजह है की ज़हीन विद्यार्थी competition नहीं निकाल पा रहे हैंयदि प्रतियोगी परीक्षाओं में चयन हो भी जाता है , तो नौकरी के लिए जद्दोजहद शुरू हो जाती हैआजकल हर जगह प्रवेश में कट- आफ अंक आसमान छू रहे हैं७५-८० % अंक लाने वाले विद्यार्थी निराश होते हैंआखिर इस cut-throat competition में निराश होने वाले deserving विद्यार्थियों के लिए क्या हल है ?

क्या professional courses में सीटें बढायीं जानी चाहिए ? या फिर डॉक्टर , इंजिनियर से हटकर भी सोचना चाहिएहमारे विद्यार्थियों के लिए कुछ अन्य प्रकार के भी उपयोगी तथा व्यवहारिक पाठ्यक्रमों की वैकल्पिक व्यवस्था होनी चाहिए

विश्व के कुल अनपढ़ों में से ३४% केवल भारत में हैंइस क्षेत्र में भारत अव्वल हैक्या इन्हीं आंकड़ों के साथ हम सुपर पावर बनने के ख्वाब सजा रहे हैं ? आज सर्व शिक्षा अभियान तो चला रही है सरकार, लेकिन सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर काफी निम्न हैविद्यार्थी को जो मिलना चाहिए , वो नहीं मिल रहाआखिर क्या वजह है इस गिरते हुए स्तर की , और क्या हल है इसका ?

आजकल कुकुरमुत्ते की तरह बढ़ते हुए प्राइवेट कालेज भी एक समस्या बने हुए हैंइसमें 5-star सुविधाओं के साथ विद्यार्थी विद्या-अर्जन कर रहे हैंलेकिन सरकार से मान्यता प्राप्त होने या फिर मान्यता के देर-सबेर समाप्त हो जाने के कारण भी यहाँ से शिक्षित विद्यार्थी अपनी डिग्री लिए दर-दर भटकते मिलते हैंजो एक गहरे असंतोष को जन्म दे रहा है और ये ज़हीन तथा मासूम विद्यार्थी अपनी योग्यता तथा क्षमता से बहुत कम में ही काम करके गुजारा कर रहे हैं

इस तरह से प्रतिभा का हनन भी हो रहा है और हमारे देश की प्रतिभाओं का विदेश में पलायन भी हो रहा है ? क्या इसको रोका जा सकता है ? यदि हाँ तो कैसे ?

मैंने एक छोटी बच्ची 'अदिति ' से बात की [ जिसने कक्षा - तक भारत में पढाई की तथा उसके बाद विदेश में , international स्कूल में पढ़ रही है ] Indian Education और UK based Education के बारे में तो उसने संक्षेप में ये कहा - " Indian Education , की तुलना किसी भी देश से नहीं हो सकती हैइंडिया का standard बहुत हाई हैलेकिन भारत की Education में creativity नहीं हैवहां teachers जो पढ़ाते हैं, स्टुडेंट्स को वही रट लेना है और पास हो जाना हैजबकि UK pattern में teachers , स्टुडेंट्स को छोटी क्लास से ही [year-3 से ही] , ऐसे assignments देते हैं , जिससे स्टुडेंट्स की creative skills , develope होती हैवो अपना ब्रेन यूज़ करते हैं और कुछ नया सोचने की क्षमता develope करते हैंइसलिए मुझे लगता है इंडिया में creativity पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए तथा " SATS" [UK pattern], के आधार प़र शिक्षा दी जानी चाहिएइससे स्टुडेंट का aptitude भी पता चलता है और उसके लिए कौन सा विषय ज्यादा उपयोगी होगा , ये चुनने में भी मदद मिलती है । "

ये तो थे अदिति के विचारआपके विचारों एवं सुझावों का स्वागत है


92 comments:

Deepak Saini said...

शिक्षा मे सुधार की आवश्यकता तो बहुत है पर इस दिशा मे सिर्फ विचार और कागजी कार्यवाही ही हो रही है,
सरकारी स्कूलो मे शिक्षा का स्तर ? स्तर तो शायद है ही नही
दूसरी ओर जिन स्कूलो मे कोई स्तर है उनकी फीस इतनी है कि आम आदमी की पहुँच के बाहर

ashish said...

भारत वर्ष विश्व गुरु था ये सत्य है और इस सत्यता के जड़ में रही है यहाँ की प्राचीन गुरु शिष्य परंपरा. अंग्रेजो के आने बाद मैकाले की शिक्षा नीति ने हमे चमक वाली जिंदगी को पाने के लिए अपनी परंपरागत शिक्षा पद्धति में पश्चिम की भाषा का मिश्रण किया जो हमे बोद्धिक गुलामी और उनके अन्धानुकरण की तरफ ले गयी .इस मिश्रण ने हमारी गुणवत्ता को ग्रास बाना लिया . आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में जहा ज्ञान के साथ खोजो को ज्यादा महत्त्व दिया जाता है हम वहा पिछड़ गए. शोधपरक शिक्षा के लिए धन की कमी एक कारण बनी और हम धन की खोज में शोध से विचलित हुए . नतीजा ये की हम अभी भी लकीर के फकीर बने हुए है और एक अदद नौकरी के लिए पढ़े जा रहे है . जहा तक बात है आधुनिक शिक्षा संसाधनों की , यूनेस्को की रपट के हिसाब से अभी भी हम अपने GDP का ११ परतिशत शिक्षा पर खर्च करती है जो की विशाल जनसँख्या को देखते हुए विकसित देशो से बहुत कम है .भारत में केवल ४ परसेंट खर्च होता है अनुसन्धान पर जबकि गर्मी में २३ परसेंट . अब हमारी शिक्षा में एक बात और देखी जाने लगी है , हम अपने बच्चो को येन केन प्रकारेण शिक्षित करनके उसे एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी करते हुए देखना चाहते है . अगर मेरा बेटा या बेटी , इंजिनीअर के काबिल नहीं है तो भी उसे हम अपनी दमित इच्छा के दबाव में उसे वही बनायेंगे तो बाद में समाज के किसी काम नहीं आता . आपने बहुत विचार परक पोस्ट लिखी है और बहुत लिखने की इच्छा थी लेकिन कमेन्ट बहुत बड़ा हो जायेगा . धन्यवाद

shikha varshney said...

दिव्या जी बहुत दिनों से इस विषय पर तुलनात्मक आलेख लिखने का मन था .पता नहीं कब तक लिखा जायेगा ..फिलहाल इतना ही कहूँगी कि देखिये एक छोटी सी बच्ची अदिति ने कितने सुलझे और सटीक तरीके से अपनी बात कह दी....अब आप इसी बात को किसी भारतीय उच्चश्रेणी के स्कूल में पढ़ रहे बच्चे से पूछ कर देखिये...जबाब आपको अपने आप मिल जायेगा....

समयचक्र said...

वैसे अब हमारे देश में शैक्षणिक शिक्षा के साथ साथ व्यवसायिक शिक्षा को अत्याधिक महत्त्व दिया जाना चाहिए . फिर भी हमारी शैक्षणिक शिक्षा प्रणाली में काफी खामियां हैं जिन्हें विदेशों की तर्ज पर सुधारे जाने की आवश्यकता है ... आभार

कुमार पलाश said...

बहुत गंभीर आलेख.. देश के राजनीतिज्ञों और नीति निर्धारको तक यह आलेख पहुंचनी चाहिए..

सम्वेदना के स्वर said...

भारतीय शिक्षा जब तक मैकाले-काल में ही जीती रहेगी, दोगली ही रहेगी! अंगेजी की पूछँ पकड़कर हम जहाँ भी जायेंगे, पिछ्ल्ग्गू ही कहलायें जायेंगे ।

"सुधार" तो फिर एक और पैबन्द लगाना ही होगा, यहाँ तो आवश्यक्ता है नितांत नई व्य्व्स्था की :

जिसमें ऐसे स्कूल हों जहाँ देश के बड़े नेता, आई.ए.एस अधिकारी, क्लर्क और चपरासी सबके बच्चे एक साथ एक छत के नीचे पड़ सकें। एक सी किताबे हों, एक सी पोशाक, एक से अध्यापक..एक से अवसर हों..क्यों असम्भव लगता है, न?

असम्भव ही हैं...हमें तो कोई उम्मीद नहीं..जहां सबकी बात न हो तो स्वस्थ शिक्षा कैसे होगी? आई.आई.टी और आई.आई.एम में हमें तो आई (मैं) आई (मैं)ही नज़र आता है, और आपकों?

arvind said...

bahut gambhi our vichaarneey muddaa uthaaya hai aapne.....main is baat se sahamat hun ki sudhaar ki jarurat hai. ham aashaa kar sakte hai.

सदा said...

गंभीर प्रश्‍न के साथ सुन्‍दर लेखन ....इस विषय पर यही कहा जा सकता है कि इसकी आवश्‍यकता तो बहुत महसूस की जा रही है ..हमारे और आपके नजरिये से ...क्‍योंकि जिन्‍हें करना है उनका ध्‍यान इस ओर जा ही नहीं रहा ....।

ashish said...

भूल सुधार --गर्मी को जर्मनी पढ़ा जाय

दिगम्बर नासवा said...

मेकाले की शिक्षा पद्धति में बहुत से बदलावों की जरूरत है ... कुछ जरूरी जो मुझे लगते हैं ...
चरित्र निर्माण की शिक्षा
व्यायाम को अनिवार्य बनाना
भारत के प्राचीन इतिहास को अनिवार्य अंग बनाना
हिंदी भाषा को जरूरी अंग बनाना

ये सब बातें कम से कम १० कक्षाओं तक अनिवार्य होनी चाहियें ...

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत सही विषय उठाया है ....शिक्षा पद्धति में बहुत बदलाव की ज़रूरत है ..हांलांकि यहाँ के पढ़े हुए लोंग मानसिक रूप से ज्यादा विकसित होते हैं ..लेकिन वास्तविक शिक्षा का आभाव है ...अभी बहुत बदलाव किये जा रहे हैं ..ग्रेडिंग सिस्टम लागू किया जा रहा है जिससे बच्चे के मन में हीन भावना न आये ..यहाँ पर बच्चे की क़ाबलियत के हिसाब से शिक्षा नहीं दी जाती ..बस हांक दिया जाता है कि बस रेस में दौड़ो ...और शर्त यह है कि सबसे पहले नम्बर पर आओ ....आशीष जी ने बहुत अच्छी तरह से समझाने का प्रयास किया है ..अंग्रेजों को बाबू चाहिए थे इसलिए ऐसी शिक्षा प्रणाली बना दी ....अब सब बाबू बन कर बाबू ही बने रहना चाहते हैं ...ज़रूरत है हर क्षेत्र कि शिक्षा अलग अलग तरीके से देने की...प्रयास तो हो रहे हैं ..पर और ज्यादा और तेज़ी से होने चाहिए ....

ADITI CHAUHAN said...

jo vichaar us 'aditi' ke hain, wahi hamaare bhi hain. wakayi men भारत की Education में creativity नहीं है । yahan ratne ka tradition jyada hai. isko change karne ki baat bahut samay se ki ja rahi hai lekin dekhiye kab hota hai.

ek baar fir aapne sundar topic select kiya.
thanks

Kunwar Kusumesh said...

हमारा भारत अच्छे संस्कारों से पहचाना जाता है जो पाश्चात्य सभ्यता के हावी होने के कारण धीरे धीरे विलुप्त हो रही है यानी हम अपनी पहचान न खो दें इस बात का ख़तरा भी नज़र आ रहा है.अतः behavioural science का शिक्षा में एक विषय के रूप में होना समय की अनिवार्यता है

Unknown said...

भारतीय शिक्षा जब तक मैकाले-काल में ही जीती रहेगी, दोगली ही रहेगी! अंगेजी की पूछँ पकड़कर हम जहाँ भी जायेंगे, पिछ्ल्ग्गू ही कहलायें जायेंगे ।

मुकेश कुमार सिन्हा said...

sikshha me sudhhar ki jarurat hai, lekin fir bhi ham kisisi bhi desj ke samakshhh competition me hain.....

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

यह बहस पिछले पचास वर्ष से चल रही है और लोग विदेशों को जा जा कर ‘स्टडी’ करके आते रहे है। नतीजा वही चूं चूं का मुरब्बा... इसलिए कि कोई भी सुधार के लिए नहीं है। अगली पीढी सक्षम और होशियार हो गई तो इन सियारों का क्या होगा? इसलिए जगली और फूहड रहने में ही इनकी भलाई है।

डॉ टी एस दराल said...

देश में शिक्षा का स्तर दिन पर दिन गिरता ही जा रहा है । कुछ मुद्दे ऐसे हैं जिन्होंने ने शिक्षा का बेडा गर्क कर दिया है । इनमे से एक है शिक्षा का निजीकरण । दूसरों के बारे में चुप रहना चाहूँगा । बस इतना समझ लें कि देश में वुँप्त भृष्टाचार का प्रभाव शिक्षा पर भी नज़र आ रहा है ।

Rahul Singh said...

शिक्षा प्राप्‍त हो फिर क्रिएटिविटी को जरूरत होने पर सक्रिय किया जा सकता है. शिक्षा के साथ क्रिएटिविटी सहायक हो सकती है, लेकिन यह मौलिक-स्‍वाभाविक होता है, विकसित किया जा सकता है, इसकी शिक्षा देना संभव नहीं है ओर प्रशिक्षण से प्रतिभा नहीं बनती. इसका प्रमाण है भारत में शिक्षित प्रतिभाओं का विदेशों में आसानी से अपनी जगह बना लेना. किसी स्रोत से लिए गए कुछ आंकड़े मेरी एक पोस्‍ट 'रंगरेजी देस' में है.

केवल राम said...

दिव्या जी
हमारे यहाँ पर शिक्षा पद्धति में बदलाब लाने की नहीं बल्कि जो पद्धति है उसे सही ढंग से क्रियान्वित करने की जरूरत है ...पद्धति चाहे कितनी भी सही क्योँ न बना दी जाये जब तक उसका क्रियान्वयन सही ढंग से नहीं होगा तब तक निश्चित सफलता प्राप्त नहीं की जा सकती , एक और विचारणीय बिंदु जिसकी तरफ आपने ध्यान दिलाया है वह है निजी शेक्षणिक संस्थान..इन संस्थानों ने काफी हद तक शिक्षा के स्तर में गिरावट लाने भूमिका निभाई है ..ऐसा नहीं है कुछ संस्थान अच्छे भी हैं ...कुल मिलाकर जो पद्धति बनी है उसे भी सही ढंग से क्रियान्वित कर दिया जाये तो हम काफी हद तक अपने शिक्षा स्तर में बदलाब ला सकते हैं ..पर इसके बारे में सोचेगा कौन .....?

Anonymous said...

संगीता जी से पूर्णतः सहमत - जब अंगेज यहां थे तब उन्हे कम महत्व के काम करने के लिए पढे लिखे मज़दूर चाहिए थे - जो आत्म विश्वास हीन, आत्म गौरव से विस्मृत हों। रंग मे काले हों पर व्यस्था पोषण श्वेतों का करें। इस प्रकार के लोगों की फसल तैयार करने के लिए मैकाले शिक्षा पद्धति को अपनाया गया। ऐसे मे हमें ऐसी व्यवस्था से बहुत आशा रखनी भी नही चाहिए।

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

मैकाले शिक्षा पद्धति नें इस देश में लोगों की कभी न मिटने वाली भौतिकता की भूख को बढाने का काम ही तो किया है. जिस भूख को मिटाने के लिए साधन की पवित्रता व तात्कालिक परिणाम के लोभ में दीर्घकालिक हानि का भी ध्यान नहीं रहता.
भारतीय समाज को इस पद्धति नें विवेक को दरकिनार करना बखूबी सिखा दिया है....

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना said...

प्रतिभा पलायन इस देश की बहुत बड़ी समस्या है ........कारण किसी से छिपा नहीं है ....पढाई का स्तर हमारा किसी से काम नहीं .....रही बात शोध की ......तो सच तो यह है की शोध को भ्रष्टाचार खा गया ....राज्याश्रय के बिना शोध की बात हर व्यक्ति नहीं सोच सकता .......हाँ ! ......शोध बिकता भी है और चोरी भी होता है हमारे देश में ...कुछ भी संभव है यहाँ ....विदेशी इसकी ताक में रहते हैं .....और हमारा देश अभी तक ऐसी कोई नीति नहीं बना सका जिससे इस पलायन को रोका जा सके ......हमें इस मामले में उन देशों की तारीफ़ करनी होगी ज़ो भारतीय प्रतिभाओं का उपयोग अपने लिए कर पा रहे हैं ...

प्रवीण त्रिवेदी said...

शैक्षिक नीतियों में आप चाहे जितने परिवर्तन कर लें ......घूम फिर कर हम वहीँ रहेंगे !

आपके विस्तृत लेख के प्रत्युत्तर में केवल तीन-चार कारण हैं जिसके कारण यह बहस हमेशा बहस बनी रहेगी |
१-भ्रष्टाचार
२-शैक्षिक नीति निर्माता
३-विद्यालयी व्यवस्था निरीक्षक और पर्यवेक्षक
४-निष्कर्ष जाने बगैर प्रयोगों की लगातार आमद
५-और विशेष अभियान (...यथा सर्व शिक्षा अभियान)

प्रवीण त्रिवेदी said...

रचनात्मकता (क्रिएटिविटी) वाली बात सही हो सकती है ......पर वह भी इसी व्यवस्था के कारण दूर है !

प्रवीण त्रिवेदी said...

अशोक की कहानी - एक
और अशोक की कहानी - दो के सहारे केवल शिक्षण के तरीके पर चिंतन किया जा सकता है .....और यह चिंतन जारी रहना चाहिए ......पर इससे बाहर शैक्षिक नीति निर्माता और प्रशासक किस तरीके से इन चर्चाओं को नियमित कर पायेंगे .....हमेशा कि तरह फेल रहकर मेरे जैसे शिक्षक के विश्वास की रक्षा करेंगे |ऐसा मेरा अनुमान है !!!!

ethereal_infinia said...

Dearest ZEAL:

A nice post.

Thank you for introducing us to the wise, young Aditi. Please convey my best wishes to her.


Semper Fidelis
Arth Desai

Darshan Lal Baweja said...

हम मास्टरों को पता है सब कुछ -भ्रष्ट प्रशाशन , तबादले जैसा छोटा काम भी MLA/मंत्री ने अपने हाथों में ले रखा है और बाकी सब बड़े भी....

सूबेदार said...

दिब्य जी बहुत गंभीर लेख है bhartiy शिक्षा की दुनिया में बहुत प्रसंस भी है अज हम विश्व को डाक्टर,इंजीनियर दे रहे है मुझे लगता है भारत सड़क,बिजली,डाक्टर,injeeniya aur भी प्रकार का विकाश हो सकता लेकिन क्या यही भारत होगा अज मदरसों की शिक्षा से आतंकबाद फ़ैल रहा है इस पर बिचार की जरुरत है क्या सोनिया से भारत का निर्माण होगा यदि भारतीय संस्कृति समाप्त हो गयी तो भारत बचेगा क्या ? ----शक्षा में परिवर्तन की आवस्यकता है. लेख के लिए आभार.

प्रवीण पाण्डेय said...

आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है, बहुत कुछ सड़ा हुआ है।

महेन्‍द्र वर्मा said...

अदिति के विचारों से मैं सहमत हूं।
हमारी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में रचनात्मकता बिल्कुल नहीं है। विद्यालया बच्चों पर जानकारी का बोझ डालने वाले केन्द्र बनकर रह गए हैं। प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक एक जैसे हालात हैं।

सन्2005 में केन्द्रीय मानव संसाधन विभाग ने ‘राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेख‘ प्रकाशित की है, जिसमें बच्चों की रचनात्मकता पर जोर देने की बात कही गई है। लेकिन इसका क्रियान्वयन अभी तक नहीं हो सका है, यह केवल कागजी घोड़ा साबित हुआ है।

‘राष्ट्रीय पाठ्यचर्या2005‘ में गहुत सारी अच्छी बातों का उल्लेख किया गया है जो बच्चों के सर्वांगीण विकास में सहायक हैं। यदि इसका उचित ढंग से क्रियान्वयन किया जाए तो निश्चित रूप से हमारी शिक्षा व्यवस्था में पर्याप्त सुधार आ सकता है।

समय की मांग पर आधारित इस महत्वपूर्ण प्रस्तुति के लिए बधाई, दिव्या जी।

उपेन्द्र नाथ said...

लार्ड मैकाले ने कहा था. ' हम ऐसी शिक्षा व्यवस्था छोड़कर यहाँ जा रहे है जिससे यहाँ के नागरिक रहेंगे तो हिन्दुस्तानी बनकर मगर दिमाग से अंग्रेज बनकर सोंचेगे ." शिक्षा व्यवस्था में आमूल -चूल परिवर्तन की जरूरत है.

शिवम् मिश्रा said...


बेहतरीन पोस्ट लेखन के बधाई !

आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।

आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है-पधारें

G Vishwanath said...

आजकल बहुत वयस्त हूँ और आपके और अन्य मित्रों के ब्लॉग पर टिप्पणी करने के लिए समय नहीं मिल रहा है।
बस थोडा समय चुराकर ब्लॉग को पढता हूँ।
कल कुछ दिनों के लिए हैदरबाद जा रहा हूँ और शाय्द इंटर्नेट से दूर रहूँगा।
सोमवार वापस आ जाऊंगा और इस बीच यदि हम सम्पर्क में नहीं रहते तो कृपया अन्तथा न लें।

शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ

S.M.Masoom said...

दिव्या जी एक अच्छा मुद्दा उठाया है आप ने. इंडिया का education standard बहुत high है. बस यहाँ कॉलेज मैं teachers सही से पढ़ाते नहीं, और इसे कारण से प्राइवेट कोचिंग क्लास की तादात बढती जा रही है और उनकी फीस भी. जब की यही पढ़ी जो कोअचिंग क्लास मैं होती है कॉलेज मैं भी हो सकती है.
दूसरे कॉलेज मैं सहूलियतें बहुत कम हैं. सरकार को इस बारे मैं अवश्य सोंचना चाहिए.

ZEAL said...

विश्वनाथ जी,
हम सभी की अपनी निजी व्यस्तताएं हैं। आप निश्चिन्त होकर होकर हैदराबाद जाएँ और आवाश्यक कार्यों को अंजाम दें। आपकी अनुपस्थिति को सही सन्दर्भों में ही लिया जाएगा। निश्चित रहिये।

G Vishwanath said...

Diyvaji,

Thanks for being understanding.

Here is quick comment before I close my computer for the day and prepare for my journey.

Some random thoughts:

I passed matriculation with only 70 percent marks in 1966 but that was considered an excellent performance! The state rank holder got only about 88 percent. Today both of us would have been condemned as mediocre students and been out of the race for higher education admissions.

Inflation has hit the evaluation system too.
60 percent was considered "first class" in our time.
Today to be called a first class student you need nothing less than 90 percent.

There is a serious shortage of educational institutions offering higher professional education as enough efforts have not been made to keep up with the increasing population.

The system of caste based reservations too has added to the miseries of meritorious students.
So this situation has been precipitated by our own inadequacies in governance.


As regards unrecognised educational institutions, I think the future may lie only in such institutions!
The quality of governance is falling steeply. People may lose respect for "Govt recognition". Why would you like to be recognized by those for whom you have no repect at all.

In fact, the internet is going to bring revoutionary changes in education.
I am sure sitting right here in your home, you will be able to get yourself a degree from world recognised institutes.

----Continued---

G Vishwanath said...

Foreign universities will set up branches in India and Indian students won't have to leave the shores for an expensive education abroad. Politicians will create hurdles initially but soon they will be swept aside.

Our middle class obsession with Engineering/Medicine/Accountancy/Management must end.
There are so many interesting alternatives and students must be encouraged to find careers outside these four fields.

Music/Sports/Advertizing/Event management/Fashion/Communication and media/Law/Service Industries/ Social servic sector etc have plenty of opportunities for those with interest and aptitude. But parental and peer pressure is forcing our youngsters to follow vocations in the basic four disciplines named in the previous paragraph. That is unfortunate.

In fact in the next 20 years I envisage plenty of jobs and opportunities in fields which are as yet unknown today.
After 26 years of working for a govt owned consultancy company, I entered the field of Knowledge process outsourcing.
That branch was not even known to exist when I graduated.

Similarly, I envisage new opportunities in new areas in the future.

Besides I also forsee new developemnts in Primary education and vocation based education once the internet penetrates all our villages and this is just a matter of time.

I am optimistic about the future.

Regards
GV

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

बहुत सारे सवाल है ...
बहुत सारी बातें हैं ...
हमारे यहाँ शिक्षा का स्तर हर जगह सामान नहीं है ...
हर राज्य में अलग अलग बोर्ड है ... शिक्षा का स्तर भी अलग अलग है ...
शहर और गांव के शिक्षा स्तर में भी बहुत अंतर है
हमारे यहाँ के लोग विदेश जाकर अच्छा काम करते हैं पर यहाँ नहीं कर पाते हैं ... इससे साबित होता है कि शिक्षा भले ही अच्छी हो पर सुविधाएँ अच्छी नहीं है ...

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

ओ अदिति.....तुझे सैल्यूट यार.....क्या बात कह दी तुने....और आपका आलेख भी सचमुच काबिले-गौर है....जील जी.....!!

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

ek sarthak chintan hai apke lekh me..
is vishay par sarthak bahas ki jaroorat hai.

शोभना चौरे said...

दिव्याजी
आपकी पोस्ट बहुत ही सार्थक प्रश्न लिए हुए है |
बहुत से अच्छे सुझाव भी आये है मुझे भी कुछ से कहना है कितु अभी थोड़ी व्यस्त हूँ |विस्तार से लिखूंगी |आज तो मेरी अक विनती हैआपसे | मेरी पोलियो वाली पोस्ट आपने पढ़ी है ,पोलियो से बचाव के बारे में तो बहुत प्रयास किये जा रहे है कितु मेरे मन में एक प्रश्न बार बार उठता है की कुछ संस्थाए पोलियो के ओपरेशन करवाती है ?मैंने देखे है बहुत सारे परन्तु रिजल्ट नगण्य ही पाया है |आप चिकित्सा जगत से है क्या इस पर कुछ प्रकाश डाल सकती है |
ताकि हम जानकारी प् सके |
कष्ट के लिए क्षमा |

ZEAL said...

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शोभना चौरे जी ,

मैं शीघ ही इस विषय पर एक लेख लिखने की कोशिश करुँगी । आपने एक बहुत ही उपयोगी विषय पर लिखने के लिए प्रेरित किया है, इसके लिए आपका आभार।

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कुमार राधारमण said...

बच्चे स्वयं क्रिएटिव होते हैं। किंतु क़िताबें उसे और विस्तार नहीं दे पा रही हैं। अन्य क्रियाकलापों पर ज़ोर नाममात्र है,हालांकि पहल हो रही है। अक्सर लगता है कि अगले कुछ वर्षों में तस्वीर बदलेगी मगर नतीज़ा फिर वही ढाक के तीन पात!

ZEAL said...

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मुझे लगता है , शिक्षक बहुत कुछ कर सकते हैं। यदि वो चाहें तो अपनी कक्षा में विद्यार्थियों को इस अंदाज़ में पढ़ा सकते हैं जिससे उनकी मानसिक एवं बौद्धिक क्षमता का पूर्ण विकास हो सके।

चूँकि मैंने तो भारत में ही शिक्षा पायी है , इसलिए मुझे भी पहले यही लगता था की यहाँ किस प्रकार की पढाई होती है , बच्चों पर ज़रा भी लोड नहीं है। न होम वर्क है , न ही ढेर सारे टेस्ट। फिर बच्चे सीखेंगे क्या इस मस्ती भरे माहौल में ?

लेकिन धीरे धीरे मैंने ये ओब्ज़र्व किया की यहाँ बच्चों की मानसिक क्षमता के विकास पर विशेष ध्यान दिया जाता है। छोटे छोटे बच्चे स्टोरी राइटिंग , पोएट्री-राइटिंग कर रहे हैं। विज्ञान में यदि seed-germination पढ़ते हैं, तो हर बच्चा उसका व्यवहारिक प्रयोग भी कक्षा में करता है । अपने सामने बीज को अंकुरित होते हुए और बढ़ते हुए देखते हैं। गणित विषय में mental-maths पर अधिक जोर देते हैं। बच्चों का बेस बहुत स्ट्रोंग करते हैं, जिससे विद्यार्थियों को आगे की कक्षाओं में किसी तरह की परेशानी नहीं आती।

कक्षा के कमज़ोर क्षात्रों की एक्स्ट्रा क्लास भी लगाते हैं , जिससे वो क्षात्र भी बाकियों के बराबर आ सकें। इसके अतिरिक्त extra curricular activities की तो भरमार रहती है । जिससे एक बच्चे का सर्वांगीं विकास होने में बहुत मदद मिलती है।

वैसे भारत में काफी कुछ इसी तर्ज पर DPS और CMS जैसे बड़े स्कूलों में कर रहे हैं , लेकिन इससे एक वर्ग विशेष ही लाभान्वित हो रहा है।

माध्यम वर्गीय तथा आम विद्यार्थी तो सरकारी स्कूलों पर ही निर्भर कर रहा है। इसलिए सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर उंचा करना बेहद जरूरी है।

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ZEAL said...

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पाबला जी,

दैनिक जागरण में ये लेख छपा है , इस बात की जानकारी देने लिए तथा लिंक देने के लिए आपका बहुत-बहुत आभार।

http://blogsinmedia.com/wp-content/uploads/2010/12/blog-media-zeal.jpg

regards,
Divya

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कडुवासच said...

... saarthak abhivyakti ... behatreen post !!!

G Vishwanath said...

Congratulations!
I am thrilled to see your blog in the print media.

You have joined Praveen Pandey!
Praveenjee celebrated it with a Party.
When is yours?

Regards
GV

शेखचिल्ली का बाप said...

भारत के तो गधे तक creative होते हैं अपने साथ रहने वाले को कुम्हार बना देते हैं ।
आज के शिक्षक भी गधे से तो कुछ सीखते नही लेकिन बच्चों की पीठ पर इतने भारी बस्ते लाद दिए कि मेरा शेख़चिल्ली तो जब जाता था तो उसके बस्ते को गधा लाद कर ले जाता है ।
जिनके पास मेरे जैसा बेहतरीन इंतेज़ाम नहीं है उनके बच्चों को गधे की तरह बैग खुद ढोना पड़ता है । इसीलिए बच्चे जब जवान हो जाते हैं तो पूरे गधे बन जाते हैं और अपनी गधैय्या की फ़रमाइश पर अपने मां बाप पर जोर से चिल्लाते भी हैं और दुलत्तियां भी झाड़ते रहते हैं।
सुना है कि कुछ तो ब्लागर भी बन गए हैं ।

राज भाटिय़ा said...

भारत मे कभी शिक्षा अच्छी मिलती थी, लेकिन आज सब व्यापार बन गया हे, ओर होनहार विद्धार्थी जब कोई शोध करना भी चाहे तो हमारे नेता अपनी टांग अडाते हे, घाटोले ओर भाष्टा चार का बोलवाला हे,ओर भी बहुत से करण हे जो अन्य साथिज़ो ने गिनवाये हे, आज नकली डिग्रियो ने भी पढाई का बेडा गर्क कर रखा हे,धन्यवाद इस अति सुंदर लेख के लिये.

निर्मला कपिला said...

अदिती ने बिलकुल सही कहा है। मैने भी अपनी नात्रिन को देखा जो अभी नर्सरी मे ही पढती थी यहाँ के बच्चों के मुकावले बहुत पीछे थी। लेकिन बकी पर्सनेलिटी मे बहुत आगे। कुछ सुधार की तो जरूर आवश्यकता है कि बच्चों मे क्रियेटिविटी होना भी जरूरी है । विचारणीय पोस्ट। शुभकामनायें।

ZEAL said...

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Vishwanath ji ,

Many thanks.

Soon ! Very soon !

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Pratik Maheshwari said...

जो देश विश्व की सबसे महत्वपूर्ण चीज़ों को जन्मदाता रहा है, उस देश की शिक्षा प्रणाली ख़राब कैसे हो सकती है?
पर हमें धन्यवाद देना चाहिए हमारे उन नेताओं को जिन्होंने आज़ादी के वक़्त अंग्रेजी पद्दति की पढाई को ही सर्वोच्च मान के उसे आज तक हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है..
भारतीय सिक्षा प्रणाली में तो हर बच्चे को हर छोटे-मोटे काम की जानकारी के साथ-साथ एक विशेष विषय में छोटी की जानकारी होती थी..
इससे एक ओजपूर्ण व्यक्तित्व उभर के सामने आता था..
पर अंग्रेजों ने इस देश का जितना हनन किया है और जितना नेहरु-गाँधी परिवार ने उसे अपनाया है, उसका दुःख हम आम आदमी आज भी भुगत रहे हैं..
शिक्षा प्रणाली फिर से बदलनी होगी.. वेदों का पठन और अध्ययन हर विद्यालय में शुरू करना पड़ेगा...
सोना बाहर नहीं हमारे देश में है, जो फिलहाल राजनीति के गंदे कीचड़ में सना हुआ है.. उसे साफ़ करने की ज़रूरत है...

ethereal_infinia said...

Dearest ZEAL:

A Zillion Congratulations to you on the publication of your post in a local daily.

Very Proud of you and very pleased about your recognition.


Semper Fidelis
Arth Desai

AS said...

Divya ji,
Am glad to see that what you are writing is being read far and wide.
A few points to note. I am also a product of this system. I have not had a opportunity to look at the other systems in detail.
I would not go overboard in criticizing the current system. It has some pitfalls, but we are stuck up with it. Overnight changes are impossible. It is a huge giant. The tentacles are wide spread. Change can be done, but will be gradual.
Sadly i have not seen a practical approach in all the comments. Its good to recognize a problem, but what about the next step? Am glad that you are acting as a catalyst for this awareness.I will focus on the implementation. Any takers? I cant do it alone. Need help.

पी.एस .भाकुनी said...

अदिति ने जो कहा " वहां अध्यापक जो पढ़ाते हैं, स्टुडेंट्स को वही रट लेना है और पास हो जाना है"। भारतीय शिक्षा पद्धति के बारे में अदिति के नजरिये को झुठलाया नहीं जा सकता है ,
आवश्यकता है हमारी शिखा पद्धति को किताबों से बाहर निकालने की , यहाँ तो सरकार को आंकडे चाहिए होते हैं ,
जैसे -तैसे हम सौ फीसदी साक्षरता का लक्ष्य हासिल करना है ,चाहे वह सर्व शिक्षा अभियान जैसे कार्यक्रम के माध्यम से ही क्यों न हासिल किया जाय, यकीन मानिये विश्व बैंक के सहयोग से चलाये जा रहे सर्व शिक्षा अभियान से इस देश में अंगूठा छाप कोई नहीं रहेगा और उसके बाद सरकार का एक लम्बा चौड़ा इश्तिहार आएगा जिसमें लिखा होगा हमने सौ फीसदी साक्षरता का लक्ष्य हासिल कर लिया है , बावजूद इसके सर्जनात्मक शिक्षा हेतु तब भी हमारे देश के नोनिहाल पाश्चात्य देशो को पलायन करते रहेंगे ,
बहरहाल ! एक सार्थक पोस्ट हेतु आभार .

Akshitaa (Pakhi) said...

यहाँ तो अच्छी-खासी बहस चल रही है...बढ़िया है.
'पाखी की दुनिया' में भी आपका स्वागत है.

वीरेंद्र सिंह said...

बिल्कुल हमारे देश की शिक्षा पद्धति में बदलाव होना चाहिए।

कमियाँ हम सब जानते हैं। इसीलिए इन कमियों को दूर करने के उपाय सरकार को करने चाहिए।

वैसे कई बार आप अपने लेखों द्धारा अच्छी-ख़ासी दिमाग़ी कसरत करा देती हैं। और ये बात मुझे बहुत अच्छी लगती है।

Sushil Bakliwal said...

राजनीतिक भ्रष्टाचार और दखलंदाजी ने भारत देश को जैसे अन्य क्षेत्रों में आगे बढने से रोका हुआ है वैसे ही शिक्षा के मसले पर भी शेष दुनिया से पिछडा रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, और यह व्यवस्था आसानी से सुधरते दिखती नहीं ।
मेरी नई पोस्ट 'भ्रष्टाचार पर सशक्त प्रहार' पर आपके सार्थक विचारों की प्रतिक्षा है...
www.najariya.blogspot.com नजरिया

प्रतुल वशिष्ठ said...

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उम्दा रचना - बधाई !

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ZEAL said...

प्रतुल जी,
आपका कमेन्ट पढ़कर लगा जैसे मैंने कोई कविता लिखी हो । लेख को पुनः पढ़ा लेकिन कविता की पंक्तियाँ दृष्टिगोचर नहीं हुईं। किन्तु पाठक की मजबूरी समझ में आ गयी ।
आभार आपका।

ज्ञानचंद मर्मज्ञ said...

डा. दिव्या जी,
सबसे पहले आपको इस अति सार्थक लेख के लिए धन्यवाद देना चाहता हूँ !
मैं इस बात से सहमत हूँ कि अगर हमें विश्व शक्ति बन कर उभरना है तो सबसे पहले अपनी शिक्षा व्यवस्था को बदलनी पड़ेगी ! मेरा बेटा जो sandiago में M .S . कर रहा है ,जब वहां की शिक्षा प्रणाली के बारे में बताता है तो आश्चर्य होता है ! शिक्षा व्यवहारिक होनी चाहिए !
अगर पूरे विश्व के ३४% अनपढ़ हमारे देश में हैं तो यह सरकार की उदासीनता का परिणाम है !
लोग अगर पढ़ -लिख कर समझदार हो गए तो जातिवाद,क्षेत्रवाद और धर्म के नाम पर इन्हें वोट कौन देगा !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ

Sunil Kumar said...

कॉलेज मैं सहूलियतें बहुत कम हैं. सरकार को इस बारे मैं अवश्य सोंचना चाहिए

नीलांश said...

bahut hi accha prashan aapne samne rakha divya ji...
sikhsha vyavastha ka parivartan aavashyak hai..
aur sabse zyada chatra chaatraaon ke maansikta me bhi badlaav ki aavayasakta hai......

practical aur vocational oriented rahegi sikhsha to acchi rahegi...
aur chaatra sirf number laane ke liye naa padhe balki ...jinhe jo vishay me ruchi ho us vishay ko pure man se vyabhaar me laakar padhen......

M VERMA said...

यकीनन सुधार की दरकार है. रोजगार परक शिक्षा और व्यावहारिक शिक्षा की दिशा में कार्य होना चाहिये

हरीश प्रकाश गुप्त said...

कहते हैं कि अंग्रजों या फिर अन्य विदेशी शासको ने भारत के संस्कारों को उतनी क्षति नहीं पहुँचाई जितनी यहां के बने हुए विदेशियों ने। शिक्षा भी उन्हीं संस्कारों में से एक है। अदिति का कहना सही है।

आभार,

संजय कुमार चौरसिया said...

vicharniy mudda

http://sanjaykuamr.blogspot.com/

सुज्ञ said...

शिक्षा मात्र रोजगार परक ही नहिं बल्कि रोजगार उत्पादन करनें में समर्थ होनी चाहिए। ऐसा ज्ञान हो कि व्यक्ति स्वयं के लिये स्वरोजगार निर्माण कर सके। तभी उसका औचित्य है।

प्रतुल वशिष्ठ said...

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क्यूँ नहीं अपने देश में रहकर ही कुछ नया और बेहतरीन करने के लिए सक्षम हैं?
@ मुझे अपनायी गयी शिक्षा प्रणाली दोषी लगती है.

क्या हम पंगु हैं?
@ नहीं पंगु तो नहीं हैं लेकिन पग्गू जरूर हैं. पग्गू मतलब पग पर पग धरकर चलने वाला नकलची. नया और बेहतरीन इसी कारण नहीं हो पा रहा है.

या फिर यहाँ मिलने वाली सुविधायें उच्च स्तरीय नहीं हैं? या फिर देश के पास पैसा कम है? या फिर हमारा देश विकासशील की श्रेणी में ही रहना चाहता है?
@ जो लोग नया कर रहे हैं उन्हें सही आंकने वाली आँखें नहीं हैं. उन्हें कुछ समय बाद जीविका के लिये संघर्ष करने में सब कुछ विस्मृत करना पड़ जाता है.
'पैसा' ... कम देश और देश के कर्णधारों के पास भरपूर है लेकिन कमी तो शोधार्थियों के पास है.
विकाशील होना सबसे अच्छी स्थिति होता है. विकसित होने में ठहराव आता है. और ठहराव में गंदगी पनपने के अंदेशे अधिक होते हैं.

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प्रतुल वशिष्ठ said...

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क्या २०२० में सुपरपावर कहलाने के आसार हैं?
@ यदि कर्णधारों का भ्रष्ट आचरण इसी क्षण समाप्त हो जाये, यदि सफाई कर्मचारी से लेकर प्रधान कर्मचारी [प्रधानमंत्री] देश हित को सर्वोपरि मानकर आज़ से ही काम शुरू कर दें. तो दूसरे क्षण से ही सुपर पावर बन जायेंगे. उसके लिये 2020 के मिथ्या भ्रम में नहीं जीना चाहिए. मुझे नहीं लगता ऐसे कोई आसार हैं?

क्या शोध नहीं हो रही या फिर शोधपत्रों में भी घोटाले हो रहे हैं और ईमान के साथ शोध कार्य भी बेच दिए जा रहे हैं?
@ आपके इस संदेह में सत्य छिपा हो सकता है. ....... आपकी ही तरह मुझे भी संदेह है.

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प्रतुल वशिष्ठ said...

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क्या वजह है , भारतीय वैज्ञानिक विदेशों में जाकर की कुछ बड़ा कर पाने में सक्षम होते हैं? चाहे वो पर्यावरण की दिशा में, नोबेल शान्ति पुरस्कार विजेता ' राजेन्द्र पचौरी जी' हों अथवा, स्पेस में जाने वाली 'सुनीता विलियम्स ' हों। हम तो प्रसन्न हो लेते हैं कि भारतीय हैं , लेकिन क्या उनकी सफलताओं में भारत का योगदान है ?
@ मंच-मंच की बात है. छोटे बेनर वाली और बड़े बेनर वाली, कम बजट और असीमित बजट की फिल्मों को अलग-अलग तवज्जो मिलती रही है. मैं अपनी इन समस्त बातों को अपने ब्लॉग पर लिखूँ तो कम मूल्यांकन होगा, कम हो-हल्ला मचेगा. और इस जिजीविषा वाले ब्लॉग पर कहूँ तो उसे पाठक मिलेंगे ही - मुझे ऐसा लगता है और इस कारण अपना घर [ब्लॉग] छोड़ कर पूरी ऊर्जा आपके ब्लॉग पर लगाता हूँ.
चाहे मनोभाव के पर्यावरण की दिशा हो अथवा शिक्षा के भाँति-भाँति के प्रेरक व्यक्तित्व. ........ यहाँ आकर मेरी प्रसन्नता भी तो मायने रखती है ना ! अमर्त्य सेन, सुनीता और पचौरी जैसे उन्हीं भारतीयों की तरह जो विदेश में रहकर केवल अपने कैरियर की सीडियाँ चढ़ते हैं और हम समझते हैं कि वे भारत के नाम को रोशन करने का इंतजाम कर रहे हैं.
...... मैंने एक समीप के उदाहरण के माध्यम से अपनी बात कही, कृपया इसके गंभीर अर्थ न लगा लीजिएगा. यह ब्लॉग विचारों की उत्प्रेरणा के लिये मंच देता है इसी कारण मुझे जैसों को पहचान मिल जाती है.
क्या मेरी इस पहचान बनाने में 'काव्य थेरपी' का कोई योगदान है?

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Unknown said...

dr. divya ji apke lekhon deshhit ki sari baten hamesha parne ke liye milti he is bar bhi apne jo vishya chuna bahut hi prasangik or desh hit ka he. lekin is subject ko sudharne ke liye to hum logon ko hi sochna hoga na kiyon ki hamre smaj ke dekedaar to apne pet ke potle barte jayegen yah smsya tab taak thik nahi hone wali jab tak ham log in niyam banane walon ki nak me nakel nahi laga dete. or yah bhi sambhav he yadi hamari jansankhya par anksh lagta he wese mera ye manna he ki in sbhi ka yhi ek hal he........

प्रतुल वशिष्ठ said...

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मतलब यह कि
जहाँ अवसर मिलते हैं. जहाँ रूकावटे नहीं होती ......... वहाँ पहुँच वाले और साधन वाले स्वतः पहुँच ही जाते हैं. ..... फिर वे ही अपनी व्यक्तिगत उपलब्धियों को देश के गौरव से जोड़कर भारत-रत्न जैसे अन्य सम्मानों पर हाथ साफ़ करने की मुहीम चलाते हैं. मैं पूछना चाहता हूँ कि अमर्त्य सेन की उपलब्धि से कौन-सी राष्ट्रीय समस्या का हल हुआ है? शांति पुरस्कारों को पाने वाले क्या कभी अपने मन की असीम इच्छाओं को, महत्वाकांक्षाओं को शांत कर पाए हैं? उनके प्रयासों से कौन-कौन सी लड़ाइयाँ होने से रुकी हैं. युद्ध थम गये हैं? ....... कभी-कभी लगता है कि यह सब खोखला है...... इन बढ़ते आकड़ों का उपयोग केवल KBC और कुछ प्रतियोगिताओं के प्रश्नपत्रों में जगह बना पाता है ......... क्या मतलब हैं ऎसी प्रतिभाओं का जिनकी उपलब्धियों का ज़मीनी असर देखने में नहीं आता.

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प्रतुल वशिष्ठ said...

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विश्व के कुल अनपढ़ों में से ३४% केवल भारत में हैं। इस क्षेत्र में भारत अव्वल है। क्या इन्हींआंकड़ों के साथ हम सुपर पावर बनने के ख्वाब सजा रहे हैं ? आज सर्व शिक्षा अभियान तोचला रही है सरकार, लेकिन सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर काफी निम्न है। विद्यार्थी को जोमिलना चाहिए, वो नहीं मिल रहा। आखिर क्या वजह है इस गिरते हुए स्तर की, और क्याहल है इसका?

@ अनपढ़ों के अधिक प्रतिशत को देखकर मैं विचलित नहीं होता. क्योंकि अनपढ़ होने से व्यक्ति केवल अपनी हानि को सहता है, भोगता है, जबकि पढ़ा-लिखा व्यक्ति दूसरे की हानि को ही अपने शिक्षित होने की सार्थकता समझता है. अनपढ़ के पास योजनायें नहीं हैं किसी को छलने की, कपट को पहचानने की उतनी अक्ल नहीं अनुमान भी नहीं. अनपढ़ अपने व्यापार को फैला नहीं सकता केवल उतना ही बढाता है जिससे उसका भरण-पोषण हो सके. साहित्य में कई अनपढ़ संतो के कहे वचनों पर शोध हुआ करता है. ऐसे कई क्षेत्र हैं जहाँ अनपढ़ होना मायने नहीं रखता. कई लोग भावों को पढ़ने में माहिर होते हैं. उसे भी साक्षर माना जाना चाहिए. केवल अक्षर को पहचाने वाले ही साक्षर नहीं अक्षरों को सुनकर सही अर्थ ग्रहण करने वाले भी समझदार साक्षर हैं.

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प्रतुल वशिष्ठ said...

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इस तरह से प्रतिभा का हनन भी हो रहा है और हमारे देश की प्रतिभाओं का विदेश में पलायनभी हो रहा है ? क्या इसको रोका जा सकता है ? यदि हाँ तो कैसे ?
@ आज से ही आप कल्पना चावला, सुनीता विलियम्स, अमर्त्य सेन आदि-आदि के नाम और विदेशी पुरस्कारों के महिमा-गान को छोड़ दें तो कुछ असर ज़रूर होगा. मेरा भतीजा जब तक मेरे संपर्क में रहा केवल भारत की ही बात करता था लेकिन जब से जयपुर इंजीनिरिंग कोलिज में कुछ विदेशी और कुछ विदेशीयत का यशो-गान करने वालों से उसका वास्ता पड़ा .. अब केवल अमेरिका जाने की धुन है. भारत में उसे स्ट्रगल दिखता है. बाहर उसे सुनहरे ख्वाब सच होते दिखायी देते हैं.

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प्रतुल वशिष्ठ said...

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अब भी सोचता हूँ कि कुछ और कहूँ लेकिन टिप्पणियों की मर्यादा होनी चाहिए अन्यथा टिप्पणियाँ पढी नहीं जायेंगी.
इस विषय पर जनवरी मास में शायद कुछ नये ढंग से कह पाऊँ. शायद कुछ पहले ... अभी कहना संभव नहीं......

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ZEAL said...

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प्रतुल जी ,

आपने लोभ संवरण करके अपने विचार रखे उसके लिए आभार। लेकिन आपने कोई सुझाव नहीं दिया छोटे मंच को वृहत रूप प्रदान करने में। क्या ये आवश्यक नहीं की छोटे मंच की कमियों को जाना को जाना जाए और उसे दूर किया जाए ? क्या बड़े मंच को दोष देना ही सर्वोत्तम उपाय है ? बात यहाँ विदेशों में चर्चित भारतीयों की नहीं है। मुद्दा तो ये है की हमारा देश इतना प्रतिभा संपन्न होते हुए भी क्यूँ नहीं प्रतिभाओं को निखार पा रहा है ? क्यूँ प्रतिभाएं पलायन कर रही हैं ?

आपने अपने भतीजे की बात की है । उससे पूछियेगा की क्यूँ उसे लगता है की उसके सपने विदेश में ही सार्थक होंगे। कोशिश करिए ये जानने की क्या समस्याएं और व्यवधान आ रहे हैं ? और सरकार कितनी प्रयासरत है उन्हें दूर करने के लिए।

तेजी से आगे बढ़ते विद्यार्थी को सुविधायें कहीं तो उपलब्ध नहीं होतीं, कहीं जानबूझ कर उन्हें दी नहीं जाती । क्योंकि भारतीय मानसिकता ये भी है की..." इसकी कमीज मेरी कमीज से उजली कैसे " । कहीं ज्यादा सुविधायें मुहैय्या कराके वो पीछे न छूट जाएँ। देश के आगे बढ़ने से सरोकार किसको है ?

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ZEAL said...

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आपने जिक्र किया अपने भतीजे का जो विदेश जाकर अपने सपने पूरे करना चाहता है। मैं आपको बताती हूँ अपनी बड़ी बहेन के बारे में जो विश्व विद्यालय में भौतिकी [physics] में प्रोफ़ेसर हैं। जिनके अधीन अब तक २० छात्र -छात्राएं शोध कर चुके हैं। और कुछ शोध-रत हैं।

दीदी ने स्वयं " Free electron laser " में शोध किया है , जिसके लिए theoretical सुविधा पूरे भारत में सिर्फ इंदौर एवं लखनऊ में है । प्रक्टिकल सुविधाओं के लिए लिए करोड़ों के यंत्र चाहिए जो भारत के पास नहीं है । इसलिए भारत के मेधावी विद्यार्थियों द्वारा किये गए शोध को अमेरिका , जर्मनी , जापान जैसे विकसित देश ले लेते हैं तथा उसके theoretical पार्ट पर प्रक्टिकल शोध करके शोहरत अपने हिस्से में कर लेते हैं। लेकिन दोष इसमें बड़े मंच का तो नहीं क्यूंकि उसने अपने विद्यार्थियों को बेहतर तकनिकी सुविधा दी , जिसका फल उन्हें मिला।

लेकिन सबसे ज्यादा नुक्सान में वो लोग रहते हैं , जो अपने सपनों को अपने देश में रहकर पूरा करना चाहते हैं। यदि मेरी बहिन भी ये निर्णय लेती की विदेश चला जाए , तो उनके सपने तो निसंदेह पूरे हो जाते और नाम और शोहरत भी मिलती । लेकिन हजारों विद्यार्थी वंचित रह जाते , एक अच्छे शिक्षक से ज्ञान और शिक्षा पाने से।

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ZEAL said...

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पिछले वर्ष बड़ी बहन ने , Banglore science institute में apply किया project sanction होने के लिए " Nanotechnology" पर। project ५० लाख का था । अधिकारियों को अपने भारतीय शोध कर्ताओं पर यकीन नहीं है। उन्हें लगता है , इतना पैसा डूब जाएगा , इसलिए project sanction नहीं हुआ। उन्होंने आदेश किया कम बजट का आसान शोध विषय चुनिए। वैसा ही किया गया, और १० लाख का बजट पास हो गया। लेकिन एक उपयोगी एवं गहेन विषय पर शोध जरूर डूब गया। और शोधकर्ता के सपनों ने भी अपने सपनों का आयाम छोटा कर लिया क्यूंकि भारतवर्ष में रहकर बड़े सपने देखना और उसको साकार करना भी एक गुनाह की तरह है।

Banglore में बैठे चयनकर्ताओं ने बहन की शोध देखी, डिग्री देखी, लगन देखी , और अमेरिकेन तथा जर्मन जर्नल्स में प्रकाशिक शोध पत्रों का उल्लेख देखा तो दांतों तले ऊँगली दबा ली । लेकिन आगे बढ़ने के लिए जो शोध होना चाहिए जिसमें देश की तरक्की हो तथा हमारा देश भी विज्ञान में उन्नत शीर्षों को छुए , उसके लिए उन्होंने कुछ नहीं किया।

ऊँची कुर्सी पर बैठकर मेधावी विद्यार्थोयों का गला घोंटते हैं ये। हमारा देश गरीब है। इसके पास पैसे सिर्फ घोटालों के लिए हैं। सकारात्मक कार्यों के लिए नहीं।

इतने मेधावी विद्यार्थी विरले ही होते हैं , जिनमें शोध के लिए लगन होती है। यदि ऐसे लोगों को सरकार प्रोत्साहित नहीं करेगी तो विदेश में पलायन ही एकमात्र उपाय दीखता है । और फिर जन्म लेती हैं कल्पना चावला, सुनीता विलियम्स जैसे लोग।

या फिर सपनों का गला घोंटते हुए मेरी बहन जैसे शोधार्थी जो मात्र प्रेफेसर बनकर संतोष कर लेते हैं और अपने विद्यार्थियों को एक अच्छी शिक्षा देना ही जीवन का ध्येय समझ चल पड़ते हैं।

क्यूँ भ्रष्ट सिस्टम से लड़ने का सामर्थ्य सबका नहीं होता। पढाई-लिखाई में रूचि रखने वाले लोग अक्सर शान्तिपसंद भी होते हैं। वे कम में ही संतोष करके चुप हो जाते हैं, और निष्ठा के साथ अपने कर्तव्य निभाते रहते हैं।

लेकिन यदि उच्च पदासीन अधिकारी एवं सरकार ऐसे विरले प्रतिभाशाली विद्यार्थियों के बारे में सोचे तो देश बहुत ऊँचाइयों तक जाएगा तथा सुपर पावर बनने से कोई नहीं रोक सकेगा।

लेकिन अफ़सोस ऐसा नहीं हो सकेगा शायद हमारे देश में जब तक अधिकारीगण अपनी भारतीय- केकरें [ Indian crab ], वाली मानसिकता से बाज नहीं आयेंगे , जो किसी को आगे बढ़ते हुए नहीं देखना चाहता।


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ZEAL said...

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आज हमारे देश में " आयुर्वेद जैसी चिकित्सा पद्धाती का खजाना भरा हुआ है। लेकिन सरकार क्या कर रही है इस दिशा में ? आयुर्वेदिक अस्पतालों एवं इन पर शोध को विस्तार देने के बजाये ये पद्धति भी अब स्वामियों और बाबाओं के हाथों में है।

क्या सरकार के पास वक्त है अपने विद्यार्थियों के बारे में सोचने का ? क्या सरकार के पास वक़्त है इतनी गहराई से सोचने का ? उसे तो बस अपनी सात्ता की पड़ी है। सस्ती लोकप्रियता में पड़े दोगले नेता खुद को प्रकाश में लाने के लिए बनारस में हुआ बम-काण्ड को भी भगवा आतंक का नाम दे रहे हैं।

ऐसे घटिया सोच रखने वाले कभी शिक्षा के विषय में सोच भी सकेंगे ?

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Ganesh said...

Dear Zeal,
Once again, after a long time.
You are churning out articles after articles that are interesting to read and evoking a spontaneous reply. So, these kind of interactive discussions, tend to keep boredom away.

I know a young man who studied Engg, just for the sake of a professional degree, but his interest lay solely in Music. He studied / educated himself practically from the internet, with sheer will and now plays the Guitar as a profession & career. I am really proud of this young man.

प्रतुल वशिष्ठ said...

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दिव्या जी, आपकी प्रति-टिप्पणियों ने मेरे कई अनसुलझे सवालों को सुलझा दिया.
आपने जो प्रश्न अपनी पोस्ट में रखे उनके आपने ही उत्तर दे दिए. पढ़कर अच्छा लगा.
जहाँ केवल प्रश्न रखे गये हों, हल न हों, कारणों पर प्रकाश न डाला गया हो - वहाँ कुछ अधूरापन-सा लगता है.
आपकी पोस्ट अब जाकर पूरी हुई. फिर भी कुछ सवाल अभी लाजवाब रह गये. उनका जवाब समय देगा - ऎसी आशा है.

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amar jeet said...

अच्छी पोस्ट
इस बार मेरे ब्लॉग में SMS की दुनिया ............

ZEAL said...

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प्रतुल जी ,

चलिए हम भी आपके साथ इंतज़ार करते हैं उन, अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर का।

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अमरजीत जी ,

बहुत दिनों बाद आये आप , कहाँ थे ? जब से आपने ब्लॉग लिखना शुरू किया है , आपने अपने अनमोल विचारों से वंचित ही कर दिया है। यदि सब लोग एक एक दूसरे की पोस्ट पर - " Nice " और " बढ़िया लेख " लिख कर खिसक लेंगे तो कौन पढेगा उनकी पोस्ट ?

खैर चिंता न कीजिये, हम आयेंगे आपकी पोस्ट पर , आपने कमेन्ट करके निमंत्रण जो दिया है।

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ZEAL said...

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Hi Ganesh ,

It's nice to see you back. Do not deprive us from your valuable comments. Glad to hear about that young man.

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सुज्ञ said...

प्रतुल जी,

प्रतिभा पलायन पर आपके विचार सुलझे हुए और स्पष्ठ है। एक गर्भित दृष्टिकोण प्रस्तूत करता है………मैं सहमत हूँ आपके विचारो से………इसे आप विस्तार से एक पोस्ट के माध्यम से प्रकाशित करें।

Vivek Ranjan Shrivastava said...

very nice post...

RioZee said...

ver well written. nice.

Sharon said...

nice post!

bhartiya shikcha said...

maikole,maikole,maikole, akhir kyon maikole ka naam baar baar aa raha hai,kya maikole ki shikcha paddhati se pehele hamre pass shikcha padhati nahi thi kya? thi na par ab kyon nahi, isliye nahi kyon ki hamare pratham pradhanmantri ji angrejo ko shabhya aur apna adarsh maante the unhe lagta tha ki purin duniya me inse badkar koi bhi nahi hai,
zab hame agngrejo ne azadi di to hamne kyon apni prachin shikcha pradali lagu kiya? zabki hamari pradali puri duniya me sarvocha thi, 1830 me 97% sikhcha ka ister tha hamara, maikole ne ish ister ko girane ke liye hi ye ran niti banai,kyon hamare rastra me abhi tak kam se kam 33% mulyankan safal hone ke liye nirdharit hai ? baki kisi bhi aur rastra yaa khud unke mulk me nahi, maaf kijiyega kahene ko to bhot hai par kya hoga lekin kucha to zaroor hoga aisi hai.

Ramakant Singh said...

aapane shiksha par wyapak wichar kiya hai.aapako badhai nanhi dadi aditi se parichit karwane ka.

Ramakant Singh said...

aapane shiksha par wyapak wichar kiya hai.aapako badhai nanhi dadi aditi se parichit karwane ka.

Anonymous said...

super power super power what is super power duniya hamse darey ye chahte ho kya darr se duniya nahi chalti aur darana kyu chahte ho sab log barabarr hai lekin kuch ginti ke logo ne yeh barabarri bahut bada di hai