Tuesday, March 8, 2011

महिला दिवस या फिर पाखण्ड ?

मन चंगा तो कठौती में गंगा यदि मन में प्रेम है , विश्वास है , संवेदनाएं हैं तो इश्वर भी हर किसी में दिखता है। अन्यथा रोज हरि नाम जपने से भी कुछ नहीं होने वाला

इसी तरह माँ के लिए हर दिन होता है , पिता के लिए हर दिन होता है , प्रेम के लिए भी हर दिन और हर क्षण होता है , फिर एक दिन के लिए Mother's day , father's day , valentine's day मनाने का क्या औचित्य ? माता-पिता से प्रेम भी मात्र एक दिन के लिए , बाकि दिन व्यस्त ? और valentine's day ?...३६३ दिनों के गुलाब का हिसाब कौन रखेगा ? बस १४ फरवरी का गुलाब अमर हो गया? बाकि जो रात-दिन धड़का उसका क्या ? अरे valentine तो मुमताज़ थीं शाहजहाँ की , जिसकी याद में बना ताजमहल सूरज की रौशनी में दमकता है और रात की चांदनी में जगमगाता है हर दिन

अब इन सबसे बढ़कर आया है 'महिला दिवस' महिलाओं को मूर्ख बनाने के लिए इस दिवस की भी रचना कर दी गयी कौन से सुर्ख -पर निकल आते हैं इस दिन ? कौन सी ताजपोशी कर दी जाती है किसी महिला की इस दिन ? अरे विवाह में तो सोने चांदी से तौलकर विदा कर ही देते हैं , की खुश रहेगी सारी जिंदगी इसी में , शिकायत भी नहीं करेगी अब एक महिला दिवस बनाकर कौन सा तमगा मिलने वाला है किसी महिला को समानता का ज़माना है , जब पुरुष दिवस नहीं है तो ये महिला-दिवस का पाखण्ड क्यूँ ?

आज ब्लॉग भ्रमण के दौरान एक पुरुष की टिपण्णी पढ़ी जिसमें महिलाओं का सम्मान करने की बात कही गयी थी। और पुरुषों से स्वयं को बदलने की अपील की गयी थी हँसी गयी पढ़कर की ये जनाब तो मौका पाते ही महिला ब्लॉगर्स का अपमान करते हैं और यहाँ शराफत का मुखौटा लगाये प्रवचन मुद्रा में हैं। अरे भाई इस दोहरे चरित्र की क्या जरूरत है

हम सभी स्त्री और पुरुष होने के पहले , इंसान हैं और हम सभी में मानवीय गुण और अवगुण दोनों हैं झूठा दिखावा करने से कोई लाभ नहीं है मन में इज्ज़त नहीं है तो महिला दिवस के नाम पर जबरदस्ती इज्ज़त करो भाई , ही घडियाली सहानुभूति दिखाओ। जो पुरुष अपनी माँ की इज्ज़त करना जानते हैं , वो अपनी पत्नी को भी पूरा सम्मान देते हैं और जो पुरुष , अपने घर की स्त्री को सम्मान देना जानते हैं वो पराई स्त्री का भी सम्मान करते हैं

इसलिए महिला-दिवस के नाम पर महिलाओं को सम्मान देना मात्र एक पाखण्ड है कृपया अपनी ऊर्जा बर्बाद करें इस प्रकार के अनावश्यक दिवसों में आठ मार्च की जगह वर्ष के ३६४ दिनों में से किसी भी दिन यदि ज़रुरत के वक़्त आप किसी महिला के काम सकें और उसके लिए मन में आदर और स्नेह का भाव रख सकें तो वही सच्चे अर्थों में एक स्त्री को सम्मान देना हुआ , अन्यथा सब दिखावा है।

कन्या-भ्रूण हत्या , दहेज का चलन , बढ़ते बलात्कार की घटनाएं बता रही हैं , महिला-दिवस के पाखण्ड को


आभार

75 comments:

Sarika Saxena said...

I totally agree with you on this.

vandana gupta said...

सही कह रही हैं दिव्या जी…………ये तो सिर्फ़ दिखावे की बातें हैं ।
जिस दिन जरूरत पर या दिल से किसी महिला के काम आ गये या उसका सम्मान दिल से किया तभी महिला दिवस है।

केवल राम said...

सही कहा ..पर पूरी तरह यह सच नहीं है .अभी पुरुष मानसिकता बदल रही है महिलाओं के प्रति ..

sonal said...

kyaa kahun kal apni post par bahut kuchh kah chuki hoon

अन्तर सोहिल said...

माँ के लिए हर दिन होता है , पिता के लिए हर दिन होता है , प्रेम के लिए भी हर दिन और हर क्षण होता है , फिर एक दिन के लिए Mother's day , father's day , valentine's day मनाने का क्या औचित्य ? माता-पिता से प्रेम भी मात्र एक दिन के लिए , बाकि दिन व्यस्त ?
शत-प्रतिशत सहमति

पोस्ट बहुत पसन्द आयी जी
प्रणाम स्वीकार करें

जयकृष्ण राय तुषार said...

डॉ० दिव्या जी दिवस होता ही है धोखा देने के लिए |जैसे हिन्दी दिवस आदि आपका आलेख बहुत शानदार है इसकी बधाई तो ले लीजिए |नमस्ते

Sunil Kumar said...

माँ बाप या किसी के प्रेम के लिए एक दिन नियत करना हास्यप्रद लगता है |
अच्छा आलेख , आभार

Kunwar Kusumesh said...

आपकी बात में दम है,दिव्या जी. लेकिन पर्व है तो बधाई तो लेनी ही पड़ेगी.HAPPY WOMEN'S DAY.
Hope, you know that I respect women.

Rakesh Kumar said...

गाँधी जी की मूर्ति और फोटो लगाकर भ्रष्टाचार को कितना पनपाया गया यह सभी जानते हैं.हमारे देश की राष्ट्रपति महिला ,हमारे प्रधानमंत्री महिला की देन ,हमारे प्रदेश की मुख्यमंत्री महिला.जागरूक
महिला को तो बढ़ना ही है .तो जागरण के लिए क्या बस एक दिन का बहाना ? महिला हो या पुरुष दोनों को ही खुद को समझना है और आगे बढ़ना है.महिला होकर यदि खुद की,परिवार की और देश की ना सोचे तो क्या फायदा है ऐसे महिला दिवस का .केवल जल्पना और वितण्डा के लिए ही तो नहीं होना चाहिए 'महिला दिवस'.इससे तो वैमनश्य ही बढेगा .
अति सशक्त और निष्पक्ष लेख .

Udan Tashtari said...

ओके!!!

डॉ टी एस दराल said...

दिव्या जी , भले ही पाखंड ज्यादा किये जा रहे हैं । लेकिन इसी बहाने आज के दिन महिलाओं की समस्याओं पर भी विचार करने का अवसर तो मिला है ।

समाज में बढ़ते महिलाओं पर अत्याचार को रोकने के लिए मनुष्य को अपना रवैया बदलना पड़ेगा । आज के दिन यह तो समझाया जा ही सकता है ।

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

हम लोग ही हैं दिखावे के शहंशाह..

प्रवीण पाण्डेय said...

भले ही पाखंड हों पर कुछ भी सार्थक हुआ तो दिन सफल हो जायेगा।

वीरेंद्र सिंह said...

बात तो आपकी ठीक है लेकिन चलिए इसी बहाने महिलाओं की स्थिति पर नेतीगण विचार कर लेते हैं। मुझे लगता है कि महिला दिवस के जो सकारात्मक पहलू हैं हम उन पर भी ध्यान दें।

मदन शर्मा said...

दिव्या जी, आठ मार्च की जगह वर्ष के ३६४ दिनों में से किसी भी दिन यदि ज़रुरत के वक़्त आप किसी महिला के काम आ सकें और उसके लिए मन में आदर और स्नेह का भाव रख सकें तो वही सच्चे अर्थों में एक स्त्री को सम्मान देना हुआ , अन्यथा सब दिखावा है।
आपने बिलकुल सही फ़रमाया समाज में बढ़ते महिलाओं पर अत्याचार को रोकने के लिए महिलाओं को पूरी तरह शिक्षित करना ही होगा, उन्हें जिन्दगी के हर प्रतियोगिता में बढ़ चढ़ के भाग लेना ही होगा,वो दिन लद गए जब ये कहा जाता था की ये काम पुरुष का हैं ये काम महिलाओं का हैं . जिस दिन उन्हें आत्मनिर्भरता का ज्ञान होगा उस दिन से शायद ही हमें महिला दिवस मनाने की जरूरत होगी उन्हें उनका अधिकार याद दिलाने की जरूरत होगी . ऐसे उपयोगी लेख के लिए बहुत सारी शुभ कामनाएं आपको !!

अशोक सलूजा said...

लोह नारी! जिसने भी आप को ये नाम दिया आप ने सार्थक किया |उसको बहुत प्यार और आशीर्वाद |सदा खुश और स्वस्थ रहो |
बाकी आप के लेख पर टिप्पणी तो बड़े ज्ञानी ही कर सकते हैं ...

मुहँ पे प्यार का इकरार
और पीठ के पीछे वार॥
अशोक सलूजा !

Darshan Lal Baweja said...

महिला ही है महिला की दुश्मन कईं मामलों में .........
अच्छा लेख ...

Rahul Singh said...

आज महिला चिंतन के बजाय, रोजी कमाती रेजाओं (मेहनतकश महिलाओं) के प्रति सम्‍मान व्‍यक्‍त करना चाह रहा हूं.

Suman said...

दिव्या जी,
आजकी पोस्ट बहुत अच्छी लगी
पढ़कर बधाई !

देवेन्द्र पाण्डेय said...

..यह भी एक नज़रिया है। वह भी एक नज़रिया है।
मेरी समझ से एक दिन ही सही हम संवेदनशील तो होते हैं। इस विषय में संवेदनशील होकर कुछ सोचते तो हैं। संभावना के बीज को न अंकुरित होते देख, उखाड़ कर फेंकना, क्या बुद्धिमानी है!

Dr.J.P.Tiwari said...

डॉ. दिव्या !
बात बिल्कुल सही और प्रस्तुत करने का ढंग भी बेहद प्रभावी, निराली और ओजपूर्ण. साथ ही विषय विचारणीय और चितन किये जाने योग्य तर्क भी. आपके साहसपूर्ण बेबाकी को सलाम. आपकी तेजस्विता - ओजस्विता को भरपूर समर्थन.

दिलबागसिंह विर्क said...

bilkul shi kha aapne
din mnane se kuchh nhin hone vala , niyt saf karni hogi

महेन्‍द्र वर्मा said...

अच्छे काम करने के लिए वर्ष के पूरे 365 दिन होते हैं। किसी एक दिन को निश्चित कर देने से ऐसा लगता है कि चलो इस साल का निपट गया अब अगले साल देखेंगे। उस एक दिन में दिखावे के सिवा और क्या हो सकता है?

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

वेलेन्टाइ डे... एक दिन का प्यार, विमेन्स डे... एक दिन की बहार पर............ मन्ना डे..सदाबहार :)

Amit Sharma said...

@ "आठ मार्च की जगह वर्ष के ३६४ दिनों में से किसी भी दिन यदि ज़रुरत के वक़्त आप किसी महिला के काम आ सकें और उसके लिए मन में आदर और स्नेह का भाव रख सकें तो वही सच्चे अर्थों में एक स्त्री को सम्मान देना हुआ , अन्यथा सब दिखावा है।"

वेदवाक्य सम मननीय, विचारणीय और करणीय है यह ........... सटीक उद्बोधन के लिए आभार !

राज भाटिय़ा said...

बहुत खूब सुन्‍दर प्रस्‍तुति ... सच मे यह पाखड हे, जिस परिवार मे प्यार हे वहां ऎसी बातो को कोई मान्य्ता नही देता,नारी किसी भी रुप मे रहे वो मर्द पर आश्रित रहती हे, ओर मर्द केसे भी रहे, वो भी नारी पर आश्रित रहता हे, यानि बचपन से ले कर मरने तक हम एक दुसरे के बिना आधुरे ही हे, ओर जो यह बात समझ ले वो इन पाखडो को नही मानता हम एक दुसरे को सम्मान थाली मे रख कर या लिख कर दे तो वो बनावटी हे प्यार, सम्मान, आदर दिल मे होना चाहिये, जुबान पर नही
धन्यवाद इस सच्ची पोस्ट के लिये

Unknown said...
This comment has been removed by the author.
Unknown said...

दिव्या जी , सरल भाषा में सरलता से कही गयी बात लेकिन आपने जाने पहचाने तेवरों के साथ बधाई, मैं तो कदापि इन दिवसों के फेवर में ही नहीं. अच्छा होता कोई एक संकल्प लेते, छोटा ही सही, अपने ही घर से जैसे महिलाओं की कही बातों को गंभीरता से सुनेगे, बाहर उन्हें सम्मान देंगे, न अपमानित करेंगे न होते देखेंगे और सह कर्मी महिला को समान महत्व के लिए प्रयाश करेंगे. बस समझलो सही अर्थों में कुछ प्रयास किया आपने न की मात्र महिला दिवस में जान बूझ कर महिलाओ को "महिला दिवस मुबारक हो" का sms किया पाखंडियों की तरह.

मनोज कुमार said...

कुछ खास दिन खास ही होते हैं।
सम्मान तो हम सब दिन देते हैं,इस खास दिन उसे और पुख्ता करते हैं।

mridula pradhan said...

ye 'day'manane ki paddhti hi galat hai.man ko bahlane ka bahana hai aur kuch nahin.

Asha Joglekar said...

ये दिन विशेष मनाना हमारी संस्कृती का हिस्सा कहां है । ये तो नकल है । अरे रोज महिलाओं का आदर करो । बसों में धक्के न दो, गलत फायदा ना उठाओ ।रास्ते चलते लडकी छेडी जा रही हो तो सौ आदमी भी हों तो तमाशबीन बनके खडे रहेंगे या कन्नी काट लेंगे मदद को कोई नही ।चले हैं महिला दिवस मनाने । देवी वेवी छोडो इन्सान तो मानो ।

Deepak Saini said...

364 din apman 1 din samman
364 din nafrat 1 din pyar

ye dhoka hi to hai
aapse sahmat hoon

आचार्य परशुराम राय said...

बात आपकी बिलकुल उचित है। पर मनुष्य उत्सव-प्रिय है। उत्सव मनाने के लिए उसे अवसर चाहिए। महिला दिवस की अर्थवत्ता हो या न हो। यदि उद्देश्य अच्छा है, तो कोई बुराई नहीं है। आभार।

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

"हम सभी स्त्री और पुरुष होने के पहले , इंसान हैं और हम सभी में मानवीय गुण और अवगुण दोनों हैं । झूठा दिखावा करने से कोई लाभ नहीं है । मन में इज्ज़त नहीं है तो महिला दिवस के नाम पर जबरदस्ती इज्ज़त न करो भाई , न ही घडियाली सहानुभूति दिखाओ। जो पुरुष अपनी माँ की इज्ज़त करना जानते हैं , वो अपनी पत्नी को भी पूरा सम्मान देते हैं । और जो पुरुष , अपने घर की स्त्री को सम्मान देना जानते हैं वो पराई स्त्री का भी सम्मान करते हैं ।"
....सार यही है. सबको अर्थ समझाने के लिए एक जरुरी पोस्ट. धन्यवाद!

Atul Shrivastava said...

महिलाएं सदैव पूजनीय हैं।
आपकी बात से सहमत कि दिवस मनाने का ढकोसला बंद होना चाहिए।

ज्योति सिंह said...

हम सभी स्त्री और पुरुष होने के पहले , इंसान हैं और हम सभी में मानवीय गुण और अवगुण दोनों हैं । झूठा दिखावा करने से कोई लाभ नहीं है । मन में इज्ज़त नहीं है तो महिला दिवस के नाम पर जबरदस्ती इज्ज़त न करो भाई , न ही घडियाली सहानुभूति दिखाओ। जो पुरुष अपनी माँ की इज्ज़त करना जानते हैं , वो अपनी पत्नी को भी पूरा सम्मान देते हैं । और जो पुरुष , अपने घर की स्त्री को सम्मान देना जानते हैं वो पराई स्त्री का भी सम्मान करते हैं ।
bilkul satya ,manavata ka hona jaroori hai .

Patali-The-Village said...

आजकी पोस्ट बहुत अच्छी लगी| धन्यवाद|

ashish said...

नारी के प्रति संवेदनशीलता और नारी सम्मान किसी एक दिन का मोहताज नहीं है , ऐसा मै भी मानता हूँ . विचारपरक आलेख .

Bharat Bhushan said...

मेरी दृष्टि में दिन मनाना किसी बात को याद कराना होता है. परंतु जिन सामाजिक समस्याओं के साथ धार्मिक और सांस्कृतिक संस्कार जुड़े हों उन्हें सुझाने में बहुत समय लग सकता है. आपकी पोस्ट में एक विवेकी व्याकुलता है जो अच्छी लगी.

Arvind Mishra said...

ऐसे अवसर गलबहियों के लिए नहीं बल्कि मुद्दों की जोरदार प्रस्तुति और ध्यानाकर्षण के लिए होता है -और इस लिहाजा से इन ख़ास दिनों की अपनी अहमियत और प्रासंगिकता है -हाँ ऐसे दिवस बस एक दिनी कर्मकांड के रूप में ही नहीं रह जाने चाहिए ...
और हाँ ,मुझे तो लगता है ब्लागजगत में पुरुषों से कुछ कम नहीं नारियों ने पुरुषों को गरियाया है और खुले आम इज्जत उतारी है - यह नारीवाद की सफलता का ही तो शंखनाद है :)

BK Chowla, said...

I personally never believe in a day for a relative.I hate this attitude.
Yes, this one is amongst the better posts that I have read in the recent past

Irfanuddin said...

i think each n every day should be teated as WOMENS DAY.... bcoz they are so important in every walk of our life, irrespective of relations.

निर्मला कपिला said...

अजकल तो हर दिन ही पाखंड बन गया है। बस औपचारिकता ही निभाई जाती है। अच्छा आलेख। बधाई।

ZEAL said...

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@ अरविन्द मिश्र -

सही कहा आपने , नारी की विजय का ही शंखनाद है ये । इसलिए तो मैंने लेख में भी लिखा है --"समानता का युग आ चुका है , जब पुरुष-दिवस नहीं होता तो फिर स्त्री को मोम को गुडिया समझकर महिला दिवस मनाने का कोई औचित्य नहीं है" ---आज की स्त्री अपनी रक्षा करना जानती है ।

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ZEAL said...

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न महिला दिवस मनाकर दया की भीख से अपमानित करना चाहिए , न ही आरक्षण द्वारा उसके स्वाभिमान का मर्दन ।

स्त्री के समाज में उत्थान के लिए , किसी दिवस के ढकोसले की दरकार नहीं है । सती-प्रथा , दहेज़-प्रथा , आदि के लिए लड़ने वाले महिला दिवसों के मोहताज नहीं हैं।

मन में जो लोग स्त्री जाती से द्वेष रखते हैं , वो ही ऐसे दिवसों की आड़ में अपने मन की गन्दगी छुपाते हैं।

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पी.एस .भाकुनी said...

८ मार्च को हमने महिला दिवस के रूप में घोषित कर दिया है, समाचार पत्रों में एक दो विवादास्पद लेख छाप दिए जाते है, कुछ समाचार पत्र इस दिन को अपने सम्पादकीय में स्थान देकर महिला संगठनो एवं अन्य समाजिक संगठनो की सहानुभूति बटोरने में कामयाब हो जाते हैं, प्रसारण माध्यमो में उनके उद्घोषक इस दिवस की बधाइयाँ दे दे कर अपनी अपनी रेटिंग बढाने की जुगत में रहते हैं विभिन्न समाजिक एवं राजनेतिक पार्टिया इस दिवस को अपने अपने अंदाज़ में भुनाने का प्रयाश करते देखे जा सकते हैं, और तो और लेखन या साहित्य जगत से जुड़े हुए तमाम बुद्धिजीवी भी इस दिवस को एक बिषय वस्तु के तौर पर देखतेहैं, एक ब्लॉगर के लिए इस से बेहतर और क्या हो सकताहै कि घर बैठे एक मुद्दा मिल जाता है पोस्ट के रूप में ..........
प्रश्नं यह उठता है की क्या उस पीड़ित महिला को इस बात की जानकारी है क़ि उसके सम्मान के लिए, उसके अधिकारों के लिए या फिर उसकी तर्रक्की के लिए आज का दिन "महिला दिवस " के रूप में मनाया जा रहा है. कौन है वह पीड़ित महिला ? किसके अधिकारों का हनन हुआ है ? किसे नहीं मिल पा रहा है न्याय ? इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढे बगेर यदि हम महिला दिवस क़ि बधाईया देते हैं तो यह एक बेमानी होगी,विचारपरक आलेख .
बधाई।

ZEAL said...

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ब्लॉग-जगत , आम-जगत से जुदा नहीं है । समाज का बेहतरीन पारदर्शी आइना है । यहाँ भी सत्ता है, सत्ताधारी हैं ,मठाधीश हैं , दल भी हैं , निर्दलीय भी , प्रवचन करने वाले संत हैं । अन्धानुकरण करने वाली मूक जनता भी । यहीं पर सब दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता है । विद्वान् ब्लॉगर और पाठक सब देख-सुन रहे हैं । अपने-अपने संस्कारों और बुद्धि के अनुसार , हम सभी राय बनाते हैं , राय देते हैं और लिखते हैं। इस निष्पक्ष मंच पर कोशिश की है , महिला दिवस की एक सच्चाई पेश करने की ।

ब्लॉग जगत हो या अन्यत्र कहीं , जो पुरुष स्त्रियों का अपमान करते हैं , वो सीधा-सीधा अपनी जन्मदाता , अपनी माँ का अपमान करते हैं और अपने संस्कारों को परिलक्षित करते हैं। ऐसे लोगों को महिला-दिवस की विवेचना करते देख अजीब लगता है ।


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ZEAL said...

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पुनश्च यही कहूँगी , कन्या भ्रूण हत्या , दहेज़ और बलात्कार की घटनाओं को देखते हुए , भारत देश में तो महिला- दिवस एक सरासर अपमान है ।

मैं मांग करती हूँ पुरुषों के दुःख-दर्द की सुनवाई के लिए एक 'पुरुष-दिवस' की तिथि भी निर्धारित की जाए।

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सहज समाधि आश्रम said...

आधा सहमत । आधा असहमत ।
क्योंकि सभी तरह के लोग हैं संसार में ।
न कि सिर्फ़ बुरे ।

सहज समाधि आश्रम said...

दिव्या जी Recent Visitors और You might also like यानी linkwithin ये दो विजेट आप आने ब्लाग पर लगा लीजिये । इसको लगाने की जानकारी के लिये आप " ब्लागर्स प्राब्लम " पर
Monday, 7 March 2011 को प्रकाशित ये लेख "आपके ब्लाग के लिये दो बेहद महत्वपूर्ण विजेट " देखिये । धन्यवाद ।

ZEAL said...

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* आज न्यायालय में स्त्रियाँ , न्याय की मांग करते हुए , लाचार और हताश होकर निर्वस्त्र हो रहीं हैं ।
* विधायकों द्वारा यौन शोषण किये जाने पर स्त्रियाँ , खून करने पर मजबूर हो रही हैं , क्यूंकि न्यायलय से तो न्याय मिलेगा नहीं।
* छोटी-छोटी बच्चियां बलात्कार का शिकार हो रहीं हैं ।

और यहाँ -'महिला दिवस' मनाकर क्या सिद्ध किया जा रहा है ? हर देश में ठीक है , लेकिन भारत देश में महिला-दिवस निरर्थक है ।

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Vijuy Ronjan said...

Aapne sarvatha uchit kaha hai..hamare desh mein Nari pujita sirf kitab aur shashtra ke panno me hai...Agnipariksha yahan sirf Seetayen deti hain Raam nahin...Yahan Krishna 16 hazar gopikaaon ke saath Raas rachate hain aur Nariyan pati ko prameshwar man ne ko badhya.
Sab hamari dohri mansikta ka nateeza hai...pata nahi hamre chehre se naquab kab hatega...

सम्वेदना के स्वर said...

आपकी एक बात से इत्तेफाक नहीं है वह है संसद में महिला आरक्षण।

मूलत: जात-पात-धर्म आधारित आरक्षण का विरोधी होने के बाद भी मै संसद में महिला आरक्षण का पुरजोर समर्थन करता हूं। इस सत्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि Physiology से लेकर Psychology तक अनेक अर्थों में स्त्री और पुरुष में समानता नहीं हैं और उनका स्त्रीत्व और पुरुषत्व दोनों ही अनूठे हैं। पूरी सृष्टि स्त्री और पुरुष,yin & yan, postive & negative इसी द्वैत पर खड़ी है। बस हमारी समाजिक सरंचना में यह संतुलन बिगड़ गया है।

संसद में बनने वाले कानून पूरे समाजिक ताने-बाने को गहरे प्रभावित करते हैं, ऐसे में स्त्री को 50% आरक्षण मिलना ही चाहिये ताकि हमारे समाजिक ताने-बाने में स्त्री का पक्ष मजबूत हो। भविष्य की योजनायों में चीजों को देखने का एक स्त्रैण पक्ष भी हों।

इसे नौकरी या रोजगार के आरक्षण से तौलना गलत होगा।

S.M.Masoom said...

वैसे तो हर दिन महिला दिवस ही होता है क्यों कि महिला बिना जीवन कि गाडी नहीं चलती लेकिन इन दिवसों का एक फैदा तो होता है, महिलाओं के अधिकार क्या क्या है यह बात मर्द खुद ही बता देता है. एक दिन ऐसा भी आएगा कि इन अधिकारून को जागरूक महिला सच मैं मांग लेगी.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

सार्थक लेख ...मेरा मानना है की साल के ३६५ दिन ही महिला दिवस है ...

दर्शन कौर धनोय said...

Divyaaji,me aapki baat se puri trh sahmat hu ---

प्रतुल वशिष्ठ said...

कन्या-भ्रूण हत्या, दहेज का चलन, बढ़ते बलात्कार की घटनाएं बता रही हैं, महिला-दिवस के पाखण्ड को।

इन सभी समस्याओं के कारण को 'अन्न की बरबादी' रूपक से समझते हैं :
@ जब हम अधिक भूख के वशीभूत होकर अपनी थाली में अधिक परोस लेते हैं.
या, दावतों में अधिक वैराइटी देखकर अपनी इच्छा पर कंट्रोल नहीं रख पाते.
थाली में लेते जरूर हैं पर खा न पाने के कारण छोड़ देते हैं. .............. तब हम अन्न की बरबादी पर विचार नहीं करते.

प्रतुल वशिष्ठ said...

कन्या-भ्रूण ह्त्या :
@ जब हम पुत्र चाह के वशीभूत होकर अपनी स्त्री से अति भोग करते हैं.
या, कोठे/क्लबों में अधिक वैराइटी देखकर अपने वाकजाल पर कंट्रोल नहीं रख पाते.
गर्भ धारण तक ले जाते ज़रूर हैं पर अल्ट्रासाउंड में पुत्र न देखकर छोड़ देते हैं [अबोरशन]................... तब हम कन्या-भ्रूण ह्त्या को प्रेरित होते हैं.

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

दिव्या जी ,
आपके लेख में विहित सभी बातों से सहमत न होने का कोई औचित्य ही नहीं दिखता | "अपनी बानी -कबिरा बानी, जो बोले सो खरी-खरी" के अनुसार आप जिस मुद्दे को लेती हैं , उसका यथार्थ विश्लेषण करती हैं | आज किताबों में छपकर अपने पढ़े जाने के इंतज़ार में जर्जर हो जाने वाले लेखों की नहीं बल्कि समय और समाज से दो-दो हाथ कर लेने में समर्थ लेखों की जरूरत है | आप के लेख समाज को आइना दिखाने में सक्षम हैं | यही साहित्य, समाज का दर्पण कहा जाता है |

आपका लेख , मात्र एक लेख नहीं- एक आन्दोलन है |

अब रही बात नर और नारी की, तो मेरे विचार से ....."एक नहीं दो-दो मात्राएँ , नर से भारी नारी |"
या यूँ कहें .........." नारी बिना अनारी नर"

हार्दिक शुभकामनायें ..

प्रतुल वशिष्ठ said...

दहेज़ का चलन :
@ जब हम पुत्री के विवाह को अपने ऐश्वर्य दर्शाने का व्याज बना देते हैं.
या, समाज में खोयी प्रतिष्ठा को धन-प्रदर्शन से पाटने के ज़रिये चलन में आयी प्रतिस्पर्धा को स्वीकारने पर कंट्रोल नहीं रख पाते.
'कन्या-दान' करते ज़रूर हैं पर अपने निराकार पुत्री-प्रेम को आकार देने में जुट जाते हैं ..................... तब हम दहेज़ देने का उच्चतम प्रदर्शन करते हैं.

प्रतुल वशिष्ठ said...

बढ़ते बलात्कार :
@ जब हम अपनी दैहिक ऊर्जा के वशीभूत कोई सार्थक या उपयोगी कार्य नहीं ढूँढ पाते.
या, अपने मन की चंचलता पर कंट्रोल नहीं रख पाते.
बल-प्रयोग करते ज़रूर हैं पर उसका क्षय करने के लिये, उसे पुष्ट करने के लिये नहीं ... निर्बलों पर और अबलाओं पर. ........................ तब हम बलात्कार करते हैं.
निर्बलों पर बलात्कार ................ हिंसा कहलाता है.
अबलाओं पर बलात्कार ............... व्यभिचारिक हिंसा कहलाता है.

प्रतुल वशिष्ठ said...

मैंने प्रचलित कारणों से हटकर चिंतन किया...... प्रचलित कारण तो सभी को विदित हैं ही.

एक और बात :
मेरी एक भतीजी है "अदिति'' ३० दिसम्बर को जन्मदिवस होता है.
उसके जन्म-दिवस को मनाना सभी को प्रसन्न करता है.
अब 'महिला दिवस' की बात करें तो सभी दिवस प्रतीकात्मक ही हैं. ......
यदि उद्देश्य अच्छे हैं तो मनाने में कोई बुराई नहीं.... बहिन!

प्रतुल वशिष्ठ said...

____________________________
यदि कल 'राखी' कहने लगे की मुझे भी 'हथकड़ी' जितने अधिकार चाहिए.
'राखी' को एक कमज़ोर सूत्र जान लोग उसे दिन-दो दिन बाद उतार फैंकते हैं.
पर 'हथकड़ी' ऐसा बंधन है जिसे लगती है उसे अपनी पूरी सजा भोगनी होती है, तब जाकर खुलती है.
'हथकड़ी' की मजबूती शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना है.
जबकि 'राखी' की कोमलता एक सुखद अनुभूति है, मानसिक आह्लाद है.
अतः दोनों की अपनी-अपनी भूमिका है, विशेषता है, महत्व है.
क्या अब हम 'नारी' और 'पुरुष' को इस रूपक से समझ सकते हैं?
_____________________________
..... जमीन के भीतर की जड़ें कहने लगें कि हमें भी फलों जैसा महत्व दिया जाये, बराबरी के अधिकार दिये जाएँ,
हमें भी हाईलाइट होना है, प्रकाश में आना है, फलों जैसी ऊँचाई मिलनी चाहिए ......... क्या उसका ज़मीन के भीतर रहकर
पूरे वृक्ष को खुराक पहुँचाना अनुचित है?
— मनुष्य समाज को भी तो इस रूपक से सीख लेनी चाहिए कि नहीं?

हाँ, जड़ और फल का निर्धारण नर-नारी को आज़ स्वयं करना है कि किसे 'जड़' की भूमिका में रहना है और किसे तन-पत्ती-फल की भूमिका में.
जो पुरातन शास्त्रीय कायदे हैं वे बड़े सोच-समझ कर ही बने होंगे.
चलिए उसे उलट देते हैं. ....... तब भी किसी एक को 'जड़' रूप बनकर नेपथ्य से सहयोग करते रहने की ज़रुरत है.
जहाँ दोनों ही हाईलाईट रहते हैं ............ वहाँ भी वे किसी न किसी नौकर अथवा बुजुर्ग सदस्य पर निर्भर होते हैं.
अपवाद परिवार .......... विरले ही होंगे.
त्याग तो किसी एक को करना ही पड़ता है. ......... वह चाहे स्त्री करे अथवा पुरुष.
किसी एक को भूमिगत रहना ही होता है.

प्रतुल वशिष्ठ said...

जब पुरुष दिवस नहीं है तो ये महिला-दिवस का पाखण्ड क्यूँ ?
@ मैंने कई विषयांतर बातें कह दीं.
जब प्रवाह होता है तब राह नहीं सूझती कि किस पथ पर बढना है.
आपका विरोध उसी तरह का है जो आत्म-सम्मान को पहुंचती ठेस को स्वीकार नहीं कर पा रहा.
जैसे 'स्वतंत्रता-दिवस' मनाने पर यदि यह महसूस होने लगे कि हम कभी गुलाम रहे थे. -यह भाव आत्महीनता लाता है.
इस कारण कई इसे 'वीर-पर्व' के रूप में मनाने के हिमायती हैं.

Rakesh Kumar said...

आपका 'पुरुष दिवस'का सुझाव बहुत अच्छा सुझाव लगता है.वास्तव में पुरुष में सुधार और आत्मचिंतन की अधिक आवयकता है.क्योंकि अधिकतर ज्यादितियाँ महिलाओं पर पुरुष की कुत्सित और विकृत मानसिकता का ही परिणाम हैं.पुरुषों में जागृति होगी तो महिलाओं की स्थिति अपने आप सुधरेगी.बस में, ट्रेन में एक या दो सीट महिला को देकर ही तो इति नहीं हो जाती.यदि वास्तव में फिकर और सम्मान होगा पुरुष के ह्रदय में तो जहाँ भी आवयकता होगी वहीँ सीट देगा महिला को. महिला के प्रति सभी (चाहे वह पुरुष हो या महिला )के नजरिये में सुधार होगा, तो ही उत्थान हो पायेगा समाज का.'पुरुष दिवस'रख कर ही पुरुषों की दयनीय मानसिकता पर सभी का विशेषरूप से ध्यान जा पायेगा .वर्ना तो महिला केवल 'बेचारी' बन कर रह जायेगी.

Unknown said...

मुझे लगता है कि एक दिन तो होना ही चाहिए.. जिस दिन सब इसके बारे में बात कर सकें, वर्ना तो किसके पास टाइम है. कम से कम इस दिन के नाम पर कोई विशेष कार्य तो संपन्न हो ही जायेगा.

http://dunali.blog.com/

धीरेन्द्र सिंह said...

क्या यह सच नहीं है कि जहॉ महिला के बारे में कोई गंभीरता से सोचना नहीं चाहता है वहॉ एक दिन महिला के बारे में लोग सोचते हैं, झूठा ही सही। इस पाखंढ और दिखावे के दिवस के बारे में मेरी यह राय है कि इसमें अवश्य सुधार होगा...रसरी आवत, जात ते सिल पर होत निसान.

JAGDISH BALI said...

Absolutely !

गौरव शर्मा "भारतीय" said...

लोगों को महिला दिवस मानते देखा तो वाकई मन में यह सवाल बार बार आ रहा था की जब पुरुष दिवस नहीं तो फिर महिला दिवस क्यों ? जब हम महिलाओं को सामान अधिकार देने की बात करते हैं तो फिर इस दिवस मनाकर पाखंड करने की आवश्यकता क्या है ?
आपकी बातों से मै शत प्रतिशत सहमत होते हुए बेहद सार्थक पोस्ट के लिए बधाई एवं आभार प्रेषित करता हूँ |

आशुतोष की कलम said...

हम लम्बी लम्बी बातें ब्लॉग और मीडिया में करतें है..मगर जब महिला को अधिकार देने की वास्तविकता में आती है तो ज्यादातर दोगला आचरण करने लगते है.. ये कई सौ सालों से चला आ रहा है की पुरुष की नजर में महिला अंततोगत्वा ऊपभोग की वस्तु रही है.. ये आचरण और मानसिकता चाँद दिनों में नहीं बदलेगी..समय लगेगा...
हमशा की तरह आप की कृति विषय की पूर्णता के साथ है..

shakahaar parishad bhopal said...

this only a lip sympathy. it is a formal day. nothing is new. it is customary, now a days women are playing worthy roles less and worst roles. for example in BHOPAL SABA NAD ZAHIDA HAD ADMITTED THAT THEY ARE LESBIANS. AND THEY ARE INVOLVED IN THE MURDER OF SHAHIDA. so we pray them like DURGA, LAXMI ETC. due to at liberty they are showing porn films and showing whole nakedness for example POONAM PANDEY, VEENA MALIK. VIDHYA BALAN ETC. SOME TREAT THEM LIKE SEETA, SAVITRI. WE pay respect them and treat them in respectable way but their characters MUST BE ACCORDINGLY.in films they do the acting on the demands of director and mobs, all T V serials are showing such episodes in them you can watch the characters of the women. all are playing diplomacy, vulgarism and extra marital relations, revenges and villain roles. what taught us, to the society.every individual, family,society are suffering these elements. they are praise worthy deeds/ actions/ roles.

Rajesh Kumari said...

mahila divas manaate hain to mahila aarakshn bil aaj hi paas kyun nahi karte balaatkariyon ko faansi kyun nahi dete dahej lene dene vaalon ko jel me kyun nahi karte dahej pratha par rok bhroon hatya karne vaal va us doctor ko saja de to mahila divas ki jaroorat hi nahi padegi.

Hriday Pandey said...

दीदी ताजमहल का निर्माण राजा परमार देव ने ११९२ ईस्वी में किया था ........ शाहजहाँ नहीं ..............

http://www.stephen-knapp.com/true_story_of_the_taj_mahal.htm

http://www.stephen-knapp.com/was_the_taj_mahal_a_vedic_temple.htm

ZEAL said...

@-- Shakahaar parishad Bhopal ji -- Sir I fully agree with your points but the names you have mentioned are in rarity. Such women are hardly 1% in our society. Majority of women are still suffering the discrimination and cruelty.

शिवनाथ कुमार said...

सटीक लेख ....