Friday, March 25, 2011

कवि बहुत ही नाज़ुक-मना होते हैं -- Handle with care !

इससे पहले की ब्लॉगजगत के सारे कवि और कवियत्री मिलकर मुझपर सड़े टमाटर और अंडें फेंके , मैं ये स्पष्ट कर दूँ की , अपवाद स्वरुप कुछ कवि मज़बूत ह्रदय वाले भी होते हैं

हो सकता है मैं गलत हूँ , लेकिन मुझे ऐसा लगता है कवि ह्रदय , अर्थात जो कवितायें लिखते हैं , उनकी एक मासूम सी खुशबूदार दुनिया होती है , जिसमें तितलियाँ है , कोयलें हैं , बसंत के इन्द्रधनुषी पुष्प पल्लवित हैं , कहीं पुरवाई तो कहीं मौसमी मंद बयार चल रही होती है , कहीं बुलबुल के नगमे होते हैं तो कहीं झींगुर , रात की नीरवता भंग करते हैंकहीं अमराई है तो कहीं बलखाती अंगडाई हैकहीं प्रेम का कोलाहल है , तो कहीं काली रातों की कभी चुकने वाली तन्हाई हैकहीं लबों पर मुस्कान थिरकती है तो कहीं आँखों में आँसू नर्तन करते हैं

चिंतित हूँ , इस कठोर दुनिया में कवि स्वयं को सँभालते कैसे हैंवे तो अपनी दुनिया से बाहर आते हैं , ही कठोर-मना लेखकों को अपनी दुनिया में प्रवेश देते हैं

नमन है पद्य को गद्य का ....

पुनः याद दिला दूँ , टमाटर महंगे हैं , इन्हें यूँ बर्बाद कीजिये मेरे ऊपर फोड़करआखिर क्षमाभाव रखना भी तो बडप्पन की निशानी हैऔर कवि ह्रदय बहुत विशाल होता है करबद्ध प्रार्थना है , सभी कवियों से की नाराज़ होकर बोलना-बतियाना बंद कर दीजियेगा मुझ मूढ़-अज्ञानी से।

कवियों को समर्पित एक पंक्ति ...

ये महलों ये तख्तों ये ताजों की दुनिया
ये इंसान के दुश्मन रवाजों की दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है ...


आभार

.

58 comments:

vandana gupta said...

सच कहा दिव्या जी कवि बहुत ही भावुक होते हैं और समय की मांग के अनुसार ही लिखते है हालात का उनके ह्रदय पर भी उतना ही असर होता है जितना एक लेख लिखने वाले के मगर वो अपने ह्रदय की भावना को कविता मे प्रस्तुत करते है और लेखक लेख मे सिर्फ़ इतना ही फ़र्क होता है बाकी दोनो की ही चिन्तायें समान होती है, दृष्टिकोण एक जैसा ही होता है……………बहुत बढिया पोस्ट लगाई है।

ashish said...

बात कठोर या मुलायम दिल की नहीं है . बात है मन में आये विचारो की अभिव्यक्ति की , अपने कहने के ढंग की . मुझे लगता है की कविता किसी भी विषय को कम शब्दों में संप्रेषित कर सकती है . प्रसाद से लेकर भारतेंदु ने कविताये भी लिखी है और ढेर सारे नाटक और आलेख भी . मुझे तो लगता है की पद्य और गद्य दोनों ही विधाए है अभिव्यक्ति की . टमाटर वैसे भी लोग मंचीय कवियों पर फेकते है . हा हा . आप बेफिक्र रहो .

amrendra "amar" said...

सच कहा दिव्या जी कवि बहुत ही भावुक होते हैं ...........

सञ्जय झा said...

ये महलों ये तख्तों ये ताजों की दुनिया
ये इंसान के दुश्मन रवाजों की दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है ...

apna punch line hai....yaad karane ka sukriya...


pranam.

नीलांश said...

aapne sahi bola zeal ji .....
ye duniya agar mil bhi jaaye to kya hai.

kavi ka hriday vishaal hota hai...
mere anusaar ek accha kavi ek accha samalochak bhi hona chahiye ......
mera bhi mantavya milta julta hai....

सम्वेदना के स्वर said...

गुस्सा और आक्रोश भी तो गहन भाव हैं।

आप पर टमाटर फेकनें की हिम्मत किसकी होगी :)

जयकृष्ण राय तुषार said...

डॉ० दिव्या जी आपका लेख सुन्दर है कलाकौशल से युक्त और पठनीय है लेकिन पूर्णतया सत्य नहीं है |कविता की दुनियां आभासी होती है |जैसे कुछ फूल देखने में सुंदर होते है लेकिन उनमें सुगंध नहीं होती है ,उसी तरह कवि भी इंसान होते हैं भगवान नहीं उनके अंदर मानव जगत की सारी कमियां विकृतियाँ तिकड़म कमीनापन ,सब कुछ उसी रूप में मौजूद रहता है |यह सब प्रतिशत पर निर्भर करता है |हाँ कवि होना थोडा इंसान बनने की कोशिश अवश्य है यहाँ स्पष्ट कर दूँ कोई भी कला जिसमे है हृदय थोडा सरल होता है |बहरहाल इस विचारोत्तेजक लेख के लिए बधाई और शुभकामनाएं |

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

ऐसा क्या और क्यों. ये तो मैंने महसूस किया है कि कवियों की एक अलग सी दुनिया होती है और शायद वह जरूरी भी है.क्योंकि पद्य लिखना गद्य लिखने से कहीं अधिक श्रमसाध्य है और अधिक एकाग्रता की भी आवश्यकता होती है..

A.G.Krishnan said...

Yes........it is true; Poets, Writers, Bloggers are very much sentimental ppl.

Kailash Sharma said...

जो भी लेखक है,चाहे गद्य का या पद्य का, वह स्वभावतः भावुक तो होगा ही. भावनाएं कोमल, कठोर, आक्रोशपूर्ण, अंतर्मुखी या बहुर्मुखी किसी प्रकार की हो सकती हैं और ये सभी लेखकों में पायी जाती हैं. फर्क होता है केवल उनको व्यक्त करने के माध्यम का. लेखक उनको गद्य में व्यक्त करता है और कवि उनको पद्य में. दोनों ही समान रूप से भावुक और संवेदन शील होते हैं.

DR. ANWER JAMAL said...

आप कहती हैं तो कोई न कोई कवि भावुक भी ज़रूर होता होगा । मैं जितने शायरों और कवियों को जानता हूँ उनमें अक्सर तो ऐसे हैं कि अगर आयोजक के पास देने के लिए कम पैसे हों तो ये उसे जेल भेजने से भी बाज़ न आएँ।
मशहूर शायर नवाज़ देवबंदी साहब ने मुझे एक बार एक वाक़या सुनाया कि रात भर मुशायरे में गाने के बाद जब आयोजक ने शायरों और कवियों को फ़ंड कम इकठ्ठा होने की वजह से आधे मेहनताने वाले लिफ़ाफ़े पकड़ाए तो इन्होंने उसे सुबह सुबह पैदल पैदल ले जाकर थाने में बैठा दिया। थानेदार से मोहलत लेकर वह बेचारा आयोजक थोड़ी देर बाद कहीं से रुपया लाया और शायरों को पूरा भुगतान किया ।
नवाज़ साहब ने पूछा कि भाई , आप रकम कहाँ से लाए ?
तो आयोजक ने जवाब दिया कि मैं अपना घर गिरवी रखकर यह रक़म लाया हूँ ।
नवाज़ साहब ने उसे उसकी रक़म लौटा दी।
ये लोग बस बात बनाने के माहिर होते हैं , प्रायः ।

Kunwar Kusumesh said...

तेरी फ़ितरत में नफ़रत ही नहीं है.
किसी से भी अदावत ही नहीं है.
भला मारेगा कोई क्यों टमाटर ?
टमाटर की ज़रुरत ही नहीं है.

पी.एस .भाकुनी said...

निसंदेह ! एक कवी ह्रदय ही समझ सकता है टमाटर और अंडे की कीमत को, उसे पता होता है की टमाटर और अंडे किसी पर फैकने की वस्तु नहीं अपितु किसी जरूरतमंद की आवश्यकता है ,अतेव आप निश्चित रहें,क्योंकि कम से कम भारत में तो अंडे और टमाटर कवियों (लक्ष्मी द्वारा उपेक्षित जैसा की आपकी पिछली पोस्ट में उल्लेख किया गया है ) की पहुँच से बाहर हो चुके हैं,
abhaar..........................

mridula pradhan said...

hamesha kuch n kuch nya likhtin hain aap....isiliye aapka blog mujhe bahut pasand hai.

​अवनीश सिंह चौहान / Abnish Singh Chauhan said...

ये महलों ये तख्तों ये ताजों की दुनिया
ये इंसान के दुश्मन रवाजों की दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है ...
आपकी ये पंक्तियाँ बहुत मायने रखती है . मेरी बधाई स्वीकारें

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

वाह दिव्या जी वाह !

क्या सिक्स़र मारा है , अपने सुन्दर लेख से !

आज यह भी पता चला की अपने को कठोरमना कहने वाली लेखिका का ह्रदय वास्तव में कवि का ही है |



"हो सकता है मैं गलत हूँ ....................................................

..........................................................................................

.................................................,,,,,,,,,,,,,,आंसू नर्तन करते हैं "


उपरोक्त खंड को मैं क्या कहूँ... .....गद्य या पद्य |



भावुक ह्रदय की सहजतम अभिव्यक्ति ही तो कविता है |

अजय कुमार said...

chaliye kuchh apwaad bhi hai--

shikha varshney said...

अरे कवि भावुक ह्रदय ही नहीं बेचारा कमजोर जेब भी होता है:) टमाटर अंडे फेंकों तो वह भी बटोर कर शुक्रिया कह देता है :)
मजाक के अलावा.. सच ही कहा है आपने.

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

तुम नाहक टुकड़े चुन-चुन कर
दामन में छुपाये बैठे हो
शीशों का मसीहा कोई नहीं
क्या आस लगाए बैठे हो॥...फ़ैज़

बाबुषा said...

U bring sunshine. Keep writing n always be ready for tomatoes. If they r costly then only u deserve them...cheap things, not for u!:-)

With Love
-Baabusha

Neeraj said...

कवि कभी किसी के ऊपर टमाटर नहीं फेंक सकता , तभी फेंकेगा जब इस कार्य में उसे अनुपम सौन्दर्य का दर्शन हो रहा हो, और उसे कविताई सूझे |

शोभना चौरे said...

फूल अहिस्ता फेंको
फूल बड़े नाजुक होते है |

सुज्ञ said...

कवि ही नहीं, लेखक भी सम्वेदनशील होता है।
गद्य पद्य कार द्वय सम्वेदनशील होने के साथ साथ सम्वेदनाओं को बखुबी समझते भी है। इतना ही नहीं वे सम्वेदनाओं से निरपेक्ष रहकर उन सम्वेदनाओं को आलेखित करने में समर्थ होते है।

AS said...

with time, you shine
with thought, you pick
with courage, you deal
with smile, you prick

emotions, strive
thoughts, drive
the path, sure
will lead, you there.

Dr.J.P.Tiwari said...

संवेदना के इस दर्द को,
सृजन के इस मर्मको '
क्या कभी समझेगा
यह बेदर्द जमाना?

ये ह्रदय हीन लोग
दिल की पुकार पर.
मन की करुण आह
और चीत्कार पर
वाह काह करते हैं.

फिर भी हौसला तो देखो
सड़े अंडे पड़े या टमाटर?

Dr.J.P.Tiwari said...

संवेदना के इस दर्द को,
सृजन के इस मर्मको '
क्या कभी समझेगा
यह बेदर्द जमाना?

ये ह्रदय हीन लोग
दिल की पुकार पर.
मन की करुण आह
और चीत्कार पर
वाह काह करते हैं.

फिर भी हौसला तो देखो
सड़े अंडे पड़े या टमाटर?
ये कवि और चिन्तक अपनी
बात कहने से कब डरते हैं?

दिलबागसिंह विर्क said...

kya kahen

n auron ko pahchanta hoon n hoon khudshnas

वाणी गीत said...

लिखते समय तो कवि भावुक ही होते हैं क्योंकि वो उनकी अपनी ख्वाबों की दुनिया में होते हैं , मगर जब यथार्थ की जमीन पर पैर रखते हैं तो इस दुनिया में खपने जैसा होना ही होता हैं ...

Unknown said...

likhna koi aasan kaam nahin hai...halaat aur paristhiti bahut kuch sikha deti hai...kuch bol detein hain aur kuch likh deyein hain.....bina aah ke samvedna jaagti hi nahin......

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

अच्छा मजाक है!
--
दिल तो सभी के नाजुक होते हैं!

गिरधारी खंकरियाल said...

सावधान !अभी से अप्रैल फूल मानाने लगे हो कवियों का !

ZEAL said...

.

सुरेन्द्र सिंह 'झंझट' जी ,

जो कोई नहीं देख पाया , उसे आपने देखा भी ,समझा भी ,और highlight भी किया। इस छोटी सी पोस्ट में बस एक paragraph ही तो पूरी सावधानी के साथ ड्राफ्ट किया था । कोशिश की थी उन बेतरतीब पंक्तियों में छुपा एक ह्रदय दिखाने की , जिसे सजावट करनी नहीं आती , इसलिए इस गंवारपन के लिए कोई सम्मान नहीं कवि-हृदयों में ।

ये पोस्ट एक ख़ास वजह से उपजी थी , जो पिछले कुछ महीनों से मन में है , लेकिन कहने का सामर्थ्य अभी भी नहीं है। ये किसी ख़ास व्यक्ति (कवियत्री) द्वारा किये जा रहे पक्षपात के कारण लिखी गयी ह्रदय की व्यथा है ।

आभार ।

.

महेन्‍द्र वर्मा said...

केवल कवि ही नाजुकमना नहीं होते, प्रत्येक सृजनकर्ता नाजुकमना और भावुक होता है। साहित्यकार, संगीतकार, चित्रकार, मूर्तिकार आदि सभी सृजन करते हैं। वे इसलिए सृजन कर पाते हैं क्योंकि वे भावुक होते हैं, नाजुकमना होते हैं।
साहित्य की हर विधा सृजन है, चाहे वह गद्य हो या पद्य। भावुक हुए बगैर कोई पद्य क्या, गद्य भी नहीं लिख सकता। कई बार तो गद्य लेखक कवियों की तुलना में कहीं ज्यादा भावुक, ज्यादा संवेदनशील होते देखे गए हैं। जो गद्य लेखक जितना ज्यादा भावुक और संवेदनशील होगा, उसके लेखन में उतना ही ज्यादा लालित्य होगा।
आपके गद्य में भी कविता जैसा लालित्य होता है और ऐसा इसलिए होता है क्योंकि आप भावुक हैं, संवेदनशील हैं। आपके सभी लेख इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।

विशाल said...

दिव्या जी ,
बहुत कम ऐसे कवि हृदय होतें हैं जिनकी हर बात में शायरी टपकती है.
बाकी बस मौक़ा परस्त शायर होते हैं.
मौक़ा मिला तो शायरी कर ली.
नाज़ुक मिजाजी का शायरी से कोई तयालुक नहीं.
समझ से है.
और समझ को प्रस्तुत करने के ढंग से है.
वरना शायर क्यों लिखता ......

सरफरोशी की तमन्ना ,अब हमारे दिल में है.
देखना है जोर कितना, बाजुए कातिल में है.

और वही शायर हँसते हँसते फांसी के फंदे को चूम लेता है.
और आप ही की इस्पात की कलम से मैंने जुल्फों वाली रचना भी पढी थी.
सलाम.

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना said...

ॐ दिव्याय नमः !
1- झरने से झरते जल के बेतरतीब उछलने-गिरने को गौर से देखोगी तो नृत्य लगेगा......पीपल के पत्तों को गौर से देखोगी तो एक रिदम में नाचते दिखेंगे ......आज जो दिव्या ने लिखा है वह शब्दों का ऐसा ही नृत्य है ......जिसे "झंझट जी " ने बिना कोई झंझट किये कविता घोषित कर दिया.
२- चिंतनीय है कि दिव्या के अन्दर कवि अंकुरित हो गया है ...बेचारी दिव्या ! अब वह अधिक दिन तक गुस्सैल नहीं रह पायेगी. दिव्या और गुस्सा दोनों समवाय सम्बन्ध (inherent relation )से रहते हैं.
३- मैंने दिव्या के अन्दर भरी बेहिसाब और बेतरतीबी से ठुंसी ऊर्जा को पहली बार में ही देख लिया था ...वह धीरे-धीरे व्यवस्थित हो रही है ......शुभ लक्षण ....शुभम करोति कल्याणं ......
४- कुछ कवि चोर भी होते हैं ....ध्यान रखना दिव्या !
५- और अब पक्षपात पर एक आखिरी बात- देवदास लिखने के बाद शरत जी टैगोर जी के पास उसकी भूमिका लिखने का आग्रह लेकर गए थे. तब शरत एक उदीयमान साहित्यकार थे और टैगोर एक सुस्थापित साहित्यकार. टैगोर ने जो जवाब शरत को दिया वह मैं यहाँ नहीं लिखूंगा ..अन्यथा आपके मन में टैगोर के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न हो जायेगी. बहरहाल शरत बहुत निराश हुए ..अपने लेखन के प्रति. पर कई साल बाद जब वे चल निकले और प्रकाशकों की भीड़ उनके दरवाज़े लगने लगी तो एक अड़ियल प्रकाशक से पीछ छुड़ाने के लिए शरत ने रद्दी के गट्ठर में से देवदास की मैन्यूस्क्रिप्ट उठा कर दे दी. उसके बाद जब वह प्रकाशित हुयी तो ..........आगे का हाल सबको पता है.

प्रवीण पाण्डेय said...

कवि भावुक होते हैं पर वही भावुकता समय पड़ने पर उनकी शक्ति बन जाती है।

ZEAL said...

.

मुझे पता था , लोग टमाटर बरसायेंगे , इसीलिए पहले ही निवेदन कर लिया था रहम करने का ।

जैसे कविता को लोग अक्सर अलग अलग अर्थों में पढ़ते हैं , वैसे ही इस पोस्ट को लोगों ने अलग-अलग सन्दर्भों में समझा है । पूर्व में एक टिपण्णी द्वारा मैंने संकेत दिए थे लेख के मर्म को समझने के लिए , लेकिन अब अपनी आदतानुसार अभिद्या में अधिक स्पष्ट कर रही हूँ ...

* ५० % टिप्पणीकारों ने गद्य और पद्य लेखकों , दोनों को सृजनकार कहा है , उन्होंने तो इस लेख के मर्म को पूरी तरह समझ लिया है । उनका विशेष आभार ।
* कुछ ने कवियों को श्रेष्ठ कहा है , उन्होंने भेद-भाव किया है ।
* भाषा अंग्रेजी हो या हिंदी , दोनों में ही लेखन कर्म है ।
* विधा -गद्य हो या पद्य , दोनों में ही सृजन है ।
* रस तो नौ ही हैं , जो गद्य और पद्य दोनों में ही हैं
* भावनाएं और संवेदनाएं , गद्य और पद्य दोनों में ही हैं ।
* जो रुला दें वो कवितायें भी होती हैं और लेख भी
* जो जागरूकता पैदा करें वो लेख भी होते हैं कवितायें भी ।

फिर कवि ह्रदय सिर्फ कविता लिखने वाले के पास कैसे हुआ । 'लेखक-ह्रदय' जैसा शब्द तो कभी सुना नहीं ।

कवि- ह्रदय तो हर उस शख्स के पास है , जिसके हाथ में लेखनी है , फिर वो अपनी भावनाओं को चाहे गद्य के माध्यम से व्यक्त करे या फिर पद्य के ।

इसलिए 'भावुक' और 'नाज़ुकमना ' हर सृजनकर्ता है। बिना भावुक हुए किसी भी प्रकार का सृजन संभव है क्या ?

असली कवि-ह्रदय सिर्फ उसी के पास है , जो दूसरों के लिखे में भी 'काव्य' तलाश कर लेता है ।

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Deepak Saini said...

अब क्या कहूँ सब कुछ तो आपने कह ही दिया

देवेन्द्र पाण्डेय said...

अच्छा! तो आप चाहती हैं कि टमाटर फेंक कर सभी अपना कम्पयूटर, लैपटॉप खराब कर दें..!
....सभी लेखक पहले कवि होते हैं। बड़ा साहित्यकार होने की अनिवार्य शर्त है कवि ह्रदय का होना। कविता लिखना न लिखना अलग बात है। आपकी अभिव्यक्ति भी एक कवि ह्रदय की अभिव्यक्ति है। कवि भी मानव है। अतः गलतियाँ उससे भी होनी स्वाभाविक हैं।

राज भाटिय़ा said...

अरे बाप रे... आप कभी किसी कवि के पास तो बेठे.. फ़िर देखो कितने कोमल होते हे, अजी अपनी कविता सुना सुना कर आप को पका देगे... ओर आप पर रहम भी नही करेगे, एक के बाद एक कविता, इन्हे एक मोका मिलना चाहिये, जैसे ही शिकार मिला उसे पकड लेगे कस के, फ़िर सारी रचनाऎ सुना कर ही दम लेगे, इस लिये इन्हे कोमल ह्र्द्य मत कहे जी, मै तो इन्हे देख कर रास्ता ही बदल लेता हुं:)
इस टिपण्णी को मजाक मे ले... कही दिव्व्या जी के बदले अंडे ओर टमाटर इधर मत फ़ेंके, अगर जरुरी फ़ेंकने हो तो सिर्फ़ प्याज ही फ़ेंके

ѕнαιя ∂я. ѕαηנαу ∂αηι said...

बज़ा फ़रमाया आपने कवि नाज़ुक दिल के होते हैं पर ज़ेहन की मजबूती किसी से कम नहीं होती । आपका लेख और लेख का विषय अच्छा लगा , धन्यवाद।

विशाल said...

टमाटरों के ख्याल से आप विषय मत बदलिए.
हम तो आपकी पोस्ट पर फूल बरसा रहे हैं.
अरे ,किसी ने तो नाज़ुक मिजाजी को समझा.
आभार.

मनोज कुमार said...

इस आलेख पर अपनी कुछ नहीं कहूंगा।

कवि हूं ना। इसलिए।

१. अमरीकी कवि रॉबार्ट फ़्रोस्ट (1874-1963) का मानना था, “कविता आनंद के साथ शुरु और बुद्धिमानी के साथ खत्म होती है।”


२. कविता भाषा में आदमी होने की तमीज़ है। -- धूमिल

३. ब्रिटिश साहित्‍यकार टी.एस. इलियट (1888-1965) का मानना था, “अपरिपक्‍व कवि नकल करते हैं और परिपक्‍व चुराते हैं।”

Atul Shrivastava said...

अच्‍छा लिखा है आपने।
वैसे दिव्‍या जी आपको बता दूं कि टमाटर अभी काफी सस्‍ते हो गए हैं, ज्‍यादा पैदावार होने की वजह से। हमारे यहां तो आज के अखबारों में खबर थी कि दूसरी सब्‍जी खरीदने पर दुकानदार ग्राहकों को टमाटर फ्री में दे रहे हैं। फिर भी आप घबराईए नहीं क्‍योंकि आप पर कोई टमाटर नहीं फेंकने वाला, आपने जो सच है उसे ही तो लिखा है।

Rajesh Kumar 'Nachiketa' said...

गाढ़ी मेहनत से कमाकर लाये हुए टमाटर कोई बर्बाद नहीं करेगा..

Rahul Singh said...

जो कविता नहीं लिखते, लगता है उनके मन की नजाकत का अंदाजा नहीं है आपको.

Bharat Bhushan said...

मैं तो प्रेम से बनाए गए भोजन, प्रेम से की गई कढ़ाई-बुनाई या प्रेमपूर्वक किए गए प्रत्येक कार्य को 'कविता' मानता हूँ. कवि-हृदय अच्छा लगता है लेकिन कई बार कवियों से बच कर निकलना पड़ता है.

aarkay said...

दिव्या जी , iron woman कोमल -मना भी हैं , जान कर अच्छा लगा . गद्य और पद्य दोनों का कायल हूँ इस लिए मेरी दृष्टि में दोनों समान हैं. बच्चन जी का विशेष तौर पर fan हूँ क्यों कि उन्हें दोनों विधाओं में महारत हासिल थी !
आभार !

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

दिव्या जी आपके गद्य का पद्य तैयार है ............

हो सकता है
मैं गलत हूँ
लेकिन
मुझे ऐसा लगता है
कवि हृदय
अर्थात
जो कवितायेँ लिखते हैं
उनकी
एक मासूम सी
खुशबूदार दुनिया होती है
जिसमे
तितलियाँ हैं
कोयलें हैं
बसंत के
इन्द्रधनुषी पुष्प पल्लवित हैं
कहीं पुरवाई
तो कहीं
मौसमी मंद बयार
चल रही होती है
कहीं
बुलबुल के नगमें होते हैं
तो कहीं झींगुर
रात की नीरवता को भंग करते हैं
कहीं
अमराई है
तो कहीं
बलखाती अँगड़ाई
कहीं -प्रेम का कोलाहल
तो कहीं
काली रात की
कभी न चुकनेवाली तनहाई है
कहीं
लबों पर मुस्कान थिरकती है
तो कहीं
आँखों में आँसू
करते हैं नर्तन

चिंतित हूँ
इस कठोर दुनिया में
कवि
स्वयं को सँभालते हैं
कैसे ?

प्रतुल वशिष्ठ said...

दूसरे अनुच्छेद के सन्दर्भ में ...
@ आप जानते तो हैं सब कुछ.
आप सब कहीं घूमे फिरे भी हैं....
ऎसी दिव्यदृष्टि तो आपके ही पास है जो सटीक अनुमान लगा ले.

अशोक सलूजा said...

लेख हो , कविता हो या शायरी
लिखने को एक एहसास जरूरी है ,
इस के आगे कुछ बोलने के लिए
बस मुझ मैं समझ अधूरी है ||

आप सब खुश और सेहतमंद रहें |
पर मुझे कुछ सिखाते रहें ||

अशोक सलूजा !

amit kumar srivastava said...

handle with care...keep bosom side up.

Unknown said...

दिव्या जी आप विषय अच्छे उठाती है,कुछ ऐसे जिनमे कहने को बहुत कुछ हो, विमर्श की व्यापक संभावनाएं हों , लोग अपनी-अपनी तरह से कहते भी है बात. बस कुछ बातें ऐसी होती है जो समझ में नहीं आती. लोग छीटा कसी करते है, जो कदापि नहीं करनी चाहिए, मई ऐसे ब्लोग्स पर दुबारा नहीं जाता, सच कहू तो आप बिंदास लिखती है और ये भी सच है की आपके ब्लॉग पर पोस्ट की गयी टिप्पणियों मैं ये भाव कुछ ज्यादा ही होते है..
.. अब बात कवी हृदयों की , कोई भी कवी और लेखी हृदय नहीं होते ,विषय होते है जो संवेदनाएं दर्शाते हैं , भावुक कर जाते है मई तो कहता रहा हूँ गद्य लेखन एक दुरूह कार्य है और समय लेने वाला , कम समाया और कम शब्दों में बात कहना हो तो कवी की तरह सोचना ही पड़ेगा , कहना ही पड़ेगा. लेखन लेखन है इसमें कुस्ती की कोई गुंजायश नहीं होनी चाहिए, शुभ कामनाओ सहित

ZEAL said...

.


@--लोग छीटा कसी करते है, जो कदापि नहीं करनी चाहिए, मई ऐसे ब्लोग्स पर दुबारा नहीं जाता, सच कहू तो आप बिंदास लिखती है और ये भी सच है की आपके ब्लॉग पर पोस्ट की गयी टिप्पणियों मैं ये भाव कुछ ज्यादा ही होते है..

----------

कुश्वंश जी ,
आपने सही लिखा है , मेरे लोखों पर आई टिप्पणियों में अक्सर पूर्वाग्रह और छीटा -कशी ज्यादा रहती है , जबकि वही लोग अन्य लेखों पर चाटुकारिता भरी भाषा में लिखते पाये गए हैं । मन में अफ़सोस तो होता है, लेकिन संजीदा टिप्पणीकार इस दुःख की भरपाई कर देते हैं । इसलिए लिखते रहने की हिम्मत मिलती रहती है।

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ZEAL said...

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सभी टिप्पणीकारों का हार्दिक आभार । आपकी सार्थक टिप्पणियों से विषय को विस्तार मिला है

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ZEAL said...

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कवियों को कवियों से ही ज्यादा प्रभावित ( कुछ अपवाद छोड़कर ) देखा। स्त्री- पुरुष , जैसा भेदभाव कवियों और लेखकों के मध्य भी देखा। इस द्वेष को देखकर ही इस लेख की उपज हुयी थी।

लेकिन क्या कर सकती हूँ ? स्त्री होते हुए भी स्त्री को सम्मान नहीं दिला सकती हूँ समाज में । सिर्फ जी सकती हूँ स्त्री के स्वाभिमान के साथ । उसी तरह लेखों में भी , अपनी सरल भाषा से आम जनता के साथ और उनके हितों के साथ जुडी रहूंगी ।

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प्रतुल वशिष्ठ said...

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कवि इतने नाज़ुकमना होते हैं कि वे यदि अपने नाज़ुकतम मनोभावों को प्रदर्शित कर दें तो उनकी जिजीविषा जाती रहे.
नाग अपनी मणि को यदि बाहर निकाल कर रख दे तो अपनी शक्तियों से हाथ धो बैठे.
सुन्दर शरीर तभी तक सुन्दर लगता है जब तक आत्मा बाहर नहीं निकलती.
चीर-फाड़कर शरीर अपने सौन्दर्य को सुरक्षित नहीं रख सकता.

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प्रतुल वशिष्ठ said...

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स्त्री-पुरुष का भेद सामान्यतः तो नहीं ही रहता.
हाँ, आत्मीय और औपचारिक संबंधों के निर्वहन में अवश्य रहता है.

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