डॉक्टर, इंजिनियर , वकील , पाईलट तो शिक्षा और ट्रेनिंग के तहत बनते हैं , लेकिन एक लेखक का 'जन्म' होता है, जो , जीवन के किस पड़ाव पर होगा कुछ कहा नहीं जा सकता। आज हर प्रांत, भाषा , व्यवसाय , और वय के लोगों को लिखते हुए देखती हूँ यही लगता है सृजन की एक अद्भुत क्षमता और नैसर्गिक इच्छा सभी में होती है।
लेखन के लिए एक प्रेरणा अवश्य चाहिए जो हमें परिवेश और परिस्थितियों से मिलती है। लेखक, विभिन्न स्तरों पर परिस्थितिजन्य , शौक के अनुसार , पीड़ा की गहनता के प्रेरित होकर अथवा समाज में व्याप्त अनियमितताओं से विचलित होकर लिखते हैं।
जब हम अपने परिवेश में हो रही घटनाओं से व्यथित होते हैं और उसमें बदलाव लाना चाहते हैं , लेकिन कहीं न कहीं उस बदलाव को लाने में अशक्त भी रहते हैं तो एक 'लेखक का जन्म' होता है। शायद अपनी बात ज्यादा लोगों तक लेखनी के माध्यम से पहुंचाकर समान विचारों वालों की एक जागरूक फ़ौज तैयार करता है और वैचारिक आदान-प्रदान की जो एक लहर चलती है , उससे बहुत से मकाम हासिल भी होते हैं।
सिक्के के दो पहलू होते हैं लेकिन आज किसी भी विषय के अनेक पहलू होते हैं इसलिए हर विषय को लेखक अपने नज़रिए से लिखता है और उसी विषय पर जब पाठकों के विचार शामिल होते हैं, तो अनेक अन्य पक्ष भी उजागर होते हैं , जो विषय को विस्तार एवं सार्थकता प्रदान करते हैं।
विभिन्न वय और परिवेश के लेखों द्वारा विभिन्न विचार और रचनायें पढने को मिलती हैं , कम उम्र लेखकों में 'कच्ची और गुनगुनी घूप' जैसे कोमल एहसास , और व्यस्क लेखकों द्वारा उनके जीवन के अमूल्य अनुभव और वैचारिक परिपक्वता के दर्शन होते हैं।
किन्ही रचनाओं में प्रेम की अद्भुत अभिव्यक्ति तो कहीं वेदना से भरी गागर, कहीं देशप्रेम से लबरेज़ लेखन तो कहीं भारत-स्वाभिमान जगाती रचनायें, कहीं ह्रदय को मथती हुयी यादें तो कहीं मस्तिष्क को मथते हुए वैचारिक आन्दोलन। लेखक को लिखने की प्रेरणा अपने परिवेश से मिलती है लेकिन उसका लेखन बहुत से लोगों के लिए अनेक क्षेत्रों में एक प्रेरणा का स्रोत भी बन जाता है। इसलिए निरंतर लेखन से धीरे-धीरे एक जिम्मेदारी का एहसास भी होने लगता है। लोगों की अपेक्षाएं बढती जाती हैं और उसके साथ ही एक लेखक की जिम्मेदारी भी ।
७-८ वर्ष पहले मैंने एक पुस्तक लिखने की सोची । विषय था 'AIDS"। मैंने सोचा सरल भाषा में एक पुस्तक होनी चाहिए , जिसमें हर तरह के छोटे-बड़े प्रश्नों के उत्तर होने चाहिए जिसे आम जनता समझ सके और जागरूक हो सके। मेरे साथ बहुत से लोग मेरे इस महा-अभियान में शामिल होगये। बहुत से अस्पताल और संस्थानों में विभिन्न प्रकार की जानकारी हासिल की। एक नए अंदाज़ में पुस्तक लिखने का विचार था। जब पुस्तक लिखना शुरू किया तो मन में विचार आया देख लूँ कहीं इस तरह की कोई पुस्तक पहले से तो नहीं उपलब्ध है । फिर क्या था , बनारस में 'FRIENDS' नाम की एक दूकान है जहाँ मेडिकल की पुस्तकें मिलती हैं। वहाँ पहुंची तो देखा हर विषय पर अनगिनत पुस्तकें उपलब्ध हैं । लिखने वाले बहुत हैं लेकिन पढने का शौक रखने वाले कम हैं। फिर लिखने का विचार त्याग दिया , सोचा पहले पढ़ा जाए फिर कुछ लिखा जाएगा। लिखने से ज्यादा पढना श्रेष्ठ लगा जो सीखने का अवसर देता है। बाद में लिखना शुरू किया जब महसूस किया की समाज को कुछ दे सकती हूँ। अपने अनुभव, विषयगत ज्ञान या फिर वैचारिक आन्दोलन ।
लेकिन एक बात सच है की लिखने के लिए एक 'पीड़ा' बहुत जरूरी है जो प्रेरणा का काम करती है। कभी कभी रचनाओं में व्यक्ति कि निज-व्यथा झलकती है, तो कभी समाज कि पीड़ा का वृहद् रूप दृष्टिगोचर होता है। जितनी असीम पीड़ा होगी उतना ही बेहतर लेखन होगा। जैसे-जैसे हमारा परिवार बड़ा होता जाता है हम पूरे समाज को अपने परिवार का अंग मानने लगते हैं , तभी उसके रिसते घावों कि पीड़ा को महसूस कर पाते हैं फिर स्वतः ही लेखनी उन पर मरहम कि तरह चलती है।
लेखन यदि स्वान्तः सुखाय है तो निसंदेह लेखक को खुश एवं प्रसन्नचित रखता है , लेकिन यदि परहित में समाज के कष्ट निवारण के उद्देश्य से किया गया है तो कहीं अधिक श्रेष्ठ है। लेखन प्रेरक हो , अनुकरणीय हो , वैचारिक मंथन कराने वाला हो , किसी को दुःख देने के उद्देश्य से न किया गया हो , तथा समाज को दिशा देने वाला हो तो बेहतर है।
लेखन एक 'महाकुम्भ' है , और इस गंगा में गोते लगाने में एक स्वर्गिक आनंद है। ये लेखकों से बेहतर कौन जान सकेगा भला।
आभार।
लेखन के लिए एक प्रेरणा अवश्य चाहिए जो हमें परिवेश और परिस्थितियों से मिलती है। लेखक, विभिन्न स्तरों पर परिस्थितिजन्य , शौक के अनुसार , पीड़ा की गहनता के प्रेरित होकर अथवा समाज में व्याप्त अनियमितताओं से विचलित होकर लिखते हैं।
जब हम अपने परिवेश में हो रही घटनाओं से व्यथित होते हैं और उसमें बदलाव लाना चाहते हैं , लेकिन कहीं न कहीं उस बदलाव को लाने में अशक्त भी रहते हैं तो एक 'लेखक का जन्म' होता है। शायद अपनी बात ज्यादा लोगों तक लेखनी के माध्यम से पहुंचाकर समान विचारों वालों की एक जागरूक फ़ौज तैयार करता है और वैचारिक आदान-प्रदान की जो एक लहर चलती है , उससे बहुत से मकाम हासिल भी होते हैं।
सिक्के के दो पहलू होते हैं लेकिन आज किसी भी विषय के अनेक पहलू होते हैं इसलिए हर विषय को लेखक अपने नज़रिए से लिखता है और उसी विषय पर जब पाठकों के विचार शामिल होते हैं, तो अनेक अन्य पक्ष भी उजागर होते हैं , जो विषय को विस्तार एवं सार्थकता प्रदान करते हैं।
विभिन्न वय और परिवेश के लेखों द्वारा विभिन्न विचार और रचनायें पढने को मिलती हैं , कम उम्र लेखकों में 'कच्ची और गुनगुनी घूप' जैसे कोमल एहसास , और व्यस्क लेखकों द्वारा उनके जीवन के अमूल्य अनुभव और वैचारिक परिपक्वता के दर्शन होते हैं।
किन्ही रचनाओं में प्रेम की अद्भुत अभिव्यक्ति तो कहीं वेदना से भरी गागर, कहीं देशप्रेम से लबरेज़ लेखन तो कहीं भारत-स्वाभिमान जगाती रचनायें, कहीं ह्रदय को मथती हुयी यादें तो कहीं मस्तिष्क को मथते हुए वैचारिक आन्दोलन। लेखक को लिखने की प्रेरणा अपने परिवेश से मिलती है लेकिन उसका लेखन बहुत से लोगों के लिए अनेक क्षेत्रों में एक प्रेरणा का स्रोत भी बन जाता है। इसलिए निरंतर लेखन से धीरे-धीरे एक जिम्मेदारी का एहसास भी होने लगता है। लोगों की अपेक्षाएं बढती जाती हैं और उसके साथ ही एक लेखक की जिम्मेदारी भी ।
७-८ वर्ष पहले मैंने एक पुस्तक लिखने की सोची । विषय था 'AIDS"। मैंने सोचा सरल भाषा में एक पुस्तक होनी चाहिए , जिसमें हर तरह के छोटे-बड़े प्रश्नों के उत्तर होने चाहिए जिसे आम जनता समझ सके और जागरूक हो सके। मेरे साथ बहुत से लोग मेरे इस महा-अभियान में शामिल होगये। बहुत से अस्पताल और संस्थानों में विभिन्न प्रकार की जानकारी हासिल की। एक नए अंदाज़ में पुस्तक लिखने का विचार था। जब पुस्तक लिखना शुरू किया तो मन में विचार आया देख लूँ कहीं इस तरह की कोई पुस्तक पहले से तो नहीं उपलब्ध है । फिर क्या था , बनारस में 'FRIENDS' नाम की एक दूकान है जहाँ मेडिकल की पुस्तकें मिलती हैं। वहाँ पहुंची तो देखा हर विषय पर अनगिनत पुस्तकें उपलब्ध हैं । लिखने वाले बहुत हैं लेकिन पढने का शौक रखने वाले कम हैं। फिर लिखने का विचार त्याग दिया , सोचा पहले पढ़ा जाए फिर कुछ लिखा जाएगा। लिखने से ज्यादा पढना श्रेष्ठ लगा जो सीखने का अवसर देता है। बाद में लिखना शुरू किया जब महसूस किया की समाज को कुछ दे सकती हूँ। अपने अनुभव, विषयगत ज्ञान या फिर वैचारिक आन्दोलन ।
लेकिन एक बात सच है की लिखने के लिए एक 'पीड़ा' बहुत जरूरी है जो प्रेरणा का काम करती है। कभी कभी रचनाओं में व्यक्ति कि निज-व्यथा झलकती है, तो कभी समाज कि पीड़ा का वृहद् रूप दृष्टिगोचर होता है। जितनी असीम पीड़ा होगी उतना ही बेहतर लेखन होगा। जैसे-जैसे हमारा परिवार बड़ा होता जाता है हम पूरे समाज को अपने परिवार का अंग मानने लगते हैं , तभी उसके रिसते घावों कि पीड़ा को महसूस कर पाते हैं फिर स्वतः ही लेखनी उन पर मरहम कि तरह चलती है।
लेखन यदि स्वान्तः सुखाय है तो निसंदेह लेखक को खुश एवं प्रसन्नचित रखता है , लेकिन यदि परहित में समाज के कष्ट निवारण के उद्देश्य से किया गया है तो कहीं अधिक श्रेष्ठ है। लेखन प्रेरक हो , अनुकरणीय हो , वैचारिक मंथन कराने वाला हो , किसी को दुःख देने के उद्देश्य से न किया गया हो , तथा समाज को दिशा देने वाला हो तो बेहतर है।
लेखन एक 'महाकुम्भ' है , और इस गंगा में गोते लगाने में एक स्वर्गिक आनंद है। ये लेखकों से बेहतर कौन जान सकेगा भला।
आभार।
79 comments:
divya ji ,
vicharshilata ko karuna ko bandha nahin ja sakta hai , rachana dharm ,ek pargatishil ka sacha swarup hota hai ,bandhe ,roke nahin ruk sakta .yahi uska nihitarth hota hai . naishargik abhvyakti . hriday se aabhar ji.
.
लेखन थोड़ा त्याग भी माँगता है, डॉ. दिव्या.... जिसमें अपने सँसाधनों और पारिवारिक सुख का मोह त्यागना होता है । ऎसे लेखक अब नहीं होते । बहुधा तो लेखन यश की चाह में, या चँद वाह वाह कुछ आह आह के लोभ में आरँभ होता है । पाश्चात्यिकरण ने तो लेखन में ्व्यवसायिकता की अपार सँभावनायें खोल दी हैं, कुछ ही लोग आने वाली पीढ़ियों के निवेश के नाम पर कुछ लिखते हैं । ईश्वर का धन्यवाद कि उसने मुझे लेखन में धन के मोह से दूर ही रखा । ब्लॉगिंग का लेखन अधिक उत्साहित नहीं करता, क्योंकि यह आह आह व वाह वाह की धुरी के गिर्द चक्कर काटने लगा है । आलोचना को लोग आलू-चना से भी बदतर समझते हैं । स्वस्थ विकास कैसे सँभव है ?
"writing" gives extended image of one's inner feelings,rather say, soft copy of heart becomes hard copy,when it comes in contact with pen and paper.
kavi ya lekhak sara ka sara apna first hand anubahv nahin banchte...vo apane ird-gird hone wali ghatnaon ke prati samvedansheel hote hain aur dusaron ki vyatha-katha khud bhogate hain phir likhate hain...ek jindagi saari galtiyan karne ka samay nahin deti...isliye doosaron ke anubhavon ka laabh uthana chahiye aur lekhak ismein madad karta hai...
पुनःश्च -
लेखक को लिखने की प्रेरणा अपने परिवेश से मिलती है... इस पर मेरे विचार भिन्न हैं । इसी परिप्रेक्ष्य में यदि लिया जाये तो श्रव्य-साहित्य कहाँ जाकर ठहरेगा ? हो सकता है कि इनके रचयिता अक्षरहीन रहे हों किन्तु उनकी प्रतिभा की धमक आज तक बरकरार है ।
सुन्दर लेखन.स्वान्तः सुखाय,पर हित प्रेरित.आपका यह भाव बहुत अच्छा लगा कि
"लेखन प्रेरक हो , अनुकरणीय हो , वैचारिक मंथन कराने वाला हो , किसी को दुःख देने के उद्देश्य से न किया गया हो , तथा समाज को दिशा देने वाला हो तो बेहतर है।"
i agree with this here....." लिखने के लिए एक 'पीड़ा' बहुत जरूरी है जो प्रेरणा का काम करती है"....
each n every writer gets inspiration from some where, some times it can be from his/her own life and occasionally it can be from other's life too.....
Very well written Divya ji.
lekhan vykti ke soch kee abhivykti hai.........
pathak apanee soch rakhta hai........
apne vicharo ko le sabhee swatantr hai....
iseese kabhee kabhee........muthbhed dekhne ko mil jatee hai..........
..निंरतर लिखते-पढ़ते रहना ही बड़ी बात है। कमियाँ अपने आप सामने आती जायेंगी । मेरे लिखे को लोग पढ़ें और प्रतिक्रिया दें इसका लोभ तो सभी लेखक को होता है मगर यह लोभ लिखने के बाद हो तो अच्छा, लिखते वक्त हुआ तो लेखन चौपट हो जायेगा।
लेखन के लिए एक प्रेरणा अवश्य चाहिए जो हमें परिवेश और परिस्थितियों से मिलती है।
आपका कहना सही है ....लेखन में किसी दुसरे व्यक्ति की संवेदना को समझना और उसे अभिव्यक्त करना बहुत मायने रखता है .....आपका आभार
एक लेखक का 'जन्म' जीवन के किस पड़ाव पर होगा कुछ कहा नहीं जा सकता। ... लेखन प्रेरक हो , अनुकरणीय हो , वैचारिक मंथन कराने वाला हो , किसी को दुःख देने के उद्देश्य से न किया गया हो , तथा समाज को दिशा देने वाला हो तो बेहतर है।... bilkul sahi
यह कैसे होता है, यह तो मैं नहीं बता सकता। लेकिन नियमित रूप से कुछ भी लिखना आदत बन गया है। जब नहीं लिख पाता तो लगता है कुछ अधूरा छूट गया है।
लेखन एक सेल्फ एक्स्प्रेशन है -विचारों ,भावनाओं की अभिव्यक्ति और एक रिस्पोंस एक प्रतिक्रिया भी है एक पीड़ा से उत्पन्न । बहुत अच्छा लेख, लेखन पर ..
लेखन मन के उद्वेग से ही सृजित होता है लेकिन यदि दर्द समाजिक सरोकारों को लिए हो तब ही श्रेष्ठ बन पाता है। लेखन हमेशा सकरात्मक उर्जा देने वाला होना चाहिए। यदि रचना पढ़कर आप निराशा में डूब गए हैं तब ऐसा लेखन समाज को रूग्ण कर देता है। समाज की पीड़ा लेखन में आनी चाहिए लेकिन साथ ही उसका निदान भी रहना चाहिए।
अच्छी पोस्ट है.
लेखन शुभकर्म है. हमारे समाज में तो लेखकों की पूजा की जाती थी.
अब माहौल कुछ बदल गया है. लेखन फटाफट धन कमाने का जरिया बन गया है हांलांकि इसमें भी बहुत कम लोग ही सफल होते हैं.
लेखन के लिए दरकार तो प्रेरणा की होती है, लेकिन कब मिले, कैसे मिले, किससे मिले यह मुद्दा अलग है..
लेखन के उद्देश्य चाहे जो रहें लेकिन रहता यह स्व-प्रेरित ही है । धन्यवाद...
लेखन एक 'महाकुम्भ' है , और इस गंगा में गोते लगाने में एक स्वर्गिक आनंद है। ये लेखकों से बेहतर कौन जान सकेगा भला।
--
आपकी इस बात से सहमत हूँ!
सही कहा, लेखक कोई भी बन सकता है बशर्ते उसके पास कहने को कुछ हो तो
राम-राम जी,
एकदम सही कहा, काजल कुमार जी ने लेखक कोई भी बन सकता है
बशर्ते उसके पास कहने को कुछ हो तो, जिसे दुनिया पसंद भी तो करे?
इस में ना जाने कितनों ने डुबकी लगाई, कितने बह गये, कितने बच गये?
आपने सारी बातें कह ही दी है, कहने को जो कुछ शेष बचा था वे टिप्पणियों में मौज़ूद हैं। बस आपकी इन बातों ..
@ जितनी असीम पीड़ा होगी उतना ही बेहतर लेखन होगा।
. .. पर शेक्सपियर की बात याद आ गई, सोचा शेयर कर लूं .. अंग्रेज़ी में ही कहूं तो बेहतर होगा ..
''Write till your ink be dry, and with your tears Moist it again; and frame some feeling line That may discover such integrity.''
(तब तक लिखो जब तक स्याही सूख न जाए और तब इसे अपने आंसूंओं से फिर गीला कर लो, और कोई भावुक पंक्ति लिखो जो ऐसी प्रामाणिकता को खोज सके।)
@ ब्लॉगिंग का लेखन अधिक उत्साहित नहीं करता, क्योंकि यह आह आह व वाह वाह की धुरी के गिर्द चक्कर काटने लगा है । --- डॉ. अमर
इस पर मुझे यही कहना है ...
“जोदि केऊ तोहार डाक शुने ना आसे तबे एकला चलो रे!”
bahut achhi post sahamat hun aapse....
@ मनोज कुमार
ना दादा, से कोनो कथा नाय, आमि शुधु ब्लॉगिंग एटमास्फियरेर समिक्खा कोरेछी । ऎकला ता चोलतई होबे किन्तु एई ट्रेन्डे ब्लॉगिंग लेखार प्रवाहटा थेमे जाय ! इन टोटो ब्लॉगिंग लेखारजन्ये आर किछु चिन्ता आमार मोने भावछिलो ना !
मादा मच्छर के काटने से मलेरिया हो जाता है एड्स क्यों नहीं फैलता, जबकि रक्त आदान प्रदान होता है सुई यानी इंजेक्शन से हो जाता है
लेखन एक 'महाकुम्भ' है , और इस गंगा में गोते लगाने में एक स्वर्गिक आनंद है। ये लेखकों से बेहतर कौन जान सकेगा भला !!
लेखन एक 'महाकुम्भ' है , और इस गंगा में गोते लगाने में एक स्वर्गिक आनंद है। ये लेखकों से बेहतर कौन जान सकेगा भला।
शत प्रतिशत सहमत...
लेखन अगर सकारात्मक एवं रचनात्मक हो तो दुनिया को स्वर्ग बना सकता है पर अगर लेखनी में नकारात्मकता का समावेश हो तो वह स्वर्ग को नरक भी बना सकता है |
लेखन एक 'महाकुम्भ' है , और इस गंगा में गोते लगाने में एक स्वर्गिक आनंद है.... ये लेखकों से बेहतर कौन जान सकेगा भला ...
बेहतरीन अभिव्यक्ति ...पढ़कर सचमुच आनंद आ गया ... सुन्दर लेख आभार
हम्म.... लेखन सही में एक महाकुम्भ है......
बड़ा सामयिक लिखा है। लेखक बनने की प्रक्रिया पीड़ासित है, आपको जीवन के उन पहलुयों में डूबना पड़ता है जो बहुधा सरल नहीं होते हैं।
लिखने के लिए एक ‘पीड़ा‘ बहुत जरूरी है जो प्रेरणा का काम करती है। कभी कभी रचनाओं में व्यक्ति कि निज-व्यथा झलकती है, तो कभी समाज कि पीड़ा का वृहद् रूप दृष्टिगोचर होता है। जितनी असीम पीड़ा होगी उतना ही बेहतर लेखन होगा।
आपके इन विचारों से पूर्णतया सहमत हूं।
इस पीड़ा के अतिरक्त लेखक के पास सूक्ष्म अंतर्दृष्टि भी होती है जिससे वह प्रकृति और समाज के चेहरे की रेखाओं को आसानी से पढ़ लेता है और शब्दों में अभ्व्यिक्त कर देता है।
यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि आज दुनिया में जो कुछ अच्छा घटित हो रहा है उसमें दुनिया भर के श्रेष्ठ लेखकों के श्रेष्ठ विचारों का योगदान भी है।
दिव्या जी ,आपकी बात से काफ़ी हद तक सहमत हूं ।लिखने के लिये एक पीडा की जरूरत होती है ,जो हर बार अपनी ही नहीं होती है ।किसी की पीडा से व्यथित हो कर उन लम्हों को जी लीजिये तो तुरन्त आक्षेप लगने लगते हैं ।मेरा अपना अनुभव तो यही है कि इससे और कुछ हो अथवा न हो अपना मन तो हल्का हो ही जाता है और समय का सदुपयोग होता है ...भाषा और सोच में भी परिष्कार होता है ....आभार !
लिखने के लिए पढ़ना और काफी-कुछ त्यागना पड़ता है....जब दर्द अंदर से उठता है,तभी लेखन का उद्देश्य भी सार्थक होता है !
सत्य वचन , मै लिख नहीं सकता
मानस सागर में है उठता , जिन भावो का स्पंदन.
तिरोहित होकर वो शब्दों में, चमके जैसे कुंदन.
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (25-4-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
डॉ० दिव्या जी बहुत सुंदर लेखकीय विवेचन बनारस का जिक्र तो बी० एच० यू० वालों को मक्का से कम नहीं लगता लेकिन कितबिया आप अपनी लिख ही डालिए हम तो पहिले ही आप से कहे थे कि कोई उपन्यास लिख डालिए |आभार thanks with regards
डॉ० दिव्या जी भोजपुरी का एकाध शब्द मैंने जानबूझकर कमेंट्स में इस्तेमाल किया क्योंकि बनारस की बोली का भी अंदाज निराला है |
Lekhan ke saath sv-aanand juda rahta hai ... fir vo aanand kisi bhi roop mein ho ... saarthsak post hai aapki ...
लिखने वाले बहुत हैं लेकिन पढने का शौक रखने वाले कम हैं। फिर लिखने का विचार त्याग दिया , सोचा पहले पढ़ा जाए फिर कुछ लिखा जाएगा
...........
आज रविवार है मैंने सोचा रूस की वोल्शोविक क्रांति पर कुछ लिखूं मगर आप ने ये जो विचार यहाँ लिखा है वो सुबह मेरे मन में आया पहले थोडा और पढूं फिर सम्पूर्ण ज्ञान को साझा करू...बहुत सुन्दर विचार..
आशुतोष की कलम से....: मैकाले की प्रासंगिकता और भारत की वर्तमान शिक्षा एवं समाज व्यवस्था में मैकाले प्रभाव :
लेखन का काम करने वाले की सोच भाषा में आकार लेने की जल्दी मचाती है.
भाई हम तो लेखक वगेरा कुछ नही हे, लेकिन जब भी मन मे कुछ लिखने को आता हे, तो जेसा महसुस किया, ओर जेसा लिख पाये बिना सोचे लिख दिया, बाकी आप की बात से सहमत हे जी.
अति उत्तम ,अति सुन्दर और ज्ञान वर्धक है आपका ब्लाग
बस कमी यही रह गई की आप का ब्लॉग पे मैं पहले क्यों नहीं आया अपने बहुत सार्धक पोस्ट की है इस के लिए अप्प धन्यवाद् के अधिकारी है
और ह़ा आपसे अनुरोध है की कभी हमारे जेसे ब्लागेर को भी अपने मतों और अपने विचारो से अवगत करवाए और आप मेरे ब्लाग के लिए अपना कीमती वक़त निकले
दिनेश पारीक
http://kuchtumkahokuchmekahu.blogspot.com/
'लिखने की क्षमता' ईश्वर की एक असीम देन है...उसका सम्मान करना चाहिए और ईश्वर का शुक्रगुजार होना चाहिए.
लेखन एक 'महाकुम्भ' है , और इस गंगा में गोते लगाने में एक स्वर्गिक आनंद है। ये लेखकों से बेहतर कौन जान सकेगा भला।
excellent
निष्पक्ष होना और दिल से लिखना लेखन की गुणवत्ता का अहम् हिस्सा होता है.
लेखन में किसी दुसरे व्यक्ति की संवेदना को समझना और उसे अभिव्यक्त करना बहुत मायने रखता है| आभार|
पीड़ा से लेखन का सम्बन्ध ...?
मुझे लगता है, ईमानदार लेखक जिसका लेखन उद्देश्य, यश और धन न हो, बेहतर असर छोड़ने में कामयाब होगा ! शुभकामनायें दिव्या !
आपकी बात एकदम सही है. लेखन वैसे ही आत्मिक सुकून देता है जैसे कि संगीत या नृत्य ...
मेरी नयी पोस्ट
मिलिए हमारी गली के गधे से
विचारोत्तेजक आलेख.
बधाई स्वीकारें
Dearest ZEAL:
A fine post. Congratulations.
Writing is the element of giving form to thoughts in a presentable manner. Certainly you are very well endowed with the capability for such a deliverance. The success of your blog bears testimony to the fact.
Writing is an act of creation and that is its foremost virtue. Out of the stardust called thoughts, genesis leads to the creation of the universe of the written word – the readable, communicable, transmittable mode of conveying to all who may wish to partake the sharing.
With such a wide-arrayed potency of influencing things, writing casts upon the pen a responsibility of equal degree.
I differ with your thoughts in some aspects –
01] Readers are always manifold times more than the writers, at any point of time. The universal set of readers essentially comprises of all who are literate enough to make sense of the written word. Of this universe, there is a subset of few who think on issues. Further, from this subset, there are even fewer who happen to voice their thoughts. Going forward, it is just a subset of this, who may pick up the pen to give written words for their ideas. Eventually, only a minutest fraction of this have the writing printed and published far and wide.
02] Pain is simply incidental to and definitely nor a necessary neither a sufficient condition for writing. There is no correlation of pain to writing except where the author wants to cry, wail and weep through the written word for the sake of seeking sympathy. And in some cases, tears are shed at someone else’s pains. In such a case, it falls into the section of self-aggrandizement.
03] Given the amount of written literature available, the portion of it which may contribute successfully to societal betterment is extremely negligible. It makes good coffee-table reading material for the bourgeois but its utilitarian value is zilch.
All said and done, a very good article.
Semper Fidelis
Arth Desai
@ डॉ. अमर
दादा आमी तो आमार मोनेर कोथा शुधु बोले छिलाम। एई जे “ आह आह व वाह वाह ” एइ खाने चोलछे, ताके आमि दूर थेके नोमोश्कार कोरे --- राह पकड़ तू एक चला चल --- चोलेई जाच्छी।
The art of writing comes from the soul and then touches the souls...
a very good post for all writers and readers...
It should not hurt but heal the heart...
your post is always worth reading and adopting..
बहुत सुन्दर, भावपूर्ण लेख। साधुवाद। जी आप ठीक कहती है,लिखने की प्रेरणा के लिए हृदय के अन्दर स्थित एक मानवीय सहृदयता की पीडा विचार,लेख या कविता के रूप में प्रसवित होती है। तभी तो प्रसाद जी ने लिखा-
वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान।
निकल कर आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान।
लेखन कभी स्वांतः सुखाय के लिए तो कभी समाज को बदलने के लिए होता है। सृजन के उस पल को कभी प्रेरणा तो कभी परिस्थिति जन्म देती है॥
very positive .
लेकिन एक लेखक का 'जन्म' होता है, जो , जीवन के किस पड़ाव पर होगा कुछ कहा नहीं जा सकता। आज हर प्रांत, भाषा , व्यवसाय , और वय के लोगों को लिखते हुए देखती हूँ यही लगता है सृजन की एक अद्भुत क्षमता और नैसर्गिक इच्छा सभी में होती है।
ekdam satya vachan.....
jai baba banaras......
"सुबरन को खोजत फिरैं,कवि,कामिनी अरु चोर" .
सभी अपनी-अपनी तलाश में हैं.
विचार तो हर मस्तिष्क में जन्म लेते हैं,
जो भावों को शब्दों में पिरो ले वही कवि या लेखक.
प्रकृति का यह नैसर्गिक गुण ईश्वर ने सभी को नहीं दिया है.
जिन्हें मिला है उन्हें प्रकृति व ईश्वर का आभार मानते हुए
'बहुजन हिताय -बहुजन सुखाय'की भावना से रचना करनी चाहिए.
ब्लॉग लेखन में साहित्य का दर्शन होना ही चाहिए.
लेखन एक 'महाकुम्भ' है , और इस गंगा में गोते लगाने में एक स्वर्गिक आनंद है। ...
सही लिखा आपने...
तथ्यपरक एवं सारगर्भित लेख है.
लेखन के लिए एक प्रेरणा अवश्य चाहिए जो हमें परिवेश और परिस्थितियों से मिलती है। लेखक, विभिन्न स्तरों पर परिस्थितिजन्य , शौक के अनुसार , पीड़ा की गहनता के प्रेरित होकर अथवा समाज में व्याप्त अनियमितताओं से विचलित होकर लिखते हैं।
सही विवेचना आपने की है।
हार्दिक शुभकामनायें।
अच्छा लेख !
लेखन और लेखक पर आलेख अच्छा लगा !
I agree with every word written here. It is so true and inspiring
आपने बेहतरीन तरीक़े से लेखक के मनोभाव को समझा है और शब्दों में पिरोया है ।इसके लिये आपको कोटिश बधाई दिव्याजी ।
परहित में समाज के कष्ट निवारण के उद्देश्य से किया गया है तो कहीं अधिक श्रेष्ठ है।
सही कहा, यही तो योगदान है।
दिव्या जी, आप के विचारों से पूर्णतया सहमत हूँ. कुछ एक अपवादों को छोड़ दें तो लेखक के लिखे पाठक होना भी बहुत आवश्यक है. जिस प्रकार व्यक्तित्व के निर्माण में परिस्थितियों का महत्वपूर्ण योगदान रहता है उसी, प्रकार लेखक पर भी परिवेश और परिस्थितियों का प्रभाव रहता है. प्रेरणा, पीड़ा, कसक- ये सभी उत्प्रेरक का कार्य करते हैं. यों , लेखन आरम्भ करने से पहले किसी प्लानिंग की आवश्यकता नहीं होती , परन्तु भाषा , विचारों आदि में परिपक्वता समय के साथ ही आती है तथा इस दिशा में सतत प्रयास भी अपेक्षित रहता है. जैसा की आपने भी उल्लेख किया है, स्वांत सुखाय के साथ साथ, बहुजन हिताय भी लेखन का मूल मन्त्र रहना चाहिए. किसी को पीड़ा पहुँचाना तो सार्थक लेखन का मंतव्य है ही नहीं.
एक बार फिर, इस उत्तम लेख के लिए बधाई एवं शुभकामनायें !
शुभकामनाएँ एवं आशीर्वाद !
लेखन यदि स्वान्तः सुखाय है तो निसंदेह लेखक को खुश एवं प्रसन्नचित रखता है , लेकिन यदि परहित में समाज के कष्ट निवारण के उद्देश्य से किया गया है तो कहीं अधिक श्रेष्ठ है।...
बहुत सार्थक सोच..जब कोई दर्द, चाहे वह अपना हो या समाज का, अंतस को झकझोड़ देता है तो संवेदनशील मन उसे अपनी रचना के द्वारा अभिव्यक्त करने के लिये मज़बूर हो जाता है.
बहुत सुन्दर विवेचनात्मक आलेख..आभार
इस गंगा में गोते लगाने में एक स्वर्गिक आनंद है।
ekdam sahi boli aap.
निरंतरता और परिश्रम ही सफलता तक पहुचता है . जब भी लिखे यही समझे आप ही पहली बार लिख रहे है
You have not given any details , Zeal , as to the kind of blow you have had and what has upset you so much ! Hope every thing will turn out fine.
My good wishes are always with you.God ther Almighty will take care of every thing !
आपने सही कहा है ... लेखन एक महासागर है ... ज्यादा गहरे जाने को डर लगता है ...
Bahut hi badhiya tareeke se ek lekhak ke mann ke vicharon ko prastut kiya hai aapne...
अपने परिवेश के प्रति सजग प्रतिक्रियाओं का चिन्तन के माध्यम से जब उन प्रतिक्रियाओं का सामान्यीकरण होता है, तो लेखन अधिक प्रभावशाली होता है। सामान्यीकरण का स्तर जितना गहरा होता है, लेखन में उतना ही अधिक निखार आता है। बहुत अच्छा विषय आपने विवेचन के लिेए चुना और विवेचन भी विचारपूर्ण है। आभार।
namaskar ji
blog par kafi dino se nahi aa paya mafi chahata hoon
prernadayak lekhan bahut hi sahktishali hota hein
aabhar
आपने बिल्कुल सही लिखा है इस आलेख में ...।
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