Tuesday, April 26, 2011

स्त्री उपभोग की वस्तु नहीं है -- Do not treat her like commodity.

झगडा मत करना
झूठ मत बोलना
अहंकार मत रखना
विनम्रता का व्यवहार रखना
मधुर वचन बोलना और अहिंसा का पालन करना आदि आदि ...

ऐसे बहुतेरे उपदेश/संस्कार दिए जाते हैं , लेकिन कोई ये नहीं बताता की जब किसी स्त्री के साथ अभद्र या अश्लील व्यवहार तो ऐसी स्थिति में उसे क्या करना चाहिए ?

क्या चुप रहना चाहिए ?,
क्या लज्जावान सुशीला बनकर सबकुछ सहना चाहिए ?,
या अपने आप में तिरस्कार और अपमान सहकर घुटते रहना चाहिए ?
या फिर अदालतों में कभी मिलने वाले न्याय के लिए लड़ना चाहिए ?
या फिर पुरुष को श्रेष्ठ समझकर अपनी नियति को स्वीकार कर लेनी चाहिए ?

या फिर हिम्मत और साहस से काम लेकर सामने वाले को उसकी गलती का एहसास करा देना चाहिए ?
या फिर बिना डरे , बिना रोये , बिना स्वयं को कमतर समझे साहस के साथ , उस जड़ता प्राप्त , अज्ञानी , जाहिल एवं दुष्ट पुरुष को उसके कृत्यों की सजा दे देनी चाहिए , जिससे भविष्य में वो ऐसी हरकतें करे जिससे किसी स्त्री के सम्मान और शील को चोट पहुंचे ?
क्या उस महिला की तरह , जिसे विधायक ने त्रस्त कर रखा था , खून कर देना चाहिए ?
या फिर राजेश गुलाटी जैसे पुरुषों द्वारा शारीर के ७२ टुकड़े किये जाने का इंतज़ार करना चाहिए ?
या फिर अरुणा शानबाग की तरह बलात्कार के बाद ३७ साल तक कोमा में रहकर बलात्कार से भी बदतर जिंदगी जिया जाए ?
या फिर निशाप्रिया भाटिया की तरह की तरह न्याय व्यवस्था के हाथ का खिलौना बन कर तिल-तिल घुटना चाहिए?
या फिर मनु हत्या काण्ड या राठोर काण्ड की तरह पीडिता को आत्महत्या कर लेनी चाहिए ?

क्या "शठे शाठ्ये समाचरेत" का विकल्प नहीं अपनाना चाहिए जब नपुंसक हो रही व्यवस्था., स्त्री को सुरक्षा नहीं प्रदान कर सकती है तो ?
क्या बलात्कारी को मौत के घाट नहीं उतार देना चाहिए ? जब अदालतों के चक्कर ही लगाने हों तो पीडिता बनकर क्यूँ ? क्यूँ स्वयं ही सजा दे दो फिर मांगने दो दुर्जनों को न्याय की भीख अदालतों में
क्या स्त्री को उपभोग की वस्तु समझने वाले पुरुषों को उनका सही स्थान नहीं बता देना चाहिए ?
सेक्स के भूखे इन नामर्दों के शिश्न काटकर इनके गले में लटका देना चाहिए।

आज घरों में , ऑफिसों में, अस्पतालों में बस में , रेल में हर जगह स्त्री का शोषण हो रहा है। छोटी छोटी बच्चियों को भी ये दरिन्दे नहीं बख्श रहे क्या स्त्रियाँ इस उम्मीद में हैं कोई राजकुमार सफ़ेद घोड़े पर आकर उनकी रक्षा करेगा ? समय गया है अपनी रक्षा स्वयं करने का मत देखो उम्मीद भरी आखों से किसी की ओर कोई नहीं आएगा तुम्हारे अंतर्मन को समझने, तुम्हारे शील को बचाने अथवा तुम्हारे सम्मान की रक्षा करने।

एक सत्य घटना का उल्लेख कर रही हूँ , शायद किसी स्त्री को हिम्मत मिले --
उस समय मैं १२ वीं कक्षा की छात्रा थी , एक बार मैं एक जाने-माने नेत्र-विशेषज्ञ के पास , उनके आवास स्थित क्लिनिक पर विज़न -टेस्ट के लिए गयी उन्हें देखकर उनकी योग्यता से अभिभूत होकर किसी के भी मन में उनके लिए त्वरित सम्मान उत्पन्न हो जाए , ऐसा था उनका बाहरी व्यक्तित्व लेकिन असली चरित्र कैसा था ?
......कक्ष में करीब २० मरीज अपनी बारी आने के इंतज़ार में बैठे थे। डॉ साहब ने लेंस बदलकर जाँच करके चश्मे का नंबर देने के बजाये retinoscope द्वारा एक अनावश्यक जाँच की (एक ऐसा यंत्र जिसके द्वारा जाँच करते समय चिकित्सक एवं मरीज के चेहरों के मध्य बमुश्किल - सेंटीमीटर की दूरी रहती है)

फिर उन्होंने अपनी कुर्सी पर बैठकर कागज़ पर लिखना शुरू किया , चूँकि कक्ष में बैठे मरीज़ बहुत करीब थे , और कोई भी संवाद सभी को श्रव्य था इसलिए वे लिखकर संवाद कर रहे थे , जिसे केवल मैं पढ़ सकती थी। उसमें जो लिखा था उसे पढ़कर किसी का भी मन करता की इनको दो थप्पड़ मारकर इनका चरित्र सबके सामने ला दे।

लेकिन स्त्री की लज्जा, उसकी विवशता , उसे बहुत मजबूर करती है ज़रा सी भी उफ़ तक करने को। फिर मैंने क्या किया ? अपना परचा लिया और बहुत सफाई से उस कागज़ को भी उठा लिया जिसपर उनकी कारगुजारी की दास्तान उन्हीं की लिखाई में लिखी हुई थी।

वहां से बाहर निकलते ही , बिना विलम्ब किये उनके आवास के मुख्य द्वार पर जाकर घंटी बजायी। उनकी गरिमामय ५० वर्षीय पत्नी बाहर आयीं मैंने पूछा आप इस लिखाई को पहचानती हैं ? उन्होंने कहा हाँ ये तो डॉक्टर साहब की लिखाई लगती है। मैंने कहा - "उन्हीं की है , आराम से पढियेगा क्या -क्या लिखा है और रात का भोजन परसते समय ये कागज़ का टुकड़ा अपने स्वामी को देना मत भूलियेगा "

कहकर मैं वहां से चल दी बाहर मेरे भैया हतप्रभ खड़े थे , वो आज भी नहीं जानते की क्या हुआ था। हम घर वापस गए , फिर कभी वहां जाना नहीं हुआ। नहीं जानती उनकी पत्नी ने क्या किया। वो चिकित्सक सुधरे अथवा नहीं , लेकिन मुझे पूरा संतोष था की मैंने उन्हें समय रहते सही पाठ पढाया है।

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स्त्री की समाज में दुर्दशा का एक रूप --

औरत ने जनम दिया मर्दों को , मर्दों ने उसे बाज़ार दिए।
जब जी चाहा मसला कुचला, जब जी चाहा दुत्कार दिया।

तुलती है कहीं दीनारों में, बिकती है कहीं बाजारों में
नंगी नचवाई जाती है, उन ऐयाशों के दरबारों में
ये वो बेईज्ज़त चीज़ है जो , बंट जाती है इज्ज़त्दारों में
औरत ने जनम दिया.......

मर्दों के लिए हर ज़ुल्म रवाँ , औरत के लिए रोना भी खता
मर्दों के लिए लाखों सेजें , औरत के लिए बस एक चिता
मर्दों के लिए हर ऐश पर हक , औरत के लिए जीना भी सजा
औरत ने जनम दिया.......

जिन होठों ने उनको प्यार किया , उन होठों का व्यापार किया
जिस कोख में उनका जिस्म ढला, उस कोख का कारोबार किया
जिस तन से उगे कोपल बनकर , उस तन को जलीलोखार किया।
औरत ने जनम दिया .................

मर्दों ने बनायी जो रस्में , उनको हक़ का फरमान कहा
औरत के जिन्दा जलने को , कुर्बानी और बलिदान कहा
किस्मत के बदले रोटी दी , और उसको भी एहसान कहा
औरत ने जनम दिया ......................

संसार की हर एक बेशर्मी , ग़ुरबत की गोद में पलती है
सपनों ही में आकर ही रूकती है , ख़्वाबों में जो राह निकलती है
मर्दों की हवास है जो अक्सर, औरत के पाप में ढलती है
औरत ने जनम दिया................

औरत संसार की किस्मत है , फिर भी तकदीर की हेती है
अवतार पयम्बर जनती है , फिर भी शैतान की बेटी है
ये वो बदकिस्मत माँ है जो , बेटों की सेज पर लेटी है
औरत ने जनम दिया....................


http://youtu.be/WJAfEimtkHM

साहिर लुधियानवी जी का लिखा हुआ तथा लता मंगेशकर की आवाज़ में साधना फिल्म का ऊपर लिखा गीत सुनिएशायद समाज में स्त्रियों की दुर्दशा से रूबरू हों आप भी

आभार

142 comments:

vandana gupta said...

आपने सही किया मगर आज भी अभी औरतें इतनी साहसी नही हुई हैं……………लेकिन इसका सही उपाय आपने बता ही दिया कि जिल्लत से अच्छा है खुद ही न्याय की बागडोर अपने हाथ मे लेनी होगी शायद तभी कुछ होगा।

Sunil Kumar said...

जो अपने किया वह सब स्त्री नहीं कर सकती .अधिकतर इस कडवे घूंट को पी कर रहा जातीं यदि वह इसकी शिकायत भी करतीं तो उन्हें चुप रहने को कहा जाता योंकि वह स्त्री है | न्याय की बागडोर अपने हाथ मे लेनी होगी शायद तभी कुछ होगा मगर यह संभव नहीं दिखता....

सुज्ञ said...

ऐसा साहस हर महिला में आना चाहिए!

पर उससे पहले ऐसे साहस पर समाज को नाक भौ सिकोडने की जगह प्रोत्साहक नज़रिया अपनाना चाहिए।



सुज्ञ: ईश्वर डराता है।

नीलांश said...

anyay ko sahna nahi chahiye.....

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

"पर उपदेश कुशल बहुतेरे"
वाली ही बात है यह तो!
दावे तो बहुत किये जाते हैं मगर अमल में नहीं लाए जाते!
यही तो विडम्बना है!
--
समाज के सुधारकों को शायद इन सबसे कोई सरोकार नहीं रह गया है!

G.N.SHAW said...

दिव्याजी ....बहुत ही सुन्दर ढंग से ....आपने मर्दों की सच्चाई खोल दी ! पढ़ते - पढ़ते मेरा सर शर्म से झुक गया ! इस तरह के लोगो का गुप्तांग काट कर , बेघर करना ही उचित सजा होगी !

डा० अमर कुमार said...

.
टुकड़ों में टिप्पणी
1. निष्कर्ष आरँभ से ही आप हाथ की सफाई में माहिर हैं ;)
2. मेरी जानकारी में पहला ज्ञात स्टिंग ऑपरेशन आप द्वारा ही हुआ है :)
3.आपके आलेख को आँशिक रूप से समर्थन देती मेरी एक पोस्ट औरत का कोई देश नहीं पढ़ा क्या ?

Mohini Puranik said...

I will just say a big applaud For you Divyaji!

दिलबागसिंह विर्क said...

ऐसा साहस हर महिला में आना चाहिए!

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

bilkul aisa hi kiya jana chahiye... bas dikkat ye hai ki roopam pathak ne kuchh kar diya to uski koi sunane wala nahi...

अरुण चन्द्र रॉय said...

आपका विचार बिलकुल सही अहि.. बहुत बढ़िया आलेख... लेकिन स्त्री पर अंकुश लगाने में स्त्रीयों का हाथ भी बराबर का है...

डॉ टी एस दराल said...

झन्नाटेदार पोस्ट ।
आपने सही किया । इतना साहस तो दिखाना चाहिए ।
महिलाओं को स्वयं को अबला नहीं समझना चाहिए ।

OM KASHYAP said...

म्मत और साहस से काम लेकर सामने वाले को उसकी गलती का एहसास करा देना चाहिए
sahi kaha aapne

दर्शन कौर धनोय said...

बहुत कंम महिलाए है जो ऐसा कर सकती है एकदम नगण्य --हमारा समाज और परिवार भी ओरत को इतना बड़ा कदम उठाने की इजाजत नही देता ---ओरत हर जगह मजबूर ही है--

लेकिन अब हमे जागना ही होगा ?

संजय भास्‍कर said...

आपका विचार बिलकुल सही

महेन्‍द्र वर्मा said...

एक गंभीर सामाजिक समस्या पर सटीक चिंतन किया है आपने।
ज्ञान-विज्ञान में इतनी प्रगति के बावजूद स्त्रियों को उपभोग की वस्तु समझा जाना चिंताजनक है। समाज की इस कुधारणा को दूर करने के लिए अब स्त्रियों को ही साहस दिखाना होगा। अब कोई राजा राम मोहन राय या दयानंद सरस्वती का जन्म नहीं होगा।
स्थिति में, धीरे-धीरे ही सही, बदलाव आ रहा है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब स्त्रियों ने भय-सकोच छोड़कर साहस से काम लिया, स्वयं पर हुए अत्याचार के विरुद्ध लड़ाइयां लड़ीं और अत्याचारियों को सजा दिलवाईं या दीं। ऐसी साहस कथाओं का समाज में प्रचार-प्रसार आवश्यक है।

प्रतुल वशिष्ठ said...

स्त्री 'वस्तु' नहीं है ... न उपभोग की न ही उपयोग की.
वह तो 'व्यक्ति' है ... जो जैसा व्यक्त होती है वो वैसा मान पाती है.
'रूप' को व्यक्त करने वाली ............ रूपखोरों का शिकार हो जाती है.
'कंठ' को व्यक्त करने वाली ............ श्रोताओं की होकर रह जाती है.
बौद्धिकता व्यक्त करने वाली .......... बौद्धिक-राक्षसों द्वारा छली जाती है.
हाँ, इन्हीं रूपखोरों और बौद्धिक-राक्षसों के बीच कुछ ऐसे भी हैं जो तनिक रूप और बुद्धि विलास से हर्षित हो लेते हैं.

और ..... अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दौर में जो 'स्त्री' अव्यक्त रह जाती है ......... वह पिछड़ी कही जाती है.

नेत्र-विशेषज्ञ के पास
आपने अभिव्यक्ति को सजगता से ज़ाहिर किया....... एक बेहतरीन ढंग.
लेकिन सभी में ऎसी त्वरा-बुद्धि नहीं होती जो तुरंत समस्या का उचित हल ढूँढ ले. इसलिये राह वहीं है जहाँ चाह है.

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

दिव्या जी ,
अभिवादन स्वीकारें
आप ने जो अपना संस्मरण लिखा है , आज भी कमोवेश महिलाओं के साथ घटित होता है | बस आप जैसे साहस की जरूरत है जो दुर्भाग्य से सबमे नहीं होता | नारी का सम्मान होना चाहिए, यह कहते तो सभी हैं किन्तु वास्तविक जीवन में उसका अनुपालन नहीं होता |

अमृता प्रीतम जी ने अपने उपन्यास 'विष कन्या ' में लिखा है;'पुरुष लाख संयमी ,संस्कारी होने पर भी रात्रि की नीरव निस्तब्धता में सुन्दरी सहचरी का साहचर्य पाते ही हो उठता है ..वारवनिता सा धृष्ट,मुखर एवं निर्लज्ज |'
.....किन्तु आज तो स्थिति और भी भयानक है | mere vichaar से anuplabdh nyaay की pratiksha की jagah anyay का jordaar pratirodh और khud ही nipat lena uchit है |

Taarkeshwar Giri said...

एक अच्छा लेख.

लेकिन क्या ये सच नहीं हैं कि समाज को बिगाड़ने में स्त्री और पुरुष दोनों का बराबर हाथ हैं. बहुत से ऐसे समाज में स्त्रियाँ गलत कामो में लिप्त पाई जाती हैं. फिल्म industry कि हालत आपको अच्छी तरह से पता हैं, कम और भड़काऊ कपडे पहनना आज का फैशन हो गया हैं.

दोष देने से अच्छा हैं कि हम आने वाली पीढ़ी को सही रास्ता दिखाए , जिससे कि आने वाली पीढ़ी के समय में बलात्कार या महिलावो का अपमान ना हो.

गौरव शर्मा "भारतीय" said...

आपने बिलकुल सच कहा है:-
"क्यूँ न स्वयं ही सजा दे दो फिर मांगने दो दुर्जनों को न्याय की भीख अदालतों में।"
आज के परिवेश में वाकई हर स्त्री को आत्मनिर्भर बनकर ऐसे दरिंदों को स्वयं सबक सिखाना होगा और कई मामलों में ऐसा हो भी रहा है ...........बहरहाल आपके सार्थक पोस्ट से आज बहुतों को अन्याय के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने की हिम्मत मिलेगी |
सादर आभार स्वीकार करें...

मनोज कुमार said...

विचारोत्तेजक, और प्रेरक आलेख।
आपके द्वारा उठाया गया क़दम बिल्कुल सही थी। ऐसे लोगों को सबक सिखाना ही चाहिए।
समाज के ऐसे बहसी-दरिंदों का सामाजिक बहिष्कार होना चाहिए।

Rahul Singh said...

आशा है, अगली पोस्‍ट कुछ अच्‍छे उदाहरणों के साथ होगी, वरना मनोहर कहानियां और सत्‍यकथा के नाम पर तो यह सब पढ़ने को मिलता ही है.

Kailash Sharma said...

बहुत सच कहा है. स्त्री कोई वस्तु नहीं है. उसको अपने अधिकार और सम्मान के लिये खड़ा होना होगा और हमें इसमें उसका भरपूर साथ देना होगा. बहुत सार्थक पोस्ट..आभार

वीना श्रीवास्तव said...

आपने बहुत सही किया.....साहस तो होना ही चाहिए...

udaya veer singh said...

whenever we say nari, i mean Indian woman, entire desire relates a woman in boundaries of so called
morality ,sanskar , follower of superstition ,e.t.
thats-why we wish to confine them ,and we use to impose a lot of sanction . It has to abolish from seen . The Nari is always a center of power,& Temple of respect . Very good issue .thanks ji.

आपका अख्तर खान अकेला said...

sahi frmaaya . akhtar khan akela kota rajsthan

ashish said...

जैसा को तैसा वाला व्यव्हार तो करना ही चाहिए दरिंदो के साथ . आपने सच में साहसिक कदम उठाया . मन अभिभूत हुआ .

SANDEEP PANWAR said...

दिव्या जी नमस्कार औरतों के हक के लिये एक और बेहतर लेख,
आपने इस लेख में एक रहस्य छुपा लिया कि उस पर्ची में क्या लिखा था,
उस डाक्टर की पत्नी ने भी कुछ किया या नहीं आप एक बार जान तो लेते ही।

ZEAL said...

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Rahul Singh said...

आशा है, अगली पोस्‍ट कुछ अच्‍छे उदाहरणों के साथ होगी, वरना मनोहर कहानियां और सत्‍यकथा के नाम पर तो यह सब पढ़ने को मिलता ही है.
April 26, 2011 8:27 PM

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@ राहुल सिंह --

आपके वाहियात कमेंट्स हर पोस्ट पर पढ़ती हूँ और काफी बर्दाश्त करती हूँ। आप जैसे पुरुषों को ही स्त्रियों की भलाई से तकलीफ होती है । मनोरमा और सत्य कथा आप पढ़ते होंगे , मैंने तो अब तक की जिंदगी में इन किताबों के पृष्ठ भी नहीं पलटे।

आपके ब्लॉग पर तो मंदिरों और ऐतिहासिक बिल्डिंग्स के उल्लेख मिलते हैं वो मुझे ज़रा भी दिलचस्प नहीं लगते । लेकिन आपकी तरह किसी के लेखों को व्यर्थ नहीं कहती।

आप मेरी किसी पोस्ट पर अपने स्वादानुसार लेख की उम्मीद मत कीजिये। मैं मुद्दों पर लिखती हूँ। और स्त्री होने के नाते स्त्री के लिए जीवन पर्यंत लिखती रहूंगी । आपको पसंद नहीं तो मत पढ़ा कीजिये। आपकी रूचि को ध्यान में रखकर नहीं लिखती हूँ। समाज में जिसकी ज़रुरत है उसके लिए लिखती हूँ।

आशा है आप अपनी टिप्पणी करने का अंदाज़ बदलेंगे ।

शुक्रिया।

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Maestro-2011 said...
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Amit Chandra said...

आपका हर एक लफ्ज सर आखों पर । माना कि महिलाओं को प्रताड़ित करने में पुरूषों का हाथ है। पर महिलाए भी महिलाओं को प्रताड़ित करने में पीछे नही रहती। आपने जैसा कहा वैसे मर्द शायद हर घर में ना हो पर ऐसी महिलाएॅ जो महिलाओं को प्रताड़ित करती हैं सौ में से नब्बे घरों में होती है। प्रताड़ना तो प्रताड़ना होती है फिर वो चाहे सेक्सुअल हो या फिजिकल या फिर मेंटल।

सूबेदार said...

बहुत अच्छी पोस्ट कभी-कभी मै सोचता हु की वेदों की रिचाओ को लिखने वाली गार्गी के सामान ही शाहस है आपमे ज्ञान वर्धक व सार्थक लेख.

Vaanbhatt said...

abhi tak mai soch raha tha ki aapne profile per iron lady kyon declare kar rakha hai...ab samjh aaya...शठे शाठ्ये समाचरेत...vaise ab ye avdharna badal rahi hai ki naari upbhog ki vastu hai...aaj ki naari sajag hai...aur usane ghar aur bahar apani yogyata ko siddh bhi kiya hai...

kshama said...

Apni napunsak nyay waywastha ko dekh,ghussa to bahut aata hai...wahee angrezon ne banaye hue ghise pite qanoon chale aa rahe hain!
Khair! Mahilaon ko apraadh bodh kaa shikar to qatayi nahee hona chahiye.

Rakesh Kumar said...

प्रश्नों की झड़ी लगादी है आपने. यूँ लगता है जैसे ज्वालामुखी का विस्फोट हुआ हो.मोह और अज्ञानवश मनुष्य जानवर से भी बदतर हो जाता है.क्या निदान है इन सब प्रश्नों का ? क्या केवल प्रतिशोध ही एकमात्र उपाय है ?
जो लोग कुकृत्य करतें हैं उनका प्रादुर्भाव और पोषण कहाँ से शुरू होता है.शायद खुद उनके घर से,उनके माँ बापों की लापरवाही से,समाज में मीडिया और फिल्मों द्वारा खुलेआम अश्लीलता परोसे जाने से.
जब कुछ स्त्रियाँ नग्न और अश्लील प्रदर्शन करने में ही अपना जौहर और कला मानती हैं तो वे किस मानसिकता को जन्म देती हैं.हमारा बचपन ही कलुषित और प्रदूषित होता जा रहा है.बलात्कार,स्त्री-शोषण आदि तो उस कलुषिता , प्रदूषण और अज्ञान रुपी वृक्ष के फल मात्र हैं.आसुरी सम्पदा को बोने से दैवी सम्पदा तो पैदा नहीं हो सकती.

आपकी आक्रोशपूर्ण आँखें खोलती पोस्ट के लिए बहुत बहुत आभार.

Darshan Lal Baweja said...

vaah ...

ethereal_infinia said...

Dearest ZEAL:

The issue addressed through this post is really very pertinent in the society in light of the crimes against the female gender, regardless of her age and stature.

However, the example cited is extremely imprudent. This is not an advise but an anguish - With all your intelligence, you should have desisted from such a sharing.

What happened with you is indeed improper and sincerest sympathies of each and every one will be with you. However, fact remains that the doctor never learnt the lesson you thought you taught because he was merely a predator. Just as in a jungle, if one prey escapes, the hunter simply picks up the next and awaits for a chance once again to snare the escaped prey.

Were you able to save the next? Ask yourself.

And the most saddening line for me in this entire post - बाहर मेरे भैया हतप्रभ खड़े थे , वो आज भी नहीं जानते की क्या हुआ था।

People at large are made privy to it. Sigh.


Semper Fidelis
Arth Desai
1107

राज भाटिय़ा said...

एक बहुत सुंदर सवाल? अब क्या जबाब दे.... इस दुनिया मे सिर्फ़ स्त्री ही अकेली दुखी नही, मर्द भी दुखी हे... मुझे समझ नही आता स्त्री हो या मर्द हो ऎसे लोगो को अपने घर को आशांति का आड्डा बना कर अपनी ओर पुरे परिवार की जिन्दगी बर्वाद कर के मिलता क्या हे,खराब या लडाई करने वाला, जिन्दगी बर्वाद करने वाला तो एक ही होता हे, लेकिन उस का फ़ल एक नही पुरा खानदान भुगता हे,जब उन मे से एक को बोले की तुम तलाक क्यो नही ले लेते, तो उस सहने वाले का जबाब सुन कर आदमी अपना माथा पीट ले... एक नही कई नमुने हमने देखे हे, बहुत से उदाहरण हे...मैने इस बारे सोचना ही छोड दिया

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना said...

बाप रे ! दिव्या ! ! !
तड़-तड़-तड़ ....मेरे कान तो झन्न हो गए. अब कुछ सुनायी नहीं दे रहा .

या देवी सर्व भूतेषु ''दिव्या'' रूपेण संस्थिता
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः /

Gopal Mishra said...

आपकी बात में सच्चाइ है. जब मैंने भी बच्चियों के साथ बलात्कार कि ख़बर सुनी थी तो मेरा खून खौल उठा था. ऐसे लोगो को तो जो सजा दी जाये कम है.
And i really appreciate the courage and presence of mind that you showed.

Gopal Mishra
www.achchikhabar.blogspot.com

ZEAL said...

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@ अर्थ देसाई -
आपका कहना सही है । लेकिन दो काम एक साथ नहीं हो सकता , यदि मैं सिर्फ अपनी भलाई सोचूंगी तो समाज के बारे में पूरी निष्ठां से नहीं सोच सकूँगी।

" हवन करने में उँगलियाँ तो जलती ही हैं "

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आशुतोष की कलम said...
This comment has been removed by the author.
आशुतोष की कलम said...

दिव्या जी..
मैं मन की ही लिखता हूँ बुरा लगे तो खेद है..आप की पोस्ट की सिर्फ चंद लाइन पढ़कर ही कमेन्ट कर रहा हूँ..क्युकी पढ़ ने की कोई इच्छा नहीं हुई ..
आप का विषय चयन या लेखन शैली पर प्रश्न नहीं उठा रहा हूँ..मगर शायद हजारों पोस्ट होंगी इस समस्या पर और महिला दिवस पर ब्लागजगत पट जाता है..
समाधान क्या है इसका??सब यही समझते है की उपभोग की बस्तु है(कुछ अपवाद छोड़ कर) हाँ शायद कुछ लोग एक गरिमामयी टिप्पणी छोड़ कर चले जाए आप के ब्लॉग पर...
क्यों नहीं आप इस परिस्थिति को बदलने के एक समाधान के साथ आती है??? जिससे सचमुच कुछ भला हो सके..आप के अनुयायी भी काफी है तो आप को आप इस मार्ग में सफलता ही मिलेगी..

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

मैंने अपनी टिप्पड़ी में 'विषकन्या' उपन्यास की लेखिका , भूल से अमृता प्रीतम जी को लिख दिया है जबकि इस उपन्यास की लेखिका 'शिवानी जी ' हैं | कृपया भूल सुधार स्वीकारें |

ZEAL said...

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आशुतोष जी ,

बुरा मुझे कुछ लगता नहीं , उलटे लोगों को ही मेरा उत्तर बुरा लग जाता है , इसलिए मुझे कोई चिंता नहीं की कौन क्या कह रहा है । अपना काम है लिखना, कुछ सकारात्मक परिणाम आएगा ही ।

आपने पूरी पोस्ट पढ़ी नहीं तो आपको समाधान क्या दिखेगा भला ? मेरी हर पोस्ट , हर विषय और हर मुद्दे पर समाधान अवश्य होता है ।

धन्यवाद।

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सम्वेदना के स्वर said...

आपके साहस के बारे में जानकर बहुत अच्छा लगा।

एक बात समझ लेने जैसी है, जब तक स्त्री सत्ता में अपनी भागीदारी नहीं ले लेती तब उसकी स्थिति में कोई आमूल-चूल बदलाव नहीं आ सकता। सत्ता मतलब दिल्ली ही नहीं वरन घर परिवार की सत्ता भी है। बहुत हुआ तो अब कहीं कहीं वह निर्णयॉ को प्रभावित करने की स्थिति में है जबकि उसे स्वमं निर्णय लेने की स्थिति में आना चाहिये। इस सबके लिये एक आवश्यक तत्व है कि स्त्री आर्थिक रूप से सक्षम हो, आर्थिक स्वतंत्रता के बगैर नारी इन अत्याचारों से मुक्त नहीं हो सकती।

एक आंकलन के अनुसार विश्व की कुल आर्थिक सम्पदा का मात्र 3% ही स्त्रीयों के पास है। आप समझ सकतीं है कि यह लड़ाई कितनी लम्बी होने वाली है। शुभकामनायें!!

aarkay said...

अपने आपको सशक्त बनाने हेतु महिलाओं को स्वयं ही आगे आना चाहिए या यों कहिये आना पड़ेगा. आपने एक अच्छा उदाहरण प्रस्तुत किया है . परिस्थितियों की मांग अनुसार ऐसा साह्स हर महिला को दिखाना चाहिए.

सार्थक लेख के लिए बधाई !

ZEAL said...

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चैतन्य जी ,

आपकी बातों से पूर्णतः सहमत हूँ। स्त्री यदि स्वयं नहीं जागेगी , खुद को नहीं पहचानेगी , साहस नहीं दिखाएगी , डर कर रहेगी , लोगों की बकवास बर्दाश्त करती रहेगी , तो आने वाली कई सदियों तक ऐसे ही सोने के पिंजरे में दलित और गुलामों माफिक ज़िन्दगी गुजारेगी।

निसंदेह यह एक बहुत बड़ी लडाई है , शायद भ्रष्टाचार से भी बड़ी । इसीलिए इस मुद्दे पर समय समय पर लिखना और जागरूक करना आवश्यक है । चाहे किसी को भी ये विषय कितना ही बासी और उबाऊ क्यूँ न लगे।

पुरुष अथवा स्त्री , जो भी स्त्री की दुर्दशा से अवगत हैं वे इस विषय को गंभीरता से लेते हैं और अपने विचारों द्वारा सकारात्मक योगदान देते हैं । शेष लोग लेखिका के श्रम को बासी एवं व्यर्थ कहकर उसके मनोबल को तोडना चाहते हैं।

लेकिन अब जब ओखली में सर दे ही दिया है तो मूसल से क्या डरना ।

.

aarkay said...

पुनश्च , आपने प्रख्यात शायर और गीतकार ' साहिर ' लुधियानवी के गीत के बोलों को यहाँ प्रस्तुत कर बहुत अच्छा किया है. उल्लेखनीय है कि सदा अपनी माँ का साथ देने वाले तथा महिलाओं के प्रति संवेदनशील इस शायर का जन्म दिन ८ मार्च को पड़ता है जो कि महिला दिवस के रूप में भी मनाया जाता है

ZEAL said...

.

Aarkay Sir,

Thanks for this beautiful piece of information . It was new to me.

I heard the song several times since yesterday with tears in eyes.

One should be sympathetic and considerate towards women

regards,

.

मुकेश कुमार सिन्हा said...

uff !! kitna gussa hai aapke andar:)
par ye bhi sach hai Dr. divya ....sare log aisa nahi sochte..kuchh logo ke soch me hi stri upbhog ki vastu ho sakti hai............aur sach kahun to kuchh striyon ke liye purush ke prati aisee soch hai...!

yani mere kahne ka tatparya ye hai ki jab jindagi jeenee hai to jhelna hi parega....par haan aapne uss netra visheshgya ko jo path padhaya ...wo yaad rakhne yogya hai:)

hats off!

Unknown said...

har purush aur har naari ek jaise nahi hote pure ka pura purush samaj galat nahi ......kuch apwado ko .......kar

yahi baat har naari par lagoo hoti hai kuch naario ke galt hone se puri ki puri naari jaati ko kiya galat maan lena chahaya......??????

bahut dino ke baad ek vivadit post padhi ......

jai Baba Banaras......

ZEAL said...

पुर्वीय जी ,
लेख कभी विवादित नहीं होते। टिप्पणीकार की मानसिकता उससे विवादित कमेंट्स लिखवाती है । ये लेख आम आदमी की समझ से बाहर है । इसे केवल संवेदनशील व्यक्तित्व के धनी लोग ही समझ सकेंगे। अच्छे और संवेदनशील लोगों की कमी नहीं है ब्लॉग-जगत में।
शुक्रिया।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

यह एक विडम्बना ही है कि यदि किसी को अपमानित करना है तो उसकी स्त्री को पकडो.... जुर्म चाहे किसी का भी हो, दण्डित तो महिला ही होती है :(

Sushil Bakliwal said...

डा. वाले इस प्रकरण में भी क्या ये अधिक बेहतर नहीं होता कि उसकी पत्नि को पत्र देने की बजाय क्लिनिक में सभी पेशेन्ट्स के मध्य पंचम स्वर में सुनाकर उस डाक्टर की वहीं लू उतारी जाती ।

सदा said...

दिव्‍या जी, आपने बिल्‍कुल सही किया ... इस तरह का साहस हर एक में नहीं होता ... एक सच जिसे हमेशा की तरह आपने बेहतरीन तरीके से प्रस्‍तुत किया है .. प्रेरणात्‍मक कहा जाये .. ।

ZEAL said...

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@--डा. वाले इस प्रकरण में भी क्या ये अधिक बेहतर नहीं होता कि उसकी पत्नि को पत्र देने की बजाय क्लिनिक में सभी पेशेन्ट्स के मध्य पंचम स्वर में सुनाकर उस डाक्टर की वहीं लू उतारी जाती ।

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सुशील बाकलीवाल जी ,

यदि आज का दिन होता तो अब इतनी हिम्मत आ चुकी है की उसकी पोल सभी के सामने खोल सकती हूँ, लेकिन तब इतना साहस नहीं कर सकी । शायद मन में ये भय भी था , की डॉ के इंतज़ार में बैठे मरीज़ डॉ के खिलाफ कुछ नहीं बोलेंगे, उलटे अपनी ही बदनामी होगी।

लेकिन पत्नी के सामने तो उसकी नाक ज़िन्दगी भर के लिए कट ही गयी।

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shikha varshney said...

ऐसे डॉ एक ढूंढो हजार मिलते हैं.आपने अच्छा किया सहस दिखाया.यही इलाज है इनका.

दीपक बाबा said...

जील जी आपके ब्लॉग पर आते रहे ..... पर टीप देने से बचा कर ले जाते है, सही बताएं तो आप जैसी निर्भीक ब्लोग्गर की प्रति टीप से घबराते हैं... पर आज मजबूर हूँ, आपके लेख से कुछ याद आ गया..... वाकया है दिल्ली के एक नामी गिरामी अस्पताल में, मैं भी आँख के निरक्षण हेतु गया था, जांच हेतु, सही बताये तो जो डॉ थी वो आधुनिकता के पहनावे में थी ...... और जब उस मशीन पर retinoscope आँख चेक करने का समय आया तो मोहतरमा - अजीब सा मुहं बनाये.... अरे जब आप में सहशीलता नहीं है तो - काहे इस पेशे में आये..... और ये बात मैंने बोल भी दि. मामला कहीं भी एकतरफा नहीं होता.......

G Vishwanath said...

Just read the post and all comments so far.

This doctor is an idiot indeed in addition to being a sexual predator.
Imagine leaving behind irrefutable evidence of his misdeed!
Modern doctors who misbehave are smarter. They would not give their victims an opportunity to prove their misdeed.

Luckily for him you were only 12 years old and he didn't believe you could teach him a lesson. But I am apalled and disgusted at his looking at a 12 year old girl with lust in his eyes. Most men of that age, I assure you, would be protective, and any affection displayed will be fatherly affection. But there are exceptions and there is a predator lurking in the minds of some men, Unfortunately such men do not wear a badge for easy identification.

If this had happened today, obviously, you would have retained that piece of paper as evidence and taught him the lesson of a lifetime.

I don't think his wife could have done anything about it. If she was 50 years old, then she must have had sufficient previous experience of his errant ways and was also perhaps a helpless victim of her husband's indiscretions. I am sure you were not the first of this scoundrel's victims. She must have resigned herself to the situation. Who knows, she must have destroyed that evidence too as an act of defense if the matter became public, I won't be surprised if such women publicly defend their husbands though they may despise him privately. Family honour at stake makes them tolerate such things.

I am simply disgusted at the lust that overcomes many men, particularly in older men.
I sometimes feel, those men who cannot control their lust, do not deserve to have that instinct in them. Castration is my solution for rape and sexual crimes against women particularly against children.
Barbaric? Medieval? Crude? May be, but I don't think imprisonment works as a deterrent.

Thanks for boldly sharing your experience. I am sure many women have undergone traumatic experiences like this in their lifetimes. They are too shy or ashamed to admit it for fear of being made victims of society later after becoming a victim of a sexual predator.

Isn't it a pity that many times, women themselves are blamed for the mishaps that befall them?
How many times have we heard the following dialogues?

Why did you go out alone at this time of the night? Why did you not get back home before dark? Why are you wearing that dress? Why are you standing on the balcony where roadside Romeos can look at you and whistle at you? Quick, Go inside? etc etc.

The misbehaviour is indulged in by men and the blame is put on the women!
Some men are horrible indeed.

Good writing.
Regards
GV

rashmi ravija said...

बढ़िया आलेख है...अब महिलाओं में थोड़ी-थोड़ी हिम्मत आ रही है....और इसी की जरूरत है.

ZEAL said...

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@- दीपक --

आपको लिखी गयी प्रति-टिप्पणी खेद के साथ हटा ली है। आपको जो कष्ट हुआ उसके लिए करबद्ध क्षमाप्रार्थी हूँ-आभार।

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ZEAL said...

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विमर्श में प्रति-टिप्पणियों की उपादेयता ...

कुछ विषय ऐसे होते हैं , जिन पर विमर्श आमंत्रित होता है । विमर्श के दौरान लोग अपने विचार रखते हैं , उनके विचारों पर अन्य पाठक अथवा लेखक अपने विचारों को पुनः रखते हैं । इस प्रकार विचारों के आदान-प्रदान से व्यक्ति के विचारों को आयाम मिलता है , ज्ञानवृद्धि होती है तथा एक दुसरे को बेहतर समझने में मदद भी मिलती है। और सबसे बड़ी बात , विषय के साथ न्याय भी होता है ।

कभी-कभी कुछ लोग प्रति-टिपण्णी मिलने पर नाराज़ हो जाते हैं। इसलिए प्रति-टिपण्णी लिखने में डर सा लगता है।

मेरा आप सभी से ये प्रश्न है की क्या -

* लेख लिखने के बाद लेखक अथवा लेखिका को मौन धारण कर लेना चाहिए ?
* क्या विषय को विस्तार देने के लिए यदि कोई नयी बात मस्तिष्क में है तो भी नहीं लिखनी चाहिए?
* क्या प्रति-टिपण्णी मिलने पर टिप्पणीकार का बुरा मानना उचित है ?
* क्या लेखक को ये अधिकार है की वो अपने ऊपर आई व्यक्तिगत टिपण्णी पर आपत्ति करे ?
* क्या प्रति-टिपण्णी में सिर्फ यही उचित है की ....आपका आभार , पुनः आइयेगा , स्नेह बनाए रखियेगा , आदि-आदि ....


मेरे विचार से किसी भी विषय पर विमर्श के दौरान लेखक अथवा प्रतिभागियों को एक से ज्यादा बार अपनी बात लिखने अथवा कहने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। टिप्पणियां जितनी अहम् हैं , प्रति-टिप्पणियां भी उतनी ही उपादेय हैं । बस इतना ध्यान रखें की अपने विचार रखते समय किसी पर व्यक्तिगत आक्षेप न करें , तथा अपनी शैली को शिष्ट एवं शालीन रखें ।

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ZEAL said...

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http://zealzen.blogspot.com/2011/03/blog-post_12.html

Thanks.

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ZEAL said...

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GV Sir,

Zillion thanks to you for this beautiful comment of yours. It has enhanced the beauty of the post and has made it more meaningful.

I wish all the men on earth can become sensitive , compassionate and considerate towards women, the way you are .

thanks and regards,

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शूरवीर रावत said...

........डॉक्टर पर बात आयी तो एक ऐसा डॉक्टर हकीकत में मैंने भी देखा है सरकारी अस्पताल में. जब डॉक्टर एक महिला का ताप नापने के लिए कलाईयाँ या माथा छूने की बजाय गर्दन और गर्दन के नीचे हाथ फेर रहा था........... फिर क्या हुआ, क्या नहीं हुआ,लम्बी कहानी है. किन्तु हाँ ! समाज में ऐसे वासना के कीड़े हैं जो अपने पेशे को बदनाम कर रहे हैं......... इतना खुलकर लिखने और सार्थक लेख के लिए आभार दिव्या जी ! ............. अनेकानेक शुभकामनायें.

GL Bhagat said...

it is our ill luck that our human society had been developed on immoral creation of humanity.juhu; gayatri;bhagwati; attah; shakti; maha-shakti are all one and the same and regarded as Supreme Souls, knowing the socio-economic compulsion forced upon the weaker sex have thrusted all vices that all of reflect in our view. let us wait for the renwal of the universe to regain the self respect we expect for the humanity.

your one word reply in most of the comments is hereby endorced to the concept of your vision.

god bless you.

Maestro-2011 said...
This comment has been removed by the author.
मदन शर्मा said...

देर से आने के लिए क्षमा चाहता हूँ. पूरी तरह सहमत हूँ आप से !!
अपने आपको सशक्त बनाने हेतु महिलाओं को स्वयं ही आगे आना चाहिए.
जब तक महिलाएं अबला वाली मानसिकता को नहीं बदलेंगी तब तक उनका कल्याण नहीं हो सकता.

Dr Varsha Singh said...

Do not treat her like commodity.

You are absolutely right.

Khushdeep Sehgal said...

लता जी की आवाज़ ने इस गीत को खूबसूरती बख्शी है लेकिन इस गीत के जन्मदाता साहिर लुधियानवी का ज़िक्र करना भी ज़रूरी है...

जय हिंद...

sumeet "satya" said...

Bahut Badhiya.......accha sabak sikhaya.....Gal pe do tamache bhi dene chahiye the...You Behaved like a iron lady

ZEAL said...

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@-लता जी की आवाज़ ने इस गीत को खूबसूरती बख्शी है लेकिन इस गीत के जन्मदाता साहिर लुधियानवी का ज़िक्र करना भी ज़रूरी है॥
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खुशदीप जी ,
गीतकार का नाम एडिट कर दिया है , आपका शुक्रिया। लेकिन आपने विषय पर कुछ नहीं लिखा , अपने विचार भी लिखते तो अच्छा लगता।

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ZEAL said...

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G L Bhagat ji ,

Thanks Sir.

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amit kumar srivastava said...

too sensitive post to make any comment...anyway...
simply one word "AGREED"

Maestro-2011 said...
This comment has been removed by the author.
A.G.Krishnan said...

Good Job Done, keep it up and continue to inspire all.

A.G.Krishnan said...

Just Laugh :-

Ronie, the 7 yrs. old naughty son is on board a flight with his Dad (Minister of Aviation)…running here n there, making noise. Airhostesses are trying to catch and make him sit as the flight is about to take off but he’d not listen. He sees something unusual and comes to his Dad who is surrounded by airline officials, press etc.

Ronie (shouting) : Dad.

Dad : Just wait I’m busy son…….enjoy yourself.

Ronie : I wanna give you some breaking news.

Dad : Keep quite......I’ll come to you.

Ronie : No Dad……it's serious I need to talk to you right now.

Airhostess comes and drags Ronie away; there is a big roar and flight takes off. After a while, Ronie comes to his Dad).

Dad (smiles) : You wanted to say something………..very serious ?

Ronie : Come on Dad, it’s no more serious now, God is with us.

Dad : Tell me exactly what happened ?

Ronie : Didi is flying plane alone.

Dad : Which Didi ?

Ronie : Don’t you remember…..…Rashmi Didi, daughter of Sharan Uncle, Jt. Director DGCA who was trained by Raipur based Touchwood Aviation who didn’t even have a single aircraft at their airport base, neither did they have a classroom or a hangar.

Dad : OMG……..(shouting)……….Idiot you are telling me now when our flight is some thousand feets above ground……anyway where is co-pilot ?

Ronie : She stuck up at traffic jam.......Didi is the only pilot available on plane.

DAD FAINTS

Khushdeep Sehgal said...

Jagan ji,
I appreciate the feelings shown in your comment, but is it necessary to write nitty-gritty everytime, sometimes between the lines writing also works, What i mean to say in this comment is that all the fingers are not same in the hand and these shocking and true wordings on the plight of women were written by a man i.e. Sahir Ludhianvi sahib. By the way i didn't mentioned composer's name in my comment(as you mentioned) because that is not so relevant to the nature of this post. No matter, Mr N Dutta was the composer of this song...

Jai Hind

ZEAL said...

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@ Stranger --

Beautiful narration!

I'm falling in love with this naughty and witty Ronie.

Smiles !

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ZEAL said...

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Jagan ji ,

I really admire your seriousness towards the issue and the writer's efforts.

Thanks and regards,

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ZEAL said...

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Atrocity is a social malady .So a collective effort is a must . Reformation enmasse is a mission impossible .One has to protect themselves I advocate martial arts to every woman.

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Maestro-2011 said...
This comment has been removed by the author.
ZEAL said...

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कुछ पुरुष पाठकों की यह शिकायत है --

* विषय बासी है , बहुत बार पढ़ चुके
* कुछ का कहना है बहुत से पुरुष भी दुखी उदास एवं त्रस्त हैं । महिलाएं कुछ कम नहीं हैं ।
* कुछ को लगता है , क्यूँ व्यर्थ में ज्यादा लिखना । अपने ही ब्लॉग पर अपनी energy लगाई जाये।
* कुछ प्रति टिप्पणियों से डरकर नहीं लिखते।


मुझे सहानुभूति है सभी शिकायतकर्ताओं से । और उनकी असमर्थता का सम्मान भी करती हूँ।

लेकिन विषय बासी तब होगा , जब स्त्रियों पर जुल्म होना बंद हो जाएगा । वासना के कीड़े कुलबुलाना बंद हो जायेंगे तब। अन्यथा ये विषय तो भ्रष्टाचार की तरह हरा-भरा ही रहेगा ।

वो पुरुष की क्या जिसका खून न खौल उठे , किसी स्त्री का अपमान देखकर । जिसे अपमानित होने वाली स्त्री में अपनी माँ ,बहन और पत्नी न दिख जाए।

वो पुरुष क्या जो इन तर्कों के साथ आता है की पुरुषों पर भी अन्याय होता है ।

* क्या पुरुष छेड़-छाड़ का शिकार होते हैं ।
* क्या पुरुषों को स्त्रियाँ मोलेस्ट करती हैं ?
* क्या स्त्रियाँ अश्लील कमेन्ट पुरुषों को कहती हैं ,
* क्या पुरुष महिला द्वारा प्रताड़ित किये जाते हैं ?
* क्या पुरुषों का बलात्कार महिलाएं करती है ।
* क्या पुरुष अपनी सासों द्वारा जलाए जाते हैं ?
* क्या पुरुषों को , उनका बॉस दफ्तर में बुलाकर उन्हें अनेक प्रकार से harass करता है ?

एक स्त्री अपने घर परिवार और दफ्तर के बीच न जाने कितनी बार तिरस्कृत होती है और विष का घूँट पीकर रहती है । घर परिवार का सम्मान बचाने के लिए चुप रहती है।

इस चुप्पी का नाजायज लाभ मत लीजिये। जब स्त्री पर हो रहे अत्याचार की चर्चा हो पुरुष पर हो रहे अत्याचार का कुतर्क मत दीजिये। संवेदनशील बनिए ।

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दिवस said...

आदरणीय दिव्या जी...सच में स्त्री को सशक्त होना चाहिए| स्त्री माँ है और यदि पुरुष माँ का सम्मान नहीं कर सकता तो उसे सबक सिखाना ही चाहिए| आपने उस डॉक्टर के साथ बिलकुल सही किया| इन्हें ऐसे ही सबक सिखाया जा सकता है| आपकी कलम से परिवर्तन निश्चित है, क्योंकि आप भी एक स्त्री हैं| और परिवर्तन का साधन तो स्त्री ही है| पुरुष तो केवल अनुयायी है|
अंत में लिखी कविता काफी पीड़ा दे गयी| आशा है कि पुरुष स्त्री कि महिमा को समझे...
धन्यवाद
सादर
दिवस

Coral said...

आपने बहुत अच्छा सहस किया हर कोई येसे नहीं कर पात इसी का फायद ये सब उठाते है ...

Dr (Miss) Sharad Singh said...

साहस ही स्त्री को मजबूत बनाता है...आपके संस्मरण ने आपके व्यक्तित्व को सामने रखा...आपके साहस के लिए आपको बधाई...

Kavita Prasad said...

Bravo Divyaji!!!

Eyse kshano main sahas dikhana aasaan nahi hota, aapne unki patni ko yeh sab bata kar, us badte hue Ajgar par viraam laga diya.

Hats-off 2 u!

कविता रावत said...

har naari ko aapkee tarah sahas dikhna hoga aur khud bhi har naari ko aatmraksha ke liye sabal banna hoga...

दिगम्बर नासवा said...

Sach mien Bravo .... I salute the woman power ....

Arvind Jangid said...

ऐसे ही साहस की आवश्यकता है ! बहुत ही सुन्दर तरीके के साथ लिखा है आपका आभार

Rakesh Kumar said...

आपके समस्त आक्रोशों से मै सहमत हूँ परन्तु आपकी इस भाषा
'सेक्स के भूखे इन नामर्दों के........' से मै सहमत नहीं.आप जैसी विदूषी से भाषा में शिष्टता की अपेक्षा करता हूँ मै.
मुन्नी बदनाम हुई, शीला जवान हुई, ओह!जरा किस मी किस मी आदि आदि गाने कुछ स्त्रियां ही गा रहीं ,उन पर भोंडे अश्लील प्रदर्शन कर रही हैं.आजकल छोटी छोटी बच्चियों को जिस प्रकार का पहनावा माँ-बाप जाने अनजाने में पहनवा रहें है वह शोचनीय है.मीडिया और फिल्मों के बारे में मै पहले कह चूका हूँ.जब सोचने समझने की शक्ति समाप्त हो जाती है और वहशीपन माहौल में हावी होता है तो कुत्सित मनोवृति के कारण बलात्कार,व्याभिचार,शोषण,अपरहण आदि दानवीय कृत होते हैं.
समस्या पर पूर्णरूपेण देखना और उस पर विचार करना ही कुछ समाधान प्रस्तुत कर सकता है.

ZEAL said...

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@--आपके समस्त आक्रोशों से मै सहमत हूँ परन्तु आपकी इस भाषा
'सेक्स के भूखे इन नामर्दों के........' से मै सहमत नहीं।आप जैसी विदूषी से भाषा में शिष्टता की अपेक्षा करता हूँ मै...

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राकेश जी ,

वासना के भूखे पुरुष जो , स्त्रियों को छेड़ते हैं , harass करते हैं , वो नामर्द ही हैं । ऐसे लोगों को अच्छे लोगों से भिन्न दर्शाने के लिए अति-उपयुक्त भाषा का प्रयोग किया है जो हिंदी शब्दकोष में मिल जायेगी। मुझे बिलकुल नहीं लगता की मेरी भाषा में किसी प्रकार का दोष है।

जो लोग मुझे मेरे उद्देश्य से भटकाना चाहते हैं और मुझे नीचा दिखाना चाहते हैं वो सतत मुझमें दोष ढूंढते ही रहते हैं। लेकिन मुझे अपने द्वारा चयनित पथ का पूरा भान है और कैसे अपने नेक उद्देश्यों को सफल बनाना है , ये मुझे अच्छी तरह मालूम है।

जिस आक्रोश से आप सहमत हैं वो इसी भाषा में झलकता है और कोई दुसरे शब्द नहीं हैं जो अंतर्मन की व्यथा को व्यक्त कर सकें ।

गांधी जी और नेताजी दोनों ही देश की आज़ादी के लिए लड़े , लेकिन दोनों का अंदाज़ पृथक था। मुझे नेताजी का आक्रोश वाला अंदाज़ ज्यादा पसंद है।

कभी संत बनने की कोशिश नहीं करती हूँ। जैसी हूँ वैसी ही दिखना चाहती हूँ अपने लेखों और टिप्पणियों में । बिना लाग-लपेट के सच को प्रस्तुत करती हूँ।

मेरी लडाई , सामाज के नासूर वहशी पुरुषों के खिलाफ है । यदि लोग मुझे ही देवी और संत बनाने की कोशिश करेंगे तो ये लड़ाई कौन लडेगा , मेरी जंग अधूरी ही रह जायेगी। मेरे पवित्र 'लक्ष' में मेरा साथ दीजिये , मनोबल मत तोडिये।

मुझे एक आम मनुष्य ही रहने दीजिये , जिसके अन्दर व्यथा है, एक ज्वाला है और एक 'आक्रोश' है। ये आक्रोश भाषा से ही व्यक्त होगा । और मेरी भाषा सोची समझी और पूर्णतः दोषमुक्त है।

आभार।

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Rahul Singh said...

आप बर्दाश्‍त करती हैं, आपका आभार. आपने प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त की इस हेतु आपका पुनः आभार.

Rakesh Kumar said...

दिव्याजी,
मै अपने लेखों में स्पष्ट कर चुका हूँ कि संत वह है जिसका अंत अच्छा हो.अर्थात जिसके भाव ,विचार,कर्म और उद्देश्य समाज के हित में हो और अंततः शुभफलदायी हो.आप संत अपने को कहें या न कहें, पर आप एक अच्छे उद्देश्य को लेकर चल रहीं हैं ,तो मेरा आपका मनोबल तोड़ने का कोई प्रश्न ही नहीं है.'सत्य' को जितना कड़वा करके लिखना चाहें और जिन भी कटु शब्दों का प्रयोग करना चाहें आपकी मर्जी बशर्ते उससे अच्छा बदलाव आये .लेकिन, आपको वहशी पुरुषों के अतिरिक्त उस सोच और उन नारियों के विरुद्ध भी उठ खड़े होना होगा जो वहशीपन को बढ़ावा देने में लगे हैं.

Maestro-2011 said...
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Maestro-2011 said...
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शोभना चौरे said...

राके श जी
"आपको वहशी पुरुषों के अतिरिक्त उस सोच और उन नारियों के विरुद्ध भी उठ खड़े होना होगा जो वहशीपन को बढ़ावा देने में लगे हैं"

आपके लिखे इस वाक्य पर जबरदस्त एतराज करती हूँ |
एक पांच साल की बच्ची और ७० साल की वृद्धा कोनसे वहशीपन को बढ़ावा देती है ?जिनका बलात्कार करने से भी नहीं चुकते ये वहशी ?

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

आज का यह लेख पढ़ कर एक पिक्चर याद आ गयी ... " ज़ख़्मी औरत " बहुत विचारोत्तेजक लेख

Maestro-2011 said...
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वाणी गीत said...

बहुत देर से पढ़ पायी ...
अभद्रता का निवारण सही समय पर किया जाना उचित है ...ऐसे समय में मौन ठीक नहीं !

Bharat Bhushan said...

आपके आलेख से दिल्ली में हुए एक कांड की याद हो आई जिसमें शायद सुशील शर्मा नाम के व्यक्ति द्वारा बीवी को मार कर तंदूर में जलाने का मामला था. पता नहीं उस केस का क्या हुआ.

आपका आलेख पढ़ कर मैं पहले हँसा (क्योंकि आपने मेरे मन की बातें लिखीं हैं) फिर मनन किया आपके इन विचारों पर जहाँ से आलेख शुरू किया गया है-

"झगडा मत करना
झूठ मत बोलना
अहंकार मत रखना
विनम्रता का व्यवहार रखना
मधुर वचन बोलना और अहिंसा का पालन करना आदि आदि ...'

प्रथमतः यह धर्म की भाषा लगती है. लेकिन है नहीं. यह घर में स्त्री को सस्ता श्रम बनाए रखने का तरीका है. इसका विश्लेषण करें. अपने आलेख के ही संदर्भ में देखें कि ये सब 'हिदायतें' न मानने की नौबत व्यक्ति के लिए कब आती है. ज़ाहिर है तब जब घर का 'मालिक (?)' धर्म का पालन न कर रहा हो.

आपके इस आलेख को आपकी अनुमति के बिना मेघनेट पर ले जाऊँगा :))

ZEAL said...

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भूषण जी ,

आपके विचारों में हमेशा , गरीबों , दलितों और उपेक्षित वर्ग के लिए एक पीड़ा महसूस की है। आपकी संवेदनशीलता से सदैव अभिभूत रहती हूँ।

इस आलेख को 'मेघनेट' पर ले जाने के लिए आपको मेरी अनुमति की आवश्यकता नहीं है। आप तो एक नेक कार्य में अपना योगदान ही देंगे इस तरह से।

स्त्रियों पर हो रहे अत्याचार के खिलाफ उठी आवाज़ जन-जन तक पहुंचे और एक चेतना आये स्त्री तथा पुरुष दोनों में तो इससे बेहतर और क्या हो सकता है भला।

आभार।

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Bharat Bhushan said...

धन्यवाद डॉ. दिव्या. आपकी उदात्त सोच और प्रत्येक शब्द के लिए कोटिशः धन्यवाद.

महेन्द्र श्रीवास्तव said...

वाकई ऐसे विषय को आपने उठाया है, जिससे मै नहीं समझता कि कोई संवेदशील व्यक्ति असहमति जता सकता है। लेकिन दिव्या दी आपने जैसा आक्रोश जाहिर किया है उससे विषय कही खो गया। सभी मानते हैं कि इधर महिलाओं के साथ अत्याचार की घटनाएं बढी हैं, लेकिन इसके लिए पूरे पुरुष समाज घेरे में लेना ठीक नहीं होगा।

मुनव्वर राना की एक लाइन लिखता हूं...

ए अंधेरे देख ले, मुंह तेरा काला हो गया,
मां ने आंखे खोल दीं, घर में उजाला हो गया।

समाज में महिलाओं को सम्मान देने वाले भी हैं। मैं आपके आक्रोश को समझ सकता हूं। मेरा आपकी भावनाओं को ठेस पहुंचाने का कोई इरादा नहीं है, मेरे मन में एक बात आई, मैने कहा। बिल्कुल अन्यथा मत लीजिएगा।

ZEAL said...

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महेंद्र जी ,

सारी दुनिया के पुरुष खराब नहीं हो सकते। आप इसी लेख पर देखिये , कितने अच्छे और संवेदनशील पुरुष भी हैं यहाँ जो दिल से स्त्री के उत्थान में विश्वास रखते हैं । हर तरह के लोग होते हैं ।

यह लेख मुख्यतः स्त्रियों के लिए है की वो अपने सम्मान की रक्षा करना सीखें, क्यूंकि इस दुनिया में वहशी दरिन्दे बहुत हैं जो स्त्री की भावुकता और संकोच का नाजायज फायदा उठाते हैं ।

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प्रवीण पाण्डेय said...

बहुत ही अच्छा उदाहरण प्रस्तुत किया आपने। सुन्दर कविता।

गिरधारी खंकरियाल said...

समाज में कुछ राक्षस चारो काल में मौजूद रहे. वे हर निरीह प्राणी को ही अपना शिकार बनाते है

Maestro-2011 said...
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Maestro-2011 said...
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Amrendra Nath Tripathi said...

दिव्या, मैं आपकी इस पोस्ट से सत्यकथा का अंश साभार लिया हूँ, क्योंकि वहाँ मेरे ’क्रियेशन’ की मौलिकता के तुलनात्मक अध्ययन के लिये आवश्यक था। अपरिवर्तित/मूल मेरे पास रहे , इसलिये भी। ब्लागीय इमान्दारी के तहत कमेंट करके यह बात सूचित करना आवश्यक लगा, अस्तु कमेंट किया। धन्यवाद!!

Maestro-2011 said...
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ZEAL said...

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आदरणीय जगन जी ,

सबसे पहले तो मैं आपको ह्रदय से आभार कहूँगी जिसने गलत बात के खिलाफ निस्वार्थ होकर आवाज़ उठाई। समाज में आप जैसी पुरुषों के कारण ही स्त्रियों के दिल में पुरुषों के लिए अभी भी सम्मान शेष है।

लोग बातें बड़ी-बड़ी करते हैं लेकिन एक स्त्री जब अपमानित होती है , तो उसके सम्मान की रक्षा करने वाला कोई विरला ही होता है। ९० % लोग ( स्त्री एवं पुरुष दोनों) ही केवल तमाशबीन होते हैं । किसी का तमाशा बनते देखकर चुपचाप तटस्थ रहकर ,एक Sadistic pleasure लेते हैं। ऐसे लोगों के साथ भी मैं सहानुभूति रखती हूँ।

आपका पुनः आभार जिसने एक स्त्री को अपमानित होते देखकर आवाज़ उठाई। आपको मेरे कारण अमरेन्द्र ने 'लप्पू-झन्ना' कहा , इसके लिए मुझे अफ़सोस है। आपका व्यक्तित्व , आपकी उच्च शिक्षा एवं उम्दा विचार आपकी शैली एवं आपके कमेट्स में भरपूर परिलक्षित होते हैं । आपको लप्पू झन्ना कहने वाला नादानी कर रहा है।

अपमानित होती एक स्त्री का साथ देने के लिए बहुत बड़ी चारित्रिक दृढ़ता की आवश्यकता होती है , जो डरे हुए भयभीत लोगों में नहीं होती , लेकिन आपमें है वो दृढ़ता।

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ZEAL said...

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जहाँ तक अमरेन्द्र का सवाल है वो यकीनन बहुत गलत कर रहा है , लेकिन अभी वो छोटा है , जिसने दुनिया नहीं देखी है। शायद समय के साथ उसमें परिपक्वता आ जायेगी। अमरेन्द्र को मेरे लेख पर उल्लिखित एक सच्ची घटना को लेकर , फिर उसे तोड़-मरोड़कर एक मार्मिक कहानी बनाकर अपने ब्लॉग पर प्रस्तुत नहीं करना चाहिए था। इससे इनका मंतव्य जाहिर हो गया है जो अछाम्य है ।

लेकिन अमरेन्द्र त्रिपाठी को क्या दोष दूँ। उसने तो पिछले सप्ताह मुझे मेल लिखकर सूचित हर दिया था की वो जीवन पर्यंत मुझसे शिद्दत से नफरत करेगा। ऐसी अवस्था अमरेन्द्र जो कर रहा है , उससे उसी की अपेक्षा की जा सकती है , इससे ज्यादा की नहीं।

अमरेन्द्र को संसार का कोई भी व्यक्ति समझा नहीं सकता। जब तक उसमें स्वयं में एक insight नहीं develope हो जाती ।

स्त्री चाहे दलित अथवा गरीब तबके की हो अथवा मेरी तरह साधन संपन्न हो , हर जगह स्त्री को प्रताड़ित और अपमानित ही होना होगा। अपमान करने वाला गरीब और अज्ञानी भी हो सकता है तथा विद्वान् और शिक्षित भी हो सकता है ।

ब्लॉगजगत में बहुत से ब्लॉगर्स ने अब तक कई लेख मेरे खिलाफ अपमानित करने के लिए लगाए हैं , लेकिन उन लेखों में उन्होंने अपने ही चरित्र का परिचय दिया है । मेरे ऊपर कीचड उछालने से कोई लाभ नहीं मिल सका उन लेखकों को।

मैंने बहुत से द्वेष रखने वाले लेखकों को आभार देकर स्वयं को किसी भी प्रकार के द्वेष से पृथक कर लिया था अपनी इस पोस्ट द्वारा --" प्यार आपका आभार हमारा "

http://zealzen.blogspot.com/2011/01/blog-post_21.html

सोचा था मुझसे द्वेष रखने वाले शायद शान्ति से जीने देंगे मुझे , लेकिन ये मेरा भ्रम था।

मेरे हाथ ज्यादा कुछ नहीं है । संसार का नियंता तो ऊपर बैठा है , वही सही गलत का उचित निर्णय करेगा। मेरे हाथ में स्वयं पर नियंत्रण रखना ही है । नफरत का बदला सदैव स्नेह से ही देने की कोशिश करूंगी। स्नेह नहीं दे सकूंगी तो दूरी बनाकर रखूंगी , इतना ही कर सकती हूँ।

शेष हरि इच्छा ।

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Maestro-2011 said...
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Maestro-2011 said...
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Maestro-2011 said...
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ZEAL said...

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@--अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी ने आपकी पोस्ट "......अरे यह वही है !" पर एक नई टिप्पणी छोड़ी है:
@ जगन राममूर्थी , क्यों इतने विह्वल हो कर कमेंट किये जा रहे हो, तुम्हारे बेहूदे कमेंट्‍स प्रकाशित नहीं होंगे। इतना समय तुम उस मूर्खा के गुणगान करने में लगाते, तो दो-चार थैक्यू मिले होते। चल हट !!

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जगन जी ,

अमरेन्द्र अस्वस्थ मानसिकता है , यह उसके लेख से जाहिर हो चुका है और ब्लॉग-जगत के समझदार लोग उसके निम्न मंतव्य से बखूबी वाकिफ हो चुके हैं।

वो मुझे बदनाम करने के लिए बहुत नीचे गिर चुका है । लेकिन यश और अपयश अपने निज कर्मों से मिलते हैं , किसी के अभद्र लेखों से नहीं ।

वो मुझे " मूर्खा" कह कर गाली दे रहा है तो अपनी ही शिक्षा और संस्कार का परिचय दे रहा है ।

उसके ब्लॉग पर मेरे खिलाफ यह पहली पोस्ट नहीं है , इसके पहले भी वह मुझे बदनाम करने के लिए कई लेख लिख चुका है । और अन्य ब्लोग्स पर भी जाकर अपनी भड़ास निकालता है । पिछले एक साल से यह लड़का मेरे पीछे पड़ा हुआ है । इसका कोई इलाज नहीं है , अब ये स्वयं ही अपनी नफरत की आग में भस्म हो जायेगा एक दिन।

ऐसे ही पुरुषों द्वारा समाज में स्त्रियाँ असुरक्षित रहती हैं और प्रताड़ित की जाती हैं । ईश्वर बचाए ऐसे पुरुषों से। ऐसे लोगों की शिक्षा व्यर्थ होती है जो किसी की बहन बेटी , पत्नी और माँ को बदनाम करने की फिराक में रहते हैं ।

आभार।

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Maestro-2011 said...
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Rakesh Kumar said...

दिव्या जी,

Jagan Ramamoorthy ji

शोभना चौरे जी

मेरी समझ में नहीं आया कि आप सब को मेरी टिपण्णी पर इतनी तीव्र प्रतिक्रिया की आवश्यकता क्यूँ पड़ी.दिव्याजी यदि आप सोच समझ कर लिखतीं हैं तो मै भी सोच समझ कर टिपण्णी करने का प्रयत्न करता हूँ.
मेरी किसी भी टिपण्णी में वहशियों का कोई बचाव नहीं किया गया.मैंने किसी ५ वर्ष की या ७० वर्ष की महिला पर वहशीपन करने/कराने की बात नहीं की है.बहुत स्पष्ट रूप से वहशीपन की सोच को बढावा देने वालों के विरुद्ध अपनी टिपण्णी की है.उनमे. चाहे मीडिया,फ़िल्में,वो लापरवाह माँ-बाप जो अनजाने में बच्चों की ओर ध्यान नहीं दे पाते,या वो चंद स्त्रियाँ जो समस्त मान-मर्यादा तज कर अश्लीलता को बढ़ावा देने में लगी है की तरफ ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की थी.यदि भाषा के सम्बन्ध में आप मुझसे सहमत नहीं,तो इसका मतलब यह नहीं की मैंने आपका मनोबल किसी भी प्रकार से गिराने की कोशिश की है.मेरी नियत हमेशा साफ़ रही है.आपके ब्लॉग पर जबसे ब्लॉग जगत में आया उससे कुछ पहले से ही टिपण्णी करता आ रहा हूँ.आपने भी मुझे समय समय पर प्रोत्साहन दिया है.आप शोभना चौरे और जगन जी की प्रतिक्रियाओं के ऊपर यदि मेरे पक्ष को स्पष्ट कर देतीं तो मै समझता कि आप न्याय कर रहीं हैं.मैंने इंतजार भी किया परन्तु,आप चुप रहीं.
यदि मेरी किसी भी टिपण्णी से आपको किसी प्रकार से भी पीड़ा हुई है तो उसके लिए माफ़ी चाहता हूँ और आइन्दा से मै कोशिश करूँगा कि अपनी टिपण्णी करने से मै बाज रहूँ.

ZEAL said...

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राकेश जी ,

आपने अपनी आपत्ति जताई थी , जिसका उत्तर मैंने अपनी प्रति-टिप्पणी में दे दिया था। शेष मुझे नहीं मालूम की क्या लिखना था , या फिर आप किस बात का इंतज़ार कर रहे थे । आपका आना सदैव से अच्छा लगता रहा है , आपकी टिप्पणियां बहुमूल्य हैं । यदि आप आना बंद कर देंगे तो अफ़सोस रहेगा , लेकिन ये तो आपकी स्वतंत्रता है । जो आप निर्णय लेंगे , वो उचित ही होगा । आप नहीं भी आयेंगे तो मेरे लिए आदरणीय ही रहेंगे। मत-वैभिन्न होने से दिलों में दरार नहीं पड़नी चाहिए।

समझदार और परिपक्व लोग , जिन्होंने इतनी दुनिया देखी है , वो छोटी-छोटी बातों पर नाराज़ होकर मुंह नहीं फेर लेते। रिश्ते बहुत तपस्या के बाद बनते हैं । एक दुसरे के प्रति आत्मीयता को नहीं तजना चाहिए।

हम सभी के विचार एक दुसरे से भिन्न हो सकते हैं। किसी विषय पर मिलेंगे , तो कहीं मत-वैभिन्न भी होगा । इसलिए किसी भी विमर्श पर बातों को इतना व्यक्तिगत नहीं लेना चाहिए और ह्रदय से नहीं लगाना चाहिए।

मेरे लेख होते ही ऐसे हैं , जिस पर हर टिप्पणीकार को अपने विचार रखने की पूरी स्वतंत्रता है । और उस पर टिप्पणी तथा पति टिप्पणी भी पूरी स्वतंत्रता की अपेक्षा रखती है।

मुक्त ह्रदय से विचार रखने भी चाहिए और विरुद्ध विचार को स्वीकार भी करना चाहिए। नाराजगी त्यागिये । मेरा नया आलेख आपकी 'सार्थक' टिप्पणी के इंतज़ार में है।

आभार।

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Maestro-2011 said...
This comment has been removed by the author.
JC said...

Shri Jagab and Shrimati Divyaji, Thanks for the post and comments thereupon.

'I', or i would only say that 'I' am a 'Hindu' by birth, and on top- of it a 'Brahmin' :) And, it was only at a certain so-called 'turning point' that i was made to feel the need to go in to the question of who 'I' really am?...
As a starting point, i learnt 'man' being described as 'A model of the universe'... and as 'an image of God"! And, some enlightened Yogi reportedly exclaiming, "Shivoham!" And also adding thereto, "Tat twam asi!"...

And, i could read between lines that 'Shiv' is opposite of 'Vish', that is, poison... And Shiv thus is indicated as immortal, while it's a well known fact that 'we' ar merfe mortals... How could i thus be immortal... That only Yogis, Siddhas, etc., ie, elevated souls closer to Supreme Soul or Paramatma, explained by saying that in reality 'we' all are immortal souls that are entrapped in some deceptive physical form :)

Hence the 'Hindu' concept of 'Mithya Jagat'...And, the viewer of the drama believably is a unique FORMLESS SOUL, who has eyes and mouths in all directions (His own images serving some useful purpose to HIM and, HIM/ HER / IT alone, while individual souls get a feeling itself as here for its own purpose, which in reality was ITS purpose in the path at a certain cross-section of imperfect, therefore, imperfect time, for freal time and space is ZERO (0) and IT therefore is unborn and unending :):):):)...
One therefore needs to see through many eyes to reach at the essence, already explained in "Satyam Shivam Sundaram" that is Shiva is the only Truth, and It alone is beautiful...

It's 'my' personal view-point, and everyone need not agree with 'me', for dwaitwad, ie, teh appearnce of opposite emotions, is the main cause of the apparent division in the human society in to two main groups, while Buddha-like have suggested the 'Middle Path', and Krishna also drove the chariot of Arjun in the middle of the friends and foes, and on the middle point advised him to act, unconcerned of whether the enemies wer his own relatives! And 'my' favourite Shiva (earth, or Ekpqada, as its model), as Natraj, continues to dance with Parvati, His consort (another Ekpada that provides Shiva His second leg for balance while walking on the tight rope in the middle of the opposites. Already for over 4 billion years :)...

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