चरक की यायावरी वाले अंदाज़ में भ्रमण करते हुए एक अति रोचक ब्लॉग पर पहुंची तो पाया वहां लिखा था..."लोगों को आभासी दुनिया में रिश्ते नहीं बनाने चाहिए , और यदि दुर्भाग्यवश बन भी जाएँ तो उन पर आलेख नहीं लिखना चाहिए। "
आश्चर्य हुआ ये जानकार की विद्वान् ब्लॉगर इतनी सीमाएं क्यूँ निर्धारित करते हैं की किस विषय पर लिखा जाए और किस विषय पर नहीं। मनुष्य तो सामाजिक प्राणी है । हर दो व्यक्ति के बीच कोई न कोई रिश्ता अवश्य रहेगा। चाहे उसे नाम दिया जाए अथवा न दिया जाए। सैकड़ों रचनाएँ लोग प्रेमी-प्रेमिका पर लिख चुके हैं और निरंतर लिख रहे हैं ।
तो भाई-बहन के रिश्ते पर कविता लिखना गुनाह हो गया क्या ? लेखन अभिव्यक्ति का माध्यम है। जो विचार जिस वक़्त ह्रदय को मथ रहे होंगे उसी पर तो लिखा जाएगा ? इसमें बुराई क्या है ?
क्या लेखनी पर लगाम उचित है ?
आभार।
74 comments:
क्या लेखनी पर लगाम उचित है ? Naheen.
Dr. Divya ji, This is a very interesting point you have raised indeed. I feel relationships are definitely formed even on Virtual world platforms because of the simplest facts that "Computers don't emote or type on their own, do they?" Maybe some Hi-Tech Artificial Intelligence machines do. But why did the name "Personal Computer" come across the minds of the makers of the PCs? It simply means that -- a Person sits behind each Computer and hence everything that is ever going to happen in the Virtual world has 'Real people' co-creating it in the world of Radio waves in the Aakaasha-tattva.
So, a relationship is definitely formed and hence all kinds of articles are definitely the choice of the writers. The Brother-sister relationship that you have so wonderfully elucidated, even if the examples were set up on a virtual world platform, were very, very appropriate and well written. Bottom line is the MESSAGE was well received by all. Even those who are living in denials about that, they were supposed to be in such a 'Receptivity'
Much gratitude for this wonderful post too.
रिश्ते किसी दायरे में नहीं बांधे जा सकते अन्यथा ये रिसते ही रह जाते हैं...
जबरदस्ती क्या कोई रिश्ता बनता है क्या ? वैचारिक मेल,भावनात्मक मेल आदि से रिश्तों का जन्म हो ही जाता है.
लेखनी पर लगाम उचित नहीं ..पर सावधानी और जागरुक बन कर लिखनी चाहिए !
aap se sahmat
nhi,
koi kisi k liye seemaye ni bana sakta.....
mujhe lgta h unhi blogger ko kisi ko salaah ni deni chahiye!
मन से लिखिये।
आपके लेख डायरेक्ट दिल से आते हैं...लेखनी चलते रहने दीजिये...पढ़ने और ना पढ़ने का अधिकार सबको है...पर किसी की कलम पकड़ने का अधिकार किसी को नहीं...
हम चंद ब्लोगर ही तो दुनिया में लेखक नहीं है अधिकाँश उच्च कोटि के लेखकों को तो ब्लोगिंग का पता भी नहीं हमे दुनिया के सभी लेखकों और विचारको में से अपने को उच्च मानने का भ्रम नहीं पालना चाहिए हम तो बस कम्प्यूटर का थोडा बहुत ज्ञान रखने वाले लेखक हैं जिन के ४००-५०० पाठक हैं और इन्ही में से रिश्ते रखने वाले और आलोचना करने वाले भी हैं|
हाँ एक बात तो है ब्लॉग पढ़ पढ़ कर लेखन कला विकसित होती है |
किसी ब्लॉग पर मैंने भी पढ़ा था हम अपने दिमागों का गंद मंद कबाड जुगाड तुक्के टीले टप्पे कहानी किस्से बस लिखे ही जा रहें है
मुझे तो सारी दुनिया ही अपनी लगती हे, हां मैने आज तक किसी को मोसी, चाची चाचा, मामा या भाई ओर बहन कह कर नही पुकारा, लेकिन उम्र देख कर नाम से ओर जी लगा कर एक रिश्ता हमेशा बनाया हे, जो पक्के रिश्तो से ज्यादा अच्छा लगता हे, जो लोग ऎसा सोचते हे कि रिश्ते नही बनाने चाहिये हो सकता हे उन्होने पहले कभी धोखे खाये हो...
nahi,saarthak aur sandeshamatak lekhni jisase swayam ka laabh ho aur doosron ko margdarshan mile ....
asto maa sadgamay ho
to lekhani nahi rookni chahiye
haan rishton ko koi naam nahi ...bhavna se bante hain rishten....
ye rishta kisi nirjiv sajiv kisi se bhi ho sakta hai..
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लगाम तो नहीं, स्वनुशासन अपेक्षित है !
Raj Bhatiya ji,
@ -- जो लोग ऎसा सोचते हे कि रिश्ते नही बनाने चाहिये हो सकता हे उन्होने पहले कभी धोखे खाये हो...
Badee acchi baat kahee hai aapne. Dhokhaa dena ya khaanaa yeh tou "Outcome" se judee baat hougayee. Jab takk hum in outcomes se, yaa Hindi mein kahein PHAL se doorr reh sakein, tab takk Dhokhaa shabd bhi humare deemaag mein nahin aasaktaa. Saare sufferings ki jad houtee hai "Attachments to outcomes" aur isi wajah se humein iss baat ka zaroor aabhaass houna chahiye ki humare "Actions ke consequences" kya kya housakte hain? Par iss sansaar mein Kisi ne kabhi pehle soch kar Pyaar-vagerah kiya hai?
I think someone called Louis Pasteur has said 'In the unified world of consciousness, there is Order and Chaos. Even fortune shall favor the prepared mind that delves into these two. Order is born out of Chaos and vise versa" <<-- But this principle cannot be applied in matters concerning Rishtey, Pyaar, Mohabbat etc.
Yeh meraa maanna hai. Aabhaar.
लगाम तो कदापि उचित नही है..सब व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है और उसे क्या करना चाहिए यह भी उसका व्यक्तिगत फ़ैसला हो चाहिए क्योंकि किसी रिश्तों के बारे में उससे बेहतर और कोई नही समझ सकता है..
ek dam uchit nahi hai.,,,yahan to bakhs do...
सबको सोचने की आज़ादी तो है ही लिखने की भी है...(चाहे वह कोई भी हो)
"शब्द भीतर रहते हैं तो सालते रहते हैं, मुक्त होते हैं तो साहित्य बनते हैं"। मन की बाते लिखना पुराना स्वेटर उधेड़ना जैसा है,उधेड़ना तो अच्छा भी लगता है और आसान भी पर उधेड़े हुए मन को दुबारा बुनना बहुत मुश्किल शायद।
शब्दों को मुक्त करते रहिये, बस.....
HUKO LIKHNE SE KOI NAHI ROK SAKTA. MAM AAP MERE BLOG PAR AAYI USKE LIYE DHNYWAAD. OR MAM ME HINDI FONT ME ISLIYE NAHI LIKH PATA KYUNI ME MOBILE SE NET USE KARTA HUN. CAFE JANE KA TIME JOB KI WAJHA SE NAHI MILPATA. JAI HIND JAI BHARAT
जी नहीं न तो लगानी चाहिए न ही कोई लगा सकता है । उस पोस्ट पर मैंने भी टिप्पणी दी थी , आभासी और वास्तविक रिश्तों को लेकर जाहिए की गई शंकाओं पर , और उठाए गए प्रश्नों पर , आपके लेख और उसकी भावना से सहमत हूं । जीवन में सकारात्मकता बहुत जरूरी है ...
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उस लेख पर एक विद्वान् ब्लॉगर ने कमेन्ट लिखा है --
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क्या बात है !!!
इधर कुछ दिनों से मैं भी इसी विषय पर लिखना चाह रही थी .. किसी लेखक/लेखिका की रचनाओं को पसंद करने के लिए उसे भाई , बहन,बेटा ,बेटी , मित्र का संबोधन देना आवश्यक क्यों है ...किस तरह के बुद्धिजीवी हैं हम लोंग!
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बड़ा अजीब लगा इसे पढ़कर । क्या रिश्ते बनाने से इंसान बुद्धिजीवी नहीं रह जाता ? फिर तो पेड़-पौधे और जानवर होना ही बेहतर है। रिश्तों की मिठास इस तरह नकारी जायेगी लेखन कर्म करने वालों से , मुझे विदित ही नहीं था।
अत्यंत खेदजनक वक्तव्य लगा मुझे।
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मनुष्य सामाजिक प्राणी है और रिश्ते बन ही जाते है . लेखनी पर लगाम लगाने वाली बात को स्वीकार नहीं किया जा सकता .
लिखो, चाहे किसी भी विषय पर।
nahi ji lekhni par lagam nahi lagani chahiye
aisa lekh likhjiye man ka aapa khoye
padhe wale ko sukunn ile
apni mehnat bhi safal hoye
Nahi bilkul nahi Likhni par lagam nahi hona chahiye..
magar lekhkon ko bhi khud par niyantaran rakhna zaruri hai...
इस पोस्ट को पढ़ने के बाद मुझे अमित श्रीवास्तव जी की टिप्पणी और आपकी प्रति टिप्पणी बेहद पसंद आयी.
दिव्याजी, हम सब भारतीय सामाजिक प्राणी हैं और हमारे यहाँ कन्या को भी माँ कहकर सम्बोधित किया जाता है। हम सब परिवारवादी संस्कृति में विश्वास रखने वाले लोग हैं लेकिन वर्तमान में व्यक्तिवादी चिंतन हावी होने लगा है उसके अन्तर्गत व्यक्ति की पहचान केवल नाम है। आप ऑफिस में भी देखेंगी कि आपका बॉस कितना ही उम्रदराज हो, उसे छोटे से छोटा व्यक्ति भी नाम लेकर ही बोलता है जबकि हमारे यहाँ यह परम्परा नहीं थी। हम बड़ों को चाचा, ताऊ, भाई आदि सम्बोधनों से सम्बोधित करते थे और स्त्रियों को माँ, भाभी, बहन आदि से। अब कठिनाई यह है कि ब्लाग जगत में अधिकांश लोग परिवारवादी सोच के हैं और वे च्यक्ति की उम्र देखकर उसे तदनुरूप सम्बोधित कर देते हैं। ऐसे में कुछ व्यक्तिवादी चिंतकों को कठिनाई होती है। वे दुनिया से परिवारवाद को समाप्त करना चाहते हैं। उसी कड़ी में विवाह संस्था भी है। अब इसपर भी प्रहार हो रहे हैं और लिविंग रिलेशनशिप का समर्थन किया जा रहा है। मुझे भी यहाँ कुछ लोग माताजी, मम्मा, दीदी आदि का सम्बोधन कर देते हैं और उसके कारण बहुत ताने सुनने पड़ते हैं। लेकिन क्या किया जा सकता है? हम रिश्तों को नकारने की दुहाई देते हैं और महिला होने के कारण महिला का समर्थन करने को उचित ठहराते हैं, क्या यह नया रिश्ता नहीं है? आप जिस पोस्ट की बात कर रही हैं, वो आपपर वार करने को नहीं लिखी गयी है। उस पोस्ट का ईशारा मैं समझ रही हूँ। आप निश्चिंत रहें।
अरे मैं जितना लगाम लगाने की कोशिश करता हूँ लेखनी पर ... हाथ उतना ही ऊर्जा से भर जाता है और स्वचालित हो जाता है... बहिन जी..
— जब घर में पीने के पानी के बर्तन खाली हो जाते हैं तब उन्हें भरकर रखा ही जाता है... मतलब जो चीज़ खाली देखता हूँ उसे भरने की सोचता हूँ.
लेकिन जब कुछ जीवन में कुछ खाली-खाली सा हो तब उसे भी (आभासिक ही सही) भर लेने की चाह हो ही जाती है...
जैसे पात्र को भरने से पहले धोना-मांजना जरूरी है उसी तरह स्वयं को मांजना भी जरूरी है कोई रिश्ता बनाने से पहले.
अजित गुप्ता जी ने लगाम लगाने वालों की मानसिकता और परिवारवादी मानसिकता को पूरी तरह स्पष्ट कर दिया है. मुझे लगता है कि इस पोस्ट को उत्तर मिल गया होगा.
जैसे आप को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हैं समाज को अपने नज़रिये से सुधारने की वैसे ही उस ब्लॉग पर आयी पोस्ट के ब्लोगर और कमेन्ट करने वालो की भी हैं . हर किसी का नज़रिया आप के जैसा ही हो ये कैसे संभव हैं ?? और आप का नज़रिया एक दम सही ही हो ये भी अभी सिद्ध होना बाकी हैं . लेखन को सीमाओं मे बांधने की बात बहुत खोजा पर उस आलेख मे कहीं नहीं मिली हां ये जरुर पाया की कहा गया हैं आभासी दुनिया मे रिश्ते बनाने से पहले परखना जरुरी हैं http://indianwomanhasarrived.blogspot.com/2011/04/blog-post_30.html
दिव्या जी,
किस पोस्ट की बात हो रही है? कहाँ किस सज्जन ने लिखा है, कृपया लिंक दें.
ये आभासी दुनिया क्या है?
इंटरनेट को आभासी दुनियां क्यों कहते हैं?
हमें तो इतने आत्मीय लोग यहां मिले जितने उस रियल दुनियां में नहीं।
आपके लेख की बातों से सहमत ...
कुछ पंक्तियां याद आ गयी ... शेयर कर लूं
प्रकृति ने भाषा बदल दी व्याकरण खतरे में है,
आदमी ख़तरे में है, पर्यावरण ख़तरे में है।
रह रहे हैं लोग अब ख़ुद की बनी भूगोल में,
सिर्फ़ दर्पण ही नहीं अन्तःकरण ख़तरे में है।
मिल ही गया लिंक. जब चाह होती है बारिश हो ही जाती है.
रिश्तों की कोई सीमा नहीं होती
और न ही हमारी लेखनी की,
जो मन कहेगा लिखा जायेगा
गरज नहीं किसी को पसंद आएगा
दिव्या जी,
मैंने 'नारी' ब्लॉग के टिप्पणी बॉक्स में एक कविता लिखी है.
शायद प्रकाशित हो जाये! लेकिन आपके घर पर पढ़ना मुझे अच्छा लगेगा. यहाँ मेरे परिवार के अन्य भाई-बन्धु और माता-पिता तुल्य लोग जो बैठे हैं :
क्या कहूँ आपसे निर्भय हो?
जिसमें ना वय संशयमय हो?
कहने में पिय जैसी लय हो.
जिसकी हिय में जय ही जय हो.
या बहूँ धार में धीरज खो?
तज नीति नियम नूतनता को?
नारी में बस देखूँ रत को ?
रसहीन करूँ इस जीवन को?
या सहूँ हृदय की संयमता?
घुटता जाता जिसमें दबता?
नेह श्रद्धा भक्ति औ' ममता.
क्या छोड़ सभी को, सुख मिलता?
ऐ! कहो मुझे तुम भैया ही
मैं देख रहा तुममे भावी
सपनों का अपना राजभवन
तुमसे ही मेरा राग, बहन!
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मुझे एक बात से सख्त ऐतराज़ है , जब लोग रिश्तों को भी 'आभासी' कह देते हैं । हम लोग केवल टाइप करते हैं, अंतरजाल पर , तकनीक का सहारा लेकर । लेकिन हम लोग हाड मांस के बने , भावनाओं से युक्त मनुष्य ही है , जो कभी अपने साथी ब्लोगर द्वारा लिखी बहुत की कविताओं और लेखों पर भावुक हो जाता है ....आँखों में आँसू तक आ जाते हैं , रुला देते हैं कुछ आलेख ....क्यूंकि हम उन्हीं लेखों में अपने माता पिता , भाई बहन , और शुभ चिंतकों की झलक पा जाते हैं ।
मैं स्वयं के लिए 'आभासी' शब्द सुनने से इनकार करती हूँ। खुद को रियल समझती हूँ, एक एक शब्द जो लिखती हूँ , वो दिल से निकलते हैं , जिसे एक बार भाई कह दिया , वो आजीवन भाई समान ही प्रिय रहेगा ।
जिन लोगों में निष्ठां की कमी होती है , वही दूसरों के रिश्तों 'आभासी' कहकर नकार देते हैं। मेरे रिश्ते तो पुख्ता हैं चाहे सहोदर भाई हो अथवा ब्लोगर भाई ।
अगर रिश्तों पर रचनायें लिखनी छोड़ दी जायेंगी , तो आने वाले समय में हिंदी साहित्य से भाई, बहन , माँ , पिता , दोस्त आदि शब्द विलुप्त हो जायेंगे । जो अत्यंत दुखद स्थिति होगी।
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मुझे एक बात से सख्त ऐतराज़ है , जब लोग रिश्तों को भी 'आभासी' कह देते हैं
बहुत खोजा पर उस पोस्ट मे "आभासी रिश्ता" जैसा संबोधन कहीं नहीं पाया और ना ही किसी टीप मे
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जिसके पास जो नहीं होता वो उसे तलाशता फिरता है । इतनी बड़ी दुनिया में ढूंढें नहीं मिलते हैं प्यार भरे रिश्ते।
मेरे पास माँ नहीं है , इसलिए जब भी किसी ब्लॉग पर "माँ " से सम्बंधित कोई लेख अथवा कविता पढ़ती हूँ तो भावुक होकर कुछ ज्यादा ही बड़ा कमेन्ट लिख देती हूँ...लेकिन आंसुओं के साथ बहती भावनाओं को रोका जा सकता है क्या ?
संकोचवश बहुत सी जगह कोई संबोधन नहीं लिखती लेकिन मन में कुछ लोगों के लिए , माँ जैसा , पिता जैसा , भाई जैसा और बहन जैसा महसूस करती हूँ।
कुछ वरिष्ठ ब्लॉगर्स ने मुझे " बेटी" कहकर प्यार दिया है , उनके तो चरणों में सर रखने का मन करता है , क्यूंकि "बेटी" शब्द में दुनिया का समस्त प्यार संचित है ।
और प्यार करने वाले "मित्र " भी अनेक मिले, मैं तो शुक्रगुजार हूँ इस अंतरजाल का , जिसने मुझे इतने सुन्दर रिश्ते दिए।
दुनिया में अच्छे लोग भी हैं जिन्हें अपना बनाकर जीवन खुशहाल किया जा सकता है ।
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ऐ! कहो मुझे तुम भैया ही
मैं देख रहा तुममे भावी
सपनों का अपना राजभवन
तुमसे ही मेरा राग, बहन!
भाई प्रतुल ,
बहुत सुन्दर कविता पोस्ट की है ।
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अजीत जी ,
आपकी बात से शत प्रतिशत सहमत हूँ , ताने सुनने के डर से ही अब लोग रिश्ते बनाने में हिचकने लगे हैं ।
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एक बात और कहनी है, कुछ लोग कहते हैं कि ब्लोगिंग की दुनिया आभासी दुनिया है। मुझे यह शब्द समझ नहीं आया। हम तो भूत-प्रेतों की दुनिया को आभासी कहा करते थे। साहित्य की दुनिया में जब श्रेष्ठ साहित्य या अपनी पसन्द का साहित्य पढ़ते हैं तब उस साहित्यकार से मिलने का मन भी होता है और जब मिलते हैं तब कोई ना कोई सम्बोधन भी होता है। साहित्य की दुनिया में भी लोग एक-दूसरे को नहीं जानते तो क्या यह दुनिया भी आभासी ही है? आज जितने भी बड़े साहित्यकार हैं उनके आपसी रिश्ते सम्बंधो से बंधकर कितने मधुर हैं और उन रिश्तों के बारे में जब हम पढ़ते हैं तो कितने रोमांचित होते हैं? मैं जिन भी संस्थाओं में कार्य करती हूँ वहाँ अक्सर किसी न किसी सम्बोधन से मुझे पुकारा जाता है तो क्या ये सब बेमानी हैं? केवल मेरा नाम ही सत्य है।
कमाल है दिव्या जी,
आपकी कविताई तो यहाँ भी साथ दे रही है.
"चाहे सहोदर भाई हो अथवा ब्लोगर भाई ।"
....... पसंद आया वाक्य प्रयोग.
"हम तो भूत-प्रेतों की दुनिया को आभासी कहा करते थे।"
....... मेरी हँसी छूट गयी इसे पढ़ते ही....
मुझे ध्यान है मैं जब स्कूली टाइम में 'दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी' जाता था तो उच्च कोटि के साहित्यकारों के निजी जीवन को बड़ा रस लेकर पढ़ता था. निराला-महादेवी का रिश्ता हो अथवा. प्रसाद-प्रेमचंद का रिश्ता हो. मैथिलीशरण और अज्ञेय का समबन्ध हो आदि-आदि.. मुझे मेरे पिता भी इन साहित्यकारों के आपसी समबन्ध के बारे में बड़ी रुचि से बताया करते हैं. मैं तो बार-बार उन्हीं कहानियों को उनके मुख से सुनता रहता हूँ. वे हर बार उसी उत्साह से मुझे सुनाते भी हैं. मुझे बड़ा रस आता है.
दिव्या जी,
किसी ने कहा है..... रिश्ते तो हैं विश्वास, इसे बांध कर मत रखो – प्रेम तो अपने हर रंग में, बन्धन रहित है।
मुझे याद आ रही है शैली की एक कविता ‘To a Skylark‘ .....
‘We look before and after,
And pine for what is not:
Our sincerest laughter
With some pain is fraught;
Our sweetest songs are those that tell of saddest thought.’
मेरे विचार से रिश्तों के संदर्भ में लेखनी पर लगाम कभी भी उचित नहीं है.
लेखनी के माध्यम से ही शब्दों की रचना कागज पर उतर आती है!....इन्ही शब्दों पर व्यक्ति के विचार निर्भर करते....इस पर लगाम लगाना उचित नही है!...प्रेरक आलेख, धन्यवाद!
लेखन में विषय की नहीं , मर्यादा की सीमा होनी चाहिए ।
लेखनी चलती रहनी चाहिये।
सबसे पहले तो आप सुधार कर लें ...
यह कमेन्ट किसी विद्वान् ब्लॉगर का नहीं था ...एक सामान्य गृहिणी का है ...
यदि आपको मेरे किसी कमेन्ट पर आपत्ति हो और आप उसे बहस के लिए रखना चाहते हैं तो कृपया मुझे मेल पर सूचित कर दिया करें क्योंकि मैं एक अतिव्यस्त गृहिणी हूँ ...घर बार सँभालने के बाद जो थोडा बहुत समय मिल पता है , उसी में ब्लौगिंग करती हूँ ...इसलिए मेरे किसी व्यक्तव को बहस में शामिल करने पर कृपया मुझे मेल द्वारा सूचित कर दिया करें ताकि मैं अपना पक्ष भी रख सकूँ और अर्थ का अनर्थ बनाने से रोक सकूँ !
मेरा मतलब ये हरगिज़ नहीं है की आभासी दुनिया में रिश्ते नहीं बनाने चाहिए , मेरा कहना सिर्फ यह है की आवश्यक या अनावश्यक रूप से नहीं ...इस दुनिया में मेरे भी भाई बहन हैं , इसलिए मैं इन पर आपत्ति कैसे कर सकती हूँ :)
कमेन्ट के जवाब में एक पूरी पोस्ट बनती है ...समय मिलते ही लिखूंगी ..अभी बस इतना ही !
दिव्या जी, मैं आपकी बात से सहमत हूँ। कम से कम लेखन के विषय को लेकर तो कोई प्रतिबंध नहीं होना चाहिये। जहां क अंतर्जालीय रिश्तों का सवाल है, अभी आपकी पोस्ट पढ़ने से पहले समीर लाल जी के ब्लॉग 'उड़नतश्तरी' पर 'पटना अमरीका से कनाडा चला आया........'' पोस्ट पढ़ रहा था। जो लोग इन्टरनेट पर बनाये गये रिश्तों को आभासी कहते हैं उन्हें समीर लाल जी की यह पोस्ट पढ़ लेनी चाहिये। किस प्रकार अमरीका में रह रही स्तुति पाण्डेय समीर लाल परिवार की आत्मीया बन गयीं - केवल ब्लागिंग के जरिये।
लेखन तो मुक्त मना ही अच्छा है .......
बहुत अच्छा विषय उठाया है आपने ! लेखनी की धारा अनंत है इस पर लगाम कसना अविकसित एवं दुराग्रही मानसिकता की उपज ही हो सकती है!
हाँ ये जरुरी है की जो भी लिखा जाये सामाजिक मर्यादा के दायरे में रह कर ही लिखा जाये
सही लिखा है आपने।
आदरणीय बहन दिव्या जी लेखनी पर इस प्रकार की लगाम अनुचित है...यह तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है...कुछ गलत तो लिखा नहीं है...यदि कुछ गलत लिखा जाए तो लगाम की बात आती है, अन्यथा सब ठीक है...आप कारवाँ आगे बढ़ाती चले, इन छिटपुट घटनाओं पर ध्यान न दें...हमारा आप पर विश्वास है...आपकी लेखनी से कुछ गलत नहीं लिखा जाएगा...
सादर...
दिवस...
लेखनी पर बाहरी लगाम बिलकुल अनुचित है.अगर लेखक स्वयं ही मर्यादा का ध्यान रखे तो किसी लगाम की आवश्यकता ही नहीं होगी.जहाँ तक आभासी रिश्तों की बात है, जब आप एक दुसरे से अक्सर आभासी दुनियां में संपर्क में आते रहते हैं तो एक रिश्ता तो अपने आप बन जाता है, इसे कोई नाम दें या नहीं. इस में क्या अनुचित है?
बहुत संतुलित आलेख..आभार
लेखनी पर लगाम सर्वथा अनुचित है . प्रबुद्ध लेखक समाज या लोगों के प्रति अपना दायित्व स्वयं निभाना जानता है इस लिए उसे अपनी मर्यादा निर्धारित करने का अधिकार होना ही चाहिए. अपने प्रिय कवि दिनकर जी की पंक्तियाँ उद्धृत करना चाहूँगा :
" बंधा तूफ़ान हूँ चलना मना है
बंधी उद्दाम निर्झर धार हूँ मैं
कहूँ क्या ,कौन हूँ ,क्या आग मेरी
बंधी है लेखनी लाचार हूँ मैं "
इस प्रकार की छटपटाहट कवि या लेखक के लिए होनी ही नहीं चाहिए !
सुंदर आलेख, दिव्या जी.
अजित दीदी की टिप्पणी को मेरी भी प्रतिक्रिया माना जाय!! शायद मै इससे अधिक स्पष्ठ बात न रख पाता।
रिश्तों की अहमियत को सम्मान देते हम लोग रिश्ता बनाकर ही उल्टे सुरक्षा महसुस करते है। अधिकतर लोग रिश्ते को कोई नाम मिलने पर गरिमा युक्त व्यवहार भी करते है।
परखना तो हर पहचान को पडता है, और हमारी परख हमेशा सही निष्कर्ष युक्त हो सम्भव ही नहीं, ठगे जाने की सम्भावनाएं हर क्षण होती है तो क्या हम भरोसा ही छोड दें। रिश्ते निभाने आवश्यक नहीं है वे तो एक आत्मियता का बोध दे जाते है। अपनत्व के लिये इतना ही काफ़ी है।
sahi hai. Ye bandhan nahi hone chahiye
आपका स्वागत है.
दुनाली चलने की ख्वाहिश...
तीखा तड़का कौन किसका नेता?
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प्रिय भाई दिवस दिनेश गौर,
आज आपने बहन कहकर मान बढ़ा दिया । ये रिश्ता जीवन पर्यंत बना रहेगा। वैसे तो सभी मित्रवत हैं , इसलिए 'मित्र' हैं , लेकिन बहन कहकर जो स्नेह देता है , वो निसंदेह ज्यादा आत्मीय लगने लगता है ।
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@--रिश्ते निभाने आवश्यक नहीं है वे तो एक आत्मियता का बोध दे जाते है। अपनत्व के लिये इतना ही काफ़ी है।
सुज्ञ जी , बहुत ही सार्थक बात कही है । अपनत्व के लिए इतना ही काफी है ।
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ब्लौग पर आये अनेक टिप्पणीकारों के साथ आत्मीय सम्बन्ध है । टिप्पणी के माध्यम से ही अक्सर आपसी प्यार का आदान प्रदान भी हो जाता है । जहाँ दिल जुड़े हुए होते हैं , वे मन की बात समझ भी लेते हैं ।
आत्मीयता को किसी भी तराजू में नहीं तौला जा सकता, वो सदैव भारी ही रहेगा।
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Dr Divya i m very much thankful to u for ur precious comment on my blog.aapke blog ka pata chala bahut uttam lekh padhne ko mila.subject is too good.likhne par koi jor nahi hota.ek lekhak jo saahitya ke samuder me doob kar shabdon ke madhyam se apne vichar vyaqt kartaa hai uski sarahna karni chahiye.i m following you so that i can read ur update.
नही, बिलकुल नही . यह तो पूरी तरह व्यक्तिगत है. और जिन्हें नही पढना , उनसे जय रामजी की !
क्या लेखनी पर लगाम उचित है....
बिलकुल नहीं जी ...
लेखनी तो स्वतंत्र होती है
कभी हमारे ब्लॉग भी पधारे नया हूँ
मुझे ख़ुशी होगी
avinash001.blogspot.कॉम इंतजार रहेगा आपका
बहुत ही ज्वलंत मुद्दा उठाया है आपने ..लेखनी पर किसी की लगाम नहीं होनी चाहिए ...किन्तु अति सर्वत्र वर्जयते
Dearest ZEAL:
Your poser was – Is rein appropriate on the writing?
My answer is – Yes. It is even more important than the writing, at any point of time.
A writer can write anything as it comes to the heart and the pen runs over paper. However, whatever is written needs a strong editorial approach and that is the domain of mind.
Taking liberty as a license to write whatever one wants in a public medium is fraught with grave danger. Also, it potently reflects the dearth of prudence on the writer’s part. Unless judiciously thought of, a finely woven yarn also can very well come unstuck.
I take a simple reference of the publishing world. The editor’s reject more than 95% of the stuff submitted by writers for their opinion about it being worthy of publication. Simply asking the question – Isn’t there some reason in it?
Another example – presume, for a while, you are very upset at reading something and driven by the rage, you write in that context. Say it is a letter and you wrote a response. Try one thing – do not press the send button [nowadays who writes snail-mail letters] and let the letter be in the draft-box for 3 days. Go and read it again on day 3. Most likely it is that the letter will not travel onward but get culled. And even if it is eventually sent, surely, it will be highly modified and most importantly, moderated in its tone and essence.
What is the common element between the two examples – Reining in of the Impulse.
That is my answer.
Semper Fidelis
Arth Desai
कलम हमारे हाथ है, जलनेवाले जला करे.... :)
Dr. Divya, Writing is a matter of heart. The heart has NO games to play, the MIND does. The heart takes NO diktats from ANYONE outside of ourselves. The Mind is constantly looking for an "Outer scapegoat" just in case something goes wrong because of our "Writing". Pure and Pristine writing needs heart (Kalejaa) and those who can't write fro their hearts are sadly in a 'Dark corner already'.
Just as they say in any field of healing too, including your own of Doctors-Patients, isn't it very accurately said that a "Healer/Doctor can only DO what is required, but the Ultimate healer is the recipient?" - Life can be anything, it is how we react to everything that matters. If you are going to write calculated stuff, I am pretty darn sure that, your Blog would be read by just a handful few and those handful few would be "Just those who have NO clue of anything outside of their own world" - Example, George H W Bush (Sr) the Ex President of USA went to the local store one day and saw those "Beeping" machine guns used for the counter clerk's accounting, scanning every item purchased by the customers. Bush Sr. Asked his Chief of Staff "What is all this? I have never seen this?" He was told "These are scanners we use for accounting purpose. It scans the barcode of each item and immediately tells the counter clerk how much it costs" - Bush was SO much out of touch with "Reality". For you to write about Illusions, "Lagaam" is very good and would work, but if you want the REAL stuff to be known to millions, then stay with your heart please. REST will follow, by God's grace.
Much Gratitude.
Yours, JR
आदरणीय बहन दिव्या जी...मै आपका सम्मान करता हूँ| आपको बहन कहने में मुझे गर्व है| ख़ुशी भी है कि इस ब्लॉग जगत में मुझे आप जैसी बहन मिली...और आपके द्वारा भाई का संबोधन पाकर तो मेरा मान बढ़ा है| बिलकुल यह रिश्ता जीवन पर्यंत चलेगा|
सादर...
दिवस...
बहुत ही गहन हो चुकी है इस आलेख में लिखी गई बातें,
दिव्या जी, आपने एक सार्थक विषय उठाया है ..और रिश्ते
तो विश्वास ही खोजते हैं जहां उन्हें महसूस हुआ ..वो वहीं भावुक हो जाते हैं ...लेखनी पर लगाम ना तो पहले कभी लग सकी है और ना ही शायद कभी लग सकेगी ... ।
दिव्या जी ! आदरणीया अजित गुप्ता जी ने सारी बात कह दी है. रिश्तों के बिना भारतीय समाज की कल्पना नहीं की जा सकती. हम तो अपने घर के नौकर को भी रघुनाथ "दादा" कहते थे ....यदि कभी भूल हो गयी तो घर में दांत पड़ती थी. हमारे समाज का ताना-बाना ही कुछ इस तरह का है कि हम बिना रिश्तों के नहीं रह सकते. भारत की यह संस्कृति बेजोड़ है . रिश्तों के बिना कई बार संवाद के समय बड़ी मुश्किल होती है ...जब तक कोई रिश्ता कायम न हो जाय एक बेचैनी सी रहती है. अभी ताज़ा उदाहरण है अजित जी के साथ मैं अभी तक कोई रिश्ता नहीं बना सका ....अभी उनका उल्लेख करते समय बड़ी बेचैने हो रही है ....ज़ल्दी ही कोई रिश्ता कायम करना पडेगा.
अब वाणी गीत जी के पक्ष पर बात करते हैं ...रिश्तों में हम बहुत भावुक हो जाते हैं और फिर धोखा भी खाते हैं ...इसकी पीड़ा लम्बे समय तक सालती है .....हो सकता है कि वाणी जी ने ऐसी ही किसी अनुभूति को ध्यान में रख कर कोई टिप्पणी की हो ...वे भी इसी समाज की हैं उन्होंने ने भी रिश्ते बनाए होंगे. हाँ ...! जहाँ तक आभासी रिश्तों की बात है तो रिश्ते सभी आभासी ही होते हैं .......मन जहाँ रीझ जाय ....कई बार रक्त संबंधों की अपेक्षा ये सम्बन्ध ही अधिक समीप और अपने लगते हैं. दिव्या के लिए तो मुझे बहुत पहले ही संबोधन मिल चुका है .....मैं उसे "शैतान लड़की" कहता हूँ.
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कौशलेन्द्र जी ,
बहुत से लोग मित्रवत मिलते हैं । लेकिन फिर भी अंतरजाल के माध्यम से कुछ रिश्ते ऐसे भी मिले जिनसे बेहद लगाव सा हो गया । रिश्तों की अहमियत नकारी नहीं जा सकती । इन रिश्तों से ही तो शादी , ब्याह और त्यौहार सभी की महत्ता बरकरार है । रिश्ते हैं तभी खुशियाँ बांटकर दूनी और दुःख बांटकर आधा कर लिया जाता है । रिश्ते कभी आभासी लगे ही नहीं । हाँ रिश्तों में स्नेह और अधिकार का आभास ज़रूर रहता है । आप मुझे किसी भी नाम से पुकारें , मुझे उसमें सिर्फ आपका स्नेह ही छलकता दीखता है।
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दिव्या जी ! मुझ पर आजकल दर्शन का भूत चढ़ा है. ब्लॉग पर भी आपने देखा वही लिख रहा हूँ .......रिश्तों को आभासी उसी सन्दर्भ में कहा ...लौकिक सन्दर्भ में नहीं. "ब्रह्म सत्य है जगत मिथ्या है" ...वाली तर्ज़ पर.
अंतरजाल पर मुझे भी रक्त संबंधों से अधिक गहरे सम्बन्ध मिले हैं...जो सम्बन्ध गहरा है वह आभासी कैसा ? यहाँ एक परिवार सुस्थापित हो गया है. अब तो इस परिवार के बिना रहने की कल्पना ही बड़ी दुष्कर लगती है. भले ही हमने दिव्या (एवं अंतर्जाल के अन्य लोगों ) को भी नहीं देखा कभी ..पर ये सब हमारे अपने अभिन्न हो चुके हैं ...हम उनके सुख में सुखी और उनके दुःख में उदास हो जाते हैं . भारतीय परिवेश में अंतरजाल का यह एक बड़ा लाभ मुझे दिखाई दिया है कि हमारा परिवार बहुत बड़ा हो गया है. मैं कल्पना करता हूँ ...कभी हम लोग मिलेंगे तो उस समय कैसी अनुभूति होगी ? दिव्या को तो बिना डांटे छोडूंगा नहीं......बहुत गुस्सैल जो है ....
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@--अंतरजाल पर मुझे भी रक्त संबंधों से अधिक गहरे सम्बन्ध मिले हैं...जो सम्बन्ध गहरा है वह आभासी कैसा ? यहाँ एक परिवार सुस्थापित हो गया है. अब तो इस परिवार के बिना रहने की कल्पना ही बड़ी दुष्कर लगती है. भले ही हमने दिव्या (एवं अंतर्जाल के अन्य लोगों ) को भी नहीं देखा कभी ..पर ये सब हमारे अपने अभिन्न हो चुके हैं ...हम उनके सुख में सुखी और उनके दुःख में उदास हो जाते हैं . भारतीय परिवेश में अंतरजाल का यह एक बड़ा लाभ मुझे दिखाई दिया है कि हमारा परिवार बहुत बड़ा हो गया है. मैं कल्पना करता हूँ , कभी हम लोग मिलेंगे तो उस समय कैसी अनुभूति होगी ? ...दिव्या को तो बिना डांटे छोडूंगा नहीं......बहुत गुस्सैल जो है ....
कौशलेन्द्र जी ,
आपकी लिखी बातों से अक्षर्तः सहमत हूँ। बहुत से ब्लॉगर्स के साथ बहुत लगाव सा हो गया है । निसंदेह एक परिवार सा स्थापित हो गया है । हम कहीं भी रहे अथवा व्यस्त हो जाएँ , ब्लौग परिवार के कुछ लोग हमेशा ध्यान में रहते हैं । उनके बिना रहना अब दुष्कर सा प्रतीत होता है ।
@-कभी हम लोग मिलेंगे तो उस समय कैसी अनुभूति होगी ?
निसंदेह एक सुखद अनुभूति होगी । जैसे अपनों से मिलने पर होती है।
@-दिव्या को तो बिना डांटे छोडूंगा नही..
ज़रूर डाँटियेगा । बचपन से आजतक कभी डांट पड़ी ही नहीं , इसीलिए शायद बिगड़ गयी हूँ। आप मुझे डांटेंगे तो मुझे बहुत अच्छा लगेगा । पर वादा कीजिये डांट असली वाली होनी चाहिए।
@-बहुत गुस्सैल जो है..
मेरा गुस्सा समाज में फैली अनियमितताओं के प्रति है , मेरा आक्रोश मेरे लेखों में झलकता है । लेकिन वैसे मैं भावुक हूँ । सच्चे , इमानदार और प्यार करने वालों साथ बहुत गहरा रिश्ता है मेरा और बहुत सम्मान करती हूँ ऐसे लोगों का ।
कौशलेन्द्र जी ,
मेरा , आपसे है रिश्ता पुराना कोई ,
यूँ ही नहीं दिल लुभाता कोई ...
आप मेरे परिवार के लगते हैं। भारत आने पर आपसे अवश्य मुलाक़ात होगी । आखिर 'बस्तर' जो घूमना है आपके साथ।
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आपकी और कौशलेन्द्र जी की बातों ने मन मोह लिया.
@ मेरा , आपसे है रिश्ता पुराना कोई ....
हम अपने पूर्व-पूर्व जन्मों को ही दोहराते हैं ......अवश्य कोई नाता रहा होगा
@ आप मेरे परिवार के लगते हैं। भारत आने पर आपसे अवश्य मुलाक़ात होगी । आखिर 'बस्तर' जो घूमना है आपके साथ।
प्रतीक्षा है ...कब दिव्या को डांटने का सुअवसर मिल पाए .....बस्तर के जंगलों में स्वागत है आपका. आपकी यह यात्रा यादगार रहेगी.....फिर देखूंगा दिव्या ने क्या लिखा अपने ब्लॉग में ....कुछ शीर्षक इस तरह होंगे - " घने जंगल में नक्सली कमांडर से मुठभेड़" ...."महुआ की मदमाती गंध"...."और वह टंगिया वाला आदिवासी "
"सचमुच नियाग्रा से कम नहीं "......." कमाल है ...पहली बार देखीं मैंने अंधी मछलियाँ" ....."विश्व की प्रथम नाट्यशाला छत्तीसगढ़ में" ....."क्यों आता है गुस्सा दिव्या को"....." राधिका ने यहाँ भी पीछा नहीं छोड़ा मेरा".......
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