Saturday, April 2, 2011
व्यक्ति से वैराग , विचारों से अनुराग -- प्रेम और आकर्षण, एक मनोवैज्ञानिक अध्ययन .
मनोविज्ञान बहुत रुचता है इसलिए अकसर मेरे लेखों में मनोविज्ञान को समझने की कोशिश होती है।
प्रेम एक आकर्षण है , जो व्यक्ति के साथ हो सकता है अथवा उसके विचारों से। कभी कभी किसी के विचारों से आकर्षित होकर हम ऐसा सोचने लगते की हम अमुक व्यक्ति से प्रेम करते हैं।
व्यक्ति के वाह्य स्वरुप के प्रति आकर्षण अल्प-कालिक होता है । स्थूल सौन्दर्य घटने के साथ ही आकर्षण घटने लगता है और एक निश्चित अवधी के बाद समाप्तप्राय सा हो जाता है। कभी-कभी जिनसे हम स्नेह रखते हैं , उन्हें करीब से जानने पर ऐसा लगता है की हम दोनों में तो मूलभूत अंतर है । ऐसी अवस्था में रिश्तों की औपचारिकता बनाए रखने के साथ-साथ उनके विचारों का पूर्ण सम्मान होना चाहिए।
इसके विपरीत यदि व्यक्ति के विचारों के प्रति आकर्षण हो तो यह आकर्षण समय के साथ बढ़ता जाता है और एक दुसरे के प्रति मन में आदर-सम्मान पैदा करता है। व्यक्ति के विचार ही उसकी पहचान होते हैं। यदि हम किसी के विचार से कभी प्रभावित होते हैं , तो उन विचारों के प्रति सम्मान कभी कम नहीं होने देना चाहिए, चाहे उस व्यक्ति के साथ दूरियां कितनी ही क्यूँ न बढ़ जाएँ।
स्थूल प्रेम दिल में उत्पन्न होता है और दरारें भी दिल में ही पड़ती है। जबकि विचार मस्तिष्क को प्रभावित करते हैं। विचारों की सुन्दरता , की विवेचना भी मस्तिष्क ही करता है , इसलिए प्रभावी विचारों के लिए सम्मान सतत बना रहना चाहिए। ह्रदय के विचलन से जोड़कर उन विचारों की अहमियत को कतई कम नहीं होने देना चाहिए।
दिल में स्थित व्यक्ति के प्रति अनुराग को कभी intellectualize नहीं करना चाहिए और न ही विचारों के प्रति आकर्षण को प्रेम समझने की भूल करनी चाहिए।
आज जिन्हें पढ़ती हूँ , उनके लेखों के माध्यम से अथवा टिप्पणियों के माध्यम से , उनके विचारों के प्रति मेरे मस्तिष्क में उनके प्रति एक सम्मान उत्पन्न होता है । मेरे लिए यही आकर्षण है और यही मेरा प्रेम है।
आभार ।
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56 comments:
आकर्षण हमारे दिल मैं किसी और के विचारों को पढ़के कम और अपने जैसे विचारों को पढ़के अधिक पैदा होता है. इसी कारण से हम अपने चाहने वालों का देर कम करते चले जाते हैं और एक दिन अकेले रह जाते हैं.
nice !vicharo ki aandhiyaan hme kahaan le jaae maalom nhi .
prem ki sahi vyakhyaa
तभी तो कहा जाता है कि बेवकूफ दोस्त से समझदार दुश्मन अधिक अच्छा है। प्रेम तभी स्थायी है जब तक विचार श्रेष्ठ हैं। विचारों के बिना प्रेम अस्थायी होता है।
सारगर्भित। सच बात यही है और इसे ही प्रेम कहते है, पर हां प्रेम के अर्थ को अनर्थ न समझा जाय तब।
वैचारिक आकर्षण मस्तिस्क से उपजता है जो दीर्घजीवी हो सकता है अगर विचार मिलते हो . धन्यवाद इस अति विचारणीय आलेख के लिए .
जबकि विचार मस्तिष्क को प्रभावित करते हैं। विचारों की सुन्दरता , की विवेचना भी मस्तिष्क ही करता है , इसलिए प्रभावी विचारों के लिए सम्मान सतत बना रहना चाहिए। ह्रदय के विचलन से जोड़कर उन विचारों की अहमियत को कतई कम नहीं होने देना चाहिए।
jai baba banaras....
आज जिन्हें पढ़ती हूँ , उनके लेखों के माध्यम से अथवा टिप्पणियों के माध्यम से , उनके विचारों के प्रति मेरे मस्तिष्क में उनके प्रति एक सम्मान उत्पन्न होता है । मेरे लिए यही आकर्षण है और यही मेरा प्रेम है।
'lock' kiya jai......
pranam.
दिव्या जी,
बहुत अच्छे तरीकेसे मनोविश्लेषण किया है !
वेक्ति के विचार ही उसकी पहचान होते है ! यदि हम किसी के विचार
से कभी प्रभावित होते है तो उन विचारों के प्रति सम्मान कभी
कम नहीं होने देना चाहिए चाहे उस वेक्ति के साथ दूरियां
कितनी ही क्यूँ न बढ़ जाए!
मन कभी -कभी इसी उलझन में रहता है, उस वेक्ति से प्रेम करने लगा है
या फिर उनके विचारोंसे ?
बहुत ही सटीक एवं गहन व्याख्या ...।
अब कबीर का क्या करें जो कहतें हैं कि :
पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय॥
ठीक कह रही हैं !
प्रेम क्या ?व्यक्ति की हरेक भावनाओ से विचारो का गहरा सम्बन्ध है |विचार ही उस भावना को और दृढ बनाते है चाहे वो प्रेम की भावना हो या नफरत की या घर्णा हो \कितु सकरात्मक विचार प्रेम की भावना को विकसित करते है |और निरंतर सकारात्मक विचार नफरत को भी प्रेम में बदल देते है |
अच्छा आलेख |
अच्छा विश्लेषण-एक मनोवैज्ञानिक के नजरिये से...
बेहद सटीक और प्रभावशाली पोस्ट है
प्रेम के अनेको रूप हैं ऐसा सभी सोचते हैं और मानते हैं क्योंकि प्रेम की व्याख्या करना इतना आसान नही मगर जहाँ तक विचारो के प्रति आकर्षण की बात है उस का आपने बेहतरीन विश्लेषण किया है सौन्दर्य और विचार दोनो का अपना अलग अस्तित्व होता है प्रेम व्यक्ति से नही उसके विचारो से होता है बेहद सूक्ष्म अवलोकन है और शायद यही इंसान मात खा जाता है और इसे प्रेम समझ बैठता है।
अभी तक तो यही समझ नहीं पाए कि प्रेम किसे कहते हैं ...
कम से कम अंतरजाल पर तो विचारों से ही आकर्षित होते हैं ..और उन लोगों को पढ़ना चाहते हैं जिनके विचार स्वयं के विचार से मेल खाते हैं ...
दिव्या जी ,
इस समय तो मैं आपके लेखों को पढ़कर सिर्फ महसूस करता हूँ ,उसके बाद मनन और ग्रहण |
टिप्पड़ी क्या दूँ ?
व्यक्ति से वैराग , विचारों से अनुराग और प्रेम में खटराग... ई सब ताड़न के अधिकारी :)
कबीर नें ही शायद कहा है………
उत्तम विद्या लिजिए, यदपि नीच पै होय।
पयो अपावन ठौर पै, कंचन तजे न कोय॥
उत्तम विचार चाहे किसी के पास भी हो लेने चाहिए।
व्यक्ति पूजा नहीं, गुण पूजा ही होनी चाहिए!!
अनुराग, आकर्षण, प्रेम और वैराग का बहुत सुन्दर विश्लेषण...
दिव्या जी ! आपकी बेहतरीन पोस्ट्स में से एक. मुझे लगता है हम एक साथ कई स्तरों पर और कई लोगों से प्रेम करते हैं....
प्रेम तो हम दिल से ही करते हैं ...कभी वह डायरेक्ट इन्वोल्व होता है तो कभी दिमाग की सिफारिश पर. क्योंकि इस डिपार्टमेंट का अधिकृत देवता केवल वही है. मनोविज्ञान मेरा भी रुचिकर विषय है.
खूबियों का सम्मान होता है, लेकिन पसंद तो कमजोरियों को भी किया जाता है.
आकर्षण और प्रेम के अन्तर को बखूबी रेखांकित किया है आपने...
sunder hai....
vicharon aur vyavhar se hi koi prabhavit hota hai...
सम्मान लेखनी ही दिलाती है और लेखनी वही बताती है जो मन में होता है।
प्रेम और आकर्षण का एक सही और संतुलित विश्लेषण पस्तुत करने के लिए बधाई !
विचारों का स्तर ही हमारी निजी प्रसन्नता का स्तर निर्धारित करता है।
बेहतरीन आलेख । गुलदस्ते के फ़ूल
और भी सुन्दर ।
बाह्य स्वरूप का आकर्षण और विचारों के आकर्षण के अंतर की बिल्कुल सही व्याख्या की है आपने।
विचारों से उत्पन्न आकर्षण और इस आकर्षण से उत्पन्न सम्मान शनैः शनैः श्रद्धा में परिवर्तित हो जाता है। यह चिरकालिक होता है, इसका ह्रास नहीं होता।
आपको विचारों की परिशुद्धता मैं मान गया. मनुष्य के अपने विचारों के मुकाबले बाहर का जगत कहीं अधिक सुंदर है.
सुंदर पोस्ट | बधाई डॉक्टर साहब |
किसी के व्यक्तित्त्व से आकर्षित होने से सम्मान की उत्पति होती है । कभी कभी यही प्रेम में भी परिवर्तित हो सकता है । यह परिस्थितयों पर निर्भर करता है ।
राजा जनक ने ज्ञान प्राप्ति हेतू विद्वानों की सभा बुलाई.बड़े बड़े ज्ञानीजन उस सभा में आये.अष्टावक्र जी भी आये ,जिनका शरीर
आठ वक्रों में बिलकुल टेडा मेडा नजर आता था.सभी उन्हें देखकर जोर जोर से हँसने लगे. अष्टावक्र जी ने कहा कि मै विद्वानों की सभा में आया हूँ या चमारों की. सभी चुप और चकित हो गए.राजा जनक ने उनसे पूछा ऐसा क्यूँ कहतें आप. वे बोले जिनकी नजरें केवल चमड़ी ही देखतीं ही हैं ज्ञान नहीं क्या वे चमार नहीं.शास्त्रार्थ में अष्टावक्र जी ने सभी को पराजित किया.राजा जनक ने उन्हें अपना गुरु बनाया.अष्टावक्रगीता उनका प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं.
जिनके विचार हमारे भ्रम का निवारण करते हैं सत्य का आभास करा चिर स्थाई आनन्द प्राप्त कराते हैं उन्हें हम स्वत: गुरु रूप में स्वीकार करने लगते हैं.क्यूंकि गुरु विचार इतने प्रबल और सक्षम होते हैं कि उन्हें हमारा स्वत: नमन करने का दिल करने लगता हैं,उनसे आंतरिक प्रेम व भक्ति करने लगतें हैं हम .यह प्रेम- भक्ति शरीर पर कदापि आधारित नहीं होती.
लेकिन गुरु तप से अर्थात सीखने की उत्कट इच्छा और विवेक नेत्रों को पूर्ण रूप से खोल अवलोकन और मनन करने की तपस्या से धीरे धीरे प्रभु कृपा से ही प्रकट होते है.इसलिये कहा गया है:-
"न गुरोरधिकं तत्वं न गुरोरधिकं तप:
तत्व ज्ञानात्परम नास्ति,तस्मै श्री गुरवे नम:"
डोक्टर दिव्या जी , धन्यवाद , आज पहिली बार आपके दो ब्लॉग पढ़े! "प्रेम" और "सत्य" दोनों ही विषय आज की दुनिया में सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं ! हमने भी अपने सभी लेखों में , "बाबा" की कथा में भी " सत्य , प्रेम ,करुना तथा सेवा" पर विशेष जोर दिया है ! शास्वत सत्य से परिचित होना प्रथम आवश्यकता है ! सत्य को किसी कीमत में छोड़ना नहीं है ! "प्रेम" के बिना तो भक्ति होगी नहीं !और कलि काल में कल्याण का एक मात्र साधन यही है ! बहुत सुन्दर लिखा है आपने ! बहुत बहुत बधाई ! शुभ कामनाएं ! भोला- कृष्णा
दिव्या जी, नित नए विषय पर आपके आलेख मन को छू जाते हैं. इतना कि कितनी भी व्यस्तता क्यों न हो, पढ़े बिना नहीं रहा जाता. .......... शायद ऐसा इसलिए कि आप हो सकती है मनोवैज्ञानिक हो. मनोभाओं को विश्लेषण करने का आपका तरीका अनूठा है ........ यह आलेख भी पूर्ववत स्तर बनाये रखता है....... आभार.
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भृतिहरि वैराग्यशतक की मेरी किताब अभी मिल नहीं रही है,
उससे एक बिन्दु स्पष्ट किये बिना मैं टिप्पणी देने वाला नहीं ।
सो..मेरी टिप्पणी सुरक्षित समझी जाये ।
बातें सहमतियोग्य और लिखा भी अच्छा.
विचारों की समानता स्वाभाविक रुप से एक-दूसरे को आकर्षित कर लेती है ।
दिव्याजी
आपको और सभी ब्लोगर जन को भारत के विश्व कप जितने की बहुत बहुत बधाई.
आपका बहुत ही बेहतरीन लेख. बधाई हो.
विचारों की मनोवैज्ञानिक प्रश्तुती. प्रेम और आकर्षण की परिभाषा सही है, किसी के प्रति गहन सोच ही मस्तिस्क की तंत्रिकाओ को सक्रिय कर देती है और हम अपने आप को उसके आकर्षण में बंधा पाते है मगर अगले ही पल कोई और विचार जैसे ही मस्तिस्क को सक्रिय करते है आकर्षण बदल जाता है और यही उतार चढाव हमें मानव बनाये रहता है, यही तो खूबसूरती है मानव मस्तिस्क की.. गहन अध्यन से लिखे लेख के लिए बधाई और शुभकामनाये .
धोनी के रणबांकुरों ने किया है कमाल
एक जुटता की बहुत सुन्दर दी है मिशाल
आओ हम सब मिल भेद भाव भुलाएं
एक जुट हो भारत को महान बनायें
विवेक ,हौंसला ,हिम्मत को खुद में जगाएं
जीवन पथ पर नित दिन आगे बढते ही जाएँ
सद् भावों और सद् विचारों की पावन गंगा बहायें
देश से कभी न बिछुडे,सदा ही गायें
'अ मेरे प्यारे वतन, तुझ पे दिल कुर्बान'
जो जैसा होता है वैसे ही विषयों की ओर आकर्षित होता है।
initially it is physical statistics,which do matter but ultimately it is 'geek' who wins over the 'beauty'.....
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अजी छोड़िये वैराग्यशतक ...... I re-inspected your last 6 blog-posts and ( apologies granted ) it occurs to me the author ( authoress ) is searching an introjective identification !
और.. यह बुरा भी नहीं है, हम सब इससे कभी न कभी गुज़रते हैं, यह दीगर बात है कि बिरले ही ऎसे मुकाम को हासिल कर पाते हैं । अभी तो मुझे मीराबाई को छोड़ किसी का नाम भी नहीं याद आ रहा है !
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@--but ultimately it is 'geek' who wins over the 'beauty'.....
Yes, I agree fully.
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डॉ अमर ,
मैं अपने अनुभव लिखती रहती हूँ। जैसे-जैसे कुछ सीखती हूँ , यहाँ लिख देती हूँ। मेरे लिखे में कुछ भी authentic नहीं है। बस मन के अन्दर उठते हुए विचार ही होते हैं जिन्हें शब्दों की शक्ल दे देती हूँ।
मेरा लिखा विद्वान् और अनुभवी लोगों के लिए अनुपयोगी ही है , लेकिन जो लोग वय में मुझसे कम हैं , और मेरी तरह ही खुद को और दुनिया को समझने की ललक रखते हैं , शायद उनके लिए मेरे लेख किसी काम आ सकें।
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लेखक नहीं हूँ , साहित्यकार भी नहीं हूँ , विद्वान् भी नहीं हूँ । इसलिए गलतियों को नज़रंदाज़ करते चलें तो आप सभी का बड़प्पन होगा।
आभार।
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प्यार की अनंत गहराइयों में जाने पर वैराग्य की महिमा समझ आने लगती है। प्यार किसी एक के साथ करके हम लाखों लोगों के साथ अन्याय करते हैं। बहुत से लोग हैं जो हमारे प्यार के हक़दार हैं । किसी एक को अपना सारा प्रेम देकर हज़ारों के हक को मारा नहीं जा सकता।
एक छोटे परिवार से निकलकर सोचें तो एक बहुत बड़ा परिवार है , जो हमारे स्नेह की आकांशा में बिना हमसे कुछ कहे , हमारा इंतज़ार कर रहा होता है।
एक स्थिति आती है जब हम (कुछ लोग ) , इस सत्य को समझ पाते हैं । ये समझ भी इश्वर की कृपा से ही उत्पन्न होती है।
जब कोई भूखा हो तो हम मेवे-मिष्ठान कैसे खा सकते हैं ? फिर प्रेम भी तो सभी को चाहिए ...किसी एक या दो को देकर या परिवार तक सीमित करके हम स्वार्थी कैसे बन सकते हैं ?
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दिल में स्थित व्यक्ति के प्रति अनुराग को कभी intellectualize नहीं करना चाहिए और न ही विचारों के प्रति आकर्षण को प्रेम समझने की भूल करनी चाहिए।
Rightly said I fully endorse it.
आपकी टिप्पणियाँ पोस्ट से कम अच्छी नहीं.
परमात्मा से प्रेम करने में सभी आत्माओं से प्रेम हो ही जाता है | निराकार का प्रेम ही ऐसा है | Return में खुशी ही खुशी | राग और वैराग पता ही नही चलता | परमात्मा का ही राग चलता है : ' omshantimusic.in '
bilkul sahi vichar rakhe hain aapne vicharon ke prati aakrshan chirkaal tak bana rakhna chahiye aur hota bhi hai kyonki bahya aakrshan kabhi kabhi hamare man par kisi biprit sithiti me hame dur kar deti hai is aakrshan se par aantrik sada se sada k liye wali baat ho jati hai.....behtreen prstuti k liye badhai divya ji ...
Love is a confidence,that lover deposes upon the beloved one,and is an implied commitment between the two that both shall continue together in life in mutual betterment,that pleases them both simultaneously.Wherefore the count of kisses mutually exchanged don't decide the the depth of Love affection,but it is emotion of sacrifice that decides the quantum of Love u hold in Heart for ur Beloved.So far as the author of this article is concerned,i know her personally,and that great urge she holds in her heart for her Nation her People & her Community,not only i respect her,bt even i can claim i Love Her.
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