प्रेम तो एक ही है। किसी भी व्यक्ति में किसी के भी लिए ह्रदय में जो प्रेम है वह एक ही है। प्रेम का स्वरुप बदल जाता है उसके नामकरण के साथ, किन्तु प्रेम वही रहता है। जैसे पानी तो वही है , किन्तु किस पात्र में उसे एकत्र करते वह उसी का आकार ग्रहण कर लेता है। यथा कटोरी में आने पर उसका आकार गिलास में उसके आकार से पृथक होगा लेकिन जल तो वही है , कल-कल, पारदर्शी , निर्मल और शीतल।
विज्ञान की यदि बात करें तो ऊर्जा के संरक्षण के नियम के अनुसार , सृष्टि में ऊर्जा एक ही है , सिर्फ यह अपनी परिस्थिति के अनुसार अपना स्वरुप बदलकर स्थितिज (potential), गतिज (kinetic), ऊष्मा (heat), ध्वनि (sound) आदि स्वरुप को प्राप्त होती है लेकिन इनका ह्रास नहीं होता अपितु यह संरक्षित रहती हैं सृष्टि में अपने किसी न किसी स्वरुप में।
उपरोक्त उदाहरणों का इस्तेमाल किया है प्रेम को समझने में। मेरे विचार से प्रेम सिर्फ एक ही है। जब एक स्त्री अपना प्यार अपनी संतान को देती है तो "वात्सल्य" , जब पिता को देती है तो वही प्रेम पुत्री-प्रेम कहलाता है , फिर वही प्रेम पत्नी-प्रेम, बहन का प्रेम , भाभी का प्रेम , मित्र का प्रेम , देश-प्रेम आदि नामों से अलंकृत हो जाता है। यहाँ प्रेम करने वाली स्त्री अथवा पुरुष तो एक ही है और उसके पास जो प्रेम है वह भी एक ही प्रकार का है किन्तु जिसे दिया गया और जिसने ग्रहण किया उसकी वय और समझ के अनुसार प्रेम उसी साँचे का स्वरुप ले लेता है।
चूँकि मनुष्य के अन्दर एक ह्रदय विद्यमान है और उसमें अनेक भावनाओं का निरंतर संचरण होता रहता है अतः एक दुसरे के प्रति प्रेम का उत्पन्न होना अत्यंत स्वाभाविक है। हाँ , प्रेम का उत्पन्न न होना हमें 'पादप' की श्रेणी में ला देता है। लेकिन आवश्यकता है इस प्रेम को सही साँचे में ढालकर देने की और सही साँचे में ग्रहण करने की। प्रेम के इस लेन-देन में एक-दुसरे की वय और वैवाहिक अवस्था ( marital status) का ध्यान रखना अति आवश्यक है। हमारी छोटी से छोटी भूल भी किसी निर्दोष का सुखी जीवन बर्बाद कर सकती है।
कभी-कभी देने वाला तो निस्वार्थ प्रेम लुटा रहा होता है लेकिन लेने वाला उसे मनमाने साँचे में एकत्र करके उसे "वीभत्स' स्वरुप देकर स्नेह लुटाने वाले को अपमानित करता है। अतः स्नेह देते एवं लेते समय स्वयं को अनुशासित एवं मर्यादित रखना अति-आवश्यक है।
प्रेम का हर स्वरुप ( यथा- वात्सल्य, करुणा, सहानुभूति) स्वीकार्य है लेकिन किसी भी परिस्थिति में पर-स्त्री और पर-पुरुष के लिए ह्रदय में श्रृंगार के भाव नहीं आने देना चाहिए।
प्रेम के स्थायी एवं शाश्वत स्वरुप को समझा एवं निभाया जाए।
Zeal
विज्ञान की यदि बात करें तो ऊर्जा के संरक्षण के नियम के अनुसार , सृष्टि में ऊर्जा एक ही है , सिर्फ यह अपनी परिस्थिति के अनुसार अपना स्वरुप बदलकर स्थितिज (potential), गतिज (kinetic), ऊष्मा (heat), ध्वनि (sound) आदि स्वरुप को प्राप्त होती है लेकिन इनका ह्रास नहीं होता अपितु यह संरक्षित रहती हैं सृष्टि में अपने किसी न किसी स्वरुप में।
उपरोक्त उदाहरणों का इस्तेमाल किया है प्रेम को समझने में। मेरे विचार से प्रेम सिर्फ एक ही है। जब एक स्त्री अपना प्यार अपनी संतान को देती है तो "वात्सल्य" , जब पिता को देती है तो वही प्रेम पुत्री-प्रेम कहलाता है , फिर वही प्रेम पत्नी-प्रेम, बहन का प्रेम , भाभी का प्रेम , मित्र का प्रेम , देश-प्रेम आदि नामों से अलंकृत हो जाता है। यहाँ प्रेम करने वाली स्त्री अथवा पुरुष तो एक ही है और उसके पास जो प्रेम है वह भी एक ही प्रकार का है किन्तु जिसे दिया गया और जिसने ग्रहण किया उसकी वय और समझ के अनुसार प्रेम उसी साँचे का स्वरुप ले लेता है।
चूँकि मनुष्य के अन्दर एक ह्रदय विद्यमान है और उसमें अनेक भावनाओं का निरंतर संचरण होता रहता है अतः एक दुसरे के प्रति प्रेम का उत्पन्न होना अत्यंत स्वाभाविक है। हाँ , प्रेम का उत्पन्न न होना हमें 'पादप' की श्रेणी में ला देता है। लेकिन आवश्यकता है इस प्रेम को सही साँचे में ढालकर देने की और सही साँचे में ग्रहण करने की। प्रेम के इस लेन-देन में एक-दुसरे की वय और वैवाहिक अवस्था ( marital status) का ध्यान रखना अति आवश्यक है। हमारी छोटी से छोटी भूल भी किसी निर्दोष का सुखी जीवन बर्बाद कर सकती है।
कभी-कभी देने वाला तो निस्वार्थ प्रेम लुटा रहा होता है लेकिन लेने वाला उसे मनमाने साँचे में एकत्र करके उसे "वीभत्स' स्वरुप देकर स्नेह लुटाने वाले को अपमानित करता है। अतः स्नेह देते एवं लेते समय स्वयं को अनुशासित एवं मर्यादित रखना अति-आवश्यक है।
प्रेम का हर स्वरुप ( यथा- वात्सल्य, करुणा, सहानुभूति) स्वीकार्य है लेकिन किसी भी परिस्थिति में पर-स्त्री और पर-पुरुष के लिए ह्रदय में श्रृंगार के भाव नहीं आने देना चाहिए।
प्रेम के स्थायी एवं शाश्वत स्वरुप को समझा एवं निभाया जाए।
Zeal
55 comments:
मेरा मानना है कि प्रेम एक स्थायी भाव है जो प्रत्येक प्राणी में रहता है। लेकिन स्त्री और पुरुष का प्रेम इस स्थायी भाव में नहीं आता वह केवल विपरीत लिंग का आकर्षण है जो प्रत्येक जीव में होता है। इसी कारण इस तथाकथित प्रेम की आयु क्षणिक होती है लेकिन हमारे मन में जो समस्त प्राणियों के लिए प्रेम होता है वह स्थायी होता है।
अजित जी , आपका कथन सत्य है , इसीलिए इस लेख के माध्यम से यह कहने की कोशिश की है की विपरीत लिंग आकर्षण को 'प्रेम' का नाम न दिया जाए , अपितु प्रेम के स्थायी एवं शाश्वत स्वरुप को समझा एवं निभाया जाए।
गुरुजनों को सादर प्रणाम ||
सुन्दर प्रस्तुति पर
हार्दिक बधाई ||
प्रेम अपनी आंतरिक सृष्टि को स्नेह से चलाए रखने की आदत है. उसे कैसा वातावरण मिला उस पर बहुत कुछ निर्भर है. यह कुछ-कुछ खुश रहने का आदत जैसा है.
जिसके पास निर्मल हर्दय है उसमे प्रेम उपजना सहज है यह रस हर प्राणी की संरचना के अनुसार प्राकर्तिक है चाहे इंसान हो या जानवर अर्थात कोई भी प्राणी !हाँ भगवान् ने इंसान को उसका पालन करने की बुद्दी और इन्द्रियों को वश में करने की शक्ति भी दी है जो और प्राणियों में कम है !दिव्या आपने जो अंतिम लाइन में लिखा है वह नेतिकता की कसौटी पर आधारित है जिसके दिल में नैतिकता होगी वही प्यार को पूजा के रूप में लेगा !बहुत अच्छा विचारात्मक लेख लिखा है !शिक्षक दिवस पर बधाई !
बड़े सहज रूप में आपने प्रेम को परिभाषित किया है. हाँ इसका अनुशासित और मर्यादित होना नितांत आवश्यक है.
"...ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होए"!
आपकी सुन्दर प्रस्तुति प्रेम का बहुत सही निरूपण कर रही है.
प्रेम आध्यात्मिक स्तर पर आत्मा का स्वभाव है जो मन बुद्धि के माध्यम से प्रकट होता है.शारीरिक स्तर पर इसका नियोजन रिश्तों के रूप में हो जाना समाज और व्यक्ति के लिए आवश्यक है.जैसे 'उर्जा' का उपयोग आवश्यकता अनुसार अलग अलग प्रकार से किया जाता है.सर्दी में गर्म करने के लिए,तो गर्मी में ठंडा करने के लिए,मोटर कार में दूरी तय करने में आदि आदि.रिश्तों की गरिमा बनाये रखने से प्रेम हमेशा ही विकसित व पल्लवित होता है.फिर चाहे वह माँ का 'वात्सल्य',बहिन का 'स्नेह',मित्र का 'सखा भाव' आदि आदि किसी भी रूप में हो.
आपकी इस अनुपम चिंतनपरक प्रस्तुति के लिए आभार,दिव्या जी.
दिव्या,
स्नेह और शुभकामनाएँ!
'गज़ल' सुननें को शिरकत करें !
प्रेम पर सार्थक विश्लेषण .. अजीत जी ने और स्पष्ट किया .. प्रेम एक स्थायी भावना है .. लेकिन व्यक्ति विशेष के प्रति परिस्थिति अनुसार बदलाव आ जाता है ..
बहुत ही अच्छा लिखा है आपने .. आभार ।
प्रेम पर सार्थक चिंतन दिव्या जी,
Rajesh kumari जी की टिप्पणी
बहुत अच्छी लगी मुझे ...
बढ़िया पोस्ट बधाई !
सार्थक दृष्टिकोण!! स्थायीभाव युक्त सम्यक प्रेम ही सार्थक प्रेम है।
प्रेम का बहुत ही सटीक विश्लेषण किया है।
प्रेम एक सास्वत सत्य हैं ..हर व्यक्ति से अलग -अलग किस्म का प्रेम होता हैं --मैं स्त्री -पुरुष के प्रेम को भी इसी श्रेणी रखती हूँ -- हा,उसमें जिस्मानी आकर्षण तो हैं पर उसे झुटलाया नहीं जा सकता --वो भी एक प्रेम की डोर से ही बंधे हें ..
प्रेम के इतने रूपों का आख्यान केवल हम मनुष्यों में ही संभव है . यों जानवर भी अपने बच्चों से प्यार करते हैं , परन्तु एक समय सीमा तक ही !अपने विवेक, बुद्धि के आधार पर ही मनुष्य सर्व श्रेष्ठ प्राणी है तथा समाज में रहते हुए कुछ बंधनों में बंधना अथवा अपने आपको बांधना अनिवार्य तथा अपरिहार्य है. विवेक और बुद्धि ही मर्यादा में बंधने, उसका अतिक्रमण न करने सम्बन्धी
विचारों का निर्धारण करती है . परस्पर आकर्षण भले ही नैसर्गिक और स्वाभाविक है परन्तु स्वानुशासन तथा संयम से इसे भी सकारात्मक रूप दिया जा सकता है . हर प्रकार का प्रेम अनमोल है तथा उसका सम्मान किया जाना चाहिए.
वैसे भी ,
"प्रेम न बाड़ी उपजे , प्रेम न हाट बिकाए " !
दिव्या दीदी, आपने कहा
"प्रेम तो एक ही है| किसी भी व्यक्ति में किसी के भी लिए ह्रदय में जो प्रेम है वह एक ही है| प्रेम का स्वरुप बदल जाता है उसके नामकरण के साथ, किन्तु प्रेम वही रहता है|"
सच है| उसी स्वरुप को सम्बन्ध या रिश्ता कहा जाता है| जैसे पिता-पुत्र, माँ-बेटा, भाई-बहन, पति-पत्नी या दोस्त इत्यादि| यहाँ भाई-बहन या पति-पत्नी के बीच प्रेम में कोई अंतर नही है, अंतर केवल संबंधों में है| प्रेम तो वही है|
यह कहना गलत है कि इनके मध्य भाई-बहन का प्रेम है व इनके मध्य पति-पत्नी का| भाई-बहन या पति-पत्नी का केवल सम्बन्ध है, प्रेम तो वही एक है|
जो प्रेम मैं अपनी माँ से करता हूँ, वही प्रेम मैं अपने पिता, भाई, बहन या दोस्त से भी करता हूँ| यहाँ अंतर केवल संबंधों का है, प्रेम का नहीं|
LOVE CAN NOT BE CLASSIFIED.
जहां तक मर्यादा का प्रश्न है तो मर्यादा उचित ही है| यदि मैं किसी स्त्री को माँ अथवा बहन मानकर "I LOVE YOU" कह दूं, तो संभावना है कि वह इन शब्दों को अनेकों रूप में ले सकती है| शायद वह मेरे इरादे को गलत भी समझ ले| अत: मर्यादा होना उचित है|
अत: आपकी अंतिम पंक्तियाँ उचित है कि "किसी भी परिस्थिति में पर-स्त्री या पर-पुरुष के लिए ह्रदय में श्रृगार के भाव नही आने देना चाहिए|"
खैर यह भी सत्य है कि श्रृंगार भाव में अधिकतर तो प्रेम न होकर केवल शारीरिक आकर्षण ही होता है|
दिव्या दीदी, बहुत सुन्दर व सार्थक व्याख्या|
अध्यापकदिन पर सभी, गुरुवर करें विचार।
बन्द करें अपने यहाँ, ट्यूशन का व्यापार।।
छात्र और शिक्षक अगर, सुधर जाएँगे आज।
तो फिर से हो जाएगा, उन्नत देश-समाज।।
--
अध्यापक दिवस पर बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!
सुन्दर अभिव्यक्ति बधाई
शिक्षक दिवस की बधाइयाँ
bahut acchi post... prem ko bahut hee acche aur sahi dhang se prastut kiya hai aap ne ....congrates...
विस्तृत विश्लेष्ण के साथ ही सुन्दर और सार्थक
प्रस्तुति ......
वाह! बहुत सुन्दर
शिक्षक दिवस की शुभकामनाये
इस सवाल पर ग़ौर करने वालों ने ‘ब्लॉगर्स मीट वीकली 7‘ में एक ख़ास शख्सियत से रू ब रू कराया है और ...
आपकी तथ्यात्मक और विश्लेषणात्मक इस मेहनत से लिखी गई पोस्ट के लिए हार्दिकं बधाई.
ब्लॉगर्स मीट वीकली (7) Earn Money online
so very true what you say.. But in todays materialistic world , in the mad rush of making money, and what ever we do .. Do you think This Prem - love Exists .. Everything seems to be DONE for a reason .. Love is given expecting something back..
It use to be what you say but not anymore in my experience thats is
Bikram's
LOVE is BEYOND THE DESCRIPTION
प्रेम का स्वरूप गहरा है, आकर्षण से बहुत दूर।
bahut acchha lekh aap to acchha likhti hi rahti hai prernaspad lekh------bahut-bahut dhanyabad.
प्रेम एक गहन अनुभूति है.
behtreen prastuti ke liye hardik badhai
आपकी पोस्ट ब्लोगर्स मीट वीकली(७) के मंच पर प्रस्तुत की गई है/आपका मंच पर स्वागत है ,आप आइये और अपने विचारों से हमें अवगत कराइये /आप हिंदी की सेवा इसी तरह करते रहें ,यही कामना है / आप हिंदी ब्लोगर्स मीट वीकलीके मंच पर सादर आमंत्रित हैं /आभार/
बहुत बढ़िया बहुत अच्छे विचार, धन्यवाद आपको!
शिक्षक दिवस की शुभकामनाएँ और सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन जी को नमन
सटीक और शानदार प्रस्तुति , आभार
bahut hi acchi rachna
Prem ki to leela aprampaar hai... Behtreen Lekh!
हृदय का प्रेम से क्या सम्बन्ध है ?
प्रेम तो एक मानसिक स्थिति है ।
पर स्त्री / पुरुष से प्रेम --इस प्रलोभन से शायद ही कोई बच पाता हो ।
फिर भी जहाँ तक हो सके , इस मानसिक प्रदूषण से बचना चाहिए ।
प्रेम और उसके विविध रूपों का अच्छा विश्लेषण।
प्रेम, प्रीति, चाहत, लगाव, मोह, आत्मीयता, स्नेह, दुलार, लाड़, आसक्ति, राग, श्रद्धा, सम्मान, मान, आदर, भक्ति, निष्ठा आस्था, मैत्रीभाव आदि आदि का आधार प्रेम ही है। सभी में एक ही प्रेम की उर्जा समाहित है, लेकिन प्रकृति अलग-अलग है।
प्रेम तब तक प्रेम है जब तक वह निःस्वार्थ, निश्छल और निष्कपट हो। निर्मल ओर पवित्र प्रेम मानव को मानव बनाए रखता है।
प्रेम निराकार है - शब्दों के जाल में नहीं फंसने वाला :)...
किन्तु एक ही निराकार के अनंत प्रतिरूप / प्रतिबिम्ब में से एक मानव जाति इसे समझने के लिए, विभिन्न नाम देती है,,, और यूं हर आम व्यक्ति माया में उलझा रहता है...
इसी लिए सत्यान्वेषी जोगी को सुझाव दिया जाता है कि वो चार आश्रम में जीवन व्यापन कर 'तपस्या' करे...
और 'द्वैतवाद', सही / गलत, आदि के ऊपर उठ अपने चंचल मन को दशरथ समान, (दशाशन समान नहीं, केवल निज स्वार्थ पूर्ती हेतु), दसों दिशाओं के विभिन्न नियंत्रक शक्तियों को 'परम सत्य', निराकार परमात्मा, से सम्बन्ध साधने का प्रयास करे जैसे पार्थसारथी कृष्ण, अर्जुन को, शत्रु और मित्र, विपरीत शक्तियों के मध्य में ला खड़ा किये (बुद्ध के 'मध्य मार्ग' / नटराज शिव को दोनों के बीच रस्सी पर संतुलन रखते समान)...
prem to bas prem hai...
प्रेम शाश्वत है. कबीर ने भी क्या खूब कहा है; " प्रेम ना बाड़ी ऊपजै, प्रेम ना हाट बिकाय......" प्रेम को खूबसूरत ढंग से परिभाषित करने के लिए बहुत आभार.
मेरे विचार में प्रेम कि कोई परिभाषा नहीं हैं यह एक अनुभूति है
lekh ki antim panktiyan lazvab hain ,vastv men yhi to hona chahie
prem prem bna rhe , yah vasna n ho esi koshish sabhi ko karni hi chahie
प्रेम को गुलज़ार साहब ने कुछ इस तरह परिभाषित किया है...प्यार कोई बोल नहीं...प्यार आवाज़ नहीं...एक ख़ामोशी है कहती है सुना करती है...
"सूरज एक..
चन्दा एक ...
तारे अनेक ... "
गीत की तर्ज पर कहता हूँ.
"ईश्वर एक ...
प्रेम भी एक ...
रूप हैं अनेक ... "
आपने बहुत ही अच्छे से बात को स्पष्ट किया है... पढ़कर मन प्रसन्न हुआ.
प्रेम का सच तो यही है की उसे निर्मल और निष्कपट रहने दिया जाए. प्रेम को किसी भी परिभाषा में बांधना नितांत मुश्किल. प्रेम की परिणति त्याग और तपस्या से सुरू होकर वही समाप्त भी होती है.विपरीत लिंगी आकर्षण तो मात्र आकर्षण है क्षणिक और उसकी परिणति सदैव रुसवाई से होती है, अपमान से होती है यही सास्वत सत्य है .
बहुत अच्छा विश्लेषण किया प्रेम का
अच्छा लगा मेरे ब्लाग पर अवश्य आइये मैने भी
एक छोटी सी कोशिश की है इसे समझने की।
प्रेम को समझना बहुत ही कठिन है...
सुन्दर विवेचन
प्रेम तो प्रेम है.....
मीरा ने कृष्ण से किया वो भी प्रेम और कृष्ण ने राधा से किया वो भी प्रेम....
के स्थायी एवं शाश्वत स्वरुप को निभाने की कोशिश करते रहते है .
दो इंसानों के बीच निश्छल प्रेम महत्व रखता है , यदि इसे विपरीतलिंगी के रूप में देखा जाए , तो ही मन में कलुष भाव होता है वरना इससे पवित्र कुछ नहीं !
उत्कृष्ट पोस्ट देर से पढ़ पाई !
गुलज़ार जी का गीत याद आ गया-हमने देखी है इन आँखों की महकती खुशबू हाथ से छू के इन्हें रिश्तों का इल्जाम न दो. सिर्फ एहसास है ये रूह से महसूस करो,प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो.
सामाजिक रिश्तों में मर्यादा होनी ही चाहिये.
प्रेम हमारे जीवन में कीमती और खूबसूरत हीरे जैसा है..तराशे गए हर कोने से उसका रूप अलग दिखाई देता है..एक नज़र देखने, उसकी खूबसूरती को महसूस करने की लालसा पूरी हो जाए वही गनीमत है..उसे पाने की चाहत तो किसी किसी की ही पूरी होती है...
आपकी सारी बातों से सहमत हूँ...........पर सिर्फ एक बात कहूँगा ..............प्यार किया नहीं जाता .हो जाता है .........."इश्क वो आतिश ग़ालिब, जो लगाये न लगे, बुझाये न बने".............जो सोच समझ कर किया जाये वो प्यार नहीं होता ......सौदा होता है|
प्रेम ही शायद कहीं विस्मृत हो गया है, वर्ना प्रेम तो सिर्फ़ प्रेम होता है उसमे कुछ भी कलुष नही होता. शुभकामनाएं.
Post a Comment