Tuesday, September 6, 2011

क्या स्पष्टीकरण की ज़रुरत पड़ती है ?

जब कोई किसी को अनायास ही गलत समझ लेता है तो वह व्यक्ति अपनी स्थिति को स्पष्ट करने की चेष्टा करता है। लेकिन मुझे लगता है कि ऐसी अवस्था में स्पष्टीकरण कि आवश्यकता नहीं होती। क्यूंकि जिनका हमपर स्नेह एवं विश्वास होता है वे हमें गलत कभी समझते नहीं। और यदि गलती से गलत समझ भी लेते हैं तो खुद बखुद समय के साथ समझ भी जाते हैं। लेकिन जो मन में द्वेष रखते हैं , कान के कच्चे होते हैं , दूसरी के दिए गए तथ्यों पर जल्दी विश्वास कर लेते हैं और अपनी ज्ञानेन्द्रियों का उपयोग करने से परहेज़ करते हैं , वे ही दूसरों द्वारा प्रस्तुत किये गए तथ्यों पर यकीन करके किसी को अनायास ही गलत समझने कि गलती करते हैं। ऐसे लोगों को स्पष्टीकरण देने का कोई लाभ भी नहीं होता क्यूंकि - " दुश्मनों को स्पष्टीकरण समझ नहीं आता , जबकि अपनों को स्पष्टीकरण देने कि ज़रुरत ही नहीं पड़ती"

"Friends do not need explanation while foes do not understand explanation"

ऐसा करके वे कुछ अच्छे और कुछ सच्चे लोगों को खो देते हैं। इसलिए किसी के बारे में राय बनाने से पहले पूरे सच कि जान लेने कि कोशिश अवश्य करनी चाहिए। वरना "कव्वा कान लेकर भागा" वाली कहावत चरितार्थ हो जाती है।

सुनी सुनाई बातों पर यकीन कर लेना आपके कान कच्चे होने के परिचायक हैं, जिसके बारे में राय बनायीं है , उसकी कमजोरी के नहीं। इसलिए दूसरों के बारे में गलत राय निर्धारण से पहले अपने व्यक्तित्व को दृढ करने कि ज्यादा आवश्यकता है।

खतावार समझेगी दुनिया तुझे...
अब इतनी जियादा सफाई ना दे..

Zeal

56 comments:

Bharat Bhushan said...

रिवाज़ तो यह है कि बातें सुनाई ही इसलिए जाती हैं कहीं किसी बात पर तमाशा हो और तब उसे बिना टिकट देखा जाए. यह भी अनुभव में आया है कि घर के बूढ़े यदि अकेलेपन के शिकार हो जाएँ तो वे भी इस तकनीक का प्रयोग करते हैं. बढ़िया आलेख. आपसे सहमत हूँ.

Satish Saxena said...

अपने आप में सम्पूर्ण, स्पष्ट और बेहतरीन पोस्ट !
अक्सर जल्दवाज और छिछले पाठक, प्रतिक्रिया देते समय, उस समय की मनोदशा से बिना उबरे , अपना गुबार फेंक जाते हैं और इस प्रकार अपनी समझ और स्वभाव का परिचय दे देते हैं ! कई बार जिनको मैं बहुत आदर करता रहा हूँ उनकी टिप्पणियां देख अपनी समझ पर ही तरस आया !
समान विचार ही एक दूसरे को आकर्षित करते हैं ! मगर अपने आपकी भी समीक्षा होती रहनी चाहिए !

प्रतिभा सक्सेना said...

स्थिति पर निर्भर करता है ,किसे कब और क्यों स्पष्टीकरण दें .अगर ठीक लगे तो देना ठीक, नहीं तो क्यों बेकार मगज़मारी की जाय !

amrendra "amar" said...

waah kya baat khai hai aapne, ye sach hai ki hume apno ko spastikaran denen ki koi jarurat nahi honi chahiye.pr kabhi kabhi halatwas aisa bahut jaruri hota hai .........
aapki post wakai me bahut hi umda hai .....aabhar

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

कभी कभी अपनी स्थिति साफ़ करने के लिए स्पष्टीकरण देना भी पड़ जाता है ... स्पष्ट कर देने से कम से कम अपने मन का बोझ हल्का हो जाता है ..बाकी समझने वाले के ऊपर है ..

JC said...

दिव्या जी, "माया में दोनों गए / माया मिली न राम"! सारा "करूं / न करूं" का चक्कर 'परम सत्य' को नहीं जानने के कारण है, अथवा कहिये स्वयं को नहीं जानने के कारण है... आप अपने मस्तिष्क की कार्य प्रणाली को ही जानने का प्रया करेंगे तो संभव है अपने विचारों को एक नया मोड़ दे सकें... अपने अनुभव को शब्दों में मैंने भी प्रयास किया, और एक विचित्र अनुभव नीचे दे रहा हूँ जो मैं पहले भी कई ब्लॉग में हिंदी / अंग्रेजी में कह चुका हूँ....

मानव मस्तिष्क की कार्यप्रणाली विचित्र है, और उसका नियंत्रक भी !... सन '८० फरवरी में मैं अपने चार अन्य पारिवारिक सदस्यों के साथ गुवाहाटी पहुँच गया...ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे बसे होने से बहुत मच्छर थे वहाँ... एक दिन पत्र लिख रहा था तो एक मच्छर हाथ पर बैठ गया... और जैसा आम होता है, मेरा बांया हाथ उठ गया उसे मारने के लिए... किन्तु उस क्षण एक विचार मन में कौंधा, "एक 'वैज्ञानिक' होते हुए भी मैं मच्छर को क्यूँ मारता था, जबकि अपने तत्कालीन ४० + वर्ष की आयु तक मुझे मलेरिया कभी नहीं हुआ था! वो बेचारा तो 'पापी पेट' की खातिर थोडा सा रक्त पीता था!" यह सोच मेरा बांया हाथ नीचे अगया और मैंने उस से कहा "जितना पीना है पीले! मैं हाथ नहीं हिलाऊंगा, नहीं तो तू डर के उड़ जाएगा"... आश्चर्य हुआ जब वो आराम से अब आगे बढ़ ऊँगली पर पहुँच मेरी कलम को धक्का सा मारने लगा! जब मैंने हाथ से कलम नहीं छोड़ा तो अंगूठे के ऊपर पहुँच गया और एक स्थान चुन लगा खून पीने! मैंने सोचा था वो दो चार बूँद खों पी उड़ जाएगा,,, किन्तु जैसे मुफ्त की शराब काजी को भी हलाल होती है वो टंकी फुल करने लगा :) काफी समय निकल गया... फिर एक बार देखा की वो नीचे मेज़ पर उतर चूका था और आगे ऐसे बढ़ रहा था जैसे कोई शराबी चलता है :)

मैंने सोचा था मेरा निमंत्रण केवल उस मच्छर के लिए था,,, किन्तु उसके बाद जो भी मच्छर आता उसी अंदाज़ से पीता था जैसे वो मेरा अतिथि था (और, 'अतिथि देवो भव'!)...

रेखा said...

एकदम सही और सटीक बात स्पष्ट तरीके से सरल शब्दों में समझा दिया है आपने ,मेरा भी यही मानना है की हर जगह स्पष्टीकरण की आवश्यकता नहीं होती है

रविकर said...

सही है

नहीं पड़ती जरुरत

स्पष्टीकरण की ||

Suman said...

बहुत बढ़िया पोस्ट दिव्या जी,
गलतफहमियों का कोई अंत नहीं
इसपर हम किसको कितना स्पष्टीकरन देंगे !
टिप्पणियाँ कभी पूरी तरह से आपकी पोस्ट को
प्रामाणिक अभिव्यक्त नहीं कर पाती! इसलिए
कमसे कम इन गलतफहमियों को अपनोसे
दूर ही रखे तो बेहतर होगा ! आभार आपका !

prerna argal said...

दिव्याजी आपने बहुत ही सार्थक और सटीक बात बहुत सुंदर और सरल शब्दों में समझाई है /परन्तु अगर किसी बात का स्पष्टीकरण दे दिया जाए तो एक तो गलतफहमी नहीं होती और दूसरा आप के दिल को सुकून रहता है की आपने अपनी बात सामने वाले को समझा दी /इतने अच्छे लेख के लिए बधाई आपको /

अजित गुप्ता का कोना said...

परिस्थितियों पर निर्भर करता है कि स्‍पष्‍टीकरण देना चाहिए या नहीं। कई बार कुछ लोग इसी बात का फायदा उठाते हैं कि इनके बारे में कुछ भी कहो लेकिन यह प्रतिक्रिया नहीं करेंगे, ऐसे में कभी अपनी बात बता देने से स्थिति स्‍पष्‍ट भी हो जाती है, नहीं तो एक तरफा प्रचार ही चलता रहता है।

Rakesh Kumar said...

दिव्या जी वाह!
जे.सी.जी आह!

DR. ANWER JAMAL said...

नफ़रतें राजनीति की देन हैं। इस्लाम और मुसलमानों के बारे में सही जानकारी के लिए देखिए
यह वेबसाइट
‘इस्लामिक पीस मिशन‘ Islamic Peace Mission
शांति के लिए समर्पित एक वेबसाइट

vandana gupta said...

संगीता जी से सहमत्।

JC said...

प्रकृति में विविधता है, जानते हैं सभी...
लोहे (शनि से सम्बंधित) के अपने गुण हैं और सोने (चन्द्र, विष्णु के मोहिनी रूप, से सम्बंधित) के अपने...
जहां लोहा आवश्यक है वहां सोना आम तौर पर नहीं लगाया जाता...
रहीम जी भी कह गए, "रहिमन देखि बड़ेन को लघु न दीजे छाडी / जहां काम आये सुई कहा करे तरवारी"... (दोनों लोहे से बनी)...
किन्तु प्राचीन काल में मानव लोहे को सोने में परिवर्तित करना जान गया था...

आज यदि कोई ऐसा कर सके तो शायद 'भारत' फिर से 'सोने की चिड़िया' हो जाए :)
किन्तु परिणाम क्या होगा अनुमान लगा सकते हैं जैसे कि बचपन में एक माइदास (मिडास?) की कहानी सुनी थी कि उसने वरदान माँगा, और उसे मिल भी गया कि जिसको छुवोगे वो सोने में परिवर्तित हो जाएगा!
दिन भर हर वस्तु को ख़ुशी ख़ुशी सोना बनाता चला गया,,, किन्तु उसने मांगते समय अज्ञानता वश इसका परिणाम नहीं सोचा था और जब शाम को अपनी प्रिय पुत्री को गोद में लिया तभी जाना कि अनर्थ हो गया!

राकेश जी के प्रिय, राम चन्द्र जी भी सोने की राज गद्दी को लात मार बन में भटके, किन्तु एक मायावी सोने के हिरन के कारण अपनी पत्नी को ही खो बैठे, जब रावण उसे हर के सोने की लंका ले गया...
प्रभु कि कृपा से अन्य परदेसी लोगों की सहायता से छुड़ा के लाये भी तो फिर उसे बनवास के लिए भेजना पडा, जुड़वाँ बच्चे हुए किन्तु सुख उन्हें नहीं मिला, लड़ाई भी करनी पड़ी, और उनकी रावण पर विजय पाने वाली सेना की हार भी हुई :(इत्यादि...इत्यादि)...
स्पस्टीकरण अंत में जब हुआ, तभी सत्य का पता चला :)

aarkay said...

आपका कहना बिलकुल सही है दिव्या जी , पर बहुत कुछ परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है. कहीं संबंधों में बहुत अधिक हानि अथवा दरार का अंदेशा होने के कारण चुप्पी का जोखिम नहीं उठाया जा सकता क्योंकि कोई भी तीसरा व्यक्ति अनुचित लाभ उठा सकता है या हानि पहुंचा सकता है.
सार्थक आलेख के लिए बधाई !

रश्मि प्रभा... said...

chand shabdon se agar baat n suljhe to spashtikaran vyarth hai

mridula pradhan said...

kabhi-kabhi chuppi todni zaroori hai......

JC said...

राकेश जी, दिव्या जी, बचपन में हमारे माता-पिता हम बच्चों को भी अपने साथ 'रामायण' फिल्म दिखाने ले गए... क्यूंकि उस समय बढे बूढ़े बच्चों को 'अच्छा' बनाना चाहते थे, 'बिगड़ने' देना नहीं चाहते थे...
उस फिल्म में एक गाना था लव-कुश के पात्रों के द्वारा स्पष्टीकरण करते, "भारत की इक सन्नारी की हम कथा सुनाते हैं // शिव धनुष राम ने तोडा / मिला चन्द्र-चकोर का जोड़ा// जनकपुरी से नाता तोडा / अवधपुरी से जोड़ा//..." इत्यादि...

अनुमान लगाया जा सकता है कि 'जनकपुरी', अर्थात सीता के पिता का निवास स्थान, यानि धरती माता का गर्भ, जिससे दोनों का, जम्बू द्वीप के उत्तर में, सागर जल को चीर हिमालय, और चन्द्र का भी किसी काल में जन्म हुआ... और दोनों पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण शक्ति के नियंत्रण में ही हैं... यानि विष्णु द्वारा दिया गया, गंगाधर 'शिव का प्राचीन धनुष', जिसे 'धनुर्धर राम ने तोडा',,, अर्थात सूर्य की किरणें ने वातावरण को भेद धरा पर जीवन-दाई शक्ति रूप में पहुँच शिला बनी नारी 'अहल्या' को जीवन दान दिया... जैसा वर्तमान वैज्ञानिक भी आज सूर्य को धरा पर जीवन दाई शक्ति तो मानते हैं, किन्तु प्राचीन हिन्दुओं की तुलना में अज्ञानी... और अनूमान लगाया जा सकता है 'अवधपूरी' का 'आकाश' में होना जहां सूर्य आरम्भ से ही विराजमान थे (विष्णु की नाभि से उत्पन्न कमल रुपी कुरसी में बैठे 'ब्रह्मा'... इत्यादि, इत्यादि...

Pallavi saxena said...

सारगर्भित आलेख है आपका,मगर मैं संगीता आंटी की बात से भी पूरी तरह सहमत हूँ। की कभी-कभी अपनी स्थिति साफ करने के लिए स्पष्टीकरण करना ही पड़ता है। स्पष्ट कर देने से कम से कम अपने मन का बोझ हल्का हो जाता है और यह एक दम सही बात है जिसे मैंने खुद कई बार अनुभव किया है। कभी समय मिले तो आयेगा मरी भी पोस्ट पर ध्न्यवायद ....

nilesh mathur said...

सच कहा आपने।

वाणी गीत said...

एक बार स्पष्ट शब्दों में कहने की कोशिश तो की जानी चाहिए, बार- बार नहीं!

Unknown said...

सुन्दर प्रस्तुती!!!

सुज्ञ said...

स्पष्टिकरण करना न करना तात्कालिक परिस्थितियों पर निर्भर करता है।
जब वस्तुस्थिति पर भांतियां उलझ पडे, स्पष्टिकरण आवश्यक हो जाता है। अनावश्यक स्पष्टिकरण बार बार की सफाई देने सम होता है।

एक स्नेही मित्र अपने बेहद जरूरी कार्य की वजह से हमारे कार्य को महत्व नहीं देता, और हमारी धारणा बनने लगती है वह हमसे पिछा छुड़ाना चाहता है। ऐसे में में उस मित्र को आभास हो कि प्रसंग की वजह से उसके बारे में गलत धारणा बन रही है तो उसका स्पष्टिकरण देना उचित है।
कितने भी दिल मिल जाय संयोगी उल्झनो का पैदा होना भी इतना ही सत्य है। समय रहते ऐसी उल्झनो को स्पष्टिकरण से सुलझा लेना आवश्यक है। इसे ही पारदर्शकता कहते है।

shikha varshney said...

कभी कभी स्पष्टीकरण जरुरी होता है.बाकी समझ अपनी अपनी.

सदा said...

बिल्‍कुल सही कहा है आपने ।

Shalini kaushik said...

sahi kah rahi hain aap divya ji

प्रतुल वशिष्ठ said...

यदि मुझे लगे कि मेरे कारण से ही उलझने पैदा हुई हैं.. संशय उठ खड़े हुए हैं... कलह होने ही वाला है... तब तो स्पष्टीकरण के लिये मुख खोलना मेरी मजबूरी बन जाता है... यदि मेरा मौनव्रत भी क्यों न हो ... ऐसे में परस्पर कलह रोकने के लिये संशय-निवारण आवश्यक हो जाता है.
जब लगता है कि कोई लाभ न होगा... कोई साथी समझने को ही तैयार नहीं ... तब तो मौन ही रहना श्रेयस्कर लगता है. 'समय कभी न कभी सत्य का उदघाटन जरूर करेगा' ऐसा सोचने लगता हूँ.
_________________
आपने एक बार फिर से चर्चा कराने के लिये उपयुक्त विषय का चयन किया ... आप ब्लोग्गरों को एकजुट करने में सक्षम हैं.... साधुवाद.

Nirantar said...

At times we feel explanation is necessary but actually is not necessary.Few people have fixed ideas they do not accept genuine explanations

महेन्‍द्र वर्मा said...

@friends do not need explanation and foes do not understand explanation.
बिल्कुल सही कथन है।
ऐसा ही एक और कथन ये है-
समझदार को समझाने की जरूरत नहीं और नासमझ को समझाने से कोई फायदा नहीं।

प्रवीण पाण्डेय said...

स्पष्टीकरण कुछ छिपाने के लिये ही होते हैं।

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना said...

१- सुज्ञ और प्रतुल जी के विचारों से सहमत हूँ.स्पष्टीकरण युक्तियुक्त ही होना चाहिए.
२- टिप्पणी बॉक्स में प्रासंगिक टिप्पणियाँ ही होनी चाहिए. मुझे इस बात से सख्त ऐतराज़ है कि कोई ब्लॉगर किसी के ब्लॉग को प्रचार या विज्ञापन का माध्यम बनाये. यद्यपि ब्लॉगर्स की अभी तक कोई आचार संहिता नहीं बनायी गयी है ( जोकि निश्चित ही बनायी जानी चाहिए ) तथापि यह स्वयं विचारणीय होने से सहज अपेक्षित है. मैं दिव्या जी से अनुरोध करूंगा कि वे मोडेरेशन सक्षम करें और ऐसे विज्ञापनों को डिलीट करने की कृपा करें. मैं पहले भी ऐसे विज्ञापन देख चुका हूँ...आज विवश होकर ऐसा लिखना पड़ रहा है. सभी सुधी पाठकों से भी अनुरोध है कि यदि वे इस बात से सहमत हों तो ऐसे कृत्य की निंदा करने की कृपा करें. जो गलत है उसका प्रतिरोध होना ही चाहिए.
३- आदरणीय जे. सी. जी ! ॐ नारायण ! ! ! मच्छर दादा से एक बात याद आ गयी. आपने सुना होगा, केवल मादा मच्छर ही रक्त पीती है. वस्तुतः उसे यह आवश्यकता केवल प्रजनन के समय ही पड़ती है, हमेशा नहीं. अपनी वंशवृद्धि की प्रक्रिया में अण्डों के निर्माण के लिए एक आवश्यक घटक उसे रक्त में पायी जाने वाले एक प्रोटीन से ही प्राप्त होता है. उस प्रोटीन के अभाव में वह अंडे नहीं बना सकती. अपनी वंशवृद्धि के लिए खून पीना उसकी विवशता है ..और इसी प्रकृतिप्रदत्त विवशता ने उसे इतना बदनाम कर दिया है. एक माँ की दृष्टि से ज़रा विचार कीजिये तो मादा मच्छर के प्रति करुणा ही उपजती है.

Kailash Sharma said...

आप की बात से कुछ हद तक सहमत हूँ, लेकिन स्पष्टीकरण देने से अगर भ्रम मिट सकता है तो एक बार उसके लिए प्रयास करने में कोई हानि नहीं है। बाकी स्पष्टीकरण को समझना या न समझना दूसरे की बुद्धि पर निर्भर है. लेकिन अगर यह लगे की दूसरा व्यक्ति कुछ सुनने को तैयार नहीं है और वह अपनी बात पर ही अड़ा है तो वहाँ स्पष्टीकरण देने का कोई अर्थ नहीं है।

JC said...

डॉक्टर कौशलेन्द्र जी, जानकारी के लिए धन्यवाद! वैसे इन्टरनेट के माध्यम से यह मैं पहले भी जान चुका था,,, आपने भी सरल शब्दों में उसे समझा दिया...
मेरा तो '८९ से यह मानना था कि मच्छर तो सभी को काटते हैं, फिर सभी को मलेरिया क्यूँ नहीं होता? क्या इसका कारण हमारी, औसत व्यक्ति की क्षमता का क्षीण होना है?
और मच्छर से तो संग्राम सम्पूर्ण संसार के स्तर पर चला आ रहा है... फिर भी प्राणीयों में सर्वश्रेष्ठ कृति मच्छरों से क्यूँ नहीं जीत पाती?
और हमें यह भी पता है कि संसार में कुछ भी, वस्तु अथवा प्राणी - जैसी हमारी वर्तमान में मान्यता है - जबकि हमारे पूर्वज सब में 'भगवान्' अर्थात परमात्मा को देखने की सलाह दे गये,, भले ही वो सूर्य देवता हों अथवा पृथ्वी, यानि 'गंगाधर' एवं 'चंद्रशेखर' आदि अमृत शिव, अर्थात महेश हों...

क्या इसका कारण काल, कलियुग (अंधेर नगरी / चौपट राजा) अथवा कलयुग का प्रभाव है - जो झुनझुने समान यंत्र पा मानव की ग़लतफ़हमी का कारण है 'कर्ता' होने का,,, जबकि हिन्दू मान्यतानुसार वो स्वयं 'मिटटी का पुतला' है (जैसा विष्णु के अवतार कृष्ण ने धनुर्धर अर्जुन को कहा - कि वो निमित्त मात्र है, केवल एक माध्यम परमात्मा की लीला का ?)...

JC said...

Extract from the link given below:

"From a population standpoint, insects rule our planet. Scientists have gotten around to naming almost 900,000 different species of insects, but some experts suggest that there may be as many as 30 million more species that haven't yet been christened [source: Smithsonian]. These same scientists estimate that about 10 quintillion--that's 10 with 18 zeroes behind it--insects are alive on Earth at this very minute..."

See link:
http://curiosity.discovery.com/topic/importance-of-biodiversity/10-most-important-insects.htm#mkcpgn=fbapl1

Unknown said...

स्पस्ठीकरण देना मानव स्वाभाव में है . गलत बातों की सफाई भी देते है लोग, भले वो सही न हो . स्वयं को गलत सोचना और देखना हरगिज़ नहीं चाहते लोग .फिर क्यों स्पस्ठीकरण दिया जाये . कुछ न कहने से आपकी बात अपने आप समझी जायेगी . जाकी रही भावना जैसी प्रभू मूरत देखी तिन तैसी.

Darshan Lal Baweja said...

बिगड़ी एक बार जो फिर ना बनी वो बात

Dr. Braj Kishor said...

ऐसे अपने बहुत कम होते हैं जिन्हें स्पष्टीकरण नहीं देना पड़े.मेरेवाले अपने तो टैक्स की तरह स्पष्टीकरण वसूलते हैं और मुझे कुटीर उद्योग में स्पष्टीकरण का निर्माण करना पड़ता है.

kshama said...

Aapke saath pooree tarah sahmat hun!

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

अपने लेखन की क्लिष्टता के बारे में अज्ञेय ने कहा था कि स्पष्टिकरण देना मेरा काम नही है यदि पाठक की समझ में नही आ रहा है तो वो उसकी ज़िम्मेदारी है :)

केवल राम said...

स्पष्टीकरण हमारे कमजोर होने और सशक्त होने का प्रमाण है लेकिन उसका प्रयोग कैसे किया जाता है कब किया जाता है यह महत्वपूर्ण है .......आपका आभार

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना said...

आदरणीय जे.सी. जी! देखन में छोटे लगें घाव करें गंभीर...मच्छर से भी छोटा प्राणी ....जो जितना छोटा है मनुष्य के लिए वह उतना ही घातक है ...बैक्टीरिया से भी अधिक घातक है वाइरस. मनुष्य इन सबके आगे असहाय है. मनुष्य का विनाश जब भी होगा इन्हीं "छोटों" के "गंभीर घावों" से होगा.

दिवस said...

दिव्या दीदी, आपकी बात सही है| स्पष्टीकरण की आवश्यकता अपनों को नही होती| और परायों को स्पष्टीकरण देने का कोई अर्थ नही|
यह भी संभव है कि कभी कोई गलत फहमी अपनों के बीच हो जाती है| यह सही है कि वे खुद ब खुद समझ जाएंगे| शायद इसमें समय लग जाए, इसलिए कई बार स्पष्टीकरण दिया जा सकता है| किन्तु यह भी सही है कि बिना स्पष्टीकरण दिए अधिक समय तक अपनों के बीच गलत फहमी बनी नही रह सकती| आखिर हैं तो अपने, समझेंगे अवश्य ही|
एक बार एक अति निकट के व्यक्ति को प्रेम से संबोधन देना भूल गया तो उसकी नाराजगी के चलते स्पष्टीकरण देना पड़ा| क्या करें, कई बार करना पड़ता है|
किन्तु यह भी मानता हूँ कि बिना स्पष्टीकरण के भी अपनों में संबंधों में दूरियां नही आएंगी|

सादर
दिवस

शोभना चौरे said...

मेरे विचार से स्पष्टीकरण राजनीती का आवश्यक अंग है |अपनों को स्पष्टीकरण देना अपने कैसे ?स्पष्ट बात करना अलग बात है |

DR. ANWER JAMAL said...

http://hbfint.blogspot.com/2011/09/7-earn-money-online.html
Welcome to Bloggers' Meet Weekly
राजेंद्र स्वर्णकार जी का संदेश

नाहक़ मत रखिए यहां कभी किसी से बैर !
सब बंदे अल्लाह के, कौन यहां पर ग़ैर ! ?

JC said...

अपना / पराया, 'माया', अर्थात एक ही के अनंत रूप प्रतीत होना, दर्शाया 'हमारे' ज्ञानी सत युगी पूर्वजों ने, जिन्होंने मानव को ब्रह्माण्ड का मॉडल बताया... और इसी मान्यता को - पश्चिम में - ईसाईयों ने शब्दों में व्ताक्त किया कि 'मानव को भगवान् ने अपने ही रूप में ढाला', यानि मानव भगवान् का प्रतिबिम्ब है... और हिन्दू कह गए 'हरी अनंत / हरी कथा अनंत' और अंग्रेज, "जितने मुंह / उतनी बातें"... दोष यदि कहें तो यह दोष है हनारी विषैले कलियुगी भौतिक इन्द्रियों का, जिनके कारण हमारी 'तीसरी आँख', ई एस पी, पर पर्दा पड़ गया है, जो स्वभाविक है...

इसका इलाज भौतिक चश्मा नहीं, 'दिव्य चक्षु' से ही संभव है - अर्जुन भाग्यवान था कि उसे कृष्ण समान मित्र मिला...
कहावत भी है कि 'आदमी को उसकी संगती से जाना जाता है', जिस कारण 'सत्संग' का उपदेश दिया हमारे पूर्वजों ने...

गुरु बृहस्पति के चक्रानुसार हर १२ वर्ष में काशी में, और सुविधा हेतु अन्य कई पवित्र स्थानों में 'कुम्भ मेले' में 'हिन्दू' मिलते आ रहे हैं कलियुग में भी... किन्तु संभवतः केवल परमपरानुसार ही? 'सत्य' से अनजान ?

"सत्यम शिवम् सुन्दरम", "सत्यमेव जयते"...

Vaanbhatt said...

अपनी करनी अपने साथ...सो दूसरों को स्पष्टीकरण देने की ज्यादा ज़रूरत नहीं...

खतावार समझेगी दुनिया तुझे...
अब इतनी जियादा सफाई ना दे...

G.N.SHAW said...

कहते है अगर मुख के किसी भाग में नमक छिपा हो और मिट्ठायी खायी जय तब स्वाद ही कुछ और बनेगा ! इसी तरह स्पस्टीकरण देने वाले या लेने वाले के साथ भी होती है !विद्वान व्यक्ति का चुप बैठना भी उचित नहीं होता !समयानुकूल दोनों के व्यवहार उचित राह पर अग्रसर हो तो सोने पर सुहागा होगा !

Anonymous said...

मैं इत कहूँगा की हर तस्वीर के दो रुख होते हैं.........कभी कभी हमारे सामने एक ही रुख होता है..........जब तक दूसरा न देख ले फैसला करना मुश्किल है........स्पष्टीकरण कभी-कभी अपनों के लिए भी ज़रूरी हो जाता है........संवादहीनता की स्थिति में कई बार गलतफहमियां भी हो जाती हैं|

Dr.Ashutosh Mishra "Ashu" said...

aaderniya divya ji...rojmarra ke jewan mein is tarah ke samikaran roj bante hain..kan ka kaccha to nahi hoon lekin kabhi kabhi aisa lagata hai bina kisi khata ke agla kisi durabhav se grasit hai..man mein peeda hoti hai..main bhi is sthityiyon mein apni taraf se spastikaran deta tha..per aapke bicharo se abhibhut hokar apni manovritti badalane me bishes madad milegai..sadar pranam ke sath

JC said...

जो मूक-बघिर है, किन्तु जिसके सब दिशाओं में मुंह और आँखें भी हैं, उस निराकार किन्तु परम ज्ञानी की ओर से मैंने वकील का कार्य करते स्पस्टीकरण करने का प्रयास किया है... किन्तु अपने को उससे भी अधिक ज्ञानी मानने वाले सदैव रहे हैं, स्वार्थी रावण / दुर्योधन समान, इस कारण निर्णय प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं लेना है कह गए प्राचीन ज्ञानी-ध्यानी... और कृष्ण में आत्म-समर्पण आवश्यक बता गए :)

ashish said...

spashtikaran dene aur na dene ke karno ke bahut sare pahulawon ko janane ka mauka mila.

दिगम्बर नासवा said...

स्पष्टीकरण चाहिए या नहीं सब कुछ वार्ता और रिश्तों पर निर्भर करता है ...

ZEAL said...

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JC जी , श्रीमती मच्छर खून न पिए तो क्या पिए ? आपने जब उसको वीजा दे ही दिया था तो वह भी चैन से खून पी रही थी। उसने भी आपके मन में उठ रहे संशयों का स्पष्टीकरण देना अनावश्यक समझा।

डॉ कौशलेन्द्र , आपका कथन सही है की कुछ लोग विषय से इतर टिप्पणी करते है और विज्ञापन करते हैं अपने ब्लॉग का। जो अनुचित है। लेकिन लाइलाज रोगों की चिकित्सा नहीं की जाती , अपयश ही मिलता है।

जब मैंने उस 'चोर' को माफ़ कर दिया जो मेरी ब्लॉग पोस्टें चुराता है तो समझिये सबको माफ़ कर दिया। सबको समान अधिकार है मेरे घर-आँगन ( ZEAL ब्लॉग ) में खेलने का और अटखेलियाँ करने का।

बस निवेदन है कोई अभद्र टिप्पणी न करे।

.

मदन शर्मा said...

सुज्ञ जी तथा प्रतुल जी के विचारों से पुर्णतः सहमत,
यदि स्पष्टीकरण देने से आपसी कलह मिट सकता है तो यह उचित ही है इसमें कोई बुराई नहीं है!!

ताऊ रामपुरिया said...

यह समय काल और परिस्थितियों पर निर्भर करता है. शुभकामनाएं.

रामराम.