Thursday, September 29, 2011

नन्ही पुजारन 'तिया' - कहानी

मंदिर का पुजारी प्रातः की पूजा अर्चना की तैयारी में व्यस्त था। तभी ताजे गेंदे के फूलों से मंदिर महकने लगा। पुजारी ने समझ लिया की उनकी 'तिया' बिटिया गयी है। चहकती हुयी नन्ही 'तिया' पुजारी बाबा की गोद में आकर बैठ गयी। पूजा के फूल और माला बाबा को थमा दिए। बिना उन फूलों के मंदिर की पूजा अधूरी सी लगती थी बाबा को।

आठ साल की अनाथ 'तिया' के पास पुजारी बाबा के सिवा कोई था। वही उसके माता पिता और वही उसके भगवान् थे। नियम से वह मंदिर की पूजा के लिए फूल चुनती , मंदिर की सफाई करती और पुजारी बाबा का ख़याल रखती। बस इतनी सी ही थी तिया की दुनिया। बेहद खुश थी वह अपने इस छोटे से संसार में।

अपनी गरीबी और फटी फ्राक का गम नहीं था उसे। एक मटमैली गुडिया , मंदिर और बाबा , बस इसी में खुश रहती थी वो। गाँव में उस गरीब की कोई पूछ परख नहीं थी लेकिन फिर भी उसका संसार सुखी था क्यूंकि बाबा उसे प्यार करते थे। भगवान् को अर्पित कर उसके लाये फूलों का मान रखते थे। और क्या चाहिए था भला ? सब कुछ तो था।

उस दिन दोपहर के भोजन के बाद पुजारी बाबा विश्राम कर रहे थे। अचानक तिया दौड़ती हुयी आई और बाबा से फ़रियाद करने लगी की वे उसकी 'गुडिया' बचा लें। गाँव के चंद बदमाश लड़कों ने उसका एकमात्र खिलौना छीन लिया था। वो जानती थी कि कोई भी बाबा की बात नहीं टालेगा और उसे उसकी गुडिया वापस मिल जायेगी। बाबा ने लड़कों से गुडिया वापस देने को कहा तो उन्होंने कहा ये उनकी गुडिया है इसलिए वापस नहीं देंगे। बाबा ने गुस्से से 'तिया' को डांट दिया -- "ये उनकी गुडिया है, तुम्हें इनसे माफ़ी मांगनी चाहिए"

तिया स्तब्ध थी। बाबा ने ऐसा क्यूँ किया। बाबा तो रोज़ मेरे पास इस गुडिया को देखते थे , फिर क्यूँ उन्होंने उन लड़कों कि बात पर यकीन कर उलटे उसका ही अपमान कर दिया। तिया समझ नहीं पायी। अपमान और निराशा के आँसू उसके कंठ में आकर घुटने लगे। किसी और ने ऐसा किया होता तो उसे कोई दुःख नहीं होता लेकिन पुजारी बाबा ऐसा करेंगे उसे विश्वास नहीं हो रहा था। उसकी एक मात्र पूँजी छिन चुकी थी।

दिन गुजरने लगे तिया अब भी फूल चुनकर लाती थी , लेकिन कब वो मंदिर में रखकर चली जाती थी , बाबा को पता ही नहीं चलता था। मंदिर में पूजा-अर्चना में अब बाबा का मन नहीं लगता था। तिया कि मासूम खिलखिलाहट से मंदिर का प्रांगण अब नहीं गूंजता था।

कुछ महीने और गुज़र गए। ताज़े गेंदे कि खुशबू अब नहीं आती थी। बाबा बहुत व्यथित थे। ढूँढने निकले 'तिया' को पास के गाँव में खबर मिली कि एक छोटी लड़की कुछ समय से यहाँ रहने आई है। बहुत ढूँढा पर तिया नहीं मिली। बाबा निराश हो लौटने लगे तभी उनकी निगाह सड़क पार पेड़ के नीचे बैठी 'तिया' पर पड़ी। बहुत बीमार लग रही थी। आँखों के नीचे स्याह काले धब्बे गए थे। ऐसा लग रहा था अब कुछ ही दिन कि मेहमान है वो। बाबा ने उससे वापस मंदिर चलने को कहा। तिया चुप रही। बाबा ने कहा अब तक नाराज़ है मेरी बिटिया माफ़ नहीं करेगी अपने बाबा को?

तिया ने मन में सोचा -- "मेरा मंदिर तो आप थे बाबा मेरे ईश्वर भी मेरी गुडिया आप दिला सकते थे मुझे 'चोर' कहलाने से भी आप बचा सकते थे आप मेरी मदद कर सकते थे। मेरी उम्मीद टूटने से पहले आप मेरे स्वाभिमान कि रक्षा कर सकते थे। लेकिन मैं तो गरीब और अनाथ हूँ बाबा , इसलिए इन बातों कि एहमियत ही कहाँ थी किसी के लिए और आपके लिए भी बाबा "

तिया को चुप देखकर बाबा ने उसे गोद में उठा लिया सीने से लगा जोर से भींच लिया और कहा - "चल मंदिर चल , तेरा बाबा तुझे नयी गुडिया दिलाएगा" ....

लेकिन यह क्या ! तिया तो बाबा कि गोद में ढेर हो चुकी थी। उसकी निस्तेज और निष्प्राण आँखें अपने बाबा कि आँखों में एकटक देख रही थीं।

Zeal

Tuesday, September 27, 2011

हरसिंगार के फूल - कहानी

आज बहुत देर हो जाने पर भी देव अपने कमरे से बाहर नहीं निकला था। एक लम्बे समय से उसके मन में एक तूफ़ान उठ रहा था। वो क्यूँ खुद को इतना लाचार समझ रहा था। क्या है इस दुनिया में जो इंसान को कमज़ोर बना देता है वो कौन सी चीज़ है जो इंसान को इंसान बने रहने से रोक देती है ? क्यूँ इंसानियत शर्म के पर्दों में रहती है? क्यूँ 'अपनापन' तरसता है किसी को अपना कहने में। क्यूँ अच्छाईयाँ नज़रंदाज़ कर दी जाती हैं। क्यूँ सारा श्रेय सिर्फ गुलाब के फूलों को ही मिलता है। वो हरसिंगार के छोटे-छोटे फूल क्यूँ अपनी पहचान नहीं बना पाते क्यूँ नहीं कोई आगे आता इन्हें भी इनकी पहचान दिलाने में। संसार में ढोंग इनता ज्यादा क्यूँ है। किसने बनाए हैं ये पाखण्ड, जो किसी से जीने का अधिकार ही छीन ले। जो किसी को घुट-घुट कर मरने के लिए मजबूर कर दे। जिससे डरकर कोई अपना पौरुष ही त्याग दे। समाज के बनाए जिन नियमों से सबको जीने का बराबर हक मिल सके क्यूँ नहीं 'देव' वो सब कुछ कर पाता जो उसका मन करता है। वो 'अनन्या' की मदद करना चाहता है वो अनन्या का दर्द समझता है। वो अनन्या की आँखों में 'मौत' की सी उदासी देखता है। उसकी ख़ामोशी में उसे तिल-तिल मरते हुए देखता है।

देव चाहता है की वो अनन्या को , संसार की वो सभी खुशियाँ दे सके जिस पर हर स्त्री और पुरुष का हक है वो उसे मुस्कुराने के कुछ पल देना चाहता है। वो उसकी आँखों में पसरे मौत के सन्नाटे को पी जाना चाहता है। वो उसे आत्म-विश्वास से भर देना चाहता है। वो उसके अकेलेपन को मिटा देना चाहता है। वो हरसिंगार के धवल पुष्प में बसी केसरिया चकाचौंध को पूरे विश्व को दिखाना चाहता है। वो अनन्या को जीवन जीने का अभय दान दे देना चाहता है .....

तो फिर रोका किसने है ? ...क्यूँ इतना द्वन्द ? किसलिए इतनी उहापोह ? कौन है जो देव को रोकता है , उसे उसकी मर्ज़ी के खिलाफ जीने पर मजबूर करता है....

फिर वही चिर परिचित आवाज़ आई - " आज खाना खाने नहीं जाओगे ? दुकानें बंद हो जायेंगी भूखे सोना है क्या ? "

मर्यादा की बात सुन देव का मन गुस्से से बोला- " तुम चुप रहो , तुम ही मुझे रोकती हो हर बात से जिसे करने का मेरा मन करता है तुम मुझे भूखा नहीं देखना चाहती लेकिन मुझे 'लाचार' देखना तुम्हें अच्छा लगता है ?

मन-मर्यादा संवाद जारी था---

तुम मुझे रोकती हो जब मैं अनन्या को अपनापन देना चाहता हूँ। तुम कहती हो क्या लगती है वो मेरी? क्या 'इंसानियत' का रिश्ता नहीं हो सकता किसी से यदि मैं अपना प्यार दूंगा उसे यदि वह भी कभी मुस्कुरा सकेगी तो क्या मैं पतित हो जाऊँगा?

मर्यादा, तुमने अपने तर्कों से "अनन्या' को तो हमेशा के लिए खामोश कर ही दिया है। वो तो ये भी भूल चुकी है की वो अभी भी जीवित है और संसार में बिखरी खुशियों पर उसका भी उतना ही हक है जितना अन्यों का।

तुम भूल गयीं जब मैं बीमार था और एक माँ की तरह उसने मेरी सेवा की थी मैं उसकी गोद में सर रखकर सोना चाहता था , तुमने रोक दिया था।

जब मेरी परीक्षाएं थीं , मुझे सहारे की ज़रुरत थी तो अनन्या ने बहन बनकर हर संभव मदद की थी उन एहसानों से मेरा मन अभिभूत था मैं चाहता था उसकी चुटिया खींच लूं और वो चिढ़कर भागे , मुझसे झगड़ा करे ,लेकिन तुमने मुझे रोक दिया था।

उस दिन गुलाबी साड़ी में जब उसे चूड़ियाँ खरीदते देखा था तो मेरा मन था उसकी नाज़ुक कलाई में धीरे धीरे चूड़ियाँ मैं पहनाऊँ लेकिन तुमने उस दिन भी मुझे रोक दिया था। मैं उसके गालों पर भी लाज की उस लाली को देखना चाहता था जो हर स्त्री का गहना है

और आज जब मैंने उसे आफिस से आते देखा तो वह टूटी और बिखरी हुयी थी। पिछले छः महीनों से वह जिस प्रोजेक्ट पर कार्य कर रही थी उसका श्रेय किसी और को देकर सम्मानित कर दिया गया था। वह पराजित और हताश अपने आँसुओं से अकेले ही लड़ रही थी मैं चाहता था उसके आँसूं जो उसके दामन को भिगो रहे थे उसे मैं अपनी शर्ट में सुखा लूँ। और तुमने मुझे उसका दोस्त बनने से भी रोक दिया ? मुझसे कहा था क्या लगती है वो मेरी जो मैं उसकी इतनी चिंता करता हूँ?

मर्यादा क्यूँ तुमने मुझे इतना कायर बना दिया है ? क्यूँ तुमने मुझसे मेरा पौरुष छीन लिया है। मुझे उहापोह देकर क्यूँ मुझे इतना कमज़ोर कर दिया है ? क्यूँ मुझे मन मारना सिखाती हो। क्यूँ मुझे इंसानियत और ईश्वरत्व से दूर ले जाती हो। 'अनन्या ' की हस्ती मिटने नहीं दूंगा उसको जीवन दूंगा, उसको खुशियाँ दूंगा। मैं अब और कायर नहीं बना रह सकता। तुम मुझे रोक नहीं सकतीं अब , बाँध नहीं सकतीं, मजबूर नहीं कर सकतीं...

देव उठा , बत्ती जलाई , रात के ग्यारह बजने वाले थे उसने अपनी बाईक स्टार्ट की और तेजी से भागा कहीं देर हो जाए...

फिर वही चिर-परिचित आवाज़ आई -- "रुको , मत जाओ! ...क्या लगती है वो तुम्हारी " ....

नहीं मर्यादा , अब तुम मुझे और भयभीत नहीं कर सकतीं , अब मैं अपनी आत्मा की ही आवाज़ सुनूंगा मैं कमज़ोर नहीं हूँ। इसके पहले की मेरा पौरुष समाप्त हो जाए , मैं जियूँगा और उसे भी जीने का अवसर दूंगा...

दूर अन्धकार को चीरती सीटी की आवाज़ सुनाई दी। देव को लगा बहुत देर हो गयी , उसने बाईक की गति बढ़ा दी ...

स्टेशन पर गाडी चलने को आतुर थी देव हर खिड़की पर उसे बेसाख्ता तलाश रहा था ....गाडी धीरे-धीरे खिसकने लगी थी....

क्या देर हो गयी ? उसका मन छटपटा उठा तभी अंतिम खिड़की पर पर वही उदास चेहरा उसे दिखाई पड़ा। गाडी ने गति पकड़ ली थी। विजय के पल दूर हो रहे थे। देव ने अपने अपने इष्टदेव "हनुमान" का स्मरण किया , अगली छलांग में उसने दरवाजे की हैंडिल पकड़ ली

अन्दर गया। अनन्या खिड़की के बाहर पीछे छूटते दृश्य निर्विकार होकर देख रही थी। देव उसके बगल में बैठ गया अपना दाहिना हाथ पीछे से ले जाकर उसके कन्धों पर रख दिया और बायें हाथ में उसके हाथों को थाम लिया। उस स्पर्श से मुड़कर अनन्या ने उसे देखा। अपना सर धीरे से 'देव' के कन्धों पर टिका दिया और आँखें बंद कर लीं।

धवल हरसिंगार की केसरिया आभा मुस्कुराने लगी थी...

Zeal

Sunday, September 25, 2011

सम्मान , मात्र बुज़ुर्ग होने से मिलता है या फिर हर व्यक्ति अपने कर्मों से सम्मान अर्जित करता है ?

सम्मान के हक़दार कौन होते हैं ? क्या बुज़ुर्ग होने साथ ही वे सम्मान के हक़दार जाते हैं ? क्या युवा और छोटे सम्मान के हक़दार नहीं होते ? क्या सम्मान उम्र देखकर दिया जाता है ? या फिर इंसान अपने कर्मों से "सम्मान" अर्जित करता है ?

अनुराग शर्मा ने मेरे आलेख "मरणोपरांत" पर एक टिप्पणी की जिसमें उन्होंने मुझपर आरोप लगाया की मैं केवल सद्वचन करती हूँ। सत्कर्म नहीं। दुसरे उन्होंने "अंतिम प्रणाम " शब्द का इस्तेमाल किया तीसरे उन्होंने यह भी इल्जाम लगाया की मैंने "बुजुर्गों के आशीर्वचन " को गाली समझकर अपने दरवाज़े बंद कर लिए

इनकी उपरोक्त टिप्पणी को मैंने " व्यंगात्मक बदबूदार टिप्पणी" कहा , जिसके कारण निम्न हैं--

  • इनकी टिप्पणी विषय से इतर लेखिका पर व्यक्तिगत आक्षेप थी।
  • इन्होने मुझ पर इल्जाम लगाया की मैं बुजुर्गों का आदर नहीं करती। अब यह भी स्पष्टीकरण देना पड़ेगा मुझे की मैं बुजुर्गों का सम्मान करती हूँ ?
  • तीसरे इन्होने "अंतिम प्रणाम" वाली बात लिखकर डेढ़ वर्ष पुराने गड़े मुर्दे उखाड़ने की कोशिश की।
  • उपरोक्त टिप्पणी में अनुराग शर्मा ने लेखिका को अपमानित करने और नीचा दिखाने के उद्देश्य से यह टिप्पणी की ताकि यह मेरे मेरे ब्लौग पर विवाद पैदा कर सके और मुझे लेखन छोड़ने को मजबूर कर सके।


"अंतिम प्रणाम सम्बन्धी स्पष्टीकरण -- फ़रवरी २०१० से हिंदी ब्लॉग्स पर टिप्पणियां लिखना आरम्भ किया था , तब ब्लॉग्स नहीं लिखती थी ज्ञान जी के ब्लौग पर सर्वाधिक टिप्पणी लिखी उनके हर एक आलेख पर ५-टिप्पणी रहती थी मेरी। फिर जून २०१० से मैंने अपना ब्लौग लिखना शुरू किया। एक साधारण इंसान की तरह मेरे मन में एक ख्वाहिश थी की जिस ज्ञान जी के आलेख पर मैंने इतनी टिप्पणियां लिखी हैं वे भी एक बार मेरे ब्लौग पर आये और मुझे 'आशीर्वाद ' दें, जैसे कोई बच्चा एक बेकार सी पेंटिंग बनाने पर भी अपने बड़ों से शाबाशी की उम्मीद रखता है। लेकिन ऐसा नहीं हुआ मैं एक नवोदित ब्लॉगर , इस व्यर्थ की शाबाशी पाने की लालच में उनके ब्लौग पर जाकर अपनेपन और अपेक्षा से भरी शिकायत कर बैठी की वे कभी क्यूँ नहीं आये और उनको "अंतिम प्रणाम" लिख दिया। उन्हें अपना समझकर बचकानी नाराजगी दिखा रही थी मैं

यहाँ अंतिम प्रणाम से मेरा तात्पर्य था की अब कभी नहीं आउंगी आपके ब्लौग पर। नहीं जानती थी तब ब्लौग जगत के नियमों को

इस शब्द का "अर्थ का अनर्थ " करके ज्ञान जी ने अगले ही दिन मेरे खिलाफ एक आलेख लिखकर अपने ब्लौग पर लगा दिया वो मेरे खिलाफ पहला आलेख था ब्लौग जगत में ज्ञान जी के उस आलेख पर एक सैकड़ा वरिष्ठ और विद्वान् जनों ने मेरी भर्त्सना की

नयी-नयी थी , ज्ञान जी से बहुत छोटी हूँ। बहुत रोई थी उस घटना और अपमान पर। पहली बार जाना था की बुज़ुर्ग भी अपमानित करते हैं अपने से बहुत छोटों को।

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अनुराग शर्मा द्वारा लगाये गए दुसरे आरोप का स्पष्टीकरण -- इनका कहना है की मैंने डॉ अमर के लिए अपने दरवाज़े बंद किये और बुज़ुर्ग के आशीर्वाद की अवहेलना की

डॉ अमर मेरे आलेखों पर विशेष तौर पर आलोचना किया करते थे। चाहे राजनीति पर लिखूं , चाहे चिकिसा सम्बन्धी लिखूं , चाहे अन्य किसी विषय पर, वे सदा मेरी आलोचना ही करते थे। किसी भी आलेख पर सामान्य कमेन्ट ना करने की तो उन्होंने जैसे कसम खा रखी थी। ऐसा लगता था मनो अपनी नकारात्मक और आलोचनात्मक टिप्पणियों से वे मुझे छलनी कर देना चाहते हों। उनके इस आशय को मेरे ब्लौग पर आने वाले सभी लोग बखूबी समझते थे।

आलेख और विषय से असहमत होना एक बात है लेकिन डॉ अमर तो बिना पढ़े ही आलोचना कर देते थे , कई बार मेरे आलेखों पर उन्होंने माफ़ी भी मांगी है। कोई एक दो आलेख या फिर दस बीस आलेखों पर आलोचना करे लेकिन , हर आलेख पर नीचा दिखाना और अपमान करना कहाँ का बड़प्पन है ?

डॉ अमर द्वारा नियमित रूप से आलोचना किये जाने से मेरा मन बहुत उदास रहता था। तब मैं दुखी होकर " निंदक नियरे राखिये " शीर्षक से आलेख लिखा। इस आलेख को पढ़कर डॉ अमर को बहुत बुरा लगा , उन्हें समझ में आया की अनावश्यक आलोचना से किसी का ह्रदय कैसे छलनी होता है तब उन्होंने मेरे पिछले १०० आलेखों पर से अपनी लिखी टिप्पणी डिलीट कर दी उनका उद्देश्य था मुझे दुःख पहुँचाना। और वे उसमें भी सफल हुए। टिप्पणी डिलीट किये जाने पर मुझे बेहद दुःख पहुंचा था।

फिर भी डॉ अमर ने मेरे ब्लौग पर आना नहीं छोड़ा और पुरजोर आलोचना करना जारी रखा। लेकिन मैंने कुछ नहीं कहा फिर उनको चैन नहीं पड़ा तो एल आलेख पर उन्होंने फिर विवाद खड़ा करने की कोशिश की तब मैंने पोस्ट पर ही लिखा की - " आपने मेरे १०० आलेखों पर से जो टिप्पणियां मुझे दुःख पहुँचाने के उद्देश्य डिलीट की हैं उसमें आप सफल तो हुए हैं , लेकिन आपकी यह हरकत बहुत ही बचकानी है "

उस दिन डॉ साहब ने मुझे थाईलैंड फोन किया और मुझसे माफ़ी मांगी - उन्होंने कहा की उनसे गलती हुयी है , टिप्पणियां उन्हें नहीं मिटानी चाहिए थींलेकिन उनके पास सभी टिप्पणियां सुरक्षित हैं और वे उन्हें मेरे आलेखों पर एक-एक करके वापस लगायेंगे "

लेकिन ज़िन्दगी इतना वक़्त किसी को नहीं देती की भूलें सुधारी जा सकें इसलिए भूल करने से पहले ही सोचना चाहिए की हम क्या करने जा रहे हैं। उनकी मृत्यु के उपरान्त लोग उन्हें लाख "खरा-खरा" कहें लेकिन मुझे किसी के आलेखों की अनावश्यक आलोचना मन में द्वेष रखकर किया जाना कभी भी "बडप्पन " की निशानी नहीं लगी

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बड़ों से अपेक्षा होती है की वे अपने से छोटों को प्यार दें , स्नेह दें। बदले में उन्हें इफरात प्यार और सम्मान दोनों स्वतः ही मिल जाता है। लेकिन छोटों को अपमानित करके कोई किसी के दिल में कभी जगह नहीं बना सकता

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अनुराग शर्मा का कहना है की मैं "बुजुर्गों पर आलेख " केवल लिखती हूँ, उनका सम्मान नहीं करती।

उपरोक्त आलेख मैंने निम्न वजहों से प्रेरित होकर लिखा था ---

  • एक तो डॉ साहब की मृत्यु से मन पहले ही बहुत उदास था
  • दुसरे विश्वानाथ जी की तबियत बहुत खराब थी
  • भोला जी और कृष्ण जी भी बेहद अस्वस्थ चल रहे थे


इन लोगों के मेल पढ़कर उनकी अस्वस्थता से व्यथित होकर बुजुर्गों के लिए वह आलेख लिखा था और ईश्वर से प्रार्थना की थी की पृथ्वी पर समस्त "बुज़ुर्ग" स्वस्थ रहे और दीर्घायु हों। जिसमें मेरे ब्लौग परिवार के माता-पिता सामान बुज़ुर्ग और मुझे जन्म देने वाले पिता जो अकेले रहते हैं , जिनकी देख भाल करने वाला कोई नहीं है।




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  • अनुराग जी आपने अपनी टिप्पणी में मुझ पर व्यंग किया
  • गड़े मुर्दे उखाड़े
  • मुझ पर व्यक्तिगत आक्षेप किया।
  • मुझे अपमानित करके लेखन छोड़ने को मजबूर किया
  • इन टिप्पणियों से भी आपका मन नहीं भरा तब आपने मुझ पर आलेख लिखकर मेरे तकरीबन सभी आलेखों का मखौल बनाया
  • मुझे गाली दी "schizophenic" और "paranoid" कहकर


किसने दिया आपको ये हक की आप मिझे गाली दें ?

अनुराग जी क्या आपको तब नहीं दीखता जब मुझे ब्लौग पर अनायास ही लोग भद्दी गाली देते हैं , खेमेबाजी करके घेरकर अपमानित करते हैं क्या केवल उम्र में छोटी हूँ , इस कारण हर कोई मुझे अपमानित करने का हक़दार हो गया ?

आपने जो-जो किया क्या मुझसे बड़े होने के कारण मात्र से आप सम्मान के हक़दार हो गए ? मैं आपकी बहन-बेटी नहीं इसलिए आप जितना चाहे कीचड मुझपर उछलने में ही अपना बडप्पन समझते हैं ? आपसे तो मेरा एक औपचारिक रिश्ता ही था। कभी-कधार भूले भटके आप मेरे आलेख पर जाते थे और मैं लौटकर आपके आलेख पर टिप्पणी कर देती थी फिर आपने अपने मन में इतने लम्बे समय से ,इतना द्वेष क्यूँ पाला ?

सम्मान अर्जित किया जाता है अपने कर्मों से , उम्र से नहीं !

मुझे एक बात से बहुत ज्यादा चकित हूँ की के ब्लॉग जगत में कुछ लोग मुझसे अनावश्यक द्वेष क्यूँ पाले हुए हैं , जबकि मेरा सभी के साथ मात्र एक औपचारिक रिश्ता ही है कभी किसी के आलेख पर व्यंगात्मक अथवा आलोचनात्मक अथवा व्यक्तिगत टिपण्णी नहीं लिखती हूँ, फिर भी लोग साबुन से हाथ धोकर क्यूँ केवल मेरे ही पीछे क्यूँ पड़े रहते हैं ? इस ईर्ष्या की वजह क्या है ?

अनुराग शर्मा जी , यदि मुझसे इतनी ही नफरत थी तो मेरे आलेख पर टिप्पणी क्यूँ की थी ? विषय पर आपको लिखना नहीं थाकेवल व्यक्तिगत आक्षेप लगाना ही आपका मंतव्य था जो लोग नापसंद हों उनसे दूर रहा कीजिये , जबरदस्ती नीचा दिखाने के लिए टिप्पणी करने की आवश्यकता क्या है भला ?

मेरा अपमान करके आपने कौन सा सम्मान अर्जित किया है ?

Live and let live !

Zeal

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बुजुर्गियत को अक्ल का पैमाना समझते हैं वो
उम्र मेरी अनायास ही गुनहगार हो गयी।

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