Thursday, January 21, 2016

रोहित सुसाइड केस और गिद्धों की दावत

आमतौर पर कोई भी घटना हो, समाज दो धड़ों में बंटा दिखता है ! एक सरकार विरोधी हिस्सा तत्काल ही जातिवाद का कार्ड खेलकर, घटना का राजनितिक लाभ लेने लगता है , दूसरा हिस्सा सरकार की अंधाधुंध पैरवी करने लगता है मानो रामराज हो और गलतियों की कोई गुंजाइश ही न हो ! एक निष्पक्ष बुद्धिजीवी समाज कहाँ है जो पूरी घटना पर का निष्पक्ष अवलोकन कर बीमारी की जड़ को पकड़ सके ?
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कोई भी घटना , क्रमबद्ध कई चरणों में सामने आती है ! अतः किसी निष्कर्ष पर पहुँचने तक बहुत धैर्य भी रखना होता है, अन्यथा आपकी उग्रता और रोहित वेमूला की उग्रता में कोई अंतर नहीं रह जाता ! समाज में कितने याकूब मेनन बनेंगे वो पता नहीं लेकिन इस समाज में रोहित वेमूला असंख्य हैं , ये बात अब तक साबित हो चुकी है ! समझदार सरकार और समझदार जनता से ये अपेक्षा की जाती है की वे इस तरह की घटनाओं से संज्ञान में लें और सचेत रहें ! इनकी पुनरावृत्ति न हो इस बात की कोशिश की जाए !
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अब बात आती है की रोहित किस तरह का लड़का था ! जहां तक मुझे समझ आता है, वो एक दिग्भ्रमित , पूर्ण रूप से भटका हुआ लड़का था जो अपनी अज्ञानतावश अपने धर्म , अपने महापुरुषों और संस्कृति के साथ खिड़वाड़ कर रहा था ! उम्र में बच्चा था, कान का कच्चा था जो दूसरों के बहकावे में आसानी से आ जाता था ! देश समाज और परिवार के प्रति दायित्वों को कतई नहीं समझता था ! व्यवस्था से तंग आकर और संभवतः अपनी गलतियों का एहसास करके उसने अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली ! कोई लाभ नहीं हुआ किसी का ! न देश का , न परिवार का , न ही समाज का ! केवल गिद्धों के झुण्ड की दावत हो गयी !
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अब इस घटना पर गिद्धों के झुण्ड ने अपनी राजनितिक रोटियां भी सेंकनी शुरू कर दीं! कुछ गैरजिम्मेदार प्रोफेसरों ने इस्तीफा देने की धमकी शुरू कर दी ! कुछ संतई करने वाले नेताओं ने विश्वविद्यालय की यात्रा करने की घोषणा कर दी , मानो उनके चरणकमल वहां पड़ने से कोई चमत्कार हो जाएगा ! .
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अरे गलती इन्हीं प्रोफेसरों की है , जो अपने छात्रों को दिग्भ्रमित होने से रोक नहीं पाये और इनके छात्र उग्रवादी निकल रहे हैं ! और सबसे बड़ी गलती, पिछले सत्तर सालों से देश में, वोटों की राजनीति करने वाली कांग्रेस , भाजपा , समाजवादी, बसपा , आआप और अन्य सभी क्षेत्रीय पार्टियों की है जो आरक्षण देकर काबिलों का हक़ छीनती है और ऐसे लोगों को मुफ्तखोरी की आदत डालकर पहले उनका स्वाभिमान छीनती है , फिर अनावश्यक अनुपात में उन्हें महत्वाकांक्षी बना देती है ! वे बेचारे नट-नटी के इस खेल में संतुलन बनाये नहीं रख पाते और असंतुलित मस्तिष्क के साथ अपने दुखदायी-अंजाम को प्राप्त हो जाते हैं ! 

Friday, January 15, 2016

आयुर्वेद एवं शोधकार्य

यहाँ विश्वविद्यालय के बायोकेमिस्ट्री विभाग में डाइबिटीज़ पर रिसर्च चल रही थी ! प्रोफ़ेसर साहब के शोधार्थी हल्दी, गुड़मार आदि ऐसे ही अनेक द्रव्यों पर शोध कर रहे थे और उन शोध के आधार पर जो दवाईयां बन रही थी उनमें माइक्रो लेवल पर द्रव्यों के अनुपात को बदलकर  नयी औषधियां तैयार की जा रही थीं जो डायबिटीज़ के मरीजों को दी जा रही थीं !  रविवार के दिन डायबिटीज़ के मरीजों को निशुल्क चिकित्सा परामर्श एवं दवाईयां दी जाती हैं !  प्रत्येक पंद्रह दिन पर शोध के तहत रजिस्टर्ड मरीजों की निशुल्क लैबोरेटरी जांच होती है जिसका खर्चा तकरीबन ३००० रूपए प्रति मरीज आता है !
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इस पूरे शोध कार्य में एक आयुर्वेदिक डॉक्टर की हैसियत से आयुर्वेदिक द्रव्यों के गुण-धर्म, उनकी सम्प्राप्ति और मात्रा का प्रमाण , उनमें परिवर्तन , उनका प्रयोग , उनकी शरीर एवं विभिन्न तंत्रों पर प्रभाव  का बारीकी से निरीक्षण और पूरा शोध कार्य तो हमने कराया , लेकिन अफ़सोस ये की उन शोध कार्यों को बायोकेमिस्ट्री के जर्नल्स में प्रकाशित किया जा रहा है , आयुर्वेद के नहीं ! और नयी शोधित दवाओं का नाम भी आयुर्वेदिक शास्त्रोक्त पद्धति पर न रखकर अंग्रेजी में रख उसे आयुर्वेद से पूर्णतः पृथक कर दिया जा रहा है !
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कुछ समय वहां काम करने के बाद जब मैंने ये आपत्ति उठायी की ये ये शोधकार्य आयुर्वेदिक द्रव्यों पर आयुर्वेदिक चिकित्सकों के द्वारा हो रहा है! दवाएं भी आयुर्वेदिक हैं तो फिर ये शोधकार्य बायोकेमिस्ट्री के खाते में क्यों जा रहा है, आयुर्वेद के खाते में क्यों नहीं ? और दूसरी बात,  यदि ये शोध बायोकेमिस्ट्री की किताबों में जोड़ा जा रहा है तो बायोकेमिस्ट्री विषय , केवल ऐलोपैथी पाठ्यक्रम के प्रथम वर्ष में ही क्यों है ! इस विषय का लाभ आयुर्वेद के छात्र-छाओं को क्यों नहीं मिल रहा जबकि इन शोध कार्यों में आयुर्वेदिक डॉक्टरों का पूरा योगदान है ! तब इन लोगों ने चुप्पी साध रखी है !
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ऊपर से कुछ उतावले तथा समग्रता से ज्ञान न रखने वाले अज्ञानीजन का तुर्रा ये की आयुर्वेद में शोध नहीं होता ! अरे कोई ये बताये , की पकवान बनाते ही पडोसी आपकी हंडिया चुरा ले जाए तो हम आपको खिलाएं क्या ?

Tuesday, January 12, 2016

PISCEAN


बात कुछ वर्ष पुरानी है, तकरीबन २००८ की ! आभासी दुनिया के एक परिचित थे ! उनका नाम था "PISCEAN " अर्थात मार्च के महीने में जन्मा व्यक्ति ! वे अत्यंत विद्वान थे ! प्रत्येक विषय पर उनकी जानकारी अद्भुत थी ! अध्यात्म हो या तकनीक, सभी में पारंगत ! उनकी लिखी एक-एक पंक्ति में उनकी गहन विद्वता झलकती थी !एक बार हमने उनसे पूछा कि आपका जन्मदिन कब है ? उन्होंने कहा मैं अनाथ हूँ इसलिए मुझे अपना जन्मदिन नहीं पता ! हाँ मार्च के महीने में मुझे अनाथालय लाया गया था इसलिए मैंने अपना नाम PISCEAN रख लिया है ! मैंने कहा कोई बात नहीं , हम आपको जन्मदिन की जगह जन्म-माह की हार्दिक बधाई देते हैं !.
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उन्होंने बताया कि वे केरल के हैं ! अनाथालय में पले बढे हैं , अब एक किराए के कमरे में रहते हैं जिसमें एक तखत और एक कुर्सी-मेज़ है और मकान मालिक उन्हें ३०० रूपए में एक घंटे के लिए इंटरनेट यूज़ करने देता है ! हमने कहा ये काफी महंगा देते हैं ! मैंने तो एयरटेल की मात्र २९९ रूपए में पूरे एक महीने के लिए अनलिमिटेड यूज़ वाली स्कीम ले रखी है ! उन्होंने कहा , मेरे लिए इतना ही पर्याप्त है की मकान मालिक ने मुझे ये सुविधा दी हुयी है !
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खैर होली का महीना था , हमने उन्हें शुभकामनाएं दी त्यौहार की ! पता नहीं क्यों शेर की तरह दहाड़ने वाले वे सज्जन उस दिन बेहद उदास दिखे ! कहने लगे मेरा कोई परिवार नहीं , भाई-बहन नहीं है ! हमने कहा, होली पर हमारे घर आईये ! हमारा परिवार आपका भी परिवार है ! आप अनाथ रहे होंगे , अब नहीं हैं ! वे बहुत देर तक चुप रहे फिर बोले .."रुला दिया"
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इस घटना के बाद कई वर्षों तक उनका कोई अता-पता नहीं चला ! एक दिन हमने फेसबुक पर इस बात का जिक्र किया और घोर आश्चय की अगले दिन ही उनका एक संक्षिप्त मेसेज मिला की ..."मैं कनाडा में हूँ , मल्टीनेशनल कम्पनी में बहुत अच्छी नौकरी मिल गयी है , बहुत धन है मेरे पास और मैं बहुत सुखी हूँ , मेरी चिंता मत करना " ! झूठा संदेश भेजकर अपने स्वाभिमान की रक्षा कर ली थी शायद ! इस सन्देश को मिले पुनः तीन वर्ष बीत चुके हैं ! उस बुज़ुर्ग व्यक्ति का कोई अता-पता नहीं है !
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शायद मेरी सहानुभूति उस दिन उनका स्वाभिमान छीन रही थी ! इतने वर्षों तक, शायद अनाथ होने की उनकी पीड़ा ही उनका सम्बल थी , जिसने उन्हें पढ़-लिख कर इतना विद्वान बनाया ! जब उन्होंने स्वयं को भावुकता में बहकर कमज़ोर होते पाया तो फिर से गुमनामी के अंधेरों में डूब गए ! जीवन में इतना विद्वान और इतना स्वाभिमानी किसी को नहीं देखा ! हमेशा याद रहते हैं वे, उनकी विद्वता और उनका स्वाभिमान से भरा विषमताओं में गुज़रता जीवन !

वेदों के देश भारत में आयुर्वेद की दशा :

ऋषियों , मुनियों और विद्वानों की धरती से उसकी पहचान ही विलुप्त होती जा रही है। क्यों हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी पश्चिम की भाषा, संस्कृति और चिकित्सा पद्धति को अपना रहे हैं। निज पर गर्व नहीं करते , ना ही उसके महत्त्व को समझते हैं।
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आयुर्वेद न सिर्फ रोगी की चिकित्सा करता है अपितु स्वस्थ के स्वास्थ्य की रक्षा भी करता है।
स्वस्थस्य स्वास्थ रक्षणं, आतुरस्य विकार प्रशमनं च।
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एलोपैथिक पद्धति तो मात्र २०० वर्ष पुरानी है , जबकि हमारा आयुर्वेद , ब्रम्हा जी के मुख से निकला है और हमारे वेदों में वर्णित है। आयुर्वेद , अथर्वेद का ही एक उपवेद है, जिसमें कायिक और मानसिक सभी व्याधियों का उल्लेख एवं निदान है। आज के समय के एड्स (AIDS), और सार्स (SARS) जैसी व्याधियों का भी सम्पूर्ण उल्लेख है हमारी वैदिक चिकित्सा पद्धति में।
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आयुर्वेद द्वारा आतुर (रोगी) की चिकित्सा की जाती है और स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा का प्राविधान है। इसके उहाहरण हमारे दीर्घायु ऋषि-मनीषी हैं। कंद मूल फल पर जीवित रहने वाले हमारे तत्कालीन विद्वानोंऔर बुद्धिजीवियों ने मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए एक चमत्कारिक , चिकित्सा पद्धति की रचना कर डाली थी। मुह में छाले हो अथवा पीलिया जैसा घटक रोग हो अथवा अस्थिभंग हो या फिर मधुमेह जैसा सुख्रोग हो, या पथरी हो, सभी का आशुकारी इलाज , बिना हानिकर प्रभावों वाली प्राकृतिक दवाईयों क्रमशः नकछीवक , अस्थि श्रंखला, स्ट्रिविया, गोक्षुरु आदि से अपने प्राकृतिक रूप चूर्ण, क्वाथ, आसव अथवा अरिष्ट के रूप में किया जाता है जो सर्वथा हानिकर प्रभावों से मुक्त है।
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देव व्यपाश्रय और युक्ति व्यपाश्रय चिकित्सा द्वारा , इलाज करने वाले देवताओं के चिकित्सक 'अश्विनी कुमारों' की वैदिक चिकित्सा पद्धति है ये, जिसमें किस व्याधि का इलाज नहीं है भला ? दमा, राजयक्ष्मा, अतिसार , आमवात और प्रमेह से लेकर उन्माद आदि सभी व्याधियों की सम्पूर्ण चिकित्सा का वर्णन है , सुश्रुत, अष्टांग संग्रह आदि वृहदत्रायी और लघुत्रयी में।
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दीपावली से दो दिन पूर्व हम धनतेरस मनाते हैं। जिसमें हम भगवान् धन्वन्तरी की पूजा करते हैं। कौन हैं ये धन्वन्तरी ? समुद्र मंथन से अमृत कलश लेकर अवतरित हुए धन्वन्तरी को ही 'Father of medicine' कहा गया है। और सुश्रुत को 'Father of Surgery' कहा गया है।
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हमारी वैदिक चिकित्सा पद्धति में , उस समय भी शल्य क्रिया आज से कहीं ज्यादा उन्नत अवस्था में थी। आज का 'Organ Transplant' और Plastic surgery जिसमें सफलता का प्रतिशत संशयात्मक ही बना रहता है , वही वैदिक काल में १०० प्रतिशत सफलता के साथ किया जाता था।
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सुशुत के काल में त्वचा की सात परतों के अध्ययन के लिए लाश को नदी में बाँध दिया जाता था। और गलन प्रक्रिया के बाद बहुत सफाई के साथ त्वचा की सातों परतों का अध्ययन सुलभ होता था। आज के दौर की 'Blood letting' , उस समय सफलतापूर्वक 'जोंक और 'श्रृंग' के माध्यम से होती थी। उस समय भी शल्य क्रिया के बाद stitching होती थी , बस अंतर केवल इतना था की Catgut की जगह काले चींटों का सफलतापूर्वक इस्तेमाल होता था।
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समय के साथ विज्ञान ने जो तरक्की की इस पद्धति ने , उस तरक्की को पश्चिम ने एलोपैथ का नाम देकर उस पर अपनी मुहर लगा दी। और भेंड-चाल जनता ने उसका अंधानुसरण करके अपनी वैदिक चिकित्सा पद्धति 'आयुर्वेद' को उपेक्षित कर दिया । आज बड़े-बड़े चिकित्सा उपकरण विज्ञान की उप्लाधियाँ हैं , एलोपैथ की नहीं । इसको प्रत्येक चिकित्सा पद्धति के साथ जोड़ा जाना चाहिए, किसी एक के साथ नहीं। ताकि विज्ञान के अविष्कारों का लाभ लेते हुए आतुर ( रोगी ) की चिकित्सा की जा सके।
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हमारे वैदिक ग्रंथों में वर्णित 'नीम', 'हल्दी', 'ब्राम्ही' जैसे द्रव्यों को भी ये अपने नाम से पेटेंट करा कर सब पर कब्जा कर लेना चाहते हैं। ज़रुरत है हमें अपनी धरोहर की रक्षा करने की और अपनी चमत्कारिक वैदिक पद्धति में विश्वास करने की।
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चीनी, ग्रीक, रोमन, पर्सियन, इजिप्शियन , अफगानिस्तानी और यूरोपियन भी हमारे देश भारत आये और इस वैदिक पद्धति को सीखा इन्होने। लेकिन अफ़सोस की इन्होने हमारे वैदिक ग्रंथों का अनुवादन करके और थोड़ी हेर-फेर करके इसे आधुनिक पद्धति का नाम दे दिया, और विज्ञान के विकास के साथ जोड़कर खुद को ज्यादा उन्नत बता दिया। भारत में अंग्रेजी शासन ने हमें गुलामी में जकड लिया और हमारे ग्रथों को नष्ट किया गया। उस समय उन्होंने इस चिकित्सा पद्धति की बहुत उपेक्षा की । मुगलों ने इसे अरबी भाषा में अनुवादित करके इसी की सहायता से यूनानी पद्धति को जन्म दिया।
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अतः सभी चिकित्सा पद्धतियों के मूल में हमारी वैदिक चिकित्सा पद्धति 'आयुर्वेद' ही है, लेकिन इसे उपेक्षित और तिरस्कृत किया गया। आजादी के बाद आयुर्वेद ने पुनः अपनी प्रतिष्ठा को वापस प्राप्त किया है , और देश भर में १०० से ज्यादा आयुर्वेदिक विद्यायालाओं में विद्यार्थी उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं।
७० के दशक के बाद से आयुर्वेद की लोकप्रियता विदेशों में बहुत बढ़ी है, वहां से विद्यार्थी इस पद्धति को सीखने निरंतर यहाँ आ रहे हैं, और अपने देश को समृद्ध कर रहे हैं , लेकिन अफ़सोस की हमारे अपने देश में इस वैदिक चिकित्सा पद्धति के प्रति जागरूकता बहुत कम है।
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काहे री नलिनी तू कुम्हलानी, तेरे ही नाल सरोवर पानी...
हमारे पास तो चमत्कारिक धन-सम्पदा है, लेकिन अफ़सोस की हमारे पास 'पारखी नज़रें' नहीं हैं। पश्चिम की अंधी दौड़ ने हमें इस चमत्कारी चिकित्सा-पद्धति (आयुर्वेद) से होने वाले लाभों से वंचित कर रखा है, और मूढ़ जनता अनेक हानिकर प्रभावों वाली पश्चिमी चिकित्सा पद्धति से अपना इलाज करके स्वयं को क्षति पहुंचा रही है।
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Divya (Zeal)

Thursday, January 7, 2016

अंडे की कहानी के माध्यम से मोदी जी को एक सलाह

पहले कहानी पढ़िए , सलाह खुद ही समझ आ जायेगी आपको ! न समझ आये तो नीचे लिखा भी है ! 
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एक अंडा था , सातवें माले पर चढ़ गया और नीचे कूद गया ! फूटा नहीं !---"जाको राखे साईयां मार सके न कोय"
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वो अंडा दुबारा सातवें माले पर गया और छलांग लगा दी ! फूटा नहीं ! ...."Practice makes a man perfect" 
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अंडे को बहुत मज़ा आ रहा था, वो फिर से सातवें माले पर चढ़ गया और नीचे कूद गया ! फुट गया !----" Over confidence "
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तो समझाईश ये है की विवेक से काम लेना चाहिए ! न भाजपा अपनी उदारवादी नीति बदलेगा, न ही पाकिस्तान अपनी ! अतः दो तीन बार यदि किस्मत से सकुशल भारत लौट आये हैं तो सचेत हो जाना चाहिए ! पाकिस्तान पर , उसकी नीतियों पर , उनकी जेहादी प्रवृत्तियों पर ऐतबार नहीं किया जा सकता ! आप खुद को बार-बार संकट में मत डालिये ! मत जाइए पाकिस्तान ! आपको खतरा हो सकता है वहां !
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वन्देमातरम !

Saturday, January 2, 2016

हिंदी कैलेण्डर की तो बरसी मनाते हैं हम भारतीय

हिन्दुस्तान के हर घर और दफ्तर में तारीखें बदल गयीं ! हर फाइल पर एक नया वर्ष अंकित हो चुका ! हर कंप्यूटर, हर मोबाइल और हर घडी में सबकुछ बदलकर २०१६ हो गया , फिर आज के दिन को पिछले वर्ष के साथ कैसे जोड़ा सकता है ! आज जब हम भारतीय, हर क्षेत्र में FDI आदि के माध्यम से विदेशों की गुलामी कर रहे हैं तो फिर अंग्रेजी कैलेण्डर का विरोध क्यों? और केवल आज के दिन ही क्यों? साल के तीन सौ पैसठ दिन तो हम इस्तेमाल इसी कैलंडर को करते हैं, फिर आज के दिन इस कैलेण्डर को इतनी दुत्कार क्यों?
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जब किसी में इतना दम ही नहीं की अपना हिंदी कैलेण्डर, अपने ही हिन्दुस्तान में, प्रचलन में ला सके, तो व्यर्थ अंग्रेजी कैलेण्डर को कोसने से लाभ क्या ? भारत भूमि पर अब कोई माई का लाल पैदा नहीं होगा जो अपनी तिथि, अपनी हिंदी, अपनी परंपरा और अपनी संस्कृति को पुनर्स्थापित कर सके !
हिंदी कैलेण्डर की तो बरसी मनाते हैं हम भारतीय !